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पश्चिमी भारत की यात्रा अपने आपको 'त्रीकमराय' के बाल-बच्चे मानते हैं । द्वारका अथवा आरामरा के [दस्युओं का डेल्टा-निवासी समान-व्यावसायिक बन्धुनों से कभी मेल-जोल था या नहीं, इस विषय में कुछ कल्पना नहीं की जा सकती परन्तु, यह स्पष्ट है कि इन दोनों में धर्म और लूट के विषय में एक ही समान सिद्धान्त सक्रिय थे। ये लुटेरे अपने शिकार की तलाश में निकलते समय इष्टदेवता को प्रसन्न किए बिना या उत्कोच चढ़ाए बिना जहाज नहीं खोलते थे और न अपनी लूट में से बुध देवता को भेट चढ़ाए बिना वापस लौटते थे। दिन में सात बार शिकार करने वाले पिण्डारियों की तरह ये भारत के लुटेरे अथवा 'अंगूठियों के डाकू' भी अपने इस संकटपूर्ण व्यवसाय को पवित्र और सम्माननीय समझते थे; मानव-मस्तिष्क का भी अपनी ही विकृतियों के प्रति कैसा लगाव है ! यह कहना कठिन है कि सिन्धु के सांगारियनों (Sangarians) अथवा सौराष्ट्र के सौरों ने कभी गहरे समुद्र को पार कर के दूर देशों में जाने का साहस किया या नहीं, परन्तु सिन्धु से अरब तक का समुद्री किनारा इतने हिन्दू देवी-देवताओं और वीरों के नामों से चिह्नित है कि इसका उनसे सर्वथा अपरिचित होने का प्रश्न उपस्थित नहीं होता । समुद्री लुटेरों का अन्तिम जहाज, जिसको [भूमि के] ऊपर लाकर सूखे में रख दिया गया था, एक बड़ा अच्छा और प्रभावोत्पादक जलपोत था, जिसका पिछला भाग बहुत ऊँचा और अगला भाग 'व्याख्याता के मञ्च' जैसा आगे निकला हुआ था।
परन्तु, यहाँ मेरे अच्छे जहाज का टंडेल (tandcal) घाट पर पा लगा है, जिसके पूरे मस्तूल व्यवस्थित हैं और वह मुझे 'कांठी कालपस' अथवा कच्छ की खाड़ी के उस पार ले जाने को तैयार खड़ा है, जो संयोग से सिकन्दर के सांगदा[ड़ा] Sangada का प्राचीन अड्डा रहा है ।
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