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________________ प्रत्यकर्ता-विषयक संस्मरण [ ३५ अन्तिम से पूर्व शोध-पत्र में वर्णित स्वर्णमुद्रिका मान्ट्रोस के पास पहाड़ी दुर्ग की खुदाई में प्राप्त हुई थी; इसको दून (Dun) की कुमारी अस्किन (Erskih) ने खरीद ली थी क्योंकि उसमें प्रदर्शित शस्त्रधारी (दो ग्रिफिन) उसके वंश के माने गए थे; बाद में यह मुद्रिका उस वंश की प्राचीन निशानी के रूप में मानी जाने लगी थी। जब कॉसिलिस (Cassilis) की काउण्टेस (ठकुरानी)ने वह मुद्रिका कर्नल फिज़क्लारेन्स (Fitzclarence) को दिखाई जो अब मुन्सटर के अर्ल ( Earl of Munster ) हैं तो वे तुरन्त ही इसके हिन्दू लक्षणों को पहचान गए और उन्होंने लेडी कॉसिली की अनुमति से इसको कर्नल टॉड के पास भेज कर "ऐसे उपेक्षित क्षेत्र में उपलब्ध इस प्रकार के असाधारण पुरावशेष की उपलब्धि पर अपने भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व के विस्तृत ज्ञान के आधार पर" सोसाइटी को पालोचनात्मक विचार देने के लिए प्रार्थना की। कर्नल टॉड ने बताया है कि वह रहस्यमय मुद्रिका का यन्त्र (ताबीज) सूर्य वेथा बालनाथ का प्रतीक है जो दो वृषभों पर आधारित है और उसक चारों ओर एक सर्प रक्षा के लिए माला की तरह लिपटा हुआ है अथवा यह सृष्टिविधायिका प्रकृति का रूप है जो लिङ्गम् और योनि के एकत्र प्रतीक के द्वारा दिखाया गया है-"संक्षेप में, यह उस आदिकालीन आराधना का प्रतीक है जोः प्राचीनतम जातियों में प्रचलित थी।" उसके विचार से यह किसी पवित्र श्रद्धालु की अंगूठी थी जो अपनी इस पूजनीय वस्तु से कभी वियुक्त होना नहीं चाहता था और निरन्तर एक ताबीज की तरह अंगूठे में पहने रहता होगा। उस ने अपनी प्रेरणादायिनी उदार भावना एवं वदान्यता के कारण अपने अन्वेषणों और लेखों को स्वदेशीय वैज्ञानिक संस्थाओं में ही कोष्ठबद्ध नहीं होने दिया अपितु विश्व-सौहार्द की भावना से अपनी सम्पूर्ण जानकारी को सौरभ के समान विश्व भर में फैला दिया। सन् १८२७ ई० में अपने विवाह से छ: सप्ताह बाद जब वह मिलान (Milan) में था तो, छाती की सूजन के परिणाम से उत्पन्न हुए दुखदायी दमा रोग से पीड़ित अवस्था में भी, जब कि उसमें लिखने के लिए शक्ति और लेखापन के लिए वाणी प्रायः क्षीण हो चुकी थी, उसने पूर्ण परिश्रम कर के (पास में पुस्तकें और सन्दर्भ ग्रन्थों के उपलब्ध न होते हुए भी) एक · शोध-पत्र तैयार किया और पैरिस की 'एशियाटिक सोसाइटी' में भेजा, जो उनकी पत्रिका में "De L'Origine Asiatique de quelques, unes des Anciennes Tribus de l'Europe, establies sur les Rivages de la Mer Baltique, Surtout les Su, Suedi, Suiches, Asi, Yeuts, Jats, ou GetesGoths &c." शीर्षक के अन्तर्गत प्रकाशित हुआ । १८२८ ई० में उसने उसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003433
Book TitlePaschimi Bharat ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJames Taud, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Puratan Granthmala
Publication Year1996
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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