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पश्चिमी भारत की यात्रा
जो लॉर्ड मोनबोडो (Lord Monboddo ) ' और डॉक्टर प्लॉट (Dr. Plot ) द्वारा वर्णित जातियों के चिह्नों के समान, बहुत सी पीढियाँ गुजर जाने एवं वंशपरम्परा के भ्रष्ट हो जाने के कारण धीरे-धीरे नष्ट हो गया है, अतः वंशभाट को यह प्रश्न हल करने में कुछ कठिनाई का अनुभव हुआ कि क्या वर्तमान सरदार 'पूंछेड़िया' उपाधि की परिधि से बाहर निकल गया था ? फिर भी उसने दृढ़ता के साथ सम्पुष्ट किया कि केवल चार पीढ़ी पूर्व राव सोनतान (Sonran सुरतान ? ) तक तो वह हड्डी नीचे की ओर अधिक बढ़ी हुई चली आई थी ।
असम्भव और असंगत कालक्रम एवं घटनाओं को छोड़ कर और अपेक्षाकृत बुद्धिवादी मेरे सहायक चारण का सहारा लेकर हमें इन प्रसंस्कृत तिथि-क्रमों को ठीक करने के लिए बुद्धि और साधारण समझ से काम लेने का प्रयत्न करना चाहिए । सकोत्रा से आई हुई मकरों की इस विचित्र जाति की पहली राजधानी उस जगह स्थापित हुई जहां मकरध्वज भूमि पर उतरा था और उसका नाम 'श्रीनगर' रखा गया तथा वहाँ के राजा इन्द्रजीत के समय तक 'ध्वज' ( अर्थात् पताका) नामान्त हुए। उसके पुत्र शील ने अपनी जाति और राजधानी दोनों ही के नाम बदल दिए। उसने गूमली बसाया और प्रत्यक्ष ही उच्चारण-साम्य के आधार पर 'मकर' के स्थान पर 'कमर' [ कुमार ] नाम ग्रहण कर लिया । शीलकुंवर गंगाजी की यात्रा करने गया और उसे दिल्ली के राजा अनंगपाल की पुत्री का पाणिग्रहण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । यदि हम जेठवों के पुरालेखों में विश्वास करें ( क्योंकि वे वंश-परम्परागत वृत्तों से सम्पुष्ट हैं) तो हमें गूमली की स्थापना का समय अनायास ही मिल जाता है, क्योंकि अनंगपाल दिल्ली को चमकाने वाला राजा हुआ है और उसका समय वि० सं० ७४९ अथवा ६९३ ई० माना गया है । इतनी पुरातनता से किसी भी जेठवा का संतोष हो जाना चाहिए और गूमली पर एक बार दृष्टिपात करने से भी इस तथ्य की सम्पुष्टि हो जायगी । समय-समय पर मध्य एशिया से आकर इन प्रदेशों में बस जाने वाली जातियों के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है इसलिए सकोत्रा से उत्पत्ति होने के विवाद में न पड़ कर हम इतना ही कहेंगे कि कुँवर ( Canvar ) की जाति उच्चतर एशिया में उल्लेखनीय रही है; और यह भी असम्भव नहीं है कि वानर देवता की कहानी उनके 'बर्बर' मूल को छुपाने के लिए ही गढ़ी गई है । जेठवों के वैवाहिक सम्बन्ध बहुत पीढ़ियों से जूनागढ़ के
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देखिए पृ० ३०
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