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प्रकरण - ११; पाटण का ग्रन्थ-भण्डार
[२४६ विवरण प्राप्त हो सकता है, आतुरता से प्रतीक्षा करने लगा। परन्तु, खेद है कि प्रतिलिपिकर्तामों ने, भूल से अथवा प्रार्थना-पत्र लिखने में असावधानी होने के कारण, कुमारपालचरित्र की नकल कर दी जिसकी दो प्रतियाँ मेरे पास पहले ही से मौजूद थीं। इस भूल का तत्काल सुधार होना सम्भव नहीं था । भविष्य में अन्वेषण के लिए अधिक महत्वपूर्ण विषय तो स्वयं सूची-पत्र की प्रति ही हो सकती है क्योंकि ग्रन्थों के नामों में और विषयों में, चाहे वे आस्तिक पंथ के हों अथवा नास्तिक पंथ के, अधिक समानता नहीं होती, परन्तु, ऐतिहासिक कृतियों, रासों, चरित्रों, स्तिपासा (Stipasa), [स्तुतिपाठ ?] माहात्म्य आदि के विषय में ऐसी बात नहीं है। लोगों को परिश्रम के लिए प्रोत्साहित करने के निमित्त में एक बात फिर कह दूं, जो साधारणतया बार बार नहीं कही जा सकती, कि मैंने जैसलमेर से कागज़ और ताड़पत्र की कितनी ही प्रतियां प्राप्त करली थीं; ताड़पत्र की प्रतियां तो तीन, पांच और पाठ शताब्दियों तक पुरानी हैं, जो रायल एशियाटिक सोसाइटी' के पुस्तकालय की पालमारियों में अछेड़ पड़ी हुईं अब भी शोभा बढ़ा रही हैं । इनमें सबसे पुरानी प्रतियां व्याकरण विषय की हैं और हमारे बुद्धिमान् लोग (साथी) समझते हैं कि वे इस विषय में बहुत जानते हैं । परन्तु, क्या इन इतनी पुरानी कृतियों का परीक्षण करना इसलिए भी समीचोन न होगा कि उस परीक्षण से किसी जिज्ञासु को यही प्रकट हो जाए कि उनमें कोई नई बात नहीं है ? अब, इस विषय में पर्याप्त लिखा जा चुका है अथवा भारतीय विराम-पद्धति की वाक्यावलि में 'अलमिति विस्तरेण ।
१ इनमें से 'हरिवंश' की एक प्रति का अनुवाद पैरिस के एक पुरातत्वविद् कर रहे हैं । यदि
वे ही विद्वान् 'पाबू-माहात्म्य' को भी ले लें तो धार्मिक क्रिया-कर्म-पद्धति के वर्णन से ऊबने पर उनका मन बहलाने के लिए प्रकृति और मानव का मिला-जुला इतिहास भी पर्याप्त मात्रा में उन्हें मिल
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