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पश्चिमी भारत की यात्रा अथवा जीत थे; बुध उनका वृद्धगुरु अथवा नेता और पैगम्बर था और दिल्ली, प्राग और गिरनार-स्थित विजय-स्तम्भों पर खुदे हुए रहस्यपूर्ण अक्षर उसी जाति से सम्बद्ध हैं।
बुद्ध के धर्म के साथ यद, यति या जीत वंश का दृढ़ सम्बन्ध जोड़ते समय प्रमाण के लिए यह बात याद रखनी चाहिए कि बाईसवें बुध या तीर्थंकर नेमि भी यदु थे और कृष्ण के ही वंश के थे अर्थात् वे दो भाइयों की सन्तान थे; और यह भी निश्चित है कि देवत्व प्राप्त करने से पूर्व स्वयं कृष्ण भी द्वारका में बुद्धत्रिविक्रम को पूजते थे, अतः स्पष्ट है कि यह पूजन-क्रम वंश-परम्परागत ही था। बुद्ध की गद्दी उन दिनों में अवश्य ही राजवंश में से निर्वाचन द्वारा भरी जाती थी और अब भी 'श्री पूज्य' अथवा प्रधान का चुनाव प्रोसवाल जाति में से ही होता है, जो अणहिलवाड़ा के राजाओं के वंशज हैं । यह अवश्य है कि इन लोगों ने व्यापार को अपना कर असि-कर्म का त्याग कर दिया था। मैं यह उल्लेख 'गिरनार के गौरव' नेमि के निर्वाचन के सम्बन्ध में कर रहा हूँ; आगे भी मैं एक ऐसी परम्परा बताऊँगा, जो अब भी जैनों में प्रचलित है और जो इस बात का प्रमाण उपस्थित करती है कि इन दोनों मतों का पृथक्करण कैसे हुआ और बन्द मन्दिर बनाने में 'बौद्धिक' [बौद्ध] उत्सव-प्रणाली का विसर्जन किस प्रकार किया गया ? एडोनिस' की भाँति कृष्ण-पूजा भी मुख्यतः सर्व-प्रथम भारतीय मेले में ही ग्रहण की गई थी और उसी अवसर पर सब लोग बुद्ध की उपेक्षा करते हुए गोपालदेवता के मन्दिर की ओर दौड़ गए थे। उसी समय बुद्ध के प्राचार्य ने 'दीवारों से घिरे' देवता का पूजन न करने के महान् सिद्धान्त का अतिक्रमण किया और लोगों के मेले को अपने देवता और धर्म की ओर पुनः आकृष्ट करने के लिए नेमिनाथ की मूर्ति मंदिर में प्रतिष्ठित की गई। यद्यपि पूर्व-काल की परम्पराओं और वर्तमान के प्रत्यक्ष ज्ञान से हमें यह सन्तोष हो जाता है कि सब देवों की एकता ही उनके धर्म का मुख्य सिद्धान्त है, परन्तु हम यह भी देखते हैं कि अन्य प्राचीन जातियों के समान उनकी पूजा-पद्धति में आकाशीय ग्रह-गण भी सम्मिलित हो गए थे-यथा सूर्य और उसका प्रतीक अश्व, जिसकी वे प्राचीन यूची अथवा जीत लोगों के समान वार्षिक बलि चढ़ाया करते थे। हैरोडोटस का कहना है कि ये जीत लोग आत्मा की अमरता में विश्वास करते थे। इस विषय
१ एडोनिस (Adonis), ग्रीक देवता. इतना सुन्दर था कि स्वयं सौन्दर्य की देवी एफोडाइट
(Aphrodite) भी उस पर मुग्ध हो गई। बाद में, उसी देवी के कहने से एक वराह ने उसका वध कर दिया था। N. S. E., p. 14.
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