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________________ पश्चिमी भारत की यात्रा स्थान में अपनी पकड़ मजबूत बन ली, जो आपसी संघर्ष, लूटपाट और प्रान्तरिक झगड़ों के कारण तब तक बरबादी का रंगमंच बना रहा जब तक कि पिंडारीमरहठा युद्ध के बाद १८१७-१८ ई० में बृटिश सरकार के साथ रियासतों की सन्धियां सम्पन्न न हो गईं। प्राधी शताब्दी से कुछ अधिक समय तक इस टिड्डोदल द्वारा किए गए विनाश का वर्णन बड़ी ही भावपूर्ण एवं चमत्कारिक भाषा में 'राजस्थान का इतिहास में किया गया है। सहायता और सहयोग के बहाने भूमि-ग्रहण से १७७० से १७७५ ई० तक और नोंच-खसोट कर प्राप्त किए हुए धन से उनको लिप्सा की तप्ति १७६२ ई० तक होती रही। उस समय राजपूताना के प्रान्तरिक संघर्ष महादाजी सिन्धिया को चित्तौड़ में ले आए और, कहते हैं कि, उसके नायब अम्बाजी ने अकेले मेवाड़ से बीस लाख सिक्के वसूल किए और इस प्रदेश की स्थिति उसके सहायकों की कृपा पर निर्भर हो गई। हुल्कर और सिन्धिया की प्रतिस्पर्धी सेनाओं को इस अभिलषित भूमि में छापे मार कर पीन हीने की खुली छूट मिली हुई थी और कभी-कभी पराजय का सामना होने पर उनकी द्वेषाग्नि भभक उठती थी तथा निर्बाध छूट के कारण उनकी भूख और भी बढ़ जाती थी; ऐसी दशा में वे राजपूताना को एक के बादएक करके रौंदे डाल रहे थे और यह देश द्रुत गति से जंगल के रूप में बदल रहा था। कर्नल टॉड कहते हैं '(१८०५ ई० के) बाद के दश वर्षों तक जिस भय और आतङ्क का राज्य यहाँ पर रहा और ग्रन्थकर्ता जिसका प्रत्यक्षदर्शी रहा है उसका चित्रण करने के लिए साल्वेटर रोज़ा की पेंसिल के सदृश सुदृढ़ लेखनी की आवश्यकता होगी; और उस आतङ्क का परिणाम मरहठा छावनियों के पीछे-पीछे लूटमार के तांतों और उन मध्यभारतीय रियासतों की बरबादी एवं राजनीतिक नगण्यणा के रूप में निश्चित था, जिन्होंने अंग्रेजों को राज्य-संस्थापन के प्रारम्भिक संघर्षों में सहायता दो थी और उन्हीं को अब [ अंग्रेजों द्वारा] निस्सहाय अवस्था में नष्ट होने के लिए भाग्य के भरोसे छोड़ दिया गया था।___ "१८०६ ई० के वसंत में जब राजदूत-वर्ग ने एकदा उर्वर मेवाड़ में प्रवेश किया तो विनाश के अतिरिक्त कुछ भी देखने को न मिला-उजड़े कसबे, टूटी छतों के मकान और पड़त खेत । जहाँ कहीं भी मरहठों का डेरा लगता वहाँ की बरबादी निश्चित थी-यह एक आम रिवाज बन गया था; किसी भी खुशहाल और हरे-भरे स्थल को उजाड़ जंगल की शकल देने के लिए सिर्फ चौबीस घण्टे काफी होते थे। इस विध्वंसकारी दल के प्रस्थान के मार्ग का पता हमेशा कई दिनों तक जलते हुए घरों और बरबाद खेतों से लगाया जाता था।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003433
Book TitlePaschimi Bharat ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJames Taud, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Puratan Granthmala
Publication Year1996
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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