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प्रकरण - १६; सोमनाथ का मन्दिर
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मध्य अपने ग्रहपथ को छोड़ कर भारत महासागर के इस रेतीले किनारे पर उष्ण कटिबन्ध में खिंचा चला प्राया था; यद्यपि यह जो कुछ पहले था उसका छिलका मात्र रह गया है, इसका शिखर उतर जाने से मन्दिर नंगा हो गया है। और उस शिखर के टुकड़े-टुकड़े जमीन पर बिखरे पड़े हैं, ऊपर की रचना से यह हीन हो गया है और किसी समय की सम्पूर्ण इमारत का प्राधार मात्र बच कर रह गया है, परन्तु, फिर भी इसके खण्डहरों से हम इसकी पूर्व दशों का अनुमान तो लगा हो सकते हैं । जो कुछ बच रहा है वह उस प्रतिसाहस और उत्साह का परिणाम है, जिसने परिवर्तन के अभाव में मुसलमानों की इस विजय को अपूर्ण ही रख दिया था; जिसने मन्दिर को मसजिद में और सूर्य देव की पीठिका को मुल्ला के धर्मासन में परिवर्तित कर दिया था, जहां से वह अब भी रक्तपात की दुर्गन्ध फैलाता हुआ अपने विजय- गीत 'ला इल्लाह मोहम्मद रसूल अल्लाह' (परमात्मा एक है और मोहम्मद उसका पैगम्बर है) की बांग लगाता है । परन्तु, बाहर की ओर परिवर्तन का दूसरा चिह्न भी मौजूद है, वह है मन्दिर के प्रवेश-द्वार पर कलशदार मीनारें, जो मुसलिम शिल्पी की कारीगरी हैं और जहां से मुहम्मद का मुअज्जिम अपने सहधर्मी सिपाहियों को काफिरों पर विजय प्राप्त करके खुदा और उसके पैगम्बर की शान बढ़ाने के लिए ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला कर उत्साहित करता था। क्या हम विश्वास करें कि वास्तविक सुरुचि और उदार भावना के किंचित् भी अंश से प्रेरित होकर उसने प्राचीन समय के इस टूटे-फूटे अवशेष को बचा लिया था ? हम धर्म के नाम पर की हुई बर्बरतान पर शौर्य का पर्दा डालने का प्रयत्न करते हैं और इस कारण हुई हानि के विविध रूपों को वीरता की संज्ञा देते हैं, इस अर्थ में महमूद का बारहवाँ प्राक्रमण सब से दुर्धर्ष और अपूर्व अभियान माना जा सकता है, जिसमें पवित्रता अथवा धार्मिकता के चोगे से ढकी हुई उसकी महत्वाकांक्षा अतीव प्रबल हो उठी थी ।
'पॅरोश' (Parosh) अथवा 'अपरसिन' (Aparasin ) पर्वत ही ग्रीकों का पॅरोपॅमी सॉस है । स्थानीय बोली में 'पर' अथवा 'परुत' शब्द पर्वत के लिए प्रयुक्त होता है । प्रवेस्ता में भी इसके लिए 'पुरीत' शब्द आया है । सेन्ट मार्टिन ने माना है कि यह 'परु' और 'निषध' का संयुक्त रूप है - परन्तु न जाने इन दोनों के बीच में एक 'प' का श्रागम कैसे हो गया ? अरस्तू ने इसका नाम 'परॅनॅस्सॉस ' ( Paranassos ) लिखा है । वही पहला ग्रीक लेखक था जिसने इस पर्वत श्रेणी का उल्लेख किया । श्राजकल इस श्रेणी का पूर्वीय भाग 'हिन्दूकुश' और पश्चिमी भाग 'पॅरॉपॅमीसस' नाम से जाने जाते हैं ।
Ancient India as described by Arrian-Mc Crindle; p. 189.
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