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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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CAR
SISWA
+गवान आ कुन्द कुन्द-कहान जैन शाखमाला पुष्प नं० ६५
श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवाय नमः
भगवान् श्री उमास्वामी आचार्य विरचित मोक्षशास्त्र अर्थात् तत्वार्थ सूत्र
(सटीक)
टीका संग्राहकःरामजी माणेकचंद दोशी
(एडवोकेट)
हिन्दी अनुवादकःश्री पं० परमेष्ठीदासजी न्यायतीर्थ
ललितपुर (झांसी)
प्रकाशक
श्री दि० जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट
सोनगढ़ ( सौराष्ट्र)
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LAKSAESE
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तीसरी आवृत्ति
११०० वीर नि० सं० २४८६
मूल्य ५) रुपये
मुद्रक्रःनेमीचन्द नाकलीवाल
कमल प्रिन्टर्स मदनगंन (किशनगद)
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समर्पण अध्यात्ममूर्ति पूज्य श्री कानजी स्वामी को
+PUT
जिन्होंने म पामर पर पार उपार किया है, जो स्वयं मोजमार्गमें विपर है और अपनी दिव्य गुनधारा सारा भरतभूमि के जीवों को सतत ₹ मोजमार्ग दी रहे हैं जिनकी पवित्र याणी गे मोजमार्ग के मूलरूप कल्याणमृति सम्यग्दर्शन का माहात्म्य निरतर चरम रहा है, और जिनकी परम
रा द्वारा यह प्रन्य तैयार हुआ हे ऐसे कल्याणमूर्ति सम्यरदर्शनका स्वरूप समझाने वाले परमोपकारी गुरदेवश्री को यह अन्य अत्यन्त भक्ति भाव पूर्वक
समर्पण करना
-दासानुदास 'रामजी'
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अनुवादक की ओर से
इस युग के परम आध्यात्मिक सत पुरुष श्री कानजी स्वामी से जैन समाज का बहुभाग परिचित हो चुका है। अल्प काल में ही उनके द्वारा जो सत् साहित्य सेवा, आध्यात्मिकता का प्रचार और सद्भावोंका प्रसार हुआ है, वह गत् सौ वर्षों में भी शायद किसी अन्य जैन सन्त पुरुप मे हुश्रा हो।
मुझे श्री कानजी स्वामी के निकट बैठकर कई बार उनके प्रवचन सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। वे 'आध्यात्मिक' और निश्चय व्यवहार जैसे शुष्क विषयों में भी ऐसी सरसता उत्पन्न कर देते हैं कि श्रोतागण घंटों क्या, महीनों तक निरन्तर उनके त्रिकाल प्रवचन सुनते रहते हैं। साथ ही श्रोताओंकी जिज्ञासात्मक रुचि बराबर बनी रहती है।
उनके निकट बैठकर अनेक महानुभावों ने जान-लाभ लिया है, और समयसार, प्रवचनसार आदि कई ग्रन्थों का गुजराती अनुवाद किया है, जिनका राष्ट्र भाषानुवाद करने का सौभाग्य मुझे मिलता रहा है।
गुजराती पाठकों में वह टीकाशास्त्र अत्यधिक लोकप्रिय सिद्ध हुआ है। मैंने स्वयं भी पर्युषण पर्व में 'ललितपुर' की जैन समाजके समक्ष उसी गुजराती भाष्यको २-३ बार हिन्दीमें पढकर विवेचन किया है, जो समाज को बहुत ही रुचिकर प्रतीत हुआ है ।
__ उसी भाष्य ग्रन्थका राष्ट्रभाषा हिन्दीमें अनुवाद करनेका मौभाग्य भी मुझे ही प्राप्त हुआ है, जो आपके करकमलोंमें प्रस्तुत है। मेरा विश्वास है कि सामान्य हिन्दी पाठक भी इस 'तत्त्वार्थ-विवेचन' का पठन-मनन करके तत्स्वार्थका रहस्यज्ञ बन सकता है। हिन्दी जगतमें इस प्रन्थका अधिकाधिक प्रचार होना चाहिये।
जैनेन्द्र प्रेस, ललितपुर
२५-७-५४
-परमेष्ठीदास जैन
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दाशब्द
आज इस चिर-प्रतीक्षित अन्थराज श्री "मोक्षशास्त्र" पर आध्यात्मिक दृष्टिसे की गई विस्तृत भाष्य समान टीकाको प्रकाशित होते देखकर हृदय बहुत आनन्दित हो रहा है। हमारे यहाँ दिगम्बर समाजमें इस ग्रन्थराजकी बहुत ही उत्कृष्ट महिमा है, सर्वदा पयूषण पर्वमें सर्व स्थानों में दस दिवसमें इसी ग्रन्थराजके दस अध्यायका अर्थ सहित वॉचन करनेकी पद्धति निरन्तर प्रचलित है तथा बहुत से खी पुरुषों को ऐसा नियम होता है कि नित्य प्रति इसका पूरा स्वाध्याय जरूर करना, इस प्रकार की पद्धति जो कि अभी रूढ़िमात्र ही रह गई है, अर्थ एवं भाव पर लक्ष्य किये बिना मात्र स्वाध्याय कल्याणकारी कदापि नहीं बन सकती, कदाचित् कषाय मंद करे तो किंचित् पुण्य हो सकता है लेकिन मोक्षमार्गमें सम्यकहित पुण्य का क्या मूल्य है, लेकिन यहाँ पर तो इतना ही समझना है कि समाजमें अभी भी इस ग्रन्थराजका कितना आदर है, इसकी और अनेक महान २ दिग्गज आचार्य श्रीमद् उमास्वामी आचार्यके बाद हुये जिन्होंने इस ग्रन्थराज मोक्षशास्त्र पर अनेक विस्तृत टीकायें श्री सर्वार्थसिद्धि, श्रीराजवार्तिक, श्री श्लोकवार्तिक श्रादि
और हिन्दी भाषामें भी अर्थ प्रकाशिका आदि अनेक विस्तृत टीकायें रची जितनी बड़ी २ टीकाएं इस प्रन्थराज पर मिलती हैं उतनी अन्य किसी प्रन्थ पर नहीं मिलतीं, ऐसे ग्रन्थराज पर अध्यात्मरसरोचक हमारे श्री माननीय भाई श्री रामजीभाई माणेकचन्दजी दोशी एडवोकेट संपादक आत्म धर्म एवं प्रमुख श्री जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट सोनगढ़ ने आध्यात्मिक दृष्टिकोण सहित से एक विस्तृत भाष्यरूप टीका गुजरातीमें तैयार की जिसमें अनेक अनेक प्रन्थोंमें इस विषय पर क्या कहा गया है उन सबके अक्षरशः उद्धरण साथ देने से यह टीका बहुत ही सुन्दर एवं उपयोगी बनगई, यह टीका गुजरातीमें वीर संवत् २४७३ के फागुन सुदी १ को १००० प्रति प्रकाशित हुई लेकिन सर्व समाजको यह टीका इतनी अधिक पसंद आई कि
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सिर्फ ६ मासमें सर्व १००० प्रति पूर्ण होगई और मांग बराबर आती रहनेके कारण वीर सं० २४७५ मिती आषाढ़ सुदी २ को दूसरी आवृत्ति प्रति १००० की प्रकाशित करनी पड़ी ऐसे सुन्दर प्रकाशनको देखकर मेरी यह तीव्र भावना हुई कि अगर यह विस्तृत संकलन हिन्दी भाषामें अनुवाद होकर प्रकाशित हो तो हिन्दी भाषी एवं भारत भर के मुमुक्षु भाइयोंको इसका महान लाभ मिले अतः मैंने अपनी भावना श्री माननीय रामजी भाई को व्यक्त की लेकिन कुछ समय तक इस पर विचार होता रहा कि हिन्दी भापी समाज बड़े बड़े उपयोगी ग्रन्थों को भी खरीदने में संकोच करती है अतः बड़े ग्रन्थों के प्रकाशन में बड़ी रकम अटक जाने से दूसरे प्रकाशन रुक जाते हैं आदि आदि, यह बात सत्य भी है कारण हमारे यहाँ शास्त्रोंको सिर्फ मन्दिर में ही रखने की पद्धति है जो कि ठीक नहीं है, जिस प्रकार हरएक व्यक्ति व्यक्तिगतरूप से अलग अलग अपने अपने आभूपण रखना चाहता है चाहे वह उनको कभी कभी ही पहनता हो उसीप्रकार हरएक व्यक्ति को जिसके मोक्षमार्ग प्राप्त करने की अभिलाषा है उसको तो मोक्षमार्ग प्राप्त कराने के साधनभूत सत्शास्त्र आभूषणसे भी ज्यादा व्यक्तिगतरूपसे अलग २ रखनेकी आवश्यकता अनुभव होनी चाहिये, यही कारण है कि जिससे बड़े २ उपयोगी ग्रन्थोंका प्रकाशन कार्य समाजमें कम होता जारहा है, लेकिन जब अनेक स्थानोंसे इस मोक्षमार्गको हिन्दी भाषामें प्रकाशन कराने की मांग आने लगी तो अंतमें इसको हिन्दी भाषामें अनुवाद कराकर प्रकाशन करानेका निर्णय हुवा । फलतः यह प्रन्थराज सभाष्य आपको आज मिल रहा है, आशा है सर्व मुमुक्षुगण इससे पूरा पूरा लाभ उठावेंगे।
इस टीकाके लिखने वाले व संग्राहक श्री माननीय रामजीभाई ने इसको तैयार करने में अत्यन्त असाधारण परिश्रम किया है, तथा अपने गम्भीर शास्त्राभ्यासका इसमें दोहन किया है, जब इस टीकाके तैयार करने का कार्य चलता था तब तो हमेशा प्रातःकाल ४ बजे से भी पहले उठकर लिखने को चैठ नाते थे। उनकी उम्र ७२ वर्ष के आसपास होने पर भी उनकी कार्य शक्ति बहुत ही आश्चर्यजनक है ! उन्होंने सं० २००२ के मंगसर
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सुदी १० से वकालत बद करके निवृत्ति ले ली है, और तभी से वे करीब २ अपने सम्पूर्ण समय सोनगढ़ में ही रहते हैं, उनमें सूक्ष्म न्यायों को भी ग्रहण करने की शक्ति, विशालबुद्धि, उदारता और इस संस्था ( श्री दि० जैन स्वाध्याय मंदिर सोनगढ़ ) के प्रति अत्यन्त प्रेम आदिकी प्रशंसा पूज्य महाराज श्री के मुखसे भी अनेक बार मुमुक्षुओंने सुनी है ।
जो भी मुमुक्षु इस प्रन्थका स्वाध्याय करेंगे उनपर इस प्रकार श्रीयुत् रामजीभाई के प्रखर पांडित्य एवं कठिन श्रमकी छाप पड़े बिना नहीं रह सकती अतः श्री रामजी भाई का समाज पर बहुत उपकार है कि जिन्होंने इस ग्रन्थराजका विषय अनेक ग्रन्थोंमें कहा किस प्रकार आया है। और उसका अभिप्राय क्या है यह सब संकलन करके एक ही जगह इकट्ठा करके हमको दे दिया है ।
सबसे महान् उपकार तो हम सबके ऊपर परम पूज्य अध्यात्ममूर्ति श्री कानजी स्वामी का है कि जिनकी अमृतवाणीको रुचिपूर्वक श्रवण करने मात्रसे अपने आपको पहिचानने का मार्ग मुमुक्षुको प्राप्त होता है, और जिनकी अध्यात्म सरिताका अमृतमय जलपान करके श्री रामजी भाई एवं श्री पडित हिम्मतलाल जेठालाल शाह जिन्होंने समयसार प्रवचनसार नियमसारकी सुन्दर टीका बनाई ऐसे २ नर रत्न प्रगट हुये हैं । मेरे ऊपर तो परम पूज्य परम उपकारी श्री गुरुदेव कानजी स्वामीका महान् २ उपकार है कि जिनके द्वारा अनेक भवोंमें नहीं प्राप्त किया ऐसा मोक्षमार्गका उपाय साक्षात् प्राप्त हुवा है और भविष्यके लिये यही आन्तरिक भावना है कि पूर्ण पदकी प्राप्ति होने तक आपका उपदेश मेरे हृदय में निरन्तर जयवन्त रहो ।
- नेमीचन्द पाटनी
श्रावण शुक्ला २ वीर नि० सं० २४८०
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आज हमें इस ग्रन्थराजकी हिंदी में द्वितीयावृत्ति प्रस्तुत करते हुवे बहुत ही आनन्द हो रहा है । तत्त्ररसिक समाजने इस ग्रन्थराजको इतना ज्यादा अपनाया कि प्रथम आवृत्ति की १००० प्रति ६ महिने में ही सम्पूर्ण हो गई, उस पर भी समाजकी बहुत ज्यादा मांग बनी रही लेकिन कई कारणों से तथा पूज्य कानजी स्वामीजीके संघसहित तीर्थराज श्री सम्मेद शिखर की यात्रा जाने के कारण यह दूसरी आवृत्ति इतनी देरी से प्रकाशित हो सकीं है, इस आवृत्ति में कुछ आवश्यक संशोधन भी किये गये हैं तथा नवीन उद्धरण आदि भी और बढाये गये हैं तथा अशुद्धियाँ भी बहुत ही कम रह गई हैं। इस प्रकार दूसरी आवृत्ति पहली आवृत्ति से भी विशेषता रखती है अतः तत्र रुचिक समाजसे निवेदन है कि इस ग्रन्थको भले प्रकार अध्ययन करके तत्त्वज्ञान की प्राप्ति पूर्वक आत्मलाभ करके जीवन सफल करें ।
- नेमीचन्द पाटनी
अपाढ वदी १ वीर नि० सं० २४८४
५
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जैन शास्त्रोंकी कथन पद्धति समझकर तत्त्वार्थों की सच्ची श्रद्धा-करने को रीति
(मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ३६६ से ३७३)
"व्यवहारनयका श्रद्धान छोड़ि निश्चयनयका श्रद्धान करना योग्य है।" "व्यवहारनय-स्व-द्रव्य परद्रव्यको वा तिनके भावनिको वा कारण कार्यादिकको काहूको काहविर्षे मिलाय निरूपण कर है। सो ऐसे ही श्रद्धानतें मिथ्यात्व है। तातै याका त्याग करना । बहुरि निश्चयनय तिनही को यथावत् निरूप है, काहूको काहूविष न मिला है। ऐसे ही श्रद्धानले सम्यक्त हो है। ताते याका श्रद्धान करना । यहाँ प्रश्न-जो ऐसे है, तो जिनमार्ग विष-दोऊ नयनिका ग्रहण करना कहा है, सो कैसे !
ताका समाधान-जिनमार्ग विषे कही तो निश्चयनयकी मुख्यता लिए व्याख्यान है ताकी तो 'सत्यार्थ ऐसे ही है' ऐसा जानना । बहुरि कही व्यवहारनयकी मुख्यता लिए व्याख्यान है, ताको 'ऐसे है नाही निमित्तादि अपेक्षा उपचार किया है' ऐसा जानना । इसप्रकार जाननेका नाम ही दोऊ नयनिका ग्रहण है । बहुरि दोऊ नयनिके व्याख्यानकौं समान सत्यार्थ जानि ऐसे भी है ऐसे भी है, ऐसा भ्रमरूप प्रवर्चनेकरि तो दोऊ नयनिका ग्रहण करना कह्या है नाहीं।
बहुरि प्रश्न-जो व्यवहारनय असत्यार्थ है, तो ताका उपदेश जिनमार्ग विर्षे काहे को दिया-एक निश्चयनय ही का निरूपरण करना था ? ताका समाधान-ऐसा ही तर्क समयसार गा० ८ विष किया है। तहाँ यह उत्तर दिया है-याका अर्थ-जैसे अनार्य जो म्लेच्छ सो ताहि म्लेच्छभाषा बिना अर्थ ग्रहण करावनेको समर्थ न हूजे । तैसे व्यवहार विना परमार्थका उपदेश अशक्य है । तातै व्यवहारका उपदेश है। बहुरि इसहो सूत्रकी व्याख्याविषै ऐसा कह्या है-'व्यवहारनयो नानुसतव्यः' । याका मर्थ-यहु निश्चयके अंगीकार करावने को व्यवहारकरि उपदेश दीजिए
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है । बहुरि व्यवहारनय है, सो अंगीकार करने योग्य नाहीं।
यहाँ प्रश्न-व्यवहार विना निश्चयका कैसे न होय । बहुरि व्यवहारनय कैसे अंगीकार करना, सो कहो?
ताका समाधान-निश्चयनयकरि ती आत्मा परद्रव्यनित भिन्न और स्वभावनितै अभिन्न स्वयंसिद्ध वस्तु है ताकी जे न पहिचान, तिनको ऐसे ही कह्या करिए तो वह समझ नाहीं । तब उनको व्यवहार नयकरि शरीरादिक परद्रव्यनिकी सापेक्षकरि नर, नारक, पृथ्वीकायादिरूप जीवके विशेष किए। तब मनुष्य जीव है, नारकी जीव है, इत्यादि प्रकार लिएं वाकै जीवकी पहिचानि भई। अथवा अभेद वस्तु विष भेद उपजाय ज्ञानदर्शनादि गुरणपर्यायरूप जीवके विशेष किए, तब जाननेवाला जीव है, देखनेवाला जीव है, इत्यादि प्रकार लिएं वाकै जीवकी पहिचान भई । बहुरि निश्चयनयकरि वीतरागभाव मोक्षमार्ग है ताकी जे न पहिचान, तिनिको ऐसे ही कह्या करिए, तो वै समझे नाही। तब उनको व्यवहारनय करि तत्त्वश्रद्धानज्ञानपूर्वक परद्रव्यका निमित्त मेटनेंकी सापेक्ष करि व्रत, शील, संयमादिरूप वीतरागभावके विशेष दिखाए, तब वाकै वीतराग भावकी पहिचान भई । याही प्रकार अन्यत्र भी व्यवहार विना निश्चयका उपदेश न होना जानना । बहुरि यहाँ व्यवहार करि नर, नारकादि पर्याय ही कौ जीव कह्या, सो पर्याय ही को जीव न मानि लैना । पर्याय तो जीव पुद्गलका संयोगरूप है। तहाँ निश्चयकरि जीव जुदा है, ताही को जीव मानना । जीवका संयोग तै शरीरादिकको भी उपचारकरि जीव कहा, सो कहनेमात्र ही है। परमार्थते शरीरादिक जीव होते नाही। ऐसा ही श्रद्धान करना। बहुरि अभेद आत्मा विष ज्ञानदर्शनादि भेद किए, सो तिनों भेदरूप ही न मानि लैन । भेद तो समझावनेके अर्थ हैं । निश्चय करि आत्मा अभेद ही है । तिसही को जीव वस्तु मानना । सज्ञा सख्यादि करि भेद कहे, सो कहने मात्र ही है। परमार्थ तै जुदे जुदे है नाही । ऐसा ही श्रद्धान करना। बहुरि परद्रव्यका निमित्त मेटनेकी अपेक्षा व्रत शील संयमादिककी मोक्षमार्ग कह्या । सो इन ही कौं मोक्षमार्ग न मानि लेना ।
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जातै परद्रव्यका ग्रहण त्याग आत्माकै होय, तो आत्मा परद्रव्यका कर्ता हर्ता होय सो कोई द्रव्य कोई द्रव्य के आधीन है नाहीं । तातै आत्मा अपने भाव रागादिक हैं, तिनको छोडि वीतरागी हो है । सो निश्चयकरि वीतराग भाव ही मोक्षमार्ग है । वीतराग भावनिके अर व्रतादिकनिक कदाचित् कार्य कारणपनो है । परमार्थने बाह्य क्रिया मोक्षमार्ग नाही, ऐसा ही श्रद्धान करना । ऐसे ही अन्यत्र भी व्यवहारनयका अंगीकार करना जान लेना।
यहां प्रश्न-जो व्यवहारनय परकों उपदेशविर्ष ही कार्यकारी है कि अपना भी प्रयोजन साध है ?
ताका समाधान-आप भी यावत् निश्चयनयकरि प्ररूपित वस्तुको न पहिचान, तावत् व्यवहार मार्गकरि वस्तुका निश्चय करे । तातै निचली दशाविणे आपकी भी व्यवहारनय कार्यकारी है। परन्तु व्यवहारको उपचारमात्र मानि वाक द्वार वस्तुका श्रद्धान ठीक करे, तो कार्यकारी होय । बहुरि जो निश्चयवत् व्यवहार भी सत्यभूत मानि 'वस्तु ऐसे ही है, ऐसा श्रद्धान करै, तो उलटा अकार्यकारी होय जाय सो ही पुरुषार्थ सिद्धि उपाय शास्त्रमे कह्या है
अबुधस्य वोधनार्थं मुनीश्वरा देशयन्त्यभूतार्थम् । व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति ।।६।। मारणवक एव सिंहो यथा भवत्यनवगीतसिंहस्य । व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य ॥७॥
इनका अर्थ-मुनिराज अज्ञानीके समझावनेकौ असत्यार्थ जो व्यवहारनय ताकौ उपदेश है। जो केवल व्यवहारही को जाने है, ताको उपदेश ही देना योग्य नाही है । बहुरि जैसे जो सांचा सिंह को न जाने, ताकै बिलाव ही सिंह है, तैसै जो निश्चय को न जान, ताकै व्यवहार ही निश्चयपणाको प्राप्त हो है। (मो० मा० प्र० पृ० ३६९ से ३७३ )
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निश्चय व्यवहाराभास-अवलंबीओंका निरूपण
अब निश्चय व्यवहार दोऊ नयनिके प्राभासको अवलम्ब हैं, ऐसे मिथ्यादृष्टि तिनिका निरूपण कीजिए है
जे जीव ऐसा मानें हैं-जिनमतविष निश्चय व्यवहार दोय नय कहै है; तातै हमको तिनि दोऊनिका अंगीकार करना। ऐसे विचारि जैसे केवल निश्वयाभासके अवलम्बीनिका कथन किया था, तैसे तो निश्चयका अंगीकार कर हैं अर जैसे केवल व्यवहाराभासके अवलम्बीनिका कथन किया था, तैसे तो व्यवहारका अंगीकार कर हैं। यद्यपि ऐसें अंगीकार करने विष दोऊ नयनिविर्षे परस्पर विरोध है, तथापि कर कहा, सांचा तो दोऊ नयनिका स्वरूप भास्या नाही, पर जिनमतविष दोय नय कहे तिनिविर्षे काहूको छोड़ी भी जाती नाही। तातै भ्रमलिए दोऊनिका साधन साधै हैं, ते भी जीव मिथ्यादृष्टि जाननें ।
__अब इनिकी प्रवृत्तिका विशेष दिखाइए हैं-अंतरंगविष प्राप तो निर्धारकरि यथावत् निश्चय व्यवहार मोक्षमार्गको पहिचान्या नाही। जिन आज्ञा मानि निश्चय व्यवहाररूप मोक्षमार्ग दोय प्रकार मानें है । सो मोक्षमार्ग दोय नाहीं। मोक्षमार्गका निरूपण दोय प्रकार है । जहाँ सांचा मोक्षमार्ग कौं मोक्षमार्ग निरूपण सो निश्चय मोक्षमार्ग है । अर जहाँ जो मोक्षमार्ग तो है नाहीं, परन्तु मोक्षमार्गका निमित्त है, वा सहचारी है, ताकौं उपचारकरि मोक्षमार्ग कहीए, सो व्यवहार मोक्षमार्ग है जात निश्चय व्यवहारका सर्वत्र ऐसा ही लक्षण हैं । सांचा निरूपण सो निश्चय, उपचार निरूपण सो व्यवहार, तातें निरूपण अपेक्षा दोय प्रकार मोक्षमार्ग जानना । एक निश्चय मोक्षमार्ग है, एक व्यवहार मोक्षमार्ग है। ऐमैं दोय मोक्षमार्ग मानना मिथ्या है। बहुरि निश्चय व्यवहार दोऊनि उपादेय मानें है सो भी भ्रम है । जात निश्चय व्यवहारका स्वरूप तौ परस्पर विरोध लिए है।
( देहलीसे प्रकाशित मोक्षमार्ग प्रकाशक पृ० ३३५-६६ )
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मोक्षशास्त्र हिन्दी टीका
प्रस्तावना (१) शास्त्रके कर्ता और उसकी टीकाएँ
१. इस मोक्षशास्त्रके कर्ता भगवान श्री उमास्वामी प्राचार्य है । भगवान श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवके वे मुख्य शिष्य थे। 'श्री उमास्वाति' के -नामसे भी वे पहिचाने जाते हैं। भगवान श्री कुन्दकुन्दाचार्यके पश्चात् वे आचार्य पद पर विराजमान हुए थे। वे विक्रम सम्वत्की दूसरी शताब्दीमें होगये हैं।
२. जैन समाजमें यह शास्त्र अत्यन्त प्रसिद्ध है। इसकी एक विशेषता यह है कि जैन आगमोंमें संस्कृत भाषामें सर्वप्रथम इसी शाखकी रचना हुई है। इस शास्त्र पर श्री पूज्यपाद स्वामी, अकलंक स्वामी और श्री विद्यानन्दि स्वामी जैसे समर्थ आचार्यदेवोंने विस्तृत टीकाकी रचना की है। श्री सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, अर्थप्रकाशिका आदि ग्रन्थ इसी शास्त्रकी टीकाएँ हैं । बालकसे लेकर महापण्डितों तकके लिये यह शास्त्र उपयोगी है। इस शास्त्रकी रचना अत्यन्त आकर्षक है; अत्यल्प शब्दोमें प्रत्येक सूत्रकी रचना है और वे सूत्र सरलतासे याद रखे जा सकते हैं । अनेक जैन उन सूत्रोंको मुखाग्र करते है। जैन पाठशालामोंकी पाठ्य-पुस्तकोंमें यह एक मुख्य है। हिन्दीमें इस शास्त्रकी कई आवृत्तियाँ छप गई हैं। (२) शास्त्र के नामकी सार्थकता
३. इस शाखमें प्राचार्य भगवानने प्रयोजनभूत तत्त्वोंका वर्णन बड़ी खूबीसे भर दिया है । पथभ्रांत संसारी जीवोंको आचार्यदेवने मोक्षका मार्ग दर्शाया है। प्रारम्भमें ही 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी एकता मोक्षमार्ग है'-ऐसा बतलाकर निश्चय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और
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सम्यग्चारित्रका वर्णन किया है। इसप्रकार मोक्षमार्गका प्ररूपण होनेसे यह शास्त्र 'मोक्षशास्त्र' नामसे पहिचाना जाता है। और जीव-अजीवादि सात तत्त्वोंका वर्णन होनेसे 'तत्त्वार्थ सूत्र' नामसे भी प्रसिद्ध है। (३) शास्त्रके विषय
४. यह शास्त्र कुल १० अध्यायोमे विभक्त है और उनमे कुल ३५७ सूत्र है प्रथम अध्यायमे ३३ सूत्र हैं, उनमें पहले ही सूत्र में निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तीनोकी एकताको मोक्षमार्गरूपसे बतलाकर फिर निश्चय सम्यग्दर्शन और निश्चय सम्यग्ज्ञानका विवेचन किया है। दूसरे अध्यायमे ५३ सूत्र हैं; उसमे जीवतत्त्वका वर्णन है । जीवके पांच असाधारण भाव, जीवका लक्षण तथा इन्द्रिय, योनि, जन्म, शरीरादिके साथके सम्बन्धका विवेचन किया है। तीसरे अध्यायमें ३९ तथा चौथे अध्यायमें ४२ सूत्र हैं । इन दोनों अध्यायोमे संसारी जीवको रहनेके स्थानरूप अधो, मध्य और ऊर्ध्व इन तीन लोकोंका वर्णन है और नरक, तियंच, मनुष्य तथा देव-इन चार गतियोंका विवेचन है। पांचवें अध्यायमे ४२ सूत्र हैं और उसमे अजीव तत्त्वका वर्णन है; इसलिये पुदलादि अजीव द्रव्योंका वर्णन किया है; तदुपरान्त द्रव्य, गुण, पर्यायके लक्षणका वर्णन बहुत सक्षेपमे विशिष्ट रीतिसे किया है-यह इस अध्यायकी मुख्य विशेषता है । छठवें अध्यायमे २७ तथा सातवें अध्यायमे ३६ सूत्र है, इन दोनों अध्यायोमे आस्रवतत्त्वका वर्णन है । छठवें अध्यायमे प्रथम आस्रवके स्वरूपका वर्णन करके फिर पाठों कर्मोके आस्रवके कारण बतलाये हैं। सातवें अध्यायमे शुभास्रवका वर्णन है, उसमें बारह व्रतोंका वर्णन करके उसका आस्रवके कारणमे समावेश किया है। इस अध्यायमे श्रावकाचारके वर्णनका समावेश हो जाता है । आठवें अध्यायमे २६ सूत्र है और उनमे बन्धतत्त्वका वर्णन है । वन्धके कारणोका तथा उसके भेदोंका और स्थितिका वर्णन किया है। नवमे अध्यायमे ४७ सूत्र है और उनमे संवर तथा निर्जरा इन दो तत्त्वोका बहुत सुन्दर विवेचन है, तथा निग्रंथ मुनियोका स्वरूप भी बतलाया है। इसलिये इस अध्यायमे निश्वयसम्यक्चारित्रके वर्णनका समावेश हो जाता है। पहले अध्यायमें निश्चय सम्यग्दर्शन तथा निश्चय
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सम्यग्ज्ञानका वर्णन किया था और इस नवमें अध्यायमें निश्चय सम्यक्चारित्रका (-संवर, निर्जराका ) वर्णन किया। इसप्रकार सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्गका वर्णन पूर्ण होने पर अन्तमे दसवे अध्यायमे नव सूत्रो द्वारा मोक्षतत्त्वका वर्णन करके श्री आचार्यदेवने यह शास्त्र पूर्ण किया है।
५. संक्षेपमे देखनेसे इस शास्त्रमे निश्चयसम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान सम्यग्चारित्ररूप मोक्षमार्ग, प्रमाण-नय-निक्षेप, जीव-अजीवादि सात तत्त्व, ऊर्ध्व-मध्य-अधो-यह तीन लोक, चार गतियां, छह द्रव्य और द्रव्य-गुण-पर्याय इन सबका स्वरूप प्रा जाता है। इसप्रकार आचार्य भगवानने इस शास्त्रमे तत्त्वज्ञानका भण्डार बड़ी खूबीसे भर दिया है। तत्त्वार्थोकी यथार्थ श्रद्धा करनेके लिये कितेक विषयों पर प्रकाश
६-अ० १. सूत्र १ "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" इस सूत्रके सम्बन्धमे श्री नियमसार शास्त्र गाथा २ की टीकामे श्री पद्मप्रभमलधारि देवने कहा है कि "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रः" ऐसा वचन होनेसे मार्ग तो शुद्धरत्नत्रय है। इससे यह सूत्र शुद्धरत्नत्रय अर्थात् निश्चय मोक्षमार्गकी व्याख्या करता है। ऐसी वस्तु स्थिति होनेसे, इस सूत्रका कोई विरुद्ध अर्थ करे तो वह अर्थ मान्य करने योग्य नही है।
___ इस शास्त्रमे पृष्ठ ६ पैरा नं० ४ मे उस अनुसार अर्थ करनेमे आया है उस ओर जिज्ञासुओका ध्यान खिचनेमे आता है ।
७-सूत्र, २ 'तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' यहाँ "सम्यग्दर्शन" शब्द दिया है वह निश्चयसम्यग्दर्शन है और वही प्रथम सूत्रके साथ सुसंगत अर्थ है। कही शास्त्रमें सात तत्त्वोंको भेदरूप दिखाना हो वहाँ भी 'तत्त्वार्थश्रद्धा' ऐसे शब्द आते है वहाँ 'व्यवहार सम्यग्दर्शन' ऐसा उसका अर्थ करना चाहिये।
__इस सूत्रमे तो तत्त्वार्थश्रद्धान शब्द सात तत्त्वोको अभेदरूप दिखानेके लिये है इसलिये सूत्र २ "निश्चयसम्यग्दर्शन" की व्याख्या करता है।
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इस सूत्र में 'निश्चयसम्यग्दर्शन' की व्याख्या की है ऐसा अर्थ करनेके कारण इस शास्त्रमें पृष्ठ १६ से २० में स्पष्टतया दिखाया है वह जिज्ञासुत्रों को सावधानता पूर्वक पढ़ने की विनती करनेमें आती है ।
८ - प्रश्न - वस्तुस्वरूप अनेकान्त है और जैन शास्त्र अनेकान्त विद्या प्रतिपादन करते हैं, तो सूत्र १ मे कथित निश्चय मोक्षमार्ग अर्थात् शुद्धरत्नत्रय और सूत्र २ में कथित निश्चय सम्यग्दर्शनको अनेकान्त किस भाँति घटते है ?
उत्तर- (१) निश्चय मोक्षमार्ग वही खरा ( - सच्चा ) मोक्षमार्ग है और व्यवहार मोक्षमार्ग सच्चा मोक्षमार्ग नही है; तथा निश्चय सम्यग्दर्शन वही सच्चा सम्यग्दर्शन है, व्यवहार सम्यग्दर्शन सच्चा सम्यग्दर्शन नही है । और
(२) वह स्वाश्रयसे ही प्रगट हो सकता है और पराश्रयसे कभी भी प्रगट हो सकता नही ऐसा अनेकान्त है ।
(३) मोक्षमार्ग परमनिरपेक्ष है
अर्थात् उसे परकी अपेक्षा नहीं है किन्तु तीनों काल स्वकी अपेक्षासे ही वह प्रगट हो सकता है, वह अनेकान्त है |
( ४ ) इसीलिये वह प्रगट होनेमें श्रांशिक स्वाश्रय और आंशिक पराश्रयपना है- ( - अर्थात् वह निमित्त, व्यवहार, भेद आदिका श्राश्रयसे है ) ऐसा मानना वह सच्चा अनेकान्त नही है परन्तु वह मिथ्या - एकान्त है, इसप्रकार निःसदेह नक्की करना वही अनेकान्त विद्या है ।
(५) सच्चा मोक्षमार्ग स्वाश्रयसे भी हो और ऐसा माना जाये तो उसमे निश्चय और ( जो परस्पर विरुद्धता लक्षरण सहित एकमेक हो जाय - निश्चय और व्यवहार जाय; अतः ऐसा कभी होता नही ।
पराश्रयसे भी हो, व्यवहारका स्वरूप है वह न रहकर ) दोनोंका लोप हो
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ह - अ० १, सूत्र ७-८ में निश्चय सम्यग्दर्शनादि प्रगट करने के अमुख्य उपाय दिखाये है, वे उपाय अमुख्य अर्थात् भेदों और निमित्तमात्र हैं । यदि उनके आश्रयसे अंशमात्र भी निश्चय धर्म प्रगट हो सके ऐसा माना जाये तो वे उपाय अमुख्य न रहकर, मुख्य ( - निश्चय ) हो जाय ऐसा समझना, प्रमुख्य अर्थात् गौण, और गौण ( उपाय ) को हेय - छोड़ने योग्य कहा है ( देखो प्रवचनसार गाथा ५३ की टीका )
निश्चय सम्यग्दर्शन जिस जीवने स्वसन्मुख होकर प्रगट किया हो वहाँ निमित्त - जो अमुख्य उपाय है वह कैसे कैसे होते है वह इस सूत्र में दिखाते हैं । निमित्त पर पदार्थ है उसे जीव जुटा सकते नहीं; ला सके, ग्रहरण कर सके ऐसा भी नही है । "उपादान निश्चय जहाँ तहाँ निमित्त पर होय" ( बनारसीदासजी ) इस बारेमें मोक्षमार्ग प्रकाशक ( देहली ) पृष्ठ ४५६ में कहा है कि "तातें जो पुरुषार्थं करि मोक्षका उपाय करें है, ताकै सर्व कारण मिले हैं, अर वाकै अवश्य मोक्ष की प्राप्ति हो है ऐसा निश्चय करना ।"
श्री प्रवचनसार गाथा १६ की टीकामे श्री अमृतचन्द्राचार्य भी कहते है कि—
"निश्चयसे परके साथ श्रात्माका कारकताका सम्बन्ध नही है, कि जिससे शुद्धात्म स्वभावकी प्राप्तिके लिये सामग्री ( बाह्य साधन ) ढूंढने की व्यग्रतासे जीव ( व्यर्थं ) परतंत्र होते हैं ।"
१० इस शास्त्र के पृष्ठ ६ में नियमसारका आधार देकर 'निश्चय सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र' परम निरपेक्ष है ऐसा दिखाया है, इससे उसका एक अंग जो 'निश्चयसम्यग्दर्शन' है वह भी परम निरपेक्ष है अर्थात् स्वात्मा के श्राश्रयसे ही और परसे निरपेक्ष ही होता है ऐसा समझना । ( ' ही " शब्द वस्तुस्थितिकी मर्यादारूप सच्चा नियम बतानेके लिये है ) निश्चय - व्यवहार मोक्षमार्गके स्वरूप में कैसा निर्णय करना चाहिये
११ - "निश्चयसे वीतरागभाव ही मोक्षमार्ग है, वीतरागभावनिके
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और व्रतादिकके कदाचित् कार्य कारणानो है तातै व्रतादिकको मोक्षमार्ग कहे, सो कहने मात्र ही हैं"-( मोक्षमार्ग प्रकाशक देहली पृष्ठ ३७२ )
धर्म परिणत जीवको वीतराग भावके साथ जो शुभभावरूप रत्नत्रय (-दर्शनज्ञानचारित्र ) होते है उसे व्यवहारनय द्वारा उपचारसे व्यवहार मोक्षमार्ग कहा है जो कि वह रागभाव होनेसे बन्धमार्ग ही है। ऐसा निर्णय करना चाहिये ।
१२-व्यवहार मोक्षमार्ग वास्तव में बाधक होने पर भी उसका निमित्तपना बतानेके लिये उसे व्यवहार नयसे साधक कहा है, उस कथन ऊपरसे कितनेक ऐसा मानते हैं कि निश्चय मोक्षमार्गसे व्यवहार मोक्षमार्ग विपरीत (-विरुद्ध ) नही है किन्तु दोनो हितकारी हैं, तो उनकी यह समझ (-मान्यता ) झूठ है । इस सम्बन्धमे मो० मा० प्रकाशक देहली पत्र ३६५-६६ में कहा है कि
मोक्षमार्ग दोय नाही। मोक्षमार्गका निरूपण दोय प्रकार है। जहाँ सांचा मोक्षमार्गको मोक्षमार्ग निरूपण सो निश्चय मोक्षमार्ग है । और जहाँ जो मोक्षमार्ग तो है नाही, परन्तु मोक्षमार्गका निमित्त है, वा सहचारी है, ताकौ उपचार करि मोक्षमार्ग कहिए, सो व्यवहार मोक्षमार्ग है जात निश्चय व्यवहारका सर्वत्र ऐसा ही लक्षण है । सांचा निरूपण सो निश्चय. उपचार निरूपण सो व्यवहार, तातै निरूपण अपेक्षा दो प्रकार मोक्षमार्ग जानना । एक निश्चय मोक्षमार्ग है, एक व्यवहार मोक्षमार्ग है। ऐसे दोय मोक्षमार्ग मानना मिथ्या है । बहुरि निश्चय व्यवहार दोऊनिळू उपादेय माने है, सो भी भ्रम है। जातें निश्चय व्यवहारका स्वरूप तौ परस्पर विरोध लिये है। जाते समयसार विषै ऐसा कह्या है
___ 'व्यवहारोऽभूयत्थो, भूयत्थो देसिदोसुद्धरणो' याका अर्थ-व्यवहार अभूतार्थ है। सत्यस्वरूपको न निरूपे है, किसी अपेक्षा उपचार करि
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*नमित्तिक निमित्तपना।
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अन्यथा निरूपे है बहुरि शुद्धमय जो निश्चय है, सो भूतार्थ है । जैसा वस्तुका स्वरूप है तैसा निरूप है, ऐसे इन दोऊनिका ( दोनों नयका ) स्वरूप तो विरुद्धता लिए है ।
( मो० मा० प्रकाशक पृष्ठ ३६६ )
प्रवचनसार गाथा २७३-७४ में तथा टीकामें भी कहा है कि 'मोक्ष तत्त्वका साधनतत्त्व 'शुद्ध ही है' और वही चारों अनुयोगोंका सार है ?
१३- निश्चय सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्रसे मिथ्यादर्शन ज्ञानचारित्र तो विरुद्ध है ही, परन्तु निश्चय सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्रसे व्यवहारा सम्यग्दर्शन -: - ज्ञान - चारित्रका स्वरूप तथा फल परस्पर विरुद्ध है इसलिये ऐसा निर्णय करनेके लिये कुछ आधार निम्नोक्त दिये जाते हैं
१- श्री नियमसारजी ( गुजराती अनुवादित ) पत्र नं० १४६ निश्चय प्रतिक्रमण अधिकारको गाथा, ७७ से ८१ की भूमिका,
२- नियमसार गाथा ६१ पत्र १७३ कलश नं० १२२.
३
६२ 19
१७५ टीका
४
19
८
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१०
११
१२
१३
13
11
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11
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11
१०६, २१५ कलश - १५५ नीचेकी टोका,
१२१, २४४ टीका,
१२३ "
२४६ टीका,
१२८" 32
31
11
गाथा ११ टोका पत्र नं० १२-१३
४-५
21
"
31 ७
१३ को भूमिका तथा टीका पत्र, १४- १५,
७६ टोका, पत्र, ८८-८
६२
Sayu
""
१५९-६० टीका तथा फुटनोट,
19 १४१
२८२ गाथा, १४१ की भूमिका,
प्रवचनसारजी ( पाटनी ग्रन्थमाला ) में देखो:
"
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―
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१४-गाथा १५६ तथा टीका पत्र, २०३ ( तथा इस गाथाके नीचे पं०.
श्री हेमराजजीकी टीका पत्र नं० २२० ) ( यह पुस्तक हिन्दीमें श्री
रायचन्द्र ग्रन्थमालाकी देखना ) १५-गाथा, २४८ तथा टीका पत्र ३०४, [ तथा उस गाथा नीचे पं०
हेमराजजीको टीका हिन्दी पुस्तक-रायचन्द्र ग्रंथमालाका ] १६-गाथा २४५ तथा टीका प० ३०१, १७-गाथा १५६ तथा टीका प० २०१,
श्री अमृतचन्द्राचार्यकृत समयसारजी कलशोंके ऊपर श्री राजमल्लजी टीका (सूरतसे प्रकाशित ) पुण्य पापाधिकार कलश, ४ पत्र
१०३-४, कलश, ५ पत्र, १०४-५ , ६, १०६ ( इसमें धर्मीके शुभभावोंको बन्ध मार्ग कहा है ) ॥ ८॥ १०८ , ६, १०६ , ११, ११२-१३ यह सभी कलश श्री समयसार पुण्य पापाधि
___ कारमे है वहाँसे भी पढ़ लेना, योगेन्द्रदेवकृत योगसार गाथा दोहा नं० ७१ में (-पुण्यको भी निश्वयसे
पाप कहा है) योगेन्द्रदेवकृत योगसार गाथा दोहा नं० ३२, ३३, ३४, ३७, श्री गुन्दकुन्दाचार्य कृत मोक्षपाहुड़ गाथा ३१, समाधि शतका गाथा १६ पुरपा मि० उपाय गाथा २२० पगारित काय गाथा १६५, १६६-६७-६८-६६, श्री ग० गारजी फलाके कपर १. बनारगी नाटकमे पुण्य पाप म० कलग, १२ पृष्ठ १३१-३२
" ७ , १२६-२७ " ८ , १२७-२८
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समयसारजी शास्त्र मूल गाथा टोका गाथा ६९, ७०, ७१, ७२, ७४, ६२, गाथा ३८ तथा टीका, गाथा २१०, २१४, २७६-२७७-२६७ गाथा टीका सहित पढ़ना।
१४५ से १५१, १८१ से १८३ पृष्ठ २६५ (-परस्पर अत्यन्त स्वरूप विपरीतता होनेसे )
३०६-७, (शुभभाव व्यवहार चारित्र निश्चयसे विषकुम्भ ) २९७ गाथामें श्री जयसेनाचार्यकी टीकामें भी स्पष्ट खुलासा है।
श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक ( देहली सस्ती ग्रंथमाला ) पृष्ठ, नं० ४, ३२७-२८-३२-३३-३४-३७-४०-४१-४२-४३-४४, ३६०-६१, ३६५ से ३७१ ( ३७१ ३७५-७६-७७ पत्रमे खास बात है ) ३७२, ३७३-७५-७६-७७-६७, ४०७-८, ४५७, ४७१-७२ ।
व्यवहारनयके स्वरूपकी मर्यादा १४-समयसार गाथा ८ की टीकामे कहा है कि "व्यवहारनय म्लेच्छ भाषाके स्थान पर होनेसे परमार्थका कहनेवाला है इसलिये, व्यवहारनय स्थापित करने योग्य है परन्तु xx वह व्यवहारनय अनुसरण करने
योग्य नहीं है।" फिर गाथा. ११ की टोकामे कहा कि व्यवहारनय सब ही • अभूतार्थ है इसलिये वह अविद्यमान, असत्य अर्थको, अभूत अर्थको प्रगट करता है; शुद्धनय एक ही भूतार्थ होनेसे सत्य, भूत अर्थको प्रगट करता है. xx बादमें कहा है कि xx इसलिये जो शुद्धनयका आश्रय लेते हैं वे ही सम्यक् अवलोकन करनेसे सम्यक्दृष्टि हैं, दूसरे सम्यग्दृष्टि नही हैं । इसलिये कर्मोसे भिन्न आत्माके देखनेवालोको व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य नही है।"
गाथा ११ के भावार्थमे पं० जी श्री जयचन्दजीने कहा है कि
प्राणियोंको भेदरूप व्यवहारका पक्ष तो अनादिकालसे ही है, और इसका उपदेश भी बहुधा सर्व प्राणी परस्पर करते हैं । और जिनवाणीमें व्यवहारनयका उपदेश शुद्धनयका हस्तावलम्बन ( सहायक )
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जानकर बहुत किया है; किन्तु उसका फल संसार ही है। शुद्धनयका पक्ष तो कभी आया नहीं और उसका उपदेश भी विरल है, वह कहीं कहीं पाया जाता है। इसलिये उपकारी श्री गुरुने शुद्धनयके ग्रहणका फल मोक्ष जानकर उसका उपदेश प्रधानतासे दिया है, कि-"शुद्धनय भूतार्थ है, सत्यार्थ है; इसका आश्रय लेनेसे सम्य
दृष्टि हो सकता है। इसे जाने बिना जब तक जीव व्यवहार में मग्न है तब तक आत्माका ज्ञान-श्रद्धानरूप निश्चय सम्यकत्व नहीं हो सकता"। ऐसा आशय समझना चाहिये ॥११॥
१५-कोई ऐसा मानते हैं कि प्रथम व्यवहारनय प्रगट हो और बादमे व्यवहारनय के प्राश्रयसे निश्चयनय प्रगट होता है अथवा प्रथम व्यवहार धर्म करते करते निश्चय धर्म प्रगट होता है तो वह मान्यता योग्य नही है, कारण कि निश्चय-व्यवहारका स्वरूप तो परस्पर विरुद्ध है ( देखो मो० मा० प्रकाशक-देहली-पृष्ठ ३६६ )
(१) निश्चय सम्यग्ज्ञानके बिना जीवने अनन्तबार मुनिव्रत पालन किये परन्तु उस मुनिव्रतके पालनको निमित्त कारण नहीं कहा गया, कारण कि सत्यार्थ कार्य प्रगट हुए विना साधक (-निमित्त) किसको कहना?
प्रश्न-"जो द्रव्यलिंगी मुनि मोक्षके अथि गृहस्थपनों छोड़ि तपवरणादि करे हैं, तहाँ पुरुषार्थ तो किया, कार्य सिद्ध न भया, तातें पुरुपार्थ किये तो कछू सिद्धि नाहीं। ताका समाधान~अन्यथा पुरुषार्थ करि फल चाहे, तो कैसे सिद्धि होय? तपश्चरणादिक व्यवहार साधन विष अनुरागी होय प्रवत्त, ताका फल शास्त्र विर्षे तो शुभवन्ध कह्या है, अर यहु तिसत मोक्ष चाहे है, तो कैसे सिद्धि होय ! अतः यहु तो भ्रम है।"
मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ४५६, देखो। (२) मिथ्यादृष्टिकी दशामें कोई भी जीवको कभी भी 'सम्यग्
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श्रुतज्ञान' हो सकता नहीं, जिसको 'सम्यक् श्रुतज्ञान' प्रगट हुमा है उसे ही 'नय' होते हैं, कारण कि 'नय' ज्ञान वह सम्यक् श्रुतज्ञानका अंश है अंशी विना अंश कैसा ? "सम्यक् श्रुतज्ञान" ( भावश्रुतज्ञान ) होते ही दोनू नय एकी साथ होय हैं, प्रथम और पीछे ऐसा नही है इसप्रकार सच्चे जैनधर्मी मानते हैं ।
(३) वस्तुस्वरूप तो ऐसा है कि चतुर्थ गुणस्थानसे ही निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट होता है और उसी समय सम्यक् श्रुतज्ञान प्रगट होता है, सम्यक् श्रुतज्ञानमे दोनू नय अंशोंका सद्भाव एकी साथ है आगे पीछे नय होते नही । निजात्माके आश्रयसे जब भावश्रुतज्ञान प्रगट हुआ तब अपना ज्ञायकस्वभाव तथा उत्पन्न हुई जो शुद्ध दशा उसे आत्माके साथ अभेद गिनना वह निश्चयनयका विषय, और जो अपनी पर्यायमे अशुद्धता तथा अल्पता शेष है वह व्यवहारनयका विषय है । इसप्रकार दोनो नय एक ही साथ जीवको होते हैं। इसलिये प्रथम व्यवहारनय अथवा व्यवहार धर्म और बादमे निश्चयनय अथवा निश्चय धर्म ऐसा वस्तुस्वरूप नहीं है ।
१६-प्रश्न-निश्चयनय और व्यवहारनय समकक्ष है ऐसा मानना ठीक है ?
उत्तर-नही, दोनों नयको समकक्षी माननेवाले एक संप्रदाय है, वे दोनोको समकक्षी और दोनोंके आश्रयसे धर्म होता है ऐसा निरूपण
* उस सप्रदायकी व्यवहारनयके सम्बन्धमें क्या श्रद्धा है ? देखो-(१) श्री मेघविजयजी गणी कृत युक्तिप्रबोध नाटक ( वह गणीजी कविवर श्री बनारसी दासके समकालीन थे) उनने व्यवहारनयके आलम्बन द्वारा आत्महित होना बताकर श्री समयसार नाटक तथा दिगम्बर जैनमतके सिद्धान्तोका खण्डन किया है तथा (२) जो प्रायः १६ वी शतिमें हुये-प्रब भी उनके सम्प्रदायमें बहुत मान्य है वह श्री यशोविजयजी उपाध्याय कृत गुर्जर साहित्य सग्रहमें पृष्ठ नं० २०७, २१९, २२२, ५८४, ८५ में दि० जैनधर्मके खास सिद्धान्तोका उग्र, (-सख्त ) भाषा द्वारा खण्डन किया है, वे बड़े ग्रन्थकार थे-विद्वान थे उनने दिगम्बर प्राचार्योका यह मत बतलाया है कि:
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२४ करते हैं परन्तु श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव तो स्पष्टरूपसे फरमाते हैं कि भूतार्थके (निश्चयके ) आश्रयसे ही हमेशा धर्म होता है, पराश्रयसे (-व्यवहारसे ) कभी भी अंशमात्र भी सच्चा धर्म (-हित ) नही होता। हाँ दोनों नयोंका तथा उसके विषयोंका ज्ञान अवश्य करना चाहिये। गुण स्थान अनुसार जैसे २ भेद पाते हैं वह जानना प्रयोजनवान है परन्तु दोनों समान हैसमकक्ष हैं ऐसा कभी नहीं है, कारण कि दोनों नयोंके विषयमे और फलमें परस्पर विरोध है इसलिये व्यवहारनयके आश्रयसे कभी भी धर्मकी उत्पत्ति, वृद्धि और टिकना होता ही नही ऐसा दृढ़ श्रद्धान करना चाहिये, समयसारजीमें भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव कृत ११ वी गाथाको सच्चा जनधर्मका प्राण कहा है इसलिये उस गाथा और टीकाका मनन करना चाहिये, गाथा निम्नोक्त है ।
व्यवहारनय अभूतार्थ दर्शित, शुद्ध नय भूतार्थ है;
भूतार्थके आश्रित जीव सुदृष्टि निश्चय होत है, ( काव्यमें )
१७--प्रश्न-व्यवहार मोक्षमार्गको मोक्षका परम्परा कारण कहा है वहाँ क्या प्रयोजन है ?
द्वारा अपनी शुद्धता बढ़ाकर जैसे जैसे शुद्धता द्वारा गुणस्थानमें आगे
(१) निश्चयनय होने पर ही व्यवहारनय हो सकता है-व्यवहारनय प्रथम
नही हो सकता। (२) प्रथम व्यवहारनय तथा व्यवहार धर्म और पीछे निश्चयनय और निश्चय
धर्म ऐसा नहीं है। (३) निश्चयनय और व्यवहारनय दोनो समकक्ष नही है-परस्पर विरुद्ध है
उनके विषय और फलमें विपरीतता है। (४) निमित्तका प्रभाव नहीं पडता, ऐसा दिगम्बर प्राचार्योंका मत है इन मूल बातोका उस सम्प्रदायने उन जोरोसे खण्डन किया है-इसलिये जिज्ञासुप्रोसे प्रार्थना है कि उसमें कौन मत सच्चा है, उसका निर्णय सच्ची श्रद्धाके लिये करें-जो बटुन प्रयोजन भूत है-जरूरी बात है।
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बढ़ेगा तसे २ अशुद्धता ( - शुभाशुभका ) प्रभाव होता जायगा और क्रमशः शुभभावका अभाव करके शुक्लव्यान द्वारा केवलज्ञान प्रगट करेगा ऐसा दिखानेके लिये व्यवहार मोक्षमार्गको परम्परा ( निमित्त ) कारण कहा गया है । यह निमित्त दिखाने के प्रयोजनसे व्यवहारनयका कथन है ।
(२) शुभभाव ज्ञानीको भी आस्रव (बन्धके कारण ) होनेसे वे निश्चयनयसे परम्परा भी मोक्षका कारण हो सकते नहीं श्री कुन्दकुन्दाचार्य कृत द्वादशानुप्रेक्षा गाथा ५६ मे कहा है कि कर्मोंका आस्रव करनेवाली क्रियासे परम्परा भी निर्वाण प्राप्त हो सकते नहीं; इसलिये संसार भ्रमणके कारणरूप आस्रवको निंद्य जानो || ५ ||
(३) पंचास्तिकाय गाथा १६७ मे श्री जयसेनाचार्यंने कहा है कि"श्री अहंतादिमें भी राग छोड़ने योग्य है" पीछे गाथा १६८ मे कहा है कि, धर्मीजीवका राग भी ( निश्चयनयसे) सर्व अनर्थका परम्परा कारण है ।
( ४ ) इस विषय मे स्पष्टीकरण श्री नियमसारजी गाथा ६० ( गुजराती अनुवाद ) पृष्ठ ११७ फुटनोट न० ३ मे कहा है कि "शुभोपयोगरूप व्यवहार व्रत शुद्धोपयोगका हेतु है और शुद्धोपयोग मोक्षका हेतु है ऐसी गिन करके यहाँ उपचारसे व्यवहारव्रतको मोक्षके परम्परा हेतु कहा है, वास्तवमे तो शुभोपयोगी मुनिके योग शुद्ध परिणति ही ( शुद्धात्म द्रव्यको श्रालम्बन करती होनेसे ) विशेष शुद्धिरूप शुद्धोपयोग हेतु होती है, इसप्रकार इस शुद्धपरिणतिमे स्थित जो मोक्षके परम्परा हेतुपनाका आरोप उसकी साथ रहा हुआ शुभोपयोग में करके व्यवहारव्रतको मोक्षका परम्परा हेतु कहने मे आता है । परन्तु जहाँ शुद्धपरिणति ही न हो वहाँ रहा हुआ शुभोपयोगमें मोक्षके परम्परा हेतुपनेका आरोप भी कर सकते नही, कारण कि जहाँ मोक्षका यथार्थ हेतु प्रगट हुआ ही नही - विद्यमान ही नही वहाँ शुभोपयोगमे आरोप किसका करना ?"
(५) और पंचास्तिकाय गाथा १५६ ( गुज० अनु० ) पृष्ठ २३३
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२६ ३४ में फुटनोट नं० ४ में कहा है कि-"जिनभगवानके उपदेशमें दो नयों द्वारा निरूपण होता है। वहीं, निश्चयनय द्वारा तो सत्यार्थ निरूपण किया जाता है और व्यवहारनय द्वारा अभूतार्थ उपचरित निरूपण किया जाता है।
__ प्रश्न-सत्यार्थ निरूपण ही करना चाहिये; अभूतार्थ उपचरित निरूपण किसलिये किया जाता है ?
उत्तर-जिसे सिहका यथार्थ स्वरूप सीधा समझमें नहीं आता हो, उसे सिंहके स्वरूपके उपचरित निरूपण द्वारा अर्थात् बिल्लीके स्वरूपके निरूपण द्वारा सिंह के यथार्थ स्वरूप को समझकी ओर ले जाता है; उसी प्रकार जिसे वस्तुका यथार्थ स्वरूप सीधा समझमें न पाता हो उसे वस्तुस्वरूपके उपचरित निरूपण द्वारा वस्तु स्वरूपको यथार्थ समझ की ओर ले जाते हैं । और लम्बे कथनके बदलेमें संक्षिप्त कथन करनेके लिये भी व्यवहारनय द्वारा उपचरित निरूपण किया जाता है। यहां इतना लक्ष्यमे रखने योग्य है कि जो पुरुष बिल्लीके निरूपणको ही सिंहका निरूपण मानकर बिल्लीको ही सिह समझ ले वह तो उपदेशके ही योग्य नहीं है, उसी प्रकार जो पुरुष उपचरित निरूपणको ही सत्यार्थ निरूपण मानकर वस्तुस्वरूपको मिथ्यारीतिसे समझ बैठे वह तो उपदेशके ही योग्य नही है।
. [ यहाँ एक उदाहरण लिया जाता है:
साध्य-साधन सम्बन्धी सत्यार्थ निरूपण इसप्रकार है कि 'छठवें गुणस्थानमे वर्तती हुई आंशिक शुद्धि सातवें गुणस्थान योग्य निर्विकल्प शुद्ध परिणतिका साधन है।' अब, छठवे गुणस्थानमे कैसी अथवा कितनी शुद्धि होती है, इस बातको भी साथकी साथ समझाना हो तो, विस्तारसे ऐसा निरूपण किया जाता है कि जिस शुद्धिके सद्भावमे, उसके साथ-साथ महाव्रतादिके शुभ विकल्प हठ रहित, सहजरूपसे प्रवर्तमान हों वह छठवे गुगास्थान योग्य शुद्धि सातवें गुणस्थान योग्य निर्विकल्प शुद्ध परिणतिका साधन है।' ऐसे लम्वे कथनके वदलेमे, ऐसा कहा जाये कि 'छठवें
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गुणस्थान में प्रवर्तमान महाव्रतादिके शुभ विकल्प सातवें गुणस्थान योग्य निर्विकल्प शुद्ध परिगतिका साधन है,' तो यह उपचरित निरूपण है । ऐसे उपचरित निरूपण मेसे ऐसा अर्थ निकालना चाहिये कि 'महाव्रतादिके शुभ विकल्प ( साधन ) नही किन्तु उनके द्वारा जिस छठवें गुणस्थान योग्य शुद्धिको बताना था वह शुद्धि वास्तव में सातवें गुरणस्थान योग्य निर्विकल्प शुद्ध परिणतिका साधन है ।' ]
(६) परम्परा कारणका अर्थ निमित्त कारण है, व्यवहार मोक्षमार्गको निश्चय मोक्षमार्ग के लिये भिन्न साधन - साध्यरूपसे कहा है, उनका अर्थ भी निमित्त मात्र है । जो निमित्तका ज्ञान न किया जाय तो प्रमारण ज्ञान होता नही, इसलिये जहाँ जहाँ उसे साधक, साधन, कारण, उपाय, मार्ग, सहकारी कारण, बहिरंग हेतु कहा है वे सभी उस उस भूमिका के सम्वन्धमें जानने योग्य निमित्त कारण कैसा होता है, उसका यथार्थ ज्ञान करानेके लिये है ।
जो गुणस्थान अनुसार यथायोग्य साधक भाव, बाधक भाव और निमित्तोंको यथार्थतया न जाने तो वह ज्ञान मिथ्या है । कारण कि उस सम्वन्धमे सच्चे ज्ञानके प्रभावमे अज्ञानी ऐसा कहता है कि भावलिंगी मुनिदशा नग्नदिगम्बर ही हो ऐसी कोई आवश्यकता नही है तो उनकी यह वात मिथ्या ही है, कारण कि भावलिगी मुनिको उस भूमिकामें तीन जातिके कषाय चतुष्टयका अभाव और सर्व सावद्य योगका त्याग सहित २८, भूलगुणोका पालन होते हैं इसलिये उसे वखका सम्बन्धवाला राग अथवा उस प्रकारका शरीरका राग कभी भी होता ही नही ऐसा निरपवाद नियम है, वस्त्र रखकर अपनेको जैनमुनि माननेवालेको शास्त्रमें निगोदगामी कहा है । इसप्रकार गुणस्थानानुसार उपादान निमित्त दोनोंका यथार्थ ज्ञान होना चाहिये साधक जीवका ज्ञान ऐसा ही होता है जो उस उस भेदको जानता संता प्रगट होता है । समयसार शास्त्रमे गाथा १२ मे मात्र, इस हेतुसे व्यवहार नयको जाननेके लिये प्रयोजनवानपना बताया है ।
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स्व. श्री दीपचन्दजी कृत ज्ञानदर्पण पृष्ठ २६-३० में कहा है कि, याही जगमाही ज्ञेय भावको लख्या ज्ञान, ताकी घरि ध्यान श्रान काहे पर हेर है । परके संयोग तै अनादि दुःख पाए अब देखि तू संभारि जो प्रखंड निधि तेरे है । वारणी भगवानकी की सकल निचौर यहै, समैसार आप पुण्यपाप नाहि र है । याते यह ग्रन्थ शिव पंथको सधैया महा, अरथ विचारि गुरुदेव यो परेर है ॥८५॥ व्रत तप शील सजमादि उपवास किया, द्रव्य भावरूप दोउ बन्धको करतु है । करम जनित तातै करमको हेतु महा, बन्ध ही को करे मोक्ष पंथ को हरतु है । आप जैसो होइ ताकौ आपके समान करें, बन्ध ही को मूल यातै बन्धको भरतु हैं । याकौं परंपरा अति मानि करतूति करें, केई महा मूढ़ भवसिधु मैं परतु हैं || ८६ ॥ | कारण समान काज सब ही बखानतु है, याते परक्रियामाहि परकी धरणि है । याहि तै अनादि द्रव्य क्रिया तो अनेक करी, कछु नाहि सिद्धि भई ज्ञानकी परणि है । करमको वस जामै ज्ञानको न श्रश कोउ, बढे भववास मोक्षपंथ की हररिण है । यात परक्रिया उपादेय तो न कही जाय, ता सदाकाल एक बन्धकी ठरणि है ॥८७॥ पराधीन बाधायुत बन्धकी करैया महा, सदा बिनासीक जाको ऐसो ही सुभाव है । बन्ध, उदै, रस, फल जीमैं चार्यों एक रूप, शुभ वा अशुभ क्रिया एक ही लखाव है । करमकी चेतनामे कैसे मोक्षपथ सधै, माने तेई मूढ होए जिनके विभाव है । जैसो वोज होय ताको तेसो फल लागे जहाँ, यह जग माहि जिन आगम कहाव है ॥८८॥
शुभोपयोग सम्बन्धमें सम्यग्दृष्टिकी कैसी श्रद्धा है
१८ – श्री प्रवचनसार गाथा ११ में तथा टीकामे धर्म परिणत जीवके शुभोपयोगको शुद्धोपयोगसे विरोधी शक्ति सहित होनेसे स्व कार्य ( चारित्रका कार्यं) करनेके लिये असमर्थ कहा है, हेय कहा है। इससे ऐसा सिद्ध होता है कि- ज्ञानी ( धर्मो ) के शुभ भाव में भी किंचित् भी शुद्धि का अंश नहीं है, कारण कि वह वीतरागभावरूप मोक्षमार्ग नही हैवन्धमार्ग ही है, ऐसी बात होने पर भी जहाँ ज्ञानीके ( धर्मीके ) शुभभाव वो व्यवहार मोक्षमार्ग कहा है वह उपचारसे कहा है ।
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प्रश्न-किस अपेक्षासे वह उपचार किया है ।
उत्तर-व्यवहार चारित्रकी साथ निश्चय चारित्र हो तो वे ( शुभभाव ) निमित्तमात्र है उतना ज्ञान करानेकी अपेक्षा वह उपचार किया है ऐसा समझना।
प्रश्न-उपचार भी कुछ हेतुसे किया जाता है, तो यहाँ वह हेतु क्या है ?
उत्तर-निश्चय चारित्रके धारक जीवको छठवां गुणस्थानकमें वैसा ही शुभराग होता है परन्तु ऐसा व्यवहारसे विरुद्ध प्रकारका राग कभी भी होता ही नही, कारण कि उस भूमिकामें तीन प्रकारकी कषाय शक्तिका अभाव सहित महामंद प्रशस्तराग होता है, उसे महा मुनि नही छूटते जानकर उनका त्याग करते नही, भावलिंगी मुनिओंको कदाचित् मंदरागके उदयसे व्यवहार चारित्रका भाव होता है, परन्तु उस शुभ भावको भी हेय जानकर दूर करना चाहते हैं और उस उस कालमे ऐसा ही राग होना सम्भव है-ऐसा राग बलजोरीसे-(-अपनी स्वसन्मुखताकी कमजोरीसे ) आये विना रहता नहीं किन्तु मुनि उसे दूरसे अतिक्रान्त कर जाते हैं । इस हेतुसे यह उपचार किया है ऐसा समझना। इसप्रकार सम्यग्दृष्टिके दृढ़श्रद्धा होती है।
इस सम्बन्धमें मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ३७६-७७ में कहा है कि
"बहुरि नीचली दशाविर्षे केई जीवनिकै शुभोपयोग अर शुद्धोपयोगका युक्तपना पाइए है । तातें उपचार करि व्रतादिक शुभोपयोग कौं मोक्षमार्ग कया है । वस्तु विचार ते शुभोपयोग मोक्षका घातक ही है । जाते बन्धको कारण सोई मोक्षका घातक है ऐसा श्रद्धान करना । बहुरि शुद्धोपयोग ही की उपादेय मानि ताका उपाय करना । शुभोपयोगअशुभोपयोगको हेय जानि तिनके त्यागका उपाय करना । जहाँ शुद्धोपयोग न होय सके, तहाँ अशुभोपयोगको छोड़ि शुभ ही विष प्रवर्त्तना । जातं शुभोपयोगतै अशुभोपयोगमें अशुद्धताकी अधिकता है।
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बहुरि शुद्धोपयोग होय, तब तो परद्रव्यकी साक्षीभूत ही रहे है । तहाँ तो किछू परद्रव्यका प्रयोजन ही नाहीं । बहुरि शुभोपयोग होय, तहाँ बाह्य व्रतादिककी प्रवृत्ति होय, अर अशुद्धोपयोग होय, तहाँ बाह्य श्रव्रतादिककी प्रवृत्ति होय । जाते अशुद्धोपयोग के अर परद्रव्यकी प्रवृत्तिके निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध पाइए है । बहुरि पहले अशुभोपयोग छूटि शुभोपयोग होइ, पीछे शुभोपयोग छूटि शुद्धोपयोग होइ ऐसी क्रम परिपाटी है । परन्तु कोई ऐसें मानें कि शुभोपयोग है, सो शुद्धोपयोग को कारण है जैसे श्रशुभ छूटकर शुभोपयोग हो है, तैसे शुभोपयोग छूटि शुद्धोपयोग हो है । जो ऐसे ही कार्य कारणपना हो तो शुभोपयोगका कारण अशुभोपयोग ठहरै | ( तो ऐसा नही है ) द्रव्य लिंगी के शुभोपयोग तो उत्कृष्ट हो है, शुद्धोपयोग होता ही नाही ताते परमार्थ तैं इनके कारणकार्यपना है नाहीं ।जैसे अल्परोग निरोग होनेका कारण नही, और भला नही तैसे शुभोपयोग भी रोग समान है भला नहीं है ।
( मो० प्र० देहली पृष्ठ ३७५ से ७७ )
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सभी सम्यग्दृष्टिको ऐसा श्रद्धान होता है, परन्तु उसका अर्थ ऐसा नही है कि वे व्यवहार धर्मको मिथ्यात्व समझते हों; और ऐसा भी नही है कि उसे सच्चा मोक्षमार्ग समझते हों ।
१६ - प्रश्न - शास्त्रमें प्रथम तीन गुणस्थानोंमें अशुभोपयोग और ४–५ ६, गुणस्थानमे अकेला शुभोपयोग कहा है वह तारतम्यताकी अपेक्षा से है या - मुख्यता की अपेक्षासे है ?
उत्तर- वह कथन तारतम्यता अपेक्षा नही है परन्तु मुख्यताकी अपेक्षा से कहा है ( मो० मा० प्रकाशक, पृष्ठ ४०१, दे० ) इस सम्बन्ध मे विस्तारसे देखना हो तो प्रवचनसार ( रायचन्द्र ग्रन्थमाला ) श्र० ३ गाथा ४८ श्री जयसेनाचार्यकी टीका पृष्ठ ३४२ मे देखो ।
२०-- प्रश्न - शास्त्रमे कई जगह शुभ और शुद्ध परिणामसे कर्मोंका क्षय होता है ऐसा कथन है, अब शुभ तो श्रीदयिक भाव है-बन्धका कारण
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है ऐसा होने पर भी शुभभावसे कर्मोका क्षय बतानेका क्या प्रयोजन है ?
उत्तर-(१)-शुभ परिणाम-रागभाव-( मलिनभाव ) होनेसे वे किसी भी जीवके हो-सम्यक्दृष्टिके हो या मिथ्यादृष्टिके हो किन्तु वे मोहयुक्त उदयभाव होनेसे सम्यग्दृष्टिका शुभभाव भी बन्धका ही कारण है, सवर निर्जराका कारण नहीं है और यह बात सत्य ही है, जिसे इस शास्त्र में पृष्ठ ५४७ से ५५६ में अनेक शास्त्रके प्रमाण द्वारा दिखाया है।
(२)-शाखके कोई भी कथनका अर्थ करना हो तो प्रथम यह निर्णय करना चाहिये कि वह किस नयका कथन है ? ऐसा विचार करने पर-सम्यग्दृष्टिके शुभ भावोसे कर्मोका क्षय होता है-वह कथन व्यवहार नयका है, इसलिये उसका ऐसा अर्थ होता है कि वह ऐसा नहीं है परन्तु निमिच बतानेकी अपेक्षासे यह उपचार किया है। अर्थात् वास्तवमे वह शुभ तो कर्म बन्धका ही कारण है परन्तु सम्यग्दृष्टिके नीचेकी भूमिकामें-४ से १० गुणस्थान तक-शुद्ध परिणामके साथ वह वह भूमिकाके योग्य-शुभभाव निमित्तरूप होते है, उसका ज्ञान कराना इस उपचारका प्रयोजन है ऐसा समझना ।
(३) एक ही साथ शुभ और शुद्ध परिणामसे कर्मोका क्षय जहाँ पर कहा हो वहाँ उपादान और निमित्त दोनों उस उस गुणस्थानके समय होता है और इसप्रकारके ही होते हैं-विरुद्ध नहीं ऐसा बताकर उसमें जीवके शुद्ध भाव तो उपादान कारण है और शुभ भाव निमित्त कारण है ऐसे इन दो कारणो का ज्ञान कराया है, उसमें निमित्त कारण अभूतार्थ कारण है-वास्तवमें कारण नहीं है इसलिये शुभ परिणामसे कर्मोका क्षय कहना उपचार कथन है ऐसा समझना ।
(४) प्रवचनसार ( पाटनी ग्रन्थमाला ) गाथा २४५ की टीका पृष्ठ ३०१ मे ज्ञानीके शुभोपयोगरूप व्यवहारको "प्रास्रव ही" कहा है, अतः उनसे संवर लेशमात्र भी नही है।
श्री पचास्तिकाय गाथा १६८ में भी कहा है कि "उससे आस्रवका
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निरोध नही हो सकता," तथा गाथा १६६ में भी कहा है कि "व्यवहार मोक्षमार्ग वह सूक्ष्म परसमय है और वह बन्धका हेतु होनेसे उसका मोक्षमार्गपना निरस्त किया गया है। गाथा १५७ तथा उसकी टीकामें "शुभाशुभ परचारित्र है, बन्धमार्ग है मोक्षमार्ग नहीं है।"
(५) इस सम्बन्धमें खास लक्ष्यमें (-खयालमें ) रखने योग्य बात यह है कि पुरुषार्थ सिद्धि उपाय शास्त्रकी गाथा १११ का अर्थ बहुत समयसे कितेक द्वारा असंगत करने में आ रहा है, उसकी स्पष्टताके लिये देखो इस शाखके पत्र नं० ५५५-५६ ।
उपरोक्त सब कथनका अभिप्राय समझकर ऐसी श्रद्धा करना चाहिये कि-धर्मी जीव प्रथमसे ही शुभरागका भी निषेध करते है । अतः धर्म परिणत जीवका शुभोपयोग भी हेय है, त्याज्य है, निषेध्य है, कारण कि वह बन्धका ही कारण है । जो प्रथमसे ही ऐसी श्रद्धा नही करता उसे आस्रव और बन्ध तत्त्वकी सत्यश्रद्धा नही हो सकती, और ऐसे जीव आस्रव को संवररूप मानते हैं, शुभभावको हितकर मानते हैं इसलिये वे सभी झूठी श्रद्धावाले हैं। इस विषयमें विशेष समझनेके लिये देखो इस शासके पृष्ठ ५४७ से ५५६ । व्यवहार मोक्षमार्गसे लाभ नहीं है ऐसी श्रद्धा करने योग्य है
२१-कितेक लोग ऐसा मान रहे हैं कि शुभोपयोगसे अर्थात् व्यवहार मोक्षमार्गसे आत्माको वास्तवमे लाभ होता है तो वह बात मिथ्या है कारण कि वे सब व्यवहार मोक्षमार्गको वास्तवमे बहिरंग निमित्त कारण नही मानते परन्तु उपादान कारण मानते हैं । देखो श्री रायचन्द ग्रन्थमालाके पचास्तिकाय गाथा ८६, मे जयसेनाचार्यकी टीका
वहाँ अधर्मास्तिकायका निमित्त कारणपना कैसे है यह बात सिद्ध करनेमे कहा है कि "शुद्धात्म स्वरूपे या स्थितिस्तस्य निश्चयेन वीतरागनिविक्ल्प स्वसंवेदन कारणं, व्यवहारेण पुनरर्हत्सिद्धादि परमेष्ठि गुणस्मरणं च यथा, तथा जीव पुद्गलानां निश्चयेन स्वकीय स्वरूपमेव स्थितरूपादान कारणं, व्यवहारेण पुनरधर्मद्रव्यं चेति सूत्रार्थः। अर्थ
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अथवा जैसे शुद्धात्म स्वरूपमें ठहरनेका कारण निश्चयनयसे वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञान है तथा व्यवहार नयसे श्रहंत, सिद्धादि पंच परमेष्ठियोंका गुरणों का स्मरण है तैसे जीव पुद्गलोके ठहरनेमें निश्चयनयसे उनका ही स्वभाव ही उपादान कारण है, व्यवहारनयसे अधर्मं द्रव्य यह सूत्रका अर्थ है ।”
इस कथनसे सिद्ध होता है कि धर्म परिणत जीवको शुभोपयोगका निमित्तपना और गतिपूर्वक स्थिर होनेवालेको अधर्मास्तिका निमित्तपना समान है और इस कथनसे यह वात जानी जाती है कि निमित्तसे वास्तवमे लाभ ( हित ) माननेवाले — निमित्तको उपादान ही मानते है, व्यवहारको निश्चय ही मानते हैं अर्थात् व्यवहार मोक्षमार्ग से वास्तवमे लाभ मानते हैं इसलिये वे सब मिथ्यादृष्टि है, श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ३७८ मे भी ऐसा कहा है कि - "यहु जीव निश्वयाभासको माने जाते है । परन्तु व्यवहार साधन कौं भला जानैं है, ... व्रतादिरूप शुभोपयोगरूप प्रवर्त है ताते अन्तिम ग्रैवेयक पर्यंत पद को पावै है । परन्तु ससारका ही भोक्ता रहे है ।"
केवलज्ञान, क्रमबद्ध - क्रमवर्ती
२२ –—–— केवलज्ञान सबधी अनेक प्रकारकी विपरीत मान्यता चल रही है, अत उनका सच्चा स्वरूप क्या है वह इस शास्त्रमे पत्र २०० से २१४ तक दिया गया है उस मूल बातकी ओर आपका ध्यान खीचनेमे आता है । (१) केवली भगवान् आत्मज्ञ है, परज्ञ नही है ऐसी भी एक झूठी मान्यता चल रही है परन्तु श्री प्रवचनसार गाथा १३ से ५४ तक टीका सहित उनका स्पष्ट समाधान किया है, उनमे गाथा, ४८ मे कहा है कि "जो एक ही साथ त्रैकालिक त्रिभुवनस्थ पदार्थोंको नही जानता, उसे पर्याय सहित एक द्रव्य भी जानना शक्य नही है," बादमें विस्तारसे टीका करके अन्तमे कहा है कि " इसप्रकार फलित होता है कि जो सबको नही जानता वह अपनेको ( आत्माको ) नही जानता ।" प्र० सार गाथा ४६ ( पाटनी ग्रन्थमाला ) मे भी बहुत स्पष्ट कहा है, गाथा पर टीकाके साथ जो कलश दिया है वह खास सूक्ष्मता से पढने योग्य है ।
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शुद्धोपयोग का फल केवलज्ञान है इसलिये केवलज्ञान प्रगट करनेके लिये शुद्धोपयोग अधिकार शुरू करते प्राचार्यदेवने प्रवचनसार गाथा १३ की भूमिकामें कहा है कि "इसप्रकार यह ( भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेव) समस्त शुभाशुभोपयोगवृत्चिको अपास्तकर, ( हेय मानकर, तिरस्कार करके, दूर करके ) शुद्धोपयोगवृत्तिको आत्मसात् ( अपनेरूप ) करते हुए शुद्धोपयोग अधिकार प्रारम्भ करते है। उसमे ( पहले ) शुद्धोपयोगके फलकी प्रात्माके प्रोत्साहनके लिये प्रशंसा करते है" कारण कि शुद्धोपयोग का ही फल केवलज्ञान है।
उस केवलज्ञानके संबंधमे विस्तारसे स्पष्ट आधार द्वारा समझनेके लिये देखो इस शास्त्रके पत्र नं० २०० से २१४ तक ।
(२) प्रवचनसार गा. ४७ की टीकामें सर्वज्ञका ज्ञानके स्वभावका वर्णन करते २ कहा है कि "अतिविस्तारसे बस हो, जिसका अनिवारित फैलाव है, ऐसा प्रकाशमान होनेसे क्षायिक ज्ञान अवश्यमेव सर्वदा, सर्वत्र, सर्वथा, सर्वको जानता है" इससे ही सिद्ध होते हैं कि सर्वज्ञेयोका सम्पूर्ण स्वरूप-प्रयेक समयमें केवलज्ञानके प्रति सुनिश्चित होनेसे अनादि अनन्त क्रमबद्ध-क्रमवति पर्याये केवलज्ञानीके ज्ञानमे स्पष्ट प्रतिभासित हैं और वे सुनिश्चित होनेसे सब द्रव्योंकी सब पर्यायें क्रमबद्ध ही होती हैं, उल्टी-सीधी, अगम्य वा अनिश्चित होती ही नही ।
(३) पर्यायको क्रमवर्ती भी कहने में प्राता है उसका अर्थ श्री पंचास्तिकायकी गाथा १८ की टीकामे ऐसा किया है कि-"क्योंकि वे (पर्यायें) क्रमवर्ती होनेसे उनका स्वसमय उपस्थित होता है
और बीत जाता है ।" बादमे गाथा २१ की टीकामे कहा है कि "जब जीव, द्रव्यको गौणतासे तथा पर्यायकी मुख्यतासे विवक्षित होता है तब वह (१) उपजता है, (२) विनष्ट होता है, (३) जिसका स्वकाल बीत गया है ऐसे सत् (-विद्यमान) पर्याय समूहको विनष्ट करता है और (४) जिसका स्वकाल उपस्थित हुआ है (-आ पहुँचा है) ऐसे असत् को ( अविद्यमान पर्याय समूहको ) उत्पन्न करता है।
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(४) पंचाध्यायी भाग १ गाथा १६७-६८ में कहा है कि " 'क्रम' धातु है जो पाद विक्षेप अर्थ में प्रसिद्ध है" गमनमें पैर दायाँ बायाँ क्रमसर ही चलते हैं उलटे क्रमसे नही चलता इसप्रकार द्रव्योंकी पर्याय भी क्रमबद्ध होती है, जो अपने अपने अवसरमे प्रगट होती है, उसमें कोई समय पहिले को पीछे और पीछेवाली पहिले ऐसे उलटी सीधी नहीं होती अतः प्रत्येक पर्याय अपने स्व समयमे ही क्रमानुसार प्रगट होती रहती है।
(५) पर्यायको क्रमभावी भी कहनेमें आता है, श्री प्रमेयकमलमार्तण्ड न्यायशास्त्रमे [ ३, परोक्ष परि० सू० ३ गाथा १७-१८ की टीका में ] कहा है कि 'पूर्वोत्तर चारिणोः कृतिकाशकटोदयादिस्वरूपयोः कार्यकारणयोः श्चाग्नि धुमादिस्वरूपयोः इति । वे नक्षत्रोंका दृष्टान्तसे भी सिद्ध होता है कि जैसे नक्षत्रोके गमनका क्रमभावीपना कभी भी निश्चित क्रमको छोड़कर उलटा नही होता वैसे ही, द्रव्योंकी प्रत्येक पर्यायोंका उत्पाद व्ययरूप प्रवाहका क्रम अपने निश्चित क्रमको छोड़कर कभी भी उलटा सीधा नही होता परन्तु उसका निश्चित स्व समयमे उत्पाद होता रहता है।
(६) केवली-सर्वज्ञका ज्ञानके प्रति-सर्वज्ञेयों सर्वद्रव्योंकी त्रिकालवति सर्व पर्यायें ज्ञेयपनासे निश्चित ही है और क्रमबद्ध है उसकी सिद्धि करनेके लिये प्रवचनसार गाथा ६६ की टीकामे बहुत स्पष्ट कथन है विशेष देखो, पाटनी ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित प्र० सार गाथागाथा
पृष्ठ १२ टीका और भावार्थ ___ २७-२६ "
४४
३६
४१ ४८-४६
४६ ४८ ५५ से ५८.
५१
५६
१२४-२६ "
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गाथा
११३ पृष्ठ १४७-४८ टीका और भावार्थ
२०० - २४३ " (७) श्री समयसारजी शास्त्रकी टीकामें कलशोंकी श्री राजमलजी कृत टीका ( सूरतसे प्रकाशित ) में पृष्ठ १० मे कहा है कि ताको व्योरो"यह जीव इतना काल वीत्या मोक्ष जासै इसो न्योधु ( नोंध ) केवलज्ञान माहे छै ।"
(८) अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी भी भविष्यकी पर्यायोंको निश्चितरूपसे स्पष्ट जानते ही हैं, और नक्षत्रों, सूर्य, चन्द्र तथा ताराप्रोकी गति उदय अस्त ग्रहणकाल आदिको निश्चितरूपसे अल्पज्ञ जीव भी जान सकते हैं तो सर्वज्ञ वीतराग पूर्णज्ञानी होनेसे सर्व द्रव्योंकी सर्व पर्यायोंको निश्चितरूपसे ( उसके क्रममे नियत ) कैसे नही जान सकता ?-अवश्य जानता ही है।
(8) इस कथनका प्रयोजन-स्वतंत्र वस्तु स्वरूपका ज्ञान द्वारा केवलज्ञान स्वभावी अपनी आत्माका जो पूर्णस्वरूप है उसका निश्चय करके, सर्वज्ञ वीतराग कथित तत्त्वार्थोका वास्तविक श्रद्धान कराना और मिथ्या श्रद्धा छुड़ाना चाहिये । क्रमबद्धके सच्चे श्रद्धानमे कर्तापनेका और पर्यायका आश्रयसे छूटकर अपना त्रैकालिक ज्ञाता स्वभावकी दृष्टि और आश्रय होता है, उसमे स्वसन्मुख ज्ञातापनेका सच्चा पुरुषार्थ, स्वभाव, काल नियति और कर्म उन पांचोंका समूह एक ही साथ होता है, यह नियम है। ऐसा अनेकान्त वस्तुका स्वभाव है ऐसा श्रद्धान करना, कारण कि उसकी श्रद्धा विना किये सच्ची मध्यस्थता आ सकतो नही ।
२३-तत्त्वज्ञानी स्व० श्री पं० बनारसीदासजीने 'परमार्थ वचनिकामे' ज्ञानी अज्ञानीका भेद समझनेके लिये कहा है कि:
(१) अब मूढ़ तथा ज्ञानी जीवको विशेषपणों और भी सुनो,ज्ञाता तो मोक्षमार्ग साघि जान, मूढ़ मोक्षमार्ग न साधि जाने, काहे-यात
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सुनो - मूढ जीव आगमपद्धतिको व्यवहार कहै, अध्यात्म पद्धतिको निश्चय कहै तातें आगम श्रङ्ग एकान्तपनी साधिकै मोक्षमार्ग दिखावै, अध्यात्मअङ्गको ÷व्यवहारसे ( भी ) न जाने, यह मूढदृष्टिको स्वभाव, वाही याही भाँति सू काहेते ? — याते जू - श्रागमअंग बाह्य क्रियारूप प्रत्यक्ष प्रमाण है, ताको स्वरूप साधिवो सुगम ता (वे ) बाह्य क्रिया करतो संतौ आपकू ं मूढ़ जीव मोक्षको अधिकारी माने, ( परन्तु ) अन्तरगर्भित अध्यात्मरूप क्रिया सो अन्तरदृष्टि ग्राह्य है सो क्रिया मूढ जीव न जाने | अन्तरदृष्टिके अभावसो अन्तरक्रिया दृष्टिगोचर आवे नाही, तातें मिथ्यादृष्टि जीव मोक्षमार्ग साधिवेको असमर्थ है ।
(२) अथ सम्यक दृष्टिको विचार सुनौ
सम्यग्दृष्टि कहा ( कौन ) सो सुनो - संशय, विमोह, विभ्रम ए तीन भाव जामैंनाही सो सम्यग्दृष्टि । संशय, विमोह, विभ्रम कहा -ताको स्वरूप दृष्टान्त करि दिखायतु है सो सुनो-जैसे च्यार पुरुष काहु एकस्थान विषं ठाढे | तिन्ह चारि हूँ के आगे एक सीपको खण्ड किन्ही ओर पुरुषने श्रानि दिखायो । प्रत्येक ते प्रश्न कीनो कि यह कहा है ? सीप है के रूपो है, प्रथम ही एक पुरुष संशैवालो बोल्यो- कछु सुध नाही परत, किधी सीप है किधौ रूपो है मोरी दिष्टिविषे याको निरधार होत नाहि ने । भी दूजो पुरुष विमोहवालो बोल्यो कि कछु मोहि यह सुधि नाही कि तुम सीप कौनसौ कहतु है रूपी कौनसी कहतु है मेरी दृष्टिविषै कछु श्रावतु नाही ताते हम नांहि जानत कि तू कहा कहतु है अथवा चुप ह्व रहे बोल नाही गहलरूप सौ । भी तीसरो पुरुष विभ्रमवालो बोल्यो कि - यह
* - श्रागम पद्धति - दो प्रकार से है - (१) भावरूप पुद्गलाकार आत्माकी अशुद्ध परिणतिरूप-अर्थात् दया, दान, पूजा, अनुकम्पा, अनत तथा अणुव्रत - महाव्रत, मुनि २८ मूलगुणोका पालनादि शुभभावोरूप जीवके मलिन परिणाम । (२) द्रव्यरूप पुद्गल परिणाम |
:-अन्तर्दृष्टि द्वारा मोक्षपद्धतिको साधना सो अध्यात्म अंगका व्यवहार है ।
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तो प्रत्यक्ष प्रमान रूपो है याको सीप कोन कहै मेरी दृष्टिविप तो रूपो सुझतु है तातै सर्वथा प्रकार यह रूपो है सो तीनी पुरुष ती वा सीप को स्वरूप जान्यो नाही। ताते तीनों मिथ्यावादी । अब चोथो पुरुप वोल्यो कि यह तो प्रत्यक्ष प्रमान सीप को खण्ड है यामे कहीं धोखो, सीप सीप सीप, निरधार सीप, याको जु कोई और वस्तु कहै सो प्रत्यक्ष प्रमाण भ्रामक अथवा अंध, तैसें सम्यग्दृष्टिको स्वपरस्वरूपविष न संसे है, न विमोह, न विभ्रम, यथार्थदृष्टि है तातै सम्यग्दृष्टि जीव अन्तरदृष्टि करि मोक्षपद्धति साधि जाने । बाह्यभाव बाह्यनिमिचरूप * मान; सो निमित्त नानारूप है, एकरूप नाहीं, अन्तरदृष्टिके प्रमान मोक्षमार्ग साथै सम्यग्ज्ञान स्वरूपाचरन की कनिका जागे मोक्षमार्ग सांचौ । मोक्षमार्ग को साधिवो यह व्यवहार, शुद्धद्रव्य+अक्रियारूप सो निश्चे। ऐसे
* व्यवहारनय अशुद्ध द्रव्यको कहनेवाला होनेसे जितने अलग २, एक २ भावस्वरूप अनेक भाव दिखाये हैं ऐसा वह विचित्र अनेक वर्णमालाके समान होनेसे, जानने में आता हुआ उसकाल प्रयोजनवान है, परन्तु उपादेयरूपसे प्रयोजनवान नही है ऐसी समझ पूर्वक सम्यग्दृष्टि जीव अपने चारित्रगुणकी पर्यायमें आशिक शुद्धताके साथ जो शुभप्रश है उसे वाह्यभाव और बाह्य निमित्तरूपसे जानते हैं । शास्त्र में कही पर उस शुभको शुद्ध पर्यायका व्यवहारनयसे साधक कहा हो तो उसका अर्थ वे वाह्य निमित्तमात्र है-हेय है ऐसा मानता है, अतः वे आश्रय करने योग्य या हितकर न मानकर बाधक ही है ऐसा मानता है।
-पाटनी ग्रन्थमाला श्री प्रवचनसार गा.६४ में "अविचलित चेतनामात्र आत्मव्यवहार है" ऐसा टीकामें पृष्ठ १११-१२ में कहा है, उसे यहाँ 'मोक्षमार्ग साधिवो उसे व्यवहार' ऐसा निरूपण किया।
___ +-कालिक एकरूप रहनेवाला जो प्रात्माका ध्र व ज्ञायकभाव है वह भतार्थ-निश्चयनयका विषय होनेसे उसे 'शुद्धद्रव्य अक्रियारूप' कहा गया है, उसे परमपारिणामिक भाव भी कहने में प्राता है और वह नित्य सामान्य द्रव्यरूप होनेसे निष्क्रिय है तथा क्रिया पर्याय है इससे व्यवहारनयका विषय है।
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व्यवहार को स्वरूप सम्यग्दृष्टि जाने, मूढजोव न जान न मान । मूढ जीव बन्ध पद्धतिको साधिकरि मोक्ष कहै, सो वात ज्ञाता माने नाहीं । काहेत, यातें जु बंधके साधते बंध सधै, मोक्ष सधै नाहीं । ज्ञाता कदाचित् बंध पद्धति विचार तब जाने कि या पद्धतिसौ * मेरो द्रव्य अनादि को वंधरूप चल्यो आयो है-अब या पद्धतिसो:मोह तोरिवो है या पद्धतिको राग पूर्वकी ज्यो हे नर काहे करौ ? ।
छिनमात्र भी बन्ध पद्धतिविष मगन होय नाही सो ज्ञाता अपनो स्वरूप विचारै, अनुभवै, ध्यावै, गाव, श्रवन कर, नवधा भक्ति, तप क्रिया अपने शुद्ध स्वरूपके सन्मुख होइकरि करै । यह ज्ञाताको आचार, याहीको नाम मिश्रव्यवहार । (४) अब हेय ज्ञेय उपादेयरूप ज्ञाताकी चाल ताको विचार लिख्यते
हेय-त्यागरूप तो अपने द्रव्यकी अशुद्धता, ज्ञेय-विचाररूप अन्य षद्रव्यको स्वरूप-उपादेय आचरनरूप अपने द्रव्यकी शुद्धता, ताको व्योरी-गुणस्थानक प्रमान हेय ज्ञेय उपादेयरूप शक्ति ज्ञाताकी होय । ज्यों ज्यों ज्ञाताकी हेय ज्ञेय उपादेयरूप वर्धमान होय त्यो त्यो गुणस्थानककी बढ़वारी कही है, गुणस्थानक प्रवान ज्ञान, गुणस्थानक प्रमान क्रिया । तामैं विशेष इतनौ जु एक गुणस्थानकवर्ती अनेक जीव होहिं तो अनेक रूपको ज्ञान कहिए, अनेकरूपकी क्रिया कहिए । भिन्न भिन्न सत्ताके प्रवान करि
•-यहाँ सम्यग्दृष्टि जीवको उसको भूमिकाके अनुसार होनेवाले शुभभावको भी वन्ध पद्धति-कही है । बन्धमार्ग,-बन्धका कारण,-बन्धका उपाय और वधपद्धति एकार्थ है।
सम्यग्दृष्टि शुभभावको वन्धपद्धतिमें गिनते हैं इससे इनसे लाभ या किंचित् हित मानते नही, और उनका प्रभाव करनेका पुस्पार्थ करता है इसलिये यह बन्धपद्धतिका मोह तोड़कर स्वसन्मुख प्रवर्तनका उद्यम करते हुए शुद्धतामें वृद्धि करने की सीख अपने को दे रहे हैं।
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एकता मिले नाही । एक एक जीव द्रव्य विषै अन्य अन्यरूप औदयिक भाव होंहि तिन औदयिकभाव अनुसारी ज्ञानकी अन्य अन्यता जाननी । परन्तु विशेष इतनो जु कोऊ जातिको ज्ञान ऐसो न होइ जु परसत्तावलम्बकशीली होइ करि मोक्षमार्ग साक्षात् कहे काहे ते अवस्था प्रवान ( कारण कि अवस्थाके प्रमानमें ) परसत्तावलम्बक है । ने ज्ञानको परसत्तावलम्बी परमार्थता न कहे, जो ज्ञान हो सो स्वसत्तावलम्बनशीली होय ताके नाऊ ज्ञान । ता ज्ञान ( उसज्ञान ) को सहकारभूत, निमित्तरूप नाना प्रकारके प्रौदयिकभाव होंहि तीन्ह प्रौदयिकभावोको ज्ञाता तमासगीर, न कर्ता न भोक्ता, न अवलम्बी तातै कोऊ यों कहै कि या भांतिके औदयिकभाव होहि सर्वथा, तो फलानों गुणस्थानक कहिए सो झूठो। तिनि द्रव्य को स्वरूप सर्वथा प्रकार जान्यौ नाही । काहेते-यात जु और गुणस्थानकनकी कौन बात चलावै, केवलिके भी औदयिक भावनिको नानात्वता ( अनेक प्रकारता ) जाननी । केवलीके भी औदयिकभाव एकसे होय नाही । काहू केवलि को दण्ड कपाटरूप क्रिया उदय होय, काहू केवलिको नाही । तो केवलिविर्ष भी उदयकी नानात्वता है तौ और गुणस्थानककी कौन बात चलावै । ताते औदयिक * भावके भरोसे ज्ञान नाही ज्ञान स्वशक्ति प्रवान है । स्व-परप्रकाशक ज्ञानकी शक्ति, ज्ञायक प्रमान ज्ञान स्वरूपाचरनरूप चारित्र, यथानुभव प्रमान यह ज्ञाताको सामर्थ्य पनी ।
इन वातनको व्योरो कहांतांई लिखिये कहांताई कहिए । वचनातीत इन्द्रियातीत ज्ञानातीत, तातै यह विचार बहुत कहा लिखहि । जो ज्ञाता होइगो सो थोरी ही लिख्यो बहुत करि समुझेगो जो अज्ञानी होयगो सो यह चिट्ठी सुनगो सही परन्तु समुझेगा नही यह-वचनिका यथाका यथा सुमति प्रवान केवलिवचनानुसारी है। जो याहि सुरणैगो समुझेगो सरदहगो ताहि कल्याणकारी है भाग्यप्रमाण । इति परमार्थ वचनिका
* यहां सम्यग्दृष्टिके शुभोपयोगको प्रौदयिकभाव कहा है और वह प्रौदपिक भावने मंवर निर्जरा नहीं परन्तु बन्ध होता है।
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४१
२४ - समाज नें आत्मज्ञान के विषय में अपूर्व जिज्ञासा और जागृति
(१) जिसे सत्यकी ओर रुचि होने लगी है, जो सत्यतत्त्वको समभने वीर निर्णय करनेके इच्छुक हैं वह समाज, मध्यस्थता से शाखोकी स्वाध्याय और चर्चा करके नयाथं, अनेकान्त, उपादान निमित्त, निश्चय, व्यवहार दो नयोंकी सच्ची व्याख्या और प्रयोजन तथा मोक्षमार्गका दो प्रकारसे निरूपण, हेय उपादेय और प्रत्येक द्रव्यकी पर्यायोकी भी स्वतंत्रता केवलज्ञान और क्रमबद्ध पर्याय आदि प्रयोजनभूत विषयोमे उत्साहसे मध्यान कर रहे हैं और तत्त्वनिर्णयके विपयमे समाजमें खास विचारोका प्रवाह चल रहा है ऐसा नीचेके आधारसे भी सिद्ध होता है
-
(२) श्री भारत० दि० जैन सघ ( मथुरा ) द्वारा ई० सन् १९४४ मैं प्रकाशित मोक्षमार्ग प्रकाशक ( पं० टोडरमलजी कृत ) की प्रस्तावना पृष्ठ में शास्त्रीजीने कहा है कि "अव तक शास्त्रस्वाध्याय और पारस्परिक चर्चाओ में एकान्त निश्चयी और एकान्तव्यवहारीको ही मिथ्यादृष्टि कहते सुनते आए हैं । परन्तु दोनो नयोका अवलम्वन करनेवाले भी मिथ्यादृष्टि हो सकते है यह आपकी ( स्व० श्री टोडरमलजीकी ) नई और विशेष चर्चा है । ऐसे मिथ्यादृष्टियोके सूक्ष्मभावोका विश्लेषण करते हुए आपने कई पूर्व वातें लिखी हैं । उदाहरण के लिए आपने इस बातका खण्डन किया है कि मोक्षमागं निश्चय व्यवहाररूप दो प्रकारका है । वे लिखते है कि यह मान्यता निश्चय व्यवहारावलम्बी मिथ्यादृष्टियो की है, वास्तवमे पाठक देखेंगे कि जो लोग निश्चय सम्यग्दर्शन, व्यवहार सम्यग्दर्शन, निश्चय रत्नत्रय, व्यवहार रत्नत्रय, निश्चयमोक्षमार्ग, व्यवहार मोक्षमार्ग इत्यादि भेदोकी रातदिन चर्चा करते रहते है उनके मंतव्य से पण्डितजीका मंतव्य कितना भिन्न है ? | इसीप्रकार आगे चलकर उन्होने लिखा है कि निश्चय व्यवहार दोनोंको उपादेय मानना भी भ्रम है, क्योंकि दोनों नयोंका स्वरूप परस्पर विरुद्ध हैं, इसलिये दोनों नयोंका उपादेयपना नहीं बन सकता । अभी तक तो यही धारणा थी कि न केवल निश्चय
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४२
उपादेय है और न केवल व्यवहार किन्तु दोनों ही उपादेय हैं किन्तु पंडितजीने इसे मिध्यादृष्टियोंकी प्रवृत्ति बतलाई है ।"
आगे पृष्ठ ३० मे उद्धरण दिया है कि 'जो ऐसा मानता है कि निश्चयका श्रद्धान करना चाहिये और प्रवृत्ति व्यवहारकी रखना चाहिये' उन्हें भी मिथ्यादृष्टि ही बतलाते हैं ।
२५ - इस शास्त्रकी इस टीकाके आधारभूतशास्त्र
इस टीकाका संग्रह - मुख्यतया श्री सर्वार्थसिद्धि, श्री तत्त्वार्थ राजवार्तिक, श्री श्लोकवार्तिक, श्री अर्थ प्रकाशिका, श्री समयसार, श्री प्रवचनसार, श्री पचास्तिकाय, श्री नियमसार, श्री धवला - जयघवला - महाबन्ध तथा श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक इत्यादि अनेक सत् शास्त्रोके आधार पर किया गया है, जिसकी सूची भी इस ग्रन्थमे शुरूमे दी गई है ।
२६ - अध्यात्म योगी सत्पुरुष श्री कानजी स्वामीकी कृपाका फल
मोक्षमार्गका सत्य पुरुषार्थं दर्शानेवाले, परम सत्य जैनधर्मके मर्म के पारगामी और अद्वितीय उपदेशक, आत्मज्ञ, सत्पुरुष श्री कानजी स्वामीसे मैंने इस ग्रन्थको पाण्डुलिपि पढ़ लेनेकी प्रार्थना की और उन्होने उसे स्वीकारने की कृपा की । फलस्वरूप उनकी सूचनानुसार सुधार करके मुद्रण के लिये भेजा गया । इसप्रकार यह ग्रंथ उनकी कृपाका फल हैऐसा कहनेकी आज्ञा लेता हूँ । इस कृपाके लिये उनका जितना उपकार व्यक्त करें उतना कम ही है ।
२७ - मुमुक्षु पाठकों से......
मुमुक्षुत्रोको इस ग्रथका सूक्ष्म दृष्टिसे और मध्यस्थरूपसे अध्ययन करना चाहिए। सत् शास्त्रका धर्म बुद्धि द्वारा अभ्यास करना सम्यग्दर्शनका चारण है । तदुपरान्त, शास्त्राभ्यासमे निम्न बाते मुख्यतया ध्यानमे रखना चाहिए
(१) निश्वयनय सम्यग्दर्शनसे ही धर्मका प्रारम्भ होता है ।
(२) निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट किये बिना किसी भी जीवको सच्चे
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४३
व्रत, सामायिक प्रतिक्रमण, तप, प्रत्याख्यानादि क्रियाएँ नही होती क्योंकि वे क्रियाएँ पाँचवे गुणस्थानमें शुभभावरूपसे होती है ।
(३) शुभभाव ज्ञानी और अज्ञानी दोनोंको होता है, किन्तु अज्ञानी जीव ऐसा मानता है कि उससे धर्म होगा, अथवा वह शुभभावरूप व्यवहार करते-करते भविष्यमे धर्म होगा; किन्तु ज्ञानियोको वो हेय बुद्धिसे होने से, उससे (- शुभभावसे धर्म होगा ) ऐसा वे कभी नही मानते ।
(४) पूर्ण वीतरागदशा प्रगट न हो वहाँ तक पद अनुसार शुभभाव ये विना नही रहते किन्तु उस भावको धर्म नही मानना चाहिए और न ऐसा मानना चाहिये कि उससे क्रमशः धर्म होगा; क्योकि वह विकार होनेसे अनन्त वीतराग देवोने उसे बन्धनका ही कारण कहा है ।
(५) प्रत्येक वस्तु द्रव्य-गुरण - पर्यायसे स्वतन्त्र है; एक वस्तु दूसरी वस्तुका कुछ कर नही सकती; परिणमित नही कर सकती, प्रेरणा नही दे सकती, प्रभाव - असर - मदद या उपकार नही कर सकती; लाभ-हानि नही कर सकती, मार - जिला नही सकती, सुख-दुख नही दे सकती - ऐसी प्रत्येक द्रव्य-गुरण-पर्यायकी स्वतंत्रता अनन्त ज्ञानियोने पुकार पुकार कर कही है ।
(६) जिनमतमें तो ऐसी परिपाटी है कि पहले निश्चय सम्यक्त्व होता है और फिर व्रत; और निश्चय सम्यक्त्व तो विपरीत अभिप्राय रहित जीवादि तत्त्वार्थ श्रद्धान है, इसलिये ऐसा यथार्थ श्रद्धान करके सम्यग्दृष्टि होना चाहिये ।
(७) प्रथम गुरणस्थानमे जिज्ञासु जीवोंको ज्ञानी पुरुषोके धर्मोपदेशका श्रवण, उनका निरन्तर समागम, सत्शाखका अभ्यास, पठनमनन, देवदर्शन, पूजा, भक्ति, दानादि शुभभाव होते हैं, किन्तु पहले गुणस्थानमे सच्चे व्रत -तपादि नही होते ।
(२८) अन्तमें
मोक्षशास्त्रके गुजराती टीका परसे हिन्दी अनुवाद करनेका कार्य
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४४ कठिन परिश्रम साध्य; उसको पूरा करनेवाले श्री पं० परमेष्ठीदासजी न्यायतीर्थ धन्यवादके पात्र है ।
___इस शास्त्रको प्रथमावृत्ति तथा दूसरी इस आवृत्ति तैयार करने में अक्षरशः मिलान करके जांचनेके कार्य में तथा शास्त्रानुसार स्पष्टता करनेके कार्यमें प्रेम पूर्वक अपना समय देकर बहुत श्रम दिया है उस सहायके लिये श्री ब्र० गुलाबचन्दभाईको प्राभार सह धन्यवाद है।
हिन्दी समाजको इस गुजराती-मोक्षशास्त्र टीकाका लाभ प्राप्त हो इसलिये उसका हिन्दी अनुवादन करानेके लिये तथा दूसरी आवृत्तिके लिये श्री नेमिचन्दजी पाटनीने पुनः पुनः प्रेरणा की थी, और कमल प्रि० प्रेसमें यह शाख सुन्दर रीतिसे छपानेकी व्यवस्था करनेके लिये श्री नेमिचन्दजी पाटनी (प्रधान मन्त्री श्री पाटनी दि० जैन ग्रंथमाला, मारोठ-राजस्थान) को धन्यवाद है।
____ इस प्रथका प्रूफ रीडिंग, शुद्धिपत्र, विस्तृत विषय सूची, शब्दसूचि आदि तैयार करनेका कार्य सावधानीसे श्री नेमीचन्दजी बाकलीवाल (-मदनगंज ) ने तथा ब्र० गुलाबचन्दजीने किया है, अतः उन्हे भी धन्यवाद है। अक्षय तृतीया
रामजी माणेकचन्द दोशी, वीर नि० सम्वत् २४८६
-प्रमुखश्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट
सोनगढ़
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श्री मोक्षशास्त्र टीका की विषय सूची
*
पत्र संख्या
सूत्र नम्बर
विषय मंगलाचरण शास्त्रके विषयोंका संक्षेपमें कथन
प्रथम अध्याय पृष्ठ ५ से ११८ तक १ मोक्षकी प्राप्तिका उपाय-निश्चय मोक्षमार्गः
पहले सूत्रका सिद्धान्त २ निश्चय सम्यग्दर्शनका लक्षण 'तत्व' शब्दका मर्म सम्यग्दर्शनकी महिमा सम्यग्दर्शनका बल सम्यग्दर्शनके भेद तथा अन्य प्रकार सराग सम्यग्दृष्टिके प्रशमादि भाव सम्यग्दर्शनका विषय-लक्ष्य-स्वरूप
यह सूत्र निश्चय सम्यग्दर्शनके लिये है उसके शास्त्राधार ३ निश्चय सम्यग्दर्शनके उत्पत्तिकी अपेक्षासे भेद
तीसरे सूत्रका सिद्धान्त ४ तत्वोंके नाम तथा स्वरूप
चौथे सूत्रका सिद्धान्त ५ निश्चय सम्यग्दर्शनादि शब्दोंके अर्थ समझनेकी रीति निक्षेपके भेदोंकी व्याख्या
पॉचवे सूत्रका सिद्धान्त ६ निश्चय सम्यग्दर्शनादि नाननेका उपाय
प्रमाण, नय, युक्ति अनेकान्त एकान्त, सम्यक् और मिथ्या अनेकान्तका स्वरूप
तथा दृष्टान्त
२८-२६
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४७
४८
५१
५३
सूत्र नम्बर
विषय
पत्र संख्या 'सत्' शब्दके प्रयोगका कारण संख्या और विधानमें अन्तर क्षेत्र और अधिकरणमें अन्तर वगैरह 'भाव' शब्दका निक्षेपके सूत्र में कथन होने पर भी यहाँ किसलिये
कहा ? विस्तृत वर्णनका प्रयोजन, ज्ञान सम्बन्धी विशेष स्पष्टीकरण
सूत्र ४ से ८ तकका तात्पर्यरूप सिद्धान्त ६ सम्यग्ज्ञानके भेद-मतिज्ञानादि पाँचों प्रकारका स्वरूप
नवमें सूत्रका सिद्धान्त कौनसे ज्ञान प्रमाण हैं ?
सूत्र -१० का सिद्धान्त ११ परोक्ष प्रमाणके भेद
५५ क्या सम्यक् मतिज्ञान यह जान सकता है कि अमुक जीव भव्य
है या अभव्य ? मति-श्रुतिज्ञानको परोक्ष कहा उसका विशेष समाधान १२ प्रत्यक्ष प्रमाणके भेद मतिज्ञानके नाम
५८ १४ मतिज्ञानकी उत्पत्तिके समय निमित्त
मतिज्ञानमें ज्ञेय पदार्थ और प्रकाशको भी निमित्त क्यों नहीं कहा ? ६२ निमित्त और उपादान
६४-६५ १५ मतिज्ञानके क्रमके भेद-अवग्रह, ईहादिका स्वरूप
६५ १६ अवग्रहादिके विषयभूत पदार्थ बहु, बहुविधादि बारह भेदकी व्याख्या
६७-६८ प्रत्येक इन्द्रिय द्वारा होनेवाले इन बारह प्रकारके मतिज्ञानका स्पष्टीकरण,
६६ शका-समाधान १७ अवग्रहादिके विषयभूत पदार्थ भेद किसके हैं ?
७६
५८
६०
६७
७२-७५
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७७
०
~
१६
~
४८ सूत्र नम्बर विषय
पत्र संख्या १८ अवग्रह ज्ञानमें विशेषता
अर्थावग्रह-व्यंजनावग्रहके दृष्टान्त अव्यक्त-व्यक्तका अर्थ अव्यक्त और व्यक्तज्ञान अर्थात् व्यंजनावग्रह-अर्थावग्रह ईहा, अवाय, धारणाका विशेष स्वरूप एकके बाद दूसरा ज्ञान होना ही है या नहीं? ईहा ज्ञान सत्य है ? धारणा' और 'संस्कार के बारेमें स्पष्टीकरण चार भेदोंकी विशेषता व्यंजनावग्रहज्ञान नेत्र और मनसे नहीं होता श्रुतज्ञानका वर्णन, उत्पत्तिका क्रम तथा उसके भेद श्रुतज्ञानकी उत्पत्तिके दृष्टान्त अक्षरात्मक, अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान श्रतज्ञानी उत्पत्तिमें मतिज्ञान निमित्तमात्र है मतिज्ञानके समान ही श्रुतज्ञान क्यों नहीं ? श्रुतज्ञान साक्षात् मतिज्ञानपूर्वक और परम्परा मतिपूर्वक ८३-८४ भावश्रुत और द्रव्यश्रत प्रमाणके दो प्रकार, 'श्रुत' के अर्थ चारह अंग, चौदह पूर्व मति और श्रतज्ञानके बीचका भेद विशेष स्पष्टीकरण
८७ सूत्र ११ से २० तकका सिद्धान्त २१ अवधिज्ञानका वर्णन-भव और गुण अपेक्षासे २२ क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञानके भेद तथा उनके स्वामी ८६
अनुगामी आदि छह भेदका वर्णन द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अपेक्षासे अवधिज्ञानका विपय १०-११ क्षयोपशमका अर्थ
६१
40
८४
६
८८
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४६ सूत्र नम्बर
विषय
पत्र संख्या सूत्र २१-२२ का सिद्धान्त २३ मनःपर्यय ज्ञानके भेद २४ ऋजुमति और विपुलमतिमें अन्तर २५ अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानमें विशेषता २६ मति-श्रुतज्ञानका विषय २७ अवधिज्ञानका विषय । २८ मनःपर्ययज्ञानका विषय सूत्र २७-२८ का सिद्धान्त
१८ २६ केवलज्ञानका विषय
केवली भगवानके एक ही ज्ञान होता है या पॉचों
सूत्र २६ का सिद्धान्त ३० एक जीवके एक साथ कितने ज्ञान हो सकते हैं ?
१०० सूत्र 8 से ३० तकका सिद्धान्त
१०१ ३१ मति, श्रुत और अवधिज्ञानमें मिथ्यात्व भी होता है ३२ मिथ्यादृष्टि जीवके ज्ञानको मिथ्या क्यों कहा ?
कारणविपरीतता, स्वरूपविपरीतता, भेदाभेदविपरीतता, १०४-५ इन तीनोंको दूर करनेका उपाय
१०५ सत् असत् , ज्ञानका कार्य, विपरीत ज्ञानके दृष्टान्त १०६-१०८ ३३ प्रमाणका स्वरूप कहा, श्रुतज्ञानके अंशरूप नयका स्वरूप । कहते हैं
१०६ अनेकान्त, स्याद्वाद और नयकी व्याख्या नैगमादि सात नयोंका स्वरूप
१०६ नयके तीन प्रकार (शब्द-अर्थ और ज्ञाननय ) १११-११२ श्रीमद् राजचन्द्रजीने श्रात्माके सम्बन्धमें इन सात नयोंको
चौदह प्रकारसे कैसे उत्तम ढगसे अवतरित किये हैं ? वास्तविकभाव लौकिकभावोंसे विरुद्ध
११३ पाँच प्रकारसे जैन शास्त्रोंके अर्थ समझानेकी रीति
११३
१०२
१०६
११२
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११६
१२४
विषय
पत्र संख्या सूत्र नम्बर
नयोंके सक्षेप स्वरूप, जैन नीति तथा नयोंकी सुलझन ११५-११८ प्रथम अध्यायका परिशिष्ट-१
११६ सम्यग्दर्शनके सम्बन्धमें कुछ ज्ञातव्य
११६ सम्यग्दर्शनकी आवश्यकता, स० द० क्या है
१२० श्रद्धा गुणकी मुख्यतासे निश्चय सम्यग्दर्शन ज्ञान गुणकी मुख्यतासे निश्चय सम्यग्दर्शन चारित्र गुणकी मुख्यतासे निश्चय सम्यग्दर्शन
१२३ अनेकान्त स्वरूप सम्यग्दर्शन सभी सम्यग्दृष्टियोंके एक समान
१२४ सम्यग्ज्ञान सभी - सम्यक्त्वकी अपेक्षासे समान है अवस्थामें विकासका कम, बढ़ होना वगैरह अपेक्षासे समान नहीं है
१२४ सम्यक चारित्रमें भी अनेकान्त
१२४ दर्शन (श्रद्धा) ज्ञान, चारित्र इन तीनों गुणोंकी अभेद दृष्टिसे निश्चय सम्यग्दर्शनकी व्याख्या
१२५ निश्चय सम्यग्दर्शनका चारित्रके भेदोकी अपेक्षासे कथन १२५ निश्चय सम्यग्दर्शनके बारेमें प्रश्नोत्तर
१२५ व्यवहार सम्यग्दर्शनकी व्याख्या
१२६ व्यवहाराभास सम्यग्दर्शनको कभी व्यवहार सम्यग्दशन भी __ कहते हैं।
१२७ सम्यग्दर्शनके प्रगट करनेका उपाय
१२८ निर्विकल्प अनुभवका प्रारम्भ
१३० सम्यग्दर्शन पर्याय है तो भी उसे गुण कैसे कहते हैं सभी सम्यग्दृष्टियोंका स० द. समान है
१३१ सम्यग्दर्शनके भेद क्यों कहे गये हैं ?
१३१ सम्यग्दर्शनकी निर्मलता
१३२ सम्यक्त्व निर्मलतामें पॉच भेद किस अपेक्षासे
१३३
१२०
سع
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५१
विषय
सम्यग्दृष्टि जीव अपनेको सम्यक्त्व प्रगट होने की बात श्रुतज्ञान
द्वारा वराबर जानते हैं ।
स० द० सम्बन्धी कुछ प्रश्नोत्तर
ज्ञान चेतना के विधानमें अन्तर क्यों है ?
ज्ञान चेतना सम्बन्धमं विचारणीय नव विपय अक्रमिक विकास और क्रमिकविकासका दृष्टान्त इस विषय के प्रश्नोत्तर और विस्तार सम्यग्दर्शन और ज्ञान चेतना में अन्तर
चारित्र न पले फिर भी उसकी श्रद्धा करनी चाहिये निश्चय सम्यग्दर्शनका दूसरा अर्थ
प्रथम अध्यायका परिशिष्ट - २
सूत्र नम्बर
निश्चय सम्यग्दर्शन -
निश्चय सम्यग्दर्शन क्या है और उसे किसका अवलम्बन भेद-विकल्पसे स० द० नहीं होता
विकल्प से स्वरूपानुभव नहीं हो सकता
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानका सम्बन्ध किसके साथ
श्रद्धा-ज्ञान सम्यकू कव हुए
सम्यग्दर्शनका विषय, मोक्षका परमार्थ कारण
सम्यग्दर्शन ही शान्तिका उपाय है सम्यग्दर्शन ही संसारका
नाशक है
प्रथम अध्यायका परिशिष्ट-३
जिज्ञासुको धर्म किस प्रकार करना
पात्र जीवका लक्षण
श्रुतज्ञानका वास्तविक लक्षण - अनेकान्त भगवान भी दूसरेका कुछ नहीं कर सके
पत्र संख्या
सम्यग्दर्शन के उपायके लिये ज्ञानियोंके द्वारा बताई गई क्रिया श्रुतज्ञान किसे कहना
१३४-४०
१४०-४२
१४३-१५०
१४३
१४५
१४७
१५४
१५४
१५५
१५७
१५७-१६३
१५७
१५८
१५६
१६०
१६१
१६२
१६२ - १६३
१६४
१६४
१६४
१६५
१६५
१६६
१६६
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१६७
w
सूत्र नम्बर विषय
पत्र संख्या प्रभावनाका सच्चा स्वरूप
१६६ सच्ची दया (अहिंसा)
१६७ आनन्दकारी भावनावाला क्या करे श्रुतज्ञानका अवलम्बन ही प्रथम क्रिया है धर्म कहाँ और कैसे ?
१६६ सुखका उपाय ज्ञान और सत् समागम जिस ओर की रुचि उसीका रटन
१७२ श्रुतज्ञानके अवलम्बनका फल-आत्मानुभव
१७४ सम्यग्दर्शन होनेसे पूर्व
१७५ धर्मके लिये प्रथम क्या करें सुखका मार्ग, विकारका फल, असाध्य, शुद्धात्मा
१७७ धर्मकी रुचिवाले जीव कैसे होते हैं ? उपादान निमित्त और कारण-कार्य
१७६ अन्तरंग अनुभवका उपाय-ज्ञानकी क्रिया
१७६ ज्ञानमें भव नहीं है
१८० इसप्रकार अनुभवमें आनेवाला शुद्धात्मा कैसा है ?
१८१ निश्चय-व्यवहार
१८१ सम्यग्दर्शन होने पर क्या होता है
१८२ बारम्वार ज्ञानमें एकाग्रताका अभ्यास अन्तिम अभिप्राय
१८३-८४ प्रथम अ० का परिशिष्ट-४
१५५ तत्त्वार्थ श्रद्धानको स० द० का लक्षण कहा है उस लक्षणमें अव्याप्ति आदि दोषका परिहार
१८५ प्रथम अध्यायका परिशिष्ट नं०५
२००-२१४ केवलज्ञान [ केवलीका ज्ञान ] का स्पष्टरूप और अनेक शास्त्रोंका आधार
२००-२१४
१८२
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सूत्र नम्बर
विपय
पत्र संख्या अध्याय दूसरा १ जीवके असाधारण भाव औपशामिकादि पॉच भावोंकी व्याख्या
२१४ यह पाँच भाव क्या यतलाते हैं ? उनके कुछ प्रश्नोत्तर
२१८ पोपशामक भाव फव होता है
२९६ उनकी महिमा
२२० पाँच भावोंके सम्बन्धमें कुछ स्पष्टीकरण पॉच भावोंके सम्बन्धमें विशेप ,
२२५ जीवका कर्त्तव्य
२२४ इस सूत्रमें नय-प्रमाणकी विवक्षा
२२६ २ भावोंके भेद
२२६ ३ औपशमिक भावके दो भेद
२२६ ४ क्षायिकभावके नव भेद
२२७ ५ . क्षायोपशमिक भावके १८ भेद ६. औदयिक भावके २१ भेद ५. पारिणामिकभावके तीन भेद
०३२ - उनके विशेष स्पष्टीकरण
२३३ ... अनादि अज्ञानीके कौनसे भाव कभी नहीं हुए ?
२३४ औपशमिकादि तीन भाव कैसे प्रगट होते हैं ?
२३४ कौनसे भाव बन्धरूप हैं
२३४ ८ जीवका लक्षण
२३५ आठवें सूत्रका सिद्धान्त
२३६ है उपयोग के भेद
२३७ साकार-निराकार
२३४-४०. दर्शन और ज्ञानके बीचका भेद
२४० उस मेदकी अपेक्षा और अभेदकी अपेक्षासे दर्शन-ज्ञानका अर्थ २४१
२२६
२३०
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२५०
सूत्र नम्बर विषय
पत्र संख्या १० जीवके भेद
२४२ संसारका अर्थ
२४३ द्रव्य परिवर्तन, क्षेत्र परि० काल परि०-भव और भाव परिवर्तनका स्वरूप
२४४ से ४८ भाव परिवर्तनका कारण
२४८ मानव भवकी सार्थकताके लिये विशेष ११ संसारी जीवोंके भेद १२ संसारी जीवोंके अन्य प्रकारसे भेद (बस-स्थावर )
२५३ १३ स्थावर जीवोंके भेद
२५३ इन पृथिवी आदिकोंके चार चार भेद
२५४ १४ त्रस लीवोंके भेद १५ इन्द्रियों की संख्या १६ इन्द्रियोंके मूल भेद
२५७ १७ द्रव्येन्द्रियका स्वरूप १८ भावेन्द्रियका स्वरूप (लब्धि-उपयोग) इस सूत्रका सिद्धान्त
२५६ १६ पॉच इन्द्रियोंके नाम और क्रम
२६० २० इन्द्रियोंके विषय
२६० २१ मनका विषय २२ इन्द्रियों के स्वामी
२६३ २३ इन्द्रियोंके स्वामी और क्रम २४ सैनी किसे कहते हैं ?
२६४ २५ विग्रहगतिवान जीवको कौनसा योग है
२६४ २६ विग्रहगतिमें जीव और पुद्गलोंका गमन कैसे होता है ? २६५ २७ मुक्त जीवोंकी गति कैसी होती है ? २८ संसारी लीवोंकी गति और उनका समय
२६६ २६ अविप्रहगतिका समय
-२६७
२५८
२६३
२६५
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५५
सूत्र नम्बर
विषय
३० अविप्रहगतिमें आहारक अनाहारककी व्यवस्था ३१ जन्मके भेद
३२ योनियोंके भेद
३३ गर्भ जन्म किसे कहते हैं ?
३४ उपपादजन्म किसे कहते हैं ?
३५ सम्मूर्च्छन जन्म किसके होता है ? ३६ शरीरके नाम तथा भेद
शरीरोंकी सूक्ष्मताका वर्णन
४६ आहारक शरीरका स्वामी तथा उसका लक्षण
आहारक शरीरका विस्तारसे वर्णन
लिग - वेदके स्वामी
पत्र संख्या
२६७
२६८
३७
३८ पहिले पहिले शरीरकी अपेक्षा आगे आगेके शरीरों के प्रदेश३६ थोड़े होंगे या अधिक १
४० तैजस - कार्माण शरीरकी विशेषता
४१ तैजस - कार्माण शरीरको अन्य विशेषता
४२ - वे शरीर संसारी जीवोंके अनादि कालसे हैं
४३
एक जीवके एक साथ कितने शरीरोंका सम्बन्ध ? ४४ कार्मण शरीरकी विशेषता
४५ औदारिक शरीरका लक्षण
४६ वैकियिक शरीरका लक्षण
४७ देव और नारकियोंके अतिरिक्त दूसरोंके वैक्रियिक शरीर होता है या नहीं ?
:
२७६
४८ वैक्रियिकके अतिरिक्त किसी अन्य शरीरको भी लब्धिका
निमित्त है ?
५०
५१
देवोंके लिग
५२
अन्य कितने लिग वाले हैं ?
५३ - किनकी आयु अपवर्तन ( - अकाल मृत्यु ) रहित है ?
२६६
२७१
२७१
२७२
२७२
२७३
२७३–२७४
२७४
२७५
२७६
२७६
२७७
२७८
२७६
२७६
२८०
२८०
२८२
२८२
२८३
२८३
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सूत्र नम्बर
पत्र संख्या
अध्याय २ का उपसंहार
२६५
पारिणामिक भावके सम्बन्ध में
२६६
धर्म करनेके लिये पॉच भावोंका ज्ञान उपयोगी है १
२८
उपादान और निमित्त कारणके सम्बन्ध में
૨૮
पाँच भावों के साथ इस अध्याय के सूत्रोंके सम्बन्धका स्पष्टीकरणं २४४ निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध
२३
तात्पर्य
२६४
अध्याय तीसरा
५६
विषय
भूमिका अधोलोकका वर्णन
१
सात नरक- पृथिवियाँ
२ सात पृथिवियोंके बिलोंकी संख्या
नरक गति होनेका प्रमाण
३ नारकियों के दुःखों का वर्णन
४ नारकी जीव एक दूसरेको दुःख देते हैं
५ विशेष दुःख
६ नारकोंकी उत्कृष्ट आयुका प्रमाण
सम्यग्दृष्टियों को नरक में कैसा दुःख होता है ?
७ मध्यलोकका वर्णन, कुछ द्वीप समुद्रोंके नाम
८ द्वीप और समुद्रोंका विस्तार और आकार * जम्बूद्वीपका विस्तार और आकार
१० उसमें सात क्षेत्रोंके नाम
११ सात विभाग करनेवाले छह पर्वतोंके नाम
१२ कुलाचल पर्वतोंका रंग
१३ 'कुलाचलोंका विशेष स्वरूप
१४ - फुलाचलोंके ऊपर स्थित सरोवरोंके नाम
२६८
३०४
३०४
- ३३५
३०१
३०२
३०३
३०३
३०४
३०६
३०८
३०६
३१०
३१०
३१०
३११
३११'
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________________
५७
विषये
सूत्र नम्बर
१५' प्रथम सरोवर की लम्बाई-चौड़ाई
१६
प्रथम सरोवर की गहराई
१७ उसके मध्य में क्या है ?
१८ महापद्मादि सरोवरों तथा उनमें कमलों का प्रमाण हुँदाका विस्तार आदि
छह कमलोंमें रहनेवाली छह देवियाँ
१६
२० चौदहं महा नदियों के नाम
२१-२२ नदियोंके बहनेका क्रम
२३ इन चौदह महा नदियोंकी सहायक नदियाँ
२४. भरत क्षेत्रका विस्तार
२५ आगेके क्षेत्र और पर्वतोंका विस्तार
२६ विदेह क्षेत्रके आगेके पर्वत क्षेत्रोंका विस्तार
२७ भरत और ऐरावत क्षेत्र में कालचक्रका परिवर्तन
भरत - ऐरावत के मनुष्योंकी आयु तथा ऊँचाई तथा मनुष्यों का आहार
२८
अन्य भूमियोंकी काल व्यवस्था २६ हैमवतक इत्यादि क्षेत्रों में आयु ३० हैरण्यवतकादि क्षेत्रों में आयु ३१ विदेह क्षेत्र में आयुकी व्यवस्था
३२ भरत क्षेत्रका विस्तार दूसरी तरहसे
३३ धातकी खण्डका वर्णन
३४ पुष्करार्ध द्वीपका वर्णन
३५ मनुष्य क्षेत्र, ३६ - मनुष्यों के भेद
( आर्य-म्लेच्छ )
ऋद्धिप्राप्त आर्यकी आठ प्रकारकी तथा अनेक प्रकारकी रूढ़ियों का वर्णन
こ 'अनऋद्धि प्राप्त आर्य
पत्र संख्या
३११
३१५
३११
३१२
३१२
३१३
३१३
३१४
३१४
३१५
३१५
३१६
३१७
३१६
३१८
३१६
३१६
३१६
३२०
३२०
३२०
३२१
રં
३२२ से ३३०
३३०
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________________
५८
३३२
mr mm
३३४
सूत्र नम्बर विषय
पत्र संख्या . म्लेच्छ ३७ कर्म भूमिका वर्णन
३३२ ३८ मनुष्योंकी उत्कृष्ट तथा जघन्य आयु ३६ तिर्यचोंकी आयु स्थिति
क्षेत्रके नापका कोष्टक • उत्तरकुरु, देवकुरु, लवणसमुद्र, धातकी द्वीप, कालोदधिसमुद्र, . पुष्करद्वीप, नरलोक, दूसरे द्वीप, समुद्र, कर्मभूमि-भोगभूमि और कर्मभूमि जैसा क्षेत्र
३३७ चतुर्थ अध्याय · भूमिका
३३७ १. देवोंके भेद
३४० २ भवनत्रिक देवोंमें लेश्याका विभाग
३४१ • ३ चार निकायके देवोंके प्रभेद
३४१ ४. चार प्रकारके देवोंके सामान्य भेद
३४२ -५ व्यन्तर, ज्योतिषी देवोंमें इन्द्र आदि भेदोंकी विशेषता
३४३ ६ देवोंमें इन्द्रोंकी व्यवस्था
३४३ ७८, ६, देवोंका काम सेवन सम्बन्धी वर्णन
३४४-३४५ १० भवनवासी देवोंके भेद
३४७ ११ व्यन्तर देवोंके पाठ भेद १२ ज्योतिषी देवोंके पॉच भेद
३५० १३ ज्योतिषी देवोंके विशेष वर्णन
३५१ १४ उससे होनेवाला काल विभाग
३५१ १५ अढ़ाई द्वीपके बाहर ज्योतिषी देव १६ वैमानिक देवोंका वर्णन १७ वैमानिक देवोंके भेद
३५२ १८ कल्पोंकी स्थितिका क्रम
३५३
३४६
३५१ ३५२
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________________
i
XE
सूत्र नम्बर
विषय
१६ वैमानिक देवोंके रहनेका स्थान २० वैमानिक देव में उत्तरोत्तर अधिकता
२१ वैमानिक देवों में उत्तरोत्तर हीनता
शुभ भावके कारण कौन जीव किस स्वर्ग में उत्पन्न होता है।
उसका स्पष्टीकरण
३५६
देवशरीर से छूटकर कौनसी पर्याय धारण करता है उसका वर्णन ३५८
इस सूत्रका सिद्धान्त
३५
२२ वैमानिक देवोंमें लेश्याका वर्णन
२३-२४ कल्प संज्ञा कहॉ तक; लोकान्तिकदेव
२५ लौकान्तिक देवोंके नाम
पत्र संख्या
TUK
३५४
३५५.
२६ अनुदिश और अनुत्तरवासी देवोंके अवतारका नियम
२७ तिर्यच कौन है ?
२८ भवनवासी देवोंकी उत्कृष्ट आयु२६ वैमानिक देवोंकी उत्कृष्ट आयु ३०-३१ सानत्कुमारादिकी भायु
३२ कल्पातीत देवोंकी भायु ३३-३४ स्वर्गोकी जघन्य आयु ३५-३६ नारकियोंकी जघन्य आयु
३७ भवनवासी देवोंकी जघन्य आयु
३८ व्यन्तर देवों की जघन्य आयु ३६ व्यन्तर देवोंकी उत्कृष्ट आयु ४. ज्योतिपी देवोंकी उत्कृष्ट आयु ४१ ज्योतिषी देवोंकी जघन्य आयु ४२ लौकान्तिक देषों की आयु, उपसंहार सप्तभंगी [ स्वान् अस्ति नास्ति ]
माधक जीपको उसके ज्ञानसे लाभ
३६१
३६२
३६२
३६३
३६४
३६४
३६४
३६५
३६६
३६७
३६७-६८
३६८
३६८
३६८
३६८
३६८
३६६
३७०
३७१
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सूत्र नम्बर विषय
पत्र संख्या अ० २ से ४ तक यह अस्ति नास्ति स्वरूप कहाँ कहाँ बताया है उसका वर्णन
३७२ से ३७४ सप्तभंगीके शेष पाँच भंगका वर्णन
३७४ जीवमें अवतरित सप्तभंगी
३७४ उसमें लागू होने वाले नय प्रमाण, निक्षेप, स्वज्ञेय, अनेकान्त
३७५-३७६ सप्तभंगी और अनेकान्त
३७६ -नय, अध्यात्मके नय, उपचार नय
३५-३७६ - - सम्यम्हष्टिका और मिथ्यादृष्टिका ज्ञान्ह
३७० अनेकान्त क्या बतलाता है ?
३८१ । शास्त्रों के अर्थ करनेकी पद्धति
३८२ मुमुक्षुओका कर्तव्य
३६३ देवगतिकी व्यवस्था [ भवनत्रिका
३८४ देवगतिकी व्यवस्था ( वैमानिक)
३८६ पंचम अध्याय
३८ १ .अजीव तत्वका वर्णन
३५६ ३ ये अजीवकाय क्या है
३६१ ३ -द्रव्यमें जीवकी गिनती
३६R ४ -पुद्गल द्रव्यसे अतिरिक्त द्रव्योंकी विशेषता . .'नित्य' और 'अवस्थित' का विशेष स्पष्टीकरण ५ एक पुद्गल द्रव्यका ही रूपिव बतलाते हैं:
३६४ ६ धर्मादि द्रव्योंकी संख्या
३६६ ७ इनका गमन रहितत्व ८ धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और एक जीवद्रव्यके प्रदेशोंकी संख्या ३६७-६८ * आकाशके प्रदेश
३६१
• भूमिका
-३६३
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सूत्र नम्बर
विषय १० पुद्गलके प्रदेशीकी संख्या ११ अणु एक प्रदेशी है
द्रव्यों के अनेकान्त स्वरूपका वर्णन १२ समस्त द्रव्योंके रहनेका स्थान १३ धर्म-अधर्म द्रव्यमा अवगाहन १४ पुद्गलका अवगाहन १५ जीवोंका अवगाहन १६ जीवोंका अवगाहन लोकफे असंन्यात भागमें काम १७ धर्म और अधर्म का जीय और पुगलके गयका पिर
सम्बन्ध १८ आकाश और दूसरे द्रव्योंफ मायरा निना नमिति men १६ पुदल दव्य जीयक माय नि नमितिमा २० पुगन का जीय के मायका नि.नं. ० २१ जीयका उपकार
-
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४३२
सूत्र नम्बर विषय
पत्र संख्या छहों द्रव्य अपने २ स्वरूपमें सदा परिणमते है, कोई द्रव्य किसीका कभी भी प्रेग्क नहीं है वस्तुकी प्रत्येक अवस्था भी "स्वतः सिद्ध" असहाय रागद्वेष परिणामका मूल प्रेरक कौन
४३२ ३१ नित्यका लक्षण
४३३ ३२ एक वस्तुमें दो विरुद्ध धर्म सिद्ध करनेकी रीति
४३३ अर्पित अनर्पितके द्वारा ( मुख्य-गौणके द्वारा) अनेकान्त स्वरूपका कथन,
४३४ विकार सापेक्ष है कि निरपेक्ष ?
४३८, अनेकान्तका प्रयोजन
४३८ एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कुछ भी कर सकता है इस मान्यतामें आने वाले दोपोंका वर्णन, संकर, व्यतिकर, अधिकरण, परस्पराश्रय, संशय, अनवस्था, अप्रतिपत्ति, विरोध, अभाव, ४३८-४१ मुख्य और गौणका विशेष
४४२ ३३ परमाणुओं में बन्ध होनेका कारण
४४२. ३४ परमाणुओंमें वन्ध कब नहीं होता
४४३ इस सूत्रका सिद्धान्त ३५. परमाणुओंमें बन्ध कब नहीं होना
४४५३६ परमाणुओंमें बन्ध कब होता है ? ३७ दो गुण अधिकके साथ मिलने पर नई व्यवस्था कैसी हो १ ४४६ ३८ द्रव्यका दूसरा लक्षण (गुण-पर्यायकी व्याख्या)
४४७ ३६-४० काल भी द्रव्य है-व्यवहार कालका भी वर्णन
४४८-४६ ४१ गुणका वर्णन
४५० इस सूत्रका सिद्धान्त
४५० ४२ पर्यायका लक्षण-इस सूत्रका सिद्धान्त
४५०-१५१ उपसंहार छहों द्रव्योंको लागू होनेवाला स्वरूप, द्रव्योंकी संख्या-नाम, ४५२
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सूत्र नम्बर
বিব अजीवका स्वरूप, धर्न द्रव्य, अधर्म द्रव्य. आगरा
प्रगल
स्याहाद मिद्धान्त-अस्निकाय जीव और पुद्गलद्रव्यको मिति १-० उपादान-निमित्त सम्बन्धी सिद्धान्त उपरोक्त मिद्धान्तके आधारमे जीय, पुलके अतिग्नि,
चार द्रव्योंकी मिद्धि आश द्रव्यको मिति काल दृव्यकी मिद्धि अधर्मास्निफाय-धम स्तिमायकी सिदि-६ :न छह हव्योंके एक ही जगह होने की मिति अन्य प्रकार के वाहव्या अस्तित्वमा निकि विध
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४८
६४ सूत्र नम्बर विषय
पत्र संख्या निमित्तनैमित्तिकके दृष्टान्त
४८३ प्रयोजनभूत
४८४ अध्याय छटा भूमिका सात तत्वोंकी सिद्धि सात तखोंका प्रयोजन
४८७ तत्वोंकी श्रद्धा कब हुई कही जाय ? १ आस्रवमें योगके मेद और उसका स्वरूप
४६० २ आस्रवका स्वरूप
४६१ योगके निमित्तसे आस्रवके भेद
४६३ पुण्याश्रव और पापावके सम्बन्धमें भूल
४६४ शुभयोग और अशुभयोगके अर्थ आस्रवमें शुभ और अशुभ भेद क्यों ?
४६५ शुभ भावोंसे भी ७ या ८ कर्म बन्धते हैं तो शुभ परिणामको पुण्यास्रवका कारण क्यों कहा ?
४६५-४६६ कोके बन्धनेकी अपेक्षासे शुभ-अशुभ योग ऐसे भेद नहीं हैं ४६६ शुभ भावसे पापकी निर्जरा नहीं होती
४६६ इस सूत्रका सिद्धान्त
४६७ ४ आस्रवके दो भेद कर्म बन्धके चार भेद
४६८ ५ साम्परायिक प्रास्रवके ३६ भेद
४४ २५ प्रकारकी क्रियाओं के नाम और अर्थ ६ आस्रवमें हीनाधिकता का कारण
५०३ ७ अधिकरण ( निमित्त कारण-) के भेद
५०३ ८ जीव अधिकरणके भेद ( १०८ भेदका अर्थ)
५०४ है अजीवाधिकरण श्रास्रवके भेद १० ज्ञान-दर्शनावरण कर्मके आसवका कारण
०
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पत्र मंत्र
.स
.
.
'
सूत्र नम्बर
विषय ११ असाता वेदनीयक श्रावके कारण
इम सूत्रका मिहान साता वेदनीयके आम के कारण अनन्त संसारके कारणरूप दर्शनमोहके भाग्य के कारण केवली भगवानके अवर्णवाद श्रुनके अवर्णवादका स्वरूप सपके " . धर्मके . . देवक
इस सूत्रका सिद्धान्त १४ चारित्र मोहनीय के प्रानपके कारण १५ नरकायुके आम्ररफे कारण १६ तिर्यच आयुके प्रायके सात १७-१८ मनुप्यागुफ आस्रव के कारण
१६ सर्व आयुयॉफ प्राय के कारण २०.२१ देवायुफे प्राययके पारण २२ अशुभ नामरमंके प्रारक कारण २३ शुभनाम फर्म पाम्य पार २४ ताफर नाम फार्मफे प्रात्य पाण
दर्शन विदिशादियोला भावनाश.. तीर्थ के नाम:
'
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________________
सूत्र नम्बर
भूमिका
१ व्रतका लक्षण
इस सूत्र कथित व्रत, सम्यग्दृष्टि के भी शुभास्रव है बन्धका कारण है उनमें अनेक शास्त्राधार
इम सूत्रका सिद्धान्त
६६
विषय
अध्याय सातवाँ
२ व्रतके भेद
इस सूत्र कथित त्यागका स्वरूप अहिंसा, सत्यादि चार व्रत सम्बन्धी स हिसाके त्याग सम्बन्धी
३ व्रतों में स्थिरताके कारण ४ अहिसाव्रतको पाँच भावनायें ५ - सत्यव्रतकी पाँच भावनायें ६ अचौर्यनकी पाँच भावनायें ब्रह्मचर्य व्रतकी पाँच
७
"3
म परिग्रह त्याग व्रतकी पाँच भावनायें
६-१० हिंसा आदि से विरक्त होनेकी भावना
११ व्रतधारी सम्यग्दृष्टिकी भावना
१२ व्रतों की रक्षा के लिये सम्यग्दृष्टिकी विशेष भावना
जगतका स्वभाव
शरीरका स्वभाव
संवेग, वैराग्य, विशेष स्पष्टीकरण
१३ हिसा, पापका लक्षण
आत्मा शुद्धोपयोगरूप परिणामको घातनेवाला भाव ही हिंसा है
१३ वे सूत्रका सिद्धान्त
१४ असत्यका स्वरूप सत्यका परमार्थ स्वरूप
पत्र संख्या
५५५ ५४७
५४७ से ५५६
५५६
५५६
५५८
५५८-५६
५५६
५५६
५६०
५६१
५६३
५६३
५६४
५६५-५६६०
५६७.
५६६
५६६
५७१
५७२-५७३
५७४
५७५
५७७
५७७
५७७
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________________
सूत्र नम्बर
१५ चोरीका स्वरुप
१६ श्रब्रह्म - ( कुशील ) का स्वरूप
१७ परिप्रहका स्वरूप
१८ व्रनीकी विशेषता
द्रव्यलिंगीका अन्यथापन १८ वें सूत्रका सिद्धान्त
व्रतीके भेद
६७
विषय
१६
२० सागारकं भेद
२१ अणुव्रत के महायक मात शीलवन
तीन गुणव्रत और चार शिक्षात्रतों का स्वरूप ध्यान में रखने योग्य सिद्धान्त
२२ प्रतीको सल्लेखना धारण करनेका उपदेश २३ सम्यग्दर्शन के पाच अनिचार
पांच अतिधार स्वरूप
२४ पोच प्रत श्रीर सात शीनोंके प्रतिधार
२५ अहिमान के पांच प्रतिचार
२६ मत्यारणुव्रत के प्रतिचार २७ अनर्यातके पांच अनिवार माचर्याघन के पांच प्रतिचार
२
परिषद परिमाण पशुमन के पाँच प्रतिवार ३० दिन के पोच अनिवार
५१ देश के परिवार
५२ अनर्थ पाच विचार
३३ सामाजिक शिप पनियार
३४ दोषपोरान शिला में दर
Y उपभोग परिभोग परि
きち
fifa frun
पत्र संख्या
५८०
४८१
ve
१८२
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Vev
YCE
२८६
vee
35.
vee
४८
Vet
317
28
Y:3
५१५
१५
57
313
317
14
13
21.
214
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सूत्र नम्बर
३७ सल्लेखनाके पॉच अतिचार
३८ दानका स्वरूप
करुणादान
३६ दानमें विशेषता
विषय
नवधा भक्तिका स्वरूप-विधि द्रव्य, दाता और पात्रको विशेषता
दान सम्वन्धी जानने योग्य विशेष बातें
उपसंहार
अध्याय आठवाँ
मिथ्या अभिप्रायकी कुछ मान्यतायें
मिथ्यादर्शनके दो भेद
गृहीत मिथ्यात्व के भेद, एकान्त, संशय, विपरीत, अज्ञान विनय उनका वर्णन तथा विशेष स्पष्टीकरण
भूमिका
६०६
१ वन्धके कारण
६०६
बन्धके पाँच कारणों में अन्तरंग भावोंकी पहिचान करना चाहिये ६१०
मिथ्यादर्शनका स्वरूप
६११
६१४
६१५
प्रविरति, प्रमाद, कपाय और योगका स्वरूप
किस गुणस्यानमें क्या चन्ध होता है ? महापाप कौन है ? इस सूत्रका सिद्धान्त
२ चन्धका स्वरूप
३ बन्धके भेद
१ प्रकृति यन्धके मूल भेद ( आठ कर्मके नाम )
५
प्रकृति यन्धके उत्तर भेद
६
ज्ञानावरण कर्मके ५ भेद
७ दर्शनावरण कर्मके भेद
を
= वेदनीयकर्मके दो भेद
पत्र संख्या
५६८
૫૮
६०१
६०१
६०१
६०२-६०३
६०३
६०४
६१६-६२०
६२०-६२१
६२२
६२२
६२२
६२६
६२६
६२७
६२८
६२६
६३०
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सूत्र नम्बर
विषय
अध्याय नवमाँ
भूमिका, संवरका स्वरूप संवरकी विस्तार से व्याख्या ध्यानमें रखने योग्य बातें
निर्जराका स्वरूप
१ संवरका लक्षण
२ संवरके कार
गुप्तिका स्वरूप
३ निर्जरा और संरका कारण
तपका अर्थ-स्वरूप और उस सम्बन्धी होनेवाली भूल
तपके फल के बारे में स्पष्टीकरण
४ गुप्तिका लक्षण और भेद
गुप्तिकी व्याख्या
५ समितिके पॉच भेद
७०
उस सम्बन्ध में होनेवाली भूल
६ उत्तम क्षमादि दश धर्म
उस सम्बन्धमें होनेवाली भूल बारह अनुप्रेक्षा
७
८ परीपह सहन करनेका उपदेश
६ परीपहके २२ भेद
परीपद जयका स्वरूप
इस सूत्र का सिद्धान्त
१० दशमेंसे बारहवें गुणस्थान तककी परीपहें
११ तेरहवें गुणस्थानमें परीपह
केवली भगवान्को आहार नहीं होता, इस सम्बन्ध में सष्टीकरण
पत्र संख्या
६४५
६४६-४८
Ye
६५१
६५४
६५६
59
६५८
६५६
६६१
६६१
६६२
६६३
६६३
६६६
६६७
६७१
६७६
६८०
६८१ से ६८५
६८५
६६८
६८६
६६१ से ६६५
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________________
७१
सूत्र नम्बर
विषय
कर्म सिद्धान्त के अनुसार केवलीके अन्नाहार होता ही नहीं सूत्र १०-११ का सिद्धान्त और ६ आठवें सूत्रके साथ उसका
सम्बन्ध
१२ ६ से ६ में गुणस्थान तककी परीषह
१३ ज्ञानावरण कर्मके उदयसे होनेवाली परीषद
१४ दर्शन मोहनीय तथा अन्तरायसे होनेवाली परीषह १५ चारित्र मोहनीयसे होनेवाली परीषह
१६ वेदनीय कर्मके उदयसे होनेवाली परीषहें
१७ एक जीवके एक साथ होनेवाली परीषद्दोंकी संख्या
१८ चारित्रके पॉच भेद और व्याख्या
छट्टो गुणस्थानकी दशा; चारित्रका स्वरूप चारित्रके भेद किसलिये बताये ?
सामायिकका स्वरूप, व्रत और चारित्रमें अन्तर निर्जरा तत्वका वर्णन
१६ बाह्यव्रत के ६ भेद-व्याख्या
सम्यक् तपकी व्याख्या
तपके भेद किसलिये हैं ? अभ्यन्तर तपके ६ भेद
२०
२१
अभ्यन्तर तपके उपभेद
२२ सम्यक् प्रायश्चितके नवभेद
निश्चय प्रायश्चितका स्वरूप
निश्चय प्रतिक्रमण - आलोचनाका स्वरूप
२३ सम्यक् विनय तपके चार भेद निश्चय विनयका स्वरूप
२४ सम्यक् वैयावृत्य तपके १० भेद २५ सम्यक् स्वाध्याय तपके पाँच भेद
२६ सम्यक व्युत्सर्ग तपके भेद
पत्र संख्या
६६५
६६६
६६६
६६७
६६७
६६ ८
६६८
६६८
७०१
७०२-३
७०३
७०४-६
७०६
७०७
७१०
७१०
७११
७१२
७१३
७१४
७१४
७१५
७१७
७१८
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________________
सूत्र नम्बर
२७ सम्यक् ध्यान तपका लक्षण २८ ध्यानके भेद
२६ मोक्षके कारणरूप ध्यान
३०-३१-३२-३३- श्रार्त्तध्यानके भेद
७२
विषय
३४ गुणस्थान अपेक्षा आर्त्तध्यानके स्वामी
३५ रौद्रध्यानके भेद और स्वामी ३६ धर्मध्यानके भेद
३७ शुक्लध्यानके स्वामी
३८ शुक्लध्यानके चार भेदोंमे से बाकी के दो भेद किसके हैं ?
३६ शुक्लध्यानके चार भेद
४० योग अपेक्षा शुक्लध्यानके स्वामी
केवली के मनोयोग सम्बन्धी स्पष्टीकरण
केवली के दो प्रकारका वचनयोग
क्षपक तथा उपशमकके चार मनोयोग तथा वचनयोगका स्पष्टीकरण
४१-४२ शुक्लध्यानके प्रथम दो भेदोंकी विशेषता
४३ वितर्का लक्षण
४४ वीचारका लक्षण
"s
धन, गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीपहजय, बारह सर तप आदि सम्बन्धी खास ध्यानमें रखने योग्य रटीकरण
४५
२६ निर्मन्य मालुके भेत्र-व्याख्या
पात्र अपेक्षा निर्जरानें होनेवाली न्यूनाविकता
परमार्थ निर्मन्य-व्यवहार निर्मन्य मुनियोंमें विशेषता
यवहार
पत्र संख्या
७१६
७२१
७२१
७२२-२३
७२३
७२४
७२४
७२६
७२७
७२८
७२८
७२६
७२६
७३०-७३१
७३१
७३२
७३२
७३४ से ७३६
७३७
७४०
७४१
७४२ से ४५ ७४५ से ७५०
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________________
सूत्र नम्बर
विषय
दशवाँ अध्याय
भूमिका
१ केवलज्ञानकी उत्पत्तिका कारण केवलज्ञान होते ही मोक्ष क्यों नहीं होता
२ मोक्षके कारण और उसका लक्षण मोक्ष यत्न से साध्य है
३-४ मोक्षदशा में कर्मोंके अलावा किसके अभाव होता है। ५ मुक्त जीवोंका स्थान
६ मुक्त जीवके ऊर्ध्वगमनका कारण
७
सूत्र कथित ऊर्ध्वगमनके चारों कारणोंके दृष्टान्त ८ लोकाप्रसे आगे नही जानेका कारण
Ε
मुक्त जीवों में व्यवहारनयकी अपेक्षासे भेद उपसंहार-मोक्षतत्वकी मान्यता सम्बन्धी होनेवाली भूल और उसका निराकरण
अनादि कर्म बन्धन नष्ट होनेकी सिद्धि
आत्मा बन्धनकी सिद्धि
मुक्त होनेके बाद फिर बन्ध या जन्म नहीं होता
बन्ध जीवका स्वाभाविक धर्म नहीं
सिद्धों का लोकापसे स्थानांतर नहीं होता अधिक जीव थोड़े क्षेत्रमें रहते हैं ?
: सिद्ध जीवोंके आहार
परिशिष्ट - १ - प्रन्थका सारांश
मोक्षमार्गका दो प्रकारसे कथन
व्यवहार मोक्षमार्ग साधन है इसका क्या अर्थ
मोक्षमार्ग दो नहीं
निश्चय मोक्षमार्गका स्वरूप-व्यवहार मोक्षमार्गका स्वरूप
पत्र संख्या
७५१
"
७५४-५६
७५६
७५७
७५६-७६०
७६०
७६१
37
७६२
७६३-६७
७६७
७६८
७७२
७७३
७७४
39
७७५
७७६
७७८
७७६
33
૮૦
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________________
मूत्र नम्बर विषय
पत्र संख्या व्यवहार मुनिका स्वरूप निश्चयी मुनिका स्वरूप निश्चयीके अभेदका समर्थन
७८०-८१ निश्चय रत्नत्रयकी क के साथ अभेदता-कर्मरूपके साथ तथा करणरूपके साथ अभेदता
७८३ सम्प्रदान-अपादान-और सम्बन्ध स्वरूपके साथ अभेदता ७८३-८४ निश्चयरत्नत्रयीकी आधार स्वरूपके साथ अभेदता
७८४ निश्चय रत्नत्रय की क्रिया स्वरूपके साथ अभेदता आत्माकी गुणस्वरूपके साथ अभेदता
७८५ पर्यायोंके स्वरूपका अभेदत्य प्रदेश स्वरूपका अभेदपन अगुरुलघुस्वरूपका अभेदपन
७५६ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वरूपकी अभेदता निश्चय-व्यवहार माननेका प्रयोजन तत्वार्थमार प्रन्थका प्रयोजन इस प्रन्यके कर्ता पुगल हैं आचार्य नहीं परिशिष्ट-२ प्रत्येक द्रव्य और उसके प्रत्येक समयकी पर्यायकी स्वतंत्रताकी । घोषणा
७६. परिशिष्ट-३ माघक जीयको दृष्टिको मतत कक्षा (-स्तर ) अध्यात्मका रहस्य
७६४ पानुश्यभाय और उममें किस ओर मुके ! परिशिष्ट-५ सामक्षिप्त मार
७८७
७८८
७६०
m
Page #77
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________________
इस शास्त्रकी टीकामें लिये गये आधारभूत शास्त्र
१ सर्वार्थसिद्धि टीका
। २८ बृहद् द्रव्य संग्रह २ राजवार्तिक
२६ द्रव्य संग्रह ३ श्लोकवार्तिक
३० पुरुषार्थ सिद्धि उपाय ४ अर्थ प्रकाशिका
२१ कार्तिकेयानुप्रेक्षा ५ सर्वार्थसिद्धि प्रश्नोत्तर
३२ मोक्षमार्ग प्रकाशक ६ मोक्षशाख ( पन्नालालजी ३३ समयसार जयसेनाचार्य टीका
साहित्याचार्य टीका) ३४ पद्मनन्दी पचविशतिका ७ तत्वार्थ सूत्र ( इगलिश) ३५ रस्नकरण्ड श्रावकाचार ८ तत्त्वार्थसार
३६ भगवती आराधना ६ समयसार
३७ योगसार (योगीन्द्रदेव) १. प्रवचनसार
३८ चर्चा समाधान (भूधरदासजी) ११ पंचास्तिकाय
३६ प्रमेयरत्नमाला १२ नियमसार
४० न्याय दीपिका १३ परमात्म प्रकाश
४१ प्रमेयकमलमार्तण्ड १४ अष्टपाहुड
४२ अध्यात्म कमलमार्तण्ड १५ बारस अणुवेक्खा
४३ आलाप पद्धति १६ स० सार प्रवचन भा० १-२-३
४४ भाव संग्रह १७ नियमसार प्रवचन भा०१
४५ जैनसिद्धान्त प्रवेशिका (बरैयाजी) १८ समयसार नाटक
४६ आप्तमीमांसा १६ " राजमलजीकृत
४७ चारित्रसार ( कलश टीका)
४८ अनुभव प्रकाश २० पचाध्यायी
४६ वनारसी विलास२१ धवला टीका
__ परमार्थ वचमिका २२ जयधवला टीका २३ तिलोय-पणत्ति
५० सत्तास्वरूप २४ गोमट्टसार
५१ रहस्यपूर्ण चिट्ठी ( मल्लिजी) २५ श्रीमद् राजचन्द्र
५२ छहढाला २६ महाबन्ध
५३ जैनसिद्धान्त दर्पण वगैरह २७ आत्मसिद्धि शास्त्र
1 ५४ श्रीमद् राजचन्द्र
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मंगलं भगवान वीरो मंगलं गौतमो गणी । मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोस्तु मंगलं | अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नमः ॥
1
श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्चनम् जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् |
- दंसणमूलो घम्मो
* धर्मका मूल सम्यग्दर्शन है *
- भगवान श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः
- भगवान श्री उमास्वामी आचार्य देव भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन । अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ||
- श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्य देव
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* श्री सर्वज्ञ वीतरागाय नमः
श्रीमदाचार्य उमास्वामि विरचित माक्षशास्त्र
गुजराती टीका का हिन्दी अनुवाद
* मंगलाचरण मोक्षमार्गस्य नेतारं भेचारं कर्मभूभृताम् ।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद् गुणलब्धये ॥ अर्थ-मोक्षमार्ग के प्रवर्तक, कर्मरूपी पर्वतों के भेदक अर्थात् नष्ट करनेवाले, तथा विश्व के ( समस्त ) तत्त्वों के जाननेवाले ( आप्त ) को उनके गुणों की प्राप्ति के हेतु मैं प्रणाम करता हूँ-वन्दना करता हूँ।
संक्षिप्त अवलोकन (१) इस शास्त्र को प्रारम्भ करने से पूर्व सक्षेप में यह बताना आवश्यक है कि इस शास्त्र का विषय क्या है ?
(२) प्राचार्यदेवने इस शास्त्रका नाम 'मोक्षशास्त्र' अथवा 'तत्त्वार्थसूत्र' रखा है। जगतके जीव अनन्त प्रकारके दुःख भोग रहे हैं, और उन दुःखों से सदाके लिए मुक्त होने अर्थात् अविनाशी सुख प्राप्त करने के लिये रात दिन उपाय कर रहे हैं, किन्तु उनके वे उपाय मिथ्या होने से, जीवो का दुःख दूर नही होता, एक या दूसरे रूप मे दुःख बना ही रहता है ।
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मोक्षशास्त्र जीव दुःखों की परम्परा से क्योंकर मुक्त हों इसका उपाय और उसका वीतरागी विज्ञान इस शास्र में बताया गया है, इसीलिये इसका नाम 'मोक्षशास्त्र रखा गया है।
मूलभूत भूल के बिना दुःख नही होता, और उस भूलके दूर होने पर सुख हुये विना नही रह सकता,-यह अबाधित सिद्धान्त है । वस्तुका यथार्थ स्वरूप समझे बिना वह भूल दूर नही होती; इसलिये इस शास्त्र में वस्तु का यथार्थ स्वरुप समझाया गया है, इसीलिये इसका नाम 'तत्वार्थसूत्र' भी रखा गया है।
(३) यदि जीवको वस्तुके यथार्थ -स्वरूप सम्बन्धी मिथ्या मान्यता [Wrong Belief] न हो तो ज्ञान मे भूल न हो। जहाँ मान्यता सच्ची होती है वहाँ ज्ञान सच्चा ही होता है। सच्ची मान्यता और सच्चे ज्ञान पूर्वक ही यथार्थ प्रवृत्ति होती है। इसलिए आचार्य देवने इस शास्त्र का प्रारम्भ करते हुए प्रथम अध्याय के पहले ही सूत्र मे यह सिद्धान्त बताया है कि सच्ची मान्यता और सच्चे ज्ञान पूर्वक होने वाली सच्ची प्रवृत्ति द्वारा ही जीव दु ख से मुक्त हो सकते है।
(४) 'स्वयं कौन है। इस सम्बन्ध मे जगत के जीवों की भारी भूल चली आ रही है। बहुत से जीव शरीर को अपना स्वरूप मानते है, इसलिए वे शरीर की रक्षा करने के लिए निरन्तर अनेक प्रकार के प्रयत्न करते रहते है। जव कि जीव शरीर को अपना मानता है तव जिसे वह ममभाता है कि यह गारीरिक सुविधा चेतन या जड़ पदार्थों की ओर से मिलती है उनकी ओर उसे राग होता ही है, और जिसे वह समझता है कि अमुविधा नेतन या जड पदार्थों की ओर से मिलती है उनकी ओर उसे द्वेग भी होता ही है । और इस प्रकार की धारणा से जीव को पाकुलता बनी ही रहती है।
(1.) जीव को उन महान् भृलको शास्त्र मे 'मिथ्या दर्गन' कहा गया । मिज्या मान्यता होती है वहां ज्ञान और चारित्र भी मिथ्या ही नीना, मनि मियादगंनस्पी भूलको महापाप भी कहा जाता है ।
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मंगलाचरण
मिथ्यादर्शन भारी भूल है और वह सर्व दुःखों की महान् बलवती जड़ है, - जीवों को ऐसा लक्ष न होनेसे वह लक्ष करानेके लिए और वह भूल दूर करके जीव अविनाशी सुखकी ओर पर रखे इस हेतु से आचार्य देवने इस शास्त्र में सबसे पहला शब्द 'सम्यग्दर्शन' प्रयुक्त किया है । सम्यग्दर्शन के प्रगट होते ही उसी समय ज्ञान सच्चा हो जाता है, इसलिये दूसरा शब्द 'सम्यग्ज्ञान' प्रयुक्त किया गया है; और सम्यग्दर्शन - ज्ञान पूर्वक ही सम्यकूचारित्र होता है इसलिये 'सम्यक् चारित्र' शब्द को तीसरे रखा है । इस प्रकार तीन शब्दों का प्रयोग करने से कहीं लोग यह न मान बैठे कि'सच्चा सुख प्राप्त करने के तीन मार्ग हैं' इसलिये प्रथम सूत्र मे ही यह बता दिया है कि 'तीनों की एकता ही मोक्षमार्ग है' 1
(६) यदि जीव को सच्चा सुख चाहिये तो पहले सम्यग्दर्शन प्रगट करना ही चाहिए । जगतमे कौन कौन से पदार्थ है, उनका क्या स्वरूप है, उनका कार्यक्षेत्र क्या है, जीव क्या है, वह क्यों दुःखी होता है, - इसकी यथार्थ समझ हो तब ही सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, इसलिये आचार्यदेवने दश अध्यायोमे सात तत्त्वों के द्वारा वस्तु स्वरूप बतलाया है । (७) इस - मोक्षशास्त्र के दश अध्यायों में निम्नलिखित विषय लिये
गये हैं;
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१ अध्याय मे - मोक्ष का उपाय और जीव के ज्ञान की अवस्थाओं का वर्णन है ।
२ अध्याय मे - जीव के भाव, लक्षण और शरीर के साथ जीवका सम्बन्ध वर्णन किया गया है ।
३-४ अध्याय में -विकारी जीवो के रहने के क्षेत्रों का वर्णन है । इस प्रकार प्रथम चार अध्यायों मे पहले जीव तत्त्व का वर्णन किया गया है ।
५ अध्याय में - दूसरे अजीव तत्त्वका वर्णन है ।
६-७ अध्याय में - जीवके नवीन विकारभाव (आस्रव) तथा उनका निमित्त पाकर जीवका सूक्ष्म जड़कर्मके साथ होने
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मोक्षशास्त्र वाला सम्बन्ध बताया है । इसप्रकार तीसरे आस्रव
तत्त्व का वर्णन किया है। ८ अध्याय में यह बताया गया है कि जीव का जड़ कर्मों के साथ
किस प्रकार बन्ध होता है और वह जड़कर्म कितने समय तक जीव के साथ रहते है। इस प्रकार इस
अध्यायमें चौथे बन्ध तत्वका वर्णन किया गया है । ६ अध्याय मे-यह बताया गया है कि जीव के अनादिकाल से न
होने वाले धर्म का प्रारम्भ सवर से होता है, जीव की यह अवस्था होने पर उसे सच्चे सुख का प्रारम्भ होता है, और क्रमशः शुद्धिके बढ़ने पर विकार दूर होता है, उससे निर्जरा अर्थात् जड़कर्मके साथके बन्ध का अंशतः प्रभाव होता है । इस प्रकार नववे अध्याय मे पांचवां और छट्ठा अर्थात् संवर और
निर्जरा तत्त्व बताया गया है। १० अध्याय में-जीवकी शुद्धि की पूर्णता, सर्व दुःखों से अविनाशी
मुक्ति और सम्पूर्ण पवित्रता-मोक्ष तत्त्व है, इसलिये आचार्य देवने सातवाँ मोक्ष तत्त्व दशवे अभ्याय में
बतलाया है। (८) मंगलाचरणमे भगवानको 'कर्मरूपी पर्वतो को भेदनेवाला' कहा है। कर्म दो प्रकार के है:-१-भावकर्म, २-द्रव्यकर्म । जब जीव सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से भावकर्मरूपी पर्वतोंको दूर करता है तब द्रव्यकर्म स्वयं ही अपने से हट जाते है-नष्ट हो जाते हैं; ऐसा जीवकी शुद्धता और कर्मक्षय का निमित्त-नैमित्तिकसम्बन्ध है; यहाँ यही बताया गया है। जीव जड़कर्म को परमार्थतः नष्ट कर सकता है, यह कहने का आशय नही है।
(E) मंगलाचरणमे नमस्कार करते हुये देवागमन, समोशरण, चामर और दिव्यशरीरादि पुण्य-विभूतियों का उल्लेख नही किया गया है
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अध्याय १ सूत्र १
५
जो तीर्थंकर भगवान के पास होती हैं; क्योकि पुण्य आत्मा की शुद्धता
नही है ।
(१०) मंगलाचरण में गुरणों से पहचान करके भगवानको नमस्कार किया है । अर्थात् भगवान विश्व के (समस्त तत्त्वोके) ज्ञाता है, मोक्षमार्गके नेता है, और उनने सर्व विकारों ( दोषो ) का नाश किया है, इस प्रकार भगवान के गुरगोका स्वरूप बतलाकर गुरगोकी पहचान करके उनको स्तुति की है । निश्चय से अपनी आत्मा की स्तुति की है ।
* प्रथम अध्याय
निश्चय मोक्षमार्गकी व्याख्या
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ॥ १ ॥
- [ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि ] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र, तीनों मिलकर [ मोक्षमार्गः ] मोक्षका मार्ग है, अर्थात् मोक्षको प्राप्तिका उपाय है ।
टीका
(१) सम्यक् — यह शब्द प्रशंसावाचक है, जो कि यथार्थता को सूचित करता है । विपरीत आदि दोषोका प्रभाव 'सम्यक्' है ।
दर्शन - का अर्थ है श्रद्धा; 'ऐसा ही है - अन्यथा नही' ऐसा प्रतीतिभाव ।
विपर्यय और अनध्यवसायरहित अपने
सम्यग्ज्ञान — संशय, आत्माका तथा परका यथार्थज्ञान सम्यग्ज्ञान है ।
संशय "विरुद्धानेककोटिस्पशिज्ञान संशयः", अर्थात् 'ऐसा है कि ऐसा है' इस प्रकार परस्पर विरुद्धतापूर्वक दो प्रकाररूप ज्ञानको संशय कहते है; जैसे श्रात्मा अपने कार्यको कर सकता होगा या जड़के कार्यको ? शुभ रागरूप व्यवहार से धर्म होगा या वीतरागतारूप निश्चयसे ?
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मोक्षशास्त्र विपर्यय-"विपरीतैककोटिनिश्चयो विपर्ययः"; अर्थात् वस्तुस्वरूप से विरुद्धतापूर्वक 'ऐसा ही है' इसप्रकारका एकरूपज्ञान विपर्यय है; जैसे शरीरको आत्मा जानना ।
अनध्यवसाय-"किमित्यालोचनमात्रमनध्यवसायः" अर्थात् 'कुछ है ऐसा निर्धाररहित विचार अनध्यवसाय है, जैसे मै कोई कुछ है, ऐसा जानना। [विशेष:-जीव और प्रात्मा दोनो शब्द एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं।]
सम्यकचारित्र-(यहाँ 'सम्यक्' पद अज्ञानपूर्वक आचरणकी निवृत्ति के लिये प्रयुक्त किया है। ) सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक आत्मामें स्थिरता का होना सम्यक् चारित्र है ।
__यह तीनों क्रमशः आत्मा के श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र गुणोंकी शुद्ध पर्याये हैं।
मोक्षमार्ग--यह शब्द एकवचन है, जो यह सूचित करता है कि मोक्षके तीन मार्ग नही, किन्तु इन तीनों का एकत्व मोक्षमार्ग है । मोक्षमार्ग का अर्थ है अपने आत्माकी शुद्धिका मार्ग, पंथ, उपाय। उसे अमृतमार्ग, स्वरूपमार्ग अथवा कल्याणमार्ग भी कहते है ।
(२) इस सूत्रमें अस्तिसे कथन है, जो यह सूचित करता है कि इससे विरुद्ध भाव, जैसे कि राग, पुण्य इत्यादिसे धर्म होता है या वे धर्ममें सहायक होते है, इसप्रकारकी मान्यता, ज्ञान और प्राचरण मोक्षमार्ग
नही है।
(३) इस सूत्रमे "सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि" कहा है वह निश्चय रत्नत्रय है व्यवहार रत्नत्रय नही है, उसका कारण यह है कि व्यवहार रत्नत्रय राग होनेसे बंधरूप है।
(४) इस सूत्र में 'मोक्षमार्ग' शब्द निश्चय मोक्षमार्ग बताने के लिये कहा है । ऐसा समझना ।
(५) मोक्षमार्ग परम निरपेक्ष है"निजपरमात्म तत्त्वके सम्यक् श्रद्धा-ज्ञान अनुष्ठानरूप शुद्ध रत्नत्र
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अध्याय १ सूत्र १
यात्मक मार्ग परम निरपेक्ष होने से मोक्षमार्ग है और वह शुद्ध रत्नत्रयका फल निज शुद्धात्माकी प्राप्ति है ।"
( श्री कुन्दकुन्दाचार्य कृत नियमसार गा० २ को टीका )
७
इस सूत्र मे 'सम्यग्दर्शन' कहा है वह निश्वयसम्यग्दर्शन है ऐसी बात तीसरेसूत्र से सिद्ध होती है, उसीमे निसर्गज और अधिगमज ऐसा भेद कहा है वह निश्चय सम्यग्दर्शनका ही भेद है । और इस सूत्र की संस्कृत टीका श्री तत्त्वार्थ राजवार्तिकमें जिस कारिका तथा व्याख्या द्वारा वर्णन किया है उस आधार से इस सूत्र तथा दूसरा सूत्र कथित सम्यग्दर्शन है वह निश्चय सम्यग्दर्शन है, ऐसा सिद्ध होता है ।
तथा इस सूत्र में "ज्ञान" कहा है वह निश्चय सम्यग्ज्ञान है । अ० १ - सूत्र ६ में उसी के पांच भेद कहे है उसी मे मनः पर्यय और केवलज्ञान भी आ जाते है । इससे सिद्ध होता है कि यहाँ निश्चय सम्यग्ज्ञान कहा है ।
वाद में इस सूत्र मे 'चारित्रारिण' शब्द निश्चयसम्यक् चारित्र दिखाने के लिये कहा है । श्री तत्त्वार्थं रा० वा० मे इस सूत्र कथित सम्यग्दर्शनज्ञान - चारित्र को निश्चय सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र माना है । क्योकि व्यवहार सम्यग्दर्शन - ज्ञान- चारित्र ( -व्यवहार रत्नत्रय ) आस्रव और वधरूप है, इससे यह सूत्र का अर्थ करने में यह तीनो आत्माकी शुद्ध पर्याय एकत्वरूप परिणमित हुई है । इस प्रकार शास्त्रकार दिखाते हैं ऐसा स्पष्ट होता है ।
पहले सूत्रका सिद्धान्त
( ५ ) अज्ञानदशा में जीव दुःख भोग रहे है, इसका कारण यह है कि उन्हें अपने स्वरूपके संबंध में भ्रम है; जिसे ( जिस भ्रम को ) 'मिथ्यादर्शन' कहा जाता है । 'दर्शन' का एक अर्थ मान्यता भी है, इसलिये मिथ्यादर्शनका अर्थ मिथ्या मान्यता है । जहाँ अपने स्वरूपकी मिथ्या मान्यता होती है वहां जीवको अपने स्वरूपका ज्ञान मिथ्या ही होता है, उस मिथ्या या खोटे ज्ञान को 'मिथ्याज्ञान' कहा जाता है । जहाँ स्वरूपकी मिथ्या
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मोक्षशास्त्र मान्यता और मिथ्याज्ञान होता है वहाँ चारित्र भी मिथ्या ही होता है। उस मिथ्या या खोटे चारित्र को "मिथ्याचारित्र" कहा जाता है। अनादिकालसे जीवों के 'मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र' अपने अपराध से चले आरहे है, इसलिये जीव अनादिकाल से दुःख भोग रहे हैं।
क्योंकि अपनी यह दशा जीव स्वयं करता है इसलिये वह स्वयं उसे दूर कर सकता है; और उसे दूर करने का उपाय 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र' ही है, दूसरा नही;-यही यहाँ कहा है। इससे सिद्ध होता है कि जीव सतत जो अन्य उपाय किया करता है वह सब मिथ्या है। जीव धर्म करना चाहता है, किन्तु उसे सच्चे उपाय का पता न होने से वह खोटे उपाय किये बिना नहीं रहता; अतः जीवों को यह महान् भूल दूर करने के लिये पहले सम्यग्दर्शन प्रगट करना चाहिये । उसके बिना कभी किसीके धर्मका प्रारंभ हो ही नहीं सकता।
निश्चय सम्यग्दर्शनका लक्षण तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥२॥
अर्थ-[तत्त्वार्थश्रद्धानं] तत्त्व ( वस्तु ) के स्वरूपसहित अर्थजीवादि पदार्थो की श्रद्धा करना सो [सम्यग्दर्शनम्] सम्यग्दर्शन है।
टीका (१) तत्त्वो की सच्ची (-निश्चय ) श्रद्धा का नाम सम्यग्दर्शन है । 'अर्थ' का अर्थ है द्रव्य-गुरग-पर्याय; और 'तत्त्व' का अर्थ है उसका भावस्वरूप। स्वरूप ( भाव ) सहित प्रयोजनभूत पदार्थों का श्रद्धान सम्यग्दर्गन है ।
(२) इस सूत्र में सम्यग्दर्शन को पहचाननेका लक्षण दिया है। गम्यग्दर्शन लक्ष्य और तत्त्वार्थश्रद्धा उसका लक्षण है।
(३) किसी जीव को यह प्रतीति तो हो कि-'यह ज्ञातृत्व है यह वेत वर्ग है' त्यादि, किन्तु ऐसा श्रद्धान न हो कि-दर्शन-ज्ञान आत्माका
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अध्याय;१ सूत्र.२ स्वभाव है और मैं आत्मा हूँ तथा वर्णादिक पुद्गल के स्वभाव हैं और पुद्गल मुझसे भिन्न ( पृथक्-) पदार्थ है, तो उपरोक्त मात्र. 'भाव' का. श्रद्धान किंचित्मात्र कार्यकारी नहीं है। यह श्रद्धान-तो किया कि 'मैं:
आत्मा हूँ किन्तु आत्माका जैसा स्वरूप है वैसा श्रद्धान नही किया, तो 'भाव' के श्रद्धान के बिना आत्माका श्रद्धान यथार्थ नही होता; इसलिये'तत्त्व' और उसके 'अर्थ' का श्रद्धान होना ही कार्यकारी है।
(४) दूसरा अर्थ-जीवादिको जैसे 'तत्त्व' कहा जाता है वैसे ही 'अर्थ' भी कहा जाता है। जो तत्त्व है वही अर्थ है, और उसका श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। जो पदार्थ जैसा अवस्थित है उसका उसी प्रकार होना सो तत्त्व है, और 'अर्थते' कहने पर निश्चय किया जाय सो अर्थ है । इसलिये तत्त्वस्वरूपका निश्चय तत्त्वार्थ है, और तत्त्वार्थका श्रद्धान सम्यग्दर्शन है।
(५) विपरीत अभिनिवेश ( उल्टे अभिप्राय ) से रहित जीवादिका तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शनका लक्षण है। सम्यग्दर्शनमें विपरीत मान्यता नहीं होती, यह बतलानेके लिये 'दर्शन' से पूर्व 'सम्यक् पद दिया गया है। जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष, यह सात तत्त्व हैं, ऐसा चौथे सूत्र में कहेंगे।
(६) "तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्" यह लक्षण निश्चय सम्यग्दर्शनका है, और वह तिथंच आदि से लेकर केवली तथा सिद्ध भगवानके समानरूपमें व्याप्त है। और वह लक्षण अव्याप्ति-अतिव्याप्ति और असंभव दोष रहित है। (देखो मोक्षमार्गप्रकाशक अ. ९ तथा इस शास्त्रका अ० १ परिशिष्ट ४)
(७) 'तत्त्व' शब्द का मर्म
'तत्व' शब्दका अर्थ तत्-पन या उसरूपता है। प्रत्येक वस्तुके-तत्त्वके स्वरूपसे तत्पन है और पर रूपसे अतत्पन है । जीव वस्तु है, इसलिये उसके अपने स्वरूपसे तत्पन है और परके स्वरूपसे अतत्पन है। जीव चैतन्यस्वरूप होनेसे ज्ञाता है और अन्य सब वस्तुयें ज्ञेय हैं, इसलिए जीव
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मोक्षशास्त्र
दूसरे सभी पदार्थोसे सर्वथा भिन्न है । जीव अपनेसे तत् है, इसलिये उसे अपना ज्ञान स्वतः होता है; और जीव परसे अतत् है, इसलिये उसे परसे ज्ञान नही हो सकता । ' घड़ेका ज्ञान घड़े के आधारसे होता है' ऐसा कई लोग मानते हैं, किन्तु यह उनकी भूल है । ज्ञान जीवका स्वरूप है इसलिये वह ज्ञान अपनेसे तत् है और परसे प्रतत् है । जीवके प्रतिसमय अपनी योग्यता के अनुसार ज्ञानकी अवस्था होती है; परज्ञेयसंबंधी अपना ज्ञान होते समय परज्ञेय उपस्थित होता है, किंतु जो यह मानता है कि उस परवस्तुसे जीवको ज्ञान होता है तो मानो कि वह जीवको 'तत्त्व' नही मानता । यदि घडे से घड़ा सबंधी ज्ञान होता हो तो नासमझ (अबोध) जीवको भी घड़ेकी उपस्थिति होने पर घड़ेका ज्ञान होजाना चाहिये, किंनु ऐसा नहीं होता । इसलिये यह सुनिश्चित है कि ज्ञान स्वतः होता है । यदि जीवको परसे ज्ञान होने लगे तो जीव और पर एकतत्त्व हो जायें, किन्तु ऐसा नहीं होता ।
( ८ ) सम्यग्दर्शनकी महिमा
यदि अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रहत्याग मिथ्यादर्शनयुक्त हैं, तो गुरण होने के स्थान पर संसारमे दीर्घकाल तक परिभ्रमणकारी. दोषोंको उत्पन्न करते हैं । जैसे विषयुक्त औषधिसे लाभ नहीं होता उसीप्रकार मिथ्यात्त्वसहित अहिंसादिसे जीवका संसार- रोग नहीं मिटता । जहाँ मिथ्यात्त्व होता है वहाँ निश्चयतः श्रहिंसादि कदापि नही होते । "आत्मभ्रांति सम रोग नहिं" इस पदको विशेष ध्यानमे रखना चाहिये । जीवके साथ अनादिकालसे मिथ्यात्व - दशा चली आरही है इसलिये उसके सम्यग्दर्शन नही है, इसलिये आचार्यदेव पहले सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेका प्रयत्न - करनेके लिये बारम्बार उपदेश करते हैं ।
सम्यग्दर्शनके बिना ज्ञान, चारित्र और तपमें सम्यक्ता नही आती; सम्यग्दर्शन ही ज्ञान, चारित्र, वीर्य और तपका आधार है । जैसे आँखों से मुखकी सुन्दरता - शोभा होती है, वैसे ही सम्यग्दर्शनसे ज्ञानादिकमें सम्यक्त्व सुन्दरता - शोभा आती है ।
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अध्याय १ सूत्र २
इसी संबंध में रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें कहा है कि-
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न सम्यक्त्वसमं किंचित्त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि । श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्व समं नान्यचनूमृताम् ॥ ३४ ॥
-
अर्थ — तीनों काल और तीनों लोकमें जीवोंका सम्यग्दर्शनके समान दूसरा कोई कल्याण और मिथ्यात्त्वके समान अकल्याण नहीं है ।
भावार्थ —— अनंतकाल व्यतीत हो चुका, एक समय - वर्तमान चल रहा है और भविष्यमें अनंतकाल आयगा; - इन तीनों कालमें और अधोलोक, मध्यलोक तथा ऊर्ध्वलोक;-इन तीनों लोकोमें जीवका सर्वोत्कृष्ट उपकारी सम्यक्त्वके समान दूसरा कोई न तो है, न हुआ है, ओर न होगा | त्रिलोकस्थित इन्द्र, अहमिन्द्र, भुवनेन्द्र, चक्रवर्ती, नारायण, बलभद्र या तीर्थंङ्कर इत्यादि चेतन और मरिण, मंत्र, औषधि - इत्यादि जड़ द्रव्य; -ये कोई भी सम्यक्त्वके समान उपकारी नही है । और इस जीवका सबसे अधिक बुराअहित करनेवाला मिथ्यात्वके समान दूसरा कोई जड़ या चेतन द्रव्य तीनकाल और तीनलोकमें न तो है, न हुआ है और न होगा । इसलिये मिथ्यात्वको छोड़नेके लिये परमपुरुषार्थं करो । समस्त संसारके दुःखोका नाश करनेवाला और आत्मकल्याणको प्रगट करनेवाला एकमात्र सम्यक्त्व ही है; इसलिये उसके प्रगट करनेका ही पुरुषार्थ करो ।
और फिर, सम्यक्त्व ही प्रथम कर्तव्य है,
-
में इस प्रकार कहा है, श्रावकको पहले क्या करना चाहिये, सो कहते हैगहिऊण य सम्मत्तं सुणिम्मलं सुरगिरीव णिक्कंप | तं जाणे झाइज्जइ सावय ! दुक्खक्खयट्ठाए || ( मोक्षपाहुड़ गाथा ८६ ) अर्थ — पहले श्रावकको सुनिर्मल, मेरुके समान निष्कंप-अचल (चल, मल और प्रगाढ़ दूषणसे रहित अत्यंत निश्चल) सम्यक्त्व को ग्रहण
- इस संबंध मे अष्ट पाहुड़
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- मोक्षशास्त्र करके दुःखोंके क्षयके लिये उसे ( सम्यक्त्वके विषयभूत एकरूप आत्माको ) ध्यानमें ध्याना चाहिये।
भावार्थ-पहले तो श्रावकको निरतिचार निश्चल सम्यक्त्वको ग्रहण करके उसका ध्यान करना चाहिये कि जिस सम्यक्त्वकी भावनासे गृहस्थको गृहकार्य संबधी आकुलता, क्षोभ, दुख मिट जाय; कार्यके विगड़ने-सुधरनेमें वस्तुस्वरूपका विचार पाये तब दुःख मिट जाय । सम्यग्दृष्टिके ऐसा विचार होता है कि-सर्वज्ञने जैसा वस्तुस्वरूप जाना है वैसा निरतर परिणमित होता है, और वैसा ही होता है; उसमें इष्ट-अनिष्ट मानकर सुखी-दुःखी होना व्यर्थ है । ऐसे विचार से दुःख मिटता है, यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर है। इसलिए सम्यक्त्वका ध्यान करनेको कहा है।
अब, सम्यक्त्वके ध्यानकी महिमा कहते हैं,
सम्मचं जो झायइ सम्माइट्ठी हवेइ सो जीवो । सम्मतपरिणदो उण खवेइ दुदृढकम्माणि ||
(-मोक्षपाहुड़ गाथा ८७) अर्थ-जो सम्यक्त्वको ध्याता है वह जीव सम्यग्दृष्टि है, और सम्यक्त्वरूप परिणत जीव आठों दुष्ट कर्मोका क्षय करता है।
भावार्थ-सम्यक्त्वका ध्यान ऐसा है कि, यदि पहले सम्यक्त्व न हुआ हो तो भी, उसके स्वरूपको जानकर उसका ध्यान करे तो वह जीव सम्यग्दृष्टि हो जाता है और सम्यक्त्वकी प्राप्ति होने पर जीवके परिणाम ऐसे होजाते हैं कि संसारके कारणभूत आठों दुष्टकर्मोका क्षय हो जाता है। सम्यक्त्वके होते ही कर्मोकी गुण श्रेणी निर्जरा होती जाती है। और अनुक्रमसे मुनि होने पर; चारित्र और शुक्लध्यानके सहकारी होने पर सर्व कर्मोका नाश होता है।
अव, इस वातको संक्षेपमे कहते है,
किं बहुणा भणिएणं जे सिद्धा णरवरा गए काले । सिज्ज्ञिहहि जे वि भविया तं जाणइ सम्ममाहप्पं ॥
(-मोक्षपाहुड़, गाथा ८८ )
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अध्याय १ सूत्र २
१३
अर्थ — श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव कहते हैं कि-बहुत कहने से क्या साध्य है ? जो नरप्रधान भूतकालमें सिद्ध हुये और भविष्य में सिद्ध होंगे वह सब सम्यक्त्वका ही माहात्म्य जानो ।
भावार्थ -- सम्यक्त्वकी ऐसी महिमा है कि भूतकालमें जो श्रेष्ठ पुरुष आठ कर्मोंका नाश करके मुक्तिको प्राप्त हुये हैं तथा भविष्य में होंगे, वे इसी सम्यक्त्वसे हुये है और होगे । इसलिए श्राचार्यदेव कहते है कि विशेष क्या कहा जाय ? संक्षेपमे समझना चाहिये कि मुक्तिका प्रधान कारण यह सम्यक्त्व ही है । ऐसा नही सोचना चाहिये कि गृहस्थों के क्या धर्म होता है ? यह सम्यक्त्व धर्म ऐसा है कि जो सर्व धर्मके अंगको सफल करता है । अब यह कहते है कि जो निरंतर सम्यक्त्व का पालन करते है वे धन्य है
ते घण्णा सुकयत्था ते सूरा ते वि पंडिया मणुया । सम्म सिद्धियर सिविणे विण महलियं जेहिं ॥ ( - मोक्षपाहुड़, गाथा ८ ) अर्थ - जिस पुरुष के मुक्ति को प्राप्त करनेवाला सम्यक्त्व है, और उस सम्यक्त्वको स्वप्नमे भी मलिन नही किया-प्रतिचार नही लगाया वह पुरुष धन्य है, वही कृतार्थ है, वही शूरवीर है, वही पंडित है, वही मनुष्य है ।
भावार्थ - लोक में जो कुछ दानादि करता है उसे धन्य कहा जाता है, तथा जो विवाह, यज्ञादि करता है उसे कृतार्थ कहा जाता है, जो युद्ध से पीछे नही हटता उसे शूरवीर कहते है, और जो बहुतसे शास्त्र पढ़ लेता है उसे पंडित कहते है; किंतु यह सव कथन मात्र है । वास्तवमे तो-जो मोक्षके काररणभूत सम्यक्त्व को मलिन नही करता, - उसे निरतिचार पालता है वही धन्य है, वही कृतार्थ है, वही शूरवीर है, वही पंडित है, वही मनुष्य है; उसके विना ( सम्यक्त्वके बिना ) मनुष्य पशु समान है । सम्यक्त्वकी ऐसी महिमा कही गई है ।
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मोक्षशास्त्र (९) सम्यग्दर्शन का बल
केवली और सिद्ध भगवान रागादिरूप परिणमित नहीं होते; और संसारावस्थाको नही चाहते; यह सम्यग्दर्शनका ही बल समझना चाहिये।
(१०) सम्यग्दर्शन के भेद
ज्ञानादिकी हीनाधिकता होने पर भी तिथंचादि (पशु प्रादि ) के और केवली तथा सिद्ध भगवानके सम्यग्दर्शनको समान कहा है। उनके आत्म-प्रतीति एक ही प्रकारकी होती है। किन्तु स्वपर्यायकी योग्यताकी अपेक्षासे सम्यग्दर्शनके तीन भेद हो जाते है (१)-औपशमिक सम्यग्दर्शन, (२) क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन, (३) क्षायिक सम्यग्दर्शन ।।
औपशमिक सम्यग्दर्शन-उस दशामें मिथ्यात्वकर्मके तथा अनंतानुबंधी कषायके जड़ रजकण स्वयं उपशमरूप होते है; जैसे मैले पानीमेंसे मैल नीचे बैठ जाता है; अथवा जैसे अग्नि राखसे ढक जाती है। आत्माके पुरुषार्थसे जीव प्रथम सम्यग्दर्शन प्रगट करता है तब औपशमिक सम्यग्दर्शन ही होता है। *
क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन-इस दशामें मिथ्यात्व और मिश्रमिथ्यात्व कर्मके रजकरण आत्मप्रदेशों से पृथक् होने पर उसका फल नहीं होता, और सम्यक्मोहनीयकर्मके रजकरण उदयरूप होते है, तथा अनन्तानुबन्धी कषायकर्मके रजकरण विसंयोजनरूप होते हैं ।
क्षायिक सम्यग्दर्शन-इस दशामे मिथ्यात्वप्रकृतिके (तीनों उपविभागके ) रजकण आत्मप्रदेशसे सर्वथा हट जाते है, इसलिये मिथ्यात्व और अनन्तानुवन्धीकी सातों प्रकृतियोंका क्षय हुआ कहलाता है।
* अनादि मिथ्याष्टिके औपशमिक सम्यग्दर्शन होने पर मिथ्यात्व और भनन्तानुबंधी की चार,-ऐसी पांच प्रकृतियां उपशमरूप होती हैं। और सादि मिथ्यारप्टिके प्रीपमिक सम्यग्दर्शन होने पर जिसके मिथ्यात्वकी तीन प्रकृतियां सत्तारूप होती है उसके मिथ्यात्वकी तीन और अनन्तानुबंधीकी चार, ऐसे सात प्रकृतियाँ उपशमरूप होती है, और जिस सादि मिथ्याष्टिके एक मिथ्यात्व प्रकृति ही सत्तामें होती है उसके मिय्यार की एक पोर अनन्तानुबन्धी की चार,-ऐसी पांच प्रकृतियां उपशमरूप होती हैं।
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अध्याय १ सूत्र २
(११) सम्यग्दर्शनके अन्यप्रकार से भेद
सभी सम्यग्दृष्टि जीवोंके आत्माकी - तत्त्वकी प्रतीति एकसी होती है, तथापि चारित्रदशाकी अपेक्षासे उनके दो भेद हो जाते हैं - (१) वीतराग सम्यग्दर्शन, (२) सराग सम्यग्दर्शन |
- जब सम्यग्दृष्टि जीव अपने श्रात्मामें स्थिर होता है तब उसके निर्विकल्प दशा होती है; तब रागके साथ बुद्धिपूर्वक सम्बन्ध नही होता । जीव की इस दशाको 'वीतराग सम्यग्दर्शन' कहा जाता है । और जब सम्यग्दृष्टि जीव अपनेमें स्थिर नही रह सकता तब रागमे उसका अनित्य-सम्बन्ध होता है, इसलिये उस दशा को 'सराग सम्यग्दर्शन' कहा जाता है । ध्यान रहे कि सम्यग्दृष्टि जीव ऐसा कभी नहीं मानता कि शुभ रागसे धर्म होता है या धर्ममे सहायता होती है ।
( १२ ) सराग सम्यग्दृष्टि के प्रशमादि भाव
१५
-
सम्यग्दृष्टिके राग के साथ संबंध होता है तब चार प्रकारके शुभ भाव होते हैं (१) प्रशम, (२) संवेग, (३) अनुकंपा, (४) श्रास्तिक्य | प्रशम — क्रोध, मान, माया, लोभ संबंधी रागद्वेषादि की मंदता । संवेग - संसार अर्थात् विकारी भाव का भय । अनुकम्पा - स्वयं और पर - सर्व प्राणियों पर दया का प्रादुर्भाव । आस्तिक्य- - जीवादि तत्त्वों का जैसा अस्तित्व है वैसा ही आगम और युक्तिसे मानना ।
सराग सम्यग्हष्टिको इन चार प्रकारका राग होता है, इसलिये इन चार भावोंको उपचारसे सम्यग्दर्शनका लक्षण कहा जाता है | जीवके सम्यग्दर्शन न हो तो वे शुभ भाव प्रशमाभास, सवेगाभास, मनुकम्पा - भास, और आस्तिक्याभास है, ऐसा समझना चाहिये । प्रशमादिक सम्यग्दर्शनके यथार्थ ( निश्चय) लक्षण नही हैं, उसका यथार्थ लक्षण अपने शुद्धात्माकी प्रतीति है ।
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मोक्षशास्त्र
(१३) सम्यग्दर्शन का विषय ( लक्ष्यः ) तथाः स्वरूप
प्रश्न- सम्यग्दृष्टि अपने आत्माको कैसा मानता है ?
उत्तर - सम्यग्दृष्टि अपने आत्माको परमार्थतः त्रिकाल शुद्ध, ध्रुव, अखण्ड चैतन्यस्वरूप मानता है ।
प्रश्न - उस समयः जीवकी विकारी अवस्था. तो होती है, सो उसका क्या ?
उत्तर—विकासे अवस्था सम्यग्ज्ञानका विषय है इसलिये उसे ' सम्यग्दृष्टि जानता तो है, किन्तु सम्यग्दृष्टि का प्राश्रय अवस्था ( पर्याय-भेद ) पर नही होता; क्योंकि अवस्थाके श्राश्रयसे जीवके राग होता है और ध्रुवस्वरूपके आश्रयसे शुद्ध पर्याय प्रगट होती है ।
प्रश्न- – सम्यक्त्व ( श्रद्धा ) गुरण किसे कहते हैं ।
उत्तर — जिस गुरंगको निर्मलदशा प्रगट होनेसे अपने शुद्धात्माका प्रतिभांस ( यथार्थ प्रतीति ) हो; अखण्ड ज्ञायक स्वभावकी प्रतीति हो ।
( १ ) सच्चे देव-गुरु- धर्ममे दृढ प्रतीति, (२) जीवादि सात तत्त्वोंकी सच्ची प्रतीति, ( ३ ) स्व-परका श्रद्धान, ( ४ ) आत्म श्रद्धान इन लक्षरणोके श्रविनाभाव सहित जो श्रद्धान होता है वह निश्चय सम्यग्दर्शन है । उस पर्यायका धारक सम्यक्त्व ( श्रद्धा ) गुरण है, तथा सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन उसकी पर्यायें है )
(१४) 'तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' यह सूत्र निश्चय सम्यग्दर्शनके लिये है, ऐसा पं० टोडरमल्लजी मोक्षमार्ग प्र० अ० 8 मे कहते हैं; - ( १ ) जो तत्त्वार्थ श्रद्धान विपरीताभिनिवेश रहित जीवादि तत्त्वार्थोका श्रद्धानपना सो सम्यग्दर्शनका लक्षण है, सम्यग्दर्शन लक्ष्य है, सोई तत्वार्थ सूत्र विषै कह्या है—
तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥ १-२ ॥
बहुरि पुरुषार्थ सिद्ध्युपायके विषे भी ऐसे ही कह्या है ।
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अध्याय १ सूत्र २
जीवाजीवादिनां तत्स्वार्थानां सदैव कर्त्तव्यम् । श्रद्धानं विपरीताभिनिवेशविविक्तमात्मरूपंवत् ||२२||
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"याका अर्थ - विपरीताभिनिवेशकरि रहित जीव अजीव प्रदि तत्वार्थनिका श्रद्धान सदाकाल करना योग्य है । सो यहु श्रद्धान आत्मा का स्वरूप है चतुर्थादि गुणस्थान विषै प्रगट हो है । पीछे सिद्ध अवस्था विपैं भी सदाकाल याका सद्भाव रहै है, ऐसा जानना " ।
( देहली से प्र० सस्ती ग्रंथमालाका, मोक्षमार्ग प्रकाशक पृ० ४७०-७१)
"
इस संबंध मे पृ० ४७५ से ४७७ में पं० टोडरमल्लजी विशेष कहते है कि
बहुरि प्रश्न—— वो छद्मस्थ के तो प्रतीति श्रप्रतीति कहना संभव है, तातें तहाँ सप्त तत्त्वनिकी प्रतीति सम्यक्त्वका लक्षरण कहया सो हम मान्यां; परन्तु केवली सिद्ध भगवान के तो सर्वका जानपना समानरूप है । तहाँ सप्त तत्त्वनिकी प्रतीति कहना संभव नाहीं । अर तिनकै सम्यक्त्व गुण पाइए ही है । तातैं तहाँ तिस लक्षण का अव्याप्तिपना आया ।
1
·
ताका समाधान-जैसे छद्मस्थ के श्रुतज्ञान अनुसार प्रतीति पाइए हैं तैसे, केवली सिद्ध भगवानके केवलज्ञानके अनुसार प्रतीति पाइए है । जो सप्त तत्त्वनिका स्वरूप पहले ठीक किया था, सो ही केवलज्ञान करि जान्या । तहाँ प्रतीति को परम श्रवगाढपनो भयो । याहीते परमावगाढ सम्यक्त्व कहया । जो पूर्वे श्रद्धान किया था, ताकौ जूठा जान्या होता, तो तहाँ अप्रतीति होती । सो तौ जैसा सप्त तत्त्वनिका श्रद्धान छनस्थ के भया था, तैसा ही केवली सिद्ध भगवान के पाइए है । तातै ज्ञानादिक की हीनता अधिकता होते भी तिर्यंचादिक वा केवली सिद्ध भगवानकं सम्यक्त्व गुण समान कहया । बहुरि पूर्व अवस्था विषै यहु मानें था-सवर निर्जराकरि मोक्षका उपाय करना । पीछे मुक्ति अवस्था भए ऐसे मानने लगे, जो संवर निर्जरा करि हमारे मोक्ष भई । बहुरि पूर्वे ज्ञानकी हीनता - करि
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मोक्षशास्त्र जीवादिकके थोड़े विशेष जाने था पीछे केवलज्ञान भए तिनके सर्व विशेष जानें परन्तु मूलभूत जीवादिकके स्वरूपका श्रद्धान जैसा छास्थके पाइए है, तैसा ही केवलीके पाइए है । बहुरि यद्यपि केवली, सिद्ध भगवान् अन्य पदार्थनिको भी प्रतीति लिये जाने है तथापि ते पदार्थ प्रयोजनभूत नाही । ताः सम्यक्त्व गुण विर्षे सप्त तत्त्वनि ही का श्रद्धान ग्रहण किया है । केवली सिद्ध भगवान् रागादिरूप न परिणमैं हैं। संसार अवस्थाकौं न चाहै हैं । सो इस श्रद्धानका बल जानना ।
बहुरि प्रश्न-~~जो सम्यग्दर्शनको तो मोक्षमार्ग कया था, मोक्ष विष याका सद्भाव कैसे कहिए है ?
ताका उत्तर-कोई कारण ऐसा भी हो है, जो कार्य सिद्ध भए भी नष्ट न होय । जैसे काहू वृक्षक कोई एक शाखाकरि अनेक शाखायुक्त अवस्था भई, तिसको होते वह एक शाखा नष्ट न हो है । तैसे काहू आत्माकै सम्यक्त्व गुणकरि अनेक गुण युक्त मुक्ति अवस्था भई, ताकौ होते सम्यक्त्व गुण नष्ट न हो हैं ऐसे केवली सिद्ध भगवानके भी तत्त्वाथे श्रद्धान लक्षण ही सम्यक्त्व पाइए है । तातें तहाँ अव्याप्तिपनौं नाहीं है।"
(मोक्षमार्ग प्र० पृ० ४७७ )
बहुरि प्रश्न-मिथ्याष्टिक भी तत्त्व श्रद्धान हो है, ऐसा शास्त्रविर्ष निरूपण है। प्रवचनसारविर्षे आत्मज्ञानशून्य तत्त्वार्थ श्रद्धान अकार्यकारी कहा है। तातै सम्यक्त्वका लक्षण तत्त्वार्थ श्रद्धान कह्या है, तिस विर्षे अतिव्याप्ति दूपण लाग है।
ताका समाधान-मिथ्यादृष्टिक जो तत्त्व श्रद्धान कह्या है, सो नामनिक्षेपकरि कहा है। जामें तत्त्व श्रद्धानका गुण नाही अर व्यवहारविष जाका नाम तत्त्व श्रद्धान-कहिए, सो मिथ्यादृष्टिक हो है। अथवा आगमद्रव्यनिक्षेपकरि हो है । तत्त्वार्थ श्रद्धानके प्रतिपादक शास्त्रनिको अभ्यास है, तिनका स्वरूप निश्चय करनें विपे उपयोग नाही लगाव है, ऐसा जानना।
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अध्याय १ सूत्र २ बहुरि यहाँ सम्यक्त्वका लक्षण तत्त्वार्थ श्रद्धान कह्या है सो भावनिक्षेपकरि कया है। सो गुण सहित सांचा तत्त्वार्थ श्रद्धान मिथ्यादृष्टिके कदाचित् न होय । बहुरि आत्मज्ञान शून्य तत्त्वार्थ श्रद्वान कह्या है तहां सोई अर्थ जानना । सांचा जीव अजीवादिकका जाके श्रद्धान होय, ताकै आत्मज्ञान कैसें न होय ? होय ही होय । ऐसे कोई मिथ्यादृष्टिके सांचा तत्त्वार्थ श्रद्धान सर्वथा न पाइए है, तात तिस लक्षण विर्षे अतिव्याप्ति दूषण न लाग है।
बहुरि जो यहु तत्त्वार्थ श्रद्धान लक्षण कह्या, सो असंभवी भी नाही है । जाते सम्यक्त्वका प्रतिपक्षी मिथ्यात्व ही है यहु नाही। वाका लक्षण इसतै विपरीतता लिए है ऐसे अव्याप्ति अतिव्याप्ति, असंभविपनाकरि रहित सर्व सम्यग्दृष्टिनि विर्षे तो पाइये पर कोई मिथ्यादृष्टि विष न पाइएऐसा सम्यग्दर्शनका सांचा लक्षण तत्त्वार्थ श्रद्धान है।
(मो० मा० प्र० अ० ६ पृ० ४७५ से ४७७ ) पंचाध्यायी भाग २ मे कहा है कि
ततोऽनन्तरं तेभ्यः किंचिच्छुद्धमनीदृशम् ।
शुद्ध नवपदान्येव तद्विकाराइते परम् ।। १८६ ॥
अर्थ-इसलिये शुद्धतत्त्व कुछ उन नव तत्त्वोंसे विलक्षण अर्थान्तर नही है किन्तु केवल नवतत्त्व सम्बन्धी विकारोंको छोड़कर नवतत्त्व ही
भावार्थ- इसलिये सिद्ध होता है कि केवल विकारकी उपेक्षा करने से नवतत्त्व ही शुद्ध जीव है। नवतत्त्वो से कुछ सर्नथा भिन्न शुद्धत्व नही है।
अतस्तत्त्वार्थ श्रद्धानं सूत्रे सद्दर्शनं मतम् । तत्तत्त्वं नव जीवाचा यथोद्देश्याः क्रमादपि ॥१८७।।
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मोक्षशास्त्र
अर्थ — इसलिये सूत्रमें तत्त्वार्थका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन माना गया है और वे तत्त्व भी जीवाजीवादिरूपसे नव हैं, अतः क्रमानुसार उन नव पदार्थोंका कथन करना चाहिये ।
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इसलिये इस शास्त्रका 'सूत्र में' निश्चय सम्यग्दर्शनका ही लक्षण है, व्यवहार सम्यग्दर्शनका नही ऐसा निश्चय करना ।
दूसरे सूत्रका सिद्धान्त
संसार-समुद्रसे रत्नत्रयरूपी ( सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूपी) जहाज को पार करनेके लिये सम्यग्दर्शन चतुर नाविक है । जो जीव सम्यग्दर्शन को प्रगट करता है वह अनंत सुखको पाता है । जिस जीवके सम्यग्दर्शन नही है वह यदि पुण्य करे तो भी अनंत दुःख भोगता है; इसलिये जीवों को वास्तविक सुख प्राप्त करनेके लिये तत्त्वका स्वरूप यथार्थ समझकर सम्यग्दर्शन प्रगट करना चाहिये । तत्त्वका स्वरूप समझे बिना किसी जीवको सम्यग्दर्शन नही होता । जो जीव तत्त्वके स्वरूपको यथार्थतया समझता है उसे सम्यग्दर्शन होता ही है-इसे यह सूत्र प्रतिपादित करता है ॥ २ ॥ निश्चय सम्यग्दर्शनके ( उत्पत्तिकी अपेक्षासे) भेदतन्निसर्गादधिगमाद्वा ॥ ३ ॥
अर्थ - [ तत् ] वह सम्यग्दर्शन [ निसर्गात् ] स्वभावसे [ वा ] अथवा [ श्रधिगमात् ] दूसरेके उपदेशादिसे उत्पन्न होता है ।
टीका
( १ ) उत्पत्तिकी अपेक्षासे सम्यग्दर्शनके दो भेद हैं- ( १ ) निसर्गज, (२) अधिगमज ।
निसर्गज -जो दूसरेके उपदेशादिके बिना स्वयमेव (पूर्ण संस्कारसे) उत्पन्न होता है उसे निसर्गज सम्यग्दर्शन कहते है ।
अधिगमज – जो सम्यग्दर्शन परके उपदेशादिसे उत्पन्न होता है उसे अधिगमज सम्यग्दर्शन कहते हैं ।
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अध्याय १ सूत्र ३ (२) जिस जीवके सम्यग्दर्शन प्रगट होता है उस जीवने उस समय अथवा पूर्व भवमें सम्यग्ज्ञानी आत्मासे उपदेश सुना होता है। [उपदिष्ट तत्त्वका श्रवण, ग्रहण-धारण होना; विचार होना उसे देशनालब्धि कहते हैं] उसके बिना किसीको सम्यग्दर्शन नहीं होता। इसका यह अर्थ नही समझना चाहिये कि वह उपदेश सम्यग्दर्शनको उत्पन्न करता है। जीव सम्यरदर्शनको स्वतः अपनेमे प्रगट करता है, ज्ञानीका उपदेश तो निमित्त मात्र है । अज्ञानीका उपदेश सुनकर कोई सम्यग्दर्शन प्रगट नहीं कर सकता यह नियम है । और, यदि सद्गुरु का उपदेश सम्यग्दर्शन उत्पन्न करता हो तो, जो जो जीव उस उपदेशको सुनें उन सबको सम्यग्दर्शन हो जाना चाहिये, किंतु ऐसा नही होता । सद्गुरुके उपदेशसे सम्यग्दर्शन हुआ है, यह कथन व्यवहारमात्र है,-निमित्तका ज्ञान करानेके लिए कथन है।
(३ ) अधिगमका स्वरूप इस अध्यायके छ8 सूत्रमे दिया गया है। वहां बताया है कि-'प्रमाण और नयके द्वारा अधिगम होता है'। प्रमाण और नयका स्वरूप उस सूत्रकी टीकामें दिया है, वहाँसे ज्ञात करना चाहिये।
(४) तीसरे सूत्रका सिद्धान्त
जीवको अपनी भूलके कारण अनादिकालसे अपने स्वरूपके सबंधमे भ्रम बना हुआ है। इसलिये उस भ्रमको स्वयं दूर करने पर सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है । जीव जब अपने सच्चे स्वरूपको समझनेकी जिज्ञासा करता है तब उसे आत्मज्ञानीपुरुषके उपदेशका योग मिलता है । उस उपदेशको सुनकर जीव अपने स्वरूपका यथार्थ निर्णय करे तो उसे सम्यग्दर्शन होता है । किसी जीवको श्रात्मज्ञानी पुरुषका उपदेश सुननेपर तत्काल सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है, और किसीको उसी भवमे दीर्घकालमै अथवा दूसरे भवमे उत्पन्न होता है । जिसे तत्काल सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है उसे 'अधिगमज सम्यग्दर्शन' हुआ कहलाता है, और जिसे पूर्वके संस्कारसे उत्पन्न होता है उसे 'निसर्गज सम्यग्दर्शन हुआ कहलाता है।
[कोई जीव अपने आप शास्त्र पढ़कर या अज्ञानीका उपदेश सुनकर सम्यग्दर्शन को प्राप्त करलें ऐसा कभी नही हो सकता है-देशना लब्धिके विषयमें सब प्रश्नोका संपूर्ण समाधानवाला लेख देखो-आत्मधर्म वर्ष छठवां अक नं. ११-१२]
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मोक्षशास्त्र
जैसे वैद्यकीय ज्ञान प्राप्त करना हो तो वैद्यकके ज्ञानी गुरुकी शिक्षासे वह प्राप्त किया जा सकता है, वैद्यकके अज्ञानी पुरुषसे नही, उसी प्रकार श्रात्मज्ञानी गुरुके उपदेश द्वारा सम्यग्दर्शन प्राप्त किया जा सकता है; श्रात्मज्ञानहीन ( अज्ञानी) गुरुके उपदेशसे वह प्राप्त नहीं किया जा सकता । इसलिये सच्चे सुखके इच्छुक जीवोंको उपदेशकका चुनाव करनेमें सावधानी रखना श्रावश्यक है । जो उपदेशकका चुनाव करनेमें भूल करते हैं वे सम्यग्दर्शनको प्राप्त नही कर सकते, यह निश्चित समझना चाहिये ॥३॥ तत्त्वोंके नाम जीवाजीवास्रवबंधसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ॥ ४ ॥
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अर्थ - [जीवाजीवास्रवबंधसंवर निर्जरामोक्षाः ] १ जीव, २ अजीव, ३ श्रास्रव, ४ बंध, ५ संवर, ६ निर्जरा और ७ मोक्ष, यह सात [ तत्त्वम् ] तत्त्व है ।
टीका
१ - जीव-जीव अर्थात् आत्मा । वह सदा ज्ञाता स्वरूप, परसे भिन्न श्रीर त्रिकालस्थायी है जब वह पर-निमित्तके शुभ अवलंबनमे युक्त होता है तव उसके शुभभाव (पुण्य) होता है, श्रीर जव अशुभावलंबनमें युक्त होता है तब प्रशुभभाव ( पाप ) होता है, और जब स्वावलंबी होता है तव शुद्धभाव ( धर्म ) होता है ।
२- अजीव जिसमे चेतना-ज्ञातृत्त्व नहीं है; ऐसे द्रव्य पाँच हैं । उनमें सेप, अधर्म, श्राकाश और काल यह चार अरुपी हैं तथा पुद्गल रूपी ( रग, गंध, वां सहित ) है अजीव वस्तुएँ आत्मासे भिन्न हैं, तथा आमा भी एक दूसरे पृथक् स्वतंत्र है । पराश्रयके विना जीवमें विरार नहीं शेष परोग होनेसे जीवके पुण्य-पापके शुभाशुभ विकारी आप होते हैं।
३- आपन-विहारी शुभाशुभभाव जो अस्पी अवस्था जीवमें
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२३
अध्याय १ सूत्र ४ होती है वह भावात्रव और नवीन कर्म-रजकणोंका आना (आत्माके साथ एक क्षेत्र मे रहना) सो द्रव्यास्रव है।
पुण्य-पाप दोनों प्रास्रव और बंध के उपभेद है ।
पुण्य-दया, दान, भक्ति, पूजा, व्रत इत्यादि जो शुभ भाव जीवके होते हैं वह अरूपी विकारी भाव है, वह भाव पुण्य है, और उसके निमित्तसे जड़ परमाणुओंका समूह स्वयं (अपने ही कारणसे स्वतः) एक क्षेत्रावगाह सम्बन्धसे जीव के साथ बँधता है, वह द्रव्य-पुण्य है।
पाप-हिंसा, असत्य, चोरी, अन्नत इत्यादि जो अशुभभाव है सो भाव-पाप है, और उसके निमित्तसे जड़की शक्तिसे जो परमाणुओंका समूह स्वयं बंधता है वह द्रव्य-पाप है।
परमार्थतः-वास्तवमे यह पुण्य-पाप आत्माका स्वरूप नही है, वह आत्माकी क्षणिक अवस्थामे परके सम्बन्धसे होनेवाला विकार है।
४-बंध-आत्माका अज्ञान, राग-द्वेष, पुण्य-पापके भावमे रुक जाना सो भाव-बंध है । और उसके निमित्तसे पुद्गलका स्वयं कर्मरूप बँधना सो द्रव्य-बंध है।
५-संवर-पुण्य-पापके विकारीभावको (प्रास्रवको) आत्माके शुद्ध भाव द्वारा रोकना सो भाव-सवर है, और तदनुसार नये कर्मोका आगमन रुक जाय सो द्रव्य-संवर है।
६-निर्जरा-अखंडानन्द' शुद्ध आत्मस्वभावके लक्षके बलसे स्वरूप स्थिरताकी वृद्धि द्वारा प्राशिकरूपमे शुद्धिकी वृद्धि और अशुद्ध (शुभाशुभ) अवस्थाका आंशिक नाश करना सो भाव-निर्जरा है, और उसका निमित्त पाकर जड़कर्मका अशतः खिर जाना सो द्रव्य-निर्जरा है।
७-मोक्ष-अशुद्ध अवस्थाका सर्वथा-सम्पूर्ण नाश होकर आत्माकी पूर्ण निर्मल-पवित्र दशाका प्रगट होना सो भाव-मोक्ष है, और निमित्तकारण द्रव्यकर्मका सर्वथा नाश ( अभाव ) होना सो द्रव्य-मोक्ष है।
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मोक्षशास्त्र (२) सात तत्त्वोंमेंसे प्रथम दो तत्त्व-'जीव' और 'अजीव' द्रव्य हैं। तथा शेष पाँच तत्त्व उनकी (जीव और अजीवकी) सयोगी तथा वियोगी पर्यायें (विशेष अवस्थाये) हैं। आस्रव और बन्ध संयोगी हैं तथा संवर, निर्जरा और मोक्ष जीव-अजीवकी वियोगी पर्याय हैं। जीव और अजीव तत्त्व सामान्य है तथा शेष पाँच तत्त्व पर्याय होनेसे विशेष कहलाते है।
(३) जिसकी दशाको अशुद्धमेसे शुद्ध करना है उसका नाम तो प्रथम अवश्य दिखाना ही चाहिये, इसलिये 'जीव' तत्व प्रथम कहा गया है। पश्चात् जिस ओरके लक्षसे अशुद्धता अर्थात् विकार होता है उसका नाम देना आवश्यक है, इसलिये 'अजीव तत्त्व कहा गया है। अशुद्ध दशाके कारण-कार्यका ज्ञान करानेके लिये 'यात्रव' और 'बंध तत्त्व कहे गये हैं। तत्पश्चात् मुक्तिका कारण कहना चाहिये; और मुक्तिका कारण वही हो सकता है जो वध और बंधके कारणसे उल्टे रूपमें हो; इसलिये आस्रवके निरोध होने को 'संवर' तत्त्व कहा है। अशुद्धता विकारके एक देश दूर हो जानेके कार्यको 'निर्जरा तत्त्व कहा है। जीवके अत्यन्त शुद्ध हो जाने की दशाको 'मोक्ष' तत्त्व कहा है। इन तत्त्वोंको समझनेकी अत्यन्त आवश्यकता है, इसीलिये वे कहे गये हैं। उन्हे समझनेसे जीव मोक्षोपायमें युक्त हो सकता है । मात्र जीव अजीवको जाननेवाला ज्ञान मोक्षमार्गके लिये कार्यकारी नही होता । इसलिये जो सच्चे सुखके मार्गमें प्रवेश करना चाहते है उन्हे इन तत्त्वोको ययार्थतया जानना चाहिये।
(४) सात तत्त्वोंके होने पर भी इस सूत्रके अन्तमे 'तत्त्वम ऐसा एकवनन नूचर गव्द प्रयोग किया गया है, जो यह सूचित करता है कि न मात नत्त्वोका ज्ञान करके, भेद परसे लक्ष हटाकर, जीवके त्रिकालज्ञायक माना पायय करनेमे जीव शुद्धता प्रगट कर सकता है ।
(५) चौथ मन्त्रका सिद्धान्त
मममम मान तन्य कहे गये हैं। उनमेसे पुण्य और पापका समावेश RT कर चोंगे हो जाता है। जिसके द्वारा सुत उत्पन्न हो और
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अध्याय १ सूत्र ५
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दुःखका नाश हो उस कार्यका नाम प्रयोजन है । जीव और श्रजीवके विशेष (भेद ) वहुतसे है । उनमेसे जो विशेषोके साथ जीव-प्रजीवका यथार्थ श्रद्धान करनेपर स्व-परका श्रद्धान हो और उससे सुख उत्पन्न हो; और जिसका अयथार्थ श्रद्धान करनेपर स्व-परका श्रद्धान न हो, रागादिकको दूर करनेका श्रद्धान न हो और उससे दुःख उत्पन्न हो; इन विशेषोंसे युक्त जीव- अजीव पदार्थ प्रयोजनभूत समझने चाहिये । आस्रव और बघ दुःखके कारण हैं, तथा संवर, निर्जरा और मोक्ष सुखके कारण है; इसलिये जीवादि सात तत्त्वोंका श्रद्धान करना आवश्यक है । इन सात तत्त्वोंकी श्रद्धाके बिना शुद्धभाव प्रगट नही हो सकता | 'सम्यग्दर्शन' जीवके श्रद्धागुणकी शुद्ध अवस्था है, इसलिये उस शुद्ध भावको प्रगट करनेके लिये सात तत्त्वोका श्रद्धान- ज्ञान अनिवार्य है | जो जीव इन सात तत्त्वोंकी श्रद्धा करता है वही अपने जीव अर्थात् शुद्धात्माको जानकर उस ओर अपना पुरुषार्थ लगाकर सम्यग्दर्शन प्रगट कर सकता है । इन सात (पुण्य-पाप सहित नौ) तत्त्वोके अतिरिक्त अन्य कोई 'तत्त्व' नही है, - ऐसा समझना चाहिये ॥ ४ ॥
निश्चय सम्यग्दर्शनादि शब्दों के अर्थ समझनेकी रीति
नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः ॥ ५ ॥
श्रथं - [नामस्थापनाद्रव्यभावतः -] नाम, स्थापना, द्रव्य, और भावसे [ तत्न्यासः ] उन सात तत्त्वो तथा सम्यग्दर्शनादिका लोकव्यवहार होता है ।
टीका
( १ ) वक्ता मुखसे निकले हुये शब्दके, अपेक्षाको लेकर भिन्न २ अर्थ होते है; उन अर्थोमे व्यभिचार (दोष) न आये और सच्चा अर्थ कैसे हो यह बताने के लिए यह सूत्र कहा है ।
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( २ ) इन अर्थोके सामान्य प्रकार चार किये गये है । पदार्थोके भेद को न्यास अथवा निक्षेप कहा जाता है । [ प्रसारण और नयके अनुसार प्रच
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मोक्षशास्त्र
लित हुए लोकव्यवहारको निक्षेप कहते है । ] ज्ञेय पदार्थ अखण्ड है; तथापि उसे जानने पर ज्ञेय पदार्थ के जो भेद ( अंश, पहलू ) किये जाते हैं उसे निक्षेप कहते हैं । और उस अंशको जाननेवाले ज्ञानको नय कहते हैं । निक्षेप नयका विषय है, और नय निक्षेपका विषयी ( विषय करनेवाला) है |
( ३ ) निक्षेपके भेदोंकी व्याख्या
नाम निक्षेप - गुण, जाति या क्रियाकी, अपेक्षा किये बिना किसीका यथेच्छ नाम रख लेना सो नाम निक्षेप है । जैसे किसीका नाम 'जिनदत्त' रखा; किंतु वह जिनदेवके द्वारा दिया हुआ नही है, तथापि लोकव्यवहार ( पहचानने ) के लिये उसका 'जिनदत्त' नाम रखा गया है । एकमात्र वस्तु की पहिचानके लिये उसकी जो संज्ञा रख ली जाती है उसे नाम निक्षेप कहते है ।
स्थापना निक्षेप - किसी अनुपस्थित ( अविद्यमान ) वस्तुका किसी दूसरी उपस्थित वस्तु संबंध या मनोभावनाको जोड़कर आरोप कर देना कि 'यह वही है' सो ऐसी भावनाको स्थापना कहा जाता है । जहाँ ऐसा आरोप होता है वहां जीवोके ऐसी मनोभावना होने लगती है कि 'यह वही है' ।
स्थापना दो प्रकारकी होती है— तदाकार और अतदाकार | जिस पदार्थका जैसा श्राकार हो वैसा आकार उसकी स्थापनामें करना सो 'तदाकार स्थापना' है । और चाहे जैसा आकार कर लेना सो 'अतदाकार स्थापना' है । सदृशताको स्थापना निक्षेपका कारण नही मान लेना चाहिये, उसका कारण तो केवल मनोभावना ही है । जनसमुदायकी यह मानसिक भावना जहाँ होती है वहाँ स्थापना निक्षेप समझना चाहिये । वीतरागप्रतिमाको देखकर बहुतसे जीवोंके भगवान और उनकी वीतरागता की मनोभावना होती है, इसलिये वह स्थापना निक्षेप है ।
* नाम निक्षेप और स्थापना निक्षेपमें यह अन्तर है कि नाम निक्षेपमें पूज्यअपूज्यका व्यवहार नही होता, और स्थापना निक्षेपमें यह व्यवहार होता है ।
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अध्याय १ सूत्र ५
२७ द्रव्य निक्षेप-भूत और भविष्यत् पर्यायकी मुख्यताको लेकर उसे वर्तमानमें कहना-जानना सो द्रव्य निक्षेप है। जैसे श्रेणिक राजा भविष्यमें तीर्थंकर होंगे, उन्हे वर्तमानमे तीर्थंकर कहना-जानना, और भूतकालमे हो गये भगवान महावीरादि तीर्थंकरोंको वर्तमान तीर्थंकर मानकर स्तुति करना, सो द्रव्य निक्षेप है।
भाव निक्षेप केवल वर्तमान पर्यायकी मुख्यतासे जो पदार्थ वर्तमान जिस दशामे है उसे उसरूप कहना-जानना सो भाव निक्षेप है । जैसे सीमंघर भगवान वर्तमान तीर्थकरके रूपमें महाविदेहमे विराजमान हैं उन्हे तीर्थंकर कहना-जानना, और भगवान महावीर वर्तमानमे सिद्ध है। उन्हें सिद्ध कहना-जानना सो भाव निक्षेप है ।
(४) जहाँ 'सम्यग्दर्शनादि' या 'जीवाजीवादि' शब्दोका प्रयोग किया गया हो वहां कौनसा निक्षेप लागू होता है, सो निश्चय करके जीवको सच्चा अर्थ समझ लेना चाहिये । सूत्र १ मे 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्रारिण' तथा मोक्षमार्ग वह शब्द तथा सूत्र २, मे सम्यग्दर्शन वह शब्द भावनिक्षेपसे कहा है ऐसा समझना चाहिये ।
(५) स्थापनानिक्षेप और द्रव्यनिक्षेपमें भेद
"In Sthapana the connotation is merely attributed. It is never there. It cannot be there. In dravya it will be there or has been there. The common factor between the two is that it is not there now, and to that extent connotation is fictitious in both." ( English Tatvarth Sutram, page-11)
अर्थ-स्थापनानिक्षेपमें-बताना मात्र आरोपित है, उसमे वह (मूल वस्तु) कदापि नही है, वह वहाँ कदापि नही हो सकती। और द्रव्यनिक्षेपमें वह ( मूल वस्तु ) भविष्यमे प्रगट होगी अथवा भूतकालमे थी। दोनोके बीच सामान्यता इतनी है कि-वर्तमानकालमें वह दोनोमे विद्यमान नही है, और उतने अंशमें दोनोमें आरोप है। [-तत्त्वार्थसूत्र अंग्रेजी टीका, पृष्ठ ११ ]
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मोक्षशास्त्र
(६) पांचवें सूत्रका सिद्धान्त -
भगवानके नामनिक्षेप और स्थापनानिक्षेप शुभभाव के निमित्त हैं, इसलिये व्यवहार है । द्रव्यनिक्षेप निश्चयपूर्वक व्यवहार होनेसे अपनी शुद्ध पर्याय थोड़े समय के पश्चात् प्रगट होगी यह सूचित करता है । भावनिक्षेप निश्चय पूर्वक अपनी शुद्ध पर्याय होनेसे धर्म है, ऐसा समझना चाहिये । निश्चय और व्यवहारनयका स्पष्टीकरण, इसके बादके सूत्रकी टीकामें किया गया है ॥५॥
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निश्चय सम्यग्दर्शनादि जाननेका उपाय
प्रमाणनयैरधिगमः ॥ ६ ॥
अर्थ- सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय और जीवादि तत्त्वोंका [ श्रधिगमः ] ज्ञान [प्रमाणनयैः ] प्रमाण और नयोंसे होता है ।
टीका
(१) प्रमाण - सच्चे ज्ञानको - निर्दोषज्ञानको अर्थात् सम्यग्ज्ञानको प्रमारण कहते हैं । अनन्तगुणों या धर्मका समुदायरूप अपना तथा परवस्तुका स्वरूप प्रमाण द्वारा जाना जाता है । प्रमारण वस्तुके सर्वदेशको ( सर्व पहलुओंको ) ग्रहरण करता है, जानता है ।
नय -- प्रमाण द्वारा निश्चित हुई वस्तुके एकदेशको जो ज्ञान ग्रहण करता है उसे नय कहते हैं । जो प्रमाण द्वारा निश्चित हुये अनन्तधर्मात्मक वस्तुके एक एक अगका ज्ञान मुख्यतासे कराता है सो नय है । वस्तुओमें अनंत धर्म है, इसलिये उनके अवयव अनन्त तक हो सकते हैं, और इसलिये अवयवके ज्ञानरूप नय भी अनन्त तक हो सकते हैं । श्रुतप्रमाणके विकल्प, भेद या अंशको नय कहते हैं । श्रुतज्ञानमें ही नयरूप प्रश होता है । जो नय है वह प्रमाणसापेक्षरूप होता है । ( मति, अवधि, मन:पर्यय और केवल - ज्ञानमे नयके भेद नही होते ! )
(2) “Right belife is not identical with blind faith, It's authority is neither external nor autocratic. It is rea
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अध्याय १ सूत्र ६ soned knowledge It is a sort of a sight of a thing. You cannot doubt it's testimony. So long as there is doubt, there is no right belief. But doubt must not be suppressed, it must be destroyed. Things have not to be taken ontrust. They must be tested and tried by every one him-self, This sutra lays down the mode in which it can be done. It refers the inquirer to the first laws of thought and to the universal principles of all reasoning, that is to logic under the names of Praman and Naya (English Tatvarth Sutram, Page 15)
अर्थ-सम्यग्दर्शन अंधश्रद्धाके साथ एकरूप नही है उसका अधिकार आत्माके बाहर या स्वच्छंदी नही है। वह युक्तिपुरस्सर ज्ञानसहित होता है, उसका प्रकार वस्तुके दर्शन ( देखने ) समान है आप उसके साक्षीपनाकी शंका नही कर सकते जहाँ तक ( स्वस्वरूपकी ) शंका है वहाँ तक सच्ची मान्यता नही है। उस शंकाको दबाना नही चाहिये, किन्तु उसका नाश करना चाहिये। [किसीके] भरोसेपर वस्तुका ग्रहण नही किया जाता । प्रत्येकको स्वयं स्वतः उसकी परीक्षा करके उसके लिये यत्न करना चाहिये। वह कैसे हो सकता है, सो यह सूत्र बतलाता है। विचारकताके प्राथमिक नियम तथा समस्त युक्तिमान् विश्वके सिद्धान्तोको प्रमाण और नयका नाम' देकर उसका आश्रय लेनेके लिये सत्यशोधकको यह सूत्र सूचित करता है। [ अंग्रेजी तत्त्वार्थ सूत्र पृष्ठ १५ ]
(३) युक्ति
प्रमाण और नयकी युक्ति कहते है। सत्शास्त्रका ज्ञान आगमज्ञान है । आगममे वरिणत तत्त्वोंकी यथार्थता युक्ति द्वारा निश्चित किये बिना तत्त्वोंके भावोंका यथार्थ भास नही होता । इसलिये यहाँ युक्ति द्वारा निर्णय . करनेका कहा है।
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मोक्षशास्त्र
(४) अनेकान्त एकान्त
जैन शास्त्रोंमे अनेकान्त और एकान्त शब्दोंका खूब प्रयोग किया गया है, इसलिये उनका संक्षिप्त स्वरूप यहाँ दिया जा रहा है।
अनेकान्त [अनेक+अंत] अनेक धर्म । एकान्त-[एक+अंत] एक धर्म।
अनेकान्त और एकान्त दोनोंके दो-दो भेद हैं । अनेकान्तके दो भेद सम्यक्-अनेकान्त और मिथ्या-अनेकान्त तथा एकान्तके दो भेद-सम्यक्एकान्त और मिथ्या-एकान्त हैं । इनमेंसे सम्यक्-अनेकान्त प्रमाण है और मिथ्या-अनेकान्त प्रमाणाभास; तथा सम्यक्-एकान्त नय है और मिथ्याएकान्त नयाभास है।
(५) सम्यक और मिथ्या अनेकान्तका स्वरूप
प्रत्यक्ष, अनुमान तथा आगमप्रमाणसे अविरुद्ध एक वस्तुमें जो अनेक धर्म है उन्हे निरूपण करने में जो तत्पर है सो सम्यक् अनेकान्त है । प्रत्येक वस्तु निजरूपसे है और पररूपसे नही। अात्मा स्व-स्वरूपसे है, पर स्वरूपसे नही, पर उसके स्वरूपसे है और आत्माके स्वरूपसे नही, इसप्रकार जाननासो सम्यक् अनेकान्त है । और जोतत् अतत् स्वभावकी मिथ्या कल्पना की जाती है सो मिथ्या अनेकान्त है । जीव अपना कुछ कर सकता है और दूसरे जीवोंका भी कर सकता है, इसमे जीवका निजसे और परसे-दोनोसे तत्पन हुआ, इसलिये वह मिथ्या अनेकान्त है।
(६) सम्यक् और मिथ्या अनेकान्तके दृष्टान्त१-प्रात्मा निजरूपसे है और पररूपसे नही, ऐसा जानना सो सम्यक्
अनेकान्त है । प्रात्मा निजरूपसे है और पररूपसे भी है, ऐसा जानना सो मिथ्या अनेकान्त है। २-यात्मा अपना कुछ कर सकता है शरीरादि पर वस्तुगोंका कुछ
नहीं कर सकता,-ऐसा जानना सो सम्यक् अनेकान्त है। प्रात्मा अपना कर सकता है और शरीरादि परका भी कर सकता है, ऐगा जानना गो मिथ्या अनेकान्त है।
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अध्याय १ सूत्र ६ ३-प्रात्माके शुद्धभावसे धर्म होता है और शुभ भावसे नहीं होता,
ऐसा जानना सो सम्यक् अनेकान्त है। आत्माके शुद्ध भावसे धर्म होता है और शुभ भावसे भी होता है, ऐसा जानना सो मिथ्या अनेकान्त है। ४-निश्चय स्वरूपके आश्रयसे धर्म होता है और व्यवहारके आश्रय से नही होता, ऐसा जानना सो सम्यक् अनेकान्त है। निश्चय
स्वरूपके आश्रयसे धर्म होता है और व्यवहारके आश्रयसे भी , होता है, ऐसा समझना सो मिथ्या अनेकान्त है। ५-निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट करनेके बाद स्वावलम्बनके बलसे जितना अंश व्यवहारका (-पराश्रयका) प्रभाव होता है उतना अंश निश्चय (-शुद्ध पर्याय ) प्रगट होता है, ऐसा समझना सो सम्यक् अनेकान्त है । व्यवहारके करते २ निश्चय प्रगट हो
जाता है, ऐसा समझना सो मिथ्या अनेकान्त है। ६-आत्माको अपनी शुद्ध क्रियासे लाभ होता है, और शारीरिक __ क्रियोसे हानि-लाभ नही होता, ऐसा जानना सो सम्यक् अने'कान्त है । आमाको अपनी शुद्ध क्रियासे लाभ होता है और शारीरिक क्रियासे' भी लाभ होता है, ऐसा मानना सो मिथ्या
अनेकान्त'है ।" '. ७-एक (प्रत्येक ) वस्तुमें सदा स्वतंत्र वस्तुत्त्वको सिद्ध करनेवाली
परस्पर दो विरोधी शक्तियों [ सत्-असत्, तत्-अतद, नित्यअनित्य, एक-अनेक इत्यादि ]-को प्रकाशित करे सो सम्यक् अनेकान्त है। एक वस्तुमे दूसरी वस्तुकी शक्तिको प्रकाशित करके, एक वस्तु, दो वस्तुओंका कार्य करती है, ऐसा मानना सो मिथ्या अनेकांत है; अथवा सम्यक् अनेकान्तसे वस्तुका जो स्वरूप निश्चित है उससे विपरीत वस्तु स्वरूपकी केवल कल्पना करके, जो उसमे न हो वैसे स्वभावोंकी कल्पना करना सो मिथ्या अनेकान्त है।
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मोक्षशास्त्र
८ - जीव अपने भाव कर सकता है और पर वस्तुका कुछ नहीं कर सकता - ऐसा जानना सो सम्यक् श्रनेकान्त है ।
जीव सूक्ष्म पुद्गलोंका कुछ नहीं कर सकता, किंतु स्थूल पुद्गलों का कर सकता है, ऐसा जानना - सो मिथ्या अनेकान्त है ।
(७) सम्यकू
और मिथ्या एकान्तका स्वरूप
निजस्वरूपसे अस्तिरूपता और पर-रूपसे नास्तिरूपता - आदि वस्तुका जो स्वरूप है उसकी अपेक्षा रखकर प्रमाणके द्वारा ज्ञात पदार्थ के एक देशको ( एक पहलुको ) विषय करनेवाला नय सम्यक् एकान्त है; और किसी वस्तुके एक धर्मका निश्चय करके उस वस्तुमें रहनेवाले अन्य धर्मोका निषेध करना सो मिथ्या एकान्त है ।
(८) सम्यक् और मिथ्या एकान्तके दृष्टान्त
१- 'सिद्ध भगवन्त एकान्त सुखी हैं' ऐसा जानना सो सम्यक् एकांत है, क्योंकि 'सिद्धजीवोको बिलकुल दुःख नही है' यह बात गर्भितरूपसे उसमे आजाती है । और सर्व जीव एकान्त सुखी हैं - ऐसा जानना सो मिथ्या एकान्त है, क्योकि उसमे, अज्ञानी जीव वर्तमानमें दुखी है, उसका निषेध होता है ।
२ - 'एकान्त वोघवीजरूप जीवका स्वभाव है' ऐसा जानना सो सम्यक् एकान्त है, क्योकि छद्मस्थ जीवकी वर्तमान ज्ञानावस्था पूर्ण विकासरूप नही है यह उसमें गर्भितरूपसे आजाता है ।
४- 'सम्यग्ज्ञान धर्म है' ऐसा जानना सो सम्यक् एकान्त है, क्योंकि 'सम्यग्ज्ञान पूर्वक वैराग्य होता है' -- यह गर्भित रूपसे उसमें श्राजाता है । सम्यग्ज्ञान रहित 'त्याग मात्र धर्म है' - ऐसा जानना सो मिथ्या एकान्त है, क्योकि वह सम्यग्ज्ञान रहित होनेसे मिथ्या त्याग है !
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mr
अध्याय १ सूत्र ६ (९)प्रमाणके प्रकार
परोक्ष-उपात्त और अनुपात्त: पर ( पदार्थों ) द्वारा प्रवर्ते वह परोक्ष ( प्रमाणज्ञान ) है ।
प्रत्यक्ष-जो केवल आत्मासे ही प्रतिनिश्चिततया प्रवृत्ति करे सो प्रत्यक्ष है।
प्रमाण सच्चा ज्ञान है। उसके पाँच भेद हैं-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल । इनमेसे मति और श्रुत मुख्यतया परोक्ष हैं, अवधि और मनःपर्यय विकल (-आंशिक-एकदेश ) प्रत्यक्ष है तथा केवलज्ञान सकलप्रत्यक्ष है।
(१०) नयके प्रकार
नय दो प्रकारके है-द्रव्याथिक और पर्यायाथिक । इनमेसे जो द्रव्यपर्यायस्वरूप वस्तुमे द्रव्यका मुख्यतया अनुभव करावे सो द्रव्याथिकनय है, और जो पर्यायका मुख्यतया अनुभव कराये सो पर्यायार्थिक नय है । द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय क्या है ?
गुणार्थिक नय क्यों नहीं ? शास्त्रोमें अनेक स्थलों पर द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय का उल्लेख मिलता है, किन्तु कही भी 'गुणार्थिक नय' का प्रयोग नहीं किया गया है। इसका क्या कारण है ? सो कहते है:
तर्क-१-द्रव्यार्थिक नयके कहनेसे उसका विषय गुण, और पर्यायार्थिक नयके कहनेसे उसका विषय-पर्याय, तथा दोनों एकत्रित होकर जो प्रमाणका विषय-द्रव्य है सो सामान्य विशेषात्मक द्रव्य है; इसप्रकार मानकर गुणार्थिक नयका प्रयोग नही किया है। यदि कोई ऐसा कहे तो यह ठीक नही है क्योकि अकेले गुण द्रव्याथिक नयका विषय नही है।
नोट:-*उपात्त प्राप्त; (इन्द्रिय, मन इत्यादि उपात्त पर पदार्थ हैं। अनुत्त=अप्राप्त, (प्रकाश, उपदेश इत्यादि अनुपात्त पर पदार्थ हैं)
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तर्क - २ - द्रव्यार्थिक नयका विषय द्रव्य और पर्यायार्थिक नयका विषय पर्याय है; तथा पर्याय गुणका अंश होनेसे पर्याय में गुण आगये, यह मानकर पार्थिक नया प्रयोग नही किया है; यदि इसप्रकार कोई कहे तो ऐसा भी नहीं है; क्योंकि पर्यायमें सम्पूर्ण गुरणका समावेश नही हो जाता ।
गुणार्थिक नयका प्रयोग न करनेका वास्तविक कारण
शास्त्रोंमें द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक-दो नयोंका ही प्रयोग किया गया है । उन दोनों नयोंका वास्तविक स्वरूप यह है
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पर्यायार्थिक नयका विषय जीवकी अपेक्षित-बंध - मोक्षको पर्याय है, और उस ( बंध - मोक्षकी अपेक्षा ) से रहित त्रैकालिक शक्तिरूप गुण तथा कालिक शक्तिरूप निरपेक्ष पर्याय सहित त्रैकालिक जीवद्रव्य सामान्य वही द्रव्यार्थिक नयका विषय है, - इस अर्थमे शास्त्रों में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नका प्रयोग किया गया है, इसलिये गुणार्थिक नयको आवश्यकता नहीं रहती । जीवके अतिरिक्त पाँच द्रव्योंके त्रैकालिक ध्रुव स्वरूपमें भी उसके गुणोंका समावेश हो जाता है, इसलिये पृथक् गुरणार्थिक नयकी श्रावश्यकता नही है ।
शास्त्रों में द्रव्यार्थिक नयका प्रयोग होता है, इसमें गंभीर रहस्य है । द्रव्यार्थिक नयका विषय त्रैकालिक द्रव्य है, और पर्यायार्थिक नयके विषय क्षणिक पर्याय है । द्रव्यार्थिक नयके विषयमे पृथक् गुरण नही है क्योकि गुरणको पृथक् करके लक्षमें लेने पर विकल्प उठता है, और गुण भेद तथा विकल्प पर्यायार्थिक नयका विषय है ।
( ११ ) द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नयके दूसरे नामद्रव्यार्थिक नयको निश्चय, शुद्ध, सत्यार्थ, परमार्थ, भूतार्थं, स्वावलम्वी स्वाश्रित, स्वतंत्र, स्वाभाविक, त्रैकालिक, ध्रुव, अभेद और स्वलक्षी नय कहा जाता है ।
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* नयका विशेष स्वरूप जानना हो तो प्रवचनसारके अन्तमें दिये गये ४७ नयोका अभ्यास करना चाहिये ।
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अध्याय १ सूत्र ६ पर्यायार्थिक नयको-व्यवहार, अशुद्ध, असत्यार्थ, अपरमार्थ, अभू-- तार्थ, परावलम्बी, पराश्रित, परतंत्र, निमित्ताधीन, क्षणिक, उत्पन्नध्वंसी, भेद और परलक्षी नय कहा जाता है ।
(१२) सम्यग्दृष्टिके दूसरे नाम
सम्यग्दृष्टिको द्रव्यदृष्टि, शुद्ध दृष्टि, धर्मदृष्टि, निश्चयदृष्टि, परमार्थदृष्टि और अन्तरात्मा आदि नाम दिये गये हैं।
(१३) मिथ्यादृष्टिके दूसरे नाम
मिथ्यादृष्टिको पर्यायबुद्धि, संयोगीबुद्धि, पर्यायमूढ, व्यवहारदृष्टि, व्यवहारमूढ, संसारदृष्टि, परावलंबी बुद्धि, पराश्रितदृष्टि और बहिरात्मा आदि नाम दिये गये हैं। (१४) ज्ञान दोनों नयोंका करना चाहिये, किन्तु उसमें परमा
र्थतः आदरणीय निश्चय नय है,-ऐसी श्रद्धा करना
चाहिये।
व्यवहारनय स्वद्रव्य, परद्रव्य अथवा उसके भावोको या कारणकार्यादिको किसीका किसीमें मिलाकर निरूपण करता है, इसलिये ऐसे ही श्रद्धानसे मिथ्यात्व होता है, अतः उसका त्याग करना चाहिये ।
निश्चयनय स्वद्रव्य-परद्रव्यको अथवा उसके भावोंको या कारणकार्यादिको यथावत् निरूपण करता है, तथा किसीको किसीमे नही मिलाता इसलिये ऐसे ही श्रद्धानसे सम्यक्त्व होता है, अतः उसका श्रद्धान करना चाहिये । इन दोनों नयोंको समकक्षी (-समान कोटिका ) मानना सो मिथ्यात्व है।
(१५) व्यवहार और निश्चयका फल__ वीतराग कथित व्यवहार, अशुभसे बचाकर जीवको शुभभावमे ले जाता है। उसका दृष्टान्त द्रव्यलिंगी मुनि है। वे भगवानके द्वारा कथित व्रतादिका निरतिचार पालन करते है, इसलिये शुभभावके कारण नववे गैवेयक जाते हैं, किन्तु उनका संसार बना रहता है । और भगवानके द्वारा
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मोक्षशास्त्र कथित निश्चय, शुभ और अशुभ दोनोंसे बचाकर जीवको शुद्धभावमें-मोक्ष में ले जाता है, उसका दृष्टान्त सम्यग्दृष्टि है, जो कि नियमतः मोक्ष प्राप्त करता है।
(१६) शास्त्रोंमें दोनों नयोंको ग्रहण करना कहा है, सो कैसे ?
जैन शास्त्रोंका अर्थ करनेकी पद्धति जैन शास्त्रों में वस्तुका स्वरूप समझानेके दो प्रकार है-निश्चयनय और व्यवहारनय ।
(१) निश्चयनय अर्थात् वस्तु सत्यार्थरूपमें जैसी हो उसीप्रकार कहना; इसलिये निश्चयनयकी मुख्यतासे जहाँ कथन हो वहाँ उसे तो 'सत्यार्थ ऐसा ही है। यों जानना चाहिये; और
(२) व्यवहारनय अर्थात् वस्तु सत्यार्थरूपसे वैसी न हो किन्तु परवस्तुके साथका सम्बन्ध बतलानेके लिये कथन हो; जैसे-'धी का घड़ा !' यद्यपि घड़ा घीका नही किन्तु मिट्टीका है, तथापि घी और घड़ा दोनों एक साथ हैं, यह बतानेके लिये उसे 'घीका घड़ा' कहा जाता है । इसप्रकार जहाँ व्यवहारसे कथन हो वहाँ यह समझना चाहिये कि वास्तवमें तो ऐसा नहीं है, किन्तु निमिचादि बतलानेके लिये उपचारसे वैसा कथन है।'
दोनों नयोंके कथनको सत्यार्थ जानना अर्थात् 'इसप्रकार भी है और इसप्रकार भी है' ऐसा मानना सो भ्रम है। इसलिये निश्चय कथनको सत्यार्थ जानना चाहिये, व्यवहार कथनको नही; प्रत्युत यह समझना चाहिये कि वह निमित्तादिको बतानेवाला कथन है, ऐसा समझना चाहिये ।
इसप्रकार दोनों नयोके कथनका अर्थ करना सो दोनों नयोका ग्रहण है। दोनोंको समकक्ष अथवा आदरणीय मानना सो भ्रम है । सत्यार्थको ही आदरणीय मानना चाहिये। [ नय-श्रुतज्ञानका एक पहलू; निमित्त विद्यमान अनुकूल परवस्तु ]
( मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृष्ठ ३७२-३७३ के आधार से ) (१७) निश्चयाभासीका स्वरूपजो जीव आत्माके त्रैकालिक स्वरूपको स्वीकार करे, किन्तु यह
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अध्याय १ सूत्र ६
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स्वीकार न करे कि अपनी भूल के कारण वर्तमान पर्याय में निजके विकार है वह निश्चयाभासी है उसे शुष्कज्ञानी भी कहते हैं ।
(१८) व्यवहाराभासीका स्वरूप
प्रथम व्यवहार चाहिये, व्यवहार करते २ निश्चय (धर्म) होता है ऐसा मानकर शुभराग करता है परन्तु अपना त्रैकालिक ध्रुव (ज्ञायकमात्र ) स्वभावको नही मानता और न अन्तर्मुख होता है ऐसे जीवको सच्चे देवशास्त्र-गुरु तथा सप्त तत्त्वोंकी व्यवहार श्रद्धा है तो भी अनादिकी निमित्त तथा व्यवहार ( भेद - पराश्रय ) की रुचि नही छोड़ता और सप्त तत्त्वकी निश्चय श्रद्धा नही करता इसलिये वह व्यवहाराभासी है, उसे क्रिया-जड़ भी कहते है और जो यह मानता है कि शारीरिक क्रियासे धर्म होता है वह व्यवहाराभाससे भी अति दूर है ।
(१९) नयके दो प्रकार
नय दो प्रकारके हैं-'रागसहित' और 'रागरहित' । आगमका प्रथम अभ्यास करने पर नयोका जो ज्ञान होता है वह 'रागसहित' नय है । वहाँ यदि जीव यह माने कि उस रागके होनेपर भी रागसे धर्म नहीं होता तो वह नयका ज्ञान सच्चा है । किन्तु यदि यह माने कि रागसे धर्म होता है, तो वह ज्ञान नयाभास है । दोनों नयोका यथार्थ ज्ञान करनेके बाद जीव अपने पर्याय परका लक्ष छोडकर अपने त्रैकालिक शुद्ध चैतन्यस्वभाव की ओर लक्ष करे, स्वसन्मुख हो, तब सम्यग्दर्शनादि शुभभाव प्रगट होते है इसलिये वह नय रागरहित नय है, उसे 'शुद्ध नयका प्राश्रय अथवा शुद्धनय का अवलंबन' भी कहा जाता है; उस दशाको 'नयातिक्रांत' भी कहते है । उसीको सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान कहा जाता है, और उसीको 'आत्मानुभव' भी कहते है |
(२०) प्रमाणसप्तभंगी - नय सप्तभंगी
सप्तभंगीके दो प्रकार हैं । सप्तभंगका स्वरूप चौथे अध्यायके उपसंहार मे दिया गया है, वहांसे समझ लेना चाहिये । दो प्रकारकी सप्तभगीमेसेजिस सप्तभंगीसे एक गुरण या पर्यायके द्वारा सम्पूर्ण द्रव्य जाना जाय वह
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मोक्षशास्त्र 'प्रमाण-सप्तभंगी' है, और जिस सप्तभंगीसे कथित गुण अथवा पर्यायके द्वारा उस गुण अथवा पर्यायका ज्ञान हो वह 'नय-सप्तभंगी है। इस सप्तभंगीका ज्ञान होने पर प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है, और एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नही कर सकता-ऐसा निश्चय होने से, अनादिकालीन विपरीत मान्यता टल जाती है।
(२१) वीतरागी-विज्ञानका निरूपण
जैन शास्त्रोंमें अनेकान्तरूप यथार्थ जीवादि तत्त्वोंका निरूपण है तथा सच्चा (-निश्चय ) रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग बताया है, इसलिये यदि जीव उसकी पहिचान कर ले तो वह मिथ्यादृष्टि न रहे। इसमें वीतरागभावकी पुष्टिका ही प्रयोजन है, रागभाव (पुण्य-पापभाव ) की पुष्टिका प्रयोजन नही है, इसलिये जो ऐसा मानते हैं कि रागसे-पुण्यसे धर्म होता है वे जैन शास्त्रोके मर्मको नहीं जानते।
(२२) मिथ्यादृष्टिके नय
जो मनुष्य शरीरको अपना मानता है और ऐसा मानता है कि मैं मनुष्य हूँ, जो शरीर है वह मैं हूँ अथवा शरीर मेरा है अर्थात् जीव शरीर का कोई कार्य कर सकता है ऐसा माननेवाला जीव, आत्मा और अनन्त रजकणोंको एकरूप माननेके कारण ( अर्थात् अनंतके मिलापको एक माननेके कारण ) मिथ्यावृष्टि है और उसका ज्ञान भी यथार्थमे कुनय है। ऐसी मान्यता पूर्वक प्रवर्तना कि मैं मनुष्य हूँ यह उसका (मिथ्यादृष्टिका ) व्यवहार है इसलिये यह व्यवहार-कुनय है, वास्तवमे तो उस व्यवहारको निश्चय मानता है । जैसे 'जो शरीर है सो मैं हूँ' इस दृष्टान्तमें शरीर पर है, वह जीवके साथ मात्र एक क्षेत्रावगाही है तथापि उसको अपना रूप माना इसलिये उसने व्यवहारको निश्चय समझा । वह ऐसा भी मानता है कि "जो मैं हूँ सो शरीर है" इसलिए उसने निश्चयको व्यवहार माना है। जो ऐसा मानता है कि पर द्रव्योका मैं कर सकता हूँ और पर अपनेको लाभ नुकसान कर सकता है वह मिथ्यादृष्टि है-एकांती है।
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अध्याय १ सूत्र ६
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(२३) सम्यग्दृष्टि के नय
समस्त सम्यक् विद्याके मूलरूप अपने भगवान आत्माके स्वभावको प्राप्त होना, आत्मस्वभावकी भावनामें जुटना और स्व द्रव्यमें एकताके बलसे आत्म स्वभावमें स्थिरता बढाना सो सम्यक् अनेकतदृष्टि है । सम्यक्दृष्टि जीव अपने एकरूप - ध्रुव स्वभावरूप आत्माका आश्रय करता है यह उसका निश्चय - सुनय है और अचलित चैतन्य विलासरूप जो श्रात्म व्यवहार ( शुद्धपर्याय ) प्रगट होता है सो उसका व्यवहार सुनय है ।
(२४) नीतिका स्वरूप
प्रत्येक वस्तु स्वद्रव्य, स्व क्षेत्र, स्वकाल और स्व-भावकी अपेक्षासे है और परवस्तुके द्रव्य क्षेत्र काल भावकी अपेक्षासे वह वस्तु नही है, इसलिये प्रत्येक वस्तु अपना ही कार्य कर सकती है ऐसा जानना सो यथार्थ नीति है । जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहा गया अनेकान्त स्वरूप तथा प्रमाण और निश्चय व्यवहाररूप नय हो यथार्थं नीति है । जो सत्पुरुष अनेकान्त के साथ सुसंगत ( समीचीन ) दृष्टिके द्वारा अनेकतमय वस्तुस्थितिको देखते हैं वे स्याद्वादकी शुद्धिको प्राप्त कर - जानकर जिननीतिको अर्थात् जिनेश्वरदेव के मार्गको - न्यायको उल्लंघन न करते हुये ज्ञानस्वरूप होते हैं ।
नोट - (१) अनेकांतको समझानेकी रीतिको स्याद्वाद कहा है । (२) सम्यक् मनेकान्तको प्रमाण कहा जाता है, यह संक्षिप्त कथन है। वास्तवमें जो सम्यक् भनेकांत का ज्ञान है सो प्रमाण है, उसीप्रकार सम्यक् एकान्तको नय कहते हैं वास्तवमे जो सम्यक् एकान्तका ज्ञान है सो नय है ।
(२५) निश्चय और व्यवहारका दूसरा
अर्थ
अपना द्रव्य और अपनी शुद्ध या अशुद्ध पर्याय बतानेके लिये भी निश्चय प्रयुक्त होता है; जैसे सर्व जीव द्रव्य अपेक्षासे सिद्ध परमात्मा समान है आत्माकी सिद्ध पर्यायको निश्चय पर्याय कहते हैं और आत्मामें होनेवाले विकारीभावको निश्चय बंध कहा जाता है |
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- मोक्षशास्त्र
स्व-द्रव्य या पर्यायको जब निश्चय कहा जाता है तब आत्माके साथ पर द्रव्यका जो संबंध होता है उसे प्रात्माका कहते है, यही व्यवहार हैउपचार कथन है। जैसे जड़कर्मको आत्माका कहना व्यवहार है; जड़ कर्म परद्रव्यकी अवस्था है, आत्माकी अवस्था नही है । तथापि उन जड़कर्मको आत्माका कहते है, यह कथन निमित्त नैमित्तिक संबंध बतानेके लिये है अतः व्यवहार नय है-उपचार कथन है ।
इस अध्यायके ३३ वे सूत्र में दिये गये सात नय, आत्मा तथा प्रत्येक द्रव्यमें लागू होते है इसलिये उन्हे आगम शास्त्रमें निश्चय नयके विभागके रूपमे माना जाता है। इन सात नयोमेंसे पहले तीन द्रव्याथिक नयके विभाग हैं और बादके चार पर्यायार्थिक नयके विभाग हैं, किंतु वे सात नय भेद है इसलिये, और उनके आश्रयसे राग होता है और वे राग दूर करने योग्य है इसलिये अध्यात्म शास्त्रोंमें उन सबको व्यवहार नयके उप विभागके रूपमें माना जाता है ।।
आत्माका स्वरूप समझनेके लिये नय विभाग
शुद्ध द्रव्याथिक नयकी दृष्टिसे आत्मा त्रिकाल शुद्ध चैतन्य स्वरूप हैयहाँ (त्रिकाल शुद्ध कहनेमे) वर्तमान विकारी पर्याय गौण की गई है । यह विकारी पर्याय क्षणिक अवस्था होनेसे पर्यायाथिक नयका विषय है और जब वह विकारी दशा आत्मामें होती है ऐसा बतलाना हो तो तब वह विकारी पर्याय अशुद्ध द्रव्याथिक नयका विषय होता है और जब ऐसा बतलाना हो कि यह पर्याय पर द्रव्यके सयोग से होती है तब वह विकारी पर्याय व्यवहार नयका विषय होती है।
यहाँ यह समझना चाहिये कि जहाँ आत्माकी अपूर्ण पर्याय भी व्यवहारका विषय है वहाँ व्यवहारका अर्थ भेद होता है।।
निश्चयनय और द्रव्यार्थिकनय तथा व्यवहारनय और पर्यायार्थिक नय भिन्न भिन्न अर्थमें भी प्रयुक्त होते हैं
ऐसा ज्ञान करना कि रत्नत्रय जीवसे अभिन्न है सो द्रव्याथिकनयका
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अध्याय १ सूत्र ७
४१
स्वरूप है इसीप्रकार रत्नत्रय जीवसे भिन्न है ऐसा ज्ञान करना सो पर्यायार्थिक नयका स्वरूप है । रत्नत्रयमें अभेद पूर्वक प्रवृत्ति होना सो निश्चय नयसे मोक्षमार्ग है तथा भेद पूर्वक प्रवृत्ति होना सो व्यवहार नयसे मोक्षमार्ग है ।
निश्चय रत्नत्रयके समर्थन करनेका यह मतलब है कि जो भेद प्रवृत्ति है सो व्यवहार रत्नत्रय है और जो अभेद प्रवृत्ति है सो निश्चय रत्नत्रय है । (२६) बडे सूत्रका सिद्धान्त-
हे जीव ! पहले यह निश्चय कर कि तुझे धर्म करना है या नहीं । यदि धर्म करना हो तो 'परके श्राश्रयसे मेरा धर्म नही है । ऐसी श्रद्धा द्वारा पराश्रित अभिप्रायको दूर कर । परसे जो जो अपनेमें होना माना है उस मान्यताको यथार्थ प्रतीतिके द्वारा जला दे !
यहाँ ऐसा समझना चाहिए कि जिसप्रकार सात ( पुण्य पाप सहित नव ) तत्त्वोंको जानकर उनमेसे जीवका ही आश्रय करना भूतार्थ है उसी प्रकार अधिगमके उपाय जो प्रमाण, नय, निक्षेपोंको जानकर उनमेसे शुद्धनयके विषयरूप जीवका ही आश्रय करना भूतार्थ है और यही सम्यग्दर्शन है ॥ ६ ॥
1
निश्चय सम्यग्दर्शनादि जाननेके अमुख्य (अप्रधान) उपाय - निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः ॥७॥
अर्थ - [ निर्देश स्वामित्व साधन अधिकरण स्थिति विधानतः ] निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधानसे भी सम्यग्दर्शनादि तथा जीवादिक तत्त्वोंका अधिगम होता है ।
टीका
१ - निर्देश - वस्तु स्वरूपके कथनको निर्देश कहते हैं । २ - स्वामित्व - वस्तुके अधिकारीपनको स्वामित्व कहते है । ३ - साधन - वस्तु की उत्पत्ति के काररणको साधन कहते है | ६
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मोक्षशास्त्र
४- अधिकरण- वस्तुके आधारको अधिकररण कहते हैं । ५-स्थिति-वस्तुके कालकी मर्यादाको स्थिति कहते हैं । ६ - विधान - वस्तुके भेदोंको विधान कहते हैं । उपरोक्त ६ प्रकारसे सम्यग्दर्शनका वर्णन निम्नप्रकार किया जाता है१ - निर्देश - जीवादि सात तत्त्वों की यथार्थ श्रद्धापूर्वक निज शुद्धात्माका प्रतिभास - विश्वास - प्रतीतिको निर्देश कहते हैं ।
२- स्वामित्व - चारो गतिके संज्ञी पंचेन्द्रिय भव्य जीव स्वामी होते हैं।
४२
३ - साधन-साधनके दो भेद है अंतरंग और बाह्य । अन्तरंग साधन ( अन्तरङ्ग कारण ) तो स्व शुद्धात्माके त्रिकाली ज्ञायकभाव ( पारिणामिक भाव ) का आश्रय है और बाह्य कारण भिन्न २ प्रकारके होते है । तियंच और मनुष्य गति ( १ ) जातिस्मरण (२) धर्म श्रवण (३) जिनबिम्ब दर्शन ये निमित्त होते है; देवगतिमें बारहवे स्वर्ग से पहले (१) जातिस्मरण (२) धर्मं श्रवण (३) जिन कल्याणक दर्शन और (४) देवऋद्धिदर्शन कारण होता है । और बारहवें स्वर्गसे १६ वे स्वर्ग पर्यंत ( १ ) जातिस्मरण (२) धर्मं श्रवण और (३) जिन कल्याणक दर्शन कारण है । नवग्रैवेयक में (१) जाति स्मरण और (२) धर्म श्रवण होता है । नरकगतिमें तीसरे नरक तक जाति स्मरण, धर्म श्रवरण और दुःखानुभव निमित्त होता है एवं चौथे से सातवे नरक तक जातिस्मरण और दुःखानुभव निमित्त होता है ।
नोट: -- उपरोक्त धर्म श्रवरण सम्यग्ज्ञानियोसे प्राप्त होना चाहिये ।
शंका- सभी नारकी जीव विभंगज्ञानके द्वारा एक, दो या तीन आदि भव जानते हैं, उससे सभी को जातिस्मरण होता है इसलिए क्या सभी नारकी जीव सम्यग्दृष्टि हो जायेगे ?
समाधान - सामान्यतया भवस्मरण द्वारा सम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं होती किन्तु पूर्वभवमें धर्म बुद्धिसे किये हुए अनुष्ठान विपरीत ( विफल ) थे ऐसी प्रतीति प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका कारण होती है इसी बातको ध्यान में रखकर भवस्मरणको सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका कारण कहा है। नारकी जीवों
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अध्याय १ सूत्र ७ के पूर्व भवका स्मरण होने पर भी बहुतोके उपरोक्त उपयोगका अभाव होता है। ऊपर कहे गये प्रकारका जातिस्मरण प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति का कारण होता है।
शंका-नरकमे ऋषियों (साधुओं) का गमन नही होता फिर वहाँ नारकी जीवोंके धर्म श्रवण किस तरह संभव हो सकता है ?
समाधान-अपने पूर्व भवके सम्बन्धियोंके धर्म उत्पन्न कराने में प्रवृत्त और सभी बाधाओसे रहित सम्यग्दृष्टि देवोंका वहाँ ( तीसरे नरक पर्यन्त ) गमन होता है।
शंका-यदि वेदनाका अनुभव सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका कारण है तो सभी नारकियोंको सम्यक्त्व हो जाना चाहिये क्योंकि सभी नारकियोंके वेदना का अनुभव है।
समाधान-वेदना सामान्य सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका कारण नही है किन्तु जिन जीवोके ऐसा उपयोग होता है कि मिथ्यात्वके कारण इस वेदना की उत्पत्ति हुई है, उन जीवोके वेदना-सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका कारण होता है, दूसरे जीवोके वेदना-सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका कारण नहीं होता।
[श्री धवला पुस्तक ६, पृष्ठ ४२२-४२३ ] शंका-जिन विब दर्शन प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका कारण कैसे होता है ?
___ समाधान-जिनविम्व दर्शनसे ( जो जीव अपने सस्कारको शुद्ध आत्मोन्मुख करे उनके ) निधत्त और निकाचितरूप मिथ्यात्त्वादि कर्म समूहका भी क्षय देखा जाता है और इसी कारण जिन विम्बदर्शन प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका कारण होता है।
( श्री धवला, पुस्तक ६ पृष्ठ ४२७-४२८ ) प्रश्न-शास्त्रमे जिनविम्ब दर्शनसे ( जिन प्रतिमाके दर्शनसे) सम्यग्दर्शन होना बताया है। अतः दर्शन करने वाले सभीको यह फल होना चाहिये किन्तु सभीको वह फल क्यो नही होता ?
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मोक्षशास्त्र
उत्तर --- जिसने सर्वज्ञकी सत्ताका निर्णय किया है उसके जिन प्रतिमाके ' दर्शनसे सम्यग्दर्शन रूप फल होता है दूसरेको नही । उन सभीको नियमसे श्रपने आत्मकल्याणरूप कार्यकी सिद्धि नही होती, जो जीव अपने सत्य पुरुपार्थसे निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट करता है उसीको जिनविम्बदर्शन निमित्त कहा जाता है । जिन्होंने सर्वज्ञका तो निश्चय किया नही किन्तु मात्र कुल पद्धति, संप्रदायके श्राश्रयसे या मिथ्या धर्म - बुद्धिसे दर्शन पूजनादि रूप प्रवृत्ति करते हैं । और कितनेक जो मतपक्षके हठग्राहीपनेसे अन्यदेवको नहीं मानते, मात्र जिनदेवादिके सेवक बने हुये हैं उनके भी नियमसे अपने आत्मकल्याणरूप कार्यकी सिद्धि नही होती ।
४४
प्रश्न- यदि सर्वज्ञकी सत्ताका निश्चय हमसे नही हुवा तो क्या हुआ ? ये देव तो सच्चे देव हैं, उनकी पूजनादि करना व्यर्थ थोड़े ही होती है ?
उत्तर - यदि किंचित् मंद कषाय रूप परिणति होगी तो पुण्य बंघ होगा परन्तु जिनमतमे तो देव दर्शनसे सम्यग्दर्शनरूप फल होना बतलाया है सो तो नियमसे सर्वज्ञको सत्ताके जाननेसे ही होगा दूसरी तरहसे नहीं । इसलिए जिन्हें सच्चा जैनी होना है उन्हे तो सत्देव, सद्गुरु और सतुशास्त्र के ग्राश्रय से सर्वज्ञको सत्ताका तत्त्व निर्णय करना योग्य है; किन्तु जो तत्त्व निर्णय तो नही करते श्रीर पूजा, स्तोत्र, दर्शन, त्याग, तप, वैराग्य, संयम संतोष आदि सभी कार्य करते हैं उनके ये सभी कार्य झूठे हैं । इसलिये सत् ग्रागमका सेवन, युक्तिका अवलंबन, परम्परा सद्गुरुओका उपदेश और स्वानुभवके द्वारा तत्त्व निर्णय करना योग्य है ।
प्रश्न - यह कहा है कि मिथ्यादृष्टि देव चार कारणो से प्रथम श्रमिक सम्यक्त्वको प्राप्त होते हैं उनमें एक 'जिनमहिमा' कारण वतलाया है किन्तु जिनविम्वदगंन नही बतलाया, इसका क्या कारण है ?
उत्तर- - जिनबिम्ब दर्शनका जिनमहिमा दर्शनमे समावेश होजाता जिनविवके बिना जिनमहिमाकी सिद्धि नही होती ।
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४५
अध्याय १ सूत्र ७ प्रश्न-स्वर्गावतरण, जन्माभिषेक और दीक्षा कल्याणकरूप जिनमहिमा जिनविवके विना की जाती है इसलिये क्या जिन महिमादर्शनमें जिनविब दर्शनका अविनाभावित्व नही आया ?
उत्तर-स्वर्गावतरण, जन्माभिषेक और दीक्षाकल्याणरूप जिन महिमामें भी भावी जिनविद्यका दर्शन होता है । दूसरी बात यह है कि इस महिमामे उत्पन्न होने वाले प्रथम सम्यक्त्व जिनविन दर्शन नैमित्तिक नहीं है, किन्तु जिनगुण श्रवण नैमित्तिक है । अर्थात् प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न होने में जिनगुण श्रवण निमित्त है।
प्रश्न-जातिस्मरणका देवऋद्धि दर्शनमे समावेश क्यों नही होता ?
उचर-अपनी अणिमादिक ऋद्धियोंको देखकर जव यह विचार उत्पन्न होता है कि जिन भगवानके द्वारा प्ररूपित धर्मानुष्ठानसे ये ऋद्धियाँ उत्पन्न हुई हैं तब प्रथम सम्यक्त्वकी प्राप्तिके लिये जातिस्मरण निमित्त होता है; किंतु जिस समय सौधर्मादिक देवोंकी महा ऋद्धियोंको देखकर यह ज्ञान उत्पन्न होता है कि सम्यग्दर्शन सहित संयमके फलसे-शुभभावसे वह उत्पन्न हुई है और मैं सम्यक्त्व रहित द्रव्य संयमके फलसे वाहनादिक नीच देवों मे उत्पन्न हुआ हूँ, उस समय प्रथम सम्यक्त्वका ग्रहण देवद्धिदर्शन-निमित्तक होता है । इसतरह जातिस्मरण और देवद्धिदर्शन इन दोनों कारणों में अंतर है।
नोट:-नारकियोमें जातिस्मरण और वेदनारूप कारणोमे भी यही नियम लगा लेना चाहिये।
प्रश्न-मानत, प्राणत, आरण और अच्युत इन चार स्वर्गाके मिथ्यादृष्टिदेवोके प्रथमोपशम सम्यक्त्वमें देवद्धिदर्शन कारण क्यों नही बतलाया ?
उत्तर:-इन चार स्वर्गोमें महा ऋद्धिवाले ऊपरके देवोका आगमन नहीं होता इसीलिये वहाँ प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका कारण महाऋद्धिदर्शन कारण नही बतलाया, इन्ही स्वर्गोमे स्थित देवोकी महाऋद्धिका दर्शन प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका कारण नही होता, क्योकि बारबार इन ऋद्धियोके देखनेसे विस्मय नही होता । पुनश्च इन स्वर्गोमे शुक्ललेश्याके सद्भावके कारण महाऋद्धिके दर्शनसे कोई सक्लेशभाव उत्पन्न नहीं होता।
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मोक्षशास्त्र
नवग्रैवेयकोंमें ऊपरके देवोंका आगमन नहीं होता इसीलिये वहाँ महाऋद्धिदर्शन कारण नही है । तथा ये विमानवासी देव प्रष्टाह्निक पर्व महोत्सव देखने के लिये नंदीश्वरादि द्वीपोंमें नहीं जाते इसलिये वहाँ जिनमहिमा दर्शन भी कारण नही है । वे अवधिज्ञानके बलसे जिनमहिमाको देखते हैं तो भी इन देवोके रागकी न्यूनता अर्थात् मंद राग होनेसे जिनमहिमा दर्शनसे उनको विस्मय उत्पन्न नही होता ।
( श्री धवला पुस्तक ६ पृष्ठ ४३२ से ४३६ ) (४) अधिकरण - सम्यग्दर्शनका अंतरंग आधार आत्मा है और बाह्य आधार त्रसनाली है ( लोकाकाशके मध्यमें चौदह राजू लम्बे और एक राजू चौड़े स्थानको त्रसनाली कहते हैं । )
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(५) स्थिति - तीनों प्रकारके सम्यग्दर्शनको जघन्य से जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त की है, भोपशमिक सम्यग्दर्शनकी उत्कृष्ट स्थिति भी अंतर्मुहूर्त की है क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनकी उत्कृष्ट स्थिति ६६ सागरकी और क्षायिक सम्यग्दर्शनकी सादि अनन्त है, तथा संसारमें रहनेको अपेक्षासे उसको उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर तथा अंतर्मुहूर्त सहित आठ वर्ष कम दो कोडी पूर्व है ।
(६) विधान - सम्यग्दर्शन एक तरह अथवा स्वपर्यायकी योग्यतानुसार तीन प्रकार है- औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक । तथा श्राज्ञा, मार्ग, बीज, उपदेश, सूत्र, संक्षेप, विस्तार, अर्थ अवगाढ़ और परमावगाढ़ इस तरह १० भेदरूप है ॥ ७ ॥
और भी अन्य अमुख्य उपाय
सत्संख्या क्षेत्रस्पर्शन कालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च ॥ ८॥
अर्थ--[च] और [ सत् संख्या क्षेत्र स्पर्शन काल अन्तर भावाल्प बहुत्वः ] सत्, सख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन आठ श्रनुयोगोके द्वारा भी पदार्थका ज्ञान होता है ।
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अध्याय १ सूत्र
४७
टीका
सत् और संख्या-यह द्रव्य गुण पर्यायके सत्त्वकी अपेक्षासे उपभेद है सत् सामान्य और संख्या विशेष है।
क्षेत्र और स्पर्शन-यह क्षेत्रका उपभेद है । क्षेत्र सामान्य और स्पर्शन विशेष है।
काल और अन्तर-यह कालका उपभेद है, काल सामान्य और अंतर विशेष है।
भाव और अल्पवहुत्व-यह भावका उपभेद है, भाव सामान्य है और अल्पबहुत्व विशेष है।
सत्-वस्तुके अस्तित्वको सत् कहते हैं। संख्या- तुके परिमाणोंकी गणनाको संख्या कहते है । क्षेत्र-वस्तुके वर्तमानकालीन निवासको क्षेत्र कहते हैं। स्पर्शन-वस्तुके त्रिकालवर्ती निवासको स्पर्शन कहते है। काल-वस्तुके स्थिर रहनेकी मर्यादाको काल कहते है। अंतर-वस्तुके विरहकालको अतर कहते है ।
भाव-गुणको अथवा औपशमिक, क्षायिक आदि पाँच भावोंको भाव कहते है ।
अल्पवहुत्व-अन्य पदार्थकी अपेक्षासे वस्तुकी हीनता-अधिकताके वर्णनको अल्पबहुत्व कहते है ।
अनुयोग-भगवान प्रणीत उपदेश विषयके अनुसार भिन्न २ अधिकारमे कहा गया है, उस प्रत्येक अधिकारका नाम अनुयोग है । सम्यक्ज्ञान का उपदेश देनेके लिये प्रवृत्त हुए अधिकारको अनुयोग कहते है।
सत् और निर्देशमें अन्तर यदि 'सत्' शब्द सामान्यत:सम्यग्दर्शनादिके अस्तित्वकोवतलानेवाला हो तो निर्देशमे उसका समावेश हो जायगा, किन्तु गति, इन्द्रिय, काय,
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४८
मोक्षशास्त्र योग आदि चौदह मार्गणाओंमें किसजगह किस तरहका सम्यग्दर्शन होता है और किस तरहका नही ऐसा विशेष ज्ञान सत्से होता है, निर्देशसे ऐसा ज्ञान नही होता, यही सत् और निर्देशमें अन्तर है।
इस सूत्रमें सत् शब्दका प्रयोग किसलिये किया है ?
अनधिकृत पदार्थोका भी ज्ञान करा सकनेकी सत् शब्दकी सामर्थ्य है । यदि इस सूत्रमें सत् शब्दका प्रयोग न किया होता तो आगामी सूत्रमें सम्यग्दर्शन आदि तथा जीवादि सात तत्त्वोंके ही अस्तित्वका ज्ञान निर्देश शब्दके द्वारा होता और जीवके क्रोध मान आदि पर्याय तथा पुद्गलके वर्ण गंध आदि तथा घट पट आदि पर्याय (जिनका यह अधिकार नही है ) के अस्तित्वके अभावका ज्ञान होता इसलिये इस समय अनधिकृत पदार्थ जीव मे क्रोधादि तथा पुद्गलमें वर्णादिका ज्ञान करानेके लिये इस सूत्रमें सत् शब्दका प्रयोग किया है।
__ संख्या और विधानमें अंतर प्रकारकी गणनाको विधान कहते हैं और उस भेदकी गणनाको संख्या कहते हैं । जैसे सम्यग्दृष्टि तीन तरहके हैं (१) औपशमिक सम्यग्दृष्टि (२) क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि। 'संख्या' शब्दसे भेद गणनाका ज्ञान होता है कि उक्त तीन प्रकारके सम्यग्दृष्टियोमें औपशमिक सम्यग्दृष्टि कितने हैं क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि कितने है अथवा क्षायिक सम्यग्दृष्टि कितने हैं; भेदोंके गणनाकी विशेषताको बतलानेका जो कारण है उसे सख्या कहते हैं।
'विधान' शब्दमे मूलपदार्थके ही भेद ग्रहण किये हैं, इसीलिये भेदोंके अनेक तरहके मेदोको ग्रहण करनेके लिये संख्या शब्द का प्रयोग किया है।
'विधान' शब्दके कहनेसे भेद प्रभेद जाते हैं ऐसा माना जाय तो विगेप स्पष्टताके लिये संख्या शब्दका प्रयोग किया गया है ऐसा समझना चाहिये।
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श्रध्यायः १ सूत्र ८
क्षेत्र और अधिकरणमें अंतर
अधिकरण शब्द थोड़े स्थानको बतलाता है इसीसे वह व्याप्य है- और क्षेत्र शब्द व्यापक है, वह अधिक स्थानको बतलाता है । 'अधिकरण' शब्दके कहनेसे सम्पूर्ण पदार्थोका ज्ञान नही होता, क्षेत्रके कहनेसे सम्पूर्ण पदार्थोका ज्ञान होता है, इसलिये समस्त पदार्थोंके ज्ञान करानेके लिये इस सूत्रमे क्षेत्र शब्दका प्रयोग किया है ।
क्षेत्र और स्पर्शनमें अंतर
*&
'क्षेत्र' शब्द अधिकरणसे विशेषता बतलाता है तो भी उसका विषय एक देशका है और 'स्पर्शन' शब्द सर्वदेशका विषय करता है । जैसे किसीने पूछा कि 'राजा कहाँ रहता है' उत्तर दिया कि 'फलाने नगरमे रहता है' यहाँ यद्यपि राजा संपूर्ण नगरमे नही रहता किन्तु नगरके- एकदेशमे रहता, है इसलिये नगरके एक देशमे राजाका निवास होनेसे 'नगर' क्षेत्र है । किसीने पूछा कि 'तेल कहाँ है ?' उत्तर दिया कि, 'तिलमे तेल रहता है' यहाँ संपूर्ण स्थानमें तेल रहनेके कारण तिल तेलका स्पर्शन है, इसतरह क्षेत्र और स्पर्शनमे अंतर है |
क्षेत्र वर्तमान कालका विषय है और स्पर्शन त्रिकालगोचर विषय है । वर्तमानको दृष्टिसे घड़ेमें जल है किन्तु वह त्रिकाल नहीं है । तीनों कालमें जिस जगह पदार्थ की सत्ता रहती है उसे स्पर्शन कहते है । यह दूसरी तरह से क्षेत्र और स्पर्शनके बीच अन्तर है ।
काल और स्थितिमें अंतर
'स्थिति' शब्द कुछ पदार्थोके कालकी मर्यादा बतलाता है, यह शब्द व्याप्य है । 'काल' शब्द व्यापक है और यह समस्त पदार्थोकी मर्यादाको बतलाता है । 'स्थिति' शब्द कुछ ही पदार्थोका ज्ञान कराता है और 'काल' शब्द समस्त पदार्थोका ज्ञान कराता है । कालके दो भेद है ( १ ) निश्चयकाल (२) व्यवहारकाल । मुख्य कालको निश्चयकाल कहते हैं और पर्याय विशिष्ट पदार्थोकी मर्यादा बतलानेवाला अर्थात् घण्टा घड़ी पल आदि व्यव
७
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५०
मोक्षशास्त्र
हारकाल है । कालकी मर्यादाको स्थिति कहते हैं अर्थात् 'स्थिति' शब्द इस बातको बतलाता है कि अमुक पदार्थ, अमुक स्थानपर इतने समय रहता है, इतना काल और स्थितिमें अंतर है ।
'भाव' शब्दका निक्षेपके सूत्रमें उल्लेख होने पर भी यहाँ किसलिये कहा है ?
निक्षेपके सूत्र ५ वे मे भावका अर्थ यह है कि वर्तमानमें जो अवस्था मोजूद हो उसे भाव निपेक्ष समझना और भविष्यमें होनेवाली अवस्थाको वर्तमानमें कहना सो द्रव्य निक्षेप है । यहाँ ५ वें सूत्रमें 'भाव' शब्दसे औपशमिक क्षायिक आदि भावोंका ग्रहण किया है जैसे श्रोपशमिक भी सम्यग्दर्शन है और क्षायिक आदि भी सम्यग्दर्शन कहे जाते हैं । इसप्रकार दोनों जगह ( ५ वें और ८ वे सूत्रमें ) भाव शब्दका पृथक् प्रयोजन है । विस्तृत वर्णनका प्रयोजन
कितने ही शिष्य अल्प कथनसे विशेष तात्पर्य को समझ लेते हैं और कितने ही शिष्य ऐसे होते हैं कि विस्तारपूर्वक कथन करने पर समझ सकते है | परम कल्याणमय आचार्यका सभी को तत्त्वों का स्वरूप समझानेका उद्देश्य है । प्रमारण नयसे ही समस्त पदार्थोंका ज्ञान हो सकता है तथापि विस्तृत् कथनसे समझ सकने वाले जीवोंको निर्देश आदि तथा सत् संख्यादिकका ज्ञान करानेके लिये पृथक् २ सूत्र कहे हैं । ऐसी शंका ठीक नही है कि एक सूत्रमें दूसरेका समावेश हो जाता है इसलिये विस्तारपूर्वक कथन व्यर्थ है ।
ज्ञान संबंधी विशेष स्पष्टीकरण
प्रश्न:
: - इस सूत्रमें ज्ञानके सत्-संख्यादि आठ भेद ही क्यों कहे गये हैं, कम या अधिक क्यों नही कहे गये ?
-
उत्तरः- - निम्नलिखित आठ प्रकारका निषेध करनेके लिये वे आठ भेद कहे गये हैं:
१ - नास्तिक कहता है कि 'कोई वस्तु है ही नही' । इसलिये 'सत्' को सिद्ध करनेसे उस नास्तिककी तर्क खंडित करदी गई है ।
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अध्याय १ सूत्र ८
५१
२ - कोई कहता है कि 'वस्तु' एक ही है, उसमें किसी प्रकारके भेद नहीं हैं । 'संख्या' को सिद्ध करनेसे यह तर्क खंडित करदी गई है। ३- कोई कहता है कि - 'वस्तुके प्रदेश ( आकार ) नही है' । 'क्षेत्र' के सिद्ध करनेसे यह तर्क खंडित करदी गई है ।
४- कोई कहता है कि ' वस्तु क्रिया रहित है' । स्पर्शन, के सिद्ध करनेसे यह तर्क खंडित करदी गई है । [ नोट: - एक स्थानसे दूसरे स्थानपर जाना सो क्रिया है ]
५- 'वस्तुका प्रलय (सर्वथा नाश) होता है' ऐसा कोई मानता है । 'काल' के सिद्ध करनेसे यह तर्क खंडित करदी गई है । ६ - कोई यह मानता है कि 'वस्तु क्षणिक है' । 'अंतर' के सिद्ध करने से यह तर्क खंडित करदी गई है ।
७- कोई यह मानता है कि 'वस्तु कूटस्थ है' । 'भाव' के सिद्ध करने से यह तर्क खंडित करदी गई है । [ जिसकी स्थिति न बदले उसे कूटस्थ कहते है । ]
८- कोई यह मानता है कि 'वस्तु सर्वथा एक ही है अथवा वस्तु सर्वथा अनेक ही है' । 'अल्पबहुत्व' - के सिद्ध करनेसे यह तर्क खंडित करदी गई है । [ देखो प्रश्नोत्तर सर्वार्थसिद्धि पृ० २७७-२७८ ]
सूत्र ४ से ८ तकका तात्पर्यरूप सिद्धान्त
जिज्ञासु जीवोंको जीवादि द्रव्य तथा तत्त्वोंका जानना, छोड़ने योग्य मिथ्यात्व - रागादि तथा ग्रहण करने योग्य सम्यग्दर्शनादिकके स्वरूपकी पहिचान करना, प्रमारण और नयोंके द्वारा तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति करना तथा निर्देश स्वामित्वादि और सत् संख्यादिके द्वारा उनका विशेष जानना चाहिये ।
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मोक्षशास्त्र
अब सम्यग्ज्ञान के भेद कहते हैं:मतिश्रुतावधिमनः पर्ययकेवलानि ज्ञानम् ॥ ६ ॥
श्रर्थ - मतिज्ञान श्रुतज्ञान अवधिज्ञान मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये पाँच [ ज्ञानम् ] ज्ञान है ।
५२
टीका
(१) मतिज्ञान - पाँच इन्द्रियों और मनके द्वारा ( अपनी शक्तिके अनुसार ) जो ज्ञान होता है उसे मतिज्ञान कहते है ।
श्रुतज्ञान- - मतिज्ञानके द्वारा जाने हुये पदार्थको विशेषरूपसे जानना सो श्रुतज्ञान है ।
अवधिज्ञान - जो द्रव्य क्षेत्र काल और भावकी मर्यादा सहित इंद्रिय या मनके निमित्तके बिना रूपी पदार्थोको प्रत्यक्ष जानता है उसे अवधिज्ञान कहते है |
मन:पर्ययज्ञान - जो द्रव्य क्षेत्र काल और भावकी मर्यादा सहित इन्द्रिय अथवा मनकी सहायताके विना ही दूसरे पुरुषके मनमें स्थित रूपी पदार्थोको प्रत्यक्ष जानता है उसे मन:पर्ययज्ञान कहते हैं ।
केवलज्ञान - समस्त द्रव्य और उनकी सर्व पर्यायोंको एक साथ प्रत्यक्ष जाननेवाले ज्ञानको केवलज्ञान कहते हैं ।
(२) इस सूत्र में 'ज्ञानम्' शब्द एक वचनका है वह यह बतलाता है कि ज्ञानगुण एक है और उसकी पर्यायके ये ५ भेद है । इनमें जव एक प्रकार उपयोगरूप होता है तव दूसरा प्रकार उपयोगरूप नही होता, इसीलिये इन पाँचमेसे एक समयमे एक ही ज्ञानका प्रकार उपयोगरूप होता है ।
सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शनपूर्वक होता है; सम्यग्दर्शन कारण और सम्यज्ञाना है । सम्यग्ज्ञान आत्माके ज्ञानगुरणको शुद्ध पर्याय है, यह आत्मा मे कोई भिन्न वस्तु नही है । सम्यग्ज्ञानका स्वरूप निम्न प्रकार है:
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अध्याय १ सूत्र १०
५३ -- "सम्यग्ज्ञानं पुनः स्वार्थ व्यवसायात्मकं विदु"
(तत्वार्थसार पूर्वार्ध गाथा १८ पृष्ठ १४) अर्थ-जिस ज्ञानमे स्व अपना स्वरूप, अर्थ-विषय, व्यवसाय% यथार्थ निश्चय, ये तीन बाते पूरी हों उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं अर्थात् जिस ज्ञानमें विषय प्रतिबोधके साथ साथ स्वस्वरूप प्रतिभासित हो और वह भी यथार्थ हो तो उस ज्ञानको सम्यग्ज्ञान कहते हैं।
नवमें सूत्रका सिद्धान्त श्री जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्ररूपित ज्ञानके समस्त भेदोंको जानकर परभावोंको छोड़कर और निजस्वरूपमें स्थिर होकर जीव जो चैतन्य चमत्कार मात्र है उसमे प्रवेश करता है वह तत्क्षण ही मोक्षको प्राप्त करता है। (श्री नियमसार गाथा १० की टीकाका श्लोक ) ॥९॥
कौनसे ज्ञान प्रमाण हैं ?
तत्प्रमाणे ॥१०॥ अर्थ-[तत्] उपरोक्त पांचों प्रकारके ज्ञान ही [प्रमाणे] प्रमाण ( सच्चे ज्ञान ) है।
टीका नवमे सूत्र में कहे हुये पांचों ज्ञान ही प्रमाण है, अन्य कोई ज्ञान प्रमाण नही है । प्रमाणके दो भेद हैं प्रत्यक्ष और परोक्ष। यह ध्यान रहे कि इन्द्रियाँ अथवा इन्द्रियों और पदार्थोके सम्बन्ध ( सन्निकर्ष ) ये कोई प्रमाण नही है अर्थात् न तो इन्द्रियोंसे ज्ञान होता है और न इन्द्रियों और पदार्थोके सम्बन्धसे ज्ञान होता है किन्तु उपरोक्त मति आदि ज्ञान स्व से होते हैं इसलिये ज्ञान प्रमाण हैं।
प्रश्न-इन्द्रियाँ प्रमाण है क्योकि उनके द्वारा ज्ञान होता है ?
उत्तर-इन्द्रियाँ प्रमाण नही हैं क्योकि इन्द्रियाँ जड़ हैं और ज्ञान तो चेतनका पर्याय है, वह जड़ नही है इसलिये आत्माके द्वारा ही ज्ञान होता
-श्री जयधवला पुस्तक भाग १ पृष्ठ ५४-५५
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मोक्षशास्त्र
प्रश्न- - क्या यह ठीक है न कि प्रस्तुत ज्ञेय पदार्थ हो तो उससे ज्ञान होता है ?
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उत्तर - यह ठीक नहीं है, यदि प्रस्तुत पदार्थ (ज्ञेय) और आत्मा इन दोनोंके मिलनेसे ज्ञान होता तो ज्ञाता और ज्ञेय इन दोनोंको ज्ञान होना चाहिये किन्तु ऐसा नही होता ।
( सर्वार्थसिद्धि पृष्ठ ३३२ )
यदि उपादान और निमित्त ये दो होकर एक कार्य करें तो उपादान और निमित्तकी स्वतंत्र सत्ता न रहे; उपादान निमित्तका कुछ नहीं करते और न निमित्त उपादानका कुछ करता है । प्रत्येक पदार्थं स्वतंत्र रूपसे अपने अपने काररणसे अपने लिए उपस्थित होते है, ऐसा नियम होनेसे अपनी योग्यतानुसार निमित्त - उपादान दोनोंके कार्यं स्वतन्त्र, पृथक् पृथक् होते हैं । यदि उपादान और निमित्त ये दोनों मिलकर काम करें तो दोनों उपादान हो जांय अर्थात् दोनोंकी एक सत्ता हो जाय किन्तु ऐसा नही होता ।
इस सम्बन्धमें ऐसा नियम है कि अपूर्ण ज्ञानका विकास जिस समय अपना व्यापार करता है उस समय उसके योग्य बाह्य पदार्थ श्रर्थात् इंद्रियां प्रकाश, ज्ञेय पदार्थ, गुरु, शास्त्र इत्यादि ( पर द्रव्य ) स्व स्व कारणसे ही उपस्थित होते हैं, ज्ञानको उनकी प्रतीक्षा नही करनी पड़ती । निमित्त नैमित्तिकका तथा उपादान निमित्तका ऐसा मेल होता है |
प्रश्न- - आप सम्यग्ज्ञानका फल अधिगम कहते हो किन्तु वह ( अधिगम ) तो ज्ञान ही है इसलिये ऐसा मालुम होता है कि सम्यग्ज्ञानका कुछ फल नही होता ।
उत्तर——सम्यग्ज्ञानका फल श्रानन्द ( संतोष ) उपेक्षा ( राग द्वेष रहितता ) और अज्ञानका नाश है । ( सर्वार्थ सिद्धि पृष्ठ ३३४) इससे यह सिद्ध होता है कि ज्ञान स्वसे ही होता है पर पदार्थसे नही होता ।
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५५
अध्याय १ सूत्र ११ :
सूत्र ९-१० का सिद्धांत - नौवें सूत्रमें कथित पाँच सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण हैं, उनके अतिरिक्त दूसरे लोग भिन्न भिन्न प्रमाण कहते है, किन्तु वह ठीक नहीं है। जिस जीव को सम्यग्ज्ञान हो जाता है वह अपने सम्यक् मति और सम्यक् श्रुतज्ञानके द्वारा अपनेको सम्यक्त्व होनेका निर्णय कर सकता है, और वह ज्ञान प्रमाण अर्थात् सच्चा ज्ञान है ॥ १० ॥
परोक्ष प्रमाणके भेद
आद्य परोक्षम् ॥११॥ अर्थ-[प्राधे ] प्रारंभके दो अर्थात् मतिज्ञान और श्रुतज्ञान [परोक्षम् ] परोक्ष प्रमाण हैं।
टीका यहां प्रमाण अर्थात् सम्यग्ज्ञानके भेदोमेसे प्रारंभके दो अर्थात् मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं । यह ज्ञान परोक्ष प्रमाण है इसलिये उन्हें संशयवान या भूलयुक्त नही मान लेना चाहिये; क्योकि वे सर्वथा सच्चे ही है। उनके उपयोगके समय इंद्रिय या मन निमित्त होते है, इसलिये परापेक्षाके कारण उन्हे परोक्ष कहा है; स्व-अपेक्षासे पाँचो प्रकारके ज्ञान प्रत्यक्ष है।
प्रश्न-तब क्या सम्यक्मतिज्ञानवाला जीव यह जान सकता है कि मुझे सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन है ?
उत्तर-ज्ञान सम्यक् है इसलिए अपनेको सम्यग्ज्ञान होनेका निर्णय भली भाँति कर सकता है; और जहां सम्यग्ज्ञान होता है वहाँ सम्यग्दर्शन अविनाभावी होता है, इसलिये उसका भी निर्णय कर ही लेता है। यदि निर्णय नही कर पाये तो वह अपना अनिर्णय अर्थात् अनध्यवसाय कहलायगा, और ऐसा होने पर उसका वह ज्ञान मिथ्याज्ञान कहलायगा।
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मोक्षशास्त्र
प्रश्न- सम्यक्मतिज्ञानी दर्शनमोहनीयं प्रकृतिके पुद्गलोंको प्रत्यक्ष नही देख सकता, और उसके पुद्गल उदयरूप हों तथा जीव उसमें युक्त होता हो तो क्या उसकी भूल नहीं होगी ?
५६
उत्तर(र-यदि भूल होती है तो वह ज्ञान विपरीत होगा, और इसलिए = वह ज्ञान 'सम्यक्' नहीं कहला सकता । जैसे शरीरंके बिगड़नेपर यह असातावेदनीयका उदय है, सातावेदनीयका उदय नहीं हैं - ऐसा कर्मके : रजकरणोको प्रत्यक्ष देखे बिना श्रुतज्ञानके बलसे यथार्थ जान लिया जाता है, उसी प्रकार अपने ज्ञान अनुभवसे श्रुतज्ञानके बलसे यह सम्यक् (यथार्थं ) जाना जा सकता है कि दर्शनमोहनीय कर्म उदयरूप नही है |
प्रश्न- क्या सम्यक्मतिज्ञान यह जान सकता है कि अमुकजीव भव्य है या भव्य ?
उत्तर- इस संबंध मे श्री धवला शास्त्रमे ( पुस्तक ६ पृष्ठ १७ में ) लिखा है कि- अवग्रहसे ग्रहरण किये गये अर्थको विशेष जाननेकी आकांक्षा 'हा' है । जैसे- किसी पुरुषको देखकर 'यह भव्य है या अभव्य ?' इस प्रकारको विशेष परीक्षा करना सो 'ईहाज्ञान' है । ईहाज्ञान सदेहरूप नहीं होता, क्योकि ईहात्मक विचार बुद्धिसे संदेहका विनाश हो जाता है । संदेह से ऊपर और अवायसे नीचे तथा मध्यमें प्रवृत्त होनेवाली विचारबुद्धिका नाम ईहा है ।
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ईहाज्ञानसे जाने गये पदार्थ विषयक संदेहका दूर हो जाना सो 'वाय' (निर्णय) है । पहले ईहा ज्ञानसे 'यह भव्य है या प्रभव्य ?" इसप्रकार नवे रूप बुद्धि के द्वारा विषय किया गया जीव 'अभव्य नहीं भव्य श्री क्योकि उनमें भव्यत्वके अविनाभावी सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्र गुण गद है, कार उत्पन हुये 'चयँ' (निश्वय) ज्ञानका नाम 'अवाय' है । सिद्ध होता है न सम्यक्मतिज्ञान यह यथार्थतया निश्चय कि अपने तथा परको सम्यग्दर्शन है ।
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अध्याय १ सूत्र ११
શ્ર
जब सम्यग्दृष्टि जीव अपने उपयोग में युक्त होता है तब वे मतिज्ञान और श्रुतज्ञान प्रत्यक्ष होते | यह दशा चौथे गुरणस्थानसे होती है । मतिश्रुतात्मक भावमन स्वानुभूतिके समय विशेष दशावाला होता है, फिर भी श्रेणिसमान तो नहीं किन्तु अपनी भूमिका के योग्य निर्विकल्प होता है, इसलिए मति श्रुतात्मक भावमन स्वानुभूति के समय प्रत्यक्ष माना गया है । मति श्रुत ज्ञानके बिना केवलज्ञानकी उत्पत्ति नही होती उसका यहाँ कारण है । ( अवधिमन:पर्ययज्ञानके बिना केवलज्ञानकी उत्पत्ति हो सकती है )
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[ पंचाध्यायी भाग १ श्लोक ७०८ से ७१६ तक इस सूत्रकी चर्चा की गई है । देखो पं० देवकीनंदनजीकृत टीका पृष्ठ ३६३ से ३६८ ] यहाँ मति-श्रु तज्ञानको परोक्ष' कहा है तत्सम्बन्धी विशेष स्पष्टीकरण अवग्रह, ईहां, अवीय और धारणारूप मतिज्ञानको 'सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष' भी कहा गया है । लोग कहते है कि 'मैंने घडेके रूपको प्रत्यक्ष देखा है' इसलिये वह ज्ञाने सॉव्यवहारिक प्रत्यक्ष है ।
श्रुतज्ञानके तीन प्रकार हो जाते है - (१) - सपूर्णं परोक्ष, (२) श्राशिक परोक्ष, (३) परोक्ष बिलकुल नही किंतु प्रत्यक्ष ।
(१) शब्दरूप जो श्रुतज्ञान है सो परोक्ष ही है । तथा दूरभूत स्वर्गनरकादि बाह्य विषयोंका ज्ञान करानेवाला विकल्परूप ज्ञान भी परोक्ष ही है ।
(२) आभ्यंतर में सुख-दुःखके विकल्परूपजो ज्ञान होता है वह, अथवा 'मै अनन्त ज्ञानादिरूप हूँ' ऐसा ज्ञान ईषत् ( किंचित्) परोक्ष है ।
1
(३) निश्चयभाव श्रुतज्ञान शुद्धात्माके सम्मुख होनेसे सुख सवित्ति ( ज्ञान ) स्वरूप है । यद्यपि वह ज्ञान निजको जानता है तथापि इन्द्रियो तथा मनसे उत्पन्न होनेवाले विकल्पोके समूहसे रहित होनेसे निर्विकल्प है । ( अभेदनयसे ) उसे 'आत्मज्ञान' शब्दसे पहचाना जाता है । यद्यपि वह केवलज्ञानकी अपेक्षासे परोक्ष है तथापि छद्मस्थोके क्षायिक ज्ञानकी प्राप्ति न होनेसे, क्षायोपशमिक होनेपर भी उसे 'प्रत्यक्ष' कहा जाता है ।
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मोक्षशास्त्र
प्रश्न -- इस सूत्र मे मति और श्रुतज्ञानको परोक्ष कहा है तथापि आपने उसे ऊपर 'प्रत्यक्ष' कैसे कहा है ।
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उत्तर- इस सूत्र मे जो श्र ुतको परोक्ष कहा है सो वह सामान्य कथन है, और ऊपर जो भावश्रुतज्ञानको प्रत्यक्ष कहा है सो विशेष कथन है । प्रत्यक्षका कथन विशेष की अपेक्षासे है, ऐसा समझना चाहिये ।
यदि इस सूत्र में उत्सर्ग कथन न होता तो मतिज्ञानको परोक्ष नही कहा जाता । यदि मतिज्ञान परोक्ष ही होता तो तर्क शास्त्रमे उसे साव्यवहारिकप्रत्यक्ष क्यों कहते ? इसलिये जैसे विशेष कथनमे उस मतिज्ञानको प्रत्यक्ष ज्ञान कहा जाता है उसीप्रकार निजात्मसन्मुख भावश्रुतज्ञानको (यद्यपि वह केवलज्ञानकी अपेक्षासे परोक्ष है तथापि ) विशेष कथनमे प्रत्यक्ष कहा है ।
यदि मति और श्रुत दोनों मात्र परोक्ष ही होते तो सुख-दुःखादिका जो संवेदन ( ज्ञान ) होता है वह भी परोक्ष ही होता, कितु वह संवेदन प्रत्यक्ष है यह सभी जानते हैं । [ देखो वृहत् द्रव्यसंग्रह गाथा ५ की नीचे हिन्दी टीका पृष्ठ १३ से १५, इंगलिश पृष्ठ १७ - १८] उत्सर्ग= सामान्य, - General Ordinance - सामान्य नियम; अपवाद = विशेष Exception - विशेष नियम |
नोट:- ऐसा उत्सर्ग कथन ध्याताके सम्बन्ध में अध्याय १ सूत्र २७-४७ में कहा है, वहाँ अपवादका कथन नही किया है । [ देखो - बृहत द्रव्य संग्रह गाथा ५७, नीचे हिन्दी टीका, पृष्ठ- २११ ] इस प्रकार जहाँ उत्सगं कथन हो वहाँ अपवाद कथन गर्भित है. ऐसा समझना चाहिये ।
प्रत्यक्षप्रमाणके भेद
प्रत्यक्षमन्यत् ॥
अर्थ:-- [ श्रन्यत् ] शेष तीन अर्थात् अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान [ प्रत्यक्षम् ] प्रत्यक्ष प्रमाण हैं |
१२ ॥
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५६
अध्याय १ सूत्र १३
टीका अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान विकल-प्रत्यक्ष है तथा केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। [प्रत्यक्ष-प्रति+अक्ष ] 'अक्ष' का अर्थ आत्मा है। आत्माके प्रति जिसका नियम हो अर्थात् जो परनिमित्त-इन्द्रिय, मन, आलोक (प्रकाश), उपदेश आदि से रहित आत्माके आश्रयसे उत्पन्न हो, जिसमे दूसरा कोई निमित्त न हो, ऐसा ज्ञान प्रत्यक्षज्ञान कहलाता है ।। १२ ।।
___ मतिज्ञान के दूसरे नाम मतिःस्मृतिःसंज्ञाचिंताभिनिबोधइत्यनर्थातरम् ॥१३॥
अर्थ-[मतिः] मति, [स्मृतिः] स्मृति, [संज्ञा] संज्ञा, [चिंता] चिंता, [अभिनिवोध] अभिनिबोध, [इति] इत्यादि, [अनर्थातरम् ] अन्य पदार्थ नही हैं, अर्थात् वे मतिज्ञान के नामांतर हैं ।
टीका मति-मन अथवा इन्द्रियोसे, वर्तमानकालवर्ती पदार्थको अवग्रहादि रूप साक्षात् जानना सो मति है।
स्मृति-पहले जाने हुये, सुने हुये या अनुभव किये हुये पदार्थ का वर्तमानमें स्मरण आना सो स्मृति है।
संज्ञा-का दूसरा नाम प्रत्यभिज्ञान है। वर्तमानमें किसी पदार्थको देखने पर 'यह वही पदार्थ है जो पहले देखा था' इसप्रकार स्मरण और प्रत्यक्ष के जोड़रूप ज्ञानको संज्ञा कहते है।
चिंता-चितवनज्ञान अर्थात् किसी चिह्नको देखकर 'यहाँ उस चिह्न वाला अवश्य होना चाहिए' इसप्रकारका विचार चिंता है। इस ज्ञानको ऊह, ऊहा, तर्क अथवा व्याप्तिज्ञान भी कहते है।
अभिनिबोध-स्वार्थानुमान, अनुमान, उसके दूसरे नाम है । सन्मुख चिह्नादि देखकर उस चिह्नवाले पदार्थका निर्णय करना सो 'अभिनिवोघ' है।
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मोक्षशास्त्र यद्यपि इन सबमें अर्थभेद है तथापि प्रसिद्ध रूढिके बलसे वे मतिके नामांतर कहलाते है। उन सबके प्रगट होनेमे मतिज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम निमित्त मात्र है, यह लक्षमें रखकर उसे मतिज्ञानके नामान्तर कहते हैं।
यह सूत्र सिद्ध करता है कि-जिसने आत्मस्वरूपका यथार्थ ज्ञान नही किया हो वह आत्माका स्मरण नहीं कर सकता; क्योकि स्मृति तो पूर्वानुभूत पदार्थ की ही होती है, इसीलिये अज्ञानीको प्रभुस्मरण ( आत्मस्मरण ) नही होता; किन्तु 'राग मेरा है' ऐसी पकड़का स्मरण होता है, क्योंकि उसे उसका अनुभव है। इसप्रकार अज्ञानी जीव धर्मके नाम पर चाहे जो कार्य करे तथापि उसका ज्ञान मिथ्या होनेसे उसे धर्मका स्मरण नही होता, किन्तु राग की पकड़का स्मरण होता है।
स्वसवेदन, बुद्धि, मेधा, प्रतिभा, प्रज्ञा इत्यादि भी मतिज्ञानके भेद है। स्वसंवेदन-सुखादि अंतरंग विषयोका ज्ञान स्वसंवेदन है ।
बुद्धि-बोधनमात्रता बुद्धि है। बुद्धि, प्रतिभा, प्रज्ञा आदि मतिज्ञानकी तारतम्यता (हीनाधिकता ) सूचक ज्ञानके भेद हैं ।
अनुमान दो प्रकारके हैं-एक मतिज्ञानका भेद है और दूसरा श्रुतज्ञानका । साधनके देखने पर स्वयं साध्यका ज्ञान होना सो मतिज्ञान है । दूसरेके हेतु और तर्कके वाक्य सुनकर जो अनुमान ज्ञान हो सो श्रुतानुमान है । चिह्नादिसे उसी पदार्थका अनुमान होना सो मतिज्ञान है और उसी (चिह्नादि ) से दूसरे पदार्थका अनुमान होना सो श्रुतज्ञान है ॥ १३ ॥
मतिज्ञानकी उत्पचिके समय निमिच
तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् ॥१४॥
मर्थ-[इन्द्रियानिन्द्रिय] इन्द्रियाँ और मन [तत्] उस मतिज्ञानके [निमित्तम्] निमित्त हैं।
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अध्याय १ सूत्र १४
टीका
इन्द्रिय- आत्मा, ( इन्द्र = प्रात्मा ) परम ऐश्वर्यरूप प्रवर्तमान है, इसप्रकार अनुमान करानेवाला शरीरका चिह्न ।
६१
नो इन्द्रिय- मन; जो सूक्ष्म पुद्गलस्कन्ध मनोवर्गणाके नामसे पहिचाने जाते हैं उनसे बने हुये शरीरका आंतरिक अङ्ग, जो कि अष्टदल कमलके आकार हृदयस्थानमे है ।
मतिज्ञानके होनेमे इन्द्रिय-मन निमित्त होता है, ऐसा जो इस सूत्रमे कहा है, सो वह परद्रव्योके होनेवाले ज्ञानकी अपेक्षासे कहा है, - ऐसा समझना चाहिये । भीतर स्वलक्षमे मन- इन्द्रिय निमित्त नही है । जब जीव उस ( मन और इन्द्रियके अवलम्बन ) से अंशतः पृथक् होता है तब स्वतंत्र तत्त्वका ज्ञान करके उसमें स्थिर हो सकता है ।
इन्द्रियों का धर्म तो यह है कि वे स्पर्श, रस, गंध, वर्णको जाननेमे निमित्त हो, श्रात्मामे वह नही है, इसलिये स्वलक्षमे इन्द्रियाँ निमित्त नही हैं । मनका धर्म यह है कि वह अनेक विकल्पोमे निमित्त हो । वह विकल्प भी यहाँ ( स्वलक्षमे ) नही है । जो ज्ञान इन्द्रियों तथा मनके द्वारा प्रवृत्त होता था वही ज्ञान निजानुभवमे वर्त रहा है; इसप्रकार इस मतिज्ञानमें मन- इन्द्रिय निमित्त नही हैं । यह ज्ञान श्रतीन्द्रिय है । मनका विषय मूर्तिकश्रमूर्तिक पदार्थ हैं, इसलिये मन सम्बन्धी परिणाम स्वरूपके विषयमे एकाग्र होकर अन्य चितवनका निरोध करता है, इसलिये उसे ( उपचारसे) मनके द्वारा हुआ कहा जाता है । ऐसा अनुभव चतुर्थंगुरणस्थानसे ही होता है ।
इस सूत्र बतलाया गया है कि मतिज्ञानमें इन्द्रिय-मन निमित्त हैं; यह नही कहा है कि - मतिज्ञानमे ज्ञेय अर्थ (वस्तु) और श्रालोक (प्रकाश) निमित्त हैं, क्योकि अर्थ और आलोक मतिज्ञानमें निमित्त नही है । उन्हे निमित्त मानना भूल है । यह विषय विशेष समझने योग्य है, इसलिये इसे प्रमेयरत्नमाला हिन्दी ( पृष्ठ ५० से ५५ ) यहाँ संक्षेपमे दे रहे हैं
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मोक्षशास्त्र प्रश्न-सांव्यवहारिक मतिज्ञानका निमित्त कारण इन्द्रियादिको कहा है, उसीप्रकार (ज्ञेय ) पदार्थ और प्रकाशको भी निमित्त कारण क्यों नहीं कहा?
प्रश्नकारका तर्क यह है कि अर्थ ( वस्तु ) से भी ज्ञान उत्पन्न होता है-और प्रकाशसे भी ज्ञान उत्पन्न होता है यदि उसे निमित्त न माना जाय तो सभी निमित्त कारण नहीं आ सकते इसलिये सूत्र अपूर्ण रह जाता है। समाधान-आचार्यदेव कहते है कि"नार्थालोकोकारणं परिच्छेद्यत्वात्तमोवत्"
(द्वितीय समुद्देश ) अर्थ-अर्थ ( वस्तु ) और आलोक दोनों सांव्यवहारिक प्रत्यक्षके कारण नहीं है, किन्तु वे केवल परिच्छेद्य ( ज्ञेय ) है। जैसे अंधकार ज्ञेय है वैसे ही वे भी ज्ञेय है।
__ इसी न्यायको बतलानेके लिये तत्पश्चात् सातवाँ सूत्र दिया है जिसमें कहा गया है कि ऐसा कोई नियम नही है कि जब अर्थ और आलोक हो तब ज्ञान उत्पन्न होता ही है और जब वे न हों तब ज्ञान उत्पन्न नही होता । इनके लिये निम्नलिखित दृष्टान्त दिये गये है
(१) एक मनुष्यके सिर पर मच्छरोंका समूह उड़ रहा था किन्तु दूसरेने उसे बालोंका गुच्छा समझा; इसप्रकार यहां अर्थ ( वस्तु ) ज्ञानका कारण नही हुआ।
(२) अंधकारमें बिल्ली इत्यादि रात्रिचर प्राणी वस्तुओंको देख सकते है, इसलिये ज्ञानके होनेमे प्रकाश कारण नहीं हुआ।
उपरोक्त दृष्टान्त (१) में मच्छरोका समूह था फिर भी ज्ञान तो वालोंके गुच्छेका हुआ, यदि अर्थ ज्ञानका कारण होता तो बालोके गुच्छेका ज्ञान क्यों हुआ; और मच्छरोके समूहका ज्ञान क्यो नही हुआ ? और दृष्टान्त (२) मे बिल्ली आदिको अधकारमें ज्ञान हो गया; यदि प्रकाश ज्ञानका कारण होता तो बिल्लीको अंधकारमें ज्ञान कैसे हुआ ?
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अध्याय १ सूत्र १४
प्रश्न
-नव यह मतिज्ञान किस कारण से होता है ?
उत्तर - क्षायोपगमिक ज्ञानकी योग्यताके अनुसार ज्ञान होता है, ज्ञान होने का यह कारण है । ज्ञानके उस क्षयोपशमके अनुसार यह ज्ञान होता है; वस्नुके अनुसार नहीं; इसलिये यह निश्चित समझना चाहिये कि बाह्य वस्तु ज्ञानके होनेमे निमित्त कारण नही है । आगे नवमे सूत्रमें इस न्यायको सिद्ध किया है ।
जैसे दीपक घट इत्यादि पदार्थोंसे उत्पन्न नही होता तथापि वह अर्थका प्रकाशक है । [ सूत्र ८ ]
जिस ज्ञानकी क्षयोपशम लक्षण योग्यता है वही विषयके प्रति नियम रूप ज्ञान होनेका कारण है, ऐसा समझना चाहिये [ सूत्र 8 ]
जब आत्मा के मतिज्ञान होता है तव इंद्रियाँ और मन दोनो निमित्त मात्र होते है, वह मात्र इतना बतलाता है कि 'आत्मा', उपादान है । निमित्त अपने ( निमित्त मे ) शत प्रतिशत कार्य करता है किन्तु वह उपादानमे अंशमात्र कार्य नही करता । निमित्त परद्रव्य है, आत्मा उससे भिन्न द्रव्य है; इसलिये श्रात्मामे ( उपादानमे) उसका ( निमित्तका) अत्यन्त अभाव है । एक द्रव्य दूसरे द्रव्यके क्षेत्रमें घुस नही सकता; इसलिए निमित्त उपादानका कुछ नही कर सकता । उपादान अपने में अपना कार्य स्वतः शत प्रतिशत करता है । मतिज्ञान परोक्षज्ञान है यह ग्यारहवे सूत्रमे कहा है । वह परोक्षज्ञान है इसलिये उस ज्ञानके समय निमित्तकी स्वत अपने कारण से उपस्थिति होती है । वह उपस्थिति निमित्त कैसा होता है उसका ज्ञान करानेके लिए यह सूत्र कहा है; किन्तु - 'निमित्त आत्मामे कुछ भी कर सकता है' यह बतानेके लिये यह सूत्र नही कहा है । यदि निमित्त आत्मामे कुछ करता होता तो वह ( निमित्त ) स्वय ही उपादान हो जाता ।
थोर 'निमित्त भी उपादानके कार्य समय मात्र आरोपकारण है, यदि जीव चक्षुके द्वारा ज्ञान करे तो चक्षु पर निमित्तका आरोप होता है, और यदि जीव अन्य इन्द्रिय या मनके द्वारा ज्ञान करें तो उस पर निमित्तका आरोप होता है ।
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६४
- मोक्षशास्त्र एक द्रव्य दूसरे द्रव्यमें (पर द्रव्यमें) अकिंचित्कर है, अर्थात् कुछ भी नहीं कर सकता । अन्य द्रव्यका अत्य द्रव्यमे कदापि प्रवेश नही है और न अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यकी पर्यायका उत्पादक ही है; क्योकि प्रत्येक वस्तु अपने अंतरंगमें अत्यन्त (संपूर्णतया) प्रकाशित है, परमे लेश मात्र भी नही है । इसलिए निमित्तभूत वस्तु उपादानभूतवस्तुका कुछ भी नहीं कर सकती। उपादानमे निमित्तकी द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे और भावसे नास्ति है, और निमित्तमें उपादानकी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे नास्ति है; इसलिए एक 'दूसरे को क्या कर सकते हैं ? यदि एक वस्तु दूसरी वस्तुका कुछ करने लगे तो वस्तु अपने वस्तुत्वको ही खो बैठे; किन्तु ऐसा हो ही नहीं सकता।
[निमित्त संयोगरूपकारण; उपादान-वस्तुकी सहज शक्ति ] दशवे सूत्रकी टीकामें निमित्त-उपादान सम्बन्धी स्पष्टीकरण किया है वहाँ से विशेष समझ लेना चाहिये।
उपादान-निमित्त कारण
- प्रत्येक कार्यमे दो कारण होते हैं (१) उपादान, (२) निमित्त । इनमेसे उपादान तो निश्चय (वास्तविक) कारण है और निमित्त व्यवहारआरोप-कारण है, अर्थात् वह (जब उपादान कार्य कर रहा हो तब वह उसके) अनुकूल उपस्थितरूप (विद्यमान) होता है। कार्यके समय निमित्त होता है किन्तु उपादानमें वह कोई कार्य नही कर सकता, इसलिये उसे व्यवहार कारण कहा जाता है। जब कार्य होता है तब निमित्तको उपस्थितिके दो प्रकार होते हैं ( १) वास्तविक उपस्थिति (२) काल्पनिक उपस्थिति । जब छद्मस्थ जीव विकार करता है तव द्रव्यकर्मका उदय उपस्थितरूप होता ही है, वहाँ द्रव्यकर्मका उदय उस विकार का वास्तविक उपस्थितिरूप निमित्त कारण है। [यदि जीव विकार न करे तो वही द्रव्यकर्मकी निर्जरा हुई कहलाती है। ] तथा जीव जव विकार करता है तव नो कर्मकी उपस्थिति वास्तवमें होती है अथवा कल्पनारूप होती है।
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अध्याय १ सूत्र १५ निमित्त होता ही नहीं, यह कहकर यदि कोई निमित्तके अस्तित्वका इन्कार करे तब, या उपादान कार्य कर रहा हो तव निमित्त उपस्थित होता है, यह बतलाया जाता है, किन्तु यह तो निमित्तका ज्ञान करानेके लिये है। इसलिये जो निमित्तके अस्तित्वको ही स्वीकार न करें उसका शान सम्यग्ज्ञान नहीं है। यहाँ सम्यग्ज्ञानका विषय होनेसे आचार्यदेवने निमित्त कैसा होता है इसका ज्ञान कराया है। जो यह मानता है कि निमित्त उपादानका कुछ करता है उसकी यह मान्यता मिथ्या है, और इसलिये यह समझना चाहिये कि उसे सम्यग्दर्शन नही है ॥ १४ ॥
मतिज्ञानके क्रमके भेदअवग्रहहावायधारणाः ॥ १५ ॥ अर्थ-[अवग्रह ईहा अवाय धारणाः] अवग्रह, ईहा, अवाय, और धारणा यह चार भेद हैं।
टीका
अवग्रह-चेतनामें जो थोड़ा विशेषाकार भासित होने लगता है उस जानको 'अवग्रह' कहते हैं । विषय और विषयी ( विषय करनेवाले ) के योग्य स्थानमें पा जानेके वाद होनेवाला आद्यग्रहण अवग्रह है। स्व और पर दोनोंका (जिस समय जो विपय हो उसका ) पहिले अवग्रह होता है । ( Perception )
ईहा-विग्रहके द्वारा जाने गये पदार्थको विशेषरूपसे जाननेकी चेष्टा (-आकांक्षा ) को ईहा कहते हैं। ईहाका विशेष वर्णन ग्यारहवें सूत्रके नीचे दिया गया है। (Conception)
अवाय-विशेष चिह्न देखनेसे उसका निश्चय हो जाय सो अवाय है। ( Judgment)
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मोक्षशास्त्र
धारणा- - अवायसे निर्णीत पदार्थको कालान्तर में न भूलना सो धारणा है। ( Rettienon )
आत्मा अवग्रह ईहा अवाय और धारणा
जीवको अनादिकालसे अपने स्वरूपका भ्रम है, इसलिये पहिले आत्मज्ञानी पुरुषसे आत्मस्वरूपको सुनकर युक्तिके द्वारा यह निर्णय करना चाहिए कि आत्मा ज्ञानस्वभाव है, तत्पश्चात् -
परपदार्थ की प्रसिद्धि के कारण - इन्द्रिय द्वारा तथा मन द्वारा प्रवर्तमान बुद्धिको मर्यादामे लाकर अर्थात् पर पदार्थोकी ओरसे अपना लक्ष्य खीचकर जब आत्मा स्वयं स्वसन्मुख लक्ष करता है तव, प्रथम सामान्य स्थूलतया आत्मासम्बन्धी ज्ञान हुआ, वह आत्माका अर्थावग्रह हुआ । तत्पश्चात् स्व-विचारके निर्णयकी ओर उन्मुख हुआ सो ईहा, और निर्णय हुआ सो अवाय, श्रर्थात् ईहासे ज्ञात आत्मामे यह वही है अन्य नही ऐसा दृढ़ ज्ञान अवाय है । आत्मासम्बन्धी कालान्तरमे सशय तथा विस्मरण न हो सो धारणा है । यहाँ तक तो परोक्षभूत मतिज्ञानमे धारणा तकका अन्तिमभेद हुआ । इसके बाद यह आत्मा अनन्त ज्ञानानन्द शांति स्वरूप है इसप्रकार मतिमेसे प्रलम्बित तार्किक ज्ञान श्रुतज्ञान है । भीतर स्वलक्ष्यमें मन - इन्द्रिय निमित्त नही है । जब जीव उससे अंशतः पृथक् होता है तब स्वतंत्र तत्त्वका ज्ञान करके उसमे स्थिर हो सकता है ।
अवग्रह या ईहा हो किन्तु यदि वह लक्ष चालू न रहे तो आत्माका निर्णय नही होता अर्थात् अवाय ज्ञान नही होता, इसलिये श्रवायकी अत्यंत श्रावश्यकता है । यह ज्ञान होते समय विकल्प, राग, मन, या पर वस्तुकी ओर लक्ष नही होता, किन्तु स्वसन्मुख लक्ष होता है ।
सम्यग्दृष्टि को अपना ( आत्माका ) ज्ञान होते समय इन चारों प्रकारका ज्ञान होता है । धारणा तो स्मृति है, जिस आत्माको सम्यग्ज्ञान अप्रतिहत ( - निर्वाध ) भावसे हुआ हो उसे आत्माका ज्ञान धारणारूप वना ही रहता है ॥ १५ ॥
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अध्याय १ सूत्र १६
अवग्रहादिके विषयभूत पदार्थबहुबहुविधक्षिप्रानिःसृतानुक्तध्र वाणां सेतराणां ॥१६॥
___ अर्थ-[बहु] बहु [बहुविध] बहुप्रकार [क्षिप्र] जल्दी [अनिःसृत] अनिःसृत [अनुक्त] अनुक्त [ध्र वाणां] ध्रुव [सेतराणाम्] उनसे उल्टे भेदोसे युक्त अर्थात् एक, एकविध, अक्षिप्र, निःसृत, उक्त, और अध्रुव, इसप्रकार बारह प्रकारके पदार्थोका अवग्रह ईहादिरूप ज्ञान होता है ।
टीका (१) बहु-एकही साथ बहुतसे पदार्थोका अथवा बहुतसे समूहोंका अवग्रहादि होना [ जैसे लोगोके झुन्डका अथवा गेहूँके ढेरका ] बहुतसे पदार्थोका ज्ञानगोचर होना।
(२) एक-अल्प अथवा एक पदार्थका ज्ञान होना [ जैसे एक मनुष्यका अथवा पानीके प्यालेका ] थोड़े पदार्थोका ज्ञानगोचर होना।।
(३) बहुविध-कई प्रकारके पदार्थोका अवग्रहादि ज्ञान होना ( जैसे कुत्तेके साथका मनुष्य अथवा गेहूँ चना चांवल इत्यादि अनेक प्रकारके पदार्थ ) युगपत् बहुत प्रकारके पदार्थोका ज्ञानगोचर होना।
(४) एकविध-एक प्रकारके पदार्थोका ज्ञान होना ( जैसे एक प्रकारके गेहूँका ज्ञान ) एक प्रकारके पदार्थ ज्ञानगोचर होना ।
(५) क्षिप्र-शीघ्रतासे पदार्थका ज्ञान होना।
(६) मक्षिप्र-किसी पदार्थको धीरे धीरे बहुत समयमें जानना अर्थात् चिरग्रहण ।
(७) अनिःसत-एक भागके ज्ञानसे सर्वभागका ज्ञान होना (जैसे पानीके बाहर निकली हुई सून्डको देखकर पानीमें डूबे हुए पूरे हाथीका ज्ञान होना ) एक भागके अव्यक्त रहने पर भी ज्ञानगोचर होना ।
(८) निःसृत-बाहर निकले हुए प्रगट पदार्थका ज्ञान होना, पूर्णव्यक्त पदार्थका ज्ञानगोचर होना ।
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मोक्षशास्त्र
(९) अनुक्त-- ( अकथित ) जिस वस्तुका वर्णन नहीं किया उसे जानना । जिसका वर्णन नही सुना है फिर भी उस पदार्थका ज्ञानगोचर होना ।
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(१०) उक्त—कथित पदार्थका ज्ञान होना, वर्णन सुननेके बाद पदार्थका ज्ञानगोचर होना ।
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(११) ध्रुव - बहुत समय तक ज्ञान जैसाका तैसा बना रहना, अर्थात् दृढ़तावाला ज्ञान ।
(१२) अध्रुव - प्रतिक्षण हीनाधिक होनेवाला ज्ञान अर्थात् अस्थिरज्ञान |
यह सब भेद सम्यक् मतिज्ञानके है । जिसे सम्यक्ज्ञान हो जाता है वह जानता है कि- श्रात्मा वास्तव में अपने ज्ञानकी पर्यायोंको जानता है, और पर तो उस ज्ञानका निमित्त मात्र है । 'परको जाना ऐसा कहना सो व्यवहार है, यदि परमार्थ दृष्टिसे कहा जाय कि आत्मा परको जानता है' सो मिथ्या है, क्योकि ऐसा होनेपर श्रात्मा और पर ( ज्ञान और ज्ञेय ) दोनों एक हो जायेगे, क्योंकि 'जिसका जो होता है वह वही होता है' इसलिये वास्तवमे यदि यह कहा जाय कि 'पुद्गलका ज्ञान' है, तो ज्ञान पुद्गलरूप — ज्ञेयरूप हो जायगा, इसलिये यह समझना चाहिये कि निमित्त सम्बन्धी अपने ज्ञानकी पर्यायको आत्मा जानता है । ( देखो श्री समयसार गाथा ३५६ से ३६५ की टीका )
प्रश्न -- अनुक्त विषय श्रोत्रज्ञानका विषय कैसे सभव है ?
उत्तर- श्रोत्रज्ञानमे 'अनुक्त' का अर्थ 'ईषत् (थोड़ा) अनुक्त' करना चाहिये; और 'उक्त' का अर्थ 'विस्तारसे लक्षणादिके द्वारा वर्णन किया है' ऐसा करना चाहिये, जिससे नाममात्रके सुनते ही जीवको विशद ( विस्तार रूप) ज्ञान हो जाय तो उस जीवको अनुक्त ज्ञान ही हुआ है ऐसा कहना चाहिये । इसीप्रकार अन्य इन्द्रियोके द्वारा अनुक्तका ज्ञान होता है ऐसा समझना चाहिये ।
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अध्याय १ सूत्र १६
प्रश्न
- नेत्रज्ञानमें 'उक्त' विषय कैसे संभव है ?
उत्तर - किसी वस्तुको विस्तारपूर्वक सुन लिया हो और फिर वह देखनेमें आये तो उस समयका नेत्र ज्ञान 'उक्त ज्ञान' कहलाता है । इसीप्रकार श्री इन्द्रियके अतिरिक्त दूसरी इन्द्रियोंके द्वारा भी 'उक्त' का ज्ञान होता है ।
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प्रश्न- 'मुक्त' का ज्ञान पाँच इन्द्रियोके द्वारा कैसे होता है ? उत्तर - श्रोत्र इन्द्रियके अतिरिक्त चार इन्द्रियोंके द्वारा होनेवाला ज्ञान सदा श्रनुक्त होता है । श्रीर श्रोत्र इन्द्रियके द्वारा श्रनुक्तका ज्ञान कैसे होता है सो इसका स्पष्टीकरण पहिले उत्तरमे किया गया है ।
प्रश्न- अनिःसृत और अनुक्त पदार्थोके साथ श्रोत्र इत्यादि इंद्रियोंका संयोग होता हो यह हमे दिखाई नही देता, इसलिये हम उस संयोगको स्वीकार नही कर सकते ।
उत्तर - यह भी ठीक नहीं है; जैसे यदि कोई जन्मसे ही जमीनके भीतर रक्खा गया पुरुष किसी प्रकार बाहर निकले तो उसे घट पटादि समस्त पदार्थोका आभास होता है; किन्तु उसे जो 'यह घट है, यह पट है' इत्यादि विशेषज्ञान होता है वह उसे परके उपदेशसे ही होता है; वह स्वयं वैसा ज्ञान नही कर सकता, इसीप्रकार सूक्ष्म अवयवोके साथ जो इंद्रियोंका भिड़ना होता है और उससे अवग्रहादि ज्ञान होता है वह विशेष ज्ञान भी वीतरागके उपदेशसे ही जाना जाता है; अपने भीतर ऐसी शक्ति नही है कि उसे स्वयं जान सकें; इसलिये केवलज्ञानीके उपदेशसे जब अनिःसृत और अनुक्त पदार्थोक ग्रवग्रह इत्यादि सिद्ध हैं तव उनका अभाव कभी नहीं कहा
जा सकता ।
प्रत्येक इन्द्रियके द्वारा होनेवाले इन बारह प्रकारके मतिज्ञानका स्पष्टीकरण |
१ - श्रोत्र इन्द्रियके द्वारा
बहु - एक-तत ( ताँतका शब्द ) वितत ( तालका शब्द ) धन
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• मोक्षशास्त्र (काँसेके वाद्यका शब्द) और सुषिर (बाँसुरी आदिका शब्द) इत्यादि शब्दों का एक साथ अवग्रह ज्ञान होता है । उसमें तत इत्यादि भिन्न भिन्न शब्दों का ग्रहण अवग्रहसे नहीं होता किन्तु उसके समुदायरूप सामान्यको वह ग्रहण करता है; ऐसा अर्थ यहां समझना चाहिये; यहाँ बहु पदार्थका अवग्रह हुआ।
प्रश्न-संभिन्नसंश्रोतृऋद्धिके धारी जीवको तत इत्यादि प्रत्येक शब्दका स्पष्टतया भिन्न २ रूपसे ज्ञान होता है तो उसे यह अवग्रहज्ञान होना बाधित है ?
उत्तर-यह ठीक नही है, सामान्य मनुष्यकी भांति उसे भी क्रमशः ही ज्ञान होता है। इसलिये उसे भी अवग्रह ज्ञान होता है।
जिस जीवके विशुद्धज्ञान मंद होता है उसे तत आदि शब्दोंमेंसे किसी एक शब्दका अवग्रह होता है । यह एक पदार्थका अवग्रह हुआ।
बहुविध-एकविध-उपरोक्त दृष्टांतमे 'तत' आदि शब्दोमें प्रत्येक शब्दके दो, तीन, चार, संख्यात, असंख्यात या अनन्त भेदोंको जीव ग्रहण करता है तब उसे 'बहुविध पदार्थका अवग्रह होता है।
विशुद्धताके मंद रहने पर जीव तत आदि शब्दोंमेसे किसी एक प्रकारके शब्दोंको ग्रहण करता है उसे 'एकविध' पदार्थका अवग्रह होता है।
क्षिप्र-अक्षिप्र-विशुद्धिके बलसे कोई जीव बहुत जल्दी शब्दको ग्रहण करता है उसे 'क्षिण' अवग्रह कहा जाता है।
विशुद्धिकी मंदता होनेसे जीवको शब्दके ग्रहण करनेमें ढील होती है उसे 'अक्षिप्र' अवग्रह कहा जाता है ।
अनिःसृत-निःसृत-विशुद्धिके बलसे जीव जब बिना कहे अथवा बिना बताये ही शब्दको ग्रहण करता है तब उसे 'अनिःसृत' पदार्थका अवग्रह कहा जाता है।
विशुद्धिकी मदताके कारण जीव मुखमेसे निकले हुए शब्दको ग्रहण करता है तब 'निःसृत' पदार्थका अवग्रह हुआ कहलाता है।
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अध्याय १ सूत्र १६
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शंका- मुखसे पूरे शब्दके निकलनेको 'निःसृत', कहा है, और 'उक्त' का अर्थ भी वही होता है तब फिर दो में से एक भेद कहना चाहिये, दोनों क्यों कहते हो ?
समाधान - जहाँ किसी अन्य के कहनेसे शब्दका ग्रहरण होता है, जैसे किसीने 'गौ' शब्दका ऐसा उच्चारण किया कि 'यहाँ यह गो शब्द है' उस परसे जो ज्ञान होता है वह 'उक्त' ज्ञान है; और इसप्रकार अन्यके बताये बिना शब्द संमुख हो उसका यह 'अमुक शब्द है' ऐसा ज्ञान होना सो निःसृत ज्ञान है ।
अनुक्त-उक्त- जिस समय समस्त शब्दका उच्चारण न किया गया हो, किंतु मुखमेसे एक वरके निकलते ही विशुद्धताके बलसे अभिप्रायमात्र से समस्त शब्दको कोई अन्यके कहे बिना ग्रहरण कर ले कि 'वह यह कहना चाहता है' - उस समय उसके 'अनुक्त' पदार्थका अवग्रह हुआ कहलाता है । जिस समय विशुद्धिकी मंदतासे समस्त शब्द कहा जाता है तब किसी दूसरेके कहनेसे जीव ग्रहरण करता है उस समय 'उक्त' पदार्थका श्रवग्रह हुआ कहलाता है । अथवा
तंत्री अथवा मृदंग आदिमें कौनसा स्वर गाया जायगा उसका स्वर संचार न किया हो उससे पूर्व ही केवल उस बाजेमें गाये जाने वाले स्वरका मिलाप हो उसी समय जीवको विशुद्धिके बलसे ऐसा ज्ञान हो जाय कि 'वह यह स्वर बाजेमें बजायगा,' उसी समय 'अनुक्त' पदार्थका श्रवग्रह होता है ।
विशुद्धिकी मंदताके कारण बाजेके द्वारा वह स्वर गाया जाय उस समय जानना सो 'उक्त' पदार्थका अवग्रह है ।
ध्रुव अध्रुव - विशुद्धि के वलसे जीवने जिसप्रकार प्रथम समयमें शब्दको ग्रहण किया उसीप्रकार निश्चयरूपसे कुछ समय ग्रहरण करना चालू रहे - उसमे किंचित्मात्र भी न्यूनाधिक न हो सो 'ध्रुव' पदार्थका अवग्रह है । वारबार होनेवाले संक्लेश तथा विशुद्ध परिरणाम स्वरूप कारणोसे जीवके श्रोत्र इन्द्रियादिका कुछ आवरण और कुछ अनावरण (क्षयोपशम )
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मोक्षशास्त्र
भी रहता है, इसप्रकार श्रोत्र इंद्रियादिके आवरणकी क्षयोपशमरूप विशुद्धि की कुछ प्रकर्ष और कुछ अप्रकर्ष दशा रहती है; उस समय न्यूनाधिकता जाननेके कारण कुछ चल-विचलता, रहती है इससे उस 'अध्रुव' पदार्थका अवग्रह कहलाता है तथा कभी तत इत्यादि बहुतसे शब्दोंका ग्रहण करना; कभी थोड़ेका कभी बहुतका, कभी बहुत प्रकारके शब्दोका ग्रहण करना; कभी एक प्रकारका, कभी जल्दी, कभी देरसे, कभी अनिःसृत शब्दका ग्रहण करना, कभी निःसृतका, कभी अनुक्त शब्दका और कभी उक्तका ग्रहण करना-इसप्रकार जो चल-विचलतासे शब्दका ग्रहण करना सो सब 'अध्रुवावग्रह', का विषय है ।।
शंका-समाधान शंका-'बहु' शब्दोंके अवग्रहमें तत आदि शब्दोंका ग्रहण माना है और 'बहुविध' शब्दोके अवग्रहमे भी तत आदि शब्दोंका ग्रहण माना है। तो उनमे क्या अन्तर है ?
समाधानः-जैसे वाचालता रहित कोई विद्वान बहुतसे शास्त्रोके विशेष २ अर्थ नही करता और एक सामान्य ( संक्षेप ) अर्थका ही प्रतिपादन करता है; अन्य विद्वान बहुतसे शास्त्रोंमें पाये जाने वाले एक दूसरेमें अंतर बताने वाले कई प्रकारके अर्थोका प्रतिपादन करते है। उसीप्रकार बहु और बहुविध दोनों प्रकारके अवग्रहमें सामान्यरूपसे तत आदि शब्दोंका ग्रहण है; तथापि जिस अवग्रहमे तत आदि शब्दोके एक, दो, चार, संख्यात, असंख्यात और अनंत प्रकारके भेदोका ग्रहण है अर्थात् अनेक प्रकारके भेद-प्रभेद युक्त तत आदि शब्दोका ग्रहण है वह बहुविध बहु प्रकारके शब्दोंको ग्रहण करने वाला अवग्रह कहलाता है; और जिस अवग्रहमें भेद प्रभेद रहित सामान्यरूपसे तत आदि शब्दोंका ग्रहण है वह बहु शब्दोंका अवग्रह कहलाता है।
२-चनु इन्द्रिय द्वारा वह-एक--जिस समय जीव विशुद्धिके बलसे सफेद काले हरे आदि रंगोंको ग्रहण करता है उस समय उसे 'बहु' पदार्थका अवग्रह होता है, और
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अध्याय १ सूत्र १६
७३ जव मंदताके कारण जीव एक वर्णको ग्रहण करता है तब उसे 'एक' पदार्थका प्रवाह होता है।
बहुविध-एकविध-जिस समय जीव विशुद्धिके बलसे शुक्ल कृष्णादि प्रत्येक वर्णके दो, तीन, चार, संख्यात, असंख्यात, और अनन्त भेद प्रभेदोंको ग्रहण करता है उससमय उसे 'बहुविध' पदार्थका अवग्रह होता है।
जिस समय मदताके कारण जीव शुक्ल कृष्णादि वर्णोमेसे एक प्रकारके वर्णको ग्रहण करता है उससमय उसे 'एकविध पदार्थका अवग्रह होता है।
क्षिप्र-अक्षिप्र-जिस समय जीव तीन क्षयोपशम ( विशुद्धि ) के बलसे शुक्लादि वर्णको जल्दी ग्रहण करता है उस समय उसे क्षिप्र पदार्थका अवग्रह होता है।
विशुद्धिकी मदताके कारण जिस समय जीव देरसे पदार्थको ग्रहण करता है उस समय उसके 'अक्षिप्र' पदार्थका अवग्रह होता है।
अनिःसृत-निःसृत-जिस समय जीव विशुद्धिके बलसे किसी पचरंगी वस्त्र या चित्रादिके एक बार किसी भागमेसे पांच रगोंको देखता है उस समय यद्यपि शेष भागकी पंचरंगीनता उसे-दिखाई नहीं दी है तथा उस समय उसके समक्ष पूरा वस्त्र बिना खुला हुआ (घडी किया हुआ ही) रखा है तथापि वह उस वस्त्रके सभी भागोंकी पंचरंगीनताको ग्रहण करता है, यह 'अनिःसृत' पदार्थका अवग्रह है।
जिस समय विशुद्धिकी मदताके कारण जीवके संमुख बाहर निकाल कर रखे गये पचरंगी वस्त्रके पॉचों रंगोंको जीव ग्रहण करता है उससमय उसे 'निःसृत' पदार्थका अवग्रह होता है ।।
अनुक्त-उक्त-सफेद-काले अथवा सफेद-पीले आदि रंगोंकी मिलावट करते हुए किसी पुरुषको देखकर ( वह इसप्रकारके रगोको मिलाकर अमुक प्रकारका रग तैयार करेगा ) इसप्रकार विशुद्धिके बलसे विना कहे ही जान लेता है, उस समय उसे 'अनुक्त' पदार्थका अवग्रह होता है । अथवा
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७४
मोक्षशास्त्र दूसरे देशमें बने हुए किसी पचरंगी पदार्थको कहते समय, कहनेवाला पुरुष कहनेका प्रयत्न ही कर रहा है कि उसके कहनेसे पूर्व ही विशुद्धिके बलसे जीव जिस समय उस वस्तुके पाँच रंगोंको जान लेता है उस समय उसके भी 'अनुक्त पदार्थका अवग्रह होता है।
विशुद्धिकी मंदताके कारण पचरंगी पदार्थको कहनेपर जिससमय जीव पांच रंगोको जान लेता है उससमय उसके 'उक्त पदार्थका अवग्रह होता है।
ध्रव-अध्रव-संक्लेश परिणाम रहित और यथायोग्य विशुद्धता सहित जीव जैसे सबसे पहिले रंगको जिस जिस प्रकारसे ग्रहण करता है उसीप्रकार निश्चलरूपसे कुछ समय वैसे ही उसके रंगको ग्रहण करना बना रहता है; कुछ भी न्यूनाधिक नहीं होता; उससमय उसके 'ध्रुव' पदार्थका अवग्रह होता है ।
बारम्बार होनेवाले संक्लेश परिणाम और विशुद्ध परिणामोंके कारण जीवके जिस समय कुछ प्रावरण रहता है और कुछ विकास भी रहता है तथा वह विकास कुछ उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट ऐसी दो दशाओमें रहता है तब, जिस समय कुछ हीनता और कुछ अधिकताके कारण चलविचलता रहती है उस समय उसके अध्रुव अवग्रह होता है । अथवा
कृष्णादि बहुतसे रगोंका जानना अथवा एक रंगको जानना, वहुविध रंगोंको जानना, या एकविध रंगको जानना, जल्दी रंगोंको जानना, या ढीलसे जानना, अनिःसृत रंगको जानना या निःसृत रंगको जानना, अनुक्तरूपको जानना या उक्तरूपको जानना; इसप्रकार जो चल-विचलरूप जीव जानता है सो अध्रुव अवग्रहका विषय है।
विशेष-समाधान-पागममें कहा है कि स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र और मन यह छह प्रकारका लब्ध्यक्षर श्रुतज्ञान है । लब्धिका अर्थ है क्षायोपशमिकरूप (विकासरूप ) शक्ति और 'अक्षर' का अर्थ है अविनाशी । जिस क्षायोपशमिक शक्तिका कभी नाश न हो, उसे लब्ध्यक्षर कहते हैं। इससे सिद्ध होता है कि अनिःसृत और अनुक्त पदार्थोंका भी
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अध्याय १ सूत्र १६
७५ अवग्रहादि ज्ञान होता है। लब्ध्यक्षर ज्ञान श्रुतज्ञानका अत्यन्त सूक्ष्म भेद है। जब इस ज्ञानको माना जाता है तब अनिःसृत और अनुक्त पदार्थोके अवग्रहादि माननेमें कोई दोष नहीं है।
३-४-५ घ्राणेन्द्रिय-रसनेन्द्रिय, और स्पर्शनेन्द्रिय
घ्राण-रसना और स्पर्शन इन तीन इन्द्रियोंके द्वारा उपयुक्त बारह प्रकारके अवग्रहके भेद श्रोत्र और चक्षु इन्द्रियकी भांति समझ लेना चाहिये।
ईहा-अवाय-और धारणा चालू सूत्रका शीर्षक 'अवग्रहादिके विषयभूत पदार्थ है; उसमे अवग्रहादिके कहने पर, जैसे बारह भेद अवग्रहके कहे है उसीप्रकार ईहाअवाय और धारणा ज्ञानोंका भी विषय मानना चाहिये।
शंका-समाधान शंका-जो इन्द्रियाँ पदार्थको स्पर्श करके ज्ञान कराती है वे पदार्थोंके जितने भागों ( अवयवों) के साथ सम्बन्ध होता है उतने ही भागोंका ज्ञान करा सकती हैं। अधिक अवयवोंका नही। श्रोत्र, घ्राण, स्पर्शन और रसना,-यह चार इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं, इसलिये वे जितने अवयवोके साथ संबद्ध होती हैं उतने ही अवयवोका ज्ञान करा सकती हैं, अधिकका नही; तथापि अनिःसृत और अनुक्तमे ऐसा नही होता, क्योकि वहाँ पदार्थोका एक भाग देख लेने या सुन लेनेसे समस्त पदार्थका ज्ञान माना जाता है इसलिये श्रोत्रादि चार इन्द्रियोसे जो अनि.सूत और अनुक्त पदार्योका अवग्रह ईहादि माना गया है वह व्यर्थ है।
समाधान-यह शंका ठीक नही है । जैसे चीटी आदि जीवोंकी नाक तथा जिह्वाके साथ गुड़ आदि द्रव्योका सम्बन्ध नहीं होता फिर भी उसकी गंध और रसका ज्ञान उन्हे हो जाता है, क्योकि वहाँ अत्यन्त सूक्ष्म (जिसे हम नहीं देख सकते ) गुड आदिके अवयवोके साथ चीटी आदि जीवोंकी नाक तथा जिह्वा आदि इन्द्रियोका एक दूसरेके साथ स्वाभाविक संयोग संबन्ध रहता है; उस सम्बन्धमे दूसरे पदार्थकी अपेक्षा नही रहती,
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मोक्षशास्त्र
इसलिये सूक्ष्म अवयवोंके साथ सम्बन्ध रहनेसे वह प्राप्त होकर ही पदार्थको ग्रहण करते है । इसीप्रकार अनिःसृत और अनुक्त पदार्थोके श्रवग्रह इत्यादि में भी अनिःसृत और अनुक्त पदार्थोंके सूक्ष्म अवयवोंके साथ श्रोत्र श्रादि इन्द्रियोंका अपनी उत्पत्तिमें परपदार्थोकी अपेक्षा न रखनेवाला स्वाभाविक संयोग सम्बन्ध है, इसलिये अनिःसृत और अनुक्त स्थलोंपर भी प्राप्त होकर इन्द्रिय पदार्थोका ज्ञान कराती हैं; अप्राप्त होकर नहीं ।
इस सूत्र के अनुसार मतिज्ञानके भेदोंकी संख्या निम्न प्रकार है
अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा, = ४ पाँच इन्द्रिय और मन
= ६
उपरोक्त छह प्रकारके द्वारा चार प्रकारसे ज्ञान ( ४x६ ) =२४ तथा विषयोंकी अपेक्षासे बहु बहुविध आदि बारह = ( २४ × १२ ) = २८८ भेद हैं ॥ १६ ॥
उपरोक्त अत्रग्रहादिके विषयभूत पदार्थ भेद किसके हैं ?
अर्थस्य ॥१७॥
अर्थ — उपरोक्त बारह अथवा २८८ मेद [ अर्थस्य ] पदार्थके ( द्रव्यके वस्तुके ) हैं ।
टीका
यह भेद व्यक्त पदार्थके कहे हैं; अव्यक्त पदार्थके लिये अठारहवाँ सूत्र कहा है ।
यदि कोई कहे कि - 'रूपादि गुरण ही इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण किये जा सकते हैं; इसलिये रूपादि गुरणोंका ही अवग्रह होता है, न कि द्रव्योंका' । तो यह कहना ठीक नही है; -यह यहाँ बताया गया है । 'इन्द्रियोके द्वारा रूपादि जाने जाते है' यह कहने मात्रका व्यवहार है; रूपादि गुरण द्रव्यसे प्रभिन्न है इसलिये ऐसा व्यवहार होता है कि 'मैंने रूपको देखा या मैंने गंध
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अध्याय १ सूत्र १८ को 'सूघा'; किन्तु गुण-पर्याय द्रव्यसे भिन्न नहीं है इसलिये पदार्थका ज्ञान होता है । इन्द्रियोंका सम्बन्ध पदार्थके साथ होता है,। मात्र.गुण-पर्यायोंके साथ नहीं होता ॥ १७ ॥
अवग्रह ज्ञानमें विशेषता
व्यंजनस्यावग्रहः ॥ १८ ॥ मर्थ-[व्यंजनस्य] अप्रगटरूप शब्दादि पदार्थोका [प्रवग्रहः] मात्र अवग्रह ज्ञान होता है-ईहादि तीन ज्ञान नहीं होते।
टीका
अवग्रहके दो भेद हैं-(१) व्यंजनावग्रह (२) अर्थावग्रह ।
व्यंजनावग्रह-अव्यक्त-अप्रगट पदार्थके अवग्रहको व्यंजनावग्रह कहते हैं। अर्थावग्रह-व्यक्त-प्रगट पदार्थके अवग्रहको अर्थावग्रह कहते हैं ।
अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रहके दृष्टांत (१) पुस्तकका शरीरकी चमड़ीसे स्पर्श हुआ तब ( उस वस्तुका ज्ञान प्रारंभ होने पर भी ) कुछ समय तक वह ज्ञान अपनेको प्रगट रूप नही होता, इसलिये जीवको उस पुस्तकका ज्ञान अव्यक्त-अप्रगट होनेसे उस ज्ञानको व्यंजनावग्रह कहा जाता है ।
(२) पुस्तक पर दृष्टि पड़ने पर पहिले जो ज्ञान प्रगटरूप होता है, वह व्यक्त अथवा प्रगट पदार्थका अवग्रह ( अर्थावग्रह ) कहलाता है।
व्यंजनावग्रह चक्षु और मनके अतिरिक्त चार इन्द्रियोंके द्वारा होता है, व्यंजनावग्रहके बाद ज्ञान प्रगटरूप होता है उसे अर्थावग्रह कहते हैं। चक्षु और मनके द्वारा अर्थावग्रह होता है ।
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मोक्षशास्त्र
'अव्यक्त' का अर्थ
जैसे मिट्टीके कोरे घड़ेको पानीके छींटे डालकर भिगोना प्रारंभ किया जाय तो थोड़े छीटे पड़ने पर भी वे ऐसे सूख जाते हैं कि देखनेवाला उस स्थानको भीगा हुआ नही कह सकता, तथापि युक्तिसे तो वह 'भीगा हुआ ही है,' यह बात मानना ही होगी, इसीप्रकार कान, नाक, जीभ और त्वचा यह चार इन्द्रियाँ अपने विषयोके साथ भिड़ती हैं तभी ज्ञान उत्पन्न होता है, इसलिये पहिले ही, कुछ समय तक विषयका मंद संबंध रहनेसे ज्ञान ( होने का प्रारंभ हो जाने पर भी ) प्रगट मालूम नहीं होता, तथापि विषय का संबंध प्रारंभ हो गया है इसलिये ज्ञानका होना भी प्रारंभ हो गया हैयह बात युक्तिसे अवश्य मानना पड़ती है । उसे ( उस प्रारंभ हुए ज्ञानको) अव्यक्तज्ञान अथवा व्यंजनावग्रह कहते हैं ।
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जब व्यंजनावग्रहमें विषयका स्वरूप ही स्पष्ट नही जाना जाता तब फिर विशेषताकी शंका तथा समाधानरूप ईहादि ज्ञान तो कहाँसे हो सकता है ? इसलिये अव्यक्तका अवग्रहमात्र ही होता है । ईहादि नही होते ।
'व्यक्त' का अर्थ
मन तथा चक्षुके द्वारा होनेवाला ज्ञान विषयके साथ संबद्ध (स्पर्शित ) होकर नही हो सकता किन्तु दूर रहनेसे ही होता है, इसलिये मन और चक्षुके द्वारा जो ज्ञान होता है वह 'व्यक्त' कहलाता है । चक्षु तथा मनके द्वारा होनेवाला ज्ञान श्रव्यक्त कदापि नही होता, इसलिये उसके द्वारा श्रर्थावग्रह ही होता है ।
अव्यक्त और व्यक्त ज्ञान
उपरोक्त श्रव्यक्त ज्ञानका नाम व्यजनावग्रह है । जबसे विषयकी व्यक्तता भासित होने लगती है तभीसे उस ज्ञानको व्यक्तज्ञान कहते हैं, उसका नाम अर्थावग्रह है । यह अर्थावग्रह ( अर्थ सहित अवग्रह ) सभी इन्द्रियो तथा मनके द्वारा होता है ।
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अध्याय १ सूत्र १८
ईहा अर्थावग्रहके बाद ईहा होता है अर्थावग्रह ज्ञानमें किसी पदार्थकी जितनी विशेषता भासित हो चुकी है उससे अधिक जाननेकी इच्छा हो तो वह ज्ञान सत्यकी ओर अधिक झुकता है, उसे ईहाज्ञान कहा जाता है। वह (ईहा) सुदृढ़ नही होता । ईहामे प्राप्त हुए सत्य विषयका यद्यपि पूर्ण निश्चय नही होता तथापि ज्ञानका अधिकांश वहाँ होता है। वह ( ज्ञानके -अधिकांश ) विषयके सत्यार्थग्राही होते हैं, इसलिये ईहाको सत्य ज्ञानोंमें गिना गया है।
अवाय - अवायका अर्थ निश्चय अथवा निर्णय होता है ईहाके बादके काल तक ईहाके विषय पर लक्ष रहे तो ज्ञान सुदृढ़ हो जाता है; और उसे अवाय कहते हैं । ज्ञानके अवग्रह, ईहा, और अवाय इन तीनों भेदोमे से अवाय उत्कृष्ट अथवा सर्वाधिक विशेषज्ञान है।
धारणा धारणा अवायके बाद होती है। किन्तु उसमें कुछ अधिक दृढता उत्पन्न होनेके अतिरिक्त अन्य विशेषता नही है, धारणाकी सुदृढ़ताके कारण एक ऐसा संस्कार उत्पन्न होता है कि जिसके हो जानेसे पूर्वके अनुभवका स्मरण हो सकता है।
एकके बाद दूसरा ज्ञान होता ही है या नहीं ? अवग्रह होनेके बाद ईहा हो या न हो, और यदि अवग्रहके बाद ईहा हो तो एक ईहा ही होकर छूट जाता है और कभी कभी अवाय भी होती है । अवाय होनेके बाद धारणा होती है और नही भी होती।
ईहाज्ञान सत्य है या मिथ्या ? जिस ज्ञानमे दो विषय ऐसे आ जाय जिनमे एक सत्य हो और दूसरा मिथ्या, तो (ऐसे समय) जिस अश पर ज्ञान करनेका अधिक ध्यान
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मोक्षशास्त्र
हो तदनुसार उस ज्ञानको सत्य या मिथ्या मान लेना चाहिये । जैसे- एक चन्द्रमा के देखने पर यदि दो चन्द्रमाका ज्ञान हो और वहाँ यदि देखनेवाले का लक्ष केवल चन्द्रमाको समझ लेनेकी ओर हो तो उस ज्ञानको सत्य मानना चाहिये, और यदि देखनेवालेका लक्ष एक या दो ऐसी संख्या निश्चित करने की ओर हो तो उस ज्ञानको असत्य ( मिथ्या ) मानना चाहिये ।
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इस नियम अनुसार ईहामें ज्ञानका अधिकांश विषयका सत्यांशग्राही ही होता है इसलिये ईहाको सत्यज्ञान में माना गया है ।
'धारणा' और 'संस्कार' संबंधी स्पष्टीकरण
शंका- धारणा किसी उपयोग ज्ञानका नाम है या संस्कारका ? शंकाकारका तर्क यदि उपयोगरूप ज्ञानका नाम धारणा हो तो
वह धारणा स्मरणको उत्पन्न करनेके लिये समर्थ नही हो सकती, क्योंकि कार्य कारणरूप पदार्थोंमें परस्पर कालका अंतर नही रह सकता । धारणा कब होती है और स्मरण कब, इसमें कालका बहुत बड़ा अंतर पड़ता है । यदि उसे (धारणाको ) संस्काररूप मानकर स्मरणके समय तक विद्यमान मानने की कल्पना करें तो वह प्रत्यक्षका मेद नही होता; क्योकि संस्काररूप ज्ञान भी स्मरणकी अपेक्षासे मलिन है; स्मरण उपयोगरूप होनेसे अपने समयमें दूसरा उपयोग नही होने देता और स्वयं कोई विशेषज्ञान उत्पन्न करता है, किन्तु धारणाके संस्काररूप होनेसे उसके रहने पर भी अन्यान्य अनेक ज्ञान उत्पन्न होते रहते है, और स्वयं वह धारणा तो अर्थ का ज्ञान ही नही करा सकती ।
[ यह शंकाकारका तर्क है उसका समाधान करते हैं ]
समाधान- 'धारणा' उपयोगरूप ज्ञानका भी नाम है और संस्कार का भी नाम है | धारणाको प्रत्यक्ष ज्ञानमें माना है और उसकी उत्पत्ति भी अवायके बाद हो होती है; उसका स्वरूप भी अवायकी अपेक्षा अधिक दृढरूप है; इसलिये उसे उपयोगरूप ज्ञानमे गर्भित करना चाहिए ।
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अध्याय १ सूत्र:१६
८१ वह धारणा स्मरणको- उत्पन्न करती है, और कार्यके पूर्वक्षणमें कारण रहना ही चाहिये. इसलिये उसे. संस्काररूप भी कह सकते हैं। तात्पर्य यह है कि जो स्मरणके समयतक रहता है। उसे किसी किसी जगह धारणासे पृथकू. गिनाया है और किसी र जगह धारणाके नामसे कहा है। धारणा तथा उस संस्कारमें कारण-कार्य सम्बन्ध है। - इसलिये जहाँ भेद, विवक्षा मुख्य होती है वहाँ भिन्न गिने जाते है और जहाँ अभेद-विवक्षा मुख्य होती है वहाँ भिन्न न गिनकर केवल धारणाको ही स्मरणका कारण
चार-भेदोंकी विशेषताः
इसप्रकार अवग्रह, ईहा, अवाय.और धारणा यह चार मतिज्ञानके भेद हैं; उसका स्वरूप उत्तरोत्तर, तरतम-अधिक अधिक शुद्ध होता है और उसे पूर्व २ ज्ञानका कार्य समझना चाहिये । एक विषयकी- उत्तरोत्तर विशेषता उसके द्वारा जानी जाती है, इसलिये उन चारों.ज्ञानोंको एक ही ज्ञानके विशेष प्रकार भी कह सकते है। मति स्मृति-आदिकी भाँति उसमें कालका असम्बन्ध नही है तथा बुद्धि मेधादिकी भाँति विषयका असम्बन्ध भी नही है ।।१८॥
न चक्षुरनिन्द्रियाभ्यामः ॥१६ अर्थ-व्यंजनावग्रह [ चक्षुः प्रनिन्द्रियाभ्याम् ] नेत्र और मनसे [न] नही होता।
टीकामतिज्ञानके २८८ भेद सोलहवें सूत्र में कहे गये हैं, और व्यंजनावग्रह चार इन्द्रियोंके द्वारा होता है, इसलिये उसके बहु बहुविध- आदि वारह भेद होने पर अड़तालीस भेद हो जाते है. इसप्रकार मतिज्ञानके ३३६ प्रभेद होते हैं ॥ १६॥
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मोक्षशास्त्र
श्रुतज्ञानका वर्णन, उत्पत्तिका क्रम तथा उसके भेद श्रुतं मतिपूर्वं द्वयनेकद्वादशभेदम् ॥२०॥
अर्थ- [ श्रुतम् ] श्रुतज्ञान [ मतिपूर्व ] मतिज्ञान पूर्वक होता है अर्थात् मतिज्ञानके बाद होता है, वह श्रुतज्ञान [ द्व्यनेकद्वादशभेदम् ] दो, अनेक और बारह भेदवाला है ।
८२
टीका
(१) सम्यग्ज्ञानका विषय चल रहा है, [ यह सम्यक् श्रुतज्ञानसे सम्बन्ध रखनेवाला सूत्र है, मिथ्या श्रुतज्ञानके सम्बन्धमें ३१ वाँ सूत्र कहा है ।
---
देखो सूत्र e ] इसलिये
ऐसा समझना चाहिये ।
(२) श्रुतज्ञान --- मतिज्ञानसे ग्रहण किये गये पदार्थसे, उससे भिन्न पदार्थ ग्रहण करनेवाला ज्ञान श्रुतज्ञान है । जैसे—
१- -सद्गुरुका उपदेश सुनकर आत्माका यथार्थ ज्ञान होना । इसमें उपदेश सुनना मतिज्ञान है; और फिर विचार करके श्रात्माका भान प्रगट करना श्रुतज्ञान है ।
२ -- शब्द से घटादि पदार्थोको जानना । इसमें घट शब्दका सुनना मतिज्ञान है, और उससे घट पदार्थका ज्ञान होना श्रुतज्ञान है । इसमें धुवेको आँखसे देखकर और घुर्वेसे अग्निका अनुमान
३-- -घुवेंसे अग्निका ग्रहण करना । जो ज्ञान हुआ सो मतिज्ञान है; करना सो श्रुतज्ञान है ।
४ -- एक मनुष्यने 'जहाज' शब्द सुना सो यह मतिज्ञान है । पहिले जहाजके गुण सुने अथवा पढ़े थे; तत्सम्बन्धी ( 'जहाज ' शब्द सुनकर ) जो विचार करता है सो श्रुतज्ञान है ।
(३) मतिज्ञानके द्वारा जाने हुए विषयका अवलम्बन लेकर जो उत्तर तर्कणा ( दूसरे विषयके सम्बन्धमे विचार ) जीव करता है सो श्रुतज्ञान है | श्रुतज्ञानके दो भेद हैं- ( १ ) अक्षरात्मक, (२) अनक्षरात्मक ।
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अध्याय १ सूत्र २० "आत्मा" शब्दको सुनकर आत्माके गुणोंको हृदयमें प्रगट करना सो अक्षरात्मक श्रुतज्ञान है । अक्षर और पदार्थमें वाचक-वाच्य सम्बन्ध है। 'वाचक' शब्द है उसका ज्ञान मतिज्ञान है, और उसके निमित्तसे 'वाच्य' का ज्ञान होना सो श्रुतज्ञान है । परमार्थसे ज्ञान कोई अक्षर नहीं है; अक्षर तो जड़ हैं; वह पुलस्कन्धकी पर्याय है, वह निमित्त मात्र है । 'अक्षरात्मक श्रुतज्ञान' कहने पर कार्यमें कारणका ( निमित्तका ) मात्र उपचार किया गया समझना चाहिए।
(४) श्रुतज्ञान ज्ञानगुणकी पर्याय है; उसके होनेमें मतिज्ञान निमित्तमात्र है । श्र तज्ञानसे पूर्व ज्ञानगुणकी मतिज्ञानरूप पर्याय होती है, और उस उपयोगरूप पर्यायका व्यय होने पर श्रु तज्ञान प्रगट होता है, इसलिये मतिज्ञानका व्यय श्रुतज्ञानका निमित्त है; वह 'अभावरूप निमित्त' है, अर्थात् मतिज्ञान का जो व्यय होता है वह श्र तज्ञानको उत्पन्न नही करता; किन्तु श्रु तज्ञान तो अपने उपादान कारणसे उत्पन्न होता है । ( मतिज्ञानसे श्रुतज्ञान अधिक विशुद्ध होता है।)
(५) प्रश्न-जगतमे कारणके समान ही कार्य होता है; इसलिये मतिज्ञानके समान ही श्र तज्ञान होना चाहिये ?
उत्तर-उपादान कारणके समान कार्य होता है; निमित्त कारणके समान नही । जैसे घटकी उत्पत्तिमें दण्ड, चक्र, कुम्हार, आकाश, इत्यादि निमित्त कारण होते हैं, किन्तु उत्पन्न हुआ घट उन दण्ड चक्र कुम्हारा
आकाश आदिके समान नही होता, किन्तु वह भिन्न स्वरूप ही (मिट्टीके स्वरूप ही ) होता है। इसीप्रकार श्रु तज्ञानके उत्पन्न होनेमे मति नाम (केवल नाम ) मात्र बाह्य कारण है; और उसका स्वरूप श्रु तज्ञानसे भिन्न है। .
(६) एकबार श्रु तज्ञानके होने पर फिर जब विचार प्रलम्बित होता है । तब दूसरा श्रु तज्ञान मतिज्ञानके वीचमे आये बिना भी उत्पन्न हो जाता है।
प्रश्न-ऐसे श्रु तज्ञानमें 'मतिपूर्व' इस सूत्रमे दी गई व्याख्या कैसे लागू होती है ?
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८४
मोक्षशास्त्र ' उत्तर-उसमें पहिला श्रु तज्ञान मतिपूर्वक हुआ था इसलिये दूसरा' श्रु तज्ञान भी मतिपूर्वक है ऐसा उपचार किया जा सकता है। सूत्रमें 'पूर्व' पहिले 'साक्षात्' शब्दका प्रयोग नहीं किया है, इसलिये यह समझना चाहिये कि श्रु तज्ञान साक्षात् मतिपूर्वक और परम्परामर्तपूर्वक-ऐसे दो प्रकारसे होता है। __ (७) भावश्रुत और द्रव्यश्रुत
श्रु तज्ञानमे तारतम्यकी अपेक्षासे भेद होता है; और उसके निमित्त में भी भेद होता है। भावत और द्रव्यश्र त इन दोनोंमे दो अनेक और बारह भेद होते हैं । भविश्रतको भावांगम भी कह सकते हैं। और उसमें द्रव्यागम निमित्त होता है । द्रव्यागम (श्रत ) के दो भेद है; (१) अङ्ग प्रविष्ट और (२) अङ्गबाह्य । अङ्ग प्रविष्टके बारह भेद है।
(८) अनक्षरात्मक और अक्षरात्मक श्रुतज्ञान- .
अनक्षरात्मक श्र तंज्ञानके दो भेद है-पर्यायज्ञान और पर्यायसमास । सूक्ष्मनिगोदिया जीवके उत्पन्न होते समय जो-पहिले ‘समयमे सर्व जघन्य श्र तज्ञान होता है सो पर्याय ज्ञान है । दूसरा भेद पर्यायसमास है। सर्वजघन्यज्ञानसे अधिक ज्ञानको पर्यायसमास कहते हैं। [ उसके असंख्यात लोक प्रमाण भेद है ] निगोदिया जीवके सम्यक् श्रु तज्ञान नही होता; किन्तु मिथ्याश्रत होता है। इसलिये यह दो भेद सामान्य श्र तज्ञानकी अपेक्षा से कहे है ऐसा समझना चाहिये।
(९) यदि सम्यक् और मिथ्या ऐसे दो भेद न करके-सामान्य मति तज्ञानका विचार करे तो प्रत्येक छद्मस्थ जीवके मति और श्रुतज्ञान' होता है। स्पर्शके द्वारा किसी वस्तुका ज्ञान होना सो मतिज्ञान है; और उसके सम्बन्धसे ऐसा ज्ञान होना कि 'यह हितकारी नही है या है' सो श्रु तज्ञान है, वह अनक्षरात्मक श्रु तज्ञान है । एकेन्द्रियादि असैनी जीवोंके अनक्षरात्मक श्रु तज्ञान ही होता है । सैनीपंचेन्द्रिय जीवोके दोनों प्रकारका श्र तज्ञान होता है।
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श्रध्याय १ सूत्र २०
८५०
(१०) प्रमाणके दो प्रकार
प्रमाण दो प्रकारका है - ( १ ) स्वार्थप्रमाण, ( २ ) परार्थं प्रमाण | स्वार्थप्रमारण ज्ञानस्वरूप हैं और परार्थ प्रमाण वचनरूप है । श्रुतके अतिरिक्त चार ज्ञान स्वार्थप्रमाण हैं । श्रुतप्रमाण स्वार्थ- परार्थ- दोनों रूप है; इसलिये वह ज्ञानरूप और वचनरूप है । श्रुत उपादान है और वचन उसका निमित्त है । [ विकल्पका समावेश वचनमें हो जाता है । ] श्रुतप्रमाणका अंश 'नय' है ।
[ देखो पंचाध्यायी भाग १ पृष्ठ ३४४ पं० देवकीनन्दनजी कृत और जैन सिद्धान्त दर्पण पृष्ठ - २२, राजवार्तिक पृष्ठ १५३, सर्वार्थसिद्धि अध्याय एक सूत्र ६ पृष्ठ ५६ ] . (११) 'श्रुत' का अर्थ
श्रुतका अर्थ होता है 'सुना हुआ विषय' अथवा 'शब्द' । यद्यपि श्रुतज्ञान मतिज्ञानके बाद होता है तथापि उसमें वर्णनीय तथा शिक्षा योग्य सभी विषय आते हैं; और वह सुनकर जाना जा सकता है; इसप्रकार श्रुतज्ञानमे श्रुतका ( शब्दका ) सम्बन्ध मुख्यतासे है, इसलिये श्रुतज्ञानको शास्त्रज्ञान ( भावशास्त्रज्ञान ) भी कहा जाता है । (शब्दोंको सुनकर जो श्रुतज्ञान होता है उसके अतिरिक्त अन्य प्रकारका भी श्रुतज्ञान होता है ।) सम्यग्ज्ञानी पुरुषका उपदेश सुननेसे पात्र जीवोको श्रात्माका यथार्थ ज्ञान हो सकता है, इस अपेक्षासे उसे श्र ुतज्ञान कहा जाता है ।
(१२) रूढ़िके बलसे भी मतिपूर्वक होनेवाले इस विशेष ज्ञानको 'श्रुतज्ञान' कहा जाता है ।
(१३) श्रुतज्ञानको वितर्क भी कहते हैं । [ अध्याय १ सूत्र ३६] (१४) अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य
अंगप्रविष्टके बारह भेद हैं- (१) आचारांग (२) सूत्रकृतांग (३) स्थानांग (४) समवायांग ( ५ ) व्याख्याप्रज्ञप्ति अग (६) ज्ञातृधर्म कथाग (७) उपासकाध्ययनाग (८) अंतःकृतदशांग ( ६ ) अनुत्तरौपपादिकाग (१०) प्रश्नव्याकरणांग (११) विपाकसूत्रांग और (१२) दृष्टिप्रवादाग
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मोक्षशास्त्र
अंगबाह्य श्रुतमें चौदह प्रकीर्णक होते हैं । इन बारह अंग और चौदह पूर्व की रचना, जिस दिन तीर्थकर भगवानकी दिव्यध्वनि खिरती है तब भावश्र तरूप पर्यायसे परिणत गणधर भगवान एक ही मुहूर्त में क्रमसे करते हैं ।
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(१५) यह सब शास्त्र निमित्तमात्र है, भावश्र तज्ञानमें उसका अनुसरण करके तारतम्य होता है, ऐसा समझना चाहिये ।
-
(१६) मति और श्रुतज्ञानके बीच का भेद
प्रश्न - जैसे मतिज्ञान इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होता है उसीप्रकार श्र ुतज्ञान भी इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होता है, तब फिर दोनोंमें अन्तर क्या है ?
-
शंकाकार के कारण- - इन्द्रिय और मनसे मतिज्ञानकी उत्पत्ति होती यह प्रसिद्ध है, और श्रुतज्ञान वक्ताके कथन और श्रोताके श्रवणसे उत्पन्न होता है, इसलिये वक्ताकी जीभ और श्रोताके कान तथा मन श्रुतज्ञानकी उत्पत्तिमें कारण हैं; इसप्रकार मति श्रत दोनोंके उत्पादक कारण इन्द्रिय और मन हुए, इसलिये उन दोनोको एक मानना चाहिए ।
उतर - मतिज्ञान और श्र ुतज्ञानको एक मानना ठीक नही है । मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों इन्द्रियों और मनसे उत्पन्न होते है यह हेतु प्रसिद्ध है, क्योकि जीभ और कानको श्र ुतज्ञानकी उत्पत्तिमे कारण मानना भूल है । जीभ तो शब्दका उच्चारण करनेमें कारण है, श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति मे नहीं । कान भी जीवके होनेवाले मतिज्ञानकी उत्पत्तिमें कारण हैं, श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति में नही, इसलिये श्र ुतज्ञानकी उत्पत्तिमें दो इन्द्रियोंको कारण बताना, और मति तथा श्रुतज्ञान दोनोंको इन्द्रियों और मनसे उत्पन्न कहकर दोनो की एकता मानना मिथ्या है । वे दो इन्द्रियाँ श्र ुतज्ञानमें निमित्त नही हैं, इसप्रकार मति और श्रुतज्ञानको उत्पत्तिके काररणमें भेद है । मतिज्ञान इन्द्रियों और मनके कारण उत्पन्न होता है, और जिस पदार्थका इन्द्रियों तथा मनके द्वारा मतिज्ञानसे निर्णय हो जाता है उस
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अध्याय १ सूत्र २०
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पदार्थका मनके द्वारा जिस विशेषतासे ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है, इसलिये दोनों ज्ञान एक नही किन्तु भिन्न २ है |
विशेष स्पष्टीकरण -
१ - इंद्रिय और मनके द्वारा यह निश्चय किया कि यह 'घट' है सो यह मतिज्ञान है, तत्पश्चात् उस घड़ेसे भिन्न, अनेक स्थलों और अनेक कालमे रहनेवाले अथवा विभिन्न रंगोंके समान जातीय दूसरे घड़ों का ज्ञान करना श्रुतज्ञान है । एक पदार्थको जाननेके बाद समान जातीय दूसरे प्रकारको जानना सो श्रुतज्ञानका विषय है । अथवा -
२ - इन्द्रिय और मनके द्वारा जो घटका निश्चय किया, तत्पश्चात् उसके भेदोका ज्ञान करना सो श्रुतज्ञान है, जैसे-अमुक घड़ा, अमुक रंगका है, अथवा घड़ा मिट्टीका है, ताबेका है, पीतलका है; इसप्रकार इन्द्रिय और मनके द्वारा निश्चय करके उसके भेद प्रभेदको जाननेवाला ज्ञान श्रुतज्ञान है । उसी ( मतिज्ञानके द्वारा जाने गये) पदार्थके भेद प्रमेद का ज्ञान भी श्रुतज्ञान है । अथवा-
३- 'यह जीव है' या 'यह अजीव है' ऐसा निश्चय करनेके बाद जिस ज्ञानसे सत् - संख्यादि द्वारा उसका स्वरूप जाना जाता है वह श्रुतज्ञान है; क्योकि उस विशेष स्वरूपका ज्ञान इन्द्रिय द्वारा नही हो सकता, इसलिये वह मतिज्ञानका विषय नही किन्तु श्रुतज्ञानका विषय है । जीव-अजीवको जाननेके बाद उसके सत्संख्यादि विशेषोका ज्ञानमात्र मनके निमित्तसे होता है । मतिज्ञानमे एक पदार्थके अतिरिक्त दूसरे पदार्थका या उसी पदार्थ के विशेषोंका ज्ञान नही होता; इसलिये मतिज्ञान और श्रुतज्ञान भिन्न भिन्न हैं । अवग्रहके बाद ईहाज्ञानमें उसी पदार्थका विशेष ज्ञान है और ईहाके बाद अवायमें उसी पदार्थका विशेष ज्ञान है; किन्तु उसमे ( ईहा या अवाय, में ) उसी पदार्थके भेद प्रभेदका ज्ञान नही है, इसलिये वह मतिज्ञान हैश्रुतज्ञान नही । (अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा मतिज्ञानके भेद हैं । ) सूत्र ११ से २० तकका सिद्धांत
जीवको सम्यग्दर्शन होते ही सम्यक्मति और सम्यक् तज्ञान होता
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मोक्षशास्त्र है। सम्यग्दर्शन कारण है और सम्यग्ज्ञान कार्य, ऐसा समझना चाहिये। यह जो सम्यक्मति और श्र तज्ञानके भेदे दिये गये हैं वे ज्ञान विशेप निर्म लता होनेके लिये दिये गये है; उन भेदोंमे अटककर रागमें लगे रहनेके लिये नहीं दिये गये हैं। इसलिये उन भेदोंका स्वरूप जानकर जीवको अपने त्रैकालिक अखंड अभेद चैतन्य स्वभावकी ओर उन्मुख होकर निर्विकल्प होनेकी आवश्यकता है ॥ २० ॥
अवधिज्ञानका वर्णन भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणाम् ॥ २१॥
अर्थ:-[ भवप्रत्यया ] भवप्रत्यय नामक [ अवधिः ]-अवधिज्ञान [देवनारकांणाम् '] 'देव और नारकियोके होता है ।।
टीका (१) अवधिज्ञानके दो भेद हैं (१) भवप्रत्यय, (२)गुण प्रत्यय । प्रत्यय, कारण और निमित्त तीनों एकार्थ वाचक शब्द हैं । यहाँ 'भवप्रत्यय' शब्द बाह्य निमित्तकी अपेक्षासे कहा है, अंतरंग निमित्त तो प्रत्येक प्रकारके अवधिज्ञानमें अवधिज्ञानावरणीय कर्मका. क्षयोपशम होता है।
(२) देव और नारक पर्यायके धारण करनेपर जीव को जो अवधिर ज्ञान उत्पन्न होता हैं वह भवप्रत्यय'कहलाता है। जैसे पक्षियोमें जन्मका होनी ही आकाशमे गमनका निमित्त होता है, न कि शिक्षा, उपदेश, जपतप इत्योंदि; इसीप्रकार नारकी और देवकी पर्यायमें उत्पत्ति मात्रसे अवविज्ञान प्राप्त होता है। यहाँ सम्यग्ज्ञानका विषय है फिर भी सम्यक् यां मिथ्यांका भेद किये बिना सामान्य अवधिज्ञानके लिये भवप्रत्यय शब्द दिया गया है।]
(३) भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव नारकी तथा तीर्थकरोके (गृहस्थदशामे), होता है, वह नियमसे देशावधि होता है, वह समस्तप्रदेशसे. उत्पन्न होता है।
(४) 'गुणप्रत्यय'-किसी विशेष पर्याय (भव) की अपेक्षा न करके जीवके पुरुषार्थ द्वारा जो अवधिज्ञान उत्पन्न होता है वह गुणप्रत्यय अथवा क्षयोपशमनिमित्तक कहलाता है ।। २१ ।।
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अध्याय १ सूत्र २२
क्षयोपशमनिमिas अवधिज्ञानके भेद तथा उनके स्वामीक्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम् || २२ ||
श्रथं-- [ क्षयोपशमनिमित्तः ] क्षयोपशमनैमित्तक अवधिज्ञान [ षड्विकल्पः ] अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनवस्थित-ऐसे छह भेदवाला है, श्रौर वह [ शेषाणाम् ] मनुष्य तथा तियंचोंके होता है |
८६
टीका
(१) अनुगामी जो अवधिज्ञान सूर्यके प्रकाशकी भांति जीवके साथ ही साथ जाता है उसे अनुगामी कहते हैं ।
--
अननुगामी- - जो अवधिज्ञान जीवके साथ ही साथ नही जाता उसे अनुगामी कहते है |
-
वर्धमान – जो अवधिज्ञान शुक्ल पक्ष के चन्द्रमाकी कलाकी भांति बढ़ता रहे उसे वर्धमान कहते है ।
हीयमान - जो श्रवधिज्ञान कृष्ण पक्षके चन्द्रमाको कलाके माफिक घटता रहे उसे हीयमान कहते है ।
अवस्थित — जो अवधिज्ञान एकसा रहे, न घटे न बढे उसे अवस्थित कहते है ।
अनवस्थित--जो पानीकी तरंगोको भाँति घटता बढता रहे, एकसा न रहे उसे अनवस्थित कहते हैं ।
( २ ) यह अवधिज्ञान मनुष्योंको होता है ऐसा कहा गया है, तीर्थंकरोको नही लेना चाहिए, उनके अतिरिक्त अन्य मनुष्योको मना चाहिए, वह भी बहुत थोड़ेसे मनुष्योको होता है । इस प्रति 'गुणप्रत्यय' भी कहा जाता है । वह नाभिके ऊपर दस, पद्म, स्व कलश, मछली आदि शुभ चिह्नोंके द्वारा होता है ।
१२
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मोक्षशास्त्र
(३) अवधिज्ञानके प्रतिपाति, x प्रतिपाति, देशावधि, परमावधि और सर्वावधि भेद भी है ।
६०
(४) जघन्य - देशावधि संयत तथा असंयत मनुष्यों और तियंचोंके होता है । देव - नारकीको नही होता ) उत्कृष्ट देशावधि सयत भावमुनिके ही होता है - अन्य तीर्थंकरादि गृहस्थ- मनुष्य, देव, नारकीके नही होता; उनके देशावधि होता है ।
(५) देशावधि उपरोक्त ( पैरा १ में कहे गये ) छह प्रकार तथा प्रतिपाति और अप्रतिपाति ऐसे आठ प्रकार का होता है ।
परमावधि - अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, अवस्थित, अनवस्थित और प्रतिपाति होता है ।
(६) अवधिज्ञान रूपी - पुद्गल तथा उस पुगलके सम्बन्धवाले संसारी जीव ( के विकारी भाव ) को प्रत्यक्ष जानता है ।
(७) द्रव्य अपेक्षासे जघन्य अवधिज्ञानका विषय एक जीवके श्रीदारिक शरीर संचयके लोकाकाश-प्रदेश प्रमाण- खंड करने पर उसके एक खंड तकका ज्ञान होता है ।
द्रव्यापेक्षा से सर्वावधिज्ञानका विषय -- एक परमाणु तक जानता है [ देखो सूत्र २८ की टीका ]
द्रव्यापेक्षा से मध्यम अवधिज्ञानका विषय जघन्य और उत्कृष्टके बीचके द्रव्योंके भेदोको जानता है ।
क्षेत्रापेक्षा जघन्य अवधिज्ञानका विषय उत्सेधांगुलके [ आठ यव मध्यके ] असख्यातवें भाग तकके क्षेत्रको जानता है ।
---
क्षेत्र अपेक्षासे उत्कृष्ट अवधिज्ञानका विषय – असंख्यात लोकप्रमाण तक क्षेत्रको जानता है ।
* प्रतिपाति = जो गिर जाता है । x श्रप्रतिपाति = जो नही गिरता । ÷ जघन्य = सबसे कम ।
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अध्याय १ सूत्र २२ क्षेत्र अपेक्षासे मध्यम अवधिज्ञानका विषय-जघन्या और उत्कृष्टके बीचके क्षेत्र भेदोंको जानता है।
कालापेक्षासें जघन्य अवधिज्ञानका विषय-प्रावलीके असंख्यात भाग प्रमाण भूत और भविष्यको जानता है।
कालापेक्षासे उत्कृष्ट अवधिज्ञानका विषय-असंख्यात लोक प्रमाण अतीत और अनागतकालको जानता है।
___ कालापेक्षासे मध्यम अवधिज्ञानका विषय-जघन्य और उत्कृष्टके बीचके काल भेदोंको जानता है।
भाव अपेक्षासे अवधिज्ञानका विषय-पहिले द्रव्य प्रमाण, निरूपण किये गये द्रव्योकी शक्तिको जानता है।
श्री धवला पुस्तक १ पृष्ठ ६३-६४ ] (८) कर्मका क्षयोपशम निमित्त मात्र है, अर्थात् जीव अपने पुरुषार्थसे अपने ज्ञानकी विशुद्ध अवधिज्ञान पर्यायको प्रगट करता है उसमे 'स्वयं' ही कारण है। अवधिज्ञानके समय' अवधिज्ञानावरणका क्षयोपशम स्वय होता है इतना संबंध बतानेको निमित्त बताया है। कर्मकी उस समय की स्थिति कर्मके अपने कारणसे क्षयोपशमरूप होती है, इतना निमित्त-नैमित्तिक संबंध है । वह यहां बताया है ।
क्षयोपशमका अर्थ-(१) सर्वधातिस्पर्द्धकोका उदयाभाविक्षय, (२) देशघातिस्पर्द्धकोंमे गुणका सर्वथा घात करनेको शक्तिका उपशम क्षयोपशम कहलाता है । तथा
क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनमें वेदक सम्यक्त्वप्रकृतिके 'स्पर्द्धकोंको क्षय' और मिथ्यात्व, तथा सम्यक् मिथ्यात्व प्रकृतियोंके उदयाभावको उपशम कहते है । प्रकृतियोके क्षय तथा उपशमको क्षयोपशम कहते है [श्री धवला पुस्तक ५, पृष्ठ २००-२११-२२१ ]
(१०) गुणप्रत्यय अवधिज्ञान सम्यग्दर्शन, देशवत अथवा महानतके निमित्तसे होता है तथापि वह सभी सम्यग्दृष्टि, देशवती या महाव्रती, जीवोके नही होता, क्योकि असंख्यात लोकप्रमाण सम्यक्त्व, संयमासयन
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मोक्षशास्त्र
और संयमरूप परिणामोंमें अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशमके कारणभूत परिणाम बहुत थोडे होते है [ श्री जयधवला पृष्ठ १७ ] गुरणप्रत्यय सुअवधिज्ञान सम्यग्दृष्टि जीवोंके ही हो सकता है, किन्तु वह सभी सम्यग्दृष्टि जीवोंके नही होता |
सूत्र २१-२२ का सिद्धान्त
यह मानना ठीक नहीं है कि "जिन जीवोंको अवधिज्ञान हुआ हो वे ही जीव अवधिज्ञानका उपयोग लगाकर दर्शन मोहकर्मके रजकरणोंकी अवस्थाको देखकर उस परसे यह यथार्थतया जान सकते हैं कि हमें सम्यदर्शन हुआ है" क्योकि सभी सम्यग्दृष्टि जोवोंको अवधिज्ञान नही होता, किन्तु सम्यग्दृष्टि जीवोमेसे बहुत थोडेसे जीवोंको अवधिज्ञान होता है । अपनेको 'सम्यग्दर्शन हुआ है' यदि यह अवधिज्ञानके विना निश्चय न हो सकता होता तो जिन जीवोंके अवधिज्ञान नही होता उन्हे सदा तत्सम्बन्धी शंका- संशय बना ही रहेगा, किन्तु निःशंकित्व सम्यग्दर्शनका पहिला ही प्राचार है; इसलिये जिन जीवोंको सम्यग्दर्शन सम्बन्धी शंका बनी रहती है वे जीव वास्तवमे सम्यग्दृष्टि नही हो सकते किन्तु मिथ्यादृष्टि होते हैं । इसलिये अवधिज्ञानका, मन:पर्ययज्ञानका तथा उनके भेदोंका स्वरूप जानकर, भेदोकी ओरके रागको दूर करके अभेद ज्ञानस्वरूप अपने स्वभाव की ओर उन्मुख होना चाहिये ॥ २२ ॥
मन:पर्ययज्ञानके भेद
ऋजुविपुलमती मन:पर्ययः ॥ २३ ॥
अर्थ - [ मन:पर्ययः ] मन:पर्ययज्ञान [ ऋजुमतिविपुलमतिः ] ऋजुमति और विपुलमति दो प्रकारका है ।
टीका
(१) मन:पर्ययज्ञानकी व्याख्या नवमें सूत्रकी टीकामें की गई है । दूसरेके मनोगत मूर्तिक द्रव्योंको मनके साथ जो प्रत्यक्ष जानता है सो मन:पर्ययज्ञान है ।
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अध्याय १ सूत्र २३
(२) द्रव्यापेक्षा से मन:पर्ययज्ञानका विषय - जघन्य रूपसे एक समयमें होनेवाले औदारिक शरीरके निर्जरारूप द्रव्यतक जान सकता है, उत्कृष्टरूपसे आठ कर्मोके एक समय में बँधे हुए समयप्रवद्धरूप द्रव्यके अनन्त भागों में से एक भाग तक जान सकता है ।
क्षेत्रापेक्षा से इस ज्ञानका विषय - जघन्यरूपसे दो, तीन कोसतकके क्षेत्रको जानता है; और उत्कृष्टरूपसे मनुष्यक्षेत्र के भीतर जान सकता है । [ यहाँ विष्कंभरूप मनुष्यक्षेत्र समझना चाहिए ]
कालापेक्षा से इस ज्ञानका विषय — जघन्यरूपसे दो तीन भवोंका ग्रहण करता है, उत्कृष्टरूपसे असख्यात भवोका ग्रहण करता है ।
भावापेक्षा से इस ज्ञानका विषय - द्रव्यप्रमारगमे कहे गये द्रव्योंकी शक्तिको ( भावको ) जानता है । [ श्री घवला पुस्तक १ पृष्ठ ६४ ]
इस ज्ञानके होने में मन अपेक्षामात्र ( निमित्तमात्र ) कारण है, वह उत्पत्तिका कारण नही है । इस ज्ञानकी उत्पत्ति आत्माकी शुद्धिसे होती है । इस ज्ञानके द्वारा स्व तथा पर दोनोके मनमे स्थित रूपी पदार्थ जाने जा सकते है । [ श्री सर्वार्थसिद्धि पृष्ठ ४४८-४५१-४५२ ]
दूसरेके मनमें स्थित पदार्थको भी मन कहते हैं, उनकी पर्यायो ( विशेषो ) को मन:पर्यय कहते हैं, उसे जो ज्ञान जानता है सो मन:पर्ययज्ञान है । मन:पर्ययज्ञानके ऋजुमति और विपुलमति - ऐसे दो भेद हैं ।
ऋजुमति – मनमे चिंतित पदार्थको जानता है, अचिंतित पदार्थको नहीं; और वह भी सरलरूपसे चिंतित पदार्थको जानता है । [ देखो सूत्र २८ की टीका ]
विपुलमति - चितित और श्रचितित पदार्थको तथा वक्रचितित और अवक्रचितित पदार्थको भी जानता है । [ देखो सूत्र २८ की टोका ]
* समयप्रवद्ध - एक समयमे जितने कर्म परमाणु और नो कर्म परमाणु बँधते हैं उन सबको समयप्रवद्ध कहते हैं ।
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मोक्षशास्त्र ___ मन पर्ययज्ञान विशिष्ट संयमधारीके होता है [श्री, धवला पुस्तक ६, पृष्ठ २८-२९ ] 'विपुल' का अर्थ विस्तीर्ण-विशाल-गंभीर होता है। HT उसमें कुटिल, असरल, विषम, सरल इत्यादि गभित हैं ] विपुलमतिज्ञान मैं ऋजु और वक्र ( सरल और पेचीदा ) सर्वप्रकारके रूपी पदार्थोका ज्ञान होता है। अपने तथा दूसरोंके जीवन-मरण, सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, इत्यादिका भी ज्ञान होता है।
विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी व्यक्त अथवा अव्यक्त मनसे.चिंतित या अचिंतित अथवा आगे जाकर चिन्तवन किये जानेवाले सर्वप्रकारके पदार्थोंको जानता है । [ सर्वार्थसिद्धि पृष्ठ ४४८-४५१-४५२ ]
___कालापेक्षासे ऋजुमतिका विषय-जघन्यरूपसे भूत-भविष्यतके अपने और दूसरेके दो तीता भव. जानता, है, और उत्कृष्टरूपसे उसीप्रकार सात आठ भव जानता है ।
क्षेत्रापेक्षासे-यह ज्ञान जघन्यरूपसे तीनसे ऊपर और नो से नीचे कोस, तथा उत्कृष्टरूपसे तीनसे ऊपर और नो से नीचे योजनके भीतर जानता है । उससे बाहर नहीं जानता।
कालापेक्षासे विपुलमतिका विषय-जघन्यरूपसे अगले' पिछले सात आठ भव जानता है और उत्कृष्टरूपसे अगले पिछले असख्यात भव जानता है।
क्षेत्रापेक्षासे-यह ज्ञान जघन्यरूपसे तीनसे ऊपर और नो से नीचे योजन प्रमाण जानता है; और उत्कृष्टरूपसे मानुषोत्तरपर्वतके भीतर तक जानता है; उससे बाहर नही । [ सर्वार्थसिद्धि पृष्ठ ४५४ ]
विपुलमतिका अर्थ-इंग्लिश तत्त्वार्थ सूत्र में निम्न प्रकार दिया है।
Complex direct knowledge of complex mentai things. e.g. of what a man is thinking of now along with what he has thought of it in the past and will think of it in the future,
[ पृष्ठ ४०]
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अध्याय १ सूत्र २४ __ अर्थ-मनमे स्थित पेचीदा वस्तुओंका पेचीदगी सहित प्रत्यक्षज्ञान, जैसे एक मनुष्य वर्तमानमे क्या विचार कर रहा है, उसके साथ भूतकालमे उसने क्या विचार किया है और भविष्य में क्या विचार करेगा, इस ज्ञानका मनोगत विकल्प मनःपर्ययज्ञानका विपय है। (बाह्य वस्तुकी अपेक्षा मनोगतभाव एक अति सूक्ष्म और विजातीय वस्तु है ) ॥ २३ ॥
ऋजुमति और विपुलमतिमें अन्तर विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः ॥२४॥
अर्थ:-[ विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां ] परिणामोंकी विशुद्धि और अप्रतिपात अर्थात् केवलज्ञान होनेसे पूर्व न छूटना [ तद्विशेषः ] इन दो वातोंसे ऋजुमति और विपुलमति ज्ञानमै विशेषता ( अन्तर ) है।
टीका ऋजुमति और विपुलमति यह दो मनःपर्ययज्ञानके भेद सूत्र २३ की टीकामें दिये गये हैं । इस सूत्रमे स्पष्ट बताया गया है कि विपुलमति विशुद्ध शुद्ध है और वह कभी नही छूट सकता, किन्तु वह केवलज्ञान होने तक बना रहता है। ऋजुमति ज्ञान होकर छूट भी जाता है यह भेद चारित्रकी तीव्रताके भेदके कारण होते हैं। सयम परिणामका घटना-उसकी हानि होना प्रतिपात है, जो कि किसी ऋजुमति वालेके होता है ॥ २४ ।।।
अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानमें विशेषता विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमनःपर्यययोः ॥२५॥
अर्थ:-[ अवधिमनःपर्यययोः ] अवधि और मनःपर्ययज्ञानमें [विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्यः ] विशुद्धता, क्षेत्र, स्वामी और विषयकी अपेक्षासे विशेषता होती है।
टीका मनःपर्ययज्ञान उत्तम ऋद्धिधारी भाव-मुनियोके ही होता है; और अवधिज्ञान चारों गतियोके सैनी जीवोके होता है, यह स्वामीकी अपेक्षासे भेद है।
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मोक्षशास्त्र
उत्कृष्ट श्रवधिज्ञानका क्षेत्र असंख्यात लोक प्रमाण तक है; ओर मन:पर्ययज्ञानका ढाई द्वीप मनुष्य क्षेत्र है । यह क्षेत्रापेक्षा से भेद है ।
૨૬
स्वामी तथा विषयके भेदसे विशुद्धिमें अन्तर जाना जा सकता है, अवधिज्ञानका विषय परमाणु पर्यन्त रूपी पदार्थ है, और मन:पर्ययका विषय मनोगत विकल्प है ।
विषयका भेद सूत्र २७-२८ की टीकामें दिया गया है; तथा सूत्र २२ को टीकामे श्रवधिज्ञानका और २३ की टीकामें मन:पर्ययज्ञानका विषय दिया गया है, उस परसे यह भेद समझ लेना चाहिए ॥ २५ ॥ मति श्रुतज्ञानका विषय----
मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ॥ २६ ॥
अर्थ:-- [ मतिश्रुतयोः ] मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका [ निबंध: ] विषय सम्बन्ध [ असर्व पर्यायेषु ] कुछ ( न कि सर्व ) पर्यायोसे युक्त ॥ द्रव्येषु ] जीव, - पुद्गलादि सर्व द्रव्योंमें हैं ।
टीका
मतिज्ञान और श्रुतज्ञान सभी रूपी-अरूपी द्रव्योंको जानते हैं, किन्तु उनकी सभी पर्यायोंको नही जानते, उनका विषय-सम्बन्ध सभी द्रव्य और उनकी कुछ पर्यायोके साथ होता है ।
इस सूत्र में 'द्रव्येषु' शब्द दिया है जिससे जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म आकाश और काल सभी द्रव्य समझना चाहिए । उनकी कुछ पर्यायोंको यह ज्ञान जानते हैं, सभी पर्यायोंको नही ।
प्रश्न - जीव, धर्मास्तिकाय, इत्यादि अमूर्त्तद्रव्य है, उन्हें मतिज्ञान कैसे जानता है, जिससे यह कहा जा सके कि मतिज्ञान सब द्रव्योंको जानता है ?
उत्तर - अनिन्द्रिय ( मन ) के निमित्तसे अरूपी द्रव्योंका श्रवग्रह ईहा अवाय और धारणारूप मतिज्ञान पहिले उत्पन्न होता है और फिर
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६७
अध्याय १ सूत्र २७-२८ उस मतिज्ञान पूर्वक श्रुतज्ञान सर्व द्रव्योंको जानता है; और अपनी अपनी योग्य पर्यायोंको जानता है ।
इन दोनों ज्ञानोंके द्वारा जीवको भी यथार्थतया जाना जा सकता है ॥२६॥
अवधिज्ञानका विषय
रूपिष्ववधेः ॥ २७ ॥ अर्थ:-[अवधेः] अवधिज्ञानका विषय-सम्बन्ध [रूपिषु] रूपी द्रव्योंमें है अर्थात् अवधिज्ञान रूपी पदार्थोको जानता है।
टीका जिसके रूप, रस, गंध, स्पर्श होता है वह पुद्गल द्रव्य है। पुद्गलद्रव्यसे सम्बन्ध रखनेवाले संसारी जीवको भी इस ज्ञानके हेतुके लिये रूपी कहा जाता है, [ देखो सूत्र २८ की टीका ]
जीवके पाँच भावोंमेसे औदयिक, नोपशमिक और क्षायोपामिक,यह तीन भाव:(परिणाम) ही अवधिज्ञानके विषय हैं, और जीवके शेषक्षायिक तथा-परिणामिकभाव-और धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य, तथा कालद्रव्य, अरूपी पदार्थ हैं, वे अवधिज्ञानके विषयभूत नही होते।
यह.ज्ञान-सर्व रूपी पदार्थों और उसकी कुछ पर्यायोंको जानता है।॥२७॥
-मनापर्ययज्ञानका विषयतदनन्तभागे मनःपर्ययस्य ॥२८॥ मर्थः-[तत् अनंतभांगे ] सर्वावधिज्ञानके विषयभूत रूपी द्रव्यके अनंतवें भागमे [-मनःपर्ययस्य.] मनःपर्ययज्ञानका विषय सम्बन्ध है।
'टीका परमावधिज्ञानके विषयभूत जो पुद्गलस्कंध है उनका अनंतवां भाग
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मोक्षशास्त्र करने पर जो एक परमाणुमात्र होता है सो सर्वावधिका विषय है, उसका अनन्तवा भाग ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानका विषय है और उसका अनन्तवाँ भाग विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानका विषय है। ( सर्वार्थ सिद्धि पृष्ठ ४७३ )
सूत्र २७-२८ का सिद्धान्त ___ अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानका विषय रूपी है, ऐसा यहां कहा गया है । अध्याय दो सूत्र एकमें आत्माके पांच भाव कहे हैं, उनमें से औदयिक, औपशमिक तथा क्षायोपशमिक ये तीन भाव इस ज्ञानके विषय हैं, ऐसा २७ वें सूत्रमे कहा है, इससे निश्चय होता है कि परमार्थतः यह तीन भाव रूपी हैं, अर्थात् वे अरूपी आत्माका स्वरूप नही हैं । क्योंकि आत्मामेसे वे भाव दूर हो सकते हैं, और जो दूर हो सकते है वे परमार्थतः आत्माके नही हो सकते । 'पी' की व्याख्या अध्याय पाँचके सूत्र पाँचवेंमे दी है। वहाँ पुद्गल 'रूपी' है-ऐसा कहा है और पुद्गल स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णवाले है, यह अध्याय पाँचके २३ सूत्रमे कहा है। श्रीसमयसारकी गाथा ५० से ६८ तथा २०३ में यह कहा है कि वर्णादिसे गुणस्थानतकके भाव पुदुगल द्रव्यके परिणाम होनेसे जीवकी अनुभूतिसे भिन्न हैं, इसलिये वे जीव नही है। वही सिद्धान्त इस शास्त्रमें उपरोक्त संक्षिप्त सूत्रोके द्वारा प्रतिपादन किया गया है।
___ अध्याय २ सूत्र १ में उन भावोको व्यवहारसे जीवका कहा है, यदि वे वास्तवमै जीवके होते तो कभी जीवसे अलग न होते किंतु वे अलग किये जा सकते हैं इसलिये वे जीवस्वरूप या जीवके निजभाव नही हैं ॥२८॥
केवलज्ञानका विषय सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ॥२६॥ अर्थ:-[फेवलस्य] केवलज्ञानका विषय संबंध [सर्वद्रव्य-पर्यायेषु] सर्व द्रव्य और उनकी सर्व पर्यायें है, अर्थात् केवलज्ञान एक ही साथ सभी पदार्थोंको और उनकी सभी पर्योको जानता है।
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अध्याय १ सूत्र २६
टीका
केवलज्ञान = असहाय ज्ञान, अर्थात् यह ज्ञान इन्द्रिय, मन या आलोक की अपेक्षासे रहित है । वह त्रिकालगोचर अनन्त पर्यायोंको प्राप्त अनन्त वस्तुको जानता है । वह असंकुचित, प्रतिपक्षी रहित और अमर्यादित है ।
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शंका - जिस पदार्थका नाश हो चुका है और जो पदार्थ अभी उत्पन्न नही हुआ उसे केवलज्ञान कैसे जान सकता है ?
समाधान -- केवलज्ञान निरपेक्ष होनेसे बाह्य पदार्थोकी अपेक्षा के बिना ही नष्ट और अनुत्पन्न पदार्थोंको जाने तो इसमे कोई विरोध नहीं आता । केवलज्ञानको विपर्ययज्ञानत्वका भी प्रसग नही आता, क्योंकि वह यथार्थ स्वरूपसे पदार्थोको जानता है । यद्यपि नष्ट और अनुत्पन्न वस्तुओका वर्तमानमे सद्भाव नही है तथापि उनका अत्यन्ताभाव भी नही है ।
केवलज्ञान सर्व द्रव्य और उनकी त्रिकालवर्ती अनंतानंत पर्यायोंको अक्रमसे एक ही कालमे जानता है; वह ज्ञान सहज ( बिना इच्छा के ) जानता है । केवलज्ञानमे ऐसी शक्ति है कि अनन्तानन्त लोक- अलोक हो तो भी उन्हे जाननेमे केवलज्ञान समर्थ है ।
विशेष स्पष्टता के लिये देखो अध्याय १ परिशिष्ट ५ जो बड़े महत्वपूर्ण हैं । शंका- केवली भगवानके एक ही ज्ञान होता है या पाँचों ?
समाधान- पाँचो ज्ञानोका एक ही साथ रहना नही माना जा सकता, क्योकि मतिज्ञानादि आवरणीयज्ञान हैं, केवलज्ञानी भगवान क्षीण श्रवरणीय है इसलिये भगवानके आवरणीय ज्ञानका होना संभव नही है; क्योकि आवरणके निमित्तसे होनेवाले ज्ञानोका (आवरणोका अभाव होनेके बाद ) रहना हो सकता, ऐसा मानना न्याय विरुद्ध है, [ श्री धवला पु० ६ पृष्ठ २६-३० ]
मति आदि ज्ञानोंका आवरण केवलज्ञानावरणके नाश होनेके साथ ही सम्पूर्ण नष्ट हो जाता है । [ देखो सूत्र ३० की टीका ]
एक ही साथ सर्वथा जाननेकी एक एक जीवमे सामर्थ्य है ।
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मोक्षशास्त्र
२९ वे सूत्रका सिद्धान्त
'मैं परको जानू तो बड़ा कहलाऊं' ऐसा नहीं किन्तु मेरी अपार सामर्थ्य अनन्त ज्ञान-ऐश्वर्यरूप है इसलिये मैं पूर्णज्ञानधन स्वाधीन आत्मा हूँ, इसप्रकार पूर्ण साध्यको प्रत्येक जीवको निश्चित् करना चाहिये। इसप्रकार निश्चित् करके स्वसे एकत्व और परसे विभक्त ( भिन्न ) अपने एकाकार स्वरूपकी ओर उन्मुख होना चाहिये। अपने एकाकार स्वरूपकी ओर उन्मुख होने पर सम्यग्दर्शन प्रगट होता है और जीव क्रमशः आगे वढ़ता है और थोडे समयमे उसकी पूर्ण ज्ञान दशा प्रगट हो जाती है ॥२६॥
एक जीवके एक साथ कितने ज्ञान हो सकते हैं ? एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्व्यः ॥३०॥
अर्थ:---[ एकस्मिन् ] एक जीवमें [ युगपत् ] एक साथ [ एकादीनि ] एकसे लेकर [ प्राचतुर्यः ] चार ज्ञान तक [ भाज्यानि ] विभक्त करने योग्य हैं अर्थात् हो सकते हैं।
टीका (१) एक जीवके एक साथ एकसे लेकर चार ज्ञान तक हो सकते हैं ? यदि एक ज्ञान हो तो केवलज्ञान होता है, दो हो तो मति और श्रुत होते है, तीन हो तो मति श्रुत और अवधि अथवा मति श्रुत और मनापर्ययज्ञान होते हैं, चार हो तो मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्ययज्ञान होते हैं। एक ही साथ पांच ज्ञान किसीके नही होते । और एक ही ज्ञान एक समयमें उपयोगस्प होता है, केवलज्ञानके प्रगट होने पर वह सदाके लिये बना रहता है। दूसरे ज्ञानोंका उपयोग अधिकसे अधिक अंतमुहर्त होता है, उससे अधिक नहीं होता, उसके बाद ज्ञानके उपयोगका विषय यदल हो जाता है । केवलीके अतिरिक्त सभी संसारी जीवोंके कमसे कम दो अर्थात् मति और श्रुतज्ञान अवश्य होते हैं।
(२) धायोपशमिक शान क्रमवर्ती है एक कालमें एक ही प्रवर्तित
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अध्याय १ सूत्र ३०
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होता है; किन्तु यहाँ जो चार ज्ञान एक ही साथ कहे हैं सो चारका विकास एक ही समय होनेसे चार ज्ञानोकी जाननेरूप लब्धि एक कालमे होती है,यही कहने का तात्पर्य है । उपयोग तो एक कालमें एक ही स्वरूप होता है ॥ ३० ॥
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सूत्र ९ से ३० तक का सिद्धान्त
आत्मा वास्तव में परमार्थ है और वह ज्ञान है; आत्मा स्वयं एक ही पदार्थ है इसलिये ज्ञान भी एक ही पद है । जो यह ज्ञान नामक एक पद है सो यह परमार्थस्वरूप साक्षात् मोक्ष उपाय है । इन सूत्रोंमे ज्ञानके जो भेद कहे हैं वे इस एक पदको अभिनन्दन करते है ।
ज्ञानके हीनाधिकरूप भेद उसके सामान्य ज्ञान स्वभावको नही भेदते, किन्तु अभिनन्दन करते हैं, इसलिये जिसमे समस्त भेदोका अभाव है ऐसे आत्मस्वभावभूत ज्ञानका ही एकका श्रालम्बन करना चाहिए, अर्थात् ज्ञानस्वरूप श्रात्माका ही अवलम्बन करना चाहिये, ज्ञानस्वरूप आत्माके अवलम्बनसे ही निम्न प्रकार प्राप्ति होती है:
१ - निजपदकी प्राप्ति होती है । २- भ्रान्तिका नाश होता है । ३- आत्माका लाभ होता है । ४ - अनात्माका परिहार सिद्ध होता है । ५- भावकर्म बलवान नही हो सकता । ६ - राग-द्वेष मोह उत्पन्न नही होते । ७- पुनः कर्मका प्राश्रव नही होता । ८ - पुनः कर्म नहीं बँधता | ६- पूर्वबद्ध कर्म भोगा जानेपर निर्जरित हो जाता है । १० - समस्त कर्मोका प्रभाव होनेसे साक्षात् मोक्ष होता है । ज्ञान स्वरूप आत्मा आलम्बनकी ऐसी महिमा है ।
क्षयोपशमके अनुसार ज्ञानमें जो भेद होते है वे कही ज्ञान सामान्य को अज्ञानरूप नही करते, प्रत्युत ज्ञानको प्रगट करते हैं इसलिये इन सब भेदों परका लक्ष्य गौरग करके ज्ञान सामान्यका अवलम्बन करना चाहिये । नवमे सूत्रके अन्तमे एक वचन सूचक 'ज्ञानम्' शब्द कहा है, वह भेदोंका स्वरूप जानकर, भेदो परका लक्ष्य छोड़कर, शुद्धनयके विषयभूत अभेद, अखण्ड ज्ञानस्वरूप आत्माकी ओर अपना लक्ष्य करनेके लिये कहा है, ऐसा समझना चाहिए [ देखो पाटनी ग्रथमालाका श्री समयसार - गाथा २०४, पृष्ठ ३१० ]
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१०२
मोक्षशास्त्र
मति श्रुत और अवधिज्ञानमें मिथ्यात्व मतिश्रुतावधयो विपर्ययाश्च ॥ ३१ ॥
अर्थ:- [ मतिश्रुतावधयः ] मति, श्रुत और अवधि यह तीन ज्ञान [ विपर्ययाच ] विपर्यय भी होते हैं ।
टीका
(१) उपरोक्त पाँचों ज्ञान सम्यग्ज्ञान हैं, किन्तु मति श्रुत श्रीर अवधि यह तीनों ज्ञान मिथ्याज्ञान भी होते हैं । उस मिथ्याज्ञानको कुमतिज्ञान कुश्रुतज्ञान तथा कुअवधि ( विभंगावधि ) ज्ञान कहते हैं । अभीतक सम्यग्ज्ञानका अधिकार चला श्रा रहा है, अब इस सूत्र मे 'च' शब्दसे यह सूचित किया है कि यह तीन ज्ञान सम्यक् भी होते है और मिथ्या भी होते है । सूत्रमे विपर्ययः शब्द प्रयुक्त हुआ है, उसमे संशय और और अनध्यवसाय गर्भितरूपसे आ जाते है । मति और श्रुतज्ञानमे संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय यह तीन दोष है, अवधिज्ञानमें संशय नही होता, किन्तु अनध्यवसाय अथवा विपर्यय यह दो दोष होते हैं, इसलिये उसे कुअवधि अथवा विभंग कहते है । विपर्यय सम्बन्धी विशेष वर्णन ३२ वें सूत्रकी टीकामें दिया गया है ।
(२) अनादि मिथ्यादृष्टि के कुमति और कुश्रुत होते है । तथा उसके देव और नारकीके भवमें कुप्रवधि भी होता है । जहाँ जहाँ मिथ्यादर्शन होता है वहाँ वहाँ मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र अविनाभावी रूपसे होता है ॥ ३१ ॥
प्रश्न - जैसे सम्यग्दृष्टि जीव नेत्रादि इन्द्रियोंसे रूपादिको सुमतिसे जानता है उसीप्रकार मिथ्यादृष्टि भी कुमतिज्ञानसे उन्हे जानता है, तथा जैसे सम्यग्दृष्टि जीव श्रुतज्ञानसे उन्हे जानता है तथा कथन करता है, उसी प्रकार मिध्यादृष्टि भी कुश्रुतज्ञानसे जानता है और कथन करता है, तथा जैसे सम्यग्दृष्टि अवधिज्ञानसे रूपी वस्तुओं को जानता है उसीप्रकार मिथ्यादृष्टि कुअवधिज्ञान से जानता है,' , तब फिर मिथ्यादृष्टिके ज्ञानको मिथ्याज्ञान क्यों कहते हो ?
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अध्याय १ सूत्र ३२
उत्तरसदसतोरविशेषाद्यहच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ॥३२॥
अर्थ:-[यहच्छोपलब्धः] अपनी इच्छासे चाहे जैसा (Whims) ग्रहण करनेके कारण [ सत् असतोः ] विद्यमान और अविद्यमान पदार्थों का [मविशेषात्] भेदरूप ज्ञान ( यथार्थ विवेक ) न होनेसे [उन्मत्तवत्] पागलके ज्ञानकी भॉति मिथ्यादृष्टिका ज्ञान विपरीत अर्थात् मिथ्याज्ञान ही होता है।
टीका (१) यह सूत्र बहुत उपयोगी है । यह 'मोक्षशास्त्र है। इसलिये अविनाशी सुखके लिये सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप एक ही मार्ग है यह पहिले सूत्र बताकर, दूसरे सूत्रमे सम्यग्दर्शनका लक्षण बताया है। जिसकी श्रद्धासे सम्यग्दर्शन होता है वे सात तत्त्व चौथे सूत्रमे बताये हैं, तत्त्वोको जाननेके लिये प्रमाण और नयके ज्ञानोंकी आवश्यकता है ऐसा ६ वे सूत्रमे कहा है, पाँच ज्ञान सम्यक है इसलिये वे प्रमाण है, यह ९-१० वे सूत्र मे वताया है और उन पाँच सम्यग्ज्ञानोका स्वरूप ११ से ३० वे सूत्र तक बताया है।
(२) इतनी भूमिका बाँधनेके बाद मति श्रुत और अवधि यह तीन मिथ्याज्ञान भी होते है; और जीव अनादिकालसे मिथ्यादृष्टि है इसलिये वह जवतक सम्यक्त्वको नही पाता तबतक उसका ज्ञान विपर्यय है, यह ३१ वे सूत्रमें बताया है। सुखके सच्चे अभिलाषीको सर्व प्रथम मिथ्यादर्शनका त्याग करना चाहिये-यह बतानेके लिये इस सूत्रमे मिथ्याज्ञान-जो कि सदा मिथ्यादर्शन पूर्वक ही होता है-उसका स्वरूप बताया है।
(३) सुखके सच्चे अभिलाषीको मिथ्याज्ञानका स्वरूप समझानेके लिये कहा है कि
१-मिथ्यादृष्टि जीव सत् और असत्के बीचका मेद ( विवेक ) नही जानता, इससे सिद्ध हुआ कि प्रत्येक भव्य जीवको पहिले सत् क्या है और असत् क्या है इसका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करके मिथ्याज्ञानको दूर करना चाहिये।
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१०४
मोक्षशास्त्र
२-जहाँ सत् और असत्के भेदका अज्ञान होता है वहाँ नासमझ पूर्वक जीव जैसा अपनेको ठीक लगता है वैसा पागल पुरुषकी भांति अथवा शराब पीये हुए मनुष्यकी भाँति मिथ्या कल्पनाएँ किया ही करता है। इस लिये यह समझाया है कि सुखके सच्चे अभिलाषी जीवको सच्ची समझ पूर्वक मिथ्या कल्पनाओंका नाश करना चाहिए ।
(४) पहिले से तीस तकके सूत्रोमे मोक्षमार्ग और सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञानका स्वरूप समझाकर उसे ग्रहण करनेको कहा है, वह उपदेश 'अस्ति' से दिया है, और ३१ वें सूत्रमे मिथ्याज्ञानका स्वरूप बताकर उसका कारण ३२वे सूत्र में देकर मिथ्याज्ञानका नाश करनेका उपदेश दिया है, अर्थात् इस सूत्र में 'नास्ति' से समझाया है । इसप्रकार 'मंस्ति-नास्ति' के द्वारा अर्थात् अनेकांत के द्वारा सम्यक् ज्ञानको प्रगट करके मिथ्याज्ञानकी नास्ति करनेके लिये उपदेश दिया है। (५) सत् = विद्यमान ( वस्तु )
असत्-अविद्यमान ( वस्तु) अविशेषात् इन दोनोंका यथार्थ विवेक न होनेसे ।
यदृच्छ (विपर्यय ) उपलब्धेः = [विपर्यय शब्दकी ३१ वें सूत्रसे अनुवृत्ति चली आई-है ] विपरीत-अपनी मनमानी इच्छानुसार कल्पनाएं-होनेसे वह मिथ्याज्ञान है।
उन्मत्त्वत्-मदिरा पीये हुए मनुष्यकी भाँति ।
विपर्यय-विपरीतता; वह तीन प्रकारकी है-५-कारणविपरीतता, २-स्वरूपविपरीतता, ३-भेदाभेदविपरीतता।
कारणविपरीतता-मूलकारणको न पहिचाने और अन्यथा कारण को माने।
__ स्वरूपविपरीतता-जिसे जानता है उसके मूल वस्तुभूत - स्वरूपको न पहिचाने और अन्यथा स्वरूपको माने ।
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अध्याय १ सूत्र ३२
१०५
भेदाभेद विपरीतता - जिसे वह जानता है उसे 'यह इससे भिन्न है' और 'यह इससे अभिन्न है' - इसप्रकार यथार्थ न पहिचान कर अन्यथा भिन्नत्व - अभिन्नत्वको माने सो भेदाभेदविपरीतता है ।
( १ ) इन तीन विपरीतताओंको दूर करनेका उपाय
सच्चे धर्मकी यह परिपाटी है कि पहिले जीव सम्यक्त्व प्रगट करता है, पश्चात् व्रतरूप शुभभाव होते है । और सम्यक्त्व स्व और परका श्रद्धान होनेपर होता है, तथा वह श्रद्धान द्रव्यानुयोग ( अध्यात्म शास्त्रो ) का अभ्यास करनेसे होता है, इसलिये पहिले जीवको द्रव्यानुयोगके अनुसार श्रद्धा करके सम्यग्दृष्टि होना चाहिये, और फिर स्वयं चरणानुयोगके अनुसार सच्चे व्रतादि धारण करके व्रती होना चाहिए ।
इसप्रकार मुख्यतासे तो नीचली दशामे ही द्रव्यानुयोग कार्यकारी है । यथार्थ अभ्यासके परिणामस्वरूपमे विपरीतताके दूर होने पर निम्नप्रकार यथार्थतया मानता है
१ – एक द्रव्य, उसके गुण या पर्याय दूसरे द्रव्य, उसके गुरण या पर्याय में कुछ भी नही कर सकते । प्रत्येक द्रव्य अपने अपने कारणसे अपनी पर्याय धारण करता है | विकारी अवस्थाके समय परद्रव्य निमित्तरूप अर्थात् उपस्थित तो होता है किन्तु वह किसी अन्यद्रव्यमे विक्रिया ( कुछ भी ) नही कर सकता । प्रत्येक द्रव्यमे अगुरुलघुत्व नामक गुरण है इसलिये यह द्रव्य श्रन्यरूप नही होता, एक गुरण दूसरेरूप नही होता और एक पर्याय दूसरेरूप नही होती । एक द्रव्यके गुरण या पर्याय उस द्रव्यसे पृथक् नही हो सकते । इसप्रकार जो अपने क्षेत्रसे अलग नही हो सकते और पर द्रव्यमे नही जा सकते तत्र फिर वे उसका क्या कर सकते हैं ? कुछ भी नही । एक द्रव्य, गुरण या पर्याय दूसरे द्रव्यकी पर्यायमे कारण नही होते, इसीप्रकार वे दूसरे का कार्य भी नही होते, ऐसी अकारणकार्यत्वशक्ति प्रत्येक द्रव्य विद्यमान है । इसप्रकार समझ लेने पर कारणविपरीतता दूर हो जाती है । २- प्रत्येक द्रव्य स्वतत्र है । जीव द्रव्य चेतनागुरण स्वरूप है, पुद्गल - द्रव्य स्पर्श, रस, गंध, और वर्ण स्वरूप है, जबतक जीव ऐसी विपरीत पकड़
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१०६
मोक्षशास्त्र
पकड़े रहता है कि 'मैं परका कुछ कर सकता हूँ और पर मेरा कुछ कर सकता है तथा शुभ विकल्पसे लाभ होता है' तबतक उसकी अज्ञानरूप पर्याय बनी रहती है । जब जीव यथार्थको समझता है अर्थात् सत्को सम
ता है तब यथार्थ मान्यता पूर्वक उसे सच्चा ज्ञान होता है । उसके परिणाम स्वरूप क्रमशः शुद्धता बढकर सम्पूर्ण वीतरागता प्रगट होती है । अन्य चार द्रव्य (धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, और काल ) अरूपी हैं, उनकी कभी अशुद्ध अवस्था नही होती, इसप्रकार समझ लेने पर स्वरूप विपरीतता दूर हो जाती है ।
३---परद्रव्य, जडकर्म और शरीरसे जीव त्रिकाल भिन्न है, जब वे एक क्षेत्रावगाह सम्बन्धसे रहते है तब भी जीवके साथ एक नही हो सकते, एक द्रव्यके द्रव्य-क्षेत्र-काल- भाव दूसरे द्रव्यमे नास्तिरूप हैं; क्योंकि दूसरे द्रव्यसे वह द्रव्य चारो प्रकारसे भिन्न है । प्रत्येक द्रव्य स्वयं अपने गुरणसे अभिन्न है । क्योकि उससे वह द्रव्य कभी पृथक् नही हो सकता । इसप्रकार समझ लेने पर भेदाभेदविपरीतता दूर हो जाती है ।
सत् -- त्रिकाल टिकनेवाला, सत्यार्थ, परमार्थ, भूतार्थ, निश्चय, शुद्ध, यह सव एकार्थवाचक शब्द हैं । जीवका ज्ञायकभाव त्रैकालिक अखण्ड है; इसलिये वह सत्, सत्यार्थ, परमार्थ, भूतार्थ, निश्चय और शुद्ध है । इस दृष्टिको द्रव्यदृष्टि, वस्तुदृष्टि, शिवहष्टि, तत्त्वदृष्टि और कल्याणकारी दृष्टि भी कहते है ।
व्यसत्— क्षणिक, अभूतार्थं, अपरमार्थ, व्यवहार, भेद, पर्याय, भंग, अविद्यमान; जीवमे होनेवाला विकारभाव असत् है क्योकि वह क्षणिक है और टालने पर टाला जा सकता है ।
जीव अनादिकाल से इस असत् विकारी भाव पर दृष्टि रख रहा है इसलिये उसे पर्यायबुद्धि, व्यवहारविमूढ़, अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि मोही और मूढ़ भी कहा जाता है, श्रज्ञानी जीव इस असत् क्षणिक भावको अपना मान रहा है, अर्थात् वह असत्को सत् मान रहा है; इसलिये इस भेदको जानकर जो श्रसत्को गोरा करके सत् स्वरूपपर भार देकर अपने ज्ञायक स्व
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अध्याय १ सूत्र ३२
१०७ भावकी ओर उन्मुख होता है वह मिथ्याज्ञानको दूर करके सम्यग्ज्ञान प्रगट करता है। उसकी उन्मत्तता दूर हो जाती है।
विपर्यय-भी दो प्रकारका है, सहज और आहार्य ।
(१) सहज-जो स्वतः अपनी भूलसे अर्थात् परोपदेशके बिना विपरीतता उत्पन्न होती है।
(२) आहार्य-दूसरेके उपदेशसे ग्रहण की गई विपरीतता यह श्रोत्रेन्द्रियके द्वारा होनेवाले कुमतिज्ञान पूर्वक ग्रहण किया गया कुश्रुतज्ञान है।
शंका-दया धर्मके जाननेवाले जीवोंके भले ही आत्माकी पहिचान न हो तथापि उन्हे दया धर्मकी श्रद्धा तो होती ही है, तब फिर उनके ज्ञान को अज्ञान ( मिथ्याज्ञान ) कैसे माना जा सकता है ?
समाधान—दया धर्मके ज्ञाताप्रोमे भी आप्त, पागम, और पदार्थ (नव तत्त्वों) की यथार्थ श्रद्धासे रहित जो जीव हैं उनके दयाधर्म आदिमे यथार्थ श्रद्धा होनेका विरोध है, इसलिये उनका ज्ञान अज्ञान ही है । ज्ञानका जो कार्य होना चाहिए वह न हो तो वहाँ ज्ञानको अज्ञान माननेका व्यवहार लोकमे भी प्रसिद्ध है, क्योकि पुत्रका कार्य न करनेवाले पुत्रको भी लोकमे कुपुत्र कहनेका व्यवहार देखा जाता है।
शंका-ज्ञानका कार्य क्या है ?
समाधान-जाने हुए पदार्थकी श्रद्धा करना ज्ञानका कार्य है। ऐसे ज्ञानका कार्य मिथ्यादृष्टि जीवमे नही होता इसलिये उसके ज्ञानको अज्ञान कहा है । [ श्री धवला पुस्तक ५, पृष्ठ २२४ ]
विपर्ययमे सशय और अनध्यवसायका समावेश हो जाता है, यह ३१ वे सूत्रको टीकामे कहा है, इसी सम्बन्धमे यहाँ कुछ बताया जाता है
१-कुछ लोगोंको यह सशय होता है कि धर्म या अधर्म कुछ होगा या नही ?
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मोक्षशास्त्र २-कुछ लोगोंको सर्वज्ञके अस्तित्व-नास्तित्वका-संशय होता है । ३-~-कुछ लोगोंको परलोकके अस्तित्व नास्तित्वका संशय होता है।
४-कुछ लोगोंको अनध्यवसाय (अनिर्णय) होता है । वे कहते हैं कि-हेतुवादरूप तर्कशास्त्र है इसलिये उससे कुछ निर्णय नही हो सकता ? और जो बागम है सो वे भिन्न २ प्रकारसे वस्तुका स्वरूप बतलाते हैं, कोई कुछ कहता है और कोई कुछ, इसलिये उनकी परस्पर बात नहीं मिलती।
५-कुछ लोगोंको ऐसा अनध्यवसाय होता है कि कोई ज्ञाता सर्वज्ञ अथवा कोई मुनि या ज्ञानी प्रत्यक्ष दिखाई नही देता कि जिसके वचनोंको हम प्रमाण मान सकें, और धर्मका स्वरूप अति सूक्ष्म है इसलिये कैसे निर्णय हो सकता है ? इसलिये “महाजनो.येन गताः स पन्थाः" अर्थात् बडे प्रादमी जिस मार्गसे जाते हैं उसी मार्ग पर हमे चलना चाहिए।
६-कुछ लोग वीतराग धर्मका लौकिक वादोंके साथ समन्वय करते हैं । वे शुभभावोंके वर्णनमें कुछ समानता देखकर जगतमें चलनेवाली सभी धार्मिक मान्यताओंको एक मान बैठते है । ( यह विपर्यय है)।
७-कुछ लोग यह मानते हैं कि मंदकषायसे धर्म (शुद्धता) होती है, ( यह भी विपर्यय है)।
८-कुछ लोग ईश्वरके स्वरूपको इसप्रकार विपर्यय मानते हैं किइस जगतको किसी ईश्वरने उत्पन्न किया है और वह उसका नियामक है ।
इसप्रकार सशय विपर्यय और अनध्यवसाय अनेक प्रकारसे मिथ्याज्ञानमें होते हैं, इसलिये सत् और असत्का यथार्थ भेद यथार्थ समझकर, स्वच्छंदतापूर्वक की जानेवाली कल्पनाओ और उन्मत्तताको दूर करनेके लिए यह सूत्र कहते है। [ मिथ्यात्वको उन्मत्तता कहा है क्योकि मिथ्यात्व से अनन्त पापोंका बंध होता है जिसका ध्यान जगतको नही है ] ॥३२॥
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अध्यायः१ सूत्र ३३
१०६ प्रमाणका स्वरूप कहा गया, अब श्रुतज्ञानके अंशरूप नयका
स्वरूप कहते हैं। नैगमसंग्रहव्यवहारजु सूत्रशब्दसमभिरूढैवंभूतानयाः॥३३॥
अर्थ-[ नैगम ] नैगम [ संग्रह ] संग्रह [ व्यवहार ] व्यवहार [ऋजुसूत्र] ऋजुसूत्र [शब्द] शब्द [समभिरूढ़] समभिरूढ़ [एवंभूता] एवंभूत-यह सात [ नयाः ] नय[ Viewpoints ] हैं ।
टीका वस्तुके अनेक धर्मोमे से किसी एककी मुख्यता करके अन्य धर्मोका विरोध किये विना उन्हे गौण करके साध्यको जानना सो नय है।
प्रत्येक वस्तुमे अनेक धर्म रहे हुए हैं इसलिये वह अनेकान्तस्वरूप है। [ 'अन्त' का अर्थ 'धर्म' होता है ] अनेकान्तस्वरूप समझानेकी पद्धतिको 'स्याद्वाद' कहते हैं। स्याद्वाद द्योतक है, अनेकान्त द्योत्य है। 'स्यात्' का अर्थ 'कथंचित्' होता है, अर्थात् किसी यथार्थ प्रकारकी विवक्षा का कथन स्याद्वाद है। अनेकान्तका प्रकाश करनेके लिये 'स्यात् शब्दका प्रयोग किया जाता है।
हेतु और विपयकी सामर्थ्यकी अपेक्षासे प्रमाणसे निरूपण किये गये अर्थके एक देशको कहना सो नय है। उसे 'सम्यक् एकान्त' भी कहते हैं । श्रुतप्रमाण दो प्रकारका है स्वार्थ और परार्थ । उस श्रुतप्रमाणका अंश नय है। शास्त्रका भाव समझनेके लिये नयोका स्वरूप समझना आवश्यक है, सात नयोका स्वरूप निम्नप्रकार है।
१-नैगमनय-जो भूतकालकी पर्यायमे वर्तमानवत् सकल्प करे
अथवा भविष्यकी पर्यायमें वर्तमानवत् संकल्प करे तथा वर्तमान पर्यायमे कुछ निष्पन्न (प्रगटरूंप) है और कुछ निष्पन्न नहीं है उसका निष्पन्नरूप संकल्प करे उस ज्ञानको तथा वचनको नैगमनय कहते हैं । [ Figurative ]
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मोक्षशास्त्र २-संग्रहनय-जो समस्त वस्तुओंको तथा समस्त पर्यायोंको
संग्रह रूप करके जानता है तथा कहता है सो संग्रहनय है ।
जैसे सत् द्रव्य, इत्यादि [ General, Common] ३-व्यवहारनय-अनेक प्रकारके भेद करके व्यवहार करे या
भेदे सो व्यवहारनय है। जो संग्रहनयके द्वारा ग्रहण किये हुए पदार्थको विधिपूर्वक भेद करे सो व्यवहार है जैसे सत्के दो प्रकार हैं-द्रव्य और गुण । द्रव्यके छह भेद हैं--जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । गुणके दो भेद हैं सामान्य और विशेष । इसप्रकार जहांतक भेद हो सकते है वहाँतक
यह नय प्रवृत्त होता है। [Distributive ] ४-ऋजुसूत्रनय-[ ऋजु अर्थात् वर्तमान, उपस्थित, सरल ] , जो ज्ञानका अंश वर्तमान पर्यायमात्रको ग्रहण करे सो
ऋजुसूत्रनय है । ( Present condition) ५-शब्दनय-जो नय लिंग, संख्या, कारक आदिके व्यभिचारको
दूर करता है सो शब्द नय है। यह नय लिंगादिके भेदसे पदार्थको भेदरूप ग्रहण करता है; जैसे दार, (पु०) भार्या (स्त्री०) कलत्र (न०), यह दार भार्या और कलत्र तीनों शब्द भिन्न लिंगवाले होनेसे यद्यपि एक ही पदार्थके वाचक हैं तथापि यह नय स्त्री पदार्थको लिंगके भेदसे तीन भेदरूप
जानता है । [ Descriptive ] ६-समभिरूढनय-(१) जो भिन्न २ अर्थोका उल्लंघन करके एक
अर्थको रूढ़िसे ग्रहण करे। जैसे गाय [Usage] (२) जो पर्यायके भेदसे अर्थको भेदरूप ग्रहण करे। जैसे इन्द्र, शक्र, पुरंदर; यह तीनो शब्द इन्द्रके नाम हैं किन्तु यह नय तीनोंका भिन्न २ अर्थ करता है । [Specific ७-एवंभूतनय-जिस शब्दका जिस क्रियारूप अर्थ है उस
क्रियारूप परिणमित होनेवाले पदार्थको जो नय ग्रहण करता
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अध्याय १ सूत्र ३३
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है उसे एवंभूतनय कहते है जैसे पुजारीको पूजा करते समय ही पुजारी कहना । [ Active ]
पहिले तीन भेद द्रव्यार्थिकनयके है, उसे सामान्य उत्सर्ग अथवा अनुवृत्ति नामसे भी कहा जाता है ।
वादके चार भेद पर्यायार्थिकनयके है, उसे विशेष, अपवाद अथवा व्यावृत्ति नामसे कहते हैं ।
पहिले चार नय अर्थनय है, और बादके तीन शब्दनय है । पर्याय के दो भेद है- (१) सहभावी - जिसे गुरण कहते हैं, (२) क्रमभावी - जिसे पर्याय कहते हैं ।
द्रव्य नाम वस्तुग्रोका भी है और वस्तुओके सामान्य स्वभावमय एक स्वभावका भी है । जब द्रव्य प्रमाणका विषय होता है तब उसका अर्थ वस्तु ( द्रव्य - गुरण और तीनो कालकी पर्याय सहित ) करना चाहिए । जब नयोके प्रकररणमे द्रव्यार्थिकका प्रयोग होता है तब 'सामान्य स्वभावमय एक स्वभाव' ( सामान्यात्मक धर्म ) अर्थं करना चाहिए । द्रव्यार्थिकमे निम्नप्रकार तीन भेद होते है ।
होते है ।
१ - सत् और असत् पर्यायके स्वरूपमें प्रयोजनवश परस्पर भेद न मानकर दोनोको वस्तुका स्वरूप मानना सो नैगमनय है ।
२ -सत् के ग्रन्तर्भेदो मे भेद न मानना सो सग्रहनय है ।
३- सन्मे अन्तर्भेदोको मानना सो व्यवहारनय है ।
नयके ज्ञाननय, शब्दनय और अर्थ नय, - ऐसे भी तीन प्रकार
१ - वास्तविक प्रमाणज्ञान है; और जब वह एकदेशग्राही होता है तब उसे नय कहते है, इसलिये ज्ञानका नाम नय है और उसे ज्ञान नय कहा जाता है ।
२- ज्ञानके द्वारा जाने गये पदार्थका प्रतिपादन शब्द के द्वारा होता है इसलिये उस शब्दको शब्दनय कहते है ।
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मोक्षशास्त्र
३- ज्ञानका विषय पदार्थ है इसलिये नयसे प्रतिपादित किये जानेवाले पदार्थको भी नय कहते है । यह अर्थनय है ।
आत्माके संबंध में इन सात नयोको श्रीमद्राजचन्द्रजीने निम्नलिखित चौदह प्रकारसे अवतरित किए हैं । वे साधकको उपयोगी होनेसे यहाँ अर्थ सहित दिये जाते है ।
१ - एवंभूत दृष्टिसे ऋजुसूत्र स्थिति कर = पूर्णता के लक्ष्यसे प्रारम्भ
कर ।
२- ऋजुसूत्रदृष्टिसे एवंभूत स्थिति कर = साधकदृष्टिके द्वारा साध्य में स्थिति कर ।
३ - नैगमदृष्टिसे एवंभूत प्राप्ति कर तू पूर्ण है ऐसी संकल्पदृष्टिसे पूर्णताको प्राप्त कर ।
४- एवंभूतदृष्टिसे नंगम विशुद्ध कर = पूर्णदृष्टिसे अव्यक्त अंश विशुद्ध
कर |
५- संग्रहदृष्टिसे एवंभूत हो = त्रैकालिक सत्दृष्टिसे पूर्णं शुद्ध पर्याय
प्रगट कर ।
६- एवंभूतदृष्टिसे संग्रह विशुद्ध कर = निश्चयदृष्टिसे सत्ताको विशुद्ध
कर ।
७- व्यवहारदृष्टिसे एवंभूत के प्रति जा= भेददृष्टि छोड़कर अभेदके प्रति जा ।
८- एवंभूतदृष्टि से व्यवहार निवृत्ति कर = अभेददृष्टिसे भेदको निवृत्त
कर ।
९- शब्ददृष्टिसे एवंभूतके प्रति जा= शब्दके रहस्यभूत पदार्थ की दृष्टिसे पूर्णता के प्रति जा ।
१०- एवंभूतदृष्टिसे शब्द निर्विकल्प कर = निश्चयदृष्टिसे शब्दके रहस्य - भूत पदार्थ में निर्विकल्प हो ।
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अध्याय १ सूत्र ३३
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११ - समभिरूढ़दृष्टिसे एवंभूतको देख = साधक अवस्थाके श्रारूढभावसे निश्चयको देख |
१२ - एवंभूत दृष्टिसे समभिरूढ़ स्थिति कर = निश्वयदृष्टिसे समस्वभावके प्रति रूढ स्थिति कर ।
१३ - एवंभूतदृष्टिसे एवंभूत हो = निश्चयदृष्टिसे निश्चयरूप हो ।
१४- एवंभूत स्थिति से एवभूत दृष्टिको शमित कर = निश्चय स्थितिसे निवदृष्टिके विकल्पको शमित करदे |
वास्तविकभाव लौकिक भावोंसे विरुद्ध होते हैं ।
प्रश्न – यदि व्यवहारनयसे अर्थात् व्याकरणके अनुसार जो प्रयोग ( अर्थ ) होता है उसे आप शब्दनयसे दूषित कहेगे तो लोक और शाखमें विरोध आयगा ।
उत्तर- -लोक न समझे इसलिये विरोध भले करें, यहाँ यथार्थ स्वरूप ( तत्त्व ) का विचार किया जा रहा है-परीक्षा की जा रही है । औषधि रोगीको इच्छानुसार नही होती । [ सर्वार्थसिद्धि पृष्ठ ५३४ ] जगत रोगी है ज्ञानीजन उसीके अनुकूल ( रुचिकर ) तत्त्वका स्वरूप ( श्रौषधि ) नही कहते, किन्तु वे वही कहते है जो यथार्थ स्वरूप होता है ।। ३३ ।।
पाँच प्रकारसे जैन शास्त्रोंके अर्थ समझने की रीति
प्रत्येक वाक्यका पाँच प्रकारसे अर्थ करना चाहिये:
शब्दार्थ, नयार्थं, मतार्थ, आगमार्थ और भावार्थ ।
“परमार्थको नमस्कार" इस वाक्यका यहाँ पाँच प्रकारसे अर्थ किया जाता है:
( १ ) शब्दार्थ –'जो ध्यानरूपी अग्निके द्वारा कर्मकलंकको भस्म करके शुद्ध नित्य निरंजन ज्ञानमय हुए हैं उन परमात्माको में नमस्कार करता हूँ ।' यह परमात्माको नमस्कारका शब्दार्थ हुआ ।
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मोक्षशास्त्र
( २ ) नयार्थ- शुद्ध निश्चयनयसे आत्मा परमानंदस्वरूप है; पूर्णशुद्धता प्रगट हुई वह सभूत व्यवहारनयका विषय है । कर्म दूर हुए वह असद्भूत अनुपचरित व्यवहारनयका विषय है । इसप्रकार प्रत्येक स्थान पर नयसे समझना चाहिये । यदि नयोंके अभिप्रायको न समझे तो वास्तविक अर्थ समझमे नही आता । यथार्थ ज्ञानमें साधकके सुनय होते ही हैं ।
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'ज्ञानावरणीय कर्मने ज्ञानको रोका' - ऐसा वाक्य हो वहाँ 'ज्ञानावरणीय नामका जड कर्म रोकता है, ऐसा कहना दो द्रव्योंका संबंध बतलानेवाला व्यवहारनयका कथन है, सत्यार्थ नही है ।
शास्त्रोंके सच्चे रहस्यको खोलनेके लिये नयार्थ होना चाहिये, नयार्थ को समझे बिना चरणानुयोगका कथन भी समझमें नही आता । गुरुका उपकार माननेका कथन श्राये वहाँ समझना चाहिये कि गुरु परद्रव्य है, इसलिये वह व्यवहारका कथन है और वह असद्भूतउपचरित व्यवहारनय है । परमात्म प्रकाश गाथा ७ तथा १४ के अर्थमे बताया गया है कि-असद्भुत का अर्थ 'मिथ्या' होता है ।
चरणानुयोगमे परद्रव्य छोड़ने की बात आये वहाँ समझना चाहिये कि वहाँ रागको छुड़ानेके लिये व्यवहारनयका कथन है । प्रवचनसार में शुद्धता और शुभरागकी मित्रता कही है, किन्तु वास्तवमे वहाँ उनके 'मित्रता' नही है, राग तो शुद्धताका शत्रु ही है, किन्तु चरणानुयोगके शास्त्रमें वैसा कहने की पद्धति है और वह व्यवहारनयका कथन है । अशुभसे बचने के लिये शुभ राग निमित्तमात्र मित्र कहा है; उसका भावार्थं तो यह है किवह वास्तवमे वीतरागताका शत्रु है किन्तु निमित्त बतानेके लिये व्यवहार नय द्वारा ऐसा ही कथन होता है ।
(३) मतार्थ — दूसरे विरुद्ध मत किसप्रकारसे मिथ्या हैं, उसका वर्णन करना सो मतार्थ है । चरणानुयोगमे कहे हुए व्यवहारव्रतादि करने से धर्म हो, ऐसी मान्यतावाले अन्यमत हैं जैनमत नही है, श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भावपाहुड गाथा ८३ में कहा है कि - " पूजादिकमें और व्रतादि सहित होय सो तो पुण्य है और मोह क्षोभ रहित श्रात्माका परिणाम सो धर्म है ।
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अध्याय १ सूत्र ३३
११५ लौकिक जन-अन्यमति कई कहै हैं जो पूजा आदिक शुभ क्रियामें और व्रतक्रिया सहित है सो जिनधर्म है सो ऐसे नहीं है।"
यहाँ बौद्ध, वेदान्त, नैयायिक इत्यादिमें जो एकान्त मान्यता है और जिनमतमै रहनेवाले जीवमें भी जिसप्रकारकी विपरीत-एकांत-मान्यता चल रही हो वह भूल बतलाकर उस भूल-रहित सच्चा अभिप्राय बतलाना सो मतार्थ है।
(४) आगमार्थ-जो सत् शास्त्रमें (सिद्धांतमें) कहा हो उसके साथ अर्थको मिलाना सो आगमार्थ है। सिद्धांतमें जो अर्थ प्रसिद्ध हो वह प्रागमार्थ है।
(५) भावार्थ-तात्पर्य अर्थात् इस कथनका अन्तिम अभिप्रायसार क्या है ? कि-परमात्मरूप वीतरागी आत्मद्रव्य ही उपादेय है, इसके अतिरिक्त कोई निमित्त या किसी प्रकारका राग-विकल्प उपादेय नही है। यह सब तो मात्र जाननेयोग्य है; एक परमशुद्ध स्वभाव ही आदरणीय है । भावनमस्काररूप पर्याय भी निश्चयसे आदरणीय नहीं है, इसप्रकार परम शुद्धात्म स्वभावको ही उपादेयरूपसे अंगीकार करना सो भावार्थ है।
यह पांच प्रकारसे शास्त्रोंका अर्थ करनेकी वात समयसार, पंचास्तिकाय, वृ० द्रव्यसंग्रह, परमात्मप्रकाशकी टीकामें है।
यदि किसी शास्त्रमें वह न कही हो तो भी प्रत्येक शास्त्रके प्रत्येक कथनमें इन पांच प्रकारसे अर्थ करके उसका भाव समझना चाहिये।
नयका स्वरूप संक्षेपमें निम्न प्रकार है:
सम्यग्नय सम्यग् श्रुतज्ञानका अवयव है और इससे वह परमार्थसे ज्ञानका ( उपयोगात्मक ) अंश है, और उसका शब्दरूप कथनको मात्र उपचारसे नय कहा है।
इस विषयमें श्री धवला टीकामे कहा है कि:शंका-नय किसे कहते हैं ? समाधान-ज्ञाताके अभिप्रायको नय कहते हैं।
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मोक्षशास्त्र शंका-'अभिप्राय' इसका क्या अर्थ है ?
समाधान--प्रमाणसे गृहीत वस्तुके एक देशमे वस्तुका निश्चय ही अभिप्राय है।
युक्ति अर्थात् प्रमाणसे अर्थके ग्रहण करने अथवा द्रव्य और पर्याय में से किसी एक को अर्थरूपसे ग्रहण करनेका नाम नय है । प्रमाणसे जानी हुई वस्तुके द्रव्य अथवा पर्यायमें वस्तुके निश्चय करनेको नय कहते है, यह इसका अभिप्राय है।
(धवला टीका पुस्तक ६ पृष्ठ १६२-१६३ ) "प्रमाण और नयसे वस्तुका ज्ञान होता है. इस सूत्र द्वारा भी यह व्याख्यान विरुद्ध नहीं पड़ता। इसका कारण यह है कि प्रमाण और नयसे उत्पन्न वाक्य भी उपचारसे प्रमाण और नय है।"
(ध० टी० पु० ६ पृष्ठ १६४ ) - [यहाँ श्री वीरसेनाचार्यने वाक्यको उपचारसे नय कहकर ज्ञानात्मक नयको परमार्थसे नय कहा है ]
पंचाध्यायीमें भी नयके दो प्रकार माने हैद्रव्यनयो भावनयः स्यादिति भेदाद्विधा च सोऽपियथा । पौगलिकः किल शब्दो द्रव्यं भावश्च चिदिति जीवगुण ॥५०॥
"अर्थ-वह नय भी द्रव्यनय और भावनय इसप्रकारके भेदसे दो प्रकारका है, जैसे कि वास्तवमें पोद्गलिक शब्द द्रव्यनय कहलाता है तथा जीवका गुण जो चैतन्य यह है वह भावनय कहलाता है। अर्थात् नय ज्ञानात्मक और वचनात्मकके भेदसे दो प्रकारका है। उनमेसे वचनात्मक नय द्रव्यनय तथा ज्ञानात्मक नय भावनय कहलाता है।"
स्वामी कातिकेय विरचित द्वादशानुप्रेक्षामें नयके तीन प्रकार कहे हैं। अव वस्तुके धर्मको, उसके वाचक शब्दको और उसके ज्ञानको नय कहते हैं:
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अध्याय १ सूत्र ३३
११७ "सो चिय इक्को धम्मो, वाचय सद्दो वि तस्स धम्मस्स । तं जाणदि तं गाणं, ते तिण्णि वि णय विसेसा य ॥२६॥
अर्थ-जो वस्तुका एक धर्म, उस धर्मका वाचक शब्द और उस धर्मको जाननेवाला ज्ञान ये तीनों ही नयके विशेष है।
इनको जैसे प्रमाणस्वरूप कहते हैं वैसे ही नय भी कहते हैं।"
(पाटनी ग्रन्थमालासे प्र० कार्तिकेयानुप्रेक्षा पृष्ठ १७०) __ "सुयणाणस्स वियप्पो, सो वि ओ" श्रुतज्ञानके विकल्प (-भेद) को नय कहा है।
(का० अनुप्रेक्षा गा० २६३ ) जैन नीति अथवा नय विवक्षा:एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तु तत्त्वमितरेण । अन्तेन जयति जैनी नीतिमन्थाननेत्रमिव गोपी ।।२२५॥
(पु० सि० उपाय ) अर्थ-मथानीको खीचनेवाली ग्वालिनीकी तरह जिनेन्द्र भगवान् की जो नीति अर्थात् नय विवक्षा है वह वस्तु स्वरूपको एक नय विवक्षासे खीचती हुई तथा दूसरी नय विवक्षासे ढीली करती हुई अंत अर्थात् दोनों विवक्षाओंसे जयवन्त रहे।
भावार्थ-भगवान्की वाणी स्याद्वादरूप अनेकान्तात्मक है, वस्तु का स्वरूप मुख्य तथा गौण नयकी विवक्षासे ग्रहण किया जाता है । जैसे जीव द्रव्य नित्य भी है और अनित्य भी है, द्रव्याथिकनयकी विवक्षासे नित्य है तथा पर्यायार्थिक नयकी विवक्षासे अनित्य है यही नय विवक्षा है। (जिनवाणी प्रचारक कार्यालय कलकत्तासे प्र० श्री अमृतचंद्राचार्य
कृत पुरुषार्थ सि० उ० पृष्ठ १२३) यह श्लोक सूचित करता है कि-शास्त्रमे कई स्थान पर निश्चयनय की मुख्यतासे कथन है और कहीपर व्यवहारनयकी मुख्यतासे कथन है,
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मोक्षशास्त्र परन्तु उसका अर्थ ऐसा नहीं है कि-धर्म किसी समय तो व्यवहारनय (-अभूतार्थनय ) के आश्रयसे होता है और किसी समय निश्चयनय (-भूतार्थनय ) के आश्रयसे होता है, परन्तु धर्म तो हमेशा निश्चयनय अर्थात् भूतार्थनयके ही आश्रयसे होता है (-अर्थात् भूतार्थनयके अखण्ड विषयरूप निजशुद्धात्माके आश्रयसे ही धर्म होता है। ऐसा न्याय-पु० सि० उपायके ५ वें श्लोकमें तथा श्री कार्तिकेयानुप्रेक्षा ग्रन्थ गा० ३१११२ के भावार्थमें दिया गया है । इसलिये इस श्लोक नं० २२५ का अन्य प्रकार अर्थ करना ठीक नहीं है।
इसप्रकार श्री उमास्वामि विरचित मोक्षशास्त्र के प्रथम अध्यायकी
गुजराती टीकाका हिन्दी अनुवाद समाप्त हुआ।
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प्रथम अध्याय का परिशिष्ट
[१] सम्यग्दर्शनके सम्बन्धमें कुछ ज्ञातव्य
सम्यग्दर्शनकी आवश्यकता प्रश्न-ज्ञानी जब कहते है कि सम्यग्दर्शनसे धर्मका प्रारम्भ होता है, तब फिर सम्यग्दर्शन रहित ज्ञान और चारित्र कैसे होते हैं ?
उचर-पदि सम्यग्दर्शन न हो तो ग्यारह अंगका ज्ञाता भी मिथ्याज्ञानी है; और उसका चारित्र भी मिथ्याचारित्र है। तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शनके बिना व्रत, जप, तप, भक्ति, प्रत्याख्यान आदि जितने भी आचरण हैं वे सब मिथ्याचारित्र है, इसलिये यह जानना आवश्यक है कि सम्यग्दर्शन क्या है और वह कैसे प्राप्त हो सकता है।
(२)
सम्यग्दर्शन क्या है ? प्रश्न-सम्यग्दर्शन क्या है ? वह द्रव्य है, गुण है या पर्याय ?
उत्तर-सम्यग्दर्शन जीव द्रव्यके श्रद्धागुणकी एक निर्मल पर्याय है । इस जगतमे छह द्रव्य हैं उनमेंसे एक चैतन्यद्रव्य ( जीव ) है, और पाँच अचेतन-जड़ द्रव्य-पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल हैं । जीव द्रव्य अर्थात् आत्मवस्तुमे अनन्त गुण हैं, उनमेसे एक गुरण श्रद्धा (मान्यता विश्वास-प्रतीति ) है, उस गुणकी अवस्था अनादिकालसे उल्टी है इसलिये जीवको अपने स्वरूपका भ्रम बना हुआ है, उस अवस्थाको मिथ्यादर्शन कहते है। उस श्रद्धागुणकी सुलटी [-शुद्ध ] अवस्था सम्यग्दर्शन है। इसप्रकार आत्माके श्रद्धागुणकी शुद्ध पर्याय सम्यग्दर्शन है।
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१२०
मोक्षशास्त्र
(३) श्रद्धागुणकी मुख्यतासे निश्चय सम्यग्दर्शनकी व्याख्या
(१) श्रद्धागुणकी जिस अवस्थाके प्रगट होनेसे अपने शुद्ध आत्माका प्रतिभास हो सो सम्यग्दर्शन है।
(२) सर्वज्ञ भगवानकी वाणीमें जैसा पूर्ण प्रात्माका स्वरूप कहा गया है वैसा श्रद्धान करना सो निश्चय सम्यग्दर्शन है।
[ निश्चय सम्यग्दर्शन-निमित्तको, अपूर्ण या विकारी पर्यायको, भंगभेदको या गुणभेदको स्वीकार नही करता-(भेदरूप) लक्षमे नही लेता।]
नोट:-बहुतसे लोग यह मानते हैं कि मात्र एक सर्वव्यापक प्रात्मा है और वह आत्मा कूटस्थमात्र है, किन्तु उनके कथनानुसार चैतन्यमात्र आत्माको मानना सम्यग्दर्शन नही है।
(३) स्वरूपका श्रद्धान । (४) आत्म श्रद्धान [ पुरुषार्थसिद्धि उपाय श्लोक २१६ ] (५) स्वरूपकी यथार्थ प्रतीति-श्रद्धान [ मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ
४७१-सस्ती ग्रन्थमाला देहलीसे प्रकाशित ] (६) परसे भिन्न अपने आत्माकी श्रद्धा रुचि [ समयसार कलश
६, छहढाला तीसरी ढाल, छन्द २।] नोट:-यहाँ परसे 'भिन्न' शब्द सूचित करता है कि सम्यग्दर्शनको परवस्तु, निमित्त, अशुद्धपर्याय, अपूर्ण शुद्धपर्याय या भगभेद आदि कुछ भी स्वीकार्य नहीं है। सम्यग्दर्शनका विषय [ लक्ष्य ] पूर्ण ज्ञानधन त्रैकालिक प्रात्मा है। [ पर्यायकी अपूर्णता इत्यादि सम्यग्ज्ञानका विषय है।] (७) विशुद्धज्ञान-दर्शनस्वभावरूप निज परमात्माकी रुचि सम्य
ग्दर्शन है [ जयसेनाचार्यकृत टीका-हिन्दी समयसार पृष्ठ ८]
नोट:-यहाँ 'निज' शब्द है, वह अनेक प्रात्मा है उनसे अपनी भिन्नता बतलाता है।
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श्रध्याय १ परिशिष्ट १
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(८) शुद्ध जीवास्तिकायकी रुचिरूप निश्चयसम्यक्त्व । [ जयसेनाचार्यकृत टीका - पंचास्तिकाय गाथा १०७ पृष्ठ १७० ]
( ४ )
ज्ञान गुणकी मुख्यतासे निश्चय सम्यग्दर्शनकी व्याख्या (१) विपरीत अभिनिवेशरहित जीवादि तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शन का लक्षण है, [ मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ४७० तथा पुरुषार्थ सिद्धय पाय
श्लोक २२ ]
हैं ।
नोट: यह व्याख्या प्रमाण दृष्टिसे है उसमें प्रस्ति नास्ति दोनों पहलू बताये
(२) 'जीवादिका श्रद्धान सम्यक्त्व है' अर्थात् जीवादि पदार्थोके यथार्थं श्रद्धान स्वरूपमें आत्माका परिणमन सम्यक्त्व है [समयसार गाथा १५५, हिन्दी टीका पृष्ठ २२५, गुजराती पृष्ठ २०१ ]
(३) भूतार्थसे जाने हुए पदार्थोसे शुद्धात्माके पृथक्त्वका सम्यक् अवलोकन । [ जयसेनाचार्यकृत टीका - हिन्दी समयसार पृष्ठ २२६ ]
नोट: -- कालम नं० २ र ३ यह सूचित करते हैं कि जिसे नव पदार्थोंका सम्यग्ज्ञान होता है उसे ही सम्यग्दर्शन होता है । इस प्रकार सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शनका अविनाभावी भाव बतलाता है । यह कथन द्रव्यार्थिक नयसे है ।
(३) पंचाध्यायी भाग दूसरेमे ज्ञानकी अपेक्षासे निश्चयसम्यग्दर्शन की व्याख्या श्लोक १८६ से १८९ में दी गई है, यह कथन पर्यायार्थिकनयसे है । वह निम्नप्रकार कहा गया है:
[ गाथा १८६ ] - 'इसलिये शुद्धतत्त्व कही उन नव तत्त्वोंसे विलक्षरण अर्थान्तर नही है, किन्तु केवल नवतत्त्व सम्बन्धी विकारोको छोड़कर नवतत्त्व ही शुद्ध हैं ।
भावार्थ - इससे सिद्ध होता है कि केवल विकार की उपेक्षा करने से नवतत्त्व ही शुद्ध है, नवतत्त्वोसे कही सर्वथा भिन्न शुद्धत्व नहीं है ।' [ गाथा १८७ ] ' इसलिये सूत्रमे तत्त्वार्थकी श्रद्धा करनेको सम्यग्दर्शन माना गया है, और वह भी जीव-प्रजीवादिरूप नव हैं, xx
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मोक्षशास्त्र
भावार्थ:-— विकारको उपेक्षा करने पर शुद्धत्व नवर्तत्त्वोंसे अभिन्न है, इसलिये सूत्रकारने [ तत्त्वार्थ सूत्रमें ] नवतत्त्वोके यथार्थं श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहा है । xxx"
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[ गाथा १८८ ] इस गाथामें 'जीव अजीव आश्रव बन्ध संवर निर्जरा और मोक्ष' इन सात तत्त्वोंके नाम दिये है ।
गाथा १८६ ] " पुण्य और पापके साथ इन सात पदार्थ कहा जाता है, और वे नव पदार्थ भूतार्थके आश्रयसे वास्तविक विषय हैं ।"
तत्त्वोंको नव सम्यग्दर्शनका
भावार्थ:- - "पुण्य और पापके साथ यह सात तत्त्व ही नव पदार्थ कहलाते हैं, और वे नव पदार्थ यथार्थताके आश्रयसे सम्यग्दर्शन के यथार्थ विषय है ।"
.
नोट:- यह ध्यान रहे कि यह कथन ज्ञांनकी अपेक्षासे है । दर्शनापेक्षा से सम्यग्दर्शनका विषय अपना अखंड शुद्ध चैतन्यस्वरूप परिपूर्ण आत्मा है, यह बात ऊपर बताई गई है |
(५) "शुद्ध चेतना एक प्रकारकी है क्योकि शुद्धका एक प्रकार है । शुद्ध चेतनामें शुद्धताकी उपलब्धि होती है इसलिये वह शुद्धरूप है और वह ज्ञानरूप है इसलिये वह ज्ञान चेतना है" [ पंचाध्यायी अध्याय २ गाथा १६४ ]
"सभी सम्यग्दृष्टियोंके यह ज्ञानचेतना प्रवाहरूपसे अथवा अखण्ड एकधारारूपसे रहती है । [ पंचाध्यायी अध्याय २ गाथा ८५१ ]
(६) ज्ञेय-ज्ञातृत्वकी यथावत् प्रतीति जिसका लक्षरंग है वह संम्यग्दर्शन पर्याय है । [ प्रवचनसार अध्याय ३ गाथा ४२, श्री अमृतचन्द्राचार्य कृत टीका पृष्ठ ३३५ ]
(७) आत्मासे आत्माको जाननेवाला जीव निश्चयसम्यग्दृष्टि है । [ परमात्मप्रकाश गाथा ८२ ]
(८) 'तत्त्वार्थंश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' [ तत्त्वार्थंसूत्र अध्याय १ सूत्र २]
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अध्याय १ परिशिष्ट १ ( ५ )
१२३
चारित्रगुणकी मुख्यतासे निश्चयसम्यग्दर्शनकी व्याख्या
(१) "ज्ञानचेतनामें 'ज्ञान' शब्दसे ज्ञानमय होनेके कारण शुद्धात्माका ग्रहण है, और वह शुद्धात्मा जिसके द्वारा अनुभूत होता है उसे ज्ञानचेतना कहते हैं" [ पंचाध्यायी अध्याय २ गाथा १६६ -- भावार्थं ० ]
(२) उसका स्पष्टीकररण यह है कि-प्रात्माका ज्ञानगुण सम्यक्त्व - युक्त होनेपर आत्मस्वरूपकी जो उपलब्धि होती है, उसे ज्ञानचेतना कहते हैं' | [ पंचाध्यायी गाथा १६७ ]
(३) 'निश्वयसे यह ज्ञानचेतना सम्यग्दृष्टिके ही होती है । [ पंचाध्यायी गाथा १८८]
नोट:- यहाँ आत्माका जो शुद्धोपयोग है- अनुभव है वह चारित्रगुणकी पर्याय है ।
(४) आत्माकी शुद्ध उपलब्धि सम्यग्दर्शनका लक्षण है [ पंचाध्यायी गाथा २१५]
नोट:- यहाँ इतना ध्यान रखना चाहिये कि ज्ञानकी मुख्यता या चारित्रको मुख्यतासे जो कथन है उसे सम्यग्दर्शनका बाह्य लक्षण जानना चाहिये, क्योकि सम्यज्ञान और अनुभव के साथ सम्यग्दर्शन अविनाभावी है इसलिये वे सम्यग्दर्शनको अनुमानसे सिद्ध करते है । इस अपेक्षासे इसे व्यवहार कथन कहते हैं और दर्शन [ श्रद्धा ] गुणकी अपेक्षासे जो कथन है उसे निश्चय कथन कहते हैं |
(५) दर्शनका निश्चय स्वरूप ऐसा है कि- भगवान् परमात्म स्वभावके अतीन्द्रिय सुखकी रुचि करनेवाले जीवमे शुद्ध अन्तरंग आत्मिक तत्त्वके श्रानन्दको उत्पन्न होनेका धाम ऐसे शुद्ध जीवास्तिकायका ( अपने जीवस्वरूपका ) परमश्रद्धान, दृढ़ प्रतीति और सच्चा निश्चय ही दर्शन है ( यह व्याख्या सुख गुरगकी मुख्यतासे है । )
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मोक्षशास्त्र
( ६ ) अनेकान्त स्वरूप
दर्शन - ज्ञान - चारित्र सम्बन्धी अनेकान्त स्वरूप समझने योग्य है इसलिये वह यहाँ कहा जाता है ।
१२४
(१) सम्यग्दर्शन - सभी सम्यग्दृष्टियोंके ग्रर्थात् चोथे गुणस्थानसे सिद्धोंतक सभीके एक समान है, अर्थात् शुद्धात्माकी मान्यता उन सबके एकसी है - मान्यतामे कोई अन्तर नही है ।
(२) सम्यग्ज्ञान - सभी सम्यग्दृष्टियोंके सम्यक्त्वकी अपेक्षासे ज्ञान एक ही प्रकारका है किन्तु ज्ञान किसीके हीन या किसीके अधिक होता है । तेरहवें गुणस्थानसे सिद्धोतकका ज्ञान सम्पूर्ण होनेसे सर्व वस्तुओको युगपत् जानता है । नीचेके गुणस्थानोमें [ चौथेसे बारहवें तक ] ज्ञान क्रमशः होता है, और वहाँ यद्यपि ज्ञान सम्यक् है तथापि कम बढ़ होता है, उस अवस्थामें जो ज्ञान विकासरूप नही है वह अभावरूप है, इसप्रकार सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानमे अन्तर है |
(३) सम्यक् चारित्र- - सभी सम्यग्दृष्टियोके जो कुछ भी चारित्र प्रगट हुआ हो सो सम्यक् है । और जो दसवें गुरणस्थान तक प्रगट नही हुआ सो विभावरूप है । तेरहवें गुरणस्थानमे अनुजीवी योग गुरण कंपनरूप होनेसे विभावरूप है, और वहाँ प्रतिजीवीगुरण बिलकुल प्रगट नही है । चौदहवें गुणस्थानमे भी उपादानकी कच्चाई है इसलिये वहाँ औदयिकभाव है ।
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(४) जहाँ सम्यग्दर्शन है वहाँ सम्यग्ज्ञान और स्वरूपाचरणचारित्रका अंश अभेदरूप होता है; ऊपर कहे अनुसार दर्शनगुरण से ज्ञानगुण का पृथक्त्व और उन दोनों गुणोसे चारित्रगुरणका पृथक्त्व सिद्ध हुआ, इसप्रकार अनेकान्त स्वरूप हुआ ।
( ५ ) यह भेद पर्यायार्थिकनयसे है । द्रव्य अखण्ड है इसलिये द्रव्यार्थिकनयसे सभी गुण अभेद - अखण्ड है, ऐसा समझना चाहिये ।
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अध्याय १ परिशिष्ट १
१२.५
दर्शन [ श्रद्धा ], ज्ञान, चारित्र इन तीनों गुणोंकी अभेददृष्टिसे
निश्चय सम्यग्दर्शनकी व्याख्या (१) अखण्ड प्रतिभासमय, अनन्त, विज्ञानघन, परमात्मस्वरूप समयसारका जब आत्मा अनुभव करता है उसी समय आत्मा सम्यक्प से दिखाई देता है-[ अर्थात् श्रद्धा की जाती है ] और ज्ञात होता है इसलिये समयसार ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है। नयोंके पक्षपातको छोडकर एक अखण्ड प्रतिभासको अनुभव करना ही 'सम्यग्दर्शन' और 'सम्यग्ज्ञान' ऐसे नाम पाता है। सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान कही अनुभवसे भिन्न नहीं है। [ समयसार गाथा १४४ टीका भावार्थ, ] (२) वर्ते निज स्वभावका अनुभव लक्ष प्रतीत, वृचि वहे जिनभावमें परमार्थे समकित ।
[आत्मसिद्धि गाथा १११ ] अर्थ-अपने स्वभावकी प्रतीति, ज्ञान और अनुभव वर्ते और अपने भावमे अपनी वृत्ति वहे सो परमार्थ सम्यक्त्व है।
(८) निश्चय सम्यग्दर्शनका चारित्रके भेदोंकी अपेक्षासे कथन
निश्चय सम्यग्दर्शन चौथे गुणस्थानसे प्रारम्भ होता है, चौथे और पांचवें गुणस्थानमे चारित्रमें मुख्यतया राग होता है इसलिये उसे 'सराग सम्यक्त्व' कहते है । छठे गुणस्थानमे चारित्रमे राग गौण है, और ऊपरके गुणस्थानोंमे उसके दूर होते होते अन्तमे सम्पूर्ण वीतराग चारित्र हो जाता है, इसलिये छठे गुणस्थानसे 'वीतराग सम्यक्त्व,' कहलाता है।
निश्चय सम्यग्दर्शनके सम्बन्धमें प्रश्नोचर प्रश्न:-मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीके निमित्तसे होनेवाले विपरीत अभिनिवेशसे रहित जो श्रद्धा है सो निश्चय सम्यक्त्व है या व्यवहार सम्यक्त्व ?
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१२६
मोक्षशास्त्र
उत्तर:- - वह निश्चय सम्यक्त्व है, व्यवहार सम्यक्त्व नहीं ।
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प्रश्नः - पंचास्तिकायकी १०७ वी गाथाकी संस्कृत टीकासे उसे व्यवहार सम्यक्त्व कहा है ।
-
उत्तर: – नही, उसमें इसप्रकार शब्द हैं- " मिध्यात्वोदयजनित विपरीताभिनिवेश रहितं श्रद्धानम्", यहाँ 'श्रद्धान' कहकर श्रद्धानकी पहिचान कराई है, किन्तु उसे व्यवहार सम्यक्त्व नही कहा है व्यवहार और निश्चय सम्यक्त्वकी व्याख्या गाथा १०७ में कथित 'भावारणम्' शब्दके अर्थ में कही है ।
प्रश्न:- - 'अध्यात्मकमलमातंड' की सातवीं गाथा में उसे व्यवहार सम्यक्त्व कहा है, क्या यह ठीक है ?
उत्तरः- नहीं, वहाँ निश्चय सम्यक्त्वकी व्याख्या है, द्रव्यकर्मके उपशम, क्षय इत्यादिके निमित्तसे सम्यक्त्व उत्पन्न होता है - इसप्रकार निश्चय सम्यक्त्वकी व्याख्या करना सो व्यवहारनयसे है क्योकि वह व्याख्या परद्रव्यकी अपेक्षासे की है । अपने पुरुषार्थसे निकाय सम्यक्त्व प्रगट होता है यह निश्चयनयका कथन है । हिन्दीमें जो 'व्यवहार सम्यक्त्व' ऐसा अर्थ किया है सो यह मूल गाथाके साथ मेल नही खाता ।
(१०)
व्यवहार सम्यग्दर्शनकी व्याख्या
(१) पंचास्तिकाय, छहद्रव्य तथा जीव पुगलके संयोगी परिणामोंसे उत्पन्न श्राश्रव, बन्ध, पुण्य, पाप, संवर, निर्जरा और मोक्ष इसप्रकार नव पदार्थोके विकल्परूप व्यवहार सम्यक्त्व है ।
[ पंचास्तिकाय गाथा १०७ जयसेनाचार्यकृत टीका पृष्ठ १७० ]
(२) जीव, प्रजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोकी ज्योकी त्यों यथार्थ अटल श्रद्धा करना सो व्यवहार सम्यग्दर्शन है । [ छहढाला, ढाल ३ छन्द ३ ]
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(३) प्रश्न:साधक है ?
अध्याय १ परिशिष्ट १
- क्या व्यवहार सम्यग्दर्शन निश्चय सम्यग्दर्शनका
१९२७
-~
उचर:- - प्रथम जब निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट होता है तब विकल्प रूप व्यवहार सम्यग्दर्शनका प्रभाव होता है । इसलिये वह ( व्यवहार सम्यग्दर्शन ) वास्तव में निश्चय सम्यग्दर्शनका साधक नहीं है, तथापि उसे भूतनैगमनयसे साधक कहा जाता है, अर्थात् पहिले जो व्यवहार सम्यग्दर्शन था वह निश्चय सम्यग्दर्शनके प्रगट होते समय अभावरूप होता है, इसलिये जब उसका प्रभाव होता है तब पूर्वकी सविकल्प श्रद्धाको व्यवहार सम्यग्दर्शन कहा जाता है । ( परमात्म प्रकाश गाथा १४० पृष्ठ १४३, प्रथमावृत्ति संस्कृत टीका ) इसप्रकार व्यवहार सम्यग्दर्शन निश्चय सम्यग्दर्शनका कारण नही, किन्तु उसका अभाव कारण है ।
(११)
व्यवहाराभास सम्यग्दर्शनको कभी व्यवहार सम्यग्दर्शन भी कहते हैं ।
द्रव्यलिंगी मुनिको आत्मज्ञानशून्य आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयमभावकी एकता भी कार्यकारी नही है [ देखो मोक्षमार्ग प्रकाशक देहलीवाला पृष्ठ ३४९ ]
यहाँ जो 'तत्त्वार्थं श्रद्धान' शब्दका प्रयोग हुआ है सो वह भाव निक्षेपसे नही किन्तु नाम निक्षेपसे है ।
‘जिसे स्व-परका यथार्थं श्रद्धान नही है किन्तु जो वीतराग कथित देव, गुरु और धर्म-इन तीनोंको मानता है तथा अन्यमतमें कथित देवादि को तथा तत्त्वादिको नही मानता, ऐसे केवल व्यवहार सम्यक्त्वसे वह निश्चय सम्यक्त्वी नाम नही पा सकता' । ( पं० टोडरमलजी कृत रहस्यपूर्ण चिट्ठी ) उसका गृहीत मिथ्यात्व दूर होगया है इस अपेक्षासे व्यवहार सम्यक्त्व हुआ है ऐसा कहा जाता है किन्तु उसके अगृहीत - मिथ्यादर्शन है इसलिये वास्तव में उसे व्यवहाराभास सम्यग्दर्शन है ।
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मोक्षशास्त्र
मिथ्यादृष्टि जीवको देव गुरु धर्मादिका श्रद्धान श्राभासमात्र होता है, उसके श्रद्धानमेंसे विपरीताभिनिवेशका प्रभाव नहीं हुआ है, और उसे व्यवहार सम्यक्त्व श्राभासमात्र है, इसलिये उसे जो देव, गुरु धर्म; नव तत्त्वादिका श्रद्धा है सो विपरीताभिनिवेशके प्रभाव के लिये कारण नहीं हुआ, और कारण हुए बिना उसमें [ सम्यग्दर्शनका ] उपचार संभवित नही होता, इसलिये उसके व्यवहार सम्यग्दर्शन भी संभव नही है, उसे व्यवहार सम्यक्त्व, मात्र नामनिक्षेपसे कहा जाता है [ मोक्षमार्ग प्रकाशक म० ९ पृष्ठ ४७६-४७७ देहलीका ]
१२८
(१२)
सम्यग्दर्शन के प्रगट करनेका उपाय
प्रश्न - सम्यग्दर्शनके प्रगट करनेका क्या उपाय है ? ( १ )
उत्तर- - आत्मा और परद्रव्य सर्वथा भिन्न हैं, एकका दूसरे में अत्यत प्रभाव है । एक द्रव्य, उसका कोई गुण या पर्याय दूसरे द्रव्यमें, उसके गुरणमें या उसकी पर्यायमे प्रवेश नही कर सकते, इसलिये एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कुछ भी नही कर सकता, ऐसी वस्तुस्थितिकी मर्यादा है | और फिर प्रत्येक द्रव्यमें अगुरुलघुत्त्व गुण है क्योकि वह सामान्यगुरण है । उस गुणके कारण कोई किसीका कुछ नही कर सकता । इसलिये आत्मा परद्रव्यका कुछ नही कर सकता, शरीरको हिला डुला नही सकता, द्रव्यकर्म या कोई भी परद्रव्य जीवको कभी हानि नही पहुँचा सकता,यह पहिले निश्चय करना चाहिये ।
इसप्रकार निश्चय करनेसे जगतके परपदार्थोके कर्तृत्वका जो अभिमान श्रात्मा के अनादिकालसे चला रहा है वह दोष मान्यतामेंसे और ज्ञानमेंसे दूर हो जाता है ।
शास्त्रोमें कहा गया है कि द्रव्यकर्म जीवके गुणोंका घात करते हैं, इसलिये कई लोग मानते हैं कि उन कर्मोंका उदय जीवके गुणोंका वास्तव
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अध्याय १ परिशिष्ट १
१२६
मे घात करता है, और वे लोग ऐसा ही अर्थ करते है; किन्तु उनका यह अर्थ ठीक नही है । क्योकि वह कथन व्यवहारनयका है जो कि केवल निमित्तका ज्ञान करानेवाला है । उसका वास्तविक अर्थ यह है कि- जब जीव अपने पुरुषार्थके दोषसे अपनी पर्यायमे विकार करता है अर्थात् अपनी पर्यायका घात करता है तब उस घातमे अनुकूल निमित्तरूप जो द्रव्यकर्म 'प्रात्मप्रदेशोसे खिरनेके लिये तैयार हुआ है उसे 'उदय' कहनेका उपचार है अर्थात् उस कर्मपर विपाक उदयरूप निमित्तका आरोप होता है । और यदि जीव स्वयं अपने सत्यपुरुपार्थसे विकार नही करता - अपनी पर्यायका घात नही करता तो द्रव्यक्रर्मोके उसी समूहको 'निर्जरा' नाम दिया जाता है । इसप्रकार निमित्त - नैमित्तिक संबंधका ज्ञान करने मात्रके लिये उस व्यवहार कथनका अर्थ होता है । यदि अन्यप्रकारसे ( शब्दानुसार ही ) अर्थ किया जाय तो इस सम्बन्धके वदले कर्त्ता, कर्मका संबंध माननेके बराबर होता है, अर्थात् उपादान - निमित्त, निश्चयव्यवहार एकरूप हो जाता है, अथवा एक प्रोर जीवद्रव्य और दूसरी ओर अनन्त पुद्गल द्रव्य है, तो अनन्त द्रव्योने मिलकर जीवमे विकार किया है ऐसा उसका अर्थ हो जाता है, जो कि ऐसा नही हो सकता । यह निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध बतानेके लिये कर्मके उदयने जीवपर असर करके हानि पहुँचाई, - उसे परिणामित किया इत्यादि प्रकारसे उपचारसे कहा जाता है, किन्तु उसका यदि उस शब्दके अनुसार ही अर्थ किया जाय तो वह मिथ्या है । [ देखो समयसार गाथा १२२ से १२५, १६०, तथा ३३७ से ३४४, ४१२ अमृतचन्द्राचार्य की टीका तथा समय सार कलश नं० २११-१२-१३- २१६ ]
इसप्रकार सम्यग्दर्शन प्रगट करनेके लिये पहिले स्वद्रव्य - परद्रव्य की भिन्नता निश्चित करनी चाहिए, और फिर क्या करना चाहिए सो
कहते हैं ।
( २ )
स्वद्रव्य और परद्रव्यकी भिन्नता निश्चित् करके, परद्रव्यो परसे लक्ष छोडकर स्वद्रव्यके विचारमे श्राना चाहिए वहाँ आत्मामे दो पहलू हैं उन्हे जानना चाहिए । एक पहलू- आत्माका प्रतिसमय त्रिकाल प्रखंड परि
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१३०
मोक्षशास्त्र
पूर्ण चैतन्य स्वभावरूपता द्रव्य - गुरण पर्यायमें (वर्तमान पर्यायको गौर करने पर) है, आत्माका यह पहलू निश्चयनयका विषय है । इस पहलूको निश्चय करनेवाले ज्ञानका पहलू 'निश्चयनय' है ।
दूसरा पहलू - वर्तमान पर्यायमें दोष है - विकार है, अल्पज्ञता है यह निश्चय करना चाहिए । यह पहलू व्यवहारनयका विषय है । इसप्रकार दो नयोंके द्वारा आत्माके दोनों पहलुओका निश्चय करनेके बाद पर्यायका आश्रय छोड़ कर अपने त्रिकाल चैतन्य स्वरूपकी ओर उन्मुख होना चाहिए ।
इसप्रकार त्रैकालिक द्रव्यकी ओर उन्मुख होनेपर - वह त्रैकालिक नित्य पहलू होनेसे उसके श्राश्रयसे सम्यग्दर्शन प्रगट होता है ।
यद्यपि निश्चयनय और सम्यग्दर्शन दोनो भिन्न २ गुणोंकी पर्याय हैं तथापि उन दोनोंका विषय एक है अर्थात् उन दोनोंका विषय एक, प्रखण्ड, शुद्ध, बुद्ध, चैतन्यस्वरूप आत्मा है, उसे दूसरे शब्दो में ' त्रैकालिक ज्ञायक स्वरूप' कहा जाता है । सम्यग्दर्शन किसी परद्रव्य, देव, गुरु, शास्त्र अथवा निमित्त, पर्याय, गुरणभेद, या भग इत्यादिको स्वीकार नहीं करता, क्योंकि उसका विषय उपरोक्त कथनानुसार त्रिकाल ज्ञायकस्वरूप आत्मा है । (१३) निर्विकल्प अनुभवका प्रारम्भ
निर्विकल्प अनुभवका प्रारम्भ चौथे गुणस्थानसे ही होता है, किन्तु इस गुरगस्थानमे वह बहुतकाल के अन्तरसे होता है, और ऊपरके गुणस्थानों मे जल्दी २ होता है । नीचेके और ऊपरके गुणस्थानोंकी निर्विकल्पता में भेद यह है कि परिणामोकी मग्नता ऊपरके गुणस्थानोंमें विशेष है । [ गुजराती मोक्षमार्ग प्रकाशकके साथकी श्री टोडरमलजी कृत रहस्य पूर्ण चिट्ठी पृष्ठ ३४६ ]
(१४)
जब कि सम्यक्त्व पर्याय है तब उसे गुण कैसे कहते हैं ?
प्रश्नः - सम्यग्दर्शन पर्याय है फिर भी कहीं २ उसे सम्यक्त्व गुरण क्यों कहते हैं ?
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अध्याय १ परिशिष्ट १
१३१ उत्तर:-वास्तवमे तो सम्यग्दर्शन पर्याय है, किन्तु जैसा गुण है वैसी ही उसकी पर्याय प्रगट हुई है-इसप्रकार गुण पर्यायकी अभिन्नता वतानेके लिये कही कही उसे सम्यक्त्व गुण भी कहा जाता है; किन्तु वास्तवमे सम्यक्त्व पर्याय है, गुण नही । जो गुण होता है वह त्रिकाल रहता है। सम्यक्त्व त्रिकाल नही होता किन्तु उसे जीव जब अपने सत् पुरुषार्थसे प्रगट करता है तब होता है । इसलिये वह पर्याय है।
सभी सम्यग्दृष्टियोंका सम्यग्दर्शन समान है
प्रश्नः-छमस्थ जीवोको सम्यग्दर्शन होता है और केवली तथा सिद्धभगवानके भी सम्यग्दर्शन होता है, वह उन सबके समान होता है या असमान ?
उत्तरः-जैसे छद्मस्थ (-अपूर्णज्ञानी) जीवके श्रुतज्ञानके अनुसार प्रतीति होती है उसीप्रकार केवलीभगवान और सिद्धभगवानके केवलज्ञानके अनुसार प्रतीति होती है। जैसे तत्त्वश्रद्धान छद्मस्थको होता है वैसा ही केवली-सिद्धभगवानके भी होता है। इसलिये ज्ञानादिकी हीनाधिकता होने पर भी तिर्यंच आदिके तथा केवली और सिद्धभगवानके सम्यग्दर्शन तो समान ही होता है; क्योकि जैसी आत्म स्वरूपकी श्रद्धा छमस्थ सम्यग्दृष्टि को है वैसी ही केवली भगवानको है। ऐसा नही होता कि चौथे गुरणस्थान मे शुद्धात्माकी श्रद्धा एक प्रकारकी हो और केवली होने पर अन्य प्रकारकी हो, यदि ऐसा होने लगे तो चौथे गुणस्थानमे जो श्रद्धा होती है वह यथार्थ नही कहलायगी किन्तु मिथ्या सिद्ध होगी। [ देहलीका मोक्षमार्ग - प्रकाशक पृष्ठ ४७५ ]|
सम्यग्दर्शनके भेद क्यों कहे गये हैं ? प्रश्न:-यदि सभी सम्यग्दृष्टियोका सम्यग्दर्शन समान है तो फिर आत्मानुशासनकी ग्यारहवी गाथामे सम्यग्दर्शनके दश प्रकारके भेद क्यो कहे गये हैं ?
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मोक्षशास्त्र
उत्तरः——सम्यग्दर्शनके यह भेद निमित्तादिकी अपेक्षासे कहे गए हैं श्रात्मानुशासनमे दश प्रकारसे सम्यक्त्वके जो भेद कहे गये हैं उनमें से आठ भेद सम्यग्दर्शन प्रगट होनेसे पूर्व जो निमित्त होते है उनका ज्ञान करानेके लिए कहे है, और दो भेद ज्ञानके सहकारीपनकी अपेक्षासे कहे हैं । श्रुत केवलीको जो तत्त्वश्रद्धान है उसे अवगाढ़ सम्यग्दर्शन कहते हैं, और केवली भगवानको जो तत्त्वश्रद्धान है उसे परमावगाढ सम्यग्दर्शन कहा जाता है, इसप्रकार आठ भेद निमित्तोकी अपेक्षासे और दो भेद ज्ञानकी अपेक्षासे है । ' दर्शनकी' अपनी अपेक्षासे वे भेद नही है । उन दशों प्रकारमें सम्यग्दर्शनका स्वरूप एक ही प्रकारका होता है, - ऐसा समझना चाहिए, [ दे० का मोक्षमाग प्रकाशक श्र० ६ पृ० ४६३ ]
प्रश्न- यदि चौथे गुणस्थानसे सिद्ध भगवान तक सभी सम्यग्दृष्टियों के सम्यग्दर्शन एकसा है तो फिर केवली भगवानके परमावगाढ सम्यग्दर्शन क्यो कहा है ?
१३२
उत्तर:- - जैसे छद्मस्थको श्रुतज्ञानके अनुसार प्रतीति होती है उसीप्रकार केवली और सिद्ध भगवानको केवलज्ञानके अनुसार ही प्रतीति होती है । चौथे गुणस्थानमे सम्यग्दर्शनके प्रगट होने पर जो आत्मस्वरूप निर्णीत किया था वही केवलज्ञानके द्वारा जाना गया, इसलिए वहाँ प्रतीतिमें परमावगाढ़ता कहलाई, इसीलिए वहाँ परमावगाढ सम्यक्त्व कहा है । किन्तु पहिले जो श्रद्धान किया था उसे यदि केवलज्ञानमें मिथ्या जाना होता तब तो छद्यस्थको श्रद्धा श्रप्रतीतिरूप कहलातो, किन्तु आत्मस्वरूपका जैसा श्रद्धान छद्मस्थको होता है वैसा ही केवली और सिद्धभगवानको भी होता है; -- तात्पर्य यह है कि मूलभूत जीवादिके स्वरूपका श्रद्धान जैसा छद्मस्थ को होता है वैसा ही केवलीको भी होता है ।
(१७)
सम्यक्त्व निर्मलताका स्वरूप
श्रमिक सम्यक्त्व वर्तमानमे क्षायिकवत् निर्मल है । क्षायोपशमिय सम्यक्त्वमें समल तत्त्वार्थ श्रद्धान होता है । यहाँ जो मलस्व है
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अध्याय १ परिशिष्ट १ उसका तारतम्य-स्वरूप केवलज्ञानगम्य है। इस अपेक्षासे वह सम्यक्त्व निर्मल नहीं है । अत्यन्त निर्मल तत्त्वार्थ श्रद्धान-क्षायिक सम्यग्दर्शन है। [ मोक्षमार्गप्रकाशक अ०९] इन सभी सम्यक्त्वमें ज्ञानादिकी हीनाधिकता होने पर भी तुच्छ ज्ञानी तिर्यंचादिके तथा केवलीभगवान और सिद्धभगवानके सम्यक्त्व गुण तो समान ही कहा है, क्योंकि सबके अपने प्रात्माकी अथवा सात तत्त्वोंकी एकसी मान्यता है [ मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ४७५ देहली]
__ सम्यग्दृष्टिके व्यवहार सम्यक्त्वमें निश्चयसम्यक्त्व गर्भित है,-निरंतर गमन ( परिणमन ) रूप है, [ श्री टोडरमलजीकी चिट्ठी ]
(१८) सम्यक्त्वकी निर्मलता में निम्नप्रकार पाँच मेद भी किये जाते हैं
१-समल अगाढ, २-निर्मल, ३-गाढ, ४-अवगाढ और ५-परमावगाढ़।
वेदक सम्यक्त्व समल अगाढ़ है, औपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्व निर्मल है, क्षायिक सम्यक्त्व गाढ़ है । श्रग और अग बाह्य सहित जैनशास्त्रों के अवगाहनसे उत्पन्न दृष्टि अवगाढ़ सम्यक्त्व है, श्रुतकेवलीको जो तत्त्वश्रद्धान है उसे अवगाढ़ सम्यक्त्व कहते हैं परमावधिज्ञानीके और केवलज्ञानी के जो तत्त्वश्रद्धान है उसे परमावगाढ़ सम्यक्त्व कहते हैं। यह दो भेद ज्ञानके सहकारीभावकी अपेक्षासे है [ मोक्षमार्गप्रकाशक अ० ६ ]
__ "श्रीपशमिक सम्यक्त्वकी अपेक्षा क्षायिक सम्यक्त्व अधिक विशुद्ध है", [ देखो तत्त्वार्थ राजवातिक अध्याय २ सूत्र १ नीचेकी कारिका १०११, तथा उसके नीचे संस्कृत टीका ]
"क्षायोपशमिक सम्यक्त्वसे क्षायिक सम्यक्त्वकी विशुद्धि अनंत गुणी अधिक है", [ देखो तत्त्वार्थराजवार्तिक अध्याय २ सूत्र १ कारिका १२ नीचेकी संस्कृत टीका ]
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मोक्षशास्त्र
(१९)
सम्यग्दृष्टि जीव अपनेको सम्यक्त्व प्रगट होनेकी बात श्रुतज्ञानके द्वारा बरावर जानता है ।
१३४.
प्रश्नः -- अपनेको सम्यग्दर्शन प्रगट हुआ है यह किस ज्ञानके द्वारा मालूम होता है ?
उत्तर:- - चौथे गुणस्थानमे भावश्रुतज्ञान होता है उससे सम्यग्दृष्टि को सम्यग्दर्शनके प्रगट होनेकी बात मालूम हो जाती है । यदि उस ज्ञानके द्वारा खबर नहीं होती ऐसा माना जाय तो उस श्रुतज्ञानको सम्यक् [ यथार्थ ] कैसे कहा जा सकेगा । यदि अपने को अपने सम्यग्दर्शनको खबर न होती हो तो उसमें और मिथ्यादृष्टि अज्ञानीमें क्या अन्तर रहा ?
प्रश्न- यहाँ आपने कहा है कि सम्यग्दर्शन श्रुतज्ञानके द्वारा जाना जाता है, किन्तु पंचाध्यायी अध्याय २ में उसे अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान गोचर कहा है । वे श्लोक निम्नप्रकार है । ? -
सम्यक्त्वं वस्तुतः सूक्ष्मं केवलज्ञानगोचरम् । गोचरं स्वावधिस्वतः पर्ययज्ञानयोर्द्वयो || ३७५ ॥
[ अर्थ – सम्यक्त्व वास्तव में सूक्ष्म है और केवलज्ञान गोचर है तथा अवधि और मनःपर्यय इन दोनोंके गोचर है । ] और अध्याय २ गाथा ३७६ में यह कहा है कि वे मति और श्रुतज्ञान गोचर नही हैं; और यहाँ आप कहते हैं कि सम्यक्दर्शन श्रुतज्ञानगोचर है, इसका क्या उत्तर है ?
उत्तरः- सम्यग्दर्शन मतिज्ञान और श्रुतज्ञानगोचर नही है इस - प्रकार जो ३७६ वीं गाथामें कहा है उसका अर्थ इतना ही है कि- सम्यग्दर्शन उस-उस ज्ञानका प्रत्यक्ष विषय नही है ऐसा समझना चाहिए । किन्तु इसका अर्थ यह नही है कि इस ज्ञानसे सम्यक्दर्शन किसी भी प्रकार से नही जाना जा सकता । इस सम्बन्ध में पंचाध्यायी अध्याय २ की ३७१ और ३७३ वी गाथा निम्नप्रकार है
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अध्याय १ परिशिष्ट १
१३५ इत्येवं ज्ञानतत्त्वोसौ सम्यग्दृष्टिनिजात्मदृक् । वैषयिके सुखे ज्ञाने राग-द्वेषौ परित्यजेत् ॥३७१॥
मर्थ-इसप्रकार तत्त्वोंको जाननेवाले स्वात्मदर्शी सम्यग्दृष्टि जीव इन्द्रियजन्य सुख और ज्ञानमें राग द्वेषको छोड़ते हैं ।
अपराण्यपि लक्ष्माणि सन्ति सम्यग्गात्मनः । सम्यक्त्वेनाविनाभृतेर्यै (च) संलक्षते सुदृक् ।।३७३॥
प्रर्थ-सम्यग्दृष्टि जीवके दूसरे लक्षण भी हैं । जिन सम्यक्त्वके अविनाभावी लक्षणोंके द्वारा सम्यग्दृष्टि जीव लक्षित होता है ।
वे लक्षरण गाथा ३७४ में कहते हैउक्तमाक्ष्यं सुखं ज्ञानमनादेयं दृगात्मनः।
नादेयं कर्म सर्वच (स्व) तद्वद् दृष्टोपलब्धितः ॥३७४॥
अर्थ-जैसे ऊपर कहा है उसी प्रकार सम्यग्दृष्टिको इन्द्रियजन्य सुख और ज्ञानका आदर नहीं है तथा आत्म प्रत्यक्ष होनेसे सभी कर्मोका भी आदर नही है।
गाथा ३७५-३७६ का इतना ही अर्थ है कि-सम्यग्दर्शन केवलज्ञानादिका प्रत्यक्ष विषय है और मति श्र तज्ञानका प्रत्यक्ष विषय नही है, किन्तु मति श्र तज्ञानमे वह उसके लक्षणोके द्वारा जाना जा सकता है, और केवलज्ञानादि ज्ञानमे लक्षण लक्ष्यका भेद किये बिना प्रत्यक्ष जाना जा सकता है।
प्रश्न:-इस विषयको दृष्टांत पूर्वक समझाइए ?
उत्तर:-स्वानुभवदशामे जो आत्माको जाना जाता है सो श्रुतज्ञानके द्वारा जाना जाता है। श्र तज्ञान मतिज्ञान पूर्वक ही होता है, वह मतिज्ञान-श्रुतज्ञान परोक्ष है इसलिये वहाँ आत्माका जानना प्रत्यक्ष नही होता । यहाँ जो आत्माको भलीभांति स्पष्ट जानता है उसमें पारमार्थिक प्रत्यक्षत्व नही है तथा जैसे पुद्गल पदार्थ नेत्रादिके द्वारा जाना जाता है उसीप्रकार एकदेश (अंशतः ) निर्मलता पूर्वक भी आत्माके असंख्याति प्रदेशादि नहीं जाने जाते, इसलिए सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी नही है ।
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मोक्षशास्त्र
अनुभवमें आत्मा तो परोक्ष ही है, कहीं आत्माके प्रदेशोंका आकार भासित नही होता, परन्तु स्वरूपमें परिणाम मग्न होने पर जो स्वानुभव हुआ वह ( स्वानुभव ) प्रत्यक्ष है । इस स्वानुभवका स्वाद कही ग्रागमअनुमानादि परोक्षप्रमाणके द्वारा ज्ञात नही होता, किन्तु स्वयं ही इस ग्रनुभवके रसास्वादको प्रत्यक्ष वेदन करता है जानता है । जैसे कोई अन्य पुरुष मिश्रीका स्वाद लेता है, वहीं मिश्रीका आकारादि परोक्ष है, किन्तु जिह्वा द्वारा स्वाद लिया है इसलिए वह स्वाद प्रत्यक्ष है, ऐसा अनुभव के सम्बन्धमे जानना चाहिए । [ टोडरमलजी की रहस्य पूर्ण चिट्ठी । ] यह दशा चौथे गुणस्थान में होती है ।
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इस प्रकार आत्माका अनुभव जाना जा सकता है, और जिस जीव को उसका अनुभव होता है उसे सम्यग्दर्शन अविनाभावी होता है, इसलिए मतिश्र ुतज्ञानसे सम्यग्दर्शन भलीभांति जाना जा सकता है ।
प्रश्नः -- इस सम्बन्धमे पंचाध्यायीकारने क्या कहा है ?
उत्तर - पंचाध्यायी के पहले अध्यायमे मति श्रुतज्ञानका स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि-
अपि किचाभिनिबोधिकबोधद्वैतं तदादिमं यावत् । स्वात्मानुभूतिसमये प्रत्यक्षं तत्समक्षमिव नान्यत् ॥७०६॥ अर्थः-- और विशेष यह है कि-स्वानुभूतिके समय जितना भी पहिले उस मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका द्वैत रहता है उतना वह सब साक्षात् प्रत्यक्ष की भाँति प्रत्यक्ष है, दूसरा नही - परोक्ष नहीं ।
भावार्थ:- - तथा उस मति और श्रुतज्ञानमें भी इतनी विशेषता है कि- जिस समय उन दो ज्ञानोंमेसे किसी एक ज्ञानके द्वारा स्वानुभूति होती है उस समय यह दोनों ज्ञान भी अतीन्द्रिय स्वात्माको प्रत्यक्ष करते हैं, इसलिए यह दोनो ज्ञान भी स्वानुभूति के समय प्रत्यक्ष है-परोक्ष नही । प्रश्नः -- क्या इस सम्बन्धमे कोई और शास्त्राधार है ?
उत्तरः- हाँ, पं० टोडरमलजीकृत रहस्यपूर्ण चिट्ठीमें निम्नप्रकार
कहा है:
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अध्याय १ परिशिष्ट १
१३७ "जो प्रत्यक्षके समान होता है उसे भी प्रत्यक्ष कहते हैं। जैसे लोक में भी कहते हैं कि-'हमने स्वप्नमें या ध्यानमें अमुक मनुष्यको प्रत्यक्ष देखा, यद्यपि उसने प्रत्यक्ष नही देखा है तथापि प्रत्यक्षकी भाँति यथार्थ देखा है इसलिये उसे प्रत्यक्ष कह देते हैं, इसीप्रकार अनुभवमे आत्मा प्रत्यक्षकी भांति यथार्थ प्रतिभासित होता है।
प्रश्न:-श्री कुन्दकुन्दाचार्यकृत समयसार परमागममे इस संबंधमे क्या कहा है ?
उत्तर:-(१) श्रीसमयसारकी ४६ वी गाथाकी टीकामें इसप्रकार कहा है;-इसप्रकार रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द, संस्थान और व्यक्तता का अभाव होने पर भी स्वसंवेदनके बलसे सदा प्रत्यक्ष होनेसे अनुमानगोचर -मात्रताके अभावके कारण (जीवको) अलिंगग्रहण कहा जाता है।'
___ "अपने अनुभवमे आनेवाले चेतना गुणके द्वारा सदा अंतरंगमे प्रकाशमान है इसलिये (जीव) चेतना गुणवाला है।"
(२) श्री समयसारकी १४३ वी गाथाकी टीकामें इसप्रकार कहा है;
टीका:-जैसे केवली भगवान, विश्वके साक्षीपनके कारण, श्रुतज्ञान के अवयवभूत-व्यवहार निश्चयनयपक्षोके स्वरूपको ही केवल जानते है किंतु, निरंतर प्रकाशमान, सहज, विमल, सकल केवलज्ञानके द्वारा सदा स्वय ही विज्ञानधन होनेसे श्रुतज्ञानकी भूमिकाके अतिक्रान्तत्वके द्वारा (श्रुतज्ञानकी भूमिकाको उल्लंघन कर चुकनेसे) समस्त नयपक्षके ग्रहणसे दूर होनेसें, किसी भी नयपक्षको ग्रहण नहीं करते, उसीप्रकार जो (श्रुतज्ञानी आत्मा ), जिसकी उत्पत्ति क्षयोपशम से होती है ऐसे श्रुतज्ञानात्मक विकल्पोके उत्पन्न होते हुए भी परका ग्रहण करनेके प्रति उत्साह निवृत्त होनेसे, श्रु तज्ञानके अवयवभूत व्यवहार निश्चयनय पक्षोके स्वरूपको ही केवल जानते हैं, किंतु तीक्ष्ण ज्ञान दृष्टि से ग्रहण किये गये निर्मल, नित्य उदित, चिन्मय समयसे प्रतिबद्धताके कारण ( चैतन्यमय प्रात्माके अनुभवसे ) उस समय (अनुभवके समय) स्वयं ही विज्ञानघन होनेसे, श्रुतज्ञानात्मक समस्त अंतर्जल्प१८
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मोक्षशास्त्र
रूप तथा बहिर्जल्परूप विकल्पोंकी भूमिकाकी अतिक्रतिताके द्वारा समस्त नयपक्षके ग्रहणसे दूर होनेसे, किसी भी नयपक्षको ग्रहण नहीं करता, वह ( आत्मा ) वास्तव में समस्त विकल्पोंसे परे, परमात्मा, ज्ञानात्मा, प्रत्यग्ज्योति श्रात्मख्यातिरूप, अनुभूतिमात्र समयसार है ।
भावार्थ --- जैसे केवली भगवान सदा नयपक्षके स्वरूपके साक्षी ( ज्ञाता - दृष्टा ) हैं उसी प्रकार श्रुतज्ञानी भी जब समस्त नयपक्षोंसे रहित होकर शुद्ध चैतन्यमात्र भावका अनुभव करते है तब वे नयपक्षके स्वरूपके ज्ञाता ही होते हैं । एक नयका सर्वथा पक्ष ग्रहरण किया जाय तो मिथ्यात्व के साथ मिश्रित राग होता है; प्रयोजनके वश एक नयको प्रधान करके उसे ग्रहण करे तो मिथ्यात्वके अतिरिक्त चारित्रमोहका राग रहता है; और जब नयपक्षको छोड़कर केवल वस्तुस्वरूपको जानता है तब श्रुतज्ञानी भी केवलकी भाँति वीतरागके समान ही होता है, ऐसा समझना चाहिए ।
(३) श्री समयसारकी ५ वी गाथामें आचार्यदेव कहते हैं कि"उस एकत्वविभक्त आत्माको में आत्माके निज वैभवके द्वारा दिखाता है, यदि मैं उसे दिखाऊँ तो प्रमाण करना । उसकी टीका करते हुए श्री अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं कि-"यों जिसप्रकारसे मेरा ज्ञानका वैभव है उस समस्त वैभवसे दिखलाता हूँ । यदि दिखाऊँ तो स्वयमेव अपने अनुभवप्रत्यक्षसे परीक्षा करके प्रमाण कर लेना” । आगे जाकर भावार्थ में बताया है कि- 'आचार्य श्रागमका सेवन, युक्तिका अवलम्बन, परापर गुरुका उपदेश, और स्वसंवेदन - इन चार प्रकारसे उत्पन्न हुए अपने ज्ञानके वैभवसे एकत्वविभक्त शुद्ध आत्माका स्वरूप दिखाते हैं । उसे सुननेवाले हे श्रोताओं ! अपने स्वसंवेदन - प्रत्यक्षसे प्रमाण करो" । इससे सिद्ध होता है कि-अपनेकों जो सम्यक्त्व होता है उसकी स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे श्रुतप्रमाण ( सच्चेज्ञान ) के द्वारा अपनेको खबर हो जाती है ।
-
(४) कलश 8 मे श्री अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं किमालिनी
उदयति न नयश्रीरस्तमेति प्रमाणम् क्वचिदपि च न विद्मो याति निक्षेपचक्रम् |
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अध्याय १ परिशिष्ट १
१३६ किमपरमभिदध्मो धाम्नि सर्वकषेस्मि
नमनुभवमुपयाते भाति न दूतमेव ॥९॥ अर्थ-आचार्य शुद्धनयका अनुभव करके कहते है कि इन सर्व भेदोंको गौण करनेवाला जो शुद्धनयका विषयभूत चैतन्य चमत्कार मात्र तेज पुंज
आत्मा है, उसका अनुभव होनेपर नयोकी लक्ष्मी उदयको प्राप्त नही होती। प्रमाण अस्तको प्राप्त होता है और निक्षेपोंका समूह कहाँ चला जाता है सो हम नहीं जानते। इससे अधिक क्या कहें ? द्वैत ही प्रतिभासित नही होता।
भावार्थ:-xxxxxx शुद्ध अनुभव होनेपर द्वैत ही भासित नही होता, केवल एकाकार चिन्मात्र ही दिखाई देता है।
इससे भी सिद्ध होता है कि चौथे गुणस्थानमे भी आत्माको स्वयं अपने भावश्रुतके द्वारा शुद्ध अनुभव होता है । समयसारमे लगभग प्रत्येक गाथामे यह अनुभव होता है, यह बतलाकर अनुभव करनेका उपदेश दिया है।
__ सम्यक्त्व सूक्ष्म पर्याय है यह ठीक है, किन्तु सम्यग्ज्ञानी यह निश्चय कर सकता है कि मुझे सुमति और सुश्रुतज्ञान हुआ है, और इससे श्रुतज्ञान मे यह निश्चय करता है कि उसका ( सम्यग्ज्ञानका ) अविनाभावी सम्यक ग्दर्शन मुझे हुआ है । केवलज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और परमावधिज्ञान सम्यग्दर्शनको प्रत्यक्ष जान सकता है, इतना ही मात्र अन्तर है।
__पंचाध्यायीकी गाथा १९६-१९७-१९८ की हिन्दी टीका (पं. मक्खनलालजी कृत ) में कहा है कि "ज्ञान शब्दसे आत्मा समझना चाहिए, क्योकि आत्मा स्वयं ज्ञानरूप है; वह आत्मा जिसके द्वारा शुद्ध जाना जाता है उसका नाम ज्ञान चेतना है अर्थात् जिस समय ज्ञानगुण सम्यक् अवस्थाको प्राप्त होता है-केवल शुद्धात्माका अनुभव करता है उससमय उसे ज्ञानचेतना कहा जाता है। ज्ञानचेतना निश्चयसे सम्यग्दृष्टिको ही होती है, मिथ्यादृष्टिको कभी नही हो सकती।
सम्यक्मति और सम्यक् श्रुतज्ञान कथचित् अनुभव गोचर होनेसे प्रत्यक्षरूप भी कहलाता है। और संपूर्णज्ञान जो केवलज्ञान है वह यद्यपि
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मोक्षशास्त्र छद्मस्थको प्रत्यक्ष नही है तथापि शुद्धनय आत्माके केवलज्ञानरूपको परोक्ष वतलाता है।
[ श्री समयसार गाथा १४ के नीचेका भावार्थ ] इसप्रकार सम्यग्दर्शनका यथार्थज्ञान सम्यक्मति और श्रुतज्ञानके अनुसार हो सकता है।
(२०)
कुछ प्रश्नोत्तर (१) प्रश्न-जब ज्ञानगुण आत्माभिमुख होकर आत्मलीन हो जाता है तब उस ज्ञानको विशेष अवस्थाको सम्यग्दर्शन कहते है, क्या यह ठीक है ?
उचर-नही यह ठीक नही; सम्यग्दर्शन दर्शन ( श्रद्धा ) गुणकी पर्याय है, वह ज्ञानकी विशेष पर्याय नही है। ज्ञानकी आत्माभिमुख अवस्थाके समय सम्यग्दर्शन होता है; यह सही है किन्तु सम्यग्दर्शन ज्ञानकी पर्याय नहीं है।
(२) प्रश्न-क्या सुदेव, सुगुरु और सुशास्त्रकी श्रद्धा सम्यग्दर्शन
उत्तर-वह निश्चय सम्यग्दर्शन नहीं है किन्तु जिसे निश्चय सम्यग्दर्शन होता है उसे वह व्यवहारसम्यग्दर्शन कहा जाता है, क्योकि वहाँ राग मिश्रित विचार है।
(३) प्रश्न-क्या व्यवहारसम्यग्दर्शन निश्चयसम्यग्दर्शनका सच्चा कारण है ?
उत्तर-नही, क्योकि निश्चय भावश्रुतज्ञान परिणमित हुए बिना, निश्चय और व्यवहार होता नही किन्तु व्यवहाराभास होता है, इसलिये वह निश्चयसम्यग्दर्शनका कारण नहीं है। व्यवहारसम्यग्दर्शन (आभासस्प हो या सच्चा हो ) विकार (-अशुद्ध पर्याय ) है और निश्चय सम्यग्दर्शन अविकार-शुद्ध पर्याय है, विकार अविकारका कारण कैसे हो सकता है ? अर्थात् वे, निश्चयसम्यग्दर्शनका कारण नही हो सकता, किन्तु
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अध्याय १ परिशिष्ट १
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व्यवहाराभासका व्यय ( - प्रभाव ) होकर निश्चयसम्यग्दर्शनका उत्पादसुपात्र जीवको अपने पुरुषार्थसे ही होता है [ व्यवहाराभासको संक्षेपमे व्यवहार कहा जाता है । ]
जहाँ शास्त्रमे व्यवहारसम्यग्दर्शनको निश्चयसम्यग्दर्शनका कारण कहा है वहाँ यह समझना चाहिए कि व्यवहारसम्यग्दर्शनको अभावरूप कारण कहा है । कारणके दो प्रकार है - ( १ ) निश्चय (२) और व्यवहार | निश्चय कारण तो अवस्थारूपसे होनेवाला द्रव्य स्वय है और व्यवहार कारण पूर्वको पर्यायका व्यय होना है ।
(४) प्रश्न- -श्रद्धा, रुचि और प्रतीति श्रादि जितने गुण है वे सब सम्यक्त्व नही किन्तु ज्ञानकी पर्याय है ऐसा पंचाध्यायी अध्याय २ गाथा ३८६-३८७ में कहा है, इसका क्या कारण है ?
-
उत्तर- - जब आत्मा जीवादि सात तत्वोंका विचार करता है तब उसके ज्ञानमे रागसे भेद होता है इसलिए वे ज्ञानकी पर्याय हैं और वे सम्यक् नही हैं ऐसा कहा है ।
सात तत्त्व और नव पदार्थोका निर्विकल्पज्ञान निश्चय सम्यग्दर्शन सहितका ज्ञान है । [ देखो पचाध्यायी अध्याय २ श्लोक १८६-१८६ ] श्लोक ३८६ के भावार्थमे कहा है कि- "परन्तु वास्तवमे ज्ञान भी यही है कि जैसेको तैसा जानना और सम्यक्त्व भी यही है कि जैसाका तैसा श्रद्धान करना” |
इससे समझना चाहिये कि रागमिश्रित श्रद्धा ज्ञानकी पर्याय है । राग रहित तत्त्वार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन है, उसे सम्यक् मान्यता अथवा सम्यक् प्रतीति भी कहते है | गाथा ३८७ में कहा है कि - ज्ञानचेतना सम्यग्दर्शनका लक्षण है, - इसका यह अर्थ है कि अनुभूति स्वयं सम्यग्दर्शन नही है किन्तु जब वह होती है तब सम्यग्दर्शन अविनाभावीरुप होता है इसलिये उसे बाह्य लक्षण कहा है। [ देखो, पचाध्यायी अध्याय २ गाथा ४०१ -४०२-४०३] सम्यग्दर्शनके प्रगट होते ही ज्ञान सम्यक् हो जाता है, और आत्मानुभूति होती है, अर्थात् ज्ञान स्वज्ञेयमे स्थिर होता है । किन्तु वह
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मोक्षशास्त्र स्थिरता कुछ समय ही रहती है । और राग होनेसे ज्ञान स्वमेंसे छूटकर परकी ओर जाता है तब भी सम्यग्दर्शन होता है। और यद्यपि ज्ञानका उपयोग दूसरेके जानने में लगा हुआ है तथापि वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान है, उस समय अनुभूति उपयोगरूप नहीं है फिर भी सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है ऐसा समझना चाहिए, क्योंकि लब्धिरूप अनुभूति है।
(५) प्रश्न-'सम्यग्दर्शनका एक लक्षण ज्ञानचेतना है' क्या यह ठीक है ?
उचर-ज्ञानचेतनाके साथ सम्यग्दर्शन अविनाभावी होता ही है इसलिए वह व्यवहार अथवा बाह्य लक्षण है।
(६) प्रश्न-'अनुभूतिका नाम चेतना है' क्या यह ठीक है ?
उचर-ज्ञानकी स्थिरता अर्थात् शुद्धोपयोग ( अनुभूति ) को उपयोगरूप ज्ञानचेतना कहा जाता है।
(७) प्रश्न-यदि सम्यवत्वका विषय सभीके एकसा है तो फिर सम्यग्दर्शनके औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक-ऐसे भेद क्यों किये
उत्तर-दर्शन मोहनीय कर्मके अनुभागबन्धकी अपेक्षासे वे भेद नहीं हैं किंतु स्थितिवन्धकी अपेक्षासे हैं। उनके कारणसे उनमे आत्माकी मान्यता मे कोई अंतर नही पड़ता । प्रत्येक प्रकारके सम्यग्दर्शनमे प्रात्माकी मान्यता एक ही प्रकारकी है । आत्माके स्वरूपकी जो मान्यता औपशमिक सम्यक्दर्शनमे होती है वही क्षायोपशमिक और क्षायिक सम्यग्दर्शनमे होती है। केवली भगवानको परमावगाढ़ सम्यग्दर्शन होता है, उनके भी आत्मस्वरूप की उसी प्रकारकी मान्यता होती है । इस प्रकार सभी सम्यग्दृष्टि जीवोंके प्रात्मस्वरूपको मान्यता एक ही प्रकारकी होती है। [ देखो, पंचाध्यायी अध्याय २ गाथा ६३४-९३८]
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अध्याय १ परिशिष्ट १
(२१)
ज्ञानचेतनाके विधानमें अन्तर क्यों है ?
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प्रश्न- पंचाध्यायी और पंचास्तिकाय में ज्ञानचेतनाके विधानमें अंतर क्यों है ?
उत्तर - पंचाध्यायीमे चतुर्थं गुणस्थानसे ज्ञानचेतनाका विधान किया है [ अध्याय २ गाथा ८५४ ], और पंचास्तिकायमे तेरखें गुणस्थानसे ज्ञानचेतनाको स्वीकार किया है, किन्तु इससे उसमे विरोध नहीं आता । सम्यग्दर्शन जीवके शुभाशुभभावका स्वामित्व नही है इस अपेक्षासे पंचाध्यायोमे चतुर्थं गुणस्थानसे ज्ञानचेतना कही है । भगवान श्री कुन्दकुन्दाचार्य देवने क्षायोपशमिक मावमें कर्म निमित्त होता है इस अपेक्षासे नीचे के गुणस्थानोमें उसे स्वीकार नही किया है । दोनों कथन विवक्षाधीन होनेसे सत्य हैं ।
(२२)
इस सम्बन्धमें विचारणीय नव विषय --
(१) प्रश्न- गुरणके समुदायको द्रव्य कहा है और संपूर्ण गुण द्रव्य के प्रत्येक प्रदेशमें रहते है इसलिये यदि आत्माका एक गुण ( - सम्यग्दर्शन ) क्षायिक हो जाय तो संपूर्ण आत्मा ही क्षायिक हो जाना चाहिये और उसी क्षरण उसको मुक्ति हो जानी चाहिये, ऐसा क्यों नहीं होता ?
उचर- - जीव द्रव्यमें अनंत गुण हैं, वे प्रत्येक गुरग असहाय और स्वाधीन है, इसलिये एक गुरणकी पूर्ण शुद्धि होनेपर दूसरे गुरणकी पूर्ण शुद्धि होनी ही चाहिये ऐसा नियम नही है । आत्मा प्रखंड है इसलिये एक गुण दूसरे गुणके साथ अभेद है - प्रदेश भेद नही है, किन्तु पर्यायापेक्षा से प्रत्येक गुणकी पर्यायके भिन्न २ समय में पूर्ण शुद्ध होनेमे कोई दोष नही है; जब द्रव्यापेक्षा से संपूर्ण शुद्ध प्रगट हो तब द्रव्य की संपूर्ण शुद्धि प्रगट हुई मानी जाय, किन्तु क्षायिक सम्यग्दर्शनके होनेपर संपूर्ण श्रात्मा क्षायिक होना चाहिये और तत्काल मुक्ति होनी चाहिये ऐसा मानना ठीक नहीं है ।
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मोक्षशास्त्र
(२) प्रश्न-एक गुण सर्व गुणात्मक है और सर्व गुण एक गुणात्मक है; इसलिये एक गुणके सपूर्ण प्रगट होनेसे अन्य संपूर्ण गुण भी पूर्ण रीतिसे उसीसमय प्रगट होना चाहिये, क्या यह ठीक है ?
उत्तर-यह मान्यता ठीक नहीं है । गुण और गुणी अखंड हैं इस अभेदापेक्षासे गुण अभेद है-किन्तु इसीलिये एक गुण दूसरे सभी गुणरूप है ऐसा नहीं कहा जा सकता; ऐसा कहने पर प्रत्येक द्रव्य एक ही गुणात्मक हो जायगा, किन्तु ऐसा नहीं होता । भेदकी अपेक्षासे प्रत्येक गुण भिन्न, स्वतंत्र, असहाय है, एक गुणमे दूसरे गुणकी नास्ति है, वस्तुका स्वरूप भेदाभेद है-ऐसा न माना जाय तो द्रव्य और गुण सर्वथा अभिन्न हो जायेंगे । एक गुणका दूसरे गुणके साथ निमित्त नैमित्तिक सबध है,-इस अपेक्षासे एक गुरणको दूसरे गुणका सहायक कहा जाता है। [जैसे सम्यग्दर्शन कारण और सम्यग्ज्ञान कार्य है। ]
(३) प्रश्न-प्रात्माके एक गुणका घात होनेमें उस गुणके घातमे निमित्तरूप जो कर्म है उसके अतिरिक्त दूसरे कर्म निमित्तरूप घातक है या नही?
उत्तर-नही।
प्रश्न-अनंतानुबंधी चारित्रमोहनीयकी प्रकृति है इसलिये वह चारित्रके घातमे निमित्त हो सकती है, किन्तु वह सम्यग्दर्शनके घातमें निमित्त कैसे मानी जाती है ?
उत्तर-अनतानुवन्धीके उदयमे युक्त होनेपर क्रोधादिरूप परिणाम होते है किन्तु कही अतत्त्व श्रद्धान नहीं होता, इसलिये वह चारित्रके घात का ही निमित्त होता है, किन्तु सम्यक्त्वके घातमे वह निमित्त नही है, परमाने तो ऐसा ही है, किन्तु अनंतानुवंधोके उदयसे जैसे क्रोधादिक होते हैं वैगे मोधादिक सम्यक्त्व के सद्भावमें नहीं होते,-ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सबंध लिये उपचारसे अनंतानुवधीमें सम्यक्त्वकी घातकता कही जाती है।
[ मोक्षमार्गप्रकाराक पृ० ४४६ देहली। ]
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अध्याय १ परिशिष्ट १
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(४) प्रश्नः - संसार में ऐसा नियम है कि प्रत्येक गुरणका क्रमिक विकास होता है, इसलिये सम्यग्दर्शनका भी क्रमिक विकास होना चाहिए । क्या यह ठीक है ?
-
उचर :- - ऐसा एकान्त सिद्धान्त नही है । विकास में भी अनेकान्त स्वरूप लागू होता है, -प्रर्थात् आत्माका श्रद्धागुरण उसके विषयकी अपेक्षासे एकसाथ प्रगट होता है और आत्माके ज्ञानादि कुछ गुणोमे क्रमिक विकास होता है ।
अक्रमिक विकासका दृष्टान्त
मिथ्यादर्शनके दूर होने पर एक समयमे सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, उसमें क्रम नही पड़ता । जब सम्यग्दर्शन प्रगट होता है तभीसे वह अपने विषयके प्रति पूर्ण और क्रम रहित होता है ।
क्रमिक विकासका दृष्टान्त
सम्यग्ज्ञान-सम्यग्चारित्रमे क्रमशः विकास होता है । इसप्रकार विकास मे क्रमिकता और अक्रमिकता आती है । इसलिये विकासका स्वरूप अनेकान्त है ऐसा समझना चाहिए ।
(५) प्रश्न- - सम्यक्त्वके आठ अङ्ग कहे हैं, उनमे एक अङ्ग 'निःशकित' है जिसका अर्थ निर्भयता है । निर्भयता आठवें गुणस्थानमे होती है इसलिये क्या यह समझना ठीक है कि जबतक भय है तबतक पूर्ण सम्यग्दर्शन नही होता ? यदि सम्यग्दर्शन पूर्ण होता तो श्रेणिक राजा जो कि क्षायिक सम्यग्दृष्टि थे वे श्रापघात नही करते,—यह ठीक है या नही ? उत्तर- - यह ठीक नही है; सम्यग्दृष्टिको सम्यग्दर्शन के विपयकी मान्यता पूर्ण ही होती है, क्योकि उसका विषय अखण्ड शुद्धात्मा है । सम्यग्दृष्टिके शंका—कांक्षा - विचिकित्साका प्रभाव द्रव्यानुयोगमे कहा है, और कररणानुयोगमे भयका श्राठवें गुरणस्थान तक, लोभका दशवे गुणस्थान तक और जुगुप्साका आठवे गुणस्थान तक सद्भाव कहा है, इसमे विरोध नही है क्योकि श्रद्धानपूर्वकके तीव्र शंकादिका सम्यग्दृष्टिके प्रभाव हुआ है अथवा
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मोक्षशास्त्र मुख्यतया सम्यग्दृष्टि शंकादि नहीं करता, इस अपेक्षासे सम्यग्दृष्टिके शंकादिका अभाव कहा है, किन्तु सूक्ष्म शक्तिकी अपेक्षासे भयादिका उदय आठवें आदि गुणस्थान तक होता है इसलिये करणानुयोगमें वहाँ तक सद्भाव कहा है। [ देहलीवाला मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ४३३ ]
सम्यग्दृष्टिके 'निर्भयता' कही है इसका अर्थ यह है कि अनन्तानुबन्धो का कषायके साथ जिसप्रकारका भय होता है उसप्रकारका भय सम्यग्दृष्टि को नहीं होता, अर्थात् अज्ञानदशामें जीव जो यह माम रहा था कि "परवस्तुसे मुझे भय होता है' यह मान्यता सम्यग्दृष्टि हो जाने पर दूर हो जाती है, उसके बाद भी जो भय होता है वह अपने पुरुषार्थकी कमज़ोरीके कारण होता है अर्थात् भयमें अपनी वर्तमान पर्यायका दोष है-परवस्तुका नही, ऐसा वह मानता है।
श्रेणिक राजाको जो भय उत्पन्न हुआ था सो वह अपने चारित्रकी कमजोरीके कारण हुआ था, ऐसी उसकी मान्यता होनेसे सम्यग्दर्शनकी अपेक्षासे वह निर्भय था। चारित्रकी. अपेक्षासे अल्प भय होनेपर उसे आत्मघातका विकल्प हुआ था।
(६) प्रश्न:-क्षायिक लब्धिकी स्थिति रखनेके लिये वीर्यान्तराय कर्मके क्षयकी आवश्यकता होगी, क्योंकि क्षायिक शक्तिके बिना कोई भी क्षायिक लब्धि नही रह सकती। क्या यह मान्यता ठीक है ?
उचर-यह मान्यता ठीक नही है; वीर्यान्तरायके क्षयोपशमके निमित्तसे अनेक प्रकारको क्षायिक पर्यायें प्रगट होती हैं । १-क्षायिक सम्यग्दर्शन (चौथेसे सातवे गुणस्थानमे ),.२-क्षायिक यथाख्यात चारित्र (वारहवे गुणस्थानमे ), ३-शायिक क्षमा ( दशवे गुणस्थानमें ),
* द्रव्य क्रोधको नवमें गुणस्थानके सातवें भागमें व्युच्छित्ति होती है। द्रव्यमानकी नवमें गुणस्थानके आठवें भागमें व्युच्छित्ति होती है। द्रव्यमाया की नवमें गुणस्यान नवमें भागमें व्युच्छित्ति होती है।
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१४७ ४-क्षायिक निर्मानता ( दशवे गुणस्थानमें ), ५-क्षायिक निष्कपटता ( दशवें गुणस्थानमें ) और क्षायिक निर्लोभता ( बारहवें गुणस्थानमे ) होती है। बारहवे गुणस्थानमें वीर्य क्षयोपशमरूप होता है, फिर भी कषायका क्षय है।
अन्य प्रकारसे देखा जाय तो तेरहवें गुरणस्थानमें क्षायिक अनन्तवीर्य और संपूर्ण ज्ञान प्रगट होता है, तथापि योगोंका कंपन और चार प्रतिजीवी गुणोंकी शुद्ध पर्यायकी अप्रगटता (-विभाव पर्याय ) होती है। चौदहवें गुणस्थानमे कषाय और योग दोनों क्षयरूप है, फिर भी असिद्धत्व है, उस समय भी जीवकी अपने पूर्ण शुद्धतारूप उपादानकी कचाईके कारण कर्मोके साथका सम्बन्ध और संसारीपन है ।
उपरोक्त कथनसे यह सिद्ध होता है कि-भेदकी अपेक्षासे प्रत्येक गुण स्वतंत्र है, यदि ऐसा न हो तो एक गुण दूसरे गुणरूप हो जाय और उस गुरणका अपना स्वतंत्र कार्य न रहे । द्रव्यकी अपेक्षासे सभी गुण अभिन्न है यह ऊपर कहा गया है।
(७) प्रश्न-ज्ञान और दर्शन चेतना गुणके विभाग हैं, उन दोनोंके घातमे निमित्तरूपसे भिन्न २ कर्म माने गये है, किन्तु सम्यक्त्व और चारित्र दोनों भिन्न २ गुण हैं तथापि उन दोनोके घातमे निमित्तकर्म एक मोह ही माना गया है, इसका क्या कारण है ?
प्रश्न का विस्तार इस प्रश्न परसे निम्नलिखित प्रश्न उत्पन्न होते हैं१-जब कि मोहनीय कर्म सम्यक्त्व और चारित्र दोनो गुणोंके
घातमें निमित्त है तब मूल प्रकृतियोमे उसके दो भेद मानकर
नौ कर्म कहना चाहिए, किन्तु आठ ही क्यो कहे गये हैं ? २-जब कि मोहनीयकर्म दो गुणोके घातनेमे निमित्त है तव चार
घातिया कर्म चार ही गुणोके घातनेमे निमित्त क्यों वताये गये हैं ? पाँच गुणोंका घात क्यो नही माना गया ?
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मोक्षशास्त्र
३ - शुद्ध जीवोंके कर्म नष्ट होनेपर प्रगट होनेवाले जो प्राठ गुण कहे है, उनमें चारित्रको न कहकर सम्यक्त्वको ही कहा है इसका क्या कारण है ? वहाँ चारित्रको क्यों छोड़ दिया है ? ४ - कही कहीं चारित्र अथवा सम्यक्त्वमेंसे एकको भी न कहकर सुख गुणका ही उल्लेख किया गया है सो ऐसा क्यों ?
उत्तर
जब जीव अपना निजस्वरूप प्रगट न करे और संसारिक दशाको बढ़ाये तब मोहनीय कर्म निमित्त है किन्तु यह मानना सर्वथा मिथ्या है कि कर्म जीवका कुछ कर सकते हैं । संसारिक दशाका अर्थ यह है कि जीवमें आकुलता हो, प्रशांति हो, क्षोभ हो । इस अशांतिके तीन भाग किये जा सकते हैं;~~१- अशांतिरूप वेदनका ज्ञान, २-उस वेदनकी ओर जीव भुके तब निमित्त कारण, और ३- प्रशांतिरूप वेदन | उस वेदनका ज्ञान ज्ञानगुणमें गर्भित हो जाता है । उस ज्ञानके कारणमें ज्ञानावरणका क्षयोपशम निमित्त है । जब जीव उस वेदनकी ओर लगता है तब वेदनीय कर्म उस कार्य में निमित्त होता है; और वेदनमें मोहनीय निमित्त है । प्रशांति, मोह, आत्मज्ञानपराङ्मुखता, तथा विषयासक्ति, यह सब मोहके हो कार्य है । कारणके नाशसे कार्य भी नष्ट हो जाता है इसलिये विषयासक्तिको घटाने से पूर्व ही आत्मज्ञान उत्पन्न करनेका उपदेश भगवानने दिया है ।
मोहके कार्यको दो प्रकारसे विभक्त कर सकते हैं:-१ दृष्टिको विमुखता और २ चारित्रको विमुखता । दोनोंमें विमुखता सामान्य है । वे दोनो सामान्यतया 'मोह' के नामसे पहिचानी जाती है, इसलिये उन दोनों को प्रभेदरूपसे एक कर्म बतलाकर उसके दो उपविभाग 'दर्शन मोह' और 'चारित्र मोह' कहे हैं । दर्शनमोह अपरिमितमोह है और चारित्रमोह परिमित । मिथ्यादर्शन संसारको जड़ है, सम्यग्दर्शनके प्रगट होते ही मिथ्यादर्शनका अभाव हो जाता है । मिथ्यादर्शनमे दर्शनमोह निमित्त है, दर्शन मोहका अभाव होनेपर उसी समय चारित्र मोहका एक उपविभाग जो कि
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अध्याय १ परिशिष्ट १
१४६ अनंतानुरंबी होघ मान माया लोभ है उसका एक ही साथ अभाव हो जाता है, और तत्पश्चात् कमनः वीतरागताके बढ़नेपर चारित्रमोहका क्रमशः सभाप होता जाता है, इसलिये दर्गनको कारण और चारित्रको कार्य भी पाहा जाता है, उनप्रकार भेदको अपेक्षासे वे पृयक हैं। इसलिये प्रथम अभेदकी पेशाले 'मोह' एक होनेसे उसे एक कर्म मानकर फिर उसके दो उपविभाग
नमोह और नारिनमोह माने गये है।
चार घातिया कर्मों को चार गुणोंके घातमे निमित्त कहा है इसका पारण यह है कि मोह फर्मको अभेदकी अपेक्षासे जब एक माना है तब घसा और चारिन गुणको अभेदको अपेक्षासे शांति (सुख) मान कर चार गुणक पातने चार घातिया कर्मोको निमित्तरूप कहा है।
शंका~यदि मिथ्यात्व और कपाय एक ही हो तो मिथ्यात्वका नाश होने पर कपायका भी अभाव होना चाहिए, जिस कषायके अभावको चारित्र की प्राप्ति कहते हैं, किन्तु ऐसा नही होता और सम्यक्त्वके प्राप्त होने पर भी चौथे गुणस्थानमे चारित्र प्राप्त नहीं होता, इसलिये चौथे गुणस्थानको अनतरूप कहा जाता है । अणुव्रतके होनेपर पाँचवाँ गुणस्थान होता है और पूर्ण व्रतके होने पर 'वती' संज्ञा होने पर भी यथाख्यात चारित्र प्राप्त नही होता । इसप्रकार विचार करनेसे मालूम होगा कि सम्यक्त्वके क्षायिक रूप पूर्ण होने पर भी चारित्रकी प्राप्तिमे अथवा पूर्णतामे विलंब होता है इस. लिये सम्यक्त्व और चारित्र अथवा मिथ्यात्व और कषायोंमें एकता तथा कार्य-कारणता कैसे ठीक हो सकती है ?
समाधान-मिथ्यात्वके न रहनेसे जो कषाय रहती है वह मिथ्यात्वके साथ रहनेवाली अति तीन अनंतानुवधी कषायोके समान नही होती, किन्तु अति मंद हो जाती है, इसलिये वह कषाय चाहे जैसा बंध करे तथापि वह वध दीर्घसंसारका कारणभूत नही होता, और इससे ज्ञानचेतना भी सम्यग्दर्शनके होते ही प्रारंभ हो जाती है, जोकि बधके नाशका कारण है, इसलिये जब प्रथम मिथ्यात्व होता है तब जो चेतना होती है वह कर्मचेतना और कर्मफलचेतना होती है जो कि पूर्ण बंधका कारण है। इसका
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मोक्षशास्त्र सारांश यह है कि-कषाय तो सम्यग्दृष्टिके भी शेष रहती है किंतु मिथ्यात्वका नाश होनेसे अति मंद हो जाती है। और उससे सम्यग्दृष्टि जीव कुछ अंशोंमें प्रबंध रहता है और निर्जरा करता है; इससे मिथ्यात्व और कषाय का कुछ अविनाभाव अवश्य है।
अव शंकाकी बात यह रह जाती है कि-मिथ्यात्वके नाशके साथ ही कषायका पूर्ण नाश क्यों नही होता? इसका समाधान यह है किमिथ्यात्व और कषाय सर्वथा एक वस्तु तो नही है । सामान्य स्वभाव दोनों का एक है किंतु विशेषकी अपेक्षासे कुछ भेद भी है। विशेष-सामान्यको अपेक्षासे भेद-अभेद दोनोंको यहाँ मानना चाहिए । यह भाव दिखानेके लिए ही शास्त्रकारने सम्यक्त्व और आत्मशांतिके घातका निमित्त मूल प्रकृति एक 'मोह' रखी है और उत्तर प्रकृतिमें दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीय-दो भेद किये हैं। [इस स्पष्टीकरणमें पहिली और दूसरी शंकाका समाधान हो जाता है] जब कि उत्तर प्रकृतिमें भेद है तब उसके नाशका पूर्ण अविनाभाव कैसे हो सकता है ? [-नही हो सकता] हाँ, मूल कारणके न रहनेपर चारित्रमोहनीय की स्थिरता भी अधिक नही रहती। दर्शनमोहनीयके साथ न सही, तो भी थोड़े ही समयमे चारित्रमोहनीय भी नष्ट हो जाता है।
__ अथवा सम्यक्त्वके हो जाने पर भी ज्ञान सदा स्वानुभूतिमें ही तो नहीं रहता, जव ज्ञानका बाह्य लक्ष हो जाता है तव स्वानुभूतिसे हट जानेके कारण सम्यग्दृष्टि भी विपयोमे अल्पतन्मय हो जाता है। किंतु यह छद्मस्थज्ञानकी चंचलताका दोप है और उसका कारण भी कपाय ही है । उस ज्ञानकी केवल कपाय-नैमित्तिक चंचलता कुछ समय तक ही रह सकती है, और वह भी तीव्र वधका कारण नहीं होती।
भावार्थ:-यद्यपि सम्यक्त्वकी उत्पत्तिसे संसारको जड़ कट जाती है किन्तु दूसरे कर्मोका उसी क्षण सर्व नाश नही हो जाता । कर्म अपनी अपनी योग्यतानुसार बंधते है और उदयमे पाते हैं। जैसे-मिथ्यात्वके साथी पारिप्रमोहनीयको उत्रप्ट स्थिति चालीस कोड़ाकोड़ी सागरकी होती है। गरी यह निश्चय हुप्रा कि मिय्यात्व ही समस्त दोपोंमें अधिक बलवान
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अध्याय १ परिशिष्ट १
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दोष है, और वही दीर्घसंसारकी स्थापना करता है, इसलिये यह समझना चाहिए कि उसका नाश किया और संसारका किनारा आगया । कितु साथ ही यह भी नही भूलना चाहिए कि मोह तो दोनों हैं । उनमें से एक ( दर्शनमोह ) अमर्यादित है और दूसरा ( चारित्रमोह ) मर्यादित है । किन्तु दोनो ससारके ही कारण हैं ।
यदि संसारका संक्षेपमें स्वरूप कहा जाय तो वह दुःखमय है, इसलिये आनुषंगिक रूपसे दूसरे कर्म भी भले ही दुखके निमित्त कारण हों किंतु मुख्य निमित्तकारण तो मोहनीयकर्म ही है । जब कि सर्वदुःखका कारण ( निमित्तरूपसे ) मोहनीय कर्ममात्र है तो मोहके नाशको सुख कहना चाहिए । जो ग्रंथकार मोहके नाशको सुख गुरणकी प्राप्ति मानते है उनका मानना मोहके संयुक्त कार्यकी अपेक्षासे ठीक है । वैसा मानना अभेद व्यापकसेि है इसलिये जो सुखको अनन्त चतुष्टयमें गर्भित करते हैं वे चारित्र तथा सम्यक्त्वको भिन्न नही गिनते, क्योकि सम्यक्त्व तथा चारित्रके सामुदायिक स्वरूपको सुख कहा जा सकता है ।
चारित्र और सम्यक्त्व दोनोंका समावेश सुखगुणमें अथवा स्वरूपलाभमें ही होता है, इसलिये चारित्र और सम्यक्त्वका अर्थ सुख भी हो सकता है । जहाँ सुख और वीर्यगुरगका उल्लेख अनन्त चतुष्टयमे किया गया है वहाँ उन गुरणोकी मुख्यता मानकर कहा है, और दूसरोंको गौण मानकर नहीं कहा है, तथापि उन्हे उनमें संगृहीत हुआ समझ लेना चाहिये, क्योकि वे दोनों सुखगुरणके विशेषाकार है । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मोहनीय कर्म किस गुरण के घातमे निमित्त है । और इससे वेदनीयकी अघातकता भी सिद्ध हो जाती है, क्योकि वेदनीय किसीके घातनेमे निमित्त नही है; मात्र घात हुए स्वरूपका जीव जब अनुभव करता है तब निमित्तरूप होता है । [ इस स्पष्टीकरण मे तीसरी और चौथी शंकाका समाधान हो जाता है । ]
[ यह बात विशेष ध्यानमे रखनी चाहिए कि जीवमें होनेवाले विकारभावोंको जीव जब स्वयं करता है तब कर्मका उदय उपस्थितरूपमें निमित्त होता है, किंतु उस कर्मके रजकरणोंने जीवका कुछ भी किया है या
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मोक्षशास्त्र कोई असर पहुँचाया है, यह मानना सर्वथा मिथ्या है । इसीप्रकार जीव जब विकार करता है तब पुद्गल कार्माणवर्गणा स्वयं कर्मरूप परिण मित होती है,-ऐसा निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है । जीवको विकारीरूपमें कर्म परिणमित करता है और कर्मको जीव परिणमित करता है, इस प्रकार सम्बन्ध बताने वाला व्यवहार कथन है । वास्तवमें जड़को कर्मरूपमें जीव परिणमित नही कर सकता और कर्म जीवको विकारी नही कर सकता, गोमट्टसार आदि कर्म शास्त्रोंका इसप्रकार अर्थ करना ही न्यायपूर्ण है।
प्रश्न:-बंधके कारणों में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-ये पांचों मोक्षशास्त्रमे कहे है, और दूसरे आचार्य कषाय तथा योग दो ही बतलाते है, इस प्रकार वे मिथ्यात्व अविरति और प्रमादको कषाय का भेद मानते है । कषाय चारित्रमोहनीयका भेद है, इससे यह प्रतीत होता है कि चारित्रभोहनीय ही सभी कर्मोका कारण है । क्या यह कथन ठीक है ?
उत्तर:-मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद कषायके उपभेद हैं किंतु इससे यह मानना ठीक नहीं है कि कषाय चारित्रमोहनीयका भेद है। मिथ्यात्व महा कषाय है । जब 'कषाय' को सामान्य अर्थ में लेते है तब दर्शनमोह और चारित्रमोह दोनोरूप माने जाते है, क्योकि कषायमे मिथ्यादर्शनका समावेश हो जाता है जब कषायको विशेष अर्थ में प्रयुक्त करते हैं तब वह चारित्र मोहनीयका भेद कहलाता है । चारित्र मोहनीय कर्म उन सब कर्मोका कारण नहीं है, किन्तु जीवका मोहभाव उन सात अथवा पाठ कर्मोके बंध का निमित्त है।
(९) प्रश्न:-सात प्रकृतियोंका क्षय अथवा उपशमादि होता है सो वह व्यवहारसम्यग्दर्शन है या निश्चयसम्यग्दर्शन ?
उचरः-वह निश्चयसम्यग्दर्शन है ।
प्रश्न:--सिद्ध भगवानके व्यवहारसम्यग्दर्शन होता है या निश्चयसम्यग्दर्शन ?
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अध्याय १ परिशिष्ट १
१५३ उचर-सिद्धोंके निश्चयसम्यग्दर्शन होता है। प्रश्न-व्यवहारसम्यग्दर्शन और निश्चयसम्यग्दर्शनमें क्या अन्तर
है
उत्तर-जीवादि नव तत्त्व और सच्चे देव गुरु शास्त्रकी सविकल्प श्रद्धाको व्यवहारसम्यक्त्व कहते हैं । जो जीव उस विकल्पका अभाव करके अपने शुद्धात्माकी ओर उन्मुख होकर निश्चयसम्यग्दर्शन प्रगट करता है उसे पहिले व्यवहारसम्यक्त्व था ऐसा कहा जाता है। जो जीव निश्चयसम्यग्दर्शनको प्रगट नही करता उसका वह व्यवहाराभाससम्यक्त्व है । जो
सीका अभाव करके निश्चयसम्यग्दर्शन प्रगट करता है उसके व्यवहारसम्यग्दर्शन उपचारसे ( अर्थात् व्ययरूपमें-अभावरूपमें ) निश्चयसम्यग्दर्शन का कारण कहा जाता है।
सम्यग्दृष्टि जीवको विपरीताभिनिवेश रहित जो आत्माका श्रद्धान है सो निश्चयसम्यग्दर्शन है, और देव, गुरु धर्मादिका श्रद्धान व्यवहारसम्यग्दर्शन है इसप्रकार एक कालमे सम्यग्दृष्टिके दोनो सम्यग्दर्शन होते हैं। कुछ मिथ्यादृष्टियोको द्रव्यलिगी मुनियोंको और कुछ अभव्य जीवोको देव गुरु धर्मादिका श्रद्धान होता है, किन्तु वह आभासमात्र होता है, क्योकि उनके निश्चय सम्यक्त्व नही है इसलिये उनका व्यवहार सम्यक्त्व भी आभासरूप है [देखो देहलीसे प्रकाशित-मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ४८६-४६०]
देव गुरु धर्मके श्रद्धानमे प्रवृत्तिकी मुख्यता है । जो प्रवृत्तिमें अरहतादिको देवादि मानता है और अन्यको नहीं मानता उसे देवादिका श्रद्धानी कहा जाता है । तत्त्व श्रद्धानमे विचारकी मुख्यता है । जो ज्ञानमे जीवादि तत्त्वोंका विचार करता है उसे तत्त्वश्रद्धानी कहा जाता है। इन दोनोको समझनेके बाद कोई जीव स्वोन्मुख होकर रागका आशिक अभाव करके सम्यक्त्वको प्रगट करता है, इसलिये यह दोनों (-व्यवहार श्रद्धान ) इसी जीवके सम्यक्त्वके (उपचारसे) कारण कहे जाते है, किंतु उसका सद्भाव मिथ्यादृष्टिके भी संभव है इसलिये वह श्रद्धान व्यवहाराभास है।
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१५४
मोक्षशास्त्र
सम्यग्दर्शन और ज्ञानचेतनामें अन्तर प्रश्न-जबतक आत्माकी शुद्धोपलब्धि है तबतक ज्ञान ज्ञानचेतना है और उतना ही सम्यग्दर्शन है, यह ठीक है?
उत्तर-आत्माके अनुभवको शुद्धोपलब्धि कहते हैं, वह चारित्रगुण की पर्याय है । जव सम्यग्दृष्टि जीव अपने शुद्धोपयोगमें युक्त होता है अर्थात् स्वानुभवरूप प्रवृत्ति करता है तब उसे सम्यक्त्व होता है, और जब शुद्धोपयोगमे युक्त नही होता तब भा उसे ज्ञानचेतना लब्धरूप होती है। जब ज्ञानचेतना अनुभवरूप होती है तभी सम्यग्दर्शन होता है और जब अनुभवरूप नही होती तब नही होता-इसप्रकार मानना बहुत बड़ी भूल है।
क्षायिक सम्यक्त्वमे भी जीव शुभाशुभरूप प्रवृत्ति करे या स्वानुभवरूप प्रवृत्ति करे, किन्तु सम्यक्त्वगुण तो सामान्य प्रवर्त्तनरूप ही है। [देखो, पं० टोडरमलजीको रहस्यपूर्ण चिट्ठी]
___ सम्यग्दर्शन श्रद्धागुणकी शुद्ध पर्याय है । वह क्रमशः विकसित नहीं होता किन्तु अक्रमसे एकसमयमे प्रगट हो जाता है । और सम्यग्ज्ञानमें तो होनाधिकता होती है किन्तु विभावभाव नही होता । चारित्रगुण भी क्रमशः विकसित होता है । वह अंशतः शुद्ध और अंशतः अशुद्ध (रागद्वेषवाला) निम्नदगामें होता है, अर्थात् इसप्रकारसे तीनों गुणोंकीशुद्ध पर्यायके विकास में अंतर है।
-२४सम्यश्रद्धा करनी ही चाहिये चारित्र न पले फिर भी उसकी श्रद्धा करनी चाहिए
दन पाट की २२ वी गाथामें भगवान श्री सुन्दकुन्दाचार्यदेवने गहापि.-"यदि (हम गारते हैं वह) करने को ममयं हो तो करना, और गदि करनेमें गम न हो तो सन्नी श्रद्धा अवश्य करना, क्योकि केवली भगगना असा परलेगलेको सम्यगत्व महा है।"
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अध्याय १ परिशिष्ट १
१५५ चह गापा बतलाती है कि-जिसने निजस्वरूपको उपादेय जानकर भला को उसका मिथ्यात्व मिट गया किन्तु पुरुषार्थकी हीनतासे चारित्र अगीकार करनेको पाक्ति न हो तो जितनी शक्ति हो उतना ही करे और शेष के प्रति अता करे । ऐमो श्रद्धा करनेवालेके भगवानने सम्यक्त्व कहा है।
[भटराइ हिन्दीमे पृष्ठ ३३, दर्शन पाहुड़ गाथा २२]
नो मामयको यात नियमसारको गाथा १५४ में भी कही गई है पोकि सम्यग्दर्शन धर्मका मूल है।
-२५निश्चय सम्यग्दर्शनका दूसरा अर्थ मिथ्यात्यभावक दूर होनेपर सम्यग्दर्शन चौथे गुणस्थानमें प्रगट होता है । वह श्रद्धागुणको शुद्ध पर्याय होनेसे निश्चयसम्यक्त्व है । किन्तु यदि उस नम्यग्दर्शन के सायके चारित्र गुणकी पर्यायका विचार किया जाय तो चारिष गुणकी रागवाली पर्याय हो या स्वानुभवरूप निर्विकल्प पर्याय हो वहाँ चारिप गुणकी निविकल्प पर्यायके साथके निश्चय सम्यग्दर्शनको वीतराग सम्यग्दर्गन कहा जाता है, और सविकल्प (रागसहित) पर्यायके साथके निश्चय सम्यग्दर्शनको सराग सम्यग्दर्शन कहा जाता है। इस संबधमे आगे (८३ विभागमे ) कहा जा चुका है ।
__ जव सातवें गुरणस्थानमे और उससे आगे बढनेवाली दशामें निश्चय सम्यग्दर्शन और वीतराग चारित्रका अविनाभावीभाव होता है तब उस अविनाभावोभावको वतानेके लिए दोनों गुरणका एकत्त्व लेकर उस समयके सम्यग्दर्शनको उस एकत्त्वकी अपेक्षासे 'निश्चय सम्यक्त्व' कहा जाता है। और निश्चय सम्यग्दर्शनके साथ की विकल्प दशा बतानेके लिये, उस समय यद्यपि निश्चय सम्यग्दर्शन है फिर भी उस निश्चय सम्यग्दर्शनको 'व्यवहार सम्यक्त्व' कहा जाता है। इसलिये जहाँ 'निश्चय सम्यग्दर्शन, शब्द आया हो वहाँ वह श्रद्धा और चारित्रको एकत्वापेक्षासे है या मात्र श्रद्धागुणकी अपेक्षासे है, यह निश्चय करके उसका अर्थ समझना चाहिए।
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१५३
मोक्षशास्त्र
प्रश्न-कुछ जीवोंको गृहस्थ दशामें मिथ्यात्व दूर होकर सम्यग्दर्शन हो जाता है, उसे कैसा सम्यग्दर्शन समझना चाहिए ?
उत्तर-केवल श्रद्धागुणकी अपेक्षासे निश्चयसम्यग्दर्शन और श्रद्धा तथा चारित्र गुणकी एकत्वकी अपेक्षासे व्यवहारसम्यग्दर्शन समझना चाहिये । इसप्रकार गृहस्थ दशामें जो निश्चयसम्यग्दर्शन है वह कथंचित् निश्चय और कथंचित् व्यवहार सम्यग्दर्शन है-ऐसा जानना चाहिए ।
प्रश्न-उस निश्चय सम्यग्दर्शनको श्रद्धा और चारित्रकी एकत्वापेक्षासे व्यवहारसम्यग्दर्शन क्यों कहा है ?
उचर-सम्यग्दृष्टि जीव शुभरागको तोड़कर वीतराग चारित्रके साथ अल्प कालमें तन्मय हो जायगा, इतना सम्बन्ध बतानेके लिये उस निश्चय सम्यग्दर्शनको श्रद्धा और चारित्रको एकत्व अपेक्षासे व्यवहार सम्यग्दर्शन कहा जाता है।
सातवे और आगेके गुणस्थानमें सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्रकी एकता होती है इसलिये उस समयके सम्यक्त्वमें निश्चय और व्यवहार ऐसे दो भेद नहीं होते, इसलिये वहाँ जो सम्यक्त्व होता है उसे 'निश्चयसम्यग्दर्शन' ही कहा जाता है ।
(देखो परमात्मप्रकाश अध्याय १ गाथा ८५ नीचेकी संस्कृत तथा हिन्दी टीका, दूसरी आवृत्ति पृष्ठ ६० तथा परमात्मप्रकाश अध्याय २ गाथा १७-१८ के नीचेकी संस्कृत तथा हिन्दी टीका, दूसरी आवृत्ति पृष्ठ १४६१४७ भोर हिन्दी समयसारमे श्रीजयसेनाचार्यकी संस्कृत टीका गाथा १२११२५ के नीचे पृष्ठ १८६ तथा हिन्दी समयसारको टीकामें श्री जयसेनाचार्यकी टीकाका अनुवाद पृष्ठ ११६ )
- अन्तमें - पुण्यसे धर्म होता है और आत्मा पर द्रव्यका कुछ भी कर सकता है-यह वात श्री वीतरागदेवके द्वारा प्ररूपित धर्मकी मर्यादाके चाहर है।
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प्रथम अध्याय का परिशिष्ट
[२]
निश्चय सम्यग्दर्शन * निश्चय सम्यग्दर्शन क्या है और उसे किसका अवलम्बन है।
वह सम्यग्दर्शन स्वयं आत्माके श्रद्धागुणकी निर्विकारी पर्याय है। अखण्ड आत्माके लक्षसे सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। सम्यग्दर्शनको किसी विकल्पका अवलम्बन नही है, किन्तु निर्विकल्प स्वभावके अवलम्बनसे सम्यग्दर्शन प्रगट होता है । यह सम्यग्दर्शन ही आत्माके सर्व सुखका मूल है । 'मैं ज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ वन्ध रहित हूँ' ऐसा विकल्प करना भी शुभ राग है, उस शुभ राग का अवलम्बन भी सम्यग्दर्शनको नही है, उस शुभ विकल्पका अतिक्रम करने पर सम्यग्दर्शन होता है । सम्यग्दर्शन स्वयं रागादि विकल्प रहित निर्मल पर्याय है । उसे किसी निमित्त या विकारका अवलम्बन नहीं है;-किन्तु पूर्ण रूप आत्माका अवलम्बन है-यह सम्पूर्ण आत्माको स्वीकार करता है।
एक बार निर्विकल्प होकर अखण्ड ज्ञायक स्वभावको लक्षमें लिया कि वहाँ सम्यक्प्रतीति हो जाती है । अखण्ड स्वभावका लक्ष ही स्वरूपकी शुद्धिके लिये कार्यकारी है । अखण्ड सत्य स्वरूपको जाने बिना श्रद्धा किये विना, 'मैं ज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ अबद्धस्पृष्ट हूँ' इत्यादि विकल्प भी स्वरूप की शुद्धिके लिए कार्यकारी नही हैं। एक बार अखण्ड ज्ञायक स्वभावका संवेदन-लक्ष किया कि फिर जो वृत्ति उठती है वे शुभाशुभ वृत्तियाँ अस्थिरताका कार्य करती है, किन्तु वे स्वरूपके रोकनेमे समर्थ नही हैं, क्योकि श्रद्धा तो नित्य विकल्प रहित होनेसे जो वृत्ति उद्भूत होती है वह श्रद्धाको नही बदल सकती ... यदि विकल्पमे ही रुक गया तो वह मिथ्यावृष्टि है ।
विकल्प रहित होकर अभेदका अनुभव करना ही सम्यग्दर्शन है। इस संबंधमे समयसारमे कहा है किः
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मोक्षशास्त्र
कम्मं वद्धमबद्धं जीवे एवं तु जाण णयपक्खं ।
पक्खा तिक्कंतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो || १४२ || 'आत्मा कर्मसे बद्ध है या अबद्ध' ऐसे दो प्रकारके भेदोंके विचार में रुकना सो नयका पक्ष है । 'मैं आत्मा हूँ परसे भिन्न हूँ' ऐसा विकल्प भी राग है इस रागकी वृत्तिको, -नयके पक्षको उल्लंघन करे तो सम्यग्दर्शन प्रगट हो । 'मैं वद्ध हूँ अथवा बन्ध रहित मुक्त हूँ' ऐसी विचार श्रेणीको लांघकर जो आत्मानुभव करता है वही सम्यग्दृष्टि है और वही शुद्धात्मा है ।
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१५८
'मैं अवन्ध हूँ, बन्ध मेरा स्वरूप नहीं है' ऐसे भंगको विचार श्रेणी के कार्य में रुकना सो अज्ञान है । और उस भंगके विचारको लांघकर अभंगस्वरूपको स्पर्श कर लेना ( अनुभव कर लेना ) ही पहला आत्म-धर्म अर्थात् सम्यग्दर्शन है । 'मैं पराश्रय रहित, अबन्ध, शुद्ध हूँ' नियनयके पक्षका विकल्प राग है, श्रौर जो उस रागमें अटक जाता है (-रागको ही सम्यग्दर्शन मानले और राग रहित स्वरूपका अनुभव न करे ) सो वह मिथ्यादृष्टि है ।
के विकल्प उठते तो हैं किन्तु उनसे सम्यग्दर्शन नहीं होता
अनादिकालसे आत्मस्वरूपका अनुभव नही है परिचय नही है, इसलिये श्रात्मानुभव करते समय तत्सम्बन्धी विकल्प आये विना नही रहते । अनादिकालसे आत्मस्वरूपका अनुभव नहीं है इसलिये वृत्तियों का उद्भव होता है कि मैं श्रात्मा कर्मोके साथ संबंधवाला हूँ या कर्मोके संघसे रहित हैं इसप्रकार नयोंके दो विकल्प उठते हैं; परन्तु - 'कर्मो के साथ संबंधवाला या कर्मोके संबंधसे रहित अर्थात् वद्ध हूँ या अबद्ध हूँ' ऐसे दो प्रकारके भेदोंका भी एक स्वरूपमें कहाँ अवकाश है ? स्वरूप तो नयपक्षको अपेक्षाओ से परे है । एक प्रकार के स्वरूपमें दो प्रकारको अपेक्षाएँ नहीं होती । में शुभाशुभभावसे रहित हैं ऐमे विचार में उलझना मी पक्ष है। उससे भी परे स्वरूप है, और स्वरूप तो पक्षातिक्रांत है यही विषय है, अर्थात् उसीके लासे सम्यग्दर्शन प्रगट होता है,
पतिरिक्त दूसरा कोई सम्यग्दर्शनका उपाय नहीं है ।
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अध्याय १ परिशिष्ट २
१५९ सम्यग्दर्शनका स्वरूप क्या है ? किसी शारीरिक क्रियासे सम्यग्दर्शन नहीं होता जड़ कर्मोसे भी नही होता, और अशुभ राग या शुभ रागके लक्षसे भी सम्यग्दर्शन नही होता । तथा 'मैं पुण्य-पापके परिणामोसे रहित ज्ञायक स्वरूप हूँ' ऐसा विचार भी स्वरूपका अनुभव करानेमें समर्थ नही है। मैं ज्ञायक हूँ 'ऐसे विचारमे उलझा कि भेदके विचारमें उलझ गया' किन्तु स्वरूप तो ज्ञातादृष्टा है उसका अनुभव ही सम्यग्दर्शन है। भेदके विचारमे उलझना सम्यग्दर्शनका स्वरूप नहीं है।
जो वस्तु है सो स्वतः परिपूर्ण स्वभावसे भरी हुई है । आत्माका स्वभाव परापेक्षासे रहित एकरूप है । मै कर्म-संबंधवाला हूँ या कर्मोके सम्बन्ध से रहित हूँ, ऐसी अपेक्षाओंसे उस स्वभावका प्राश्रय नही होता। यद्यपि अात्मस्वभाव तो प्रवन्ध ही है किन्तु 'मैं अबन्ध हूँ' ऐसे विकल्पको भी छोड़कर निर्विकल्प ज्ञातादृष्टा निरपेक्ष स्वभावका प्राश्रय करते ही सम्यग्दर्शन प्रगट होता है।
आत्माकी प्रभुताकी महिमा भीतर परिपूर्ण है, अनादिकालसे उस की सम्यक् प्रतीतिके बिना उसका अनुभव नहीं हुआ, अनादिकालसे पर लक्ष किया है किन्तु स्वभावका लक्ष नही किया। शरीरादिमे आत्माका सुख नही है, शुभरागमें भी सुख नही है, और 'मेरा स्वरूप शुभरागसे रहित है' ऐसे भेदके विचारमे भी आत्माका सुख नही है। इसलिये उस भेदके विचारमे उलझना भी अज्ञानीका कार्य है । इसलिये उस नयपक्षके भेदका आश्रय छोड़कर अभेद ज्ञाता स्वभावका आश्रय करना ही सम्यग्दर्शन है और उसीमे सुख है । अभेद स्वभावका आश्रय कहो या ज्ञाता स्वरूपका अनुभव कहो अथवा सुख कहो, धर्म कहो या सम्यग्दर्शन कहो-सब यही है।
विकल्पको रखकर स्वरूपानुभव नहीं हो सकता
अखंडानंद अभेद आत्माका लक्ष नयपक्षके द्वारा नही होता। नयपक्षकी विकल्परूपी मोटर चाहे जितनी दौड़ाई जाय,-'मैं ज्ञायक हूँ, अभेद हूँ, शुद्ध हूँ,' ऐसे विकल्प करे फिर भी वे विकल्पस्वरूप तकके आगन तक ही ले जायेगे, किन्तु स्वरूपानुभवके समय तो वे सब विकल्प छोड़ ही देने
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मोक्षशास्त्र पड़ेगे। विकल्पको साथ लेकर स्वरूपानुभव नही हो सकता। नयपक्षोंका ज्ञान स्वरूपके आँगन तक पहुँचनेमे बीच में आते है । "मै स्वाधीन ज्ञानस्वरूपी आत्मा हूँ, कर्म जड़ है, जड कर्म मेरे स्वरूपको नहीं रोक सकते, यदि मैं विकार करूं तो कर्म निमित्त कहलाते है किन्तु कर्म मुझे विकार नही कराते क्योकि कर्म और आत्मामें परस्पर अत्यंत अभाव होनेसे दोनों द्रव्य भिन्न हैं, वे कोई एक दूसरेका कुछ नही कर सकते। किसी अपेक्षा मैं जड़ का कुछ नही करता, और जड़ मेरा कुछ नहीं करते, जो राग-द्वेष होते हैं उन्हे भी कर्म नही कराता, तथा वे परवस्तुमे नही होते किन्तु मेरी अवस्था में होते है वे राग द्वेष मेरा स्वभाव नही है, निश्चयसे मेरा स्वभाव राग रहित ज्ञानस्वरूप है" इसप्रकार सभी पहलुओं (नयोंका) ज्ञान पहले करना चाहिये किन्तु इतना करने तक भी भेदका आश्रय है, भेदके आश्रयसे अभेद प्रात्मस्वरूपका अनुभव नहीं होता फिर भी पहिले उन भेदोको जानना चाहिये । जब इतना जान लेता है तब वह स्वरूपके आँगनतक पहुँचा हुआ कहलाता है । उसके बाद जब स्वसन्मुख अनुभव द्वारा अभेदका आश्रय करता है तब भेदका आश्रय छूट जाता है, प्रत्यक्ष स्वरूपानुभव होनेसे अपूर्व सम्यग्दर्शन प्रगट होता है । इसप्रकार यद्यपि स्वरूपोन्मुख होनेसे पूर्व नय. पक्षके विचार होते हैं किन्तु उस नयपक्षके कोई भी विचार स्वरूपानुभवमे सहायक नही है।
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का संबंध किसके साथ है ?
सम्यग्दर्शन निर्विकल्प सामान्य श्रद्धागुणकी शुद्ध पर्याय है, उसका मात्र निश्चय-अखंड स्वभावके साथ ही संबंध है। अखंड द्रव्य जो कि भंगभेद रहित है वही सम्यग्दर्शनको मान्य है; सम्यग्दर्शन पर्यायको स्वीकार नहीं करता, किन्तु सम्यग्दर्शनके साथ रहनेवाले सम्यग्ज्ञानका सम्बन्ध निश्चयव्यवहार दोनोके साथ है अर्थात् निश्चय-अखण्ड स्वभावको तथा व्यवहारमे पर्यायके भग-भेद होते हैं उन सबको सम्यग्ज्ञान जान लेता है।
सम्यग्दर्शन एक निर्मल पर्याय है, किन्तु 'मैं एक निर्मल पर्याय हूँ' इस प्रकार सम्यग्दर्शन स्वयं अपनेको नहीं जानता । सम्यग्दर्शनका अखण्ड विषय एक द्रव्य ही है, पर्याय नही।
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मध्याय १ परिशिष्ट २
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प्रश्नं- -- जब कि सम्यग्दर्शनका विषय अखण्ड है और वह पर्यायको स्वीकार नही करती तब फिर सम्यग्दर्शनके समय पर्याय कहाँ चली जाती है ? सम्यग्दर्शन स्वयं ही पर्याय है, क्या पर्याय द्रव्यसे पृथक् होगई ? उच्चर - सम्यग्दर्शनं का विषय अखण्ड द्रव्य ही है । सम्यग्दर्शन के • विषय द्रव्य - गुण - पर्यायके भेद नही है, द्रव्य - गुरण- पर्यायसे प्रभिन्न वस्तु ही सम्यग्दर्शनको मान्य है । ( अभिन्न वस्तुका लक्ष करने पर जो निर्मल पर्याय प्रगट होती है वहं सामान्ये वस्तुके साथं श्रभिन्न हो जाती है ) । सम्यग्दर्शन- रूप पर्यायको·भी · संम्यग्दर्शन स्वीकार नही करता, एक समयमे अभिन्न परिपूर्ण द्रव्य ही सम्यग्दर्शनको मान्य है, 'एक मात्र पूर्णरूप आत्माको - सम्यग्दर्शन प्रतीतिमें लेता है, परन्तु सम्यग्दर्शनके साथ प्रगट • होनेवाला सम्यग्ज्ञानं सामान्य विशेष सबको जानता है, सम्यक्ज्ञान पर्यायको और निमितंको भी जानता है । सम्यग्दर्शनको भी जाननेवाला सम्यक्ज्ञान - ही है |
श्रद्धा और ज्ञान कवं सम्यक् हुए १
औदयिक, श्रपशमिक, क्षायोपशमिक या क्षायिकभाव - कोई भी सम्यग्दर्शनका विषय नही है क्योंकि वें सब पर्याय है । सम्यग्दर्शनका विषय परिपूर्ण द्रव्य है, पर्यायी सम्यग्दर्शन स्वीकार नही करता, जब अकेली • वस्तुका लक्ष किया जाता है तब श्रद्धा सम्यक् होती है ।
प्रश्न --- उस समय होनेवाला सम्यक्ज्ञान कैसा होता है ?
उत्तर- - ज्ञानका स्वभाव सामान्य - विशेष सबको जानना है । जब - ज्ञानने संपूर्ण द्रव्यको, विकसित पर्यायकों और विकारको ज्यो का त्यो =जानकर, यह विवेक किया कि- 'जो परिपूर्ण स्वभाव है सो में हूँ और जो विकार रह गया है सो में नही हूँ' तब वह सम्यक् कहलाया । सम्यग्दर्शनरूप ' विकसित पर्यायको, सम्यग्दर्शनकी विषयभूत परिपूर्ण वस्तुको और अवस्था को कमीको इन तीनोंको सम्यग्ज्ञान यथावत् जानता है, अवस्थाकी स्वीकृति 'ज्ञानमे है । इसप्रकार सम्यग्दर्शन ऍक निश्चयको ही ( श्रभेदस्व- रूपको ही ) स्वीकार करता है, और सम्यग्दर्शनका अविनाभावी सम्यग्ज्ञान
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मोक्षशास्त्र
निश्वय तथा व्यवहार दोनोंको यथावत् जानकर विवेक करता है । यदि निश्चय - व्यवहार दोनोंको न जाने तो ज्ञान प्रसारण ( सम्यक् ) नही होता । यदि व्यवहारका श्राश्रय करे तो दृष्टि मिथ्या सिद्ध होती है और यदि व्यवहारको जाने ही नहीं तो ज्ञान मिथ्या सिद्ध होता है । ज्ञान निश्चयव्यवहारका विवेक करता है तब वह सम्यक् कहलाता है । ओर दृष्टि व्यवहारका आश्रय छोड़कर निश्चयको अंगीकार करे तो वह सम्यक् कहलाती है ।
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सम्यग्दर्शनका विषय क्या है ? मोका परमार्थ कारण क्या है ?
सम्यग्दर्शनके विषयमे मोक्ष पर्याय और द्रव्य ऐसे भेद ही नही है । द्रव्य ही परिपूर्ण है जो कि सम्यग्दर्शनको मान्य है । वन्ध-मोक्ष भी सम्यग्दर्शनको मान्य नही है । बन्ध - मोक्षको पर्याय, साधक दशाके भंग-भेद इत्यादि सबको सम्यक् ज्ञान जानता है ।
सम्यग्दर्शनका विषय परिपूर्ण द्रव्य है, वही मोक्षका परमार्थ कारण है | पंच महाव्रतादि या विकल्पको मोक्षका कारण कहना स्थूल व्यवहार है, और सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप साधक अवस्थाको मोक्षका कारण कहना भी व्यवहार है, क्योकि उस साधक अवस्थाका भी जव प्रभाव होता है तब मोक्ष दशा प्रगट होती है, अर्थात् वह भी अभावरूप कारण है, इसलिये व्यवहार है । त्रैकालिक अखण्ड वस्तु ही मोक्षका निश्चय कारण है । परमार्थसे वस्तुमे कारण- कार्यके भेद भी नही है, कार्यकारणका भेद भी व्यवहार है । एक अखण्ड वस्तुमे कार्यकारणके भेदके विचारसे विकल्प होता है इसलिये वह भी व्यवहार है, फिर भी व्यवहाररूपसे भी कार्य-कारणके भेद सर्वथा नही ही हो तो मोक्षदशाको प्रगट करनेकी बात भी नही कही जा सकती । अर्थात् अवस्थामें साधकसाध्यके भेद है किन्तु अभेदके आश्रयके समय व्यवहारका आश्रय नही होता, क्योकि व्यवहारके आश्रयमे भेद होता है और भेदके आश्रय में परमार्थअभेदस्वरूप लक्षमे नही आता, इसलिये सम्यग्दर्शनके विपयमे भेद नही होते, एकरूप अभेद वस्तु ही सम्यग्दर्शनका विषय है ।
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अध्याय १ परिशिष्ट २
सम्यग्दर्शन ही शान्तिका उपाय है।
अनादिकालसे श्रात्माके अखण्ड रसको सम्यक्दर्शनके द्वारा नहीं जाना है इसलिये जीव परमें और विकल्पमें रस मान रहा है । किन्तु मैं अखण्ड एकरूप स्वभाव हूँ उसीमे मेरा रस है, परमें कही मेरा रस नही है, इस प्रकार स्वभाव दृष्टिके बलसे एकबार सबको नीरस बनादे ! तुझे सहजानन्दस्वरूपके अमृत रसकी अपूर्व शान्तिका अनुभव प्रगट होगा । उसका उपाय सम्यग्दर्शन ही है ।
संसारका अभाव सम्यग्दर्शन से ही होता है
अनन्तकालसे अनन्तजीव संसारमे परिभ्रमण कर रहे हैं और अनंत कालमें अनन्तजीव सम्यग्दर्शनके द्वारा पूर्ण स्वरूपकी प्रतीति करके मोक्षको प्राप्त हुए है, जीवोंने संसार पक्ष तो अनादिकाल से ग्रहण किया है किन्तु सिद्धों का पक्ष कभी ग्रहण नही किया । अब सिद्धोंका पक्ष ग्रहण करके अपने सिद्ध स्वरूपको जानकर संसारका अभाव करनेका अवसर आया है,....... और उसका उपाय एकमात्र सम्यग्दर्शन ही है
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प्रथम अध्याय का परिशिष्ट
[३] जिज्ञासुको धर्म किसप्रकार करना चाहिए ?
जो जीव जिज्ञासु होकर स्वभावको समझना चाहता है वह अपने सुखको प्राप्त (-गट अनुभवरूप ) करना चाहता है और दुःखको दूर करना चाहता है तो सुख अपना नित्य स्वभाव है और वर्तमानमे जो दुःख है सो क्षणिक है इसलिये वह दूर हो सकता है। वर्तमान दुःख अवस्थाको दूर करके स्वयं सुखरूप अवस्थाको प्रगट कर सकता है, इतना तो सत्को समझना चाहता है उसने स्वीकार ही कर लिया है। आत्माको अपने भावमें अपूर्व तत्त्व विचाररूप पुरुषार्थ करके विकार रहित स्वरूपका निर्णय करना चाहिए। वर्तमान विकारके होने पर भी विकार रहित स्वभावकी श्रद्धा की जा सकती है अर्थात् यह विकार और दुःख मेरा स्वरूप नही है ऐसा निश्चय हो सकता है।
पात्र जीवका लक्षण जिज्ञासु जीवोको स्वरूपका निर्णय करनेके लिये शास्त्रोने पहिले ही ज्ञान क्रिया बतलाई है । स्वरूपका निर्णय करनेके लिये दूसरा कोई दानपूजा-भक्ति-व्रत, तपादि करनेको नही कहा है, किन्तु श्रुतज्ञानसे ज्ञानस्वरूप आत्माका निर्णय करनेका ही कहा है । कुगुरु, कुदेव और कुशास्त्रको ओर का आदर और उस ओरका झुकाव तो हट ही जाना चाहिए तथा विषयादि परवस्तुमेसे सुख बुद्धि दूर हो जानी चाहिए। सब ओरसे रुचि हटकर अपनी ओर रुचि ढलनी चाहिए । और देव-शास्त्र-गुरुको यथार्थतया पहिचानकर उस ओर आदर करे, और यह सब यदि स्वभावके लक्षसे हुआ हो तो उस जीवकी पात्रता हुई कहलाती है । इतनी पात्रता तो अभी सम्यग्दर्शनका मूल कारण नही है। सम्यग्दर्शनका मूल कारण चैतन्य स्वभावका आश्रय करना है, किन्तु पहिले कुदेवादिका सर्वथा त्याग तथा सच्चे देव गुरु शास्त्र और सत्समागमका प्रेम, पात्र जीवों के होता ही है ऐसे
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अध्याय १ परिशिष्ट ३
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पात्र हुए जीवोंको आत्माका स्वरूप समझने के लिए क्या करना चाहिए सो यहाँ स्पष्ट बताया है ।
सम्यग्दर्शनके उपायके लिये ज्ञानियोंके द्वारा बताई गई क्रिया
“पहिले श्रुतज्ञानके अवलम्बनसे ज्ञानस्वभाव आत्माका निश्चय करके, फिर आत्माकी प्रगट प्रसिद्धिके लिए, पर पदार्थकी प्रसिद्धिकी कारण जो इन्द्रियोके द्वारा और मनके द्वारा प्रवर्तमान बुद्धियाँ है उन्हें मर्यादामें लाकर जिसने मतिज्ञान-तत्त्वको श्रात्मसंमुख किया है ऐसा, तथा नानाप्रकार के पक्षोंके आलम्बनसे होनेवाले अनेक विकल्पोके द्वारा आकुलताको उत्पन्न करनेवाली श्रुतज्ञानकी बुद्धियोंको भी मान मर्यादामें लाकर श्रुतज्ञान-तत्त्व को भी आत्मसन्मुख करता हुआ, प्रत्यन्त विकल्प रहित होकर, तत्काल ... परमात्मस्वरूप आत्माको जब आत्मा अनुभव करता है उसी समय आत्मा सम्यक्तया दिखाई देता है [ अर्थात् श्रद्धा की जाती है ] और ज्ञात होता है वही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है ।" [ देखो समयसार गाथा १४४ को टीका ]
उपरोक्त कथनका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है:
श्रुतज्ञान
किसे कहना चाहिए ?
"प्रथम श्र ुतज्ञानके अवलंबनसे ज्ञानस्वभाव प्रात्माका निर्णय करना चाहिए ।" ऐसा कहा है । श्रुतज्ञान किसे कहना चाहिए ? सर्वज्ञदेवके द्वारा कहा गया श्रुतज्ञान अस्ति नास्ति द्वारा वस्तु स्वरूपको सिद्ध करता है । जो अनेकांतस्वरूप वस्तुको 'स्वरूपसे है और पररूपसे नही है' इसप्रकार वस्तुको स्वतन्त्र सिद्ध करता है वह श्र तज्ञान है ।
एक वस्तु निजरूपसे है और वह वस्तु अनन्त पर द्रव्योंसे पृथक् है इसप्रकार अस्ति नास्तिरूप परस्पर विरुद्ध दो शक्तियोको प्रकाशित करके जो वस्तु स्वरूपको वतावे - सिद्ध करे सो अनेकान्त है और वही श्रुतज्ञानका लक्षण है । वस्तु स्वापेक्षासे है और परापेक्षासे नही इसमें वस्तुकी नित्यता और स्वतन्त्रता सिद्ध की है ।
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मोक्षशास्त्र
श्रुतज्ञानका वास्तविक लक्षण - अनेकांत
एक वस्तुमे 'है' और 'नही' ऐसी परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों को भिन्न २ अपेक्षा से प्रकाशित करके जो वस्तुस्वरूपको परसे भिन्न बताये सो श्रुतज्ञान है; आत्मा सर्वं परद्रव्योसे भिन्न वस्तु है ऐसा पहिले श्रुतज्ञानसे निश्चित करना चाहिये ।
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अनंत परवस्तुसे यह ग्रात्मा भिन्न है, यह सिद्ध होने पर अब अपने द्रव्य-पर्यायमे देखना है । मेरा त्रैकालिक द्रव्य एक समयमात्रकी अवस्थारूप नहीं है; अर्थात् विकार क्षणिक पर्यायरूपसे है और त्रैकालिक स्वरूपसे विकार नही है - इसप्रकार विकार रहित स्वभावकी सिद्धि भो अनेकांतके द्वारा ही होती है । भगवान्के द्वारा कहे गये शास्त्रोंकी महत्ता अनेकांतसे ही है | भगवानने पर जीवोंकी दया पालने को कहा है या श्रहिंसा बतलाई है अथवा कर्मो का वर्णन किया है, - इसप्रकार मानना न तो भगवानको पहिचाननेका वास्तविक लक्षण है और न भगवानके द्वारा कहे गये शास्त्रोंको ही पहिचाननेका ।
भगवान भी दूसरेका कुछ नहीं कर सके
भगवानने अपना कार्य भली भांति किया किन्तु वे दूसरोंका कुछ नहीं कर सके; क्योंकि एक तत्त्व स्वापेक्षासे है और परापेक्षासे नही है, इसलिये कोई किसीका कुछ नही कर सकता । प्रत्येक द्रव्य पृथक् पृथक् स्वतन्त्र है, कोई किसीका कुछ नही कर सकता । इसप्रकार समझ लेना हो भगवानके द्वारा कहे गये शास्त्रोंकी पहिचान है, और वही श्र तज्ञान है । प्रभावनाका सच्चा स्वरूप
कोई जीव पर द्रव्यकी प्रभावना नहीं कर सकता, किंतु जैनधर्मं जो कि श्रात्माका वीतराग स्वभाव है उसको प्रभावना धर्मी जीव करते हैं । आत्माको जाने विना श्रात्म स्वभावकी वृद्धिरूप प्रभावना कैसे की जा सकती है ? प्रभावना करनेका जो विकल्प उठता है सो भी परके काररणसे नहीं । दूसरेके लिये कुछ भी अपनेमे होता है यह कहना जैन शासनको मर्यादामें नही है | जैन शासन तो वस्तुको स्वतन्त्र, स्वाधीन और परिपूर्ण स्थापित करता है ।
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अध्याय १ परिशिष्ट ३
१६७ भगवानके द्वारा कथित सच्ची दया (अहिंसा) का स्वरूप
यह बात मिथ्या है कि भगवानने दूसरे जीवोकी दया स्थापित की है । जव कि यह जीव पर जीवोंकी क्रिया कर ही नही सकता तब फिर उसे वचा सकने की बात भगवान कैसे कहे ? भगवानने तो आत्माके स्वभावको पहिचान कर ज्ञातामात्र भावकी श्रद्धा और एकाग्रता द्वारा कषायभावसे अपने आत्माको बचानेकी बात कही है; और यही सच्ची दया है। अपने प्रात्मा का निर्णय किए बिना जीव क्या कर सकता है ? भगवानके श्रु तज्ञानमे तो यह कहा है कि-तू स्वतः परिपूर्ण वस्तु है, प्रत्येक तत्त्व, स्वतः स्वतंत्र है किसी तत्त्वको दूसरे तत्त्वका आश्रय नहीं है, इसप्रकार वस्तु स्वरूपको पृथक् स्वतंत्र जानना सो अहिंसा है और वस्तुको पराधीन मानना कि एक दूसरेका कुछ कर सकता है तथा रागसे धर्म मानना सो हिंसा है। सरागीको दूसरे जीवको बचानेका राग तो होता है किन्तु उस शुभ रागसे पुण्य बंधन होता है-धर्म नही होता है ऐसा समझना चाहिये ।
आनन्दको प्रगट करनेवाली भावनावाला क्या करे ?
जगतके जीवोंको सुख चाहिये है और सुखका दूसरा नाम धर्म है। धर्म करना है अर्थात् प्रात्म शांति चाहिए है अथवा अच्छा करना है । और वह अच्छा कहाँ करना है ? आत्माकी अवस्थामें दुःखका नाश करके वीतरागी आनन्द प्रगट करना है । वह आनन्द ऐसा चाहिए कि जो स्वाधीन हो-जिसके लिये परका अवलम्बन न हो । ऐसा आनन्द प्रगट करनेकी जिस की यथार्थ भावना हो सो वह जिज्ञासु कहलाता है । अपना पूर्णानन्द प्रगट करने की भावना वाला जिज्ञासु पहिले यह देखता है कि ऐसा पूर्णानद किसे प्रगट हुआ है ? अपनेको अभी ऐसा आनन्द प्रगट नहीं हुआ है किंतु अपनेको जिसकी चाह है ऐसा आनन्द अन्य किसीको प्रगट हुआ है और जिन्हे वह आनन्द प्रगट हुआ है उनके निमित्तसे स्वयं उस आनन्दको प्रगट करनेका सच्चा मार्ग जानले । और ऐसा जान ले सो उसमे सच्चे निमित्तोंकी पहिचान भी आ गई । जब तक इतना करता है तब तक वह जिज्ञासु है।
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१६८
मोक्षशास्त्र अपनी अवस्थामें अधर्म-प्रशांति है उसे दूर करके धर्म-शांति प्रगर्ट करना है । वह शांति अपने आधारसे और परिपूर्ण होनी चाहिये। जिसे ऐसी जिज्ञासा होती है वह पहिले यह निश्चय करता है कि मैं एक आत्मा अपना परिपूर्ण सुख प्रगट करना चाहता हूँ। तो वैसा परिपूर्ण सुख किसी औरके प्रगट हुआ होना चाहिए, यदि परिपूर्ण सुख-आनंद प्रगट न हो तो दुखी कहलाये। जिसे परिपूर्ण और स्वाधीन आनंद घंगट होता है वह संपूर्ण सुखी है; और ऐसे सर्वज्ञ वीतराग हैं । इसप्रकार जिज्ञासु अपने ज्ञानमें सर्वज्ञ का निर्णय करता है । दूसरेका कुछ करने धरनेकी बात तो है ही नहीं। जब परसे कुछ पृथक् हुआ है तभी तो आत्माकी जिज्ञासा हुई है। जिसे -परसे हटकर आत्महित करनेकी तीव्र आकांक्षा जाग्रत हुई है ऐसे जिज्ञासु जीवकी यह बात है । परद्रव्यके प्रति सुंखबुद्धि और रुचिको दूर की; वह पात्रता है। और स्वभावकी रुचि तथा पहिचान होना सौ पावेताका फल है।
दुखका मूल भूल है जिसने अपनी भूलसे दुःख उत्पन्न किया है वह अपनी भूलको दूर करे तो उसकी दुखें दूर हो । अन्य किसीने भूल नहीं कराई इसलिये दूसरा कोई अपना दुःख दूर करने में समर्थ नही है।।
श्रुतज्ञानकी अवलम्बन ही पहिली क्रिया है
जो आत्म कल्याण करने को तैयार हुआ हैं ऐसे जिज्ञासुको पहिले क्या करना चाहिए, यह बताया जाता है। आत्मकल्याण कही अपने आप नहीं हो जाता किंतु वह अपने ज्ञानमें रुचि और पुरुषार्थसे होता है। अपना कल्याण करनेके लिये पहिले अपने ज्ञानमे यह निर्णय करना होगा किजिन्हें पूर्ण कल्याण प्रगट हुआ है वे कौन हैं और वे क्या कहते हैं । तथा उन्होंने पहिले क्या किया थो । अर्थात् सर्वज्ञका स्वरूप जानकर उनके द्वारा कहे गये श्रुतज्ञानके अवलम्बनसे अपने आत्माका निर्णय करना चाहिये, यही प्रथम कर्तव्य है। किसी परके अवलम्बनसे धर्म प्रगट नही होता, फिर भी जब स्वयं अपने पुरुषार्थसे समझता है तब सन्मुख निमित्तरूपसे सच्चे। देव-गुरु ही होते हैं।
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श्रध्याय १ परिशिष्ट ३
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इसप्रकार प्रथम ही निर्णय यह हुआ कि कोई पूर्ण पुरुष सम्पूर्ण सुखी है और सम्पूर्ण ज्ञाता है, वही पुरुष पूर्ण सुखका पूर्ण सत्यमार्ग कह सकता है, स्वयं उसे समझकर अपना पूर्ण सुख प्रगट कर सकता है और स्वयं जब समझता है तब सच्चे देव गुरु शास्त्र ही निमित्तरूप होते है । जिसे स्त्री पुत्र पैसा इत्यादिकी अर्थात् संसारके निमित्तोंके श्रोरकी तीव्र रुचि होगी उसे धर्मके निमित्तभूत देव शास्त्र गुरुके प्रति रुचि नही होगी अर्थात् उसे श्रुतज्ञानका अवलम्बन नही रहेगा और श्रुतज्ञानके अवलम्बनके बिना आत्माका निर्णय नही होगा । क्योकि आत्माके निर्णय में सत् निमित्त ही होते हैं, कुगुरु-कुदेव- कुशास्त्र इत्यादि कोई भी आत्माके निर्णयमे निमित्तरूप नही हो सकते । जो कुदेवादिको मानता है उसे आत्म निर्णय हो ही नही
सकतः ।
जिज्ञासुकी यह मान्यता तो हो ही नही सकती कि दूसरेको सेवा करेंगे तो धर्म होगा । किन्तु वह यथार्थ धर्मं कैसे होता है इसके लिये पहिले पूर्णज्ञानी भगवान और उनके कथित शास्त्रोके अवलम्बनसे ज्ञानस्वभाव आत्माका निर्णय करनेके लिये उद्यमी होगा । श्रनन्तभवमें जीवने धर्मके नामपर मोह किया किन्तु धर्मको कलाको समझा ही नही है । यदि धर्मकी एक कला ही सीख ले तो उसका मोक्ष हुए बिना न रहेगा । जिज्ञासु जीव पहिले कुदेवादिका और सुदेवादिका निर्णय करके कुदेवादिको छोड़ता है और फिर उसे सच्चे देव गुरुकी ऐसी लगन लग जाती है कि उसका एक मात्र यही लक्ष हो जाता है कि सत्पुरुष क्या कहते हैं उसे समझा जाय, अर्थात् वह अशुभसे तो अलग हो हो जाता है । यदि कोई सांसारिक रुचिसे पीछे न हटे तो वह श्रुतावलम्बनमे टिक नहीं सकेगा । धर्म कहाँ है और वह कैसे होता है ?
बहुत से जिज्ञासुओं को यही प्रश्न होता है कि धर्मके लिये पहिले क्या चाहिए, या सेवा-पूजा-ध्यान करते उनकी कृपा प्राप्त करनी चाहिए उत्तर यह है कि इसमे कही भी
करना चाहिए ? क्या पर्वत पर चढ़ना रहना चाहिए, या गुरुकी भक्ति करके अथवा दान देना चाहिए ? इन सबका
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१७०
मोक्षशास्त्र आत्माका धर्म नहीं है। धर्म तो अपना स्वभाव है, धर्म पराधीन नहीं है। किसीके अवलम्बनसे धर्म नही होता। धर्म किसीके द्वारा दिया नहीं जाता किन्तु अपनी पहिचानसे ही धर्म होता है। जिसे अपना पूर्णानन्द चाहिये है उसे यह निश्चित करना चाहिए कि पूर्णानन्दका स्वरूप क्या है और वह किसे प्रगट हुआ है ? जो प्रानन्द मैं चाहता हूँ वह पूर्ण अबाधित आनन्द चाहता हूँ। अर्थात् कोई आत्मा वैसे पूर्णानन्द दशाको प्राप्त हुए हैं और उन्हें पूर्णानन्द दशामें ज्ञान भी पूर्ण ही है, क्योंकि यदि ज्ञान पूर्ण न हो तो राग-द्वेष रहेगा, उसके रहनेसे दुःख रहेगा और जहाँ दुःख होता है वहाँ पूर्णानन्द नहीं हो सकता इसलिए जिन्हे पूर्णानन्द प्रगट हुया है ऐसे सर्वज्ञ भगवान हैं। उनका और वे क्या कहते हैं इसका जिज्ञासुको निर्णय करना चाहिए। इसीलिए कहा है कि 'पहिले श्रुतज्ञानके अवलम्बनसे आत्माका-पूर्णरूपका निर्णय करना चाहिए' .................इसमें उपादाननिमित्तकी संधि विद्यमान है । ज्ञानी कौन है, सत् बात कौन कहता है,यह सब निश्चय करनेके लिए निवृत्ति लेनी चाहिए। यदि स्त्री-कुटुम्ब, . लक्ष्मीका प्रेम और संसारकी रुचिमे कमी न आये तो वह सत् समागमके लिए निवृत्ति नही ले सकेगा। जहाँ श्रुतका अवलम्बन लेनेको कहा है वहीं तीव्र अशुभ भावका त्याग आ गया और सच्चे निमित्तोंकी पहिचान करना भी आ गया।
सुखका उपाय ज्ञान और सत् समागम तुझे तो सुख चाहिए है ? यदि तुझे सुख चाहिए है तो पहिले यह निर्णय कर कि सुख कहाँ है और वह कैसे प्रगट होता है । सुख कहाँ है
और वह कैसे प्रगट होता है, इसका ज्ञान किये बिना ( बाह्याचार करके यदि ) सूख जाय तब भी सुख नहीं मिलता-धर्म नहीं होता। सर्वज्ञ भगवानके द्वारा कथित श्रुतज्ञानके अवलम्बनसे यह निर्णय होता है और इस निर्णयका करना ही प्रथम धर्म है। जिसे धर्म करना हो वह धर्मीको पहिचान कर वे क्या कहते है इसका निर्णय करनेके लिये सत् समागम करे । सत् समागमसे जिसे श्रुतज्ञानका अवलम्बन प्राप्त हुआ है कि अहो !
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अध्याय १ परिशिष्ट ३
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परिपूर्ण मात्मवस्तु हो उत्कृष्ट महिमावान है, मैंने ऐसा परमस्वरूप अनन्तकानमें पहिले कभी नहीं गुना था - ऐसा होनेपर उसे स्वरूपकी रुचि जाग्रत होती है और सत्समागमका रङ्ग लग जाता है अर्थात् उसे कुदेवादि या संसारके प्रति रुचि हो हो नही सकती ।
यदि अपनी वस्तुको पहिचाने तो प्रेम जाग्रत हो और उस तरफका पुरुषार्थले । झात्मा अनादिकालसे स्वभावको भूलकर पुण्य-पापमय परभाव स्पो परदेशमे परिभ्रमरण करता है, स्वरूपसे बाहर संसार में परिभ्रमण करते करते परमपिता सर्वज्ञदेव और परम हितकारी श्री परमगुरुसे भेंट हुई और वे पूरणं हित कैसे होता है यह सुनाते हैं तथा आत्मस्वरको पहिचान कराते हैं । श्रपने स्वरूपको सुनते हुए किस धर्मीको उल्लास नही होता ? आत्मस्वभावकी बात सुनते ही जिज्ञासु जीवोको महिमा ती ही है कि ग्रहो ! अनन्तकालसे यह अपूर्वं ज्ञान नही हुआ; स्वरुपके बाहर परभावमें भ्रमित होकर अनन्तकाल तक दुखी हुआ, यदि यह अपूर्वज्ञान पहिले किया होता तो यह दुःख नही होता । इसप्रकार स्वरूपको चाह जागत हो, रस श्राने, महिमा जागे और इस महिमाको वयार्थतया रटते हुए स्वरूपका निर्णय करे । इसप्रकार जिसे धर्म करके सुखी होना हो उसे पहिले श्रुतज्ञानका अवलम्बन लेकर आत्माका निर्णय करना चाहिये |
भगवानको श्रुतज्ञानरूपी डोरीको दृढतापूर्वक पकड़ कर उसके श्रवलम्बनसे-स्वरूपमें पहुँचा जाता है । श्रुतज्ञानके अवलम्बनका अर्थ क्या है ? सच्चे श्रुतज्ञानका ही रस है, अन्य कुश्रुतज्ञानका रस नही है, संसारकी बातोंका तीव्र रस टल गया है और श्रुतज्ञानका तीव्र रस आने लगा है । इसप्रकार श्रुतज्ञानके अवलम्वनसे ज्ञान स्वभाव आत्माका निर्णय करनेके लिये जो तैयार हुआ है उसे अल्पकालमें आत्म प्रतीति होगी संसारका तीव्र लोहरस जिसके हृदयमे घुल रहा हो उसे परमशान्त स्वभावकी बात समझने की पात्रता ही जाग्रत नही होती 'यहाँ जो 'श्रुतका अवलम्बन' शब्द दिया है सो वह अवलम्बन स्वभावके लक्षसे है, पीछे न हटनेके लक्षसे है, जिसने ज्ञानस्वभाव श्रात्माका निर्णय करनेके लिए श्रुतका अवलम्बन
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मोक्षशास्त्र लिया है वह आत्मस्वभावका निर्णय करता ही है। उसके पीछे हटनेकी बात शास्त्रमें नहीं ली गई है।
___ संसारकी रुचिको घटाकर आत्म निर्णय करनेके लक्षसे जो यहाँतक पाया है उसे श्रुतज्ञानके अवलम्बनसे निर्णय अवश्य होगा, यह हो ही नही सकता कि निर्णय न हो। सच्चे साहूकारके बहीखातेमें दिवालेकी बात ही नही हो सकती, उसीप्रकार यहाँ दीर्घ संसारीकी बात ही नहीं है यहाँ तो सच्चे जिज्ञासु जीवो ही की बात है। सभी बातोंकी हाँ में हाँ भरे और एक भी बातका अपने ज्ञानमें निर्णय न करे ऐसे 'ध्वजपुच्छ' जैसे जीवोंकी बात यहाँ नहीं है। यहाँ तो निश्चल और स्पष्ट बात है। जो अनन्तकालीन संसारका अन्त करनेके लिये पूर्ण स्वभावके लक्षसे प्रारम्भ करनेको निकले हैं ऐसे जीवों का प्रारम्भ किया हुआ कार्य फिर पीछे नहीं हटता,-ऐसे जीवों की ही यहाँ बात है, यह तो अप्रतिहत मार्ग है। 'पूर्णताके लक्षसे किया गया प्रारम्भ ही वास्तविक प्रारम्भ है'। पूर्णताके लक्षसे किया गया प्रारम्भ पीछे नही हटता, पूर्णता के लक्षसे पूर्णता अवश्य होती है।
जिस ओरकी रुचि उसी ओरकी रटन ____एककी एक बात ही पुनः पुनः ( अदल बदलकर ) कही जा रही है, किन्तु रुचिवान जीवको उकताहट नही होती। नाटकका रुचिवान मनुष्य नाटकमें 'वन्स मोर' कहकर अपनी रुचिवाली वस्तुको बारंबार देखता है । इसीप्रकार जिन भव्य जीवोंको आत्मरुचि हुई है और जो आत्मकल्याण करने को निकले है वे बारम्बार रुचिपूर्वक प्रतिसमय-खाते, पीते, चलते फिरते सोते जागते उठते बैठते बोलते चालते विचार करते हुए निरंतर श्रुत का ही अवलंबेन स्वभावके लक्षसे करते हैं, उसमें किसी काल या क्षेत्रकी मर्यादा नही करते। उन्हें श्रुतज्ञानकी रुचि और जिज्ञासा ऐसी जम गई है कि वह कभी भी नही हटती। ऐसा नही कहा है कि अमुक समय तक अवलंबन करना चाहिए और फिर छोड़ देना चाहिए, किन्तु श्रुतज्ञानके अवलंबनसे आत्माका निर्णय करनेको कहा है। जिसे सच्ची तत्त्वको रुचि हुई है वह दूसरे सब कार्योकी प्रीति को गौण ही कर देता है ।
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अध्याय १ परिशिष्ट ३
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प्रश्न
- तब क्या सत्की प्रीति होती है इसलिये खाना-पीना और व्यापार धन्धा सब छोड़ देना चाहिए ? और श्रुतज्ञानको सुनते ही रहना - चाहिए ? किन्तु उसे सुनकर भी क्या करना है ?
उत्तर -- सत्की प्रीति होती है इसलिये तत्काल खाना पीना सब छूट ही जाय ऐसा नियम नही है, किन्तु उस ओरकी रुचि तो अवश्य कम हो ही जाती है । परमेसे सुख बुद्धि उड़ जाय और सबमें एक आत्मा ही आगे रहे इसका अर्थ यह है कि निरन्तर श्रात्मा ही की तीव्राकांक्षा और चाह होती है । ऐसा नही कहा है कि मात्र श्रुतज्ञानको सुना ही करे किन्तु श्रुतज्ञानके द्वारा आत्माका निर्णय करना चाहिए ।
श्रुतावलम्बनकी घुन लगनेपर वहाँ, देव - गुरु-शास्त्र, धर्म, निश्चय, व्यवहार, इत्यादि अनेक प्रकारसे बातें श्राती हैं उन सब प्रकारोंको जानकर एक ज्ञान स्वभाव आत्माका निश्चय करना चाहिए । उसमे भगवान कैसे है उनके शास्त्र कैसे हैं और वे क्या कहते हैं; इन सबका अवलम्बन यह निर्णय कराता है कि तू ज्ञान है, आत्मा ज्ञान स्वरूपी ही है, ज्ञानके अतिरिक्त वह दूसरा कुछ नही कर सकता ।
देव - गुरु-शास्त्र कैसे होते हैं और उन्हे पहिचानकर उनका अवलम्बन करनेवाला स्वयं क्या समझा है, यह इसमे बत्ताया है । 'तू ज्ञान स्वभावी श्रात्मा है, तेरा स्वभाव जानना ही है, कुछ परका करना या पुण्य पापके भाव करना तेरा स्वभाव नही है' इसप्रकार जो बताते हों वे सच्चे देव-गुरु- शास्त्र हैं, और इसप्रकार जो समझता है वही देव-गुरु- शारुके अवलम्बनसे श्रुतज्ञानको समझा है । किन्तु जो रागसे निमित्तसे धर्म - मनवाते हो और जो यह मनवाते हों कि आत्मा शरीराश्रित क्रिया करता है जड़कर्म आत्माको हैरान करते है वे देव-गुरु-शास्त्र सच्चे नहीं हैं ।
जो शरीरादि सर्व परसे भिन्न ज्ञान स्वभाव श्रात्माका स्वरूप बतलाता हो और यह बतलाता हो कि -- पुण्य-पापका कर्तव्य आत्माका नही है वही सत् श्रुत है, वही सच्चा देव है और वही सच्चा गुरु है । और जो पुण्यसे धर्म बताये, शरीरकी क्रियाका कर्ता आत्माको बतावे और रागसे
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मोक्षशास्त्र
धर्म बतावे वह कुगुरु - कुदेव - कुशास्त्र है; क्योंकि वे यथावत् वस्तु स्वरूपके ज्ञाता नही है प्रत्युत उल्टा स्वरूप बतलाते हैं । जो वस्तु स्वरूपको यथावत् नहीं बतलाते और किंचित्मात्र भी विरुद्ध बतलाते है वे कोई देव, गुरु, या शास्त्र सच्चे नही है ।
श्रुतज्ञानके अवलम्बनका फल - आत्मानुभव
'मैं आत्मा ज्ञायक हैं' पुण्य पापकी प्रवृत्तियाँ मेरी ज्ञेय है, वे मेरे ज्ञानसे पृथक् है, इसप्रकार पहिले विकल्पके द्वारा देव गुरु-शास्त्र के अवलम्बन से यथार्थ निर्णय करना चाहिए । यह तो अभी ज्ञान स्वभावका अनुभव नही हुआ उससे पहिलेकी बात है । जिसने स्वभावके लक्षसे श्रुतका अवलम्बन लिया है बह अल्पकालमें आत्मानुभव अवश्य करेगा । प्रथम विकल्प मे जिसने यह निश्चय किया कि में परसे भिन्न हूँ, पुण्य पाप भी मेरा स्वरूप नही है, मेरे शुद्धस्वभावके आश्रयसे ही लाभ है, देव, गुरु शास्त्रका भी अवलम्बन परमार्थसे नही है, में तो स्वाधीन ज्ञान स्वभाव हूँ; इसप्रकार निर्णय करनेवालेको अनुभव हुए बिना नही रहेगा ।
पुण्य-पाप मेरा स्वरूप नही है, में ज्ञायक है - इसप्रकार जिसने निर्णयके द्वारा स्वीकार किया है, उसका परिणमन पुण्य-पापकी ओरसे पीछे हटकर ज्ञायक स्वभावकी श्रोर ढल गया है अर्थात् उसे पुण्य-पापका आदर नही रहा, इसलिये वह अल्पकालमें ही पुण्य-पाप रहित स्वभावका निर्णय करके और उसकी स्थिरता करके वीतराग होकर पूर्ण हो जायगा । यहाँ पूर्णकी ही बात है - प्रारम्भ और पूर्णता के बीच कोई भेद ही नहीं किया, क्योकि जो प्रारम्भ हुआ है वह पूर्णताको लक्षमें लेकर ही हुआ है । सत्यको सुनानेवाले और सुननेवाले दोनोंकी पूर्णता ही है । जो पूर्ण स्वभावकी बात करते हैं वे देव-गुरु और शास्त्र- तीनों पवित्र ही हैं । उनके अवलम्बनसे जिसने हाँ कही है वह भी पूर्ण पवित्र हुए बिना नही रह सकता" 'जो पूर्णकी हाँ कहकर आया है वह पूर्ण होगा ही . ... इस प्रकार उपादान निमित्तकी संधि साथ ही है ।
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अध्याय १ परिशिष्ट ३
१७५ सम्यग्दर्शन होनेसे पूर्व......... आत्मानंद प्रगट करनेके लिये पात्रताका स्वरूप क्या है ? तुझे तो धर्म करना है न! तो तू अपनेको पहिचान । सर्व प्रथम सच्चा निर्णय करने की बात है । अरे तू है कौन ? क्या क्षणिक पुण्य पापका करनेवाला तू ही है ? नहीं, नही । तू तो ज्ञानका करनेवाला ज्ञानस्वभाव है तूपरको ग्रहण करने वाला या छोडनेवाला नहीं है, तो केवलज्ञान जाननेवाला ही है। ऐसा निर्णय ही धर्मके प्रारंभका (सम्यग्दर्शनका) उपाय है। प्रारंभमें अर्थात् सम्यग्दर्शनसे पूर्व यदि ऐसा निर्णय न करे तो वह पात्रतामें भी नहीं है। मेरा सहज स्वभाव जाननेका है, ऐसा श्रुतके अवलंबनसे जो निर्णय करता है वह पात्र जीव है। जिसे पात्रता प्रगट हुई है उसे प्रांतरिक अनुभव अवश्य होगा। सम्यग्दर्शन होनेसे पूर्व जिज्ञासु जीव-धर्म संमुख हुआ जीव सत्समागममे आया हुआ जीव-श्र तज्ञानके अवलंबनसे ज्ञानस्वभाव आत्मा का निर्णय करता है।
मैं ज्ञानस्वभाव जाननेवाला हूँ, मेरा ज्ञानस्वभाव ऐसा नहीं है कि ज्ञेयमें कही राग-द्वेष करके अटक जाय; पर पदार्थ चाहे जैसा हो, मैं तो उसका मात्र ज्ञाता हूँ, मेरा ज्ञाता स्वभाव परका कुछ करनेवाला नही है, मैं जैसा ज्ञान स्वभाव है उसी प्रकार जगतके सभी आत्मा ज्ञानस्वभाव हैं, वे स्वयं अपने ज्ञानस्वभावका निर्णय (करना) चूक गये है इसलिये दुःखी है। यदि वे स्वयं निर्णय करें तो उनका दुःख दूर हो, मैं किसीको बदलने में समर्थ नही हूँ। मैं पर जीवोंका दुःख दूर नहीं कर सकता, क्योकि उन्होने दुःख अपनी भूलसे किया है यदि वे अपनी भूलको दूर करें तो उनका दुःख दूर हो।
पहिले श्रुतका अवलंबन बताया है, उसमें पात्रता हुई है, अर्थात् श्र तावलंबनसे आत्माका अव्यक्त निर्णय हुआ है, तत्पश्चात् प्रगट अनुभव कैसे होता है यह नीचे कहा जा रहा है
सम्यग्दर्शनके पूर्व श्र तज्ञानका अवलंबनके बलसे प्रात्माके ज्ञान स्वभावको-अव्यक्तरूपसे लक्षमे लिया है। अब प्रगटरूप लक्षमे लेता है
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मोक्षशास्त्र
अनुभव करता है - आत्म साक्षात्कार अर्थात् सम्यग्दर्शन करता है । वह किस प्रकार ? उनकी रीति यह है कि - "बादमें प्रात्माकी प्रगट प्रसिद्धि के लिये पर पदार्थ की प्रसिद्धि के कारणभूत जो इन्द्रिय श्रौर मनके द्वारा प्रवर्तमान बुद्धियोंको मर्यादामें लाकर जिसे मतिज्ञान-तत्त्वको ( मतिज्ञानके - स्वरूपको ) आत्मसन्मुख किया है । ऐसा... ......" श्रप्रगटरूप निर्णय हुए थे वह अब प्रगटरूप कार्य में लाता है जो निर्णय किया था उनका फल प्रगट होता है ।
इस निर्णयको जगतके सब संज्ञी आत्मा कर सकते हैं, सभी आत्मा परिपूर्ण भगवान ही हैं इसलिये सब अपने ज्ञान स्वभावका निर्णय कर सकनेमें समर्थ हैं । जो श्रात्महित करना चाहता है उसे वह हो सकता है, किंतु अनादिकालसे अपनी चिता नही की है । अरे भाई ! तू कौन वस्तु है, यह जाने बिना तू ं क्या करेगा ? पहिले इस ज्ञानस्वभाव आत्माका निर्णय करना चाहिये । इसके निर्णय होने पर श्रव्यक्तरूपसे आत्माका लक्ष हो जाता है; और फिर परके लक्षसे तथा विकल्पसे हटकर स्वका लक्ष-पूर्ण स्वरूपकी प्रतीति अनुभवरूपसे प्रगट करना चाहिये ।
आत्माकी प्रगट प्रसिद्धि के लिये इद्रिय और मनसे जो पर-लक्ष जाता है उसे बदलकर उस मतिज्ञानको निजमें एकाग्र करने पर श्रात्माका लक्ष होता है अर्थात् श्रात्माकी प्रगटरूपसे प्रसिद्धि होती है शुद्ध आत्माका प्रगटरूप अनुभव होना ही सम्यग्दर्शन है और सम्यक्दर्शन ही धर्म है ।
धर्मके लिये पहिले क्या करना चाहिये १
कोई लोग कहा करते हैं कि यदि श्रात्माके संबंध में कुछ समझमें न श्राये तो पुण्यके शुभ भाव करना चाहिये या नहीं ? इसका उत्तर यह है कि- पहिले आत्मस्वभावको समझना ही धर्म है । धर्मसे ही संसारका अन्त आता है । शुभभावसे धर्मं नही होता और धर्मके बिना ससारका अंत नही होता, धर्म तो अपना स्वभाव है इसलिये पहिले स्वभाव ही समझना चाहिये ।
प्रश्न – यदि स्वभाव समझमें न आये तो क्या करना चाहिए ?
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अध्याय १ परिशिष्ट ३
१७७ और यदि उसके समझनेमे देर लगे तो क्या अशुभ भाव करके दुर्गतिका बन्ध करना चाहिए ? क्योंकि आप शुभ भावोंसे धर्म होना तो मानते नही,-उसका निषेध करते है।
उत्तर-पहिले तो, यह हो ही नहीं सकता कि यह बात समझमें न आये । हाँ यदि समझने में देर लगे तो वहाँ निरन्तर समझनेका लक्ष मुख्य रखकर अशुभ भावोंको दूर करके शुभभाव करनेका निषेध नही है, किन्तु मिथ्या श्रद्धाका निषेध है; यह समझना चाहिए कि शुभभावसे कभी धर्म नही होता। जबतक जीव किसी भी जड़ वस्तुकी क्रियाको और रागकी क्रियाको अपनी मानता है तथा प्रथम व्यवहार करते करते बादमें निश्चय धर्म होगा ऐसा मानता है तबतक वह यथार्थ समझके मार्ग पर नहीं है, किन्तु विरुद्धमे है। - सुखका मार्ग सच्ची समझ, विकारका फल जड़
यदि आत्माकी सच्ची रुचि हो तो समझका मार्ग लिये बिना न रहे । यदि सत्य चाहिए हो, सुख चाहिए हो तो यही मार्ग है। समझनेमें भले देर लगे किन्तु सच्ची समझका मार्ग तो ग्रहण करना ही चाहिए । यदि सच्ची समझका मार्ग ग्रहण करे तो सत्य समझमे आये बिना रह ही नही सकता। यदि इस मनुष्य देहमें और सत्समागमके इस सुयोगमें भी सत्य न समझे तो फिर ऐसे सत्यका सुअवसर नही मिलता । जिसे यह खबर नहीं है कि मैं कौन हैं और जो यहां पर भी स्वरूपको चूक कर जाता है वह अन्यत्र जहाँ जायगा वहाँ क्या करेगा ? शान्ति कहाँसे लायगा? कदाचित् शुभभाव किए हो तो उस शुभका फल जडमें जाता है, आत्मामें पुण्यका फल नही पहुँचता जिसने आत्माको चिन्ता नहीं की और जो यहीसे मूढ़ हो गया है इसलिए उन रजकरणोके फलमे भी रजकरणोंका संयोग ही मिलेगा। उन रजकरणोके संयोगमें आत्माका क्या लाभ है ? मात्माकी शान्ति तो आत्मामे ही है किन्तु उसकी चिन्ता की नही है।
• असाध्य कौन है ? और शुद्धात्मा कौन है ? अज्ञानी जीव जड़का लक्ष करके जड़वत् हो गया है इसलिए मरते
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मोक्षशास्त्र समय अपनेको भूलकर संयोग दृष्टिको लेकर मरता है; असाध्यतया प्रवृत्ति करता है अर्थात् चैतन्य स्वरूपका भान नहीं है। वह जीते जी ही असाध्य ही है । भले शरीर हिले डुले, बोले चाले; किन्तु यह तो जड़की क्रिया है । उसका स्वामी होगया किन्तु अंतरंगमें साध्यभूत ज्ञानस्वरूपकी जिसे खबर नही है वह असाध्य (जीवित मुर्दा ) है, यदि सम्यग्दर्शनपूर्वक ज्ञानसे वस्तु स्वभावको यथार्थतया न समझे तो जीवको स्वरूपका किंचित् लाभ नहीं है। सम्यग्दर्शन-ज्ञानके द्वारा स्वरूपकी पहिचान और निर्णय करके जो स्थिर हुआ उसीको 'शुद्धात्मा' नाम मिलता है, और शुद्धात्मा ही सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान है । 'मैं शुद्ध हूँ' ऐसा विकल्प छूटकर मात्र आत्मानुभव रह जाय सो यही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है, वे कही आत्मासे भिन्न नहीं हैं।
जिसे सत्य चाहिए हो ऐसे जिज्ञासु-समझदार जीवको यदि कोई असत्य बतलाए तो वह असत्यको स्वीकार नही कर लेता, जिसे सत्स्वभावकी चाह है वह स्वभावसे विरुद्धभावको स्वीकार नहीं करता, वस्तुका स्वरूप शुद्ध है इसका ठीक निर्णय किया और वृत्ति छूट गई, इसके बाद जो अभेद शुद्ध अनुभव हुआ वही धर्म है। ऐसा धर्म किसप्रकार होता है और धर्म करनेके लिए पहिले क्या करना चाहिए ? तत्संबंधी यह कथन चल रहा है।
धर्मकी रुचिवाले जीव कैसे होते हैं ? धर्मके लिये सर्वप्रथम श्रु तज्ञानका अवलम्बन लेकर श्रवण-मननसे ज्ञान स्वभाव आत्माका निश्चय करना चाहिए कि मैं एक ज्ञान स्वभाव है। ज्ञान स्वभावमें ज्ञानके अतिरिक्त अन्य कोई करने धरनेका स्वभाव नही है इसप्रकार सत्के समझनेमें जो काल व्यतीत होता है वह भी अनन्तकालमें पहिले कभी नही किया गया अपूर्व अभ्यास है । जीवको सत्की ओरकी रुचि होती है इसलिये वैराग्य जाग्रत होता है और समस्त संसारके ओरकी रुचि उड़ जाती है, चौरासीके अवतारके प्रति त्रास जाग्रत हो जाता है कि यह कैसी विडंबना है ? एक तो स्वरूपकी प्रतीति नही है और उधर प्रतिक्षण पराश्रयभावमें रचे-पचे रहते हैं,-भला यह भी कोई मनुष्यका जीवन है ? तिर्यच इत्यादिके दुःखोंकी तो बात ही क्या, किंतु इस नर देहमें भी ऐसा
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अध्याय १ परिशिष्ट ३
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जीवन ? और मरण समय स्वरूपका भान रहित असाध्य होकर ऐसा दयनीय मररण ? इसप्रकार संसार संबंधी त्रास उत्पन्न होने पर स्वरूपको समझनेकी रुचि उत्पन्न होती है । वस्तुको समझनेके लिये जो काल व्यतीत होता है वह भी ज्ञानको क्रिया है, सत् का मार्ग है ।
जिज्ञासुओंको पहिले ज्ञान स्वभाव श्रात्माका निर्णय करना चाहिए कि "मैं सदा एक ज्ञाता हूँ, मेरा स्वरूप ज्ञान है, वह जाननेवाला है, पुण्यपापके भाव, या स्वर्ग-नरक आदि कोई मेरा स्वभाव नहीं है, " - इस प्रकार श्रुतज्ञानके द्वारा आत्माका प्रथम निर्णय करना ही प्रथम उपाय है । उपादान - निमित्त और कारण कार्य
१~~सच्चे श्र ुतज्ञानके अवलंबनके बिना और २-श्र तज्ञानसे ज्ञानस्वभाव आत्माका निर्णय किये बिना आत्मा अनुभवमें नही आता । इसमें आत्माका अनुभव करना कार्य है, आत्माका निर्णय करना उपादान कारण है और श्र ुतका अवलंबन निमित्त कारण है । श्रुतके अवलंबनसे ज्ञान स्वभावका जो निर्णय किया उसका फल उस निर्णयके अनुसार आचरण अर्थात् अनुभव करना है । आत्माका निर्णय कारण और आत्माका अनुभव कार्य है, - इसप्रकार यहाँ लिया गया है अर्थात् जो निर्णय करता है उसे अनुभव होता ही है, -ऐसी बात कही है ।
अंतरंग अनुभवका उपाय अर्थात् ज्ञानकी क्रिया
अव यह बतलाते हैं कि आत्माका निर्णय करनेके बाद उसका प्रगट अनुभव कैसे करना चाहिये । निर्णयानुसार श्रद्धाका आचरण अनुभव है । प्रगट अनुभवमें शांतिका वेदन लानेके लिए अर्थात् आत्माकी प्रगट प्रसिद्धिके लिए परपदार्थ की प्रसिद्धिके कारणोंको छोड़ देना चाहिये । पहिले 'मै ज्ञानानंद स्वरूप आत्मा हूँ' ऐसा निश्चय करनेके बाद आत्माके आनन्दका प्रगट भोग करनेके लिये [वेदन या अनुभव करनेके लिये ], परपदार्थको प्रसिद्धि के कारण, -जो इद्रिय और मनके द्वारा पराश्रय में प्रवर्तमान ज्ञान है उसे स्व की ओर लाना, देव गुरु-शास्त्र इत्यादि परपदार्थों की ओरका लक्ष तया मनके अवलंबनसे प्रवर्तमान बुद्धि अर्थात् मतिज्ञानको संकुचित करके-मर्यादा
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मोक्षशास्त्र में लाकर स्वात्माभिमुख करना सो आंतरिक अनुभवका पंथ है, सहज शीतल स्वरूप अनाकुल स्वभावकी छायामें प्रवेश करनेकी पहिली सीढ़ी है।
प्रथम, आत्मा ज्ञान स्वभाव है ऐसा भलीभांति निश्चय करके फिर प्रगट अनुभव करनेके लिये परकी ओर जानेवाले भाव जो मति और श्रुतज्ञान हैं उन्हें अपनी ओर एकाग्र करना चाहिए । जो ज्ञान पर में विकल्प करके रुक जाता है अथवा मैं ज्ञान हूं व मेरे ज्ञानादि हैं ऐसे विकल्पमें रुक जाता है उसी ज्ञानको वहाँसे हटाकर स्वभावकी ओर लाना चाहिए। मति और श्रु तज्ञानके जो भाव हैं वे तो ज्ञानमें ही रहते हैं, किंतु पहिले वे भाव परकी ओर जाते थे, अब उन्हें आत्मोन्मुख करने पर स्वभावका लक्ष होता है । आत्माके स्वभावमें एकाग्र होनेको यह क्रमिक सीढ़ी है।
ज्ञानमें भव नहीं है जिसने मनके अवलंबनसे प्रवर्तमान ज्ञानको मनसे छुड़ाकर अपनी भोर किया है अर्थात् पर पदार्थ की ओर जाते हुए मतिज्ञानको मर्यादा में लाकर आत्म संमुख किया है उसके ज्ञानमें अनंत संसारका नास्तिभाव और पूर्ण ज्ञानस्वभावका अस्ति भाव है। ऐसी समझ और ऐसा ज्ञान करने में अनंत पुरुषार्थ है। स्वभावमें भव नही है इसलिये जिसका स्वभावकी ओर का पुरुषार्थ उदित हुआ है, उसे भवकी शंका नही रहती। जहाँ भवकी शंका है वहाँ सच्चा ज्ञान नही है, और जहाँ सच्चा ज्ञान है वहाँ भवकी शंका नही है । इस प्रकार ज्ञान और भवकी एक दूसरेमें नास्ति है।
पुरुषार्थके द्वारा सत्समागमसे अकेले ज्ञान स्वभाव आत्माका निर्णय करनेके वाद 'मैं प्रबंध हूँ या बंधवान; शुद्ध हूँ या अशुद्ध हूँ, त्रिकाल हूँ या क्षणिक हूँ,' ऐसे जो वृत्तियां उठती हैं उनमें भी आत्म-शांति नही है, वे वृत्तियाँ आकुलतामय-प्रात्म शांतिको विरोधिनी हैं। नयपक्षोंके अवलंवनसे होनेवाले मन संबंधी अनेक प्रकारके विकल्पोंको भी मयार्दामें लाकर अर्थात् उन विकल्पोंको रोकनेके पुरुषार्थसे श्रुतज्ञानको भी आत्म सन्मुख करने पर शुद्धात्माका अनुभव होता है । इसप्रकार मति और श्र तज्ञानको आत्मसन्मुख करना ही सम्यग्दर्शन है । इन्द्रिय और मनके अवलम्बनसे जो
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अध्याय १ परिशिष्ट ३
१८१ मतिज्ञान शमादि विषयोंमें प्रवृत्ति कर रहा था उसे, और मनके अवलंबन से जो ७ तज्ञान अनेक प्रकारके नयपक्षोंके विकल्पोंमें उलझ रहा था उसेअर्थात् परावलंबनसे प्रवर्तमान मतिज्ञान और श्रु तज्ञानको मर्यादामें लाकर -अंतरस्वभाव संमुख करके, उन ज्ञानोंके द्वारा एक ज्ञानस्वभावको पकड़कर ( लक्षमें लेकर ) निर्विकल्प होकर, तत्काल निज रससे ही प्रगट होनेवाले शुद्धात्माका अनुभव करना चाहिए; वह अनुभव ही सम्यग्दर्शन और सम्यरज्ञान है।
इसप्रकार अनुभवमें आनेवाला शुद्धात्मा कैसा है ?
शुद्धात्मा आदि मध्य और अन्त रहित त्रिकाल एकरूप पूर्ण ज्ञानधन है; उसमे बंध-मोक्ष नहीं है, वह अनाकुलता स्वरूप है, 'मैं शुद्ध हूँ या अशुद्ध हूँ ऐसे विकल्पोंसे होनेवाली आकुलतासे रहित है। लक्षमेंसे पुण्य-पापका आश्रय छूटकर मात्र प्रात्मा ही अनुभवरूप है । केवल एक ज्ञानमात्र प्रात्मा में पुण्य-पापके कोई भाव नही हैं। मानो सम्पूर्ण विश्वके ऊपर तैर रहा हो अर्थात् समस्त विभावोंसे पृथक् हो गया हो ऐसा चैतन्य स्वभाव पृथक् अखंड प्रतिभासमय अनुभवमे आता है । आत्माका स्वभाव पुण्य-पापके ऊपर तैरता है, अर्थात् उनमे मिल नहीं जाता, एकमेक नहीं हो जाता या तदुरूप नही हो जाता, किन्तु उनसे अलगका अलग रहता है । वह अनन्त है, अर्थात् उसके स्वभावका कभी अन्त नही है' पुण्य-पाप अन्तवाले हैं, और ज्ञानस्वरूप अनंत है तथा विज्ञानधन है। मात्र ज्ञानका ही पिण्ड है मात्र ज्ञान पिण्डमें राग-द्वेष किंचित् मात्र भी नही है । अज्ञानभावसे रागादिका कर्ता था किन्तु स्वभावभावसे रागका कर्ता नही है । अखंड मात्मस्वभावका अनुभव होने पर जो जो अस्थिरताके विभाव थे उन सबसे पृथक् होकर जब यह आत्मा, विज्ञानधन अर्थात् जिसमे कोई विकल्प प्रवेश नही कर सकते ऐसे ज्ञानके निविड़ पिण्डरूप परमात्म स्वरूप आत्माका अनुभव करता है तब वह स्वय ही सम्यग्दर्शन स्वरूप है।
निश्चय और व्यवहार इसमे निश्चय और व्यवहार दोनो आ जाते हैं। प्रखंड विज्ञानघनस्वरूप ज्ञानस्वभाव प्रात्मा निश्चय है और परिणतिको स्वभाव समुख करना
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मोक्षशास्त्र
व्यवहार है । मति श्रुतज्ञानको अपनी ओर लगा लेनेकी पुरुषार्थरूप जो पर्याय है सो व्यवहार है, और अखंड आत्मस्वभाव निश्चय है । जब मतिश्रुतज्ञानको स्वसन्मुख किया और श्रात्मानुभव किया कि उसी समय आत्मा सम्यक्तया दिखाई देता है—उसकी श्रद्धा की जाती है । यह सम्यग्दर्शन प्रगट होनेके समय की बात की है ।
सम्यग्दर्शन होने पर क्या होता है ?
सम्यग्दर्शनके होने पर स्वरसका अपूर्वं श्रानन्द अनुभवमें आता है । आत्माका सहज श्रानंद प्रगट होता है । आत्मिक आनन्द उछलने लगता है । अंतरंगमें अपूर्वं आत्मशांतिका वेदन होता है । आत्माका जो सुख अंतरंग में है वह अनुभवमें आता है । इस अपूर्व सुखका मार्ग सम्यग्दर्शन ही है । 'मैं भगवान आत्मा चैतन्य स्वरूप हूँ' इसप्रकार जो निर्विकल्प शांतरस अनुभवमें आता है वही शुद्धात्मा अर्थात् सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान है यहाँ सम्यग्दर्शन श्रीर आत्मा दोनों अभेदरूप लिये गये है आत्मा स्वयं सम्यग्दर्शन स्वरूप है ।
बारम्बार ज्ञानमें एकाग्रताका अभ्यास करना चाहिए
सर्व प्रथम आत्माका निर्णय करके फिर अनुभव करनेको कहा है। सबसे पहिले जबतक यह निर्णय नहीं होता कि- 'मैं निश्चय ज्ञान स्वरूप हूँ, दूसरा कोई रागादि मेरा स्वरूप नही है,' तबतक सच्चे श्रुतज्ञानको पहिचान कर उसका परिचय करना चाहिए ।
सत् श्रुतके परिचयसे ज्ञानस्वभाव आत्माका निर्णय करनेके बाद मति श्रुतज्ञानको उस ज्ञानस्वभावकी ओर ले जानेका प्रयत्न करना, निर्विकल्प होनेका प्रयत्न करना ही प्रथम अर्थात् सम्यग्दर्शनका मार्ग है । इसमें तो बारंबार ज्ञान में एकाग्रताका अभ्यास ही करना है, बाह्यमें कुछ करने की बात नहीं है; किन्तु ज्ञानमें ही समझ और एकाग्रताका प्रयास करने की बात है | ज्ञानमें अभ्यास करते करते जहाँ एकाग्र हुआ वहां उसी समय सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानरूपमे यह आत्मा प्रगट होता है । यही जन्म-मररणको दूर करने वा उपाय है । एकमात्र ज्ञाता स्वभाव है उसमें, दूसरा कुछ करनेका स्वभाव नही है । निर्विकल्प अनुभव होनेसे पूर्व ऐसा निश्चय करना चाहिए ।
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अध्याय १ परिशिष्ट ३
१५३ इसके अतिरिक्त दूसरा कुछ माने तो समझना चाहिए कि उसे ध्यवहारसे भी आत्माका निश्चय नही है। अनंत उपवास करने पर भी प्रात्मज्ञान नहीं होता, बाहर की दौड़ धूपसे भी ज्ञान नहीं होता किंतु ज्ञानस्वभावकी पकड़ से ही ज्ञान होता है । आत्माको ओर लक्ष और श्रद्धा किये बिना सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान कहाँसे हो सकता है ? पहिले देव गुरु शास्त्रके निमित्तोंसे अनेकप्रकारसे श्रु तज्ञान जानता है और उन सबमेसे एक आत्माको निकाल लेता है, और फिर उसका लक्ष करके प्रगट अनुभव करनेके लिये, मतिश्र तज्ञानके बाहिर झुकने वाली पर्यायोंको स्वसन्मुख करता हुआ तत्काल निर्विकल्प निजस्वभाव-रस-प्रानंदका अनुभव होता है । जब आत्मा परमात्मस्वरूपका अनुभव करता है उसी समय प्रात्मा स्वयं सम्यग्दर्शनरूप प्रगट होता है, उसे बादमें विकल्प उठने पर भी उसकी प्रतीति बनी रहती है, अर्थात् आत्मानुभवके बाद विकल्प उठे तो उससे सम्यग्दर्शन चला नहीं जाता । निज स्वरूप ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है ।
___सम्यग्दर्शनसे ज्ञानस्वभाव आत्माका निश्चय करनेके बाद भी शुभ भाव आते तो हैं किन्तु आत्महित तो ज्ञानस्वभावका निश्चय और आश्रय करनेसे ही होता है। जैसे जैसे ज्ञानस्वभावकी दृढता बढ़ती जाती है वैसे ही वैसे शुभभाव भी हटते जाते हैं । परोन्मुखतासे जो वेदन होता है वह सब दुःखरूप है, अंतरंगमें शांतरस की ही मूर्ति आत्मा है, उसके अभेद लक्ष से जो वेदन होता है वही सुख है । सम्यग्दर्शन आत्माका गुरण है, गुण गुणी से अलग नही होता । ज्ञानादि अनंत गुणोंका पिंड एक अखंड प्रतिभासमय आत्माका निःशंक अनुभव ही सम्यग्दर्शन है।
अंतिम अभिप्राय यह आत्म कल्याणका छोटेसे छोटा ( जिसे सब कर सके ऐसा ) उपाय है । दूसरे सब उपाय छोड़कर यही एक करना है। हितका साधन बाह्य में किचित् मात्र नही है सत्समागमसे एक आत्माका ही निश्चय करना चाहिए । वास्तविक तत्त्वकी श्रद्धाके बिना आंतरिक वेदनका आनन्द नहीं आ सकता । पहिले भीतरसे सत्की स्वीकृति आये बिना सतु स्वरूपका ज्ञान
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मोक्षशास्त्र नहीं होता और सत् स्वरूपके ज्ञानके बिना भव बन्धनकी वेड़ी नहीं टूटती। भव बंधनका अंत आये बिना यह जीवन किस कामका ? भवके अन्तकी श्रद्धाके बिना कदाचित् पुण्य करे तो उसका फल राजपद या इन्द्रपद मिलता है कितु उसमे आत्माको क्या है ? आत्म प्रतीतिके बिना व्रत-तपकी प्रवृत्ति सब पुण्य और इन्द्रपद आदि व्यर्थ हैं, उसमें आत्मशान्तिका अन्श तक नहीं होता; इसलिये पहिले श्र तज्ञानके द्वारा ज्ञानस्वभावका दृढ निश्चय करना चाहिये फिर प्रतीतिमें भवकी शंका ही नहीं रहती, और जितनी ज्ञानकी दृढता होती है उतनी शान्ति बढ़ती जाती है ।
प्रभो ! तू कैसा है, तेरी प्रभुताकी महिमा कैसी है, यह तूने नहीं जान पाया । अपनी प्रभुता की प्रतीति किये बिना तू बाह्यमें चाहे जिसके गीत गाता फिरे तो इससे कही तुझे अपनी प्रभुताका लाभ नही हो सकता। अभी तक दूसरेके गीत गाये हैं किंतु अपने गीत नही गाये । तू भगवानकी प्रतिमाके सन्मुख खड़ा होकर कहता है कि-हे भगवान् ! हे नाथ ! आप अनंत ज्ञानके धनी हो, वहाँ सामनेसे भी ऐसी ही आवाज आती है-ऐसी ही प्रतिध्वनि होती है कि-'हे भगवान् ! हे नाथ ! आप अनन्त ज्ञानके धनी हैं'....यदि अन्तरंग पहिचान हो तभी तो उसे समझेगा ? बिना पहिचानके भीतरमें सच्ची प्रतिध्वनि (निःशंकतारूप) नहीं पड़ती।
शुद्धात्मस्वरूपका वेदन कहो, ज्ञान कहो, श्रद्धा कहो, चारित्र कहो, अनुभव कहो, या साक्षात्कार कहो, जो कहो सो यह एक आत्मा ही है। अधिक क्या कहें ? जो कुछ है सो यह एक आत्मा ही है, उसोको भिन्न २ नामोंसे कहा जाता है। केवलीपद, सिद्धपद या साधुपद यह सब एक आत्मा में ही समाविष्ट होते हैं । समाधिमरण, आराधना इत्यादि नाम भी स्वरूपकी स्थिरता ही है । इसप्रकार आत्मस्वरूपको समझ ही सम्यग्दर्शन है, और यह सम्यग्दर्शन ही सर्व धर्मोंका मूल है, सम्यग्दर्शन ही आत्माका धर्म है।
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प्रथम अध्याय का परिशिष्ट
[४] मोक्षशास्त्र अध्याय एक (१), सूत्र २ में 'तत्त्वार्थ श्रद्धान' को सम्यग्दर्शन का लक्षण कहा है; उस लक्षणमें अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असम्भव दोषका परिहार ।
अव्याप्ति दोषका परिहार (१) प्रश्न-तिर्यंचादि कितने ही तुच्छज्ञानी जीव सात तत्त्वोंके नाम तक नहीं जान सकते तथापि उनके भी सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति शास्त्रोंमें कही गई है, इसलिये आपने जो सम्यग्दर्शनका लक्षण तत्त्वार्थ श्रद्धान ( तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ) कहा है उसमें अव्याप्ति दोष आता है।
___ उत्तर-जीव-अजीवादिके नामादिको जाने या न जाने अथवा अन्यथा जाने, किन्तु उसके स्वरूपको यथार्थ जानकर श्रद्धान करने पर सम्यक्त्व होता है। उसमें कोई तो सामान्यतया स्वरूपको पहिचानकर श्रद्धान करता है और कोई विशेषतया स्वरूपको पहिचानकर श्रद्धान करता है । तिर्यंचादि तुच्छज्ञानी सम्यग्दृष्टि जीवादिके नाम भी नही जानते तथापि वे सामान्यरूपसे उसका स्वरूप पहिचानकर श्रद्धान करते है इसलिये उन्हें सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है । जैसे कोई तियंच अपना या दूसरोंका नामादि तो नहीं जानता किन्तु अपने में ही अपनापन तथापि अन्यको पर मानता है, इसीप्रकार तुच्छज्ञानी जीव-अजीवके नाम न जाने फिर भी वह ज्ञानादिस्वरूप आत्मामे स्वत्व मानता है तथापि शरीरादिको पर मानता है, ऐसा श्रद्धान उसे होता है और यही जीव-अजीवका श्रद्धान है। और फिर जैसे वही तिर्यंच सुखादिके नामादितो नही जानतातथापि सुखावस्थाको पहिचानकर तदर्थ भावी दुःखोके कारणोको पहिचानकर उनका त्याग करना चाहता है तथा वर्तमानमे जो दुःखके कारण बने हुए हैं उनके
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मोक्षशास्त्र अभावका उपाय करता है; इसीप्रकार तुच्छज्ञानी मोक्षादिके नाम नहीं जानता फिर भी सर्वथा सुखरूप मोक्षअवस्थाका श्रद्धान करके उसके लिए भाविबन्धनके कारणरूप रागादि आश्रवभावके त्यागरूप संवरको करना चाहता है, तथा जो संसार-दुःखके कारण हैं उनकी शुद्ध भावसे निर्जरा करना चाहता है। इसप्रकार उसे प्राश्रवादिका श्रद्धान है। इसीप्रकार उसे भी सात तत्त्वोंका श्रद्धान होता है यदि उसे ऐसा श्रद्धान न हो तो रागादिको छोड़कर शुद्धभाव करनेकी इच्छा नहीं हो सकती । सो ही यहाँ कहने में आता है।
____ यदि जीवकी जातिका न जाने-स्वपरको न पहिचाने तो वह परमें रागादि क्यों न करे ? यदि रागादिको न पहिचाने तो वह उनका त्याग क्यों करना चाहेगा? और रागादि ही पाश्रव है। तथा रागादिका फल बुरा है, यह न जाने तो वह रागादिको क्यों छोड़ना चाहेगा ? रागादिका फल ही बन्ध है । यदि रागादि रहित परिणामोको पहिचानेगा तो तदुरूप होना चाहेगा । रागादि रहित परिणामका नाम ही संवर है । और पूर्व संसारावस्थाका जो कारण विभावभाव है उसकी हानिको वह पहिचानता है और तदर्थ वह शुद्ध भाव करना चाहता है। पूर्व संसारावस्थाका कारण विभावभाव है, और उसकी हानि होना ही निर्जरा है। यदि संसारावस्थाके अभावको न पहिचाने तो वह संवर निर्जरारूप प्रवृत्ति क्यों करे ? और संसारावस्थाका प्रभाव ही मोक्ष है इसप्रकार सातों तत्त्वोंका श्रद्धान होते ही रागादिको छोड़कर शुद्धभावरूप होनेकी इच्छा उत्पन्न होती है। यदि इनमेसे एक भी तत्त्वका श्रद्धान न हो तो ऐसी इच्छा नहो। ऐसी इच्छा उन तुच्छज्ञानी तिर्यंचादिक सम्यक्दृष्टियोंके अवश्य होती है, इसलिये यह निश्चय समझना चाहिए कि उनके सात तत्त्वोंका श्रद्धान होता है । यद्यपि ज्ञानावरणका क्षयोपशम अल्प होनेसे उन्हें विशेषरूपसे तत्त्वोंका ज्ञान नहीं होता, फिर भी मिथ्यादर्शनके उपशमादिसे सामान्यतया तत्त्वश्रद्धानकी शक्ति प्रगट होती है । इसप्रकार इस लक्षणमें अव्याप्ति दोष नही आता।
(२) प्रश्न-जिस समय सम्यग्दृष्टि जीव विषय कार्योंमें प्रवृत्ति
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करता है उस समय उसे सात तत्त्वों का विचार ही नहीं होता तब फिर वहाँ श्रद्धान कैसे सम्भव है ? और सम्यक्त्व तो उसे रहता ही है; इसलिए इस लक्षणमे अव्याप्ति दोष आता है |
उत्तर -- विचार तो उपयोगाधीन होता है, जहाँ उपयोग जुड़ता है उसीका विचार होता है, किन्तु श्रद्धान तो निरन्तर शुद्ध प्रतीतिरूप है । इसलिए अन्य ज्ञेयका विचार होने पर शयनादि क्रिया होने पर यद्यपि तत्त्वोका विचार नही होता तथापि उसकी प्रतीति तो सदा स्थिर बनी ही रहती है, नष्ट नही होती; इसलिये उसके सम्यक्त्वका सद्भाव है । जैसे किसी रोगी पुरुषको यह प्रतीति है कि- 'मैं मनुष्य हूँ तिथंच नही, मुझे अमुक कारणसे रोग हुआ है, और अब मुझे यह कारण मिटाकर रोगको कम करके निरोग होना चाहिए'। वही मनुष्य जब अन्य विचारादिरूप प्रवृत्ति करता है तब उसे ऐसा विचार नही होता, किंतु श्रद्धान तो ऐसा ही बना रहता है, इसीप्रकार इस आत्माको ऐसी प्रतीति तो है कि- 'मैं आत्मा है - पुद्गलादि नही । मुझे आश्रवसे बंध हुआ है किंतु अब मुझे संवरके द्वारा निर्जरा करके मोक्षरूप होता है,' अब वही आत्मा जब अन्य विचारादिरूप प्रवृत्ति करता है तब उसे वैसा विचार नही होता किन्तु श्रद्धान तो ऐसा ही रहा करता है ।
प्रश्न- यदि उसे ऐसा श्रद्धान रहता है तो फिर वह बध होने के कारणोमे क्यों प्रवृत्त होता है ?
उत्तर - जैसे कोई मनुष्य किसी कारणसे रोग बढनेके कारणों में भी प्रवृत्त होता है; व्यापारादि कार्य या क्रोधादि कार्य करता है फिर भी उसके उस श्रद्धानका नाश नही होता, इसीप्रकार यह आत्मा पुरुषार्थकी
शक्तिके वशीभूत होनेसे बंध होनेके कारणोमे भी प्रवृत्त होता है, विषय सेवनादि तथा क्रोधादि कार्य करता है तथापि उसके उस श्रद्धानका नाश नही होता । इसप्रकार सात तत्त्वोंका विचार न होने पर भी उनमे श्रद्धान का सद्भाव है, इसलिये वहाँ अव्याप्ति दोष नही आता ।
(३) प्रश्न - जहाँ उच्च दशामे निर्विकल्प आत्मानुभव होता है वहाँ सात तत्त्वादिके विकल्पका भी निषेध किया है । तव सम्यक्त्वके लक्षण
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मोक्षशास्त्र
का निषेध करना कैसे संभव है और यदि वहाँ निषेध संभव है तो श्रव्याप्ति दोष आ जायगा ।
उत्तर- - निम्नदशा में सात तत्त्वोंके विकल्प में उपयोग लगाकर प्रतीतिको दृढ़ किया तथा उपयोगको विषयादिसे छुड़ाकर रागादिक कम किये, अब उस कार्यके सिद्ध होने पर उन्ही कारणों का निषेध करते है । क्योकि जहाँ प्रतीति भी दृढ होगई तथा रागादि भी दूर होगये वहाँ अब उपयोगको घुमानेका खेद क्यों किया जाय ? इसलिये वहाँ इन विकल्पोंका निषेध किया है | और फिर सम्यक्त्वका लक्षण तो प्रतीति ही है, उसका ( उस प्रतीतिका) वहाँ निषेध तो किया नही है । यदि प्रतीति छुड़ाई होती तो उस लक्षणका निषेध किया कहलाता, किंतु ऐसा तो है नही । तत्त्वोंकी प्रतीति वहाँ भी स्थिर बनी रहती है इसलिये यहाँ अव्याप्ति दोष नही आता । (४) प्रश्न — छद्मस्थ के प्रतीति-अप्रतीति कहना संभवित है, इसलिये वहां सात तत्त्वोंकी प्रतीतिको सम्यक्त्वका लक्षरण कहा है, जिसे हम मानते हैं किंतु केवली और सिद्ध भगवानको तो सबका ज्ञातृत्व समानरूपसे है इसलिये वहाँ सात तत्त्वोंकी प्रतीति कहना संभवित नही होती, और उनके सम्यक्त्वगुण तो होता ही है, इसलिये वहाँ इस लक्षण में अव्याप्ति दोष आता ।
उत्तर——जैसे छद्मस्थको श्रुतज्ञानके अनुसार प्रतीति होती है उसी प्रकार केवली और सिद्धभगवान्को केवलज्ञानके अनुसार ही प्रतीति होती है । जिन सात तत्त्वोंका स्वरूप पहिले निर्णीत किया था वही अब केवलज्ञानके द्वारा जाना है इसलिये वहाँ प्रतीतिमें परम श्रवगाढत्व हुआ इसीलिये वहाँ परमावगाढ़ सम्यक्त्व कहा है । किन्तु पहिले जो श्रद्धान किया था उसे यदि झूठ जाना हो तो वहां प्रप्रतीति होती, किंतु जैसे सात तत्त्वों का श्रद्धान छद्मस्थको हुआ था वैसा ही केवली, सिद्ध भगवानको भी होता है, इसलिये ज्ञानादिकी होनाधिकता होने पर भी तियंचादिक और केवली सिद्ध भगवानके सम्यक्त्वगुरण तो समान ही कहा है । और पूर्वावस्थामें वह यह मानता था कि- 'संवर- निर्जराके द्वारा मोक्षका उपाय करना चाहिए' और अब मुक्तावस्था होने पर यह मानने लगा कि - 'संवर- निर्जराके द्वारा
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श्रध्याय १ परिशिष्ट ४
१८६ मुझे मुक्तावस्था प्राप्त हुई है ।' पहिले ज्ञान की हीनतासे जीवादिके थोड़े भेदोंको जानता था और अब केवलज्ञान होने पर उसके सर्व भेदोंको जानता है, किन्तु मूलभूत जीवादिके स्वरूपका श्रद्धान जैसा छद्मस्थको होता है वैसा ही केवलीको भी होता है । यद्यपि केवली-सिद्ध भगवान् अन्य पदार्थों को भी प्रतीति सहित जानते है तथापि वे पदार्थ प्रयोजनभूत नहीं है इसलिये सम्यक्त्वगुणमें सात तत्त्वोंका श्रद्धान ही ग्रहण किया है । केवली-सिद्ध भगवान रागादिरूप परिणमित नही होते और ससारावस्थाको नही चाहते सो यह श्रद्धानका ही वल समझना चाहिए ।
प्रश्न- — जब कि सम्यग्दर्शनको मोक्षमार्ग कहा है तब फिर उसका सद्भाव मोक्षमे कैसे हो सकता है ?
उत्तर—कोई कारण ऐसे भी होते है जो कार्यके सिद्ध होने पर भी नष्ट नही होते । जैसे किसी वृक्षकी एक शाखासे अनेक शाखायुक्त अवस्था हुई हो, तो उसके होने पर भी वह एक शाखा नष्ट नही होती; इसीप्रकार किसी आत्माको सम्यक्त्वगुरणके द्वारा अनेक गुरणयुक्त मोक्ष अवस्था प्रगट हुई किंतु उसके होने पर भी सम्यक्त्वगुण नष्ट नही होता । इसप्रकार केवली सिद्धभगवान् के भी तत्त्वार्थ श्रद्धान लक्षण होता ही है । इसलिये वहाँ अव्याप्ति दोष नहीं आता ।
अतिव्याप्ति दोष का परिहार
प्रश्न- शास्त्रो मे यह निरूपण किया गया है कि मिथ्यादृष्टिके भी तत्त्वार्थ श्रद्धानलक्षण होता है, और श्री प्रवचनसारमें श्रात्मज्ञानशून्य तत्त्वार्थश्रद्धान अकार्यकारी कहा है । इसलिए सम्यक्त्वका जो लक्षण 'तत्त्वार्थश्रद्धान' कहा है उसमे अतिव्याप्ति दोष आता है ।
उत्तर - मिथ्यादृष्टिको जो तत्त्वार्थश्रद्धान बताया है वह मात्र नामनिक्षेपसे है । जिसमें तत्त्वश्रद्धानका गुरण तो नही है किंतु व्यवहारमे जिसका नाम तत्त्वश्रद्धान कहते हैं वह मिथ्यादृष्टिके होता है, अथवा आगमद्रव्यनिक्षेपसे होता है, - अर्थात् तत्त्वार्थश्रद्धानके प्रतिपादक शास्त्रोंका अभ्यास है किन्तु उसके स्वरूपका निश्चय करनेमे उपयोग नही लगाता ऐसा जानना
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मोक्षशास्त्र चाहिये । और यहाँ जो सम्यक्त्वका लक्षण तत्त्वार्थश्रद्धान कहा है सो वह तो भावनिक्षेपसे कहा है, अर्थात् गुणसहित सच्चा तत्त्वार्थश्रद्धान मिथ्याष्टिके कभी भी नहीं होता । और जो आत्मज्ञानशून्य तत्त्वार्थश्रद्धान कहा है वहाँ भी यही अर्थ समझना चाहिये, क्योंकि जिसे जीव अजीवादि का सच्चा श्रद्धान होता है उसे आत्मज्ञान क्यों न होगा ? अवश्य होगा। इसप्रकार किसी भी मिथ्यादृष्टिको सच्चा तत्त्वार्थश्रद्धान सर्वथा नही होता, इसलिये इस लक्षरणमें अतिव्याप्ति दोष नहीं आता !
असंभव दोषका परिहार और जो यह 'तत्त्वार्थश्रद्धान' लक्षण कहा है सो असंभवदूपणयुक्त भी नही है । क्योकि सम्यक्त्वका प्रतिपक्षी मिथ्यात्व ही है और उसका लक्षण इससे विपरीततायुक्त है।
इसप्रकार अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असंभव दोषोसे रहित तत्त्वार्थश्रद्धान सभी सम्यग्दृष्टियोके होता है और किसी भी मिथ्यादृष्टिके नही होता, इसलिये सम्यग्दर्शनका यथार्थ लक्षण तत्त्वार्थश्रद्धान ही है।
विशेष स्पष्टीकरण (१) प्रश्न-यहाँ सात तत्त्वोके श्रद्धानका नियम कहा है किन्तु वह ठीक नहीं बैठता, क्योंकि कही कही परसे भिन्न अपने श्रद्धानको भी (आत्मश्रद्धानको भी) सम्यक्त्व कहा है। श्री समयसारमें 'एकत्वे नियतस्य' इत्यादि कलशमें यह कहा है कि-'आत्माका परद्रव्यसे भिन्न अवलोकन ही नियमतः सम्यग्दर्शन है, इसलिये नवतत्त्वकी संततिको छोड़कर हमे तो यह एक आत्मा ही प्राप्त हो।' और कही कही एक आत्माके निश्चयको हो सम्यक्त्व कहा है । श्री पुरुषार्थसिद्ध्युपायमें 'दर्शनमात्मविनिश्चितिः' ऐसा पद है, उसका भी यही अर्थ है, इसलिये जीव-अजीवका ही या केवल जीव का ही श्रद्धान होनेपर भी सम्यक्त्व होता है । यदि सात तत्त्वोके श्रद्धानका ही नियम होता तो ऐसा क्यों लिखते ?
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अध्याय १ परिशिष्ट ४
१६१ उचर-परसे भिन्न जो अपना श्रद्धान होता है वह पाश्रवादिके श्रद्धानसे रहित होता है या सहित होता है ? यदि रहित होता है तो मोक्ष के श्रद्धानके बिना वह किस प्रयोजनके लिये ऐसा उपाय करता है ? संवरनिर्जराके श्रद्धानके बिना रागादि रहित होकर अपने स्वरूपमें उपयोग लगानेका उद्यम क्यों करता है ? पाश्रव-बंधके श्रद्धानके बिना वह पूर्वावस्था को क्यों छोडता है ? क्योंकि आश्रवादिके श्रद्धानसे रहित स्व-परका श्रद्धान करना सम्भवित नहीं है; और यदि आस्रवादिके श्रद्धानसे युक्त है तो वहाँ स्वयं सातों तत्त्वोंके श्रद्धानका नियम हुआ। और जहाँ केवल आत्माका निश्चय है वहाँ भी परका पररूपश्रद्धान हुए बिना आत्माका श्रद्धान नहीं होता । इसलिये अजीवका श्रद्धान होते ही जीवका श्रद्धान होता है, और पहिले कहे अनुसार आश्रवादिका श्रद्धान भी वहां अवश्य होता है; इसलिये यहाँ भी सातों तत्त्वोंके ही श्रद्धानका नियम समझना चाहिये।
दूसरे, आश्रवादिके श्रद्धान बिना स्व-परका श्रद्धान अथवा केवल आत्माका श्रद्धान सच्चा नही होता क्योंकि आत्मद्रव्य शुद्ध-अशुद्ध पर्याय सहित है इसलिये जैसे तंतुके अवलोकनके बिना पटका अवलोकन नहीं होता उसी प्रकार शुद्ध-अशुद्ध पर्यायको पहिले पहिचाने बिना आत्मद्रव्यका श्रद्धान भी नहीं हो सकता, और शुद्ध-अशुद्ध अवस्थाकी पहिचान आस्रवादिकी पहिचानसे होती है। आस्रवादिके श्रद्धानके बिना स्व-परका श्रद्धान या केवल आत्माका श्रद्धान कार्यकारी नही है क्योंकि ऐसा श्रद्धान करो या न करो, जो स्वयं है सो स्वयं ही है और जो पर है सो पर ही है । और आसवादिका श्रद्धान हो तो आस्रव-बंधका अभाव करके संवर-निर्जरारूप उपाय से वह मोक्षपदको प्राप्त हो, जो स्व-परका श्रद्धान कराया जाता है वह भी इसी प्रयोजनके लिये कराया जाता है। इसलिये आस्रवादिके श्रद्धानसे युक्त स्व-परका जानना या स्व का जानना कार्यकारी है।
(२) प्रश्न-यदि ऐसा है तो शास्त्रों में जो स्व-परके श्रद्धानको या केवल आत्माके श्रद्धानको ही सम्यक्त्व कहा है और कार्यकारी कहा है और
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मोक्षशास्त्र कहा है कि नवतत्त्वोंकी संततिको छोड़कर हमें तो एक आत्मा ही प्राप्त हो, सो ऐसा क्यों कहा है ?
उचर-जिसे स्व-परका या आत्माका सत्य श्रद्धान होता है उसे सातों तत्त्वोंका श्रद्धान अवश्य होता है और जिसे सातों तत्त्वोंका सत्य श्रद्धान होता है उसे स्व-परका तथा आत्माका श्रद्धान अवश्य होता है, ऐसा परस्पर अविनाभावी सम्बन्ध जानकर स्व-परके श्रद्धानको तथा आत्मश्रद्धान होनेको सम्यक्त्व कहा है। किन्तु यदि कोई सामान्यतया स्व-परको जानकर था आत्माको जानकर कृत-कृत्यता समझ ले तो यह उसका कोरा भ्रम है, क्योंकि ऐसा कहा है कि "निर्विशेषो हि सामान्ये भवेत्खरविषाणवत्" अर्यात् विशेष रहित सामान्य गधेके सीगके समान है। इसलिये प्रयोजनभूत आश्रवादि विशेषोंसे युक्त स्व-परका या प्रात्माका श्रद्धान करना योग्य है, अथवा सातो तत्त्वार्थोके श्रद्धानसे जो रागादिको मिटानेके लिये पर द्रव्यों को भिन्न चितवन करता है या अपने आत्माका चितवन करता है उसे प्रयोजनकी सिद्धि होती है, इसलिये मुख्यतया भेद विज्ञानको या आत्मज्ञानको कार्यकारी कहा है । तत्त्वार्थश्रद्धान किये बिना सब कुछ जानना कार्यकारी नहीं है, क्योंकि प्रयोजन तो रागादिको मिटाना है, इसलिये प्रास्रवादिके श्रद्धानके बिना जब यह प्रयोजन भासित नही होता तब केवल जाननेसे मान को बढ़ाये और रागादिको न छोड़े तो उसका कार्य कैसे सिद्ध होगा ? दूसरे, जहाँ नवतत्त्वकी संतति छोड़नेको कहा है वहाँ पहिले नवतत्त्वके विचारसे सम्यग्दर्शन हुआ और फिर निर्विकल्प दशा होनेके लिए नवतत्त्वों का विकल्प भी छोड़नेकी इच्छा की, किंतु जिसे पहिलेसे ही नवतत्त्वोंका विचार नही है उसे उन विकल्पोंको छोड़नेका क्या प्रयोजन है ? इससे तो अपनेको जो अनेक विकल्प होते है उन्हीका त्याग करो। इसप्रकार स्व-परके श्रद्धानमें या आत्म श्रद्धानमे अथवा नवतत्त्वोके श्रद्धानमें सात तत्त्वोंके श्रद्धानकी सापेक्षता होती है, इसलिये तत्त्वार्थ श्रद्धान सम्यक्त्वका लक्षण है।
(३) प्रश्न-तब फिर जो कही कहीं शास्त्रोंमें अरहंतदेव निग्रंथ गुरु और हिंसादि रहित धर्मके श्रद्धानको सम्यक्त्व कहा है सो कैसे ?
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अध्याय १ परिशिष्ट ४ उत्तर-प्ररहन्त देवादिका श्रद्धान होनेसे और कुदेवादिका श्रद्धान दूर होनेसे गृहीत मिथ्यात्वका अभाव होता है, इस अपेक्षासे उसे सम्यग्दृष्टि कहा है, किन्तु सम्यक्त्वका सर्वथा लक्षण यह नहीं है, क्योंकि-द्रव्यलिंगी मुनि आदि व्यवहार धर्मके धारक मिथ्यादृष्टियोंको भी ऐसा श्रद्धान होता है। अरहन्त देवादिका श्रद्धान होनेपर सम्यक्त्व हो या न हो किन्तु अरहन्तादिका श्रद्धान हुए बिना तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यक्त्व कभी भी नही होता । इसलिए अरहन्तादिके श्रद्धानको अन्वयरूप कारण जानकर कारणमे कार्यका उपचार करके इस श्रद्धानको सम्यक्त्व कहा है। और इसीलिए उसका नाम व्यवहारसम्यक्त्व है । अथवा जिसे तत्त्वार्थश्रद्धान होता है उसे सच्चे अरहन्तादिके स्वरूपका श्रद्धान अवश्य होता है। तत्त्वार्थश्रद्धानके बिना अरहन्तादिका श्रद्धान पक्षसे करे तथापि यथावत् स्वरूपकी पहिचान सहित श्रद्धान नही होता, तथा जिसे सच्चे अरहन्तादिके स्वरूपका श्रद्धान हो उसे तत्त्वार्थश्रद्धान अवश्य ही होता है, क्योकि अरहन्तादिके स्वरूपको पहिचानने पर जीव-अजीव-आस्रवादिकी पहिचान होती है। इसप्रकार उसे परस्पर अविनाभावी जानकर कही कही अरहन्तादिके श्रद्धानको सम्यक्त्व कहा है।
(४) प्रश्न-नरकादिके जीवोंको देव-कुदेवादिका व्यवहार नही है फिर भी उनको सम्यक्त्व होता है, इसलिए सम्यक्त्वके होनेपर अरहंतादि का श्रद्धान होता ही है, ऐसा नियम स भवित नही है।
उत्तर-सात तत्त्वोके श्रद्धानमें अरहन्तादिका श्रद्धान गभित है, क्योंकि वह तत्त्वश्रद्धानमे मोक्ष तत्त्वको सर्वोत्कृष्ट मानता है। और मोक्षतत्त्व अरहन्त सिद्धका ही लक्षण है, तथा जो लक्षणको उत्कृष्ट मानता है वह उसके लक्ष्यको भी उत्कृष्ट अवश्य मानेगा। इसलिये उन्हीको सर्वोत्कृष्ट माना और अन्यको नही माना यही उसे देवका श्रद्धान हुआ कहलाया। और मोक्षका कारण सवर-निर्जरा है इसलिये उसे भी वह उत्कृष्ट मानता है। तथा संवर-निर्जराके धारक मुख्यतया मुनिराज है इसलिये वह मुनिराजको उत्तम मानता है और अन्यको उत्तम नहीं मानता यही उसका
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मोक्षशास्त्र
गुरुका श्रद्धान है । और रागादि रहित भावका नाम अहिंसा है, उसे वह उपादेय मानता है तथा अन्यको नही मानता यही उसका धर्मका श्रद्धान है । इसप्रकार तत्त्वार्थ - श्रद्धानमें अरहन्त देवादिका श्रद्धान भी गर्भित है । अथवा जिस निमित्तसे उसे तत्त्वार्थं श्रद्धान होता है उसी निमित्तसे अरहन्तदेवादिका भी श्रद्धान होता है, इसलिये सम्यग्दर्शन में देवादिके श्रद्धानका नियम है ।
(५) प्रश्न- - कोई जीव अरहन्तादिका श्रद्धान करता है, उनके गुरणोंको पहिचानता है फिर भी उसे तत्त्व श्रद्धानरूप सम्यक्त्व नहीं होता, इसलिये जिसे सच्चे अरहन्तादिका श्रद्धान होता है उसे तत्त्व श्रद्धान अवश्य होता ही है, ऐसा नियम संभवित नहीं होता ।
—
उचर- - तत्त्व श्रद्धानके बिना वह अरिहन्तादिके ४६ आदि गुणों को जानता है, वहाँ पर्यायाश्रित गुणों को भी नही जानता; क्योकि जीवअजीवको जातिको पहिचाने बिना अरहन्तादिके आत्माश्रित और शरीराश्रित गुणोको वह भिन्न नही जानता, यदि जाने तो वह अपने आत्माको परद्रव्यसे भिन्न क्यों न माने ? इसलिये श्री प्रवचनसार में कहा है कि:-- जो जादि अरहंतं दव्वचगुणचपजयतेहिं ।
सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्सलयं ॥ ८० ॥
अर्थ — जो अरहन्तको द्रव्यत्व, गुरणत्व, और पर्यायत्वसे जानता है
वह आत्माको जानता है ओर उसका मोह नाशको प्राप्त होता है इसलिये जिसे जीवादि तत्त्वोंका श्रद्धान नही है उसे अरहन्तादिका भी सच्चा श्रद्धान नही है । और वह मोक्षादि तत्त्वोके श्रद्धानके विना श्ररहन्तादिका माहात्म्य भी यथार्थं नहीं जानता । मात्र लौकिक अतिशयादिसे अरहन्तका, तपश्चरणादिसे गुरुका श्रीर परजीवोंकी अहिंसादिसे धर्मका माहात्म्य जानता है किन्तु यह तो पराश्रितभाव है और अरिहन्तादिका स्वरूप तो आत्माश्रित भावों द्वारा तत्त्वश्रद्धान होते ही ज्ञात होता है, इसलिये जिसे अरहन्तादि का सच्चा श्रद्धान होता है उसे तत्त्व श्रद्धान अवश्य होता है, ऐसा नियम समगना चाहिए । इसप्रकार सम्यक्त्वका लक्षण निर्देश किया है ।
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अध्याय १ परिशिष्ट ४
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प्रश्न ६ - यथार्थं तत्त्वार्थ श्रद्धान, स्व-परका श्रद्धान, आत्मश्रद्धान, तथा देव गुरु धर्मका श्रद्धान सम्यक्त्वका लक्षण कहा है और इन सब लक्षणोंकी परस्पर एकता भी बताई है सो वह तो जान लिया, किन्तु इसप्रकार अन्य अन्य प्रकारसे लक्षरण करनेका क्या प्रयोजन है ?
उत्तर- - जो चार लक्षण कहे है उनमे सच्ची दृष्टि पूर्वक कोई एक लक्षण ग्रहण करने पर चारों लक्षणोंका ग्रहण होता है तथापि मुख्य प्रयोजन भिन्न २ समझ कर अन्य अन्य प्रकारसे यह लक्षण कहे हैं ।
१ - जहाँ तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षण कहा है वहाँ यह प्रयोजन है कि यदि इन तत्त्वोंको पहिचाने तो वस्तुके यथार्थ स्वरूपका व हिताहित का श्रद्धान करके मोक्षमार्ग मे प्रवृत्ति करे ।
२ -- जहाँ स्व-पर भिन्नताका श्रद्धानरूप लक्षण कहा है वहाँ जिससे तत्त्वार्थश्रद्धानका प्रयोजन सिद्ध हो उस श्रद्धानको मुख्य लक्षरण कहा है, क्योकि जीव अजीवके श्रद्धानका प्रयोजन स्व-परका भिन्न श्रद्धान करना है, और आश्रवादिके श्रद्धानका प्रयोजन रागादि छोड़ना है, अर्थात् स्व-परकी भिन्नताका श्रद्धान होनेपर परद्रव्योंमें रागादि न करनेका श्रद्धान होता है । इसप्रकार तत्त्वार्थश्रद्धानका प्रयोजन स्व-परके भिन्न श्रद्धानसे सिद्ध हुआ जानकर यह लक्षरण कहा है ।
३ -- जहाँ आत्मश्रद्धान लक्षण कहा है वहाँ स्व-परके भिन्नश्रद्धानका प्रयोजन इतना ही है कि -अपनेको श्रपनेरूप जानना । अपनेको अपनेरूप जाननेपर परका भी विकल्प कार्यकारी नही है ऐसे मूलभूत प्रयोजनकी प्रधानता जानकर श्रात्मश्रद्धानको मुख्य लक्षण कहा है । तथा-धर्मकी श्रद्धारूप लक्षण कहा है वहाँ बाह्य साधनकी प्रधानता की है, क्योकि - अरहन्त देवादिका श्रद्धान सच्चे तत्त्वार्थं श्रद्धानका कारण है तथा कुदेवादिका श्रद्धान कल्पित श्रतत्त्वार्थश्रद्धानका कारण है । इस बाह्य कारणकी प्रधानता से कुदेवादिका श्रद्धान छुड़ाकर सुदेवादिका श्रद्धान करानेके लिए देव गुरु धर्मके श्रद्धानको मुख्य
४ - जहाँ देव गुरु
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मोक्षशास्त्र लक्षण कहा है । इसप्रकार भिन्न भिन्न प्रयोजनोंकी मुख्यतासे भिन्न भिन्न लक्षण कहे हैं।
(७) प्रश्न-यह जो भिन्न २ चार लक्षण कहे हैं उनमेंसे इस जीवको कौनसे लक्षणको अंगीकार करना चाहिये ?
उत्तर-जहाँ पुरुषार्थके द्वारा सम्यग्दर्शनके प्रगट होने पर विपरीताभिनिवेशका अभाव होता है वहाँ यह चारों लक्षण एक साथ होते हैं तथा विचार अपेक्षासे मुख्यतया तत्त्वार्थोंका विचार करता है या स्व-परका भेद विज्ञान करता है, या प्रात्मस्वरूपको ही सँभालता है अथवा देवादिके स्वरूपका विचार करता है । इसप्रकार ज्ञानमें नाना प्रकारके विचार होते है किन्तु श्रद्धानमें सर्वत्र परस्पर सापेक्षता होती है। जैसे तत्त्वविचार करता है तो भेद विज्ञानादिके अभिप्राय सहित करता है, इसीप्रकार अन्यत्र
भी परस्पर सापेक्षता है। इसलिये सम्यक्दृष्टिके श्रद्धानमें तो चारों 'लक्षणोका अंगीकार है, किन्तु जिसे विपरीताभिनिवेश होता है उसे यह लक्षण आभासमात्र होते है, यथार्थ नहीं होते। वह जिनमतके जीवादि 'तत्त्वोंको मानता है, अन्यके नहीं, तथा उनके नाम, भेदादिको सीखता है। इसप्रकार उसे तत्त्वार्थ श्रद्धान होता है किन्तु उसके यथार्थभावका श्रद्धान नहीं होता । और वह स्व-परके भिन्नत्वकी बातें करता है तथा वस्त्रादिमें परबुद्धिका चितवन करता है, परन्तु उसे जैसी पर्यायमें अहंबुद्धि है तथा वस्त्रादिमें परबुद्धि है वैसी आत्मामें अहंबुद्धि और शरीरमें परबुद्धि नहीं होती। वह आत्माका जिनवचनानुसार चितवन करता है किन्तु प्रतीतरूपसे 'निजको निजरूप श्रद्धान नहीं करता तथा वह अरहन्तादिके अतिरिक्त अन्य कुदेवादिको नही मानता; किन्तु उनके स्वरूपको यथार्थ पहिचान कर श्रद्धान नहीं करता। इसप्रकार यह लक्षणाभास मिथ्या दृष्टिले होते है। उसमें कोई हो या न हो किन्तु उसे यहाँ भिन्नत्व भी संभवित नहीं है।
दूसरे, इन लक्षणाभासोंमे इतनी विशेषता है कि,-पहिले तो देवादिका श्रद्धान होता है, फिर तत्त्वोंका विचार होता है, पश्चात् स्व-परका चितवन करता है और फिर केवल आत्माका चितवन करता है। यदि इस
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क्रमसे जीव साधन करे तो परम्परासे सच्चे मोक्षमार्गको पाकर सिद्ध पदको भी प्राप्त कर ले; और जो इस क्रमका उलंघन करता है उसे देवादिकी मान्यताका भी कोई ठिकाना नहीं रहता । इसलिये जो जीव अपना भला 'करना चाहता है उसे जहाँ तक सच्चे सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति न हो वहाँ तक इसे भी क्रमशः अंगीकार करना चाहिये ।
[ सम्यग्दर्शन के लिये अभ्यासका क्रम ] पहिले श्राज्ञादिके द्वारा ग्रा किसी परीक्षाके द्वारा कुदेवादिकी मान्यताको छोड़कर अरहन्त देवादिका श्रद्धान करना चाहिये, क्योंकि इनका श्रद्धान होने पर ग्रहीतमिथ्यात्वका अभाव होता है, कुदेवादिका निमित्त दूर होता है और अरहन्त देवादिका निमित्त मिलता है, इसलिये पहिले देवादिका श्रद्धान करना चाहिये और फिर जिनमतमे कहे गये जीवादितत्त्वोंका विचार करना चाहिये, उनके नाम - लक्षणादि सीखना चाहिये, क्योंकि इसके अभ्याससे तत्त्वश्रद्धानकी प्राप्ति होती है । इसके बाद जिससे स्व-परका भिन्नत्व भासित हो ऐसे विचार करते रहना चाहिये, क्योकि इस अभ्याससे भेद विज्ञान होता है । इसके बाद एक निजमें निजत्व माननेके लिये स्वरूपका विचार करते रहना चाहिए | क्योकि - इस अभ्याससे श्रात्मानुभवकी प्राप्ति होती है । इसप्रकार क्रमशः उन्हे अंगीकार करके, फिर उसमेंसे ही कभी देवादिके विचारमें, कभी तत्त्व विचारमें, कभी स्व-परके विचारमे तथा कभी श्रात्मविचारमे ́उपयोगको लगाना चाहिए । इस प्रकार अभ्याससे सत्य सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होती है ।
(८) प्रश्न- सम्यक्त्वके लक्षरण अनेक प्रकारके कहे गये हैं, उनमें से यहाँ तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणको ही मुख्य कहा है, सो इसका क्या कारण है ?
उत्तर - तुच्छ बुद्धि वालेको श्रन्य लक्षणोंमें उसका प्रयोजन प्रगट "भासित नही होता या भ्रम उत्पन्न होता है तथा इस तत्त्वार्थ श्रद्धान लक्षण - में प्रयोजन प्रगटरूपसे भासित होता है और कोई भी भ्रम उत्पन्न नही होता, इसलिये इस लक्षणको मुख्य किया है । यही यहाँ दिखाया जा रहा है:
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मोक्षशास्त्र देवगुरुधर्मके श्रद्धानमें तुच्छ वुद्धिको ऐसा भासित होता है कि अरहंतदेवादिको ही मानना चाहिए और अन्यको नहीं मानना चाहिये, इतना ही सम्यक्त्व है, किन्तु वहाँ उसे जीव-अजीवके बंध-मोक्षके कारणकार्यका स्वरूप भासित नही होता और उससे मोक्षमार्गरूप प्रयोजनकी सिद्धि नहीं होती है, और जीवादिका श्रद्धान हुए विना मात्र इसी श्रद्धानमें संतुष्ट होकर अपनेको सम्यक्ष्टि माने वा एक कुदेवादिके प्रति द्वेष तो रक्खे किंतु अन्य रागादि छोड़नेका उद्यम न करे, ऐसा भ्रम उत्पन्न होता है।
और स्व-परके श्रद्धानमें तुच्छ बुद्धिवालेको ऐसा भासित होता है कि-एक स्व-परको जानना ही कार्यकारी है और उसीसे सम्यक्त्व होता है। किन्तु उसमें आश्रवादिका स्वरूप भासित नही होता और उससे मोक्षमार्गरूप प्रयोजनकी सिद्धि भी नही होती। और आश्रवादिका श्रद्धान हुए बिना मात्र इतना ही जानने में संतुष्ट होकर अपनेको सम्यक्दृष्टि मानकर स्वच्छन्दी हो जाता है किन्तु रागादिके छोड़नेका उद्यम नही करता; ऐसा भ्रम उत्पन्न होता है।
तथा आत्मश्रद्धान लक्षणमें तुच्छबुद्धि वालेको ऐसा भासित होता है कि-एक आत्माका ही विचार कार्यकारी है और उसीसे सम्यक्त्व होता • है, किन्तु वहाँ जीव-अजीवादिके विशेष तथा आश्रवादिका स्वरूप भासित नही होता और इसलिये मोक्षमार्गरूप प्रयोजनकी सिद्धि भी नहीं होती, और जीवादिके विशेषोंका तथा आश्रवादिके स्वरूपका श्रद्धान हुए बिना मात्र इतने ही विचारसे अपनेको सम्यग्दृष्टि मानकर स्वच्छन्दी होकर रागादिको छोड़नेका उद्यम नही करता; ऐसा भ्रम उत्पन्न होता है। ऐसा जानकर इन लक्षणोको मुख्य नही किया ।
और तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणमें--जीव-अजीवादि पाश्रवादिका श्रद्धान हुआ वहाँ यदि उन सबका स्वरूप ठीक ठीक भासित हो तो मोक्षमार्गरूप प्रयोजनकी सिद्धि हो। और इस श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनके होनेपर भी स्वयं संतुष्ट नही होता परन्तु आश्रवादिका श्रद्धान होनेसे रागादिको
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मध्याय १ परिशिष्ट ४
१६६ छोड़कर मोक्षका उद्यम करता है । इसप्रकार उसे भ्रम उत्पन्न नहीं होता। इसीलिये तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणको मुख्य किया है।
अथवा तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणमें देवादिका श्रद्धान, स्व-परका श्रद्धान, तथा आत्मश्रद्धान गर्मित होता है, और वह तुच्छबुद्धिवाले को भी भासित होता है किन्तु अन्य लक्षणोंमें तत्त्वार्थश्रद्धान गर्भित है यह विशेष बुद्धिवान्को ही भासित होता है, तुच्छवुद्धिवालेको नहीं। इसलिये तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणको मुख्य किया है। तथा मिथ्यादृष्टि को यह आभासमात्र होता है; वहाँ तत्त्वार्थोंका विचार विपरीताभिनिवेशको दूर करने में शीघ्र कारणरूप होता है किन्तु अन्य लक्षण शीघ्र कारणरूप नहीं होते या विपरीताभिनिवेशके भी कारण हो जाते हैं, इसलिये वहाँ सर्व प्रकारसे प्रसिद्ध जानकर विपरीताभिनिवेशरहित जीवादितत्त्वार्थोंका श्रद्धान ही सम्यक्त्वका लक्षण है ऐसा निर्देश किया है। ऐसा लक्षण जिस आत्माके स्वभावमें हो उसीको सम्यग्दृष्टि समझना चाहिए ।
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मोक्षशास्त्र प्रथम अध्यायका परिशिष्ट
[4] केवलज्ञानका खरूप
(१) षट्खंडागम - धवलाटीका पुस्तक १३ सूत्र ८१-८२ द्वारा आचार्यदेवने कहा है कि:
"वह केवलज्ञान सकल है, संपूर्ण है, और सपत्न है ॥ ८१ ॥ अखंड होनेसे वह सकल है ।
शंका- यह ग्रखंड कैसे है ?
समाधान -- समस्त बाह्य अर्थ में प्रवृत्ति नही होने पर ज्ञानमें खण्डपना आता है, सो वह इस ज्ञान में सम्भव नही है; क्योकि, इस ज्ञानके विषय त्रिकालगोचर अशेष बाह्य पदार्थ हैं ।
अथवा द्रव्य, गुरण और पर्यायोंके भेदका ज्ञान अन्यथा नही बन सकने के कारण जिनका अस्तित्व निश्चित है ऐसे ज्ञानके अवयवोका नाम कला है; इन कलाओके साथ वह अवस्थित रहता है इसलिये सकल है । 'सम' का अर्थं सम्यक् है, सम्यक् अर्थात् परस्पर परिहार लक्षण विरोधके होने पर भी सहानअवस्थान लक्षण विरोधकके न होनेसे चूंकि वह अनंतदर्शन, अनंनवीर्यं विरति एवं क्षायिकसम्यक्त्व आदि अनंत गुरगोसे पूर्ण है; इसीलिये इसे सम्पूर्ण कहा जाता है । वह सकल गुरणोंका निधान है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । सपत्नका अर्थ शत्रु है, केवलज्ञानके शत्रु कर्म है । वे इसके नहीं रहे हैं, इसलिये केवलज्ञान असपत्न है । उसने अपने प्रतिपक्षि घातिचतुष्क का समूल नाश कर दिया है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यह केवलज्ञान स्वयं ही उत्पन्न होता है, इस बातका ज्ञान करानेके लिये और उसके विषयका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते है
स्वयं उत्पन्न हुए ज्ञान और दर्शनसे युक्त भगवान् देवलोक और असुरलोकके साथ मनुष्यलोककी आगति, गति, चयन, उपपाद, बंध, मोक्ष, ऋद्धि,
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अध्याय १ परिशिष्ट ५
२०१
स्थिति, युति, अनुभाग, तर्क, कल, मन, मानसिक, भुक्त, कृत, प्रतिसेवित, श्रादिकर्म, अहः कर्म, सबलोकों, सब जीवों और सब भावोंको सम्यक् प्रकारसे युगपत् जानते है, देखते है और विहार करते है ॥ ८२ ॥
ज्ञान-धर्मके माहात्म्योंका नाम भग है, वह जिनके है भगवान् कहलाते है । उत्पन्न हुए ज्ञानके द्वारा देखना जिसका स्वभाव है उसे उत्पन्न ज्ञानदर्शी कहते है । स्वयं उत्पन्न हुए ज्ञान दर्शन स्वभाववाले भगवान् सब लोकको जानते है |
शंका- ज्ञानको उत्पत्ति स्वयं कैसे हो सकती है ?
समाधान --- नहीं, क्योंकि कार्य और कारणका एकाधिकरण होनेसे इनमे कोई भेद नही है ।
[ देवादि लोकमें जीवकी गति, आगति तथा चयन और उपपादको भी सर्वज्ञ भगवान जानते हैं; - ]
सौधर्मादिक देव, और भवनवासी असुर कहलाते है । यहाँ देवासुर वचन देशामर्शक है इसलिये इससे ज्योतिषी, व्यन्तर और तिर्यंचोका भी ग्रहण करना चाहिये । देवलोक और असुरलोकके साथ मनुष्यलोककी आगतिको जानते हैं । अन्य गतिसे इच्छिन गतिमे आना आगति है । इच्छित गतिसे अन्य गतिमे जाना गति है । सौधर्मादिक देवोका अपनी सम्पदा से विरह होना चयन है । विवक्षित गतिसे अन्य गतिमें उत्पन्न होना उपपाद है । जीवोंके विग्रहके साथ तथा विना विग्रहके आगमन, गमन चयन और उपपादको जानते हैं;
[ पुगलोंके आगमन, गमन, चयन और उपपाद संबंधी ]
तथा पुद्गलोंके आगमन, गमन, चयन और उपपादको जानते हैं; पुद्गलोंमे विवक्षित पर्यायका नाश होना चयन है । अन्य पर्यायरूपसे परिमना उपपाद है ।
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२०२
मोक्षशास्त्र [धर्म, अधर्म, काल और आकाशके चयन और उपपाद,]
धर्म, अधर्म, काल और आकाशके चयन और उपपादको जानते हैं, क्योकि, इनका गमन और प्रागमन नहीं होता। जिसमे जीवादि पदार्थ लोके जाते है अर्थात् उपलब्ध होते हैं उसकी लोक संज्ञा है। यहाँ 'लोक' शब्दसे आकाश लिया गया है । इसलिये आधेयमें आधारका उपचार करने से धर्मादिक भी लोक सिद्ध होते है ।
[बन्धको भी भगवान् जानते हैं;] बन्धनका नाम बन्ध है। अथवा जिसके द्वारा या जिसमे बंधते हैं उसका नाम बन्ध है । वह बन्ध तीन प्रकारका है-जीवबन्ध, पुद्गलबन्ध और जीव-पुद्गल बंध । एक शरीरमे रहनेवाले अनन्तानंत निगोद जीवोका जो परस्पर बन्ध है वह जीवबन्ध कहलाता है। दो तीन आदि पुद्गलोंका जो समवाय सम्बन्ध होता है वह पुद्गलवन्ध कहलाता है। तथा औदारिक वर्गणाएं, वैक्रियिक वर्गणाएं, आहारक वर्गणाएं, तैजस वर्गणाएं और कार्मण वर्गणाएं इनका और जीवोंका जो बंध होता है वह जीव-पुद्गलबन्ध कहलाता है। जिस कर्मके कारण अनन्तानंत जीव एक शरीर में रहते है उस कर्मकी जीवबन्ध सज्ञा है। जिस स्निग्ध और रूक्ष आदि गुणोके कारण पुद्गलोंका बन्ध होता है उसको पुद्गलबन्ध संज्ञा है। जिन मिथ्यात्व, असयम, कषाय और योग आदिके निमित्तसे जीव और पुद्गलों का बन्ध होता है वह जीव-पुद्गलबन्ध कहलाता है। इस बन्धको भी वे भगवान् जानते हैं। [मोक्ष ऋद्धि, स्थिति तथा युति और उनके कारणोंको भी जानते हैं,]
छूटनेका नाम मोक्ष है, अथवा जिसके द्वारा या जिसमें मुक्त होते हैं वह मोक्ष कहलाता है । वह मोक्ष तीन प्रकारका है-जीवमोक्ष, पुद्गलमोक्ष और जीव-पुद्गलमोक्ष ।
इसी प्रकार मोक्षका कारण भी तीन प्रकार कहना चाहिए । बंध, बंधका कारण, बन्धप्रदेश, बद्ध एव बध्यमान जीव और पुद्गल; तथा मोक्ष,
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अध्याय १ परिशिष्ट ५
२०३
मोक्षका कारण, मोक्षप्रदेश, मुक्त एवं मुच्यमान जीव और पुद्गल, इन सब त्रिकाल विषयक अर्थोको जानता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
भोग और उपभोगरूप घोडा, हाथी, मरिण व रत्न, रूप, सम्पदा तथा उस सम्पदा की प्राप्तिके कारणका नाम ऋद्धि है । तीन लोकमें रहने वाली सब सम्पदाओको तथा देव, अमुर और मनुष्य भवकी सम्प्राप्ति के कारणोंको भी जानता है; यह उक्त कथनका तात्पर्य है । छह द्रव्यों का विवक्षित भावसे ग्रवस्थान और अवस्थानके कारणका नाम स्थिति है । द्रव्यस्थिति, कर्मस्थिति, कार्यस्थिति, भवस्थिति और भावस्थिति श्रादि स्थिति को सकारण जानता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
[ त्रिकाल विषयक सब प्रकार के संयोग या समीपताके सब भेदको जानते हैं:- 1
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके साथ जीवादि द्रव्योंके सम्मेलनका नाम युति है ।
शंका- युति और बन्धमें क्या भेद है ?
समाधान - एकोभावका नाम बन्ध है और समीपता या संयोगका नाम युति है ।
यहाँ द्रव्ययुति तीन प्रकारकी है - जीवयुति, पुद्गलयुति और जीवपुद्गलति । इनमेसे एक कुल, ग्राम, नगर, बिल, गुफा या अटवीमे जीवों का मिलना जी युति है । वायुके कारण हिलनेवाले पत्तोंके समान एक स्थानपर पुद्गलोका मिलना पुद्गलयुति है । जीव और पुद्गलोका मिलना जीव- पुद्गलति है । अथवा जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और प्रकाश इनके एक आदि संयोगके द्वारा द्रव्ययुति उत्पन्न करानी चाहिए । जीवादि द्रव्योंका नारकादि क्षेत्रोंके साथ मिलना क्षेत्रयुति है । उन्ही द्रव्योंका दिन, महिना और वर्ष आदि कालोके साथ मिलाप होना कालयुति है । क्रोध, मान, माया और लोभादिकके साथ उनका मिलाप होना भावयुति है । त्रिकालविषयक इन सब युतियोके भेदको वे भगवान जानते हैं ।
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२०४
मोक्षशास्त्र
[ छह द्रव्योंके अनुभाग तथा ..... घटोत्यादनरूप अनुभागको भी जानते हैं । ]
छह द्रव्योंकी शक्तिका नाम अनुभाग है वह अनुभाग छह प्रकारका 'है - जीवानुभाग, पुद्गलानुभाग, धर्मास्तिकायानुभाग, श्रधर्मास्तिकायानु'भाग, आकाशास्तिकायानुभाग, और कालद्रव्यानुभाग । इनमें से समस्त द्रव्यों का जानना जीवानुभाग है । ज्वर, कुष्ठ और क्षयादिका विनाश करना और उनका उत्पन्न कराना इसका नाम पुद्गलानुभाग है । योनि प्राभृामे कहे गए मंत्र-तंत्ररूप शक्तियोंका नाम पुद्गलानुभाग है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । जीव और पुद्गलोंके गमन और आगमनमें हेतु होना धर्मास्तिकायानुभाग है । उन्ही के अवस्थानमे हेतु होना श्रधर्मास्तिकायानुभाग है । जीवादि द्रव्यों का आधार होना आकाशास्तिकायानुभाग है । अन्य द्रव्यों के क्रम और अक्रमसेx परिणमनमे हेतु होना कालद्रव्यानुभाग है । इसी प्रकार द्विसंयोगादि रूपसे अनुभागका कथन करना चाहिए। जैसे - मृत्तिकापिण्ड, दण्ड, चक्र, चीवर, जल और कुम्हार आदिका घटोत्पादनरूप अनुभाग | इस अनुभागको भी जानते हैं ।
[ तर्क, कला, मन, मानसिक ज्ञान और मनसे चिन्तित पदार्थों को भी जानते हैं । ]
तर्क हेतु और ज्ञापक, ये एकार्थवाची शब्द हैं । इसे भी जानते हैं। चीत्रकर्म और पत्र -छेदन आदिका नाम कला है । कलाको भी वे जानते हैं । मनोवरणासे बने हुये हृदय-कमलका नाम मन है, अथवा मनसे उत्पन्न हुए ज्ञानको मन कहते हैं । मनसे चिन्तित पदार्थो का नाम मानसिक है । उन्हे भी जानते हैं ।
[ भुक्त, कृत, प्रतिसेवित, आदिकर्म, अरहःकर्म, सब लोकों, सब जीवों और सब भावोंको सम्यक् प्रकारसे युगपत् जानते हैं ।]
राज्य और महाव्रतादिका परिपालन करनेका नाम मुक्ति है । उस भुक्तको जानते हैं । जो कुछ तीनों ही कालोमें अन्यके द्वारा निष्पन्न होता x एक साथ अनन्त द्रव्यके 'अनन्त गुणोंके परिणमनको यहाँ प्रक्रम (युगपत् ) कहा है ।
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अध्याय १ परिशिष्ट ५
२०५ 'है उसका नाम कृत है। पांचों इन्द्रियोंके द्वारा तीनों ही कालोंमें जो सेवित • होता है उसका नाम प्रतिसेवित है । श्राद्यकर्मका नाम आदिकर्म है । अर्थ'पर्याय और व्यंजन पर्यायरूपसे सब द्रव्योंकी आदिको जानता है, यह उक्त 'कथनका तात्पर्य है । रहस् शब्दका अर्थ अंतर और अरहस् शब्दका अर्थ 'अनन्तर है । रहस् ऐसा जो कर्म वह अरहःकर्म कहलाता है । उनको जानते हैं । शुद्ध द्रव्यार्थिक नयके विषयरूपसे सब द्रव्योकी अनादिताको जानते हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । सम्पूर्ण लोकमें सब जीवों ओर सब भावों को जानते है ।
शंका- यहाँ 'सर्वजीव' पदको ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि, बद्ध और मुक्त पदके द्वारा उसके अर्थका ज्ञान हो जाता है ।
समाधान- नही, क्योकि एक सख्या विशिष्ट बद्ध और मुक्तका ग्रहण वहाँ पर न होवे, इसलिए इसका प्रतिषेध करनेके लिए 'सर्वजीव' पदका निर्देश किया है ।
जीव दो प्रकारके हैं-संसारी और मुक्त । इनमें मुक्त जीव प्रतंत प्रकारके है, क्योकि, सिद्धलोकका आदि और अन्त नही पाया जाता । शंका- सिद्ध लोकके आदि और अन्तका अभाव कैसे है ?
समाधान ——— क्योकि, उसकी प्रवाह स्वरूपसे अनुवृत्ति है, तथा 'सब 'सिद्ध जीव सिद्धिकी अपेक्षा सादि है और संतानकी अपेक्षा अनादि है, ' ऐसा सूत्र वचन भी है ।
[ सब जीवोंको जानते हैं !]
1
संसारी जीव दो प्रकारके हैं- त्रस और स्थावर । त्रस जीव चारप्रकार के हैं - द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । पंचेन्द्रियजीव दो प्रकारके है— संज्ञी और असंज्ञी । ये सब जीव त्रस पर्याप्त और अपर्याप्तके भेद से दो प्रकारके | अपर्याप्त जीव लब्ध्यपर्याप्त और निवृत्यपर्याप्त मेदसे दो प्रकार हैं । स्थावर जीव पांच प्रकारके हैं- पृथ्वीकायिक, 'जलकायिक, safaif, वायुकायिक र वनस्पतिकायिक । इन पांचों ही स्थावर'कायिक जीवोमें प्रत्येक दो प्रकारके हैं- बादर और सूक्ष्म | इनमे बादर वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकारके हि-प्रत्येक शरीर और साधारण शरीर ।
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मोक्षशास्त्र यहाँ प्रत्येक शरीर जीव दो प्रकारके हैं-बादर निगोद प्रतिष्ठित और बादर निगोद अप्रतिष्ठित । ये सब स्थावरकायिक जीव भी प्रत्येक दो प्रकारके हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । अपर्याप्त दो प्रकारके हैं लब्ध्यपर्याप्त और निर्वृत्त्यपर्याप्त । इनमेंसे वनस्पतिकायिक अनन्त प्रकारके और शेष असंहयात प्रकारके है । केवली भगवान् समस्त लोकमें स्थित इन सब जीवोंको जानते हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
[सर्व भावोंको जानते हैं:-] जीव, अजीव, पुण्य, पाप, प्रास्रव, संवर, बन्ध, और मोक्षके भेदसे पदार्थ नौ प्रकारके हैं । उनमेसे जीवोंका कथन कर आये हैं । अजीव दोप्रकार के है-मूर्त और अमूर्त । इनमें से मूर्त पुद्गल उन्नोस प्रकारके हैं । यथाएक प्रदेशीवर्गणा, संख्यातप्रदेशीवर्गणा,असंख्यातप्रदेशीवर्गणा, अनंतप्रदेशी वर्गणा, आहारवर्गणा, अग्रहणवर्गणा, तैजसशरीरवर्गणा, अग्रहणवर्गणा, भाषावर्गणा, अग्रहणवर्गणा, मनोवर्गणा, अग्रहणवर्गणा, कर्मणशरीरवर्गणा, स्कन्धवर्गणा, सान्तर निरन्तरवर्गणा, ध्रुवशून्यवर्गणा, प्रत्येकशरीरवर्गणा, ध्रुवशून्यवर्गणा, बादरनिगोदवर्गणा, ध्रुवशून्यवर्गणा, सूक्ष्मनिगोदवर्गणा, ध्रुवशून्यवर्गणा और महास्कन्धवर्गणा । इन तेईस वर्गणाओंमेंसे चार ध्रुवशून्यवर्गणाओके निकाल देनेपर उन्नीस प्रकारके पुद्गल होते है
और वे प्रत्येक अनन्त भेदोको लिये हुए है । अमूर्त चार प्रकारके हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल | काल घनलोक प्रमाण है शेष एक एक हैं । आकाश अनन्तप्रदेशो है, काल अप्रदेशी है और शेप असंख्यात प्रदेशी हैं ।
[सर्व भावों के अन्तर्गत-शुभाशुभ कर्म प्रकृतियों, पुण्य-पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष इन सबको केवली जानते हैं ।]
शुभ प्रकृतियोंका नाम पुण्य है और अशुभ प्रकृतियोका नाम पाप है। यहां घातिचतुष्क पापरूप हैं । अघातिचतुष्क मिश्ररूप हैं, क्योकि, इन में शुभ और अशुभ दोनो प्रकृतियां सम्भव हैं । मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग ये आत्रव है। इनमेसे मिथ्यात्व पाँच प्रकारका है । असंयम
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अध्याय १ परिशिष्ट ५
२०७ ब्यालीस प्रकारका है। कहा भी है
__ पांचरस, पांच वर्ण, दो गंध आठ स्पर्श, सात स्वर, मन और चौदह प्रकारके जीव; इनकी अपेक्षा अविरमण अर्थात् इन्द्रिय व प्राणीरूप असंयम ब्यालीस प्रकारका है ॥ ३३ ॥
अनंतानुबन्धी क्रोध, मान, माया, और लोभ; प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, और लोभ, अप्रत्याख्यानावरण, क्रोध, मान, माया और लोभ, संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तथा स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदके भेदसे कषाय पच्चीस प्रकारकी है। योग पन्द्रह प्रकारका है। प्रास्रवके प्रतिपक्षका नाम संवर है। ग्यारह भेदरूप गुरण श्रेणिके द्वारा कर्मोका गलना निर्जरा है। जीवों
और कर्म-पुद्गलोके समवायका नाम बंध है। जीव और कर्मका निःशेष विश्लेष होना मोक्ष है । इन सवभावोंको केवली जानते हैं।
समं अर्थान् अक्रमसे (-युगपत् ) । यहाँ जो 'सम' पदका ग्रहण किया है वह केवलज्ञान अतीन्द्रिय है और व्यवधान आदिसे रहित है इस बातको सूचित करता है; क्योकि, अन्यथा सब पदार्थोंका युगपत् ग्रहण करना नहीं बन सकता; संशय, विपर्यय और अनध्यवसायका अभाव होनेसे अथवा त्रिकाल गोचर समस्त द्रव्यों और उनकी पर्यायोका ग्रहण होनेसे केवली भगवान् सम्यक् प्रकारसे जानते है ।
___ केवली द्वारा अशेष बाह्य पदार्थोका ग्रहण होनेपर भी उनका सर्वज्ञ होना सम्भव नही है, क्योंकि उनके स्वरूप परिच्छित्ति अर्थात् स्वसंवेदनका अभाव है; ऐसी आशंका होने पर सूत्रमे 'पश्यति' कहा है । अर्थात् वे त्रिकालगोचर अनन्त पर्यायोंसे उपचित आत्माको भी देखते है ।
___केवलज्ञान की उत्पत्ति होनेके बाद सब कर्मोंका क्षय हो जाने पर शरीर रहित हुए केवलो उपदेश नही दे सकते, इसलिये तीर्थका अभाव प्राप्त होता है, ऐसा कहने पर सूत्र में 'विहरदि' कहा है। अर्थात् चार अघाति कर्मोका सत्त्व होनेसे वे कुछ कम एक पूर्व कोटिकाल तक विहार करते है।
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मोक्षशास्त्र ऐसा केवलज्ञान होता है ॥८॥ इस प्रकारके गुणोंवाला केवलज्ञान होता है । शंका-गुणमें गुण कैसे हो सकता है ?
समाधान-यहाँ केवलज्ञानके द्वारा केवलज्ञानीका निर्देश किया गया है। इस प्रकारके केवली होते है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । (२) श्री कुन्दकुन्दाचार्य कृत प्रवचनसार गाथा ३७ में कहा है
तक्कालिगेव सव्वे सदसब्भूदा हि पज्जया तासि ।
वट्टन्ते ते गाणे विसेसदो दव्वजादीणं ॥ ३७ ॥ __ अर्थ-"उन (जीवादी) द्रव्य जातियोंकी समस्त विद्यमान और अविद्यमान पर्यायें तात्कालिक (वर्तमान ) पर्यायोंकी भाँति विशिष्टतापूर्वक (अपने-अपने भिन्न-भिन्न स्वरूपसे) ज्ञानमें वर्तती हैं।"
इस श्लोक की श्री अमृतचन्द्राचार्य कृत टीकामें कहा है कि___ "टीका-(जीवादी ) समस्तद्रव्य जातियों की पर्यायों की उत्पत्ति की मर्यादा तीनों कालकी मर्यादा जितनी होनेसे (वे तीनों कालमें उत्पन्न हुआ करती है इसलिये,) उनकी (-उन समस्त द्रव्य जातियोंकी,) क्रम पूर्वक तपती हुई स्वरूप सम्पदावाली, (एकके बाद दूसरी प्रगट होनेवाली), विद्यमानता और अविद्यमानताको प्राप्त जो जितनी पर्यायें हैं, वे सब तात्कालिक (वर्तमान कालीन ) पर्यायों की भाँति, अत्यन्त मिश्रित होने पर भी, सर्व पर्यायोंके विशिष्ट लक्षण स्पष्ट ज्ञात हो इसप्रकार, एक क्षणमें ही ज्ञान मंदिरमें स्थितिको प्राप्त होती हैं।
इस गाथा की सं. टीकामें श्री जयसेनाचार्यने कहा है कि-"..... ज्ञानमे समस्त द्रव्यों की तीनों कालकी पर्यायें एक साथ ज्ञात होने पर भी प्रत्येक पर्यायका विशिष्ट स्वरूप, प्रदेश, काल, आकारादि विशेषताएँ स्पष्ट ज्ञात होती हैं, संकर-व्यतिकर नही होते....."
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(२०६
अध्याय १ परिशिष्ट ५ "उनको ( केवली भगवान्को ) समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका अक्रमिक ग्रहण होनेसे समक्ष संवेदनकी ( प्रत्यक्ष ज्ञानकी ) आलम्बन भूत समस्त द्रव्य-पर्यायें प्रत्यक्ष ही हैं।"
(प्रवचनसार गाथा २१ की टीका ) "जो ( पर्यायें ) अभी तक भी उत्पन्न नहीं हुई है, तथा जो उत्पन्न होकर नष्ट हो गई है, वे ( पर्यायें ) वास्तवमें विद्यमान होने पर भी ज्ञानके प्रति नियत होनेसे ( ज्ञानमें निश्चित्-स्थिर-लगी हुई होनेसे, ज्ञानमे सीधे ज्ञात होनेसे ) ज्ञान प्रत्यक्ष वर्तती हुई, पत्थरके स्तम्भमे अंकित भूत और भावी देवोंकी ( तीर्थंकर देवोंकी ) भांति अपने स्वरूपको अकंपतया (ज्ञानको ) अर्पित करती हुई ( वे पर्यायें ) विद्यमान ही है।"
(प्र० सा० गाथा-३८ की टीका) (५) "टीका-क्षायिक ज्ञान वास्तवमें एक समयमे ही सर्वतः ( सर्व प्रात्म प्रदेशोंसे ), वर्तमानमें वर्तते तथा भूत-भविष्य कालमें वर्तते उन समस्त पदार्थोको जानता है जिनमें पृथकरूपसेकै वर्तते स्वलक्षणरूप लक्ष्मीसे आलोकित अनेक प्रकारोके कारण वैचित्र्य प्रगट हुआ है और जिनमे परस्पर विरोधसे उत्पन्न होनेवाली असमान जातीयताके कारण वैषम्य प्रगट हुआ है.....उन्हें जानता है ।......जिनका अनिवार फैलाव है, ऐसा प्रकाशमान होनेसे क्षायिकज्ञान अवश्यमेव, सर्वदा, सर्वत्र, सर्वथा, सर्वको (द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूपसे ) जानता है।"
(प्र० सार गाथा ४७ की टीका) .... (६) "जो एक ही साथ (-युगपत्) त्रैकालिक त्रिभुवनस्थ ( तीनों काल और तीनों लोकके ) पदार्थोंको नहीं जानता उसे पर्याय सहित एक गव्य भी जानना शक्य नही है ।"
(प्र. सार गाथा ४८ ) (७) "... एक ज्ञायक भावका समस्त ज्ञेयको जाननेका स्वभाव - होनेसे क्रमशः प्रवर्तमान, अनन्त, भूत-वर्तमान-भावी विचित्र पर्याय समूह
[* द्रव्योके भिन्न-भिन्न वर्तनेवाले निज निज लक्षण-उन द्रव्योकी लक्ष्मीसंपत्ति-शोभा है ]
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मोक्षशास्त्र वाले अगाध स्वभाव और गंभीर समस्त द्रव्यमात्रको-मानों वे द्रव्य ज्ञायकमें उत्कीर्ण हो गये हों, चित्रित हो गये हों, भीतर घुस गये हों, कीलित हो गये हों, डूब गये हो, समा गये हों, प्रतिविम्बित हुये हों, इस प्रकार-एक क्षणमें ही जो शुद्धात्मा प्रत्यक्ष करता है,..." (प्र. सार गाथा २०० की टीका)
(८) "घातिकर्मका नाश होने पर अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य-यह अनन्त चतुष्टय प्रगट होते हैं। वहाँ अनन्तदर्शनज्ञानसे तो, छह द्रव्योंसे भरपूर जो यह लोक है उसमें जीव अनन्तानन्त और पुद्गल उनसे भी अनन्तगुने हैं; और धर्म, अधर्म तथा आकाश यह तीन द्रव्य एवं असंख्य कालद्रव्य हैं-उन सर्व द्रव्योंकी भूतभविष्य-वर्तमान काल सम्बन्धी अनन्त पर्यायोंको भिन्न-भिन्न एक समयमें देखते और जानते हैं।"
[ अष्टपाहुड-भावपाहुड गा. १५० की पं. जयचन्द्रजी कृत टीका ]
(६) श्री पंचास्तिकायकी श्री जयसेनाचार्य कृत सं. टीका पृष्ठ ८७ गाथा ५ मे कहा है कि
......णाणाणाणं च पत्थि केवलिणो-गाथा ५ ।
"केवली भगवान्को ज्ञानाज्ञान नहीं होता, अर्थात् उन्हें किसी विषयमें ज्ञान और किसी विषयमें अज्ञान वर्तता है-ऐसा नहीं होता, किन्तु सर्वत्र ज्ञान ही वर्तता है।"
(१०) भगवन्त भूतबलि आचार्य प्रणीत महाबन्ध प्रथम भाग... प्रकृति बन्धाधिकार पृष्ठ २७-२८ मे केवलज्ञानका स्वरूप निनोक्त कहा है:
केवली भगवान् त्रिकालावच्छिन्न लोक अलोक सम्बन्धी सम्पूर्ण गुण पर्यायोसे समन्वित अनन्त द्रव्योंको जानते हैं। ऐसा कोई ज्ञेय नहीं हो सकता है, जो केवली भगवान् के ज्ञानका विषय न हो।
[** जिसका स्वभाव अगाध है और गम्भीर है, ऐसे समस्त द्रव्योको-भूत, वर्तमान तथा भावी कालका क्रमसे होनेवाली अनेक प्रकारकी अनन्त पर्यायोसे युक्त एक समयमें ही प्रत्यक्ष जानना आत्माका स्वभाव है।]
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अध्याय १ परिशिष्ट ५
२११
ज्ञानका धर्म ज्ञेय को जानना है और ज्ञेयका धर्म है ज्ञानका विषय होना । इनमे विषयविषयिभाव सम्बन्ध है । जब मति और श्रुतज्ञानके द्वारा भी यह जीव वर्तमानके सिवाय भूत तथा भविष्यत काल की बातोका परिज्ञान करता है, तब केवली भगवान्के द्वारा अतीत, अनागत, वर्तमान सभी पदार्थोंका ग्रहण (-ज्ञान ) करना युक्तियुक्त ही है ।..... यदि क्रम पूर्वक केवली भगवान् अनन्तानन्त पदार्थोंको जानते तो सम्पूर्ण पदार्थों का साक्षात्कार न हो पाता । अनन्त काल व्यतीत होने पर भी पदार्थोकी अनन्त गणना अनन्त ही रहती । आत्माकी असाधारण निर्मलता होनेके कारण एक समयमें ही सकल पदार्थोंका ग्रहण ( - ज्ञान ) होता है ।
जब ज्ञान एक समयमें सम्पूर्ण जगत्का या विश्वके तत्त्वोंका बोध कर चुकता है, तब आगे वह कार्यहीन हो जायगा' यह आशङ्का भी युक्त नही है; कारण कालद्रव्यके निमित्तसे तथा अगुरुलघु गुरणके कारण समस्त वस्तुओमें क्षण क्षणमें परिणमन - परिवर्तन होता है । जो कल भविष्यत् था वह आज वर्तमान बनकर आगे अतीतका रूप धारण करता है | इसप्रकार परिवर्तनका चक्र सदा चलनेके कारण ज्ञेयके परिणमनके अनुसार ज्ञानमें भी परिणमन होता है । जगतके जितने पदार्थ हैं, उतनी ही केवलज्ञानकी शक्ति या मर्यादा नहीं है । केवलज्ञान अनन्त है । यदि लोक अनन्त गुणित भी होता, तो केवलज्ञान सिंधुमें वह बिन्दु तुल्य समा जाता ।...अनन्त केवलज्ञानके द्वारा अनन्त जीव तथा अनन्त आकाशादिका ग्रहरण होने पर भी वे पदार्थ सान्त नही होते हैं । अनन्तज्ञान अनन्त पदार्थ या पदार्थोको अनन्तरूपसे बताता है, इस कारण ज्ञेय और ज्ञानकी अनन्तता अबावित रहती है ।
[ महाबन्ध प्रथम भाग पृष्ठ २७ तथा घवला पुस्तक १३ पृष्ठ ३४६ से ३५३ ] उपरोक्त आधारोंसे निम्नोक्त मंतव्य मिथ्या सिद्ध होते हैं(१) केवली भगवान् भूत और वर्तमान कालवर्ती पर्यायों को ही जानते हैं और भविष्यत् पर्यायोंको वे हों तब जानते हैं ।
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२१२
मोक्षशास्त्र (२) सर्वज्ञ भगवान् अपेक्षित धर्मोको नहीं जानते। ... ?
(३) केवली भगवान् भूत-भविष्यत् पर्यायोंको सामान्यरूपसे जानते हैं किन्तु विशेषरूपसे नहीं जानते ।
(४) केवली भगवान् भविष्यत् पर्यायोंको समग्ररूपसे (समूहरूपसे) जानते हैं, भिन्न भिन्नरूपसे नही जानते ।।
(५) ज्ञान सिर्फ ज्ञानको ही जानता है ।
(६) सर्वज्ञके ज्ञानमें पदार्थ झलकते हैं, किन्तु भूतकाल तथा भविष्यकालकी पर्यायें स्पष्टरूपसे नहीं झलकती।-इत्यादिक मन्तव्य सर्वज्ञको अल्पज्ञ मानने समान है।
[केवलज्ञान (-सर्वज्ञका ज्ञान ) द्रव्य-पर्यायोंका शुद्धत्व
अशुद्धत्व आदि अपेक्षित धर्मोको भी जानता है। ]
(११) श्री समयसारजीमें अमृतचंद्राचार्य कृत कलश नं० २ में केवलज्ञानमय सरस्वतीका स्वरूप इसप्रकार कहा है, '..वह मूर्ति ऐसी है कि जिसमे अनन्त धर्म है ऐसा, और प्रत्यक्-परद्रव्योंसे, परद्रव्योंके गुण पर्यायोंसे भिन्न तथा परद्रव्यके निमित्तसे हुए अपने विकारोंसे कथंचित् भिन्न एकाकार ऐसा जो आत्मा उसके तत्त्वको अर्थात् असाधारण सजातीय विजातीय द्रव्योंसे विलक्षण निजस्वरूपको पश्यंती-देखती है।'
भावार्थ-xxx.. ...उनमें अनन्त धर्म कौन कौन हैं ? उसका उत्तर कहते हैं-जो वस्तुमे सत्पना, वस्तुपना, प्रमेयपना, प्रदेशपना, चेतनपना, अचेतनपना, मूर्तिकपना, अमूर्तिकपना इत्यादि धर्म तो गुरण हैं और उन गुणोंका तीनों कालोंमें समय समयवर्ती परिणमन होना पर्याय है, वे अनन्त है । तथा एकपना, अनेकपना, नित्यपना, अनित्यपना, भेदपना, अभेदपना, शुद्धपना, अशुद्धपना आदि अनेक धर्म हैं वे सामान्यरूप तो वचन गोचर हैं और विशेषरूप वचनके अविषय हैं, ऐसे वे अनन्त है सो ज्ञानगम्य है (-अर्थात् केवलज्ञानके विषय हैं । )
[श्री रायचन्द जैन शास्त्रमाला मुंबईसे प्रकाशित स. सार पत्र ४];
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अध्याय १ परिशिष्ट ५
२१३ सर्वज्ञ व्यवहारसे परको जानता है उसका अर्थ
(१२) परमात्मप्रकाश शास्त्र गा. ५२ की सं. टीकामें ( पत्र नं. ५५) कहा है कि "यह आत्मा व्यवहार नयसे केवलज्ञान द्वारा लोकालोकको जानता है और शरीरमें रहने पर भी निश्चयनयसे अपने आत्मस्वरूपको जानता है, इसकारण ज्ञानकी अपेक्षा तो व्यवहारनयसे सर्वगत है, प्रदेशोंकी अपेक्षा नहीं है । जैसे रूपवाले पदार्थोंको नेत्र देखते हैं, परन्तु उनसे तन्मय नही होता । यहाँ कोई प्रश्न करता है कि-जो व्यवहारनयसे लोकालोकको जानता है, और निश्चयनयसे नहीं, तो सर्वज्ञपना व्यवहारनयसे हुआ निश्चयकर न हुआ ? उसका समाधान करते है-जैसे अपनी आत्माको तन्मयी होकर जानता है, उसी तरह परद्रव्यको तन्मयीपनेसे नहीं जानता, भिन्नस्वरूप जानता है, इस कारण व्यवहारनयसे कहा, न च परिज्ञाना भावात् । ] कुछ परिज्ञानके अभावसे नहीं कहा । ( ज्ञानकर जानपना तो निज और परका समान है) यदि जिस तरह निजको तन्मयी होकर निश्चयसे जानता है, उसी तरह यदि परको भी तन्मयी होकर जाने, तो परके सुख दुःख, राग, द्वेषके ज्ञान होने पर सुखी दुःखी, रागी, द्वेषी होवे, यह बड़ा दूषण प्राप्त हो ।"
(१३) इस प्रकार समयसारजी पत्र, ४६६-६७, गाथा ३५६ से ३६५ की सं. टीकामें श्री जयसेनाचार्यने भी कहा है "....यदि व्यवहारेण परद्रव्यं जानाति तर्हि निश्चयेन सर्वज्ञो न भवतीति पूर्वपक्षे परिहारमाह यथा स्वकीय सुखादिकं तन्मयो भूत्वा जानाति तथा बहिर्द्रव्यं न जानाति तेन कारणेन व्यवहारः । यदि पुनः परकीय सुखादिकमात्मसुखादिवत्तन्मयो भूत्वा जानाति तहि यथा स्वकीय सवेदने सुखी भवति तथा परकीय सुख दुःख संवेदनकाले सुखी दुःखी च प्राप्नोति न च तथा । व्यवहारस्तथापिछद्मस्थ जनापेक्षया सोऽपि निश्चय एवेति ।"
केवलज्ञान नामक पर्यायका निश्चय स्वभाव (१४) पचास्तिकाय शास्त्रकी गाथा ४६ की टीकामे श्री जयसेनाचार्य ने कहा है कि-....."तथा जीवे निश्चयनयेन क्रम' करण व्यव
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२१४
मोक्षशास्त्र धान रहितं त्रैलोक्योदर विवरण वर्ति समस्त वस्तुगतानंत धर्म प्रकाशकमखंड प्रतिभासमयं केवलज्ञानं पूर्वमेव तिष्ठति" । तथा गा. २६ की टीका में भी कहा है कि ...'अत्र स्वयं जातमिति वचनेन पूर्वोक्तमेव निरुपाधित्वं समर्थितं । तथा च स्वयमेव सर्वज्ञो जातः सर्वदर्शी च जातो निश्चयनयेनेति पूर्वोक्तमेव सर्वज्ञत्वं सर्वदर्शीत्वं च समर्थितमिति ।" तथा गाथा १५४ की टीकामें कहा है कि....."समस्त वस्तुगतानंत धर्माणां युगपद्विशेष परिच्छित्ति समर्थ केवलज्ञान"
(५) परमात्मप्रकाश अ० २ गा. १०१ की सं. टीकामें कहा है कि-"जगत्त्रय कालत्रयवर्ति समस्त द्रव्यगुण पर्यायाणांकमकरण व्यवधान रहित्वेन परिच्छित्ति समर्थ विशुद्ध दर्शन ज्ञानं च ।"
(६) समयसारजी शास्त्र में आत्म द्रव्यको ४७ शक्ति कही है उनमें सर्वज्ञत्वशक्ति का स्वरूप ऐसा कहा है कि "विश्वविश्व विशेष भाव परिणतात्मज्ञानमयी सर्वज्ञशक्तिः । अर्थः-समस्त विश्वके (छहों द्रव्यके) विशेष भावोंको जानने रूपसे परिणमित आत्मज्ञानमयी सर्वज्ञत्वशक्ति ॥१०॥"
नोंध-सर्वज्ञ मात्र आत्मज्ञ ही है ऐसा कहना ठीक नहीं है कारण कि-संपूर्ण आत्मज्ञ होनेवाला, परद्रव्योंको भी सर्वथा, सर्व विशेष भावों सहित जानता है। विशेषके लिये देखो-आत्मधर्म मासिक वर्ष ९ अंक नं. ८ सर्वज्ञत्व शक्तिका वर्णन; कोई असत् कल्पना द्वारा सर्वज्ञका स्वरूप अन्यथा मानते हैं उसका तथा सर्वज्ञ वस्तुप्रोंके अनंतधर्म को नही जानते ऐसा मानते हैं उनका उपरोक्त कथनके आधारसे निराकरण हो जाता है।
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मोक्षशास्त्र अध्याय दूसरा पहिले अध्यायमें सम्यग्दर्शनके विषयका उपदेश देते हुए प्रारम्भमें [अ० १ सू० ४ में ] जीवादिक तत्त्व कहे थे। उनमेंसे जीव तत्त्वके भाव, उनका लक्षण और शरीरके साथके सम्बन्धका वर्णन इस दूसरे अध्यायमें है । पहिले जीवके स्वतत्त्व (निजभाव ) बतानेके लिए सूत्र कहते हैं:
जीवके असाधारण भाव औपशमिकक्षायिको भावौ मिश्रश्च जीवस्य
स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च ॥१॥
अर्थ-[ जीवस्य ] जीवके [ प्रौपशमिकक्षायिको 1 औपशमिक और क्षायिक [ भावी ] भाव [ च मिश्रः ] और मिश्र तथा [ौदयिकपारिणामिकौ च ] औदयिक और पारिवामिक यह पाँच भाव [स्वतत्त्वम्] निजभाव है अर्थात् यह जीवके अतिरिक्त दूसरेमें नहीं होते।
टीका
पाँच भावोंकी व्याख्या (१) औपशमिकभाव-आत्माके पुरुषार्थ द्वारा अशुद्धताका प्रगट न होना अर्थात् दब जाना । आत्माके इस भावको औपशमिकभाव कहते हैं, यह जीवकी एक समयमात्रकी पर्याय है, वह एक एक समय करके अंतमुंहूर्त तक रहती है, किन्तु एक समयमें एक ही अवस्था होती है। और उसी समय आत्माके पुरुषार्थका निमित्त पाकर जड़ कर्मका प्रगटरूप फल जड़ कर्ममें न पाना सो कर्मका उपशम है।
(२) क्षायिकभाव-आत्मा के पुरुषार्थसे किसी गुणकी शुद्ध अवस्थाका प्रगट होना सो क्षायिकभाव है। यह भी जीवकी एक समयमात्रकी
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२१६
मोक्षशास्त्र अवस्था है। एक एक समय करके वह सादि-अनंत रहती है तथापि एक समयमें एक ही अवस्था होती है, सादि अनंत-अमूर्त अतीन्द्रिय स्वभाववाले केवलज्ञान-केवलदर्शन-केवलसुख-केवलवीर्य-युक्त-फलरूप अनंत चतुष्टयके साथ रहनेवाली परम उत्कृष्ट क्षायिकभावकी शुद्ध परिणति जो कार्यशुद्ध पर्याय है, उसे क्षायिकभाव भी कहते है। और उसी समय आत्माका पुरुषार्थका निमित्त पाकर कर्मावरणका नाश होना सो कर्मका क्षय है।
(३) क्षायोपशमिकभाव-आत्माके पुरुषार्थका निमित्त पाकर जो कर्मका स्वयं प्रांशिक क्षय और आंशिक उपशम वह कर्मका क्षयोपशम है, और क्षायोपशमिकभाव आत्माकी पर्याय है। यह भी आत्माकी एक समय की अवस्था है, वह उसकी योग्यताके अनुसार उत्कृष्ट कालतक भी रहती है, किन्तु प्रति समय बदलकर रहती है।
(४) औदयिकभाव-कर्मोके निमित्तसे आत्मा अपनेमें जो विकारभाव करता है सो औदयिकभाव है। यह भी आत्माकी एक समय की अवस्था है।
(५) पारिणामिकभाव-'पारिणामिक' का अर्थ है सहजस्वभाव, उत्पाद-व्यय-रहित ध्रुव-एकरूप स्थिर रहनेवाला भाव पारिणामिकभाव है। पारिणामिकभाव सभी जीवोंके सामान्य होता है। मोदयिक, औपशमिक क्षायोपशमिक और क्षायिक-इन चार भावोसे रहित जो भाव है सो पारिणामिक भाव है । 'पारिणामिक' कहते ही ऐसा ध्वनित होता है कि द्रव्य-गुण का नित्य वर्तमानरूप निर्पेक्षता है, ऐसी द्रव्यकी पूर्णता है। द्रव्य-गुण और निर्पेक्ष पर्यायरूप वस्तुकी जो पूर्णता है उसे पारिणामिकभाव कहते है।
जिसका निरंतर सद्भाव रहता है उसे पारिणामिकभाव कहते है। जिसमे सर्वभेद गर्मित है ऐसा चैतन्यभाव ही जीवका पारिणामिकभाव है। मतिज्ञानादि तथा केवलज्ञानादि जो अवस्थाएँ है वे पारिणामिकभाव नही है।
भतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान (यह अवस्थाएँ) क्षायोपशमिकभाव हैं, केवलज्ञान ( अवस्था ) क्षायिकभाव है। केवलज्ञान प्रगट होनेसे पूर्व ज्ञानका विकासका जितना अभाव है वह औदयिकभाव है।
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अध्याय २ सूत्र १
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ज्ञान-दर्शन और वीर्यगुणको अवस्थामे ओपशमिकभाव होता ही नही । मोहका हो उपशम होता है, उसमें प्रथम मिथ्यात्वका ( दर्शनमोहका ) उपशम होने पर जो निश्चय सम्यक्त्व प्रगट होता है वह श्रद्धागुणका ओपशमिक भाव है ।
( ज्ञान, दर्शन और वीर्य गुरणकी पर्यायमें पूर्ण विकासका जितना अभाव है वह भी श्रीदयिकभाव है, वह १२ वें गुरगस्थान तक है ) २. यह पाँच भाव क्या बतलाते हैं ?
( १ ) जीवमे एक अनादि अनंत शुद्ध चैतन्य स्वभाव है, यह पारिणामिकभाव सिद्ध करता है ।
(२) जीवमे अनादि अनंत शुद्ध चैतन्यस्वभाव होनेपर भी उसकी श्रवस्थामे विकार है, ऐसा औदयिकभाव सिद्ध करता है । (३) जड़कर्मके साथ जीवका अनादिकालीन संबंध है श्रौर जीव अपने ज्ञाता स्वभावसे च्युत होकर जडकर्म की ओर झुकाव करता है जिससे विकार होता है किन्तु कर्मके कारण विकारभाव नही होता, यह भी श्रदयिकभाव सिद्ध करता है । (४) जीव अनादिकालसे विकार करता हुआ भी जड नही हो जाता और उसके ज्ञान, दर्शन तथा वीर्यका आशिक विकास सदा बना रहता है, यह क्षायोपशमिकभाव सिद्ध करता है । ( ५ ) श्रात्माका स्वरूप यथार्थतया समझकर जब जीव अपने पारिणामिकभावका आश्रय लेता है तब श्रदयिकभावका दूर होना प्रारंभ होता है, मोर पहिले श्रद्धागुणका श्रदयिकभाव दूर होता है, यह औपशमिकभाव सिद्ध करता है । (६) सच्ची समझके वाद जीव जैसे २ सत्यपुरुषार्थको बढ़ाता है वैसे २ मोह अंशतः दूर होता जाता है यह क्षायोपशमिक भाव सिद्ध करता है ।
(७) यदि जीव प्रतिहतभावसे पुरुषार्थ मे आगे बढ़ता है तो चारित्रमोह स्वय दब जाता है [ उमशमको प्राप्त होता है ]
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मोक्षशास्त्र
यह औपशमिकभाव सिद्ध करता है। (८) अप्रतिहत पुरुषार्थ से पारिणामिकभावका अच्छी तरह आश्रय
बढाने पर विकारका नाश हो सकता है ऐसा क्षायिकभाव
सिद्ध करता है। (8) यद्यपि कर्मोके साथका संबंध प्रवाहसे अनादिकालीन है
तथापि प्रतिसमय पुराने कर्म जाते है और नये कर्मोका संबंध होता रहता है, इस अपेक्षासे कर्मोके साथका वह सम्बन्ध
सर्वथा दूर हो जाता है, यह क्षायिकभाव सिद्ध करता है। (१०) कोई निमित्त विकार नहीं करता किन्तु जीव स्वयं निमित्ताधीन होकर विकार करता है । जब जीव पारिणामिक भावरूप अपने द्रव्य स्वभाव सन्मुख हो करके स्वाधीनताको प्रगट करता है तब अशुद्धता दूर होकर शुद्धता प्रगट होती है, ऐसा औपशमिकभाव, साधकदशाका क्षायोपशमिकभाव और क्षायिकभाव तीनों सिद्ध करते हैं।
३. पाँच भावोंके सम्बन्धमें कुछ प्रश्नोत्तर (१) प्रश्न-~भावनाके समय इन पाँचमेंसे कौनसा भाव ध्यान करने योग्य है अर्थात् ध्येय है ?
उत्तर-भावनाके समय पारिणामिकभाव ध्यान करने योग्य है अर्थात् ध्येय है। ध्येयभूत द्रव्यरूप शुद्ध पारिणामिकभाव त्रिकाल रहते हैं इसलिये वे ध्यान करने योग्य है।
(२) प्रश्न-पारिणामिकभावके आश्रयसे होनेवाला ध्यान भावनाके समय ध्येय क्यों नहीं है ?
उत्तर-यह ध्यान स्वयं पर्याय है इसलिये विनश्वर है, पर्यायके आश्रयसे शुद्ध अवस्था प्रगट नही होती, इसलिये वह ध्येय नही है।
[समयसारमें, जयसेनाचार्य कृत टीकाका अनुवाद पृ० ३३०-३३१]
(३) प्रश्न-शुद्ध और अशुद्ध मेदसे पारिणामिकभावके दो प्रकार नही हैं किन्तु पारिणामिकभाव शुद्ध ही है, क्या यह कहना ठीक है ?
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श्रध्याय २ सूत्र १
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उत्तर— नहीं, यह ठीक नही है । यद्यपि सामान्यरूपसे ( द्रव्यार्थिक नयसे अथवा उत्सर्ग कथनसे ) पारिणामिकभाव शुद्ध है तथापि विशेषरूप से ( पर्यायार्थिकनयसे अथवा अपवाद कथनसे ) अशुद्ध पारिणामिकभाव भी है । इसलिये 'जीवभव्याभव्यत्वानि च' इस ( सातवें सूत्र ) से पारिणामिकभावको जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व-तीन प्रकारका कहा है, उनमेसे जो शुद्ध चैतन्यरूप जीवत्व है वह अविनाशी शुद्ध द्रव्याश्रित है, इसलिये उसे शुद्ध द्रव्याश्रित नामका शुद्ध पारिणा। मिकभाव समझना चाहिए। और जो दश प्रकारके द्रव्य - प्रारणोसे पहिचाना जाता है ऐसा जीवत्व और मोक्षमार्ग की योग्यता - अयोग्यतासे भव्यत्व, अभव्यत्व यह तीन प्रकार पर्यायाश्रित है इसलिये उन्हें पर्यायार्थिक नामके अशुद्ध पारिणामिकभाव समझना चाहिये ।
(४) प्रश्न — इन तीन भावोंकी अशुद्धता किस अपेक्षासे है ? उचर- - यह अशुद्ध पारिणामिकभाव व्यवहारनयसे सांसारिक जीवों में है फिर भी " सव्वे सुद्धा हु सुद्धरणया" अर्थात् सब जीव शुद्धनयसे शुद्ध है, इसलिये यह तीनो भाव शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षासे किसी जीवको नही हैं, संसारी जीवोमें पर्यायकी अपेक्षा अशुद्धत्व है । [ भव्य जीवमे अभव्यत्व गुण नही है और अभव्य जीवमे भव्यत्व गुण नही है तथा वे दोनों गुरण जीवके अनुजीवी गुण है, तथा वे श्रद्धा गुरणकी पर्याय नही, देखो "अनुजीवीगुरण" जैन सि० प्रवेशिका । ]
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प्रश्न- - इन शुद्ध और अशुद्ध पारिणामिकभावोंमेंसे कौनसा भाव ध्यानके समय ध्येयरूप है ?
उचर- - द्रव्यरूप शुद्ध पारिणामिकभाव अविनाशी है इसलिये वह ध्येयरूप है, अर्थात् वह त्रैकालिक शुद्ध पारिणामिकभावके लक्षसे शुद्ध अवस्थाको प्रगट करता है । [ बृहत् द्रव्यसंग्रह पृष्ठ ३४-३५ ]
४. औपशमिकभाव कब होता है ?
अध्याय १ सूत्र ३२ मे कहा गया है कि जीवके सत् और असत्के विवेकसे रहित जो दशा है सो उन्मत्त जैसी है । मिथ्या अभिप्रायसे अपनी
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२२०
मोक्षशास्त्र
ऐसी दशा अनादिकालसे है यह अ० १ सूत्र ४ में कथित तत्त्वोंका विचार करनेपर जीवको ज्ञानमें आता है । और उसे यह भी ज्ञान में आता है कि जीवका पुलकर्म तथा शरीरके साथ प्रवाहरूपसे अनादिकालीन सम्बन्ध है, अर्थात् जीव स्वयं वह का वही है किन्तु कर्म और शरीर पुराने जाते हैं तथा नये आते है । और यह संयोग सम्बन्ध अनादिकालसे चला आ रहा है। जीव इस संयोग सम्बन्धको एकरूप ( तादात्म्यसम्बन्धरूपसे ) मानता है और इसप्रकार जीव अज्ञानतासे शरीरको अपना मानता है इसलिये शरीर के साथ मात्र निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध होने पर भी उसके साथ कर्ता-कर्म सम्बन्ध मानता है; इसलिये वह यह मानता आ रहा है कि 'मैं शरीरके कार्य कर सकता हूँ और जड़ कर्म, शरीरादि मुझको कुछ करता है ।' तत्त्व विचार करते २ जीवको ऐसा लगता है कि यह मेरी भूल है मैं जीवतत्त्व है, और शरीर तथा जड़ कर्म, मुझसे सर्वथा भिन्न अजीवतत्त्व है मैं अजीवमे और अजीव मुझमें नही है, इसलिये में प्रजीवका कुछ नहीं कर सकता, मैं अपने ही भाव कर सकता हूँ, तथा अजीव अपने भाव ( उसीके भाव ) कर सकता है, मेरे नहीं ।
इसप्रकार जिज्ञासु आत्मा प्रथम रागमिश्रित विचारके द्वारा जीवअजीव तत्त्वोका स्वरूप जानकर, यह निश्चय करते है कि अपनेमें जो कुछ विकार होते है वे अपने ही दोष के कारण होते है । इतना जाननेपर उसे यह भी ज्ञात हो जाता है कि अविकारी भाव क्या है । इसप्रकार विकारभाव ( पुण्य पाप आश्रव बन्ध ) का तथा अविकारभाव ( संवर निर्जरा मोक्ष ) का स्वरूप वे जिज्ञासु आत्मा निश्चित् करते है । पहिले रागमिश्रित विचारोंके द्वारा इन तत्त्वोंका ज्ञान करके फिर जब जीव उन भेदोकी ओरका लक्ष दूर करके अपने त्रैकालिक पारिणामिकभावका ज्ञायकभावका यथार्थ आश्रय लेते है तब उन्हें श्रद्धागुरणका औपशमिकभाव प्रगट होता है । श्रद्धागुणके श्रपशमिकभावको उपशम सम्यग्दर्शन कहा जाता है । इस निश्चय सम्यग्दर्शनके प्रगट होने पर जीवके धर्मका प्रारम्भ होता है; तब जीवकी श्रनादिकालसे चली आनेवाली श्रद्धागुरणकी मिथ्या दशा दूर होकर
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अध्याय २ सूत्र १
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सम्यक् दशा प्रगट होती है । यह औपशमिकभावसे मिथ्यात्वादिके संवर होते है ।
५. औपशमिकभावकी महिमा
इस प्रपशमिकभाव अर्थात् सम्यग्दर्शनकी ऐसी महिमा है कि जो जीव पुरुषार्थके द्वारा उसे एक बार प्रगट कर लेता है उसे अपनी पूर्ण पचित्र दशा प्रगट हुए बिना नही रह सकती । प्रथम- प्रोपशमिकभावके प्रगट होने पर अ० १ सूत्र ३२ में कथित 'उन्मत्तदशा' दूर हो जाती है अर्थात् जीवकी मिथ्याज्ञानदशा दूर होकर वह सम्यक्मति - श्रुतज्ञानरूप हो जाती है, और यदि उस जीवको पहिले मिथ्या अवधिज्ञान हो तो वह भी दूर होकर सम्यक् अवधिज्ञानरूप हो जाता है ।
सम्यग्दर्शनकी महिमा बतानेके लिये आचार्यदेवने अ० १ के पहिले सूत्रमें पहिला ही शब्द सम्यग्दर्शन कहा है, और प्रथम सम्यग्दर्शन औपशमिकभावसे ही होता है इसलिये औपशमिकभावकी महिमा बतानेके लिये यहाँ भी यह दूसरा अध्याय प्रारम्भ करते हुए वह भाव पहिले सूत्रके पहिले ही शब्दमे बताया है ।
६. पाँच भावोंके सम्बन्धमें कुछ स्पष्टीकरण
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(१) प्रश्न- प्रत्येक जीवमें अनादिकालसे पारिणामिकभाव है फिर भी उसे प्रपशमिकभाव अर्थात् सम्यग्दर्शन क्यों प्रगट नही हुआ ? उत्तर - जीवको अनादिकालसे अपने स्वरूपकी प्रतीति नहीं है और इसलिये वह यह नही जानता कि मैं स्वयं पारिणामिकभाव स्वरूप हैं, और वह अज्ञान दशामे यह मानता रहता है कि 'शरीर मेरा है और शरीर के अनुकूल, ज्ञात होनेवाली पर वस्तुएँ मुझे लाभकारी है तथा शरीरके प्रतिकूल, ज्ञात होनेवाली वस्तुएँ हानिकारी है' इसलिये उसका झुकाव पर वस्तुओ, शरीर, और विकारी भावोकी ओर बना ही रहता है । यहाँ जो किसीसे उत्पन्न नही किया गया है और कभी किसीसे जिसका विनाश नही होता ऐसे पारिणामिकभावका ज्ञान कराकर, अपने गुरण - पर्यायरूप भेदोको और परवस्तुओको गौरण करके प्राचार्यदेव उन परसे लक्ष छुड़वाते हैं ।
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मोक्षशास्त्र भेददृष्टिमें निर्विकल्पदशा नहीं होती इसलिये अभेददृष्टि कराई है कि जिससे निर्विकल्पदशा प्रगट हो । औपशमिकभाव भी एक प्रकारकी निर्विकल्प दशाहै।
(२) प्रश्न-इस सूत्रमें कथित पाँच भावोंमेंसे किस भावकी ओर के लक्षसे धर्मका प्रारम्भ और पूर्णता होती है ?
उचर-पारिणामिकभावोंके अतिरिक्त चारों भाव क्षणिक हैं,एक समय मात्रके है, और उनमें भी क्षायिकभाव तो वर्तमान नही है, श्रीपशमिकभाव भी होता है तो अल्प समय ही टिकता है, और औदयिकक्षायोपशमिकभाव भी समय २ पर बदलते रहते है, इसलिये उन भावों पर लक्ष किया जाय तो वहाँ एकाग्रता नही हो सकती और धर्म प्रगट नहीं हो सकता। त्रैकालिक पूर्ण स्वभावरूप पारिणामिकभावकी महिमाको जानकर उस ओर जीव अपना लक्ष करे तो धर्मका प्रारम्भ होता है और उस भावकी एकाग्रताके बलसे ही धर्मकी पूर्णता होती है ।
(३) प्रश्न-पंचास्तिकायमें कहा है कि
मोक्ष कुर्वन्ति मिश्रौपशमिकक्षायिकाभिधाः । बंधमौदयिका भावा निःक्रिया: पारिणामिकाः॥
[ गाथा ५६ जयसेनाचार्य कृत टीका ] अर्थ-मिश्र, औपशमिक और क्षायिक ये तीन भाव मोक्षकर्ता हैं। श्रीदयिकभाव वध करते है और पारिणामिकभाव बन्ध मोक्षकी क्रियासे रहित हैं।
प्रश्न-उपरोक्त कथनका क्या प्राशय है ?
उचर-इस श्लोकमे यह नहीं कहा है कि कौनसा भाव उपादेय अर्थात् आश्रय करने योग्य है किन्तु इसमें मोक्ष जो कि कर्मके अभावरूप निमित्तकी अपेक्षा रखता है वह भाव जव प्रगट होता है तव जीवका पोनसा भाव होता है यह बताया है अर्थात् मोक्ष जो कि, सापेक्ष पर्याय है उसका प्रगट होते समय तथा पूर्व सापेक्ष पर्याय कीनसी थी इसका स्वरूप बताया है। यह लोक बतलाताहैकिक्षायिकभावमोक्षको करता है अर्थात उस
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अध्याय २ सूत्र १
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भावका निमित्त पाकर आत्म प्रदेशसे द्रव्यकर्मका स्वयं अभाव होता है । मोक्ष इस अपेक्षासे क्षायिक पर्याय है और क्षायिकभाव जड़कर्मका प्रभाव सूचित करता है । क्षायिकभाव होनेसे पूर्व मोहके औपशमिक तथा क्षायोपशमिकभाव होना ही चाहिये और तत्पश्चात् क्षायिकभाव प्रगट होते हैं और क्षायिकभावके प्रगट होने पर ही कर्मोका स्वयं श्रभाव होता है तथा ऐसा निमित्त - नैमित्तिक संबंध बतानेके लिये यह कहा है कि 'यह तीनों भाव मोक्ष करते है' । इस श्लोकमें यह प्रतिपादन नही किया गया है कि - किस भावके आश्रयसे धर्म प्रगट होता है । ध्यान रहे कि पहिले चारों भाव स्व अपेक्षा से पारिणामिकभाव है । ( देखो जयधवल ग्रंथ पृष्ठ ३१६, धवला भाग ५ पृष्ठ १६७ )
४. प्रश्न- - ऊपर के श्लोक में कहा गया है कि -- प्रौदयिकभाव बंधका कारण है । यदि यह स्वीकार किया जाय तो गति, जाति, आदि नामकर्म संबंधी - औदयिक भाव भी बंधके कारण क्यों नही होगे ?
उत्तर --- श्लोकमे कहे गये औदयिकभावमें सर्व औदयिकभाव बंधके कारण हैं ऐसा नही समझना चाहिये, किन्तु यह समझना चाहिये कि मात्र मिथ्यात्व, संयम, कषाय और योग यह चार भाव बधके कारण है ( श्री धवला पुस्तक ७ पृष्ठ ६-१० )
५. प्रश्न - 'औदयिका भावाःबंधकारणम्' इसका क्या अर्थ है ?
उत्तर- - इसका यही अर्थ है कि यदि जीव मोहके उदयमें युक्त होता है तो बंध होता है । द्रव्य मोहका उदय होनेपर भी यदि जीव शुद्धात्मभावनाके बलसे भाव मोहरूप परिणमित न हो तो बंध नही होता । यदि जीवको कर्मोदयके कारण बंध होता हो तो संसारीके सर्वदा कर्मोदय विद्यमान हैं इसलिये उसे सर्वदा बंध होगा, कभी मोक्ष होगा ही नही । इसलिये यह समझना चाहिये कि कर्मका उदय बघका कारण नही है, किंतु जीवका भावमोहरूपसे परिणमन होना बंधका कारण है ।
दी प्रवचनसार पृष्ठ ५८-५६ जयसेनाचार्य कृत टीका )
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मोक्षशास्त्र ६. प्रश्न-पारिणामिकभावको कहीं किसी गुणस्थानमें पर्यायरूपसे वर्णन किया है ?
उचर-हाँ, दूसरा गुणस्थान दर्शन मोहनीय कर्मको उदय, उपशम, क्षयोपशम, या क्षय इन चार अवस्थाओंमेसे किसी भी अवस्थाकी अपेक्षा नही रखता, इतना बतानेके लिये वहां श्रद्धाकी पर्याय अपेक्षासे पारिणामिकभाव कहा गया है। यह जीव जो चारित्रमोहके साथ युक्त होता है सो वह तो औदयिकभाव है, उस जीवके ज्ञानदर्शन और वीर्यका क्षायोपशमिकभाव है और सर्व जीवोंके (द्रव्याथिकनय से) अनादि अनंत पारिणामिक भाव होता है, वह इस गुणस्थानमें रहनेवाले जीवके भी होता है।
७. प्रश्न-सम्यग्दृष्टि जीव विकारीभावोंको-अपूर्णदशाको आत्मा का स्वरूप नहीं मानते और इस सूत्रमे ऐसे भावोंको प्रात्माका स्वतत्त्व कहा है इसका क्या कारण है ?
उत्तर-विकारीभाव और अपूर्ण अवस्था प्रात्माकी वर्तमान भूमिका में मात्माके अपने दोषके कारण होती है, किसी जड़कर्म अथवा परद्रव्यके कारण नहीं, यह बतानेके लिये इस सूत्रमें उस भावको 'स्वतत्त्व' कहा है।
७. जीवका कर्तव्य जीवको तत्त्वादिका निश्चय करनेका उद्यम करना चाहिये उससे औपशमिकादि सम्यक्त्व स्वयं होता है। द्रव्यकर्मके उपशमादि पुद्गलकी शक्ति (पर्याय) है, जीव उसका कर्ता हर्ता नही है । पुरुषार्थ पूर्वक उद्यम करना जीवका काम है । जीवको स्वयं तत्त्व निर्णय करनेमें उपयोग लगाना चाहिये । इस पुरुषार्थसे मोक्षके उपायकी सिद्धि अपने आप होती है। जब जीव पुरुषार्थके द्वारा तत्त्व निर्णय करने में उपयोग लगानेका अभ्यास करता है तब उसकी विशुद्धता बढ़ती है, कर्मोका रस स्वय हीन होता है और कुछ समयमें जब अपने पुरुषार्थ द्वारा प्रथम औपशमिकभावसे प्रतीति प्रगट करता है तब दर्शनमोहका स्वयं उपशम हो जाता है। जीवका कर्तव्य तो तत्त्व निर्णयका अभ्यास है । जब जीव तत्त्वनिर्णयमें उपयोग लगाता है
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मध्याय २ सूत्र १
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तब दर्शनमोहका उपशम स्वयमेव हो जाता है; कर्मके उपशममें जीवका कोई भी कर्तव्य नही है ।
८. पाँच भावोंके संबंध में विशेष स्पष्टीकरण
कुछ लोग आत्माको सर्वथा ( एकान्त) चैतन्यमात्र मानते हैं अर्थात् सर्वथा शुद्ध ' मानते है, वर्तमान अवस्था में अशुद्धताके होनेपर भी उसे स्वीकार नही करते । श्रौर कोई आत्माका स्वरूप सर्वथा आनंदमात्र मानते हैं, वर्तमान अवस्थामें दुःख होने पर भी उसे स्वीकार नही करते । यह सूत्र सिद्ध करता है कि उनकी वे मान्यताएँ और उन जैसी दूसरी मान्यताएँ ठीक नही हैं । यदि आत्मा सर्वथा शुद्ध ही हो तो संसार, बघ, मोक्ष और मोक्षका उपाय इत्यादि सब मिथ्या हो जायेगे । आत्माका त्रैकालिक स्वरूप और वर्तमान अवस्थाका स्वरूप ( अर्थात् द्रव्य और पर्यायसे आत्माका स्वरूप ) कैसा होता है सो यथार्थतया यह पाँच भाव बतलाते है । यदि इन पाँच भावोमेसे एक भी भावका अस्तित्त्व स्वीकार न किया जाय तो आत्मा के शुद्ध - अशुद्ध स्वरूपका सत्य कथन नही होता, और उससे ज्ञानमें दोष आता है । यह सूत्र ज्ञानका दोष दूर करके, आत्माके त्रैकालिक स्वरूप और निगोदसे सिद्धतककी उसकी समस्त अवस्थाओंको अत्यल्प शब्दोंमें चमत्कारिक रीति बतलाता है । उन पांच भावोमे चौदह गुणस्थान तथा सिद्ध दशा भी आ जाती है ।
इस शास्त्र में अनादिकालसे चला श्रानेवाला- प्रदयिकभाव प्रथम नही लिया है किन्तु श्रोपशमिकभाव पहिले लिया गया है; यह ऐसा सूचित करता है कि इस शास्त्रमे स्वरूपको समझानेके लिये भेद बतलाये गये हैं तथापि भेदके श्राश्रयसे अर्थात् श्रोदयिक, श्रोपशमिक, क्षायोपशमिक या क्षायिकभावोके श्राश्रयसे विकल्प चालू रहता है अर्थात् अनादिकालसे चला आनेवाला श्रदयिकभाव ही चालू रहता है, इसलिये उन भावोंको ओरका आश्रय छोड़कर ध्रुवरूप पारिणामिकभावकी ओर लक्ष करके एकाग्र होना चाहिए । ऐसा करने पर पहिले श्रोपशमिकभाव प्रगट होता है, और क्रमशः शुद्धताके बढ़ने पर क्षायिकभाव प्रगट होता है ।
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मोक्षशास्त्र ९. इस सत्र में नय-प्रमाणकी विवक्षा वर्तमान पर्याय' और उसके अतिरिक्त जो द्रव्य सामान्य तथा उस के गुणोंका सादृश्यतया त्रिकाल ध्रुवरूपसे बने रहना', ऐसे २ पहलू प्रत्येक द्रव्यमे हैं, आत्मा भी एक द्रव्य है, इसलिए उसमें भी ऐसे दो पहलू है, उनमें से वर्तमान पर्यायका विषय करनेवाला पर्यायाथिकनय है। इस सूत्र में कथित पाँच भावोंमेसे औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपमिक और औदयिक यह चार भाव पर्यायरूप-वर्तमान अवस्थामात्रके लिये हैं इसलिये वे पर्याथाथिकनयका विषय हैं; उस वर्तमान पर्यायको छोड़कर द्रव्य-सामान्य तथा उसके अनंतगुणोंका जो सादृश्यता त्रिकाल ध्रुवरूप स्थिर रहना है उसे पारिरणामिकभाव कहते हैं, उस भावको कारणपरमात्मा, कारणसमयसार पा ज्ञायकभाव भी कहा जाता है; वह त्रिकाल सादृश्यरूप होनेसे द्रव्यार्थिकनयका विषय है यह दोनों पहलू (पर्यायाथिकनयका विषय और द्रव्यार्थिकनयका विषय दोनों) एक होकर संपूर्ण जीव द्रव्य है, इसलिये वे दोनों पहलू प्रमाणके विषय हैं।
इन दोनों पहलुओंका नय और प्रमाणके द्वारा यथार्थ ज्ञान करके जो जीव अपनी वर्तमान पर्यायको अपने प्रभेद कालिक पारिणामिकभावकी ओर ले जाता है उसे सम्यग्दर्शन होता है और वह क्रमशः स्वभावके अवलंबनसे आगे बढ़कर मोक्षदशारूप क्षायिकभावको प्रगट करता है ॥१॥
___ भावोंके भेद द्विनवाष्टादशैकशितित्रिभेदाः यथाक्रमम् ॥२॥
अर्थ-उपरोक्त पाँच भाव [यथाक्रमम् ] क्रमशः [ द्वि नव प्रष्टादश एकविंशति त्रिभेदाः ] दो, नव, अट्ठारह, इक्कीस और तीन भेदवाले हैं। इन भेदोंका वर्णन आगेके सूत्रोंके द्वारा करते हैं ॥२॥
औपशमिकभावके दो भेद सम्यक्त्वचारित्रे ॥३॥
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अध्याय २ सूत्र ४
२२७ अर्थ--[ सम्यक्त्व ] औपशमिक सम्यक्त्व और [ चारित्रे ] औपशमिक चारित्र-इसप्रकार प्रौपशमिकभावके दो भेद है।
टीका (१) औपशमिकसम्यक्त्व-जब जीवके अपने सत्यपुरुषार्थसे औपशमिक सम्यक्त्व प्रगट होता है तब जडकर्मोके साथ निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध ऐसा है कि वे मिथ्यात्वकर्मका और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभका स्वयं उपशम हो जाता है। अनादि मिथ्यादृष्टि जीवोके तथा किसी सादिमिथ्यादृष्टिके मिथ्यात्वकी एक और अनन्तानुबन्धीकी चार इसप्रकार कुल पाँच प्रकृतियाँ उपशमरूप होती है, और शेष सादि मिथ्यादृष्टिके मिथ्यात्व सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति-यह तीन तथा अनन्तानुबन्धीकी चार, यों कुल सात प्रकृतियोका उपशम होता है । जीवके इस भावको औपशमिक सम्यक्त्व कहा जाता है।
(२) औपशमिक चारित्र-जब जिस चारित्रभावसे उपशम श्रेणीके योग्य भाव प्रगट करता है उसे औपशमिक चारित्र कहते हैं । उस समय मोहनीय कर्मकी अप्रत्याख्यानावरणादि २१ प्रकृतियोका स्वयं उपशम हो जाता है।
प्रश्न-जड़कर्म प्रकृतिका नाम 'सम्यक्त्व' क्यों है ?
उत्तर-सम्यग्दर्शनके साथ-सहचरित उदय होनेसे उपचारसे कर्मप्रकृतिको 'सम्यक्त्व' नाम दिया गया है ॥३॥
[ श्री धवला पुस्तक ६ पृष्ठ ३६]
क्षायिकमावके नव भेद ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च ॥४॥
अर्थ-[ज्ञान दर्शन दान लाभ भोग उपभोग वीर्याणि ] केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, क्षायिकभोग, क्षायिकउपभोग, क्षायिकवीर्य, तथा [च ] च कहने पर, क्षायिकसम्यक्त्व और क्षायिकचारित्र-इसप्रकार क्षायिकभावके नव भेद है।
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मोक्षशास्त्र -
टीका
जीव जब ये केवलज्ञानादिभाव प्रगट करता है तब 'द्रव्यकर्म स्वयं आत्मप्रदेशोंसे अत्यन्त वियोगरूप हो जाते हैं अर्थात् कर्म क्षयको प्राप्त होते है इसलिये इन भावोंको 'क्षायिकभाव' कहा जाता है ।
( १ ) केवलज्ञान – सम्पूर्ण ज्ञानका प्रगट होना केवलज्ञान है, तब ज्ञानावरणीय कर्मकी अवस्था क्षयरूप स्वयं होती है ।
( २ ) केवलदर्शन - सम्पूर्ण दर्शनका प्रगट - होना केवलदर्शन है, इस समय दर्शनावरणीय कर्मका स्वयं क्षय होता है । '
क्षायिक दानादि पाँच भाव - इसप्रकार अपने गुणकी निर्मल पर्याय अपने लिये दानादि पांच भावरूपसें - सपूर्णतया प्रगटता होती है, उस समय दार्नातराय इत्यादि पाँच प्रकारके अन्तरायकर्मका स्वयं क्षय होता है ।
( ३ ) क्षायिकदान - श्रपने शुद्ध स्वरूपका अपनेको दान देना सो उपादानरूप निश्चय क्षायिकदान है और अनंत जीवोंको शुद्ध स्वरूपकी प्राप्ति में जो निमित्तपनाकी योग्यता सो व्यवहार क्षायिक अभयदान है ।
(४) क्षायिकलाभ – अपने शुद्धस्वरूपका अपनेको लाभ होना सोनिश्चय क्षायिक लाभ है उपादान है और निमित्तरूपसे शरीरके बलको स्थिर रखनेमे कारणरूप अन्य मनुष्यको न हों ऐसे अत्यन्त शुभ सूक्ष्म नोकर्मरूप परिणमित होनेवाले अनन्त पुद्गल परमाणुत्रोंका प्रतिसमय सम्बन्ध होना क्षायिकलाभ है ।
(५) क्षायिक भोग —— अपने शुद्धस्वरूपका भोग क्षायिक भोग है और निमित्तरूपसे पुष्पवृष्टि आदिक विशेषोंका प्रगट होना क्षायिक भोग है । (६) क्षायिक उपभोग — अपने शुद्धस्वरूपका प्रतिसमय, उपभोग होना सो क्षायिक उपभोग है, और निमित्तरूपसे छत्र, चमर, सिंहासनादि विभूतियोंका होना क्षायिक उपभोग है ।
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(७) क्षायिक वीर्य — अपने शुद्धात्म स्वरूपमें उत्कृष्ट सामर्थ्यरूपसे. प्रवृत्तिका होना सो क्षायिक वीर्य है ।
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अध्याय- २ सूत्र ५
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(८) क्षायिकसम्यक्त्व - अपने मूलस्वरूपकी दृढतम प्रतीतिरूप पर्याय क्षायिक सम्यक्त्व है; जब वह प्रगट होती है तब मिथ्यात्वकी तीन और अनंतानुबंध की चार, इसप्रकार कुल सात कर्म प्रकृतियोंका स्वयं क्षय होता है ।
(९) क्षायिकचारित्र — अपने स्वरूपका पूर्ण चारित्र प्रगट होना सो क्षायिकचारित्र है । उस समय मोहनीय कर्मकी शेष २१ प्रकृतियोंका क्षय होता है । इस प्रकार जब कर्मका स्वयं क्षय होता है तब मात्र उपचारसे यह कहा जाता है कि 'जीवने कर्मका क्षय किया है' परमार्थसे तो जीवने अपनी अवस्थामें पुरुषार्थ किया है, जड़ प्रकृतिमें नही ।
इन नव क्षायिकभावोको नव लब्धि भी कहते हैं ॥४॥ क्षायोपशमिकभावके १८ भेद ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपंचभेदाः सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च ॥५॥
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अर्थ – [ ज्ञान प्रज्ञान ] मति, श्र ुत, अवधि और मनःपर्यंय यह चार ज्ञान तथा कुमति, कुश्रुत और कुप्रवधि ये तीन अज्ञान [ दर्शन ] चक्षु, श्रचक्षु और अवधि ये तीन दर्शन [ लब्धयः ] क्षायोपशमिकदान, लाभ, भोग, उपभोग, वीयं ये पांच लब्धियां [ चतुः त्रि त्रि भेदाः ] इस प्रकार ४+३+३+५ = (.१५) भेद तथा [ सम्यक्त्व ] क्षायोपशमिक सम्यक्त्व [ चारित्र ] क्षायोपशमिक चारित्र [च] और [संयमासंयमाः ] संयमासंयम इस प्रकार क्षायोपशमिकभावके १८ भेद है ।
टीका
क्षायोपशमिक सम्यक्त्व - मिथ्यात्वकी तथा अनंतानुबंधीकी कर्म प्रकृतियोंके उदयाभावी क्षय तथा उपशमकी अपेक्षासे क्षायोपशमिक सम्यक्त्व' कहलाता है और सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयकी अपेक्षासे उसीको वेदक सम्यक्त्व कहा जाता है ।
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मोक्षशास्त्र क्षायोपशमिक चारित्र-सम्यग्दर्शन पूर्वक-चारित्रके समय जो राग है उसकी अपेक्षासे वह सराग चारित्र कहलाता है किंतु उसमें जो राग है वह चारित्र नही है, जितना वीतरागभाव है उतना ही चारित्र है । इस चारित्रको क्षायोपशमिक चारित्र कहते है ।
संयमासंयम-इस भावको देशवत, अथवा विरताविरत चारित्र भी कहते हैं।
मतिज्ञान इत्यादिका स्वरूप पहिले अध्यायमें कहा जा चुका है ।
दान, लाभ इत्यादि लब्धिका स्वरूप ऊपरके सूत्रमें कहा गया है । वहाँ क्षायिकभावसे वह लब्धि थी और यहाँ वह लब्धि क्षायोपशमिकभावसे है ऐसा समझना चाहिए ॥ ५ ॥
औदायिकभावके २१ भेद गतिकषायलिंगमिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्धलेश्या
श्चतुश्चतुस्त्र्येकैकैकैकषड्भेदाः ॥६॥
अर्थ-[गति ] तिर्यंच, नरक, मनुष्य और देव यह चार गतियाँ [ कषाय ] क्रोध, मान, माया, लोभ यह चार कषायें [ लिग ] स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुसकवेद, यह तीन लिंग [ मिथ्यादर्शन ] मिथ्यादर्शन [अज्ञान ] अज्ञान [ असंयत ] असंयम [ प्रसिद्ध ] असिद्धत्व तथा [लेश्याः ] कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल यह छह लेश्याएँ इसप्रकार [चतुः चतुः त्रि एक एक एक एफ षड्भेदाः] ४+४+३+ १+१+१+१+ ६ ( २१ ) इसप्रकार सब मिलाकर औदयिकभावके २१ भेद है।
टीका प्रश्न-गति अघातिकर्मके उदयसे होती है, जीवके अनुजोवीगुणके घातका वह निमित्त नहीं है तथापि उसे औदयिकभावमें क्यों गिना है ?
उत्तर-जीवके जिस प्रकारकी गतिका संयोग होता है उसी में वह
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अध्याय २ सूत्र ६ ममत्व करने लगता है, जैसे वह यह मानता है कि 'मैं मनुष्य हूँ, मैं पशु हैं, मैं देव हूँ, मैं नारकी हूँ' । इसप्रकार जहाँ मोहभाव होता है वहाँ वर्तमान गतिमें जीव अपनेपनकी कल्पना करता है, इसलिये तथा चारित्र मोहकी अपेक्षासे गतिको औदयिक भावमें गिन लिया गया है। [ सिर्फ गति को उदय भाव में लिया जाय तो १४ गुणस्थान तक है]
लेश्या-कषायसे अनुरंजित योग को लेश्या कहते हैं । लेश्याके दो प्रकार हैं-द्रव्यलेश्या तथा भावलेश्या । यहाँ भावलेश्याका विषय है। भावलेश्या छह प्रकारकी है । ऐसा नहीं समझना चाहिए कि लेश्याके समय आत्मामें उस उस प्रकारका रंग होता है किंतु जीवके विकारी कार्य भावापेक्षासे ६ प्रकारके होते हैं, उस भावमें विकारका तारतम्य बतानेके लिये ६ प्रकार कहे हैं । लोकमें यदि कोई व्यक्ति खराब काम करता है तो कहा जाता है कि इसने काला काम किया है, वहां उसके कामका रग काला नही होता किंतु उस काममे उसका तीव्र बुरा भाव होनेसे उसे काला कहा जाता है, और इस भावापेक्षासे उसे कृष्णलेश्या कहते हैं। जैसे जैसे विकार की तीव्रतामें हलकापन होता है उसीप्रकार भावको 'नील लेश्या' इत्यादि नाम दिये जाते हैं । शुक्ललेश्या भी शुभ औदयिकभावमें होती है। शुक्ललेश्या कहीं धर्म नही है क्योंकि वह मिथ्यादृष्टियोंके भी होती है । पुण्यके तारतम्य में जब उच्च पुण्यभाव होता है तब शुक्ललेश्या होती है। वह औदयिकभाव है और इसलिये वह संसारका कारण है, धर्मका नहीं।
प्रश्न-भगवानको तेरहवें गुणस्थानमें कषाय नहीं होती फिर भी उनके शुक्ललेश्या क्यों कही है ?
उचर-भगवानके शुक्ललेश्या उपचारसे कही है । पहिले योगके साथ लेश्याका सहकारित्व था, वह योग तेरहवें गुणस्थानमें विद्यमान होनेसे वहाँ उपचारसे लेश्या भी कह दी गई है। लेश्याका कार्य कर्मबंध है। भगवान के कषाय नही है फिर भी योगके होनेसे एक समयका बंध है यह अपेक्षा लक्षमें रखकर उपचारसे शुक्ललेश्या कही गई है।
.. अज्ञान-ज्ञानका अभाव अज्ञान है, इस अर्थमे यहाँ ज्ञान लिया
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मोक्षशास्त्र गया है, कुज्ञानको यहाँ नहीं लिया है, कुज्ञानको क्षायोपशमिकभावमें लिया है ॥६॥
औदयिकभाव की विशेष चर्चा देखो-पंचाध्यायी भा० २ गा. ९७७ से १०५२-सि० शास्त्री पं० फूलचंद्रजी कृत टीका पृ० ३२०-२१, ३०७ से ३२१; तथा पं० देवकीनन्दनजी टीका गा० ९८० से १०५५, पत्र ४१५-४४४।]
पारिणामिकभावके तीन भेद जीवभव्याभव्यत्वानि च ॥७॥ अर्थ-[जीवभव्याभव्यत्वानि च ] जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व-इसप्रकार पारिणामिकभाव के तीन भेद है ।
टीका १ सूत्रके अंतमें 'च' शब्दसे अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व आदि सामान्य गुणोंका भी ग्रहण होता है ।
भव्यत्व-मोक्ष प्राप्त करने योग्य जीवके 'भव्यत्व' होता है ।
अभव्यत्व-जो जीव कभी भी मोक्ष प्राप्त करनेके योग्य नहीं होते उनके 'अभव्यत्व' होता है ।
भव्यत्व और अभव्यत्व गुण है, वे दोनों अनुजीवी गुण हैं, कर्मके सद्भाव या अभाव की अपेक्षासे वे नाम नहीं दिये गये है।
जीवत्व-चैतन्यत्व, जीवनत्व, ज्ञानादि गुणयुक्त रहनासो जीवन है ।
पारिणामिक भावका अर्थ-कर्मोदयकी अपेक्षाके विना आत्मामें जो गुण मूलतः स्वभावमात्र ही हों उन्हें 'पारिणामिक' कहते हैं । अथवा
"द्रव्यात्म लाभमात्र हेतुकः परिणामः" अर्थ-जो वस्तुके निजस्वरूपको प्राप्ति मात्र में ही हेतु हो सो पारिणामिक है ।
(सर्वार्थसिद्धि टीका )
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अध्याय २ सूत्र ७
२३३ २. विशेष स्पष्टीकरण (१) पाँच भावोंमें औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और औदयिक यह चार भाव पर्यायरूप ( वर्तमानमें विद्यमान दशारूप ) हैं और पांचवां शुद्ध पारिणामिकभाव है वह त्रिकाल एकरूप ध्रुव है इसलिये वह द्रव्यरूप है । इसप्रकार आत्मपदार्थ द्रव्य और पर्याय सहित (जिस समय जो पर्याय हो उस सहित) है।
(२) जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व-इन तीन पारिणामिक भावोंमे जो शुद्ध जीवत्वभाव है वह शुद्ध द्रव्याथिक नयके आश्रित होनेसे नित्य निरावरण शुद्ध पारिणामिकभाव है और वह बन्ध-मोक्ष पर्याय (-परिणति) से रहित है।
(३) जो दश प्राणरूप जीवत्व तथा भव्यत्व, अभव्यत्व है उसे वर्तमानमे होनेवाले अवस्थाके आश्रित होनेसे (पर्यायार्थिक नयाश्रित होनेसे) अशुद्ध पारिणामिकभाव समझना चाहिए। जैसे सर्व संसारी जीव शुद्धनयसे शुद्ध हैं उसीप्रकार यदि अवस्था दृष्टिसे भी शुद्ध है ऐसा माना जाय तो दश प्राणरूप जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्वका अभाव ही हो जाय ।
(४) भव्यत्व और अभव्यत्वमेंसे भव्यत्वनामक अशुद्ध पारिणामिक भाव भव्यजीवोंके होता है । यद्यपि वह भाव द्रव्यकर्मकी अपेक्षा नही रखता तथापि जीवके सम्यक्त्वादि गुरण जब मलिनतामें रुके होते हैं तब उसमे जड़ कर्म जो निमित्त है उसे भव्यत्वकी अशुद्धतामे उपचारसे निमित्त कहा जाता है। वह जीव जब अपनी पात्रताके द्वारा ज्ञानीकी देशनाको सुनकर सम्यक्दर्शन प्रगट करता है और अपने चारित्रमें स्थिर होता है तब उसे भव्यत्व शक्ति प्रगट (व्यक्त ) होती है। वह जीव सहज शुद्ध पारिणामिकभाव जिसका लक्षण है ऐसे अपने परमात्म द्रव्यमय सम्यक् श्रद्धा, ज्ञान और अनुचरणरूप अवस्था ( पर्याय ) को प्रगट करता है।
(देखो समयसार हिन्दी जयसेनाचार्यकृत संस्कृत टीका पृष्ठ ४२३)
(५) पर्यायाथिक नयसे कहा जानेवाला लाभ-भव्यत्वभावका अभाव मोक्षदशामें होता है अर्थात् जीवमे जब सम्यग्दर्शनादि गुणकी पूर्णता
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मोक्षशास्त्र हो जाती है तब भव्यत्वका व्यवहार मिट जाता है।
( देखो अध्याय १० सूत्र ३) ३. अनादि अज्ञानी जीवके कौनसे भाव कभी नहीं हुए ?
(१) यह बात लक्षमें रखना चाहिए कि जीवके अनादिकालसे ज्ञान, दर्शन और वीर्य क्षायोपशमिकभावरूपसे हैं किन्तु वे कहीं धर्मके कारण नहीं हैं।
(२) अपने स्वरूपकी असावधानी-जो मिथ्यादर्शनरूप मोह उसका अभावरूप श्रीपशमिकभाव अनादि अज्ञानी जीवके कभी प्रगट नही हुआ। जब जीव सम्यग्दर्शन प्रगट करता है तब दर्शनमोहका ( मिथ्यात्वका ) उपशम होता है। सम्यग्दर्शन अपूर्व है, क्योंकि जीवके कभी भी पहले वह भाव नही हुआ था। इस औपशमिकभावके होनेके बाद मोहसे सम्बन्ध रखनेवाले क्षायोपशमिक और क्षायिकभाव उस जीवके प्रगट हुये बिना नही रहते, वह जीव अवश्य ही मोक्षावस्थाको प्रगट करता है।
४. उपरोक्त औपशमिकादि तीन भाव किस विधिसे प्रगट होते हैं ?
(१) जब जीव अपने इन भावोंका स्वरूप समझकर त्रिकाल ध्रुवरूप ( सकलनिरावण ) अखंड एक अविनश्वर शुद्ध पारिणामिकभावकी ओर अपना लक्ष स्थिर करता है तब उपरोक्त तीन भाव प्रगट होते है।
'मैं खण्ड-ज्ञानरूप हूँ' ऐसी भावनासे औपशमिकादिभाव प्रगट नहीं होते ।
[ श्री समयसार हिन्दी जयसेनाचार्यकृत टीका पृष्ठ ४८३ ]
(२) अपने अविनश्वर शुद्ध पारिणामिकभावकी ओरके झुकावको अध्यात्म भाषामे 'निश्चयनयका आश्रय' कहा जाता है। निश्चयनयके श्राश्रयसे शुद्ध पर्याय प्रगट होती है । निश्चयका विषय अखण्ड अविनश्वर शुद्ध पारिणामिकभाव अर्थात् ज्ञायकभाव है । व्यवहारनयके आश्रयसे शुद्धता प्रगट नहीं होती किन्तु अशुद्धता प्रगट होती है (श्री समयसार गाथा ११)
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अध्याय २ सूत्र ८
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५. पाँच भावों में से कौनसे भाव बन्धरूप हैं और कौनसे नहीं १
(१) इन पाँच भावोमेंसे एक औदयिकभाव ( मोहके साथका संयुक्तभाव ) बन्धरूप है । जब जीव मोहभाव करता है तब कर्मका उदय उपचारसे बन्धका कारण कहलाता है । द्रव्य मोहका उदय होने पर भी यदि जीव मोहभावरूपसे परिणमित न हो तो बन्ध न हो और तब वही जड़कर्मकी निर्जरा कहलाये ।
(२) जिसमें पुण्य-पाप, दान, पूजा, व्रतादि भावोंका समावेश होता है ऐसे आश्रव और बन्ध दो प्रोदयिकभाव हैं; संवर और निर्जरा मोहके औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिकभाव हैं; वे शुद्धता के अंश होनेसे बन्धरूप नही है; और मोक्ष क्षायिकभाव है, वह सर्वथा पूर्ण पवित्र पर्याय है इसलिये वह भी बन्धरूप नही है ।
(३) शुद्ध त्रैकालिक पारिणामिकभाव बन्ध और मोक्षसे निर्पेक्ष है ॥ ७ ॥
जीवका लक्षण
उपयोगो लक्षणम् ॥ ८ ॥
अर्थ – [ लक्षरणम् ] जीवका लक्षण [ उपयोगः ] उपयोग है । टीका
लक्षण-- - बहुतसे मिले हुए पदार्थोंमेंसे किसी एक पदार्थको अलग करनेवाले हेतु ( साधन ) को लक्षण कहते हैं ।
उपयोग – चैतन्यगुणके साथ सम्बन्ध रखनेवाले जीवके परिणाम को उपयोग कहते हैं ।
उपयोगको 'ज्ञान-दर्शन' भी कहते हैं वह सभी जीवोमे होता है श्रीर जीवके अतिरिक्त अन्य किसी द्रव्यमे नही होता, इसलिये उसे जीवका असाधारण गुरण अथवा लक्षण कहते हैं । और वह सद्भुत ( आत्मभूत ) लक्षण है इसलिये सब जीवोमे सदा होता है । इस सूत्र में ऐसा सामान्य
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मोक्षशास्त्र
लक्षण दिया है जो सब जीवों पर लागू होता है । (तत्त्वार्थसार पृष्ठ ५४ ) जैसे सोने चाँदीका एक पिंड होने पर भी उसमें सोना अपने पीले पन आदि लक्षणसे और चॉदी अपने शुक्लादि लक्षणसे दोनों अलग २ है, ऐसा उनका भेद जाना जा सकता है, इसीप्रकार जीव श्रोर कर्म - नोकर्म ( शरीर ) एक क्षेत्रमें होने पर भी जीव अपने उपयोग लक्षणके द्वारा कर्म - नोकर्मसे अलग है और द्रव्यकर्म - नोकर्म अपने स्पर्शादि लक्षणके द्वारा जीवसे अलग है, इसप्रकार उनका भेद प्रत्यक्ष जाना जा सकता है ।
जीव और पुद्गलका अनादिकालसे एक क्षेत्रावगाहरूप सम्बन्ध है, इसलिये अज्ञानदशा मे वे दोनों एकरूप भासित होते हैं । जीव श्रौर पुद्गल एक प्रकाश क्षेत्रमे होने पर भी यदि उनके यथार्थ लक्षणोंसे निर्णय किये जाँय तो वे दोनों भिन्न हैं ऐसा ज्ञान होता है । बहुतसे मिले हुए पदार्थों में से किसी एक पदार्थको अलग करनेवाले हेतुको लक्षण कहते हैं । अनन्त परमाणुओं से बना हुआ शरीर और जीव इसप्रकार बहुतसे मिले हुए पदार्थ हैं उनमें अनन्त पुद्गल हैं और एक जीव है । उसे ज्ञानमें अलग करनेके लिये यहाँ जीवका लक्षण बताया गया है । 'जीवका लक्षण उपयोग है' इसप्रकार यहाँ कहा है ।
प्रश्न – उपयोगका अर्थ क्या है ?
उत्तर—चैतन्य प्रात्माका स्वभाव है, उस चैतन्य स्वभावको प्रर्नुसरण करनेवाले आत्माके परिणामको उपयोग कहते हैं । उपयोग जीवका अबाधित लक्षण है ।
आठवें सूत्रका सिद्धान्त
मैं शरीरादिके कार्य कर सकता हूँ, और मैं उन्हें हिला - बुला सकती हूँ, ऐसा जो जीव मानते है वे चेतन और जड़ द्रव्यको एकरूप मानते है । उनकी इस मिथ्या मान्यताको छुड़ानेके लिये और जीवद्रव्य जड़से सर्वथा भिन्न है यह बतानेके लिये इस सूत्रमें जीवका असाधारण लक्षण उपयोग है - ऐसा बताया गया है ।
नित्य उपयोग लक्षणवाला जीवद्रव्य कभी पुद्गल द्रव्यरूप ( शरीरा
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अध्याय २ सूत्र ६
२३७ दिरूप ) होता हुआ देखनेमें नहीं पाता और नित्य जड़ लक्षणवाला शरीरादि पुद्गलद्रव्य कभी जीवद्रव्यरूप होता हुआ देखने में नहीं आता, क्योकि उपयोग और जड़त्वके एकरूप होने में प्रकाश और अंधकारकी भाँति विरोध है। जड़ और चैतन्य कभी भी एक नहीं हो सकते । वे दोनों सर्वथा भिन्न २ हैं, कभी भी, किसी भी प्रकारसे एकरूप नही होते, इसलिये हे जीव तू सब प्रकारसे प्रसन्न हो ! अपना चित्त उज्ज्वल करके सावधान हो और स्वद्रव्य को ही 'यह मेरा है' ऐसा अनुभव कर । ऐसा श्री गुरु का उपदेश है। ( समयसार)
जीव शरीर और द्रव्यकर्म एक आकाश प्रदेशमें बंधरूप रहते है इसलिये वे बहुतसे मिले हुये पदार्थोमेंसे एक जीव पदार्थको अलग जाननेके लिये इस सूत्र में जीवका लक्षण कहा गया है ॥ ८ ॥
( सर्वार्थसिद्धि भाग २ पृष्ठ २७-२८)
उपयोगके भेद स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः॥ ६॥ अर्थ-[सः] वह उपयोग [ द्विविधः ] ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगके भेदसे दो प्रकारका है; और वे क्रमशः [ प्रष्ट चतुः भेदः ] आठ और चार भेद सहित है अर्थात् ज्ञानोपयोगके मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय, केवल ( यह पाँच सम्यग्ज्ञान ) और कुमति, कुश्रुत तथा कुअवधि (यह तीन मिथ्याज्ञान) इसप्रकार आठ भेद है। तथा दर्शनोपयोगके चक्षु, अचक्षु, अवधि तथा केवल इसप्रकार चार भेद हैं । इसप्रकार ज्ञानके आठ और दर्शनके चार भेद मिलकर उपयोगके कुल बारह भेद हैं ।
टीका १. इस सूत्रमें उपयोगके भेद बताये हैं, क्योंकि यदि भेद बताये हों तो जिज्ञासु जल्दी समझ लेता है, इसलिये कहा है कि-"सामान्य शाखतोनूनं, विशेषो बलवान् भवेत्" अर्थात् सामान्यशाखसे विशेष बलवान है। यहाँ सामान्यका अर्थ है संक्षेपमें कहनेवाला और विशेषका अर्थ है भेद
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मोक्षशास्त्र
विस्तार करके बतानेवाला । साधारण मनुष्य विशेषसे भलीभाँति निर्णय कर सकते है ।
( २ ) दर्शन शब्द के यहाँ लागू होनेवाला अर्थ
शास्त्रोंमें एक ही शब्दका कहीं कोई अर्थ होता है और कहीं कोई | 'दर्शन' शब्दके भी अनेक अर्थ हैं ।
(१) अध्याय १ सूत्र १ - २ में मोक्षमार्ग सम्बन्धी कथन करते हुये 'सम्यग्दर्शन' शब्द कहा है; वहाँ दर्शन शब्दका अर्थ श्रद्धा है । ( २ ) उपयोग के वर्णनमें 'दर्शन' शब्दका अर्थ वस्तुका सामान्य ग्रहरणमात्र है । श्रीर (३) इन्द्रियके वर्णनमे 'दर्शन' शब्दका अर्थ नेत्रोंके द्वारा देखना मात्र है । इन तीन अर्थो में से यहाँ प्रस्तुत सूत्रमे दूसरा अर्थ लागू होता है ।
( मोक्षमार्ग प्रकाशक )
दर्शनोपयोग — किसी भी पदार्थको जाननेकी योग्यता ( लब्धि ) होने पर उस पदार्थ की ओर सन्मुखता, प्रवृत्ति अथवा दूसरे पदार्थों की ओर से हटकर विवक्षित पदार्थकी ओर उत्सुकता प्रगट होती है सो दर्शन है । वह उत्सुकता चेतना में ही होती है । जबतक विवक्षित पदार्थको थोड़ा भी नही जाना जाता तबतकके चेतनाके व्यापारको 'दर्शनोपयोग' कहा जाता है । जैसे एक मनुष्य का उपयोग भोजन करनेमें लगा हुआ है और उसे एकदम इच्छा हुई कि बाहर मुझे कोई बुलाता तो नही है ? मैं यह जान लूं । अथवा किसीकी आवाज कानमे आने पर उसका उपयोग भोजनसे हट कर शब्दकी श्रोर लग जाता है इसमें चेतनाके उपयोगका भोजनसे हटना और शब्दकी ओर लगना किन्तु जबतक शब्दकी ओरका कोई भी ज्ञान नहीं होता तबतकका व्यापार 'दर्शनोपयोग' है ।
पूर्व विषय से हटना और बाद के विषय की ओर उत्सुक होना ज्ञान की पर्याय नहीं है इसलिये उस चेतना पर्याय को 'दर्शनोपयोग' कहा जाता है ।
श्रात्माके उपयोग का पदार्थोन्मुख होना दर्शन है ।
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अध्याय २ सूत्र
२३६ द्रव्यसंग्रहकी ४३ वी गाथाकी टीकामे 'सामान्य' शब्द प्रयुक्त हुआ है, उसका अर्थ 'आत्मा' है सामान्य ग्रहणका मतलब है आत्मग्रहण; और पारमग्रहण दर्शन है।
३. साकार और निराकार शानको साकार और दर्शनको निराकार कहा जाता है। उसमेंसे 'आकार' का अर्थ लम्बाई चौड़ाई और 'मोटाई नही है, किन्तु जिसप्रकार का पदार्थ होता है उसीप्रकार ज्ञानमें ज्ञात हो उसे आकार कहते हैं। प्रमूतित्व प्रात्माका गुण होनेसे ज्ञान स्वयं वास्तवमें अमूर्त है । जो स्वयं प्रमूर्त हो और फिर द्रव्य न हो, मात्र गुण हो उसका अपना पृथक् आकार नहीं हो सकता । अपने अपने आश्रयभूत द्रव्यका जो आकार होता है वही माकार गुणोंका होता है। ज्ञान गुणका आधार आत्मद्रव्य है इसलिये आत्माका नाकार ही ज्ञानका आकार है। आत्मा चाहे जिस प्राकारके पदार्थको जाने तथापि अात्माका आकार तो ( समुद्घातको छोड़कर ) शरीराकार रहता है, इसलिये वास्तविकतया ज्ञान ज्ञेयपदार्थके आकाररूप नही होता किन्तु आत्माके आकाररूप होता है। जैसा ज्ञेय पदार्थ होता है वैसा ही ज्ञान जान लेता है इसलिये ज्ञानका आकार कहा जाता है (तत्त्वार्थसार पृष्ठ ३०८-३०९ ) दर्शन एक पदार्थसे दूसरे पदार्थको पृथक् नहीं करता, इसलिये उसे निराकार कहा जाता है।
पंचाध्यायी भाग २ के श्लोक ३९१ में आकारका अर्थ निम्नप्रकार कहा गया है:
आकारोर्थविकल्पः स्यादर्थः स्वपरगोचरः।
सोपयोगो विकल्पो वा ज्ञानस्यैतद्धि लक्षणम् ।
अर्थ- अर्थ, विकल्पको आकार कहते है, स्व-पर पदार्थको अर्थ कहा जाता है, उपयोगावस्थाको विकल्प कहते हैं। और यही ज्ञानका लक्षण है।
भावार्थ-आत्मा अथवा अन्य पदार्थका उपयोगात्मक भेदविज्ञान
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मोक्षशास्त्र
होना ही आकार है, पदार्थोके भेदाभेदके लिये होनेवाले निश्चयात्मक बोध को ही आकार कहते हैं अर्थात् पदार्थोंका जानना ही आकार है, और वह ज्ञानका स्वरूप है |
अर्थ-स्व और पर विषय; विकल्प व्यवसाय; अर्थविकल्प = स्व- पर व्यवसायात्मकज्ञान । इस ज्ञानको प्रमाण कहते है । ( पं. देवकीनन्दन कृत पंचाध्यायी टीका भाग १ श्लोक ६६६ का फुटनोट )
आकार सम्बन्धी विशेष स्पष्टीकरण
ज्ञान अमूर्तिक आत्माका गुरण है, उसमें ज्ञेय पदार्थका आकार नहीं उतरता । मात्र विशेष पदार्थ उसमें भासने लगते है - यही उसकी आकृति मानने का मतलब है । सारांश-ज्ञानमे पर पदार्थको आकृति वास्तवमें नही मानी जा सकती, किन्तु ज्ञान - ज्ञेय सम्बन्धके कारण ज्ञेयका आकृति धर्म उपचार नयसे ज्ञानमें कल्पित किया जाता है; इस उपचारका फलितार्थ इतना ही समझना चाहिए कि पदार्थोका विशेष आकार ( - स्वरूप ) निश्चय करानेवाले जो चैतन्य परिणाम है वे ज्ञान कहलाते हैं, किन्तु साकारका यह अर्थ नही है कि उस पदार्थके विशेष आकार तुल्य ज्ञान स्वयं हो जाता है |
(तत्त्वार्थसार पृष्ठ ५४ )
४. दर्शन और ज्ञान के बीचका भेद
अंतर्मुख चित्प्रकाशको दर्शन और बहिर्मुख चित्प्रकाशको ज्ञान कहा जाता है । सामान्य - विशेषात्मक बाह्य पदार्थको ग्रहण करनेवाला ज्ञान है और सामान्य विशेषात्मक श्रात्मस्वरूपको ग्रहण करनेवाला दर्शन है |
शंका- इसप्रकार दर्शन और ज्ञानका स्वरूप माननेसे शास्त्रके इस वचनके साथ विरोध आता है कि- 'वस्तुके सामान्य ग्रहरणको दर्शन कहते हैं' ।
समाधान- - समस्त बाह्य पदार्थोके साथ साधारणता होनेसे उस
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अध्याय २ सूत्र ६ वचनमें जहाँ 'सामान्य' सजा दी गई है वहाँ सामान्यपद से आत्मा को ही ग्रहण करना चाहिए।
शंका-यह किस पर से जाना जाय कि सामान्य पदसे आत्मा ही समझना चाहिए?
समाधान-यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि "पदार्थ के आकार अर्थात् भेद किये बिना" इस शास्त्र वचनसे उसकी पुष्टि हो जाती है। इसी को स्पष्ट कहते है-बाह्य पदार्थोका आकाररूप प्रतिकर्म व्यवस्थाको न करने पर ( अर्थात् भेदरूप से प्रत्येक पदार्थको ग्रहण किये बिना') जो सामान्य ग्रहण होता है उसे 'दर्शन' कहते है । और इस अर्थको दृढ करने के लिये कहते हैं कि "यह अमुक पदार्थ है" यह कुछ है इत्यादिरूपसे पदार्थो को विशेषता किये बिना जो ग्रहण होता है उसे दर्शन कहते हैं।
शंका-यदि दर्शन का लक्षण ऊपर कहे अनुसार मानोगे तो 'अनध्यवसाय' को दर्शन मानना पड़ेगा।
समाधान नही, ऐसा नहीं हो सकता, क्योकि दर्शन बाह्य पदार्थो का निश्चय न करके भी स्वरूपका निश्चय करनेवाला है, इसलिये अनध्यवसायरूप नही है। विषय और विषयिके योग्यदेशमे होनेसे पूर्वको अवस्थाको दर्शन कहते हैं ।
[ श्री धवला भाग १ पृष्ठ १४५ से १४८, ३८० से ३८३ तथा वृहद्रव्यसंग्रह हिन्दी टीका पृष्ठ १७० से १७५ गाथा ४४ की टीका ] ऊपर जो दर्शन और ज्ञानके बीच भेद बताया गया है
वह किस अपेक्षा से है ? आत्माके ज्ञान और दर्शन दो भिन्न गुण बताकर उस ज्ञान और दर्शन का भिन्न भिन्न कार्य क्या है यह ऊपर बताया है, इसलिये एक गुण से दूसरे गुरणके लक्षण भेदको अपेक्षासे ( भेद नयसे ) वह कथन है ऐसा समझना चाहिए।
५. अभेदापेक्षासे दर्शन और ज्ञानका अर्थ दर्शन और ज्ञान दोनों आत्माके गुण हैं और वे आत्मासे अभिन्न
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मोक्षशास्त्र
हैं इसलिये अभेदापेक्षासे मात्मा दर्शनज्ञानस्वरूप है अर्थात् दर्शन- श्रात्मा है और ज्ञान आत्मा है ऐसा समझना चाहिए । द्रव्य और गुण एक दूसरे से अलग नहीं हो सकते और द्रव्य का एक गुण उसके दूसरे गुरणसे अलग नहीं हो सकता । यह अपेक्षा लक्षमें रखकर दर्शन स्व-पर दर्शक है और ज्ञान स्व-पर ज्ञायक है । श्रमेददृष्टिकी अपेक्षासे इसप्रकार अर्थ होता है |
[ देखो श्री नियमसार गाथा १७१ तथा श्री समयसारमें दर्शन तथा ज्ञान का निश्चयनयसे अर्थं पृष्ठ ४२० से ४२७ ]
६. दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग केवली भगवान् को युगपत् होता है
केवली भगवान् को दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग एक ही साथ होता है और छद्मस्थको क्रमशः होता है । केवली भगवान्को उपचारसे उपयोग कहा जाता है ॥ ६ ॥
जीवके भेद
संसारिणो मुक्ताश्च ॥
१० ॥
अर्थ — जीव [ संसारिणः ] संसारी [ च ] और [ मुक्ताः ] मुक्त ऐसे दो प्रकारके है । कर्म सहित जीवोंको संसारी और कर्म रहित जीवोको मुक्त कहते है ।
टीका
१. जीवोंकी वर्तमान दशाके ये भेद हैं, वे भेद पर्यायदृष्टिसे हैं । द्रव्यदृष्टि से सब जीव एक समान हैं । पर्यायोंके भेद दिखानेवाला व्यवहार, परमार्थको समझानेके लिये कहा जाता है उसे पकड़ रखनेके लिये नही । इससे यह समझना चाहिए कि पर्यायमें चाहे जैसे भेद हो तथापि त्रैकालिक ध्रुवस्वरूपमे कभी भेद नही होता । "सर्व जीव हैं सिद्ध सम, जो समझे सो होय ।" [ आत्मसिद्धि शास्त्र गाथा १३५ ] २. संसारी जीव अनंतानंत है । 'मुक्ताः' शब्द बहुवचनसूचक है इससे यह समझना चाहिये कि मुक्त जीव अनन्त है । 'मुक्ताः' शब्द यह भी
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अध्याय २ सूत्र १०
२४३ सूचित करता है कि पहिले उन जीवोंको संसारी अवस्था थी और फिर उन्होने यथार्थ समझ करके उस अशुद्ध अवस्थाका व्यय करके मुक्तावस्था प्रगट की है।
३. संसारका अर्थ-'स'= भलीभाति, 'स+घञ् = खिसक जाना । अपने शुद्ध स्वरूपसे भलीभाँति खिसक जाना ( हट जाना ) सो संसार है। जीवका संसार स्त्री, पुत्र, लक्ष्मी, मकान इत्यादि नही है वे तो जगत् के स्वतन्त्र पदार्थ है । जीव उन पदार्थों में अपनेपनकी कल्पना करके उन्हे इष्ट अनिष्ट मानता है इत्यादि अशुद्धभावको संसार कहते हैं ।
४. सूत्र में 'च' शब्द है, च शब्दके समुच्चय और अन्वाचय ऐसे दो अर्थ है, उनमेसे यहाँ अन्वाचयका अर्थ बतानेके लिये च शब्द का प्रयोग किया है । ( एक को प्रधानरूपसे और दूसरेको गौणरूपसे बताना 'अन्वाचय' शब्दका अर्थ है ) ससारी और मुक्त जीवोंमेसे संसारी जीव प्रधानता से उपयोगवान् है और मुक्त जीव गोरगरूपसे उपयोगवान है, यह बतानेके लिये इस सूत्रमे 'च' शब्दका प्रयोग किया है।
( उपयोग का अनुसंधान सू० ८-९ से चला आता है।)
५. जीवकी संसारी दशा होनेका कारण आत्मस्वरूप संबंधी भ्रम है; उस भ्रमको मिथ्यादर्शन कहते है । उस भूलरूप मिथ्यादर्शनके कारणसे जीव पाँच प्रकारके परिवर्तन किया करते है-ससार चक्र चलता रहता है।
६. जीव अपनी भूलसे अनादिकालसे मिथ्यावृष्टि है; वह स्वतः अपनी पात्रताका विकास करके सत्समागमसे सम्यग्दृष्टि होता है। मिथ्यादृष्टिरूप अवस्थाके कारण परिभ्रमण अर्थात् परिवर्तन होता है, उस परिभ्रमणको संसार कहते हैं, जीवको परके प्रति एकत्वबुद्धि होनेसे मिथ्यादृष्टित्व है । जब तक जीवका लक्ष पर पदार्थ पर है अर्थात् वह यह मानता है कि परसे मुझे हानि-लाभ होता है, राग करने लायक है तबतक उसे परवस्तुरूप द्रव्यकर्म और नोकर्मके साथ निमित्त नैमित्तिक सबंध होता है। उस परिवर्तनके पांच भेद होते है-(१) द्रव्यपरिवर्तन, (२) क्षेत्रपरिवर्तन, (३) कालपरिवर्तन, (४) भावपरिवर्तन, और (५) भावपरिवर्तन। परिवर्तनको संसरण अथवा परिवर्तन भी कहते है।
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२४४
मोक्षशास्त्र
७. द्रव्यपरिवर्तनका स्वरूप यहाँ द्रव्यका अर्थ पुद्गलद्रव्य है । जीवका विकारी अवस्थामें पुद्गलोंके साथ जो संबंध होता है उसे द्रव्यपरिवर्तन कहते हैं। उसके दो भेद हैं-(१) नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन और (२) कर्मद्रव्यपरिवर्तन ।
(१) नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनका स्वरूप-ौदारिक तैजस और कार्मण अथवा वैक्रियक, तेजस और कार्मण इन तीन शरीर और छह पर्याप्तिके योग्य जो पुद्गलस्कंध एक समय में एक जीवने ग्रहण किये वह जीव पुनः उसीप्रकारके स्निग्ध-रूक्ष स्पर्श, वर्ण रस, गंध आदिसे तथा तीव्र, मंद या मध्यमभाववाले स्कंधोंको ग्रहण करता है तब एक नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन होता है। (बीचमें जो अन्य नोकर्मका ग्रहण किया जाता है उन्हें गणनामे नही लिया जाता।) उसमें पुद्गलोंकी संख्या और जाति ( Quality ) बराबर उसीप्रकारके नोकर्मोकी होनी चाहिये ।
२. कर्मद्रव्यपरिवर्तनका स्वरूप एक जीवने एक समयमें आठ प्रकारके कर्मस्वभाववाले जो पुद्गल ग्रहण किये थे वैसे ही कर्मस्वभाववाले पुद्गलोको पुनः ग्रहण करे तब एक कर्म द्रव्यपरिवर्तन होता है । ( बीचमें उन भावोमें किचित् मात्र अन्य प्रकारके दूसरे जो जो रजकरण ग्रहण किये जाते हैं उन्हे गणनामें नहीं लिया जाता ) उन आठ प्रकारके कर्म पुद्गलोंकी संख्या और जाति बराबर उसीप्रकारके कर्मपुद्गलोंकी होनी चाहिए।
स्पष्टीकरण-आज एक समयमें शरीर धारण करते हुए नोकर्म और द्रव्यकर्मके पुद्गलोंका संबंध एक अज्ञानी जीवको हुआ, तत्पश्चात् नोकर्म और द्रव्यकर्मोका संबंध उस जीवके बदलता रहता है । इसप्रकार परिवर्तन होनेपर वह जीव जब पुनः वैसे ही शरीर धारण करके वैसे ही नोकर्म और द्रव्यकर्मोको प्राप्त करता है तब एक द्रव्यपरिवर्तन पूरा किया कहलाता है । ( नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन और कर्मद्रव्यपरिवर्तनका काल एकसा ही होता है)।
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अध्याय २ सूत्र १०
२४५ ८. क्षेत्रपरिवर्तनका स्वरूप जीवकी विकारी अवस्थामे आकाशके क्षेत्रके साथ होनेवाले संबंध को क्षेत्रपरिवर्तन कहते हैं । लोकके आठ मध्य प्रदेशोंको अपने शरीरके आठ मध्यप्रदेश बनाकर कोई जीव सूक्ष्मनिगोदमे अपर्याप्त सर्व जघन्य शरीर वाला हुआ और क्षुद्रभव ( श्वासके अठारहवें भागकी स्थिति ) को प्राप्त हुआ, तत्पश्चात् उपरोक्त आठ प्रदेशोंसे लगे हुए एक एक अधिक प्रदेशको स्पर्श करके समस्त लोकको जब अपने जन्मक्षेत्रके रूपमें प्राप्त करता है तव एक क्षेत्र परिवर्तन पूर्ण हुआ कहलाता है । ( बीच में क्षेत्रका क्रम छोड़कर अन्यत्र जहाँ २ जन्म लिया उन क्षेत्रोंको गणनामें नहीं लिया जाता ।)
स्पष्टीकरण-मेस्पर्वतके नीचेसे प्रारंभ करके क्रमशः एक २ प्रदेश आगे बढते हुये संपूर्ण लोकमे जन्म धारण करनेमे एक जीवको जितना समय लगे उतने समयमें एक क्षेत्रपरिवर्तन पूर्ण हुआ कहलाता है।
९. कालपरिवर्तनका स्वरूप __ एक जीवने एक अवसपिणीके पहिले समयमे जन्म लिया, तत्पश्चात् अन्य अवसर्पिणीके दूसरे समयमें जन्म लिया, पश्चात् अन्य अवसपिणीके तीसरे समयमे जन्म लिया; इसप्रकार एक २ समय आगे बढते हुए नई अवसर्पिणीके अंतिम समयमे जन्म लिया, तथा उसीप्रकार उत्सपिणी कालमें उसी भांति जन्म लिया; और तत्पश्चात् ऊपरकी भांति ही अवसर्पिणी और उत्सपिरणीके प्रत्येक समयमें क्रमशः मरण किया । इसप्रकार भ्रमण करते हुए जो काल लगता है उसे कालपरिवर्तन कहते हैं। ( इस कालक्रमसे रहित वीचमे जिन २ समयोंमे जन्म-मरण किया जाता है वे समय गणनामें नही आते।) अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालका स्वरूप अध्याय ३ सूत्र २७ मे कहा है।
१०. भवपरिवर्तनका स्वरूप नरकमे सर्वजघन्य प्रायु दश हजार वर्षकी है। उतनी आयुवाला एक जीव पहिले नरकके पहिले पटलमे जन्मा, पश्चात् किसी अन्य समय में उतनी ही आयु प्राप्त करके उसी पटलमें जन्मा; ( बीचमे अन्य गतियोमे
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मोक्षशास्त्र
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भ्रमण किया सो वे भव गरणनामें नही लिये जाते ) इसप्रकार दश हजार वर्षके जितने समय होते हैं उतनी ही बार वह जीव उतनी ( दश हजार वर्षकी ) ही आयु सहित वही जन्मा ( बीचमे अन्य स्थानोंमें जो जन्म लिया सो गणनामे नही प्राता, ) तत्पश्चात् दश हजार वर्ष और एक समयकी आयुसहित जन्मा, उसके बाद दश हजार वर्ष और दो समय - यों क्रमशः एक एक समयकी आयु बढते २ अन्त में तेतीस सागरकी श्रायु सहित नरक में जन्मा ( और मरा ), ( इस क्रमसे रहित जो जन्म होते हैं वे गणनामें नही आते, ) नरककी उत्कृष्ट आयु ३३ सागरकी है उतनी आयु सहित जन्म ग्रहण करे - इसप्रकार गिनने पर जो काल होता है उतने काल में एक नारकभवपरिवर्तन पूर्ण होता है ।
और फिर वहाँसे निकलकर तिर्यचगतिमे अंतर्मुहूर्त की प्रासहित उत्पन्न होता है अर्थात् जघन्य अंतमुहूर्त की आयु प्राप्त करके उसे पूर्ण करके उस अंतर्मुहूर्त के जितने समय है उतनी बार जघन्य प्रायु धारण करे, फिर क्रमशः एक एक समय अधिक आयु प्राप्त करके तीन पल्यतक सभी स्थितियों (आयु) में जन्म धारण करके उसे पूर्ण करे तब एक तिर्यंचगतिभवपरिवर्तन पूर्ण होता है । ( इस क्रमसे रहित जो जन्म होता है वह गणनामे नही लिया जाता ) तियंचगतिमे जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट श्रायु तीन पत्यकी होती है ।
मनुष्यगति भव परिवर्तनके सम्बन्धमें भी तिर्यचगतिकी भाँति ही समझना चाहिये ।
देवगतिमें नरकगतिकी भाँति है किन्तु उसमें इतना अन्तर है किदेवगतिमें उपरोक्त क्रमानुसार ३१ सागर तक आयु धारण करके उसे पूर्ण करता है । इस प्रकार जब चारों गतियोंमें परिवर्तन पूर्ण करता है तब एक भवपरिवर्तन पूर्ण होता है ।
नोट – ३१ सागरसे अधिक श्रायुके धारक नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर ऐसे १४ विमानोमें उत्पन्न होनेवाले देवोके परिवर्तन नही होता, क्योकि वे सब सभ्यदृष्टि हैं ।
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अध्याय २ सूत्र १० भवभ्रमणका कारण मिथ्यादृष्टित्व है इस सम्बन्धमें कहा है किणिरयादि जहण्णादिसु जावदु उवरिल्लिया दु गेवेजा । मिच्छत्त संसिदेण हु बहुसो वि भवहिदी भमिदो ॥१॥
अर्थ-मिथ्यात्वके संसर्ग सहित नरकादि की जघन्य प्रायुसे लेकर उत्कृष्ट अवेयक ( नवमे अवेयक ) तकके भवोंकी स्थिति ( आयु ) को यह जीव अनेक बार प्राप्त कर चुका है।
११. भावपरिवर्तनका स्वरूप (१) असंख्यात योगस्थान एक अनुभागबन्ध (अध्यवसाय) स्थान को करता है। [कषायके जिसप्रकार( Degree) से कर्मोके बन्धमे फलदानशक्तिकी तीव्रता आती है उसे अनुभागबन्धस्थान कहा जाता है। ]
(२) असंख्यात x असंख्यात अनुभागबन्ध अध्यवसायस्थान एक कषायभाव ( अध्यवसाय ) स्थानको करते हैं। [ कषायका एक प्रकार (Degree) जो कर्मोकी स्थितिको निश्चित करता है उसे कषायअध्यवसाय स्थान कहते हैं। ]
(३) असंख्यात x असंख्यात कषायअध्यवसायस्थान * पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक मिथ्यादृष्टि जीवके कर्मोकी जघन्यस्थितिबन्ध करते हैं, यह स्थिति-अंतःकोडाकोड़ीसागरकी होती है, अर्थात् कोड़ाकोड़ीसागरसे नोचे और कोड़ीसे ऊपर उसकी स्थिति होती है।
(४) एक जघन्यस्थितिबन्ध होनेके लिये यह आवश्यक है कि-जीव असख्यात योगस्थानोमेसे (एक २ योगस्थानमेसे ) एक अनुभागबन्धस्थान
___* जघन्य स्थितिबन्धके कारण जो कषायभावस्थान है उनकी संख्या असंख्यात लोकके प्रदेशोके बराबर है: एक २ स्थानमें अनतानत अविभाग प्रतिच्छेद हैं, जो अनतभाग हानि, असख्यातभाग हानि, सख्यातभाग हानि, संख्यातगुण हानि, असंख्यातगुण हानि, अनन्तगुरण हानि तथा अनन्तभाग वृद्धि, असख्यातभाग वृद्धि, सख्यातभाग वृद्धि, संख्यातगुण वृद्धि, असंख्यातगुण वृद्धि और अनतगुण वृद्धि इसप्रकार छह स्थान वाली हानि वृद्धि सहित होता है ।
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૨૪
मोक्षगास्त्र होनेके लिये पार हो; और तत्पश्नात् एक २ अनुभागबन्धस्थानमंसे एक कपायस्थान होनेके लिये पार होना चाहिगे, भोर एक मान्यस्थितियय होनेके लिये एक २ कपायस्थानमसे पार होना नाहिये।
(५) तत्पश्चात् उस जघन्यस्थितिबन्धमें एक एक समय अधिक करके ( छोटेसे छोटे जघन्यवन्धसे मागे प्रत्येक नगे ) बढ़ते जाना चाहिये । इसप्रकार आठों कर्म और (मिच्यादृष्टिी योग्य ) सभी उत्तर कर्मप्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति पूरी हो तव एक मावपरिवर्तन पूर्ण होता
है।
(६) उपरोक्त पैरा ३ में कथित जघन्यस्थितिबंधको तया परा २ में कथित सर्वजधन्य कपायभावस्थानको और पैरा १ में कथित अनुभागवन्चस्थानको प्राप्त होनेवाला उसके योग्य सर्वजघन्य योगस्थान होता है। अनुभाग A, कषाय B, और स्थिति C, इन तीनोंका तो जघन्य हो बंध होता है किन्तु योगस्थान वदलकर जघन्य योगस्थानके बाद तीसरा योगस्थान होता है और अनुभागस्थान कपायस्थान B,तथा स्थितिस्यान C, जघन्य ही बंधते हैं; पश्चात् चौथा, पांचवां, छट्ठा, सातवा, माठवां, इत्यादि योगस्थान होते २ क्रमशः असंख्यात प्रमाणतक वदले फिर भी उन्हें इसी गणना में नहीं लेना चाहिये, अथवा किसी दो जघन्ययोग स्थानके वीचमे अन्य कषायस्थान A- अन्य अनुभागस्थान B. या अन्य योगस्थान C आ जाय तो उसे भी गणनामे नही लेना चाहिये ।
भाव परिवर्तनका कारण मिथ्यात्व है इस सम्बन्धमे कहा है किसव्या पयडिद्विदिओ अणुभाग पदेस बंधठाणादि । मिच्छत्त संसिदेण य भमिदा पुण भाव संसारे ॥१॥
अर्थ-समस्त प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागवंध, और प्रदेशवंधके स्थानरूप मिथ्यात्वके संसर्गसे जीव निश्चयसे ( वास्तवमे ) भावसंसारमें भ्रमण करता है।
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अध्याय २ सूत्र १०
२४६ १२-संसारके भेद करने पर भावपरिभ्रमण उपादान अर्थात् निश्चय संसार है और द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भव परिभ्रमण निमित्तमात्र है अर्थात् व्यवहार संसार है क्योंकि वह परवस्तु है; निश्चयका अर्थ है वास्तविक और व्यवहारका अर्थ है कथनरूप निमित्तमात्र । सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रके प्रगट होने पर भाव संसार दूर हो जाता है और तत्पश्चात् अन्य चार अघाति कर्मरूप निमित्तोंका स्वयं अभाव हो जाता है।
१३-मोक्षका उपदेश संसारीके लिये होता है। यदि संसार न हो तो मोक्ष, मोक्षमार्ग, या उसका उपदेश ही नहीं होता, इसलिये इस सूत्र में पहिले संसारी जीव और फिर मुक्त जीवका क्रम लिया गया है।
१४-असंख्यात और अनंतसंख्याको समझनेके लिये गणित शास्त्र उपयोगी है । उसमे १०/३ अर्थात् दशमें तीनका भाग देने पर-३.३ ३ ३... इसप्रकार तीनके अंक चलते ही है किन्तु उसका अंत नहीं आता। यह 'अनंत' का दृष्टांत है। और असंख्यातकी संख्या समझनेके लिये एक गोलाकारकी परिधि और ब्यासका प्रमाण २२/७ होता है [ब्यास करनेपर परिधि २२/७ गुणी होती है] उसका हिसाब शतांश ( Decimal ) में करने पर जो संख्या आती है वह असंख्यात है। गरिणत शास्त्रमें इस संख्याको Irrational' कहते हैं।
१५. व्यवहारराशिके जीवोंको यह पांच परिवर्तन लागू होते हैं। प्रत्येक जीवने ऐसे अनंत परिवर्तन किये है। और जो जीव मिथ्यादृष्टित्व बनाये रखेंगे उनके अभी भी वे परिवर्तन चलते रहेगे। नित्य-निगोदके जीव अनादि निगोदमेंसे निकले ही नही है, उनमें इन पांच परिवर्तनोकी शक्ति विद्यमान है इसलिये उनके भी उपचारसे यह पांच परिवर्तन लागू होते है। व्यवहार राशिके जो जीव अभीतक सभी गतियों में नही गये, उन्हे भी उप
(२४८ वे पेज की टिप्पणी ) * योगस्थानोमें भी अविभागप्रतिच्छेद होते हैं, उनमें असंख्यातभाग वृद्धि, सख्यातभाग वृद्धि, सख्यातगुण वृद्धि भोर असंख्यातगुण वृद्धि इसप्रकार चार स्थानरूप ही होते हैं।
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मोक्षशास्त्र
रोक्त प्रकारसे उपचारसे यह परिवर्तन लागू होते हैं । नित्यनिगोदको अव्यवहार राशिके ( निश्चय राशिके ) जीव भी कहते हैं ।
१६. मनुष्यभव सफल करनेके लिये विशेष लक्षमें लेने योग्य विषयः -
१. अनादिकाल से लेकर पहिले तो इस जीवको नित्य - निगोदरूप शरीरका संबंध होता था, उस शरीरको आयु पूर्ण होने पर जीव मरकर पुन: पुन: नित्यनिगोद शरीरको ही धारण करता है । इसप्रकार अनंतानंत जीवराशि अनादिकालसे निगोदमें ही जन्म मरण करती है |
२. निगोद में से ६ महिना और श्राठ समयमें ६०८ जीव निकलते हैं । वे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और प्रत्येक वनस्पतिरूप एकेन्द्रिय पर्यायोंमें अथवा दो से चार इंद्रियरूप शरीरोंमें या चार गतिरूप पंचेन्द्रिय शरीरोंमें भ्रमण करते है और फिर पुनः निगोद शरीरको प्राप्त करते हैं, (यह इतर निगोद है) ३. जीवको त्रसमें एक ही साथ रहनेका उत्कृष्ट काल मात्र दो हजार सागर है । जीवको अधिकांश एकेन्द्रिय पर्याय और उसमें भी अधिक समय निगोद में ही रहना होता है वहाँ से निकलकर त्रसशरीरको प्राप्त करना 'काकतालीयन्यायवत्' होता है । समें भी मनुष्यभव पाना तो च.चित् ही होता है ।
४. इसप्रकार जीवकी मुख्य दो स्थितियाँ हैं— निगोद और सिद्ध । बीचका त्रस पर्यायका काल तो बहुत ही थोड़ा और उसमें भी मनुष्यत्वका काल तो अत्यन्त स्वत्पातिस्वल्प है ।
५. ( ग्र) संसार मे जीवको मनुष्यभवमें रहनेका काल सबसे थोडा है । ( व ) नारकीके भवोमें रहनेका काल उससे असंख्यातगुरणा है (क) देवके भवोंमें रहनेका काल उससे (नारकी से ) असंख्यातगुणा है । शोर (ड) - तिर्यंचभवोमे (मुख्यतया निगोदमे) रहनेका काल उससे (देवसे) अनंतगुरणा है |
इससे सिद्ध होता है कि जीव अनादिकालसे मिथ्यात्वदशामे शुभ
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अध्याय २ सूत्र १०-११
२५१ तथा अशुभभाव करता रहता है, उसमें भी जीवने नरकके योग्य तीव्र अशुभभावकी अपेक्षा देवके योग्य शुभभाव असंख्यात गुणे किये हैं। शुभभाव कर के यह जीव अनंत बार स्वर्गमें देव होकर नवमें नैवेयक तक जा चुका है, यह सब पहिले पैरा १० में कहा जा चुका है।
६. नवमे ग्रेवेयकके योग्य शुभभाव करनेवाला जीव गृहीतमिथ्यात्व छोड़ देता है, सच्चे देव, गुरु, शाखको निमित्तरूपसे स्वीकार करता है, पांच महाव्रत, तीन गुप्ति और पांच समिति आदिके उत्कृष्ट शुभभाव अतिचार रहित पालन करता है। इतना करनेपर ही जीवको नवमें ग्रेवेयकमें जानेके योग्य शुभभाव होते हैं । आत्मप्रतीतिके बिना मिथ्याष्टिके योग्य उत्कृष्ट शुभभाव जीवने अनन्त बार किये हैं फिर भी मिथ्यात्व नहीं गया । इसलिये शुभभाव-पुण्य करते करते धर्म-सम्यग्दर्शन हो या मिथ्यात्व दूर हो जाय, यह अशक्य है। इसलिये
७. इस मनुष्य भवमें ही जीवोंको आत्माका सच्चा स्वरूप समझ कर सम्यक्त्व प्राप्त करना चाहिए । 'Strike the iron while it is hot' जबतक लोहा गर्म है तबतक उसे पीट लो-गढ़ लो, इस कहावतके अनुसार इसी मनुष्यभवमें जल्दी आत्मस्वरूपको समझ लो, अन्यथा थोड़े ही समयमे त्रस काल पूरा हो जायगा और एकेन्द्रिय-निगोदपर्याय प्राप्त होगी और उसमें अनंतकाल तक रहना होगा ॥ १० ॥
संसारी जीवोंके भेदसमनस्काऽमनस्काः ॥११॥ अर्थ-संसारी जीव [समनस्काः] मनसहित-सैनी [ अमनस्काः ] मनरहित असैनी, यों दो प्रकारके हैं ।
टीका
१. एकेन्द्रियसे चतुरिन्द्रिय तकके जीव नियमसे असैनी ही होते हैं। पंचेन्द्रियोंमे तिर्यंच सैनी और असैनी दो प्रकारके होते है। शेप मनुष्य देव और नारकी जीव नियमसे सैनी ही होते हैं।
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२५२
मोक्षशास्त्र २. मनवाले सैनीजीव सत्य-असत्यका विवेक कर सकते हैं।
३. मन दो प्रकार के होते हैं-द्रव्यमन और भावमन । पुद्गल द्रव्यके मनोवर्गणा नामक स्कन्धोंसे बना हुआ पाठ पाँखुड़ीवाले फुल्या कमलके आकाररूप मन हृदयस्थानमें है, वह द्रव्यमन है। वह सूक्ष्मपुद्गल स्कन्ध होने से इन्द्रियग्राही नही है। आत्माकी विशेष प्रकारकी विशुद्धि भावमन है; उससे जीव शिक्षा ग्रहण करने, क्रिया ( कृत्य) को समझने, उपदेश तथा आलाप ( Recitation) के योग्य होता है। उसके नामसे बुलाने पर वह निकट आता है।
४. जो हितमें प्रवृत्त होने की अथवा अहितसे दूर रहने की शिक्षा ग्रहण करता है वह सैनी है, और जो हित-अहितकी शिक्षा, क्रिया, उपदेश इत्यादि को ग्रहण नहीं करता वह असैनी है।
५. सैनी जीवोके भावमनके योग्य निमित्तरूप वीर्यान्तराय तथा मन-नो इन्द्रियावरण नामक ज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम स्वयं होता है।
६. द्रव्यमन-जड़ पुल है, वह पुदल विपाकीकर्म-उदयके फलरूप है । जीवकी विचारादि क्रियामें भावमन उपादान है और द्रव्यमन निमित्तमात्र है । भावमनवाले प्राणी मोक्षके उपदेशके लिये योग्य हैं। तीर्थकर भगवान या सम्यग्ज्ञानियोंसे उपदेश सुनकर सैनी मनुष्य सम्यग्दर्शन प्रगट करते हैं, सैनी तिर्यंच भी तीर्थंकर भगवानका उपदेश सुनकर सम्यग्दर्शन प्रगट करते हैं, देव भी तीर्थंकर भगवानका तथा सम्यग्ज्ञानियोंका उपदेश सुनकर सम्यग्दर्शन प्रगट करते हैं नरकके किसी जीवके पूर्वभवके मित्रादि सम्यग्ज्ञानी देव होते हैं वे तीसरे नरक तक जाते है और उनके उपदेशसे तीसरे नरक तकके जीव सम्यग्दर्शन प्रगट करते है।
चौथेसे सातवें नरकतकके जीव पहिलेके सत्समागमके सस्कारोंको याद करके सम्यग्दर्शन प्रगट करते है, वह निसर्गज सम्यग्दर्शन है। पहिले सत्समागमके संस्कार प्राप्त मनुष्य सैनीतिर्यंच और देव भी निसर्गज सम्यग्दर्शन प्रगट कर सकते हैं ॥ ११ ॥
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२५३
अध्याय २ सूत्र १२-१३
संसारी जीवोंके अन्य प्रकार से भेद
संसारिणस्त्रसस्थावराः ॥ १२ ॥
अर्थ - [ संसारिणः ] संसारीजीव [ त्रस ] त्रस और [स्थावराः ] स्थावरके भेदसे दो प्रकारके हैं ।
टीका
१ - जीवोंके यह भेद भी अवस्थादृष्टिसे किये गये हैं ।
२ -- जीवविपाकी त्रस नामकर्मके उदयसे जीव त्रस कहलाता है और जीवविपाको स्थावर नामकर्मके उदयसे जीव स्थावर कहलाता है | त्रसजीवोंके दो से लेकर पांच इन्द्रियाँ तक होती है और स्थावर जीवोंके मात्र एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है । ( यह परिभाषा ठीक नहीं है किजो स्थिर रहता है सो स्थावर है और जो चलता फिरता है सो त्रस है ) ३- दो इन्द्रियसे अयोग केवली गुरणस्थान तकके जीव त्रस हैं, मुक्तजीव त्रस या स्थावर नही हैं क्योंकि यह भेद ससारी जीवोंके है ।
४ - प्रश्न - यह अर्थ क्यों नहीं करते कि- जो डरे - भयभीत हो अथवा हलन चलन करे सो त्रस है और जो स्थिर रहे सो स्थावर है ? उत्तर - यदि हलन चलनकी अपेक्षासे त्रसत्व और स्थिरताकी अपेक्षासे स्थावरत्व हो तो (१) गर्भ में रहनेवाले, अंडे में रहनेवाले, मूर्छित और सोये हुए जीव हलन चलन रहित होनेसे त्रस नही कहलायेंगे, और (२) वायु, अग्नि तथा जल एक स्थानसे दूसरे स्थान पर जाते हुए दिखाई देते हैं तथा भूकंप इत्यादिके समय पृथ्वी कांपती है और वृक्ष भी हिलते है, वृक्षके पत्ते हिलते है इसलिये उनके स्थावरत्व नहीं होनेसे कोई भी जीव स्थावर नहीं माना जायगा, जीव स्थावर नही रहेगा ॥ १२ ॥
रहेगा, और ऐसा और कोई भी
स्थावर जीवोंके भेद पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः ॥ १३ ॥ अर्थ - [ पृथिवी अप् तेजः वायुः वनस्पतयः ] पृथ्वीकायिक, जल
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२५४
मोक्षशास्त्र
कायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक यह पाँच प्रकार के [ स्थावराः ] स्थावर जीव हैं [ इन जीवोंके मात्र एक स्पर्शन इन्द्रिय होती है ]
टीका
१ - आत्मा ज्ञानस्वभाव है किंतु जब उसे अपनी वर्तमान योग्यता के कारण एक स्पर्शनेन्द्रियके द्वारा ज्ञान कर सकने योग्य विकास होता है। तब पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिरूपमें परिगमित रजकरणों ( पुद्गलस्कंधों ) के द्वारा बने हुये जड़ शरीरका संयोग होता है |
२ - पृथिवी, जल, अग्नि और वायुकायिक जीवोंके शरीरका नाप ( अवगाहना ) अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमारण है इसलिये वह दिखाई नहीं देता, हम उसके समूह ( Mass ) को देख सकते हैं । पानीको प्रत्येक बृन्दमें बहुतसे जलकायिक जीवोका समूह है। सूक्ष्मदर्शक यंत्र के द्वारा पानी में जो सूक्ष्म जीव देखे जाते हैं वे जलकायिक नहीं किन्तु त्रसजीव हैं । ३- इन पृथिवी आदिकोके चार चार भेद कहे गये है-
(१) तहाँ अचेतन स्वभाव सिद्ध परिणाम से रचित अपने
कठिनता गुरणसहित, जड़पनासे पृथिवीकायनामा नामकर्म के उदय न होने पर भी प्रथन- ( फैलाव ) आदिसे युक्त है वह पृथिवी है या पृथिवी सामान्य है ।
(२) जिस कायमें से पृथिवीकायिक जीव मरकर निकल गया है सो पृथिवीकाय है ।
(३) जिनने पृथिवी का शरीर धारण किया है वे पृथिवीकायिक जीव हैं |
(४) पृथिवीके शरीरको धारण करनेसे पूर्व विग्रहगतिमें जो जीव है उसे पृथिवीजीव कहते हैं । इसप्रकार जलकायिक इत्यादि अन्य चार स्थावर जीवोके सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिए ।
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अध्याय २ सूत्र १३-१४
२५५ ४-स्थावरजीव उसी भवमें सम्यग्दर्शन प्राप्त करने योग्य नहीं होते क्योंकि संज्ञी पर्याप्तक जीव सम्यग्दर्शन प्राप्त करने योग्य होते हैं।
५-पृथिवीकायिकका शरीर मसूरके दानेके आकारका लंब गोल, जलकायिकका शरीर पानीकी बून्दके आकारका गोल, अग्निकायिकका शरीर सुइयोंके समूहके आकारका और वायुकायिकका शरीर ध्वजाके आकार का लंबा-तिरछा होता है। वनस्पतिकायिक और त्रसजीवोंके शरीर अनेक भिन्न भिन्न आकारके होते हैं। ( गोमट्टसार जीवकांड गाथा २०१ ) ॥ १३ ॥
त्रस जीवोंके भेद द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः ॥१४॥ . अर्थ-[दि इन्द्रिय प्रादयः ] दो इन्द्रिय से लेकर अर्थात् दो इन्द्रिय तीन इन्द्रिय चार इन्द्रिय और पाँच इन्द्रिय जीव [ त्रसाः ] प्रस कहलाते है।
टीका १-एकेन्द्रिय जीव स्थावर है और उनके एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है। उनके स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल, आयु और श्वासोच्छवास यह चार प्राण होते हैं।
२-दो इन्द्रिय जीवके स्पर्शन और रसना यह दो इन्द्रियाँ ही होती है। उनके रसना और वचनबल बढ़नेसे कुल छह प्राण होते है।
३-तीन इन्द्रिय जीवोंके स्पर्शन, रसना और घ्राण यह तीन इन्द्रियाँ ही होती हैं । उनके घ्राण इन्द्रिय अधिक होनेसे कुल सात प्रारण होते हैं।
४-चार इन्द्रिय जीवोंके स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु ये चार इन्द्रियां होती हैं। उनके चक्षु इन्द्रिय अधिक होनेसे कुल आठ प्राण होते हैं।
५-पचेन्द्रिय जीवोके स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र यह पांच इन्द्रिया होती हैं । उनके कर्ण इन्द्रिय अधिक होनेसे कुल ६ प्राण भरी नियोंके होते है । इन पांच इन्द्रियोंका ऊपर जो क्रम बताया है उससे
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२५६
मोक्षशास्त्र
उल्टी सुल्टी इन्द्रियाँ किसी जीवके नहीं होती हैं । जैसे केवल स्पर्शन और चक्षु, यह दो इन्द्रियां किसी जीवके नहीं हो सकती किन्तु यदि दो होगी तो वे स्पर्शन और रसना ही होगी । सैनी जीवोंके मनबल होता है इसलिये उनके दश प्रारण होते हैं ॥ १४ ॥
इन्द्रियोंकी संख्या पंचेन्द्रियाणि ॥ १५ ॥
अर्थ = [ इन्द्रियाणि ] इन्द्रियां [ पंच ] पाँच हैं ।
टीका
Agenda
१ इन्द्रियाँ पाँच हैं । अधिक नही । 'इन्द्र' अर्थात् श्रात्माकी अर्थात् संसारी जीवकी पहिचान करानेवाला जो चिह्न है उसे इन्द्रिय कहते हैं । प्रत्येक द्रव्येन्द्रिय अपने अपने विषयका ज्ञान उत्पन्न होनेमे निमित्त कारण है । कोई एक इन्द्रिय किसी दूसरी इन्द्रियके आधीन नहीं है । भिन्न भिन्न एक एक इन्द्रिय परकी अपेक्षासे रहित है अर्थात् अहमिन्द्रकी भांति प्रत्येक अपने अपने श्राधीन है ऐसा ऐश्वर्य धारण करती हैं ।
प्रश्न- -वचन, हाथ, पैर, गुदा, और लिंगको भी इन्द्रिय क्यों नहीं कहा ?
magpangka
उत्तर - यहाँ उपयोगका प्रकरण है । उपयोगमें स्पर्शादि इंद्रियाँ निमित्त है इसलिये उन्हें इन्द्रिय मानना ठीक है । वचन इत्यादि उपयोगमें निमित्त नही हैं वे मात्र 'जड़' क्रियाके साधन हैं, और यदि क्रियाके कारण होनेसे उन्हे इन्द्रिय कहा जाय तो मस्तक इत्यादि सभी प्रांगोपांग (क्रिया के साधन ) हैं, उन्हें भी इंद्रिय कहना चाहिये । इसलिये यह मानना ठीक है कि जो उपयोगमें निमित्त कारण है वह इंद्रियका लक्षण है ।
२- जड़ इंद्रियाँ इद्रियज्ञानमें निमित्त मात्र है किन्तु ज्ञान उन इंद्रियोंसे नही होता, ज्ञान तो आत्मा स्वयं स्वतः करता है । क्षायोपशमिकज्ञानका स्वरूप ऐसा है कि वह ज्ञान जिस समय जिसप्रकारका उपयोग करनेके योग्य होता है तब उसके योग्य इंद्रियादि वाह्य निमित्त स्वयं स्वतः
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अध्याय २ सूत्र १५-१६-१७
• २५७
उपस्थित होते हैं, निमित्तकी राह नहीं देखनी पडती । ऐसा निमित्त नैमितिक संबंध है । 'इंद्रियां है इसलिये ज्ञान हुआ है' ऐसा अज्ञानी मानता है, किन्तु ज्ञानी यह मानता है कि ज्ञान स्वतः हुआ है और जड़ इन्द्रियां उस समय संयोगरूप ( उपस्थित ) स्वयं होती ही है ।
[ देखो अध्याय १ सूत्र १४ की टीका ] ॥ १५ ॥ इन्द्रियोंके मूल भेद द्विविधानि ॥ १६ ॥
अर्थ- सब इन्द्रियाँ [ द्विविधानि ] द्रव्येन्द्रिय और भाव इद्रियके भेदसे दो दो प्रकारकी है ।
नोट:-- द्रव्येन्द्रिय सम्बन्धी सूत्र १७ व और भावेन्द्रिय सम्बन्धी १५ वाँ है ॥ १६ ॥ द्रव्येन्द्रियका स्वरूप
निवृत्युपरक द्रव्येन्द्रियम् ॥ १७ ॥
अर्थ - [ निर्वृति उपकरणे ] निर्वृति और उपकरणको [द्रव्येन्द्रियम् ] द्रव्येन्द्रिय कहते है ।
टीका
निर्वृति - पुद्गलविपाकी नामकर्मके उदयसे प्रतिनियत स्थान में होनेवाली इन्द्रियरूप पुद्गलकी रचना विशेषको बाह्य निर्वृति कहते हैं, और उत्सेधांगुलके असंख्यातवें भागप्रमारण आत्माके विशुद्ध प्रदेशोंका चक्षु आदि इन्द्रियोके श्राकार जो परिणमन होता है उसे आभ्यन्तर निर्वृति कहते हैं । इसप्रकार निवृतिके दो भेद 1 [देखो अध्याय २ सूत्र ४४ की टीका ] जो आत्मप्रदेश नेत्रादि इन्द्रियाकार होते हैं वह अभ्यन्तर निर्वृति है और उसी श्रात्मप्रदेशके साथ नेत्रादि आकाररूप जो पुद्गल समूह रहते है वह बाह्य निर्वृति हैं, कर्णेन्द्रियके आत्मप्रदेश जवकी नलीके समान और नेत्रेन्द्रियके आत्मप्रदेश मसूरके आकार के होते है मोर पुद्गल इन्द्रियाँ भी उसी प्रकार की होती है ।
३३
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२५८
मोक्षशास्त्र
२. उपकरण-निवृतिका उपकार करनेवाला पुद्गल समूह उपकरण है । उसके वाह्य और अभ्यंतर दो भेद हैं । जैसे नेयमें सफेद और काला मंडल प्राभ्यन्तर उपकरण है और पलक तथा गट्टा इत्यादि वाह्य उपकरण है । उपकरणका अर्थ निमित्तमात्र समझना चाहिये किन्तु यह नही समझना चाहिये कि वह लाभ करता है। [देखो अर्थप्रकाशिका पृष्ठ २०२-२०३] यह दोनो उपकरण जड़ है ॥१७॥
भावेन्द्रिय का स्वरूप लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम् ॥ १८ ॥ अर्थ-[ लब्धि उपयोगी ] लब्धि और उपयोगको [भावेन्द्रियम्] भावेन्द्रिय कहते है।
टीका
१. लब्धि-लब्धिका अर्थ प्राप्ति अथवा लाभ होता है । आत्माके चैतन्यगुणका क्षयोपशम हेतुक विकास लब्धि है । (देखो सूत्र ४५ की टीका)
उपयोग-चैतन्यके व्यापारको उपयोग कहते है । आत्माके चैतन्य गुणका जो क्षयोपशम हेतुक विकास है उसके व्यापारको उपयोग कहते है।
२-आत्मा ज्ञेय पदार्थ के संमुख होकर अपने चैतन्य व्यापारको उस ओर जोड़े सो उपयोग है । उपयोग चैतन्यका परिणमन है। वह किसी अन्य ज्ञेय पदार्थकी ओर लग रहा हो तो, आत्माकी सुनने की शक्ति होने पर भी सुनता नही है । लब्धि और उपयोग दोनोके मिलनेसे ज्ञानको सिद्धि होती है।
३ प्रश्न-उपयोग तो लब्धिरूप भावेन्द्रियका फल ( कार्य ) है, तब फिर उसे भावेन्द्रिय क्यो कहा है ?
उचर-कार्यमें कारणका उपचार करके उपयोगको (उपचारसे) भावेन्द्रिय कहा जाता है। घटाकार परिणमित ज्ञानको घट कहा जाता है, इस न्यायसे लोकमें कार्यको भी कारण माना जाता है । आत्माका लिंग इन्द्रिय ( भावेन्द्रिय ) है, प्रात्मा वह स्व अर्थ है उसमें उपयोग मुख्य है
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अध्याय २ सूत्र १८
२५६ और वह जीवका लक्षण है, इसलिये उपयोगको भावेन्द्रियत्व कहा जा .. सकता है ।
४. उपयोग और लब्धि दोनोंको भावेन्द्रिय इसलिये कहते हैं कि वे द्रव्यपर्याय नही किन्तु गुरणपर्याय हैं, क्षयोपशमहेतुक लब्धि भी एक पर्याय था धर्म है और उपयोग भी एक धर्म है, क्योकि वह आत्माका परिणाम है । वह उपयोग दर्शन और ज्ञानके भेदसे दो प्रकारका है ।
५. धर्म, स्वभाव, भाव, गुरणपर्याय और गुरण शब्द एकार्थं वाचक
हैं ।
६. प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वोंका श्रद्धान करने योग्य ज्ञानकी क्षयोपशमलव्धि तो सभी सैनी पंचेन्द्रिय जीवोंके होती है, किन्तु जो जीव पराश्रयकी रुचि छोड़कर परकी ओरसे झुकाव हटाकर, निज (आत्मा) की ओर उपयोगको लगाते हैं उन्हें आत्मज्ञान (सम्यग्ज्ञान) होता है । और जो जीव पर की ओर ही उपयोग लगाये रहते हैं उन्हे मिथ्याज्ञान होता है, और इससे दुःख ही होता है कल्याण नही होता । इस सूत्र का सिद्धांत
जीवको छद्मस्थदशामे ज्ञानका विकास अर्थात् क्षयोपशमहेतुक लब्धि बहुत कुछ हो तथापि वह सब विकासका उपयोग एक साथ नही कर सकता, क्योकि उसका उपयोग रागमिश्रित है इसलिये रागमें अटक जाता है, इसलिये ज्ञानका लब्धिरूप विकास बहुत कुछ हो फिर भी व्यापार ( उपयोग ) अल्प ही होता है । ज्ञानगुण तो प्रत्येक जीवके परिपूर्ण है, विकारीदशामे उसकी ( ज्ञानगुणकी ) पूर्ण पर्याय प्रगट नही होती, इतना ही नही किन्तु पर्यायमें जितना विकास होता है उतना भी व्यापार एक साथ नही कर सकता । जबतक श्रात्माका आश्रय परकी ओर होता है तबतक उसकी ऐसी दशा होती है । इसलिये जीवको स्व और परका यथार्थ भेदविज्ञान करना चाहिये । भेदविज्ञान होनेपर वह अपने पुरुषार्थ को अपनी ओर लगाया ही करता है, और उससे क्रमशः रागको दूर करके बारहवे गुणस्थानमे सर्वथा राग दूर हो जानेपर वीतरागता प्रगट हो जाती है । तत्पयातु थोड़े ही समयमे पुरुषार्थ बढ़ने पर ज्ञान गुरग जितना परिपूर्ण है उतनी
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मोक्षशास्त्र परिपूर्ण उसकी पर्याय प्रगट होती है । ज्ञानपर्याय पूर्ण प्रगट (विकसित) हो जाने पर ज्ञानके व्यापारको एक ओरसे दूमरी ओर ले जाने की आवश्यकता नही रहती। इसलिये प्रत्येक मुमुक्षुको यथार्थ भेदविज्ञान प्राप्त करना चाहिये; जिसका फल केवलज्ञान है॥ १८ ॥
पाँच इन्द्रियोंके नाम और उनका क्रम स्पर्शनरसनाघ्राणचक्षुःश्रोत्राणि ॥१६॥
अर्थ-[ स्पर्शन ] स्पर्शन [ रसना ] रसना [ घ्राण ] नाक I चक्षुः ] चक्षु और [ श्रोत्र ] कान-यह पाँच इन्द्रियाँ है।
टीका (१) यह इन्द्रियाँ भावेन्द्रिय और द्रव्येन्द्रिय यों दोनों प्रकारकी समझना चाहिये । एकेन्द्रिय जीवके पहिली (स्पर्शन) इन्द्रिय, दो इन्द्रिय जीवके पहिली दो क्रमशः होती हैं। इस अध्यायके चौदहवें सूत्र की टीकामे इस सम्बन्धसे सविवरण कहा गया है।
(२) इन पांच भावेन्द्रियोंमें भावोत्रेन्द्रियको अति लाभदायक माना गया है, क्योंकि उस भावेन्द्रियके बलसे जीव सम्यग्ज्ञानी पुरुषका उपदेश सुनकर और तत्पश्चात् विचार करके यथार्थ निर्णय करके हितकी प्राप्ति और अहितका त्याग कर सकता है । जड़ इन्द्रिय तो सुनने में निमित्त मात्र है।
३. (अ)-श्रोत्रेन्द्रिय (कान) का आकार जवकी बीचकी नालीके समान, (ब)-नेत्रका आकार मसूर जैसा, (क)-नाकका आकार तिलके फूल जैसा, (ड)-रसनाका आकार अर्धचन्द्रमा जैसा और (इ)-स्पर्शनेन्द्रियका आकार शरीराकार होता है,-स्पर्शनेन्द्रिय सारे शरीरमें होती है ।। १६ ॥
इन्द्रियों के विषय स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दास्तदर्थाः ॥२०॥ अर्थ-[ स्पर्शरसगंधवर्णशब्दाः ] स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, (रंग)
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अध्याय २ सूत्र २० और शब्द यह पाँच क्रमशः [तत् अर्थाः] उपरोक्त पाँच इन्द्रियोंके विषय हैं अर्थात् उपरोक्त पाँच इन्द्रियाँ उन उन विषयोंको जानती हैं।
टीका १. जाननेका काम भावेन्द्रियका है, पुद्गल इन्द्रिय निमित्त है। प्रत्येक इन्द्रियका विषय क्या है सो यहां कहा गया है। यह विषय जड़पुद्गल हैं।
२. प्रश्न-यह जीवाधिकार है फिर भी पुद्गलद्रव्यकी बात क्यों ली गई है ?
उचर-जीवको भावेन्द्रियसे होनेवाले उपयोगरूपज्ञानमें ज्ञेय क्या है यह जाननेके लिये कहा है । ज्ञेय निमित्त मात्र है, ज्ञेयसे ज्ञान नही होता किंतु उपयोगरूप भावेन्द्रियसे ज्ञान होता है अर्थात् ज्ञान विषयी है और ज्ञेय विषय, यह बतानेके लिये यह सूत्र कहा है।
३. स्पर्श-आठ प्रकारका है शीत, उष्ण, रूखा, चिकना, कोमल, कठोर, हलका और भारी ।
रस-पांच प्रकारका है खट्टा, मीठा, कडुवा, कषायला, चिरपरा। गंध-दो प्रकारकी हैं सुगन्ध और दुर्गन्ध । वर्ण-पांच प्रकारका है काला, पीला, नीला, लाल और सफेद ।
शब्द-सात प्रकारका है षड्ज, रिषभ, गंधार, मध्यम, पंचम, घेवत, निबाघ ।
इसप्रकार कुल २७ भेद हैं उनके संयोगसे असंख्यात भेद हो जाते हैं।
४-सैनो जीवोके इन्द्रिय द्वारा होनेवाले चैतन्त्र व्यापारमें मन निमित्त रूप होता है।
५-स्पर्श, रस, गंध और शब्द विषयक ज्ञान उस २ विषयोंको जाननेवाली इन्द्रियके साथ उस विषयका संयोग होनेसे ही होता है । आत्मा चक्षुके द्वारा जिस रूपको देखता है उसके योग्य क्षेत्रमे दूर रहकर उसे देख सकता है ॥ २०॥
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मोक्षशास्त्र
मनका विषय
श्रुतमनिन्द्रियस्य ॥ २१ ॥
अर्थ -- [ श्रनिन्द्रियस्य ] मनका विषय [ श्रुतम् ] श्रुतज्ञानगोचर पदार्थ है अथवा, मनका प्रयोजन श्रुतज्ञान है ।
टीका
२६२
१—द्रव्यमन प्राठ पाँखुड़ीवाले खिले हुए कमलके श्राकार है । [ देखो अध्याय २ सूत्र ११ की टीका ]
श्रवरण किये गये पदार्थका विचार करनेमें मन द्वारा जीवकी प्रवृत्ति होती है । कर्णेन्द्रियसे श्रवरण किये गये शब्दका ज्ञान मतिज्ञान है; उस मतिज्ञानपूर्वक किये गये विचारको श्रुतज्ञान कहते हैं । सम्यग्ज्ञानी पुरुषका उपदेश श्रवण करनेमें कर्णेन्द्रिय निमित्त है और उसका विचार करके यथार्थ निर्णय करनेमें मन निमित्त है । हितकी प्राप्ति श्रोर अहितका त्याग मनके द्वारा होता है । ( देखो अध्याय २ सूत्र ११ तथा १६ की टीका ) पहिले राग सहित मनके द्वारा आत्माका व्यवहार सच्चा ज्ञान किया जा सकता है और फिर ( रागको अंशतः प्रभाव करने पर ) मनके अवलम्बनके बिना सम्यग्ज्ञान प्रगट होता है, इसलिये सैनी जीव ही धर्म प्राप्त करनेके योग्य हैं । ( देखो अध्याय २ सूत्र २४ की टीका )
2
२ – मनरहित (असैनी) जीवोंके भी एक प्रकारका श्रुतज्ञान होता है । ( देखो श्रध्याय १ सूत्र ११ तथा ३० की टीका )
उन्हें आत्मज्ञान नही होता इसलिये उनके ज्ञानको 'कुश्रुत' कहा जाता है |
३- श्रुतज्ञान जिस विपयको जानता है उसमें मन निमित है, किसी इन्द्रियके आधीन मन नही है । अर्थात् श्रुतज्ञानमे किसी भी इन्द्रिय का निमित्त नही है ॥२१॥
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२६३
अध्याय २ सूत्र २२-२३
इन्द्रियोंके स्वामी वनस्पत्यन्तानामेकम् ॥ २२॥ अर्थ-[ वनस्पति अंतानां ] वनस्पतिकाय जिसके अंतमें है ऐसे जीवोंके अर्थात् पृथ्वीकायिक जलकायिक अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवोके [एकम् ] एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है।
टीका
इस सूत्र में कथित जीव एक स्पर्शन इन्द्रियके द्वारा ही ज्ञान करते है। इस सूत्रमें इन्द्रियोके 'स्वामी' ऐसा शीर्षक दिया है, उसमें इन्द्रियके दो प्रकार है-जड़ इन्द्रिय और भावेन्द्रिय । जड़ इन्द्रियके साथ जीवका निमित्त-नैमित्तिक संबंध बतानेके लिए व्यवहारसे जीवको स्वामी कहा है, वास्तवमे तो कोई द्रव्य किसी द्रव्यका स्वामी है ही नही। और भावेन्द्रिय उस आत्माकी उस समयकी पर्याय है अर्थात् अशुद्धनयसे उसका स्वामी आत्मा है॥ २२॥ कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादिनामेकैकवृद्धानि॥ २३ ॥
अर्थ-[ कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादिनाम् ] कृमि इत्यादि, चीटी इत्यादि, भ्रमर इत्यादि तथा मनुष्य इत्यादिके [एकैक वृद्धानि] क्रमसे एक एक इन्द्रिय, बढ़ती अधिक अधिक है अर्थात् कृमि इत्यादिके दो, चींटी इत्यादिके तीन, भोंरा इत्यादिके चार और मनुष्य इत्यादिके पाँच इन्द्रियाँ होती हैं।
टीका प्रश्न-यदि कोई मनुष्य जन्मसे ही अंघा और वहरा हो तो उसे तीन इन्द्रिय जीव कहना चाहिये या पचेन्द्रिय ? ।
उत्तर-वह पंचेन्द्रिय जीव ही है, क्योंकि उसके पाँचों इन्द्रियां है किन्तु उपयोगरूप शक्ति न होनेसे वह देख और सुन नही सकता।
नोट:-इसप्रकार ससारी जीवोंके इन्द्रियद्वारका वर्णन हुमा, भव उनके मनद्वारका वर्णन २४ वे सूत्रमें किया जाता है ।। २३ ॥
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मोक्षशास्त्र सैनी किसे कहते हैं ? संज्ञिनः समनस्काः ॥ २४ ॥ अर्थ-[ समनस्काः ] मनसहित जीवोंको [ संज्ञिनः ] सैनी कहते हैं।
टीका सैनी जीव पंचेन्द्रिय ही होते है ( देखो अध्याय २ सूत्र ११ तथा, २१ की टीका ) जीवके हिताहितकी प्रवृत्ति मनके द्वारा होती है। पंचेन्द्रिय जीवोंमें सैनी और असैनी ऐसे दो भेद होते है, सैनी अर्थात् संज्ञी-संज्ञावाला प्राणी समझना चाहिये । 'संज्ञा' के अनेक अर्थ हैं उनमें से यहाँ 'मन' अर्थ लेना चाहिए ॥ २४॥
मनके द्वारा हिताहितकी प्रवृचि होती है किन्तु शरीर के छूट जाने पर विग्रहगतिमें [ नये शरीरकी प्राप्ति के लिये गमन करते हुए जीवको ] मन नहीं है फिर भी उसे कर्मका आश्रय होता है, इसका क्या कारण है ?
विग्रहगतो कर्मयोगः ॥ २५ ॥ अर्थ-[ विग्रहगतौ ] विग्रहगतिमें अर्थात् नये शरीरके लिये गमनमें [ कर्मयोगः ] कार्मणकाययोग होता है ।
टीका (१) विग्रहगति--एक शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरकी प्राप्ति के लिये गमन करना विग्रहगति है । यहाँ विग्रहका अर्थ शरीर है।
कर्मयोग-कर्मोके समूहको कार्मण शरीर कहते है । आत्मप्रदेशोंके परिस्पन्दनको योग कहते हैं इस परिस्पन्दनके समय कार्मण शरीर निमित्तरूप है इसलिये उसे कर्मयोग अथवा कार्मणकाययोग कहते हैं, और इसलिये विग्रहगतिमें भी नये कर्मोका आश्रव होता है। [ देखो सूत्र ४४ की टीका ]
२-मरण होने पर नवीन शरीरको ग्रहण करनेके लिये जीव जब
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अध्याय २ सूत्र २५-२६-२७
२६५ गमन करता है तब मार्गमें एक दो या तीन समय तक अनाहारक रहता है । उस समयमे कार्मरणयोगके कारण पुद्गलकर्मका तथा तैजसवर्गणाका ग्रहण होता है, किन्तु नोकर्म-पुद्गलोंका ग्रहण नही होता ॥ २५ ॥ विग्रहगतिमें जीव और पुद्गलोंका गमन कैसे होता है ?
अनुश्रेणि गतिः ॥२६॥ अर्थ-[ गति ]जीव पुद्गलोका गमन [ अनुश्रेणि ] श्रेणीके अनुसार ही होता है।
टीका १. श्रेणि-लोकके मध्यभागसे ऊपर, नीचे तथा तिर्यक् दिशामें क्रमशः हारबद्ध रचनावाले प्रदेशोंकी पंक्ति ( Line ) को श्रेणि कहते हैं ।
२-विग्रहगतिमें आकाश प्रदेशोकी सीधी पंक्ति पर ही गमन होता है । विदिशामें गमन नहीं होता। जब पुद्गलका शुद्ध परमाणु अति शीघ्र गमन करके एक समयमे १४ राजु गमन करता है तब वह श्रेरिणबद्ध सीधा ही गमन करता है।
३. उपरोक्त श्रेणिकी छह दिशाएं होती हैं (१)-पूर्वसे पश्चिम, (२)-उत्तरसे दक्षिण, (३)-ऊपरसे नीचे, तथा अन्य तीन उससे उल्टेरूप में अर्थात् (४)-पश्चिमसे पूर्व, (५)-दक्षिणसे उत्तर और (६)-नीचेसे ऊपर।
४. प्रश्न-यह जीवाधिकार है, तब फिर इसमें पुद्गलका विषय क्यों लिया गया है ?
उत्तर-जीव और पुद्गलका निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध बतानेके लिये तथा यह बतानेके लिये कि जीव और पुद्गल दोनों अपनी स्वतंत्र योग्यतासे गमन करते है,-पुद्गलका भी विषय लिया गया है ॥ २६ ॥
मुक्त जीवोंकी गति कैसी होती है ? अविग्रहा जीवस्य ॥२७॥
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२६६
मोक्षशास्त्र अर्थ-[ जीवस्य ] मुक्त जीवकी गति [अविनहा ] वक्रता रहित सीधी होती है।
टीका
सूत्रमे 'जीवस्य' शब्द कहा गया है किंतु पिछले सूत्र में संसारी जीव का विषय था इसलिये यहाँ 'जीवस्य' का अर्थ 'मुक्त जीव' होता है।
इस अध्यायके पच्चीसवें सूत्रमें विग्रहका अर्थ 'शरीर' किया था और यहां उसका अर्थ 'वक्रता' किया गया है; विग्रह शब्दके यह दोनों अर्थ होते हैं । पच्चीसवें सूत्र में श्रेणिका विषय नही था इसलिये वहाँ 'वक्रता' अर्थ लागू नहीं होता, किंतु इस सूत्रमें श्रेणिका विषय होनेसे 'अविग्रहा' का अर्थ वक्रता रहित (मोड़ रहित ) होता है ऐसा समझना चाहिये। मुक्त जीव श्रेरिणबद्धगतिसे एक समयमें सीधे सात राजू कार गमन करके सिद्ध क्षेत्रमें जाकर स्थिर होते हैं ॥ २७ ॥
संसारी जीवोंकी गति और उसका समय विग्रहवती च संसारिणः प्राकचतुर्व्यः ॥ २८ ॥
अर्थ-[ संसारिणः ] संसारी जीवकी गति [ चतुर्म्यः प्राक् ] चार समयसे पहिले [ विग्रहवती च ] वक्रता-मोड़ सहित तया रहित होती है।
टीका १-संसारी जीवकी गति मोडासहित और मोड़ारहित होती है। यदि मोड़ारहित होती है तो उसे एक समय लगता है, एक मोड़ा लेना पड़े तो दो समय, दो मोड़ा लेना पड़े तो तीन समय और तीन मोड़ा लेना पड़े तो चार समय लगते है। जोव चौथे समयमे तो कहीं न कही नया शरीर नियमसे धारण कर लेता है, इसलिये विग्रहगतिका समय अधिकसे अधिक चार समय तक होता है। उन गतियोके नाम यह हैं:-१-ऋजुगति (ईषुगति) २-पाणिमुक्तागति, ३-लांगलिकागति और ४-गौमूत्रिकागति ।।
२-एक परमाणुको मंदगतिसे एक आकाशप्रदेशसे उसीके निकट
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अध्याय २ सूत्र २५-२६-३०
२६७ के दूसरे आकाश प्रदेश तक जाने में जो समय लगता है वह एक समय है। यह छोटेसे छोटा काल है।
३-लोकमें ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ जानेमें जीवको तीन से अधिक मोड़ा लेना पड़ते हों।
४-विग्रहगतिमें जीवको चैतन्यका उपयोग नहीं होता । जब जीव की उसप्रकारकी योग्यता नही होती तब द्रव्येन्द्रियाँ भी नही होती। ऐसा निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है । जब जीवको भावइन्द्रियके उपयोगरूप परिणमित होनेकी योग्यता होती है तब द्रव्येन्द्रियाँ अपने कारणसे स्वयं उपस्थित होती हैं। वह यह सिद्ध करता है कि जब जीवकी पात्रता होती है तव उसके अनुसार निमित्त स्वयं उपस्थित होता है, निमित्तके लिये राह नही देखनी पड़ती ॥ २८ ॥
अविग्रहगतिका समय एकसमयाऽविग्रहा ॥ २६ ॥ अर्थ-[ प्रविग्रहा ] मोडरहित गति [ एकसमया ] एक समय मात्र ही होती है, अर्थात् उसमे एक समय ही लगता है।
टीका १-जिस समय जीवका एक शरीरके साथ का संयोग छूटता है उसी समय, यदि जीव अविग्रह गतिके योग्य हो तो दूसरे क्षेत्रमे रहनेवाले अन्य शरीरके योग्य पुदलोके साथ (शरीरके साथ) सम्बन्ध प्रारम्भ होता है । मुक्त जीवोको भी सिद्धगतिमे जानेमे एक ही समय लगता है यह गति सीधी पंक्ति में ही होती है।
२-एक पुलको उत्कृष्ट वेगपूर्वक गति करनेमे चौदह राजू लोक अर्थात् लोकके एक छोरसे दूसरे छोर तक (सीधी पंक्तिमें ऊपर या नीचे) जाने मे एक समय ही लगता है ॥२६॥
विग्रहगतिमें आहारक-अनाहारककी व्यवस्था एक द्वौत्रीन्वानाहारकः ॥ ३०॥
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मोक्षशास्त्र
अर्थ - विग्रहगतिमें [ एकं द्वो वा तीन ] एक दो अथवा तीन समय तक [ श्रनाहारकः ] जीव अनाहारक रहता है ।
टीका
२६८
१. आहार—प्रदारिक, वैक्रियिक, और आहारकशरीर तथा छहपर्याप्ति के योग्य पुद्गल परमाणुत्रों के ग्रहणको आहार कहा जाता है ।
२- उपरोक्त आहारको जीव जब तक ग्रहण नहीं करता तब तक वह अनाहारक कहलाता है । संसारी जीव अविग्रहगति में श्राहारक होता है, परन्तु एक दो या तीन मोड़ावाली गतिमें एक दो या तीन समयतक अनाहारक रहता है, चौथे समय में नियमसे आहारक हो जाता है ।
३ - यह ध्यान में रखना चाहिये कि इस सूत्रमें नोकर्मकी अपेक्षासे अनाहारकत्व कहा है । कर्मग्रहरण तथा तेजस परमाणुओंका ग्रहण तेरहवे गुणस्थानतक होता है । यदि इस कर्म और तैजस परमाणुके ग्रहणको आहारकत्व माना जाय तो वह अयोगी गुणस्थानमें नही होता ।
४- - विग्रहगति से अतिरिक्त समयमें जीव प्रतिसमय नोकर्मरूप आहार ग्रहण करता है ।
५– यहाँ आहार - अनाहार और ग्रहरण शब्दोंका प्रयोग हुआ है, वह मात्र निमित्त नैमित्तिक संबंध बतानेके लिये है । वास्तवमें ( निश्चय ष्ट ) आत्मा के किसी भी समय किसी भी परद्रव्यका ग्रहण या त्याग नही होता, भले ही वह निगोदमे हो या सिद्धमे ॥ ३० ॥
जन्म के भेद
सम्मूर्च्छनगर्भोपपादा जन्म ॥ ३१ ॥
अर्थ – [ सम्मूर्च्छनगर्भ उपपादाः ] सम्मूर्च्छन, गर्भ और उपपाद तीन प्रकारका [ जन्म ] जन्म होता है |
टीका १. जन्म - नवीन शरीरको धारण करना जन्म है । सम्मूर्च्छनजन्म—अपने शरीरके योग्य पुद्गल परमाणुओंके द्वारा,
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अध्याय २ सूत्र ३१-३२
"२६६ माता-पिताके रज और वीर्यके बिना ही शरीरकी रचना होना सो सम्मूर्छन जन्म है।
गर्भजन्म-खीके उदरमें रज और वीर्यके मेलसे जो जन्म [Conception] होता है उसे गर्भजन्म कहते हैं ।
उपपादजन्म-माता पिताके रज और वीर्यके बिना देव और नारकियोके निश्चित स्थान-विशेषमें उत्पन्न होनेको उपपादजन्म कहते हैं। यह उपपादजन्मवाला शरीर वैक्रियिक रजकरणोंका बनता है।
२-समन्ततः+मूर्छन-से संमूर्छन शब्द बनता है। यहाँ समन्ततःका अर्थ चारों ओर अथवा जहां-तहाँसे होता है और मूर्छनका अर्थ शरीरका बन जाना है।
३. जीव अनादि अनंत है, इसलिये उसका जन्म-मरण नहीं होता किन्तु जीवको अनादिकालसे अपने स्वरूपका भ्रम (मिथ्यादर्शन) बना हुआ है इसलिये उसका शरीरके साथ एक क्षेत्रावगाह संबंध होता है, और वह अज्ञानसे शरीरको अपना मानता है । और अनादिकालसे जीवकी यह विपरीत मान्यता चली आ रही है कि मैं शरीरकी हलन-चलन आदि क्रिया कर सकता हूँ, शरीरकी क्रियासे धर्म हो सकता है, शरीरसे मुझे सुख दुःख होते है इत्यादि जबतक यह मिथ्यात्वरूप विकारभाव जीव करता रहता है तब तक जीवका नये नये शरीरोंके साथ सम्बन्ध होता रहता है । उस नये शरीर के संबंध [संयोग] को जन्म कहते हैं और पुराने शरीरके वियोगको मरण कहते हैं । सम्यग्दृष्टि होनेके बाद जब तक चारित्र की पूर्णता नही होती तव तक जीवको नया शरीर प्राप्त होता है। उसमे जीवका कषायभाव निमित्त है ॥ ३१॥
योनियोंके भेद सचित्तशीतसंवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तधोनयः॥३२॥
अर्थ-[ सचित्त शीत संवृताः ] सचित्त, शीत, संवृत [सेतरा] उससे उल्टी तीन-अचित्त, उष्ण, विवृत्त [च एकशः मिश्राः] और क्रमसे
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२७०
मोक्षशास्त्र एक एकको मिली हुई तीन अर्थात् सचित्ताचित्त, शीतोष्ण, और संवृत विवृत [ तत् योनयः ] ये नव जन्मयोनियाँ हैं ।
टीका जीवोके उत्पत्तिस्थानको योनि कहते हैं; योनि आधार है और जन्म आधेय है।
२. सचित्चयोनि-जीव सहित योनिको सचित्त योनि कहते हैं।
संवृत्तयोनि-जो किसीके देखनेमें न आवे ऐसे उत्पत्तिस्थान को संवृत ( ढकी हुई ) योनि कहते हैं।
विवृतयोनि-जो सबके देखनेमें आये ऐसे उत्पत्ति स्थानको विवृत (खुली ) योनि कहते हैं।
१. मनुष्य या अन्य प्राणीके पेटमें जीव ( कृमि इत्यादि ) उत्पन्न होते हैं उनकी सचित्तयोनि है।
२. दीवालमें, मेज, कुर्सी इत्यादिमें जीव उत्पन्न हो जाते हैं, उनकी अचित्तयोनि है।
___ ३. मनुष्यकी पहिनी हुई टोपी इत्यादिमें जीव उत्पन्न हो जाते है उनकी सचित्ताचित्तयोनि है।
४. सर्दी में जीव उत्पन्न होते है उनकी शीतयोनि है । ५-गर्मी में जीव उत्पन्न होते है उनकी उष्ण योनि है । ६-पानीके खड्ड में सूर्यकी गर्मी से पानीके गर्म हो जाने पर जो जीव उत्पन्न हो जाते हैं उनकी शीतोष्णथोनि है । ७-बंद पेटीमें रखे हुए फलोंमें जो जीव उत्पन्न हो जाते है उनकी संवृतयोनि है। -पानीमें जो काई इत्यादि जीव उत्पन्न होते हैं उनकी विवृतयोनि है और 8-थोड़ा भाग खुला हुआ और थोड़ा ढका हुआ हो एसे स्थानमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंकी संवृतविवृतयोनि होती है।
५. गर्भयोनिके प्राकारके तीन भेद हैं-१-शंखावर्त २-कूर्मोन्नत और ३-वंशपत्र । शंखावर्तयोनिमे गर्भ नहीं रहता, कूर्मोन्नतयोनिमें तीर्थंकर चक्रवर्ती, वासुदेव प्रतिवासुदेव और बलभद्र उत्पन्न होते हैं, उनके अतिरिक्त
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अध्याय २ सूत्र ३२-३३-३४
२७१ कोई उत्पन्न नहीं होता । वंशपत्रयोनिमें शेष गर्भजन्मवाले सब जीव उत्पन्न होते है ॥३२॥
गर्भजन्म किसे कहते हैं ? जरायुजाण्डजपोतानां गर्भः ॥३३॥
अर्थ-[जरायुज अंडज पोतानां] जरायुज, अंडज और पोतज इन तीन प्रकारके जीवोंके [ गर्भः ] गर्भजन्म ही होता है अर्थात् उन जीवोंके ही गर्भजन्म होता है।
टीका १. जरायुज-जालीके समान मांस और खूनसे व्याप्त एक प्रकारकी थैलीसे लिपटा हुआ जो जीव जन्म लेता है उसे जरायुज कहते हैं। जैसेगाय, भैस, मनुष्य इत्यादि ।
अंडज-जो जीव अंडोमे जन्म लेते है उनको अंडज कहते है, जैसेचिड़िया, कबूतर, मोर वगैरह पक्षी।
पोतज-उत्पन्न होते समय जिन जीवोके शरीरके ऊपर किसी प्रकारका प्रावरण नही होता उन्हे पोतज कहते है जैसे-सिंह, बाघ, हाथी, हिरण, बन्दर इत्यादि ।
२-असाधारण भाषा और अध्ययनादि जरायुज जीवोंमें ही होता है, चक्रधर, वासुदेवादि, महाप्रमावशाली जीव जरायुज होते हैं, मोक्ष भी जरायुजको प्राप्त होता है ॥ ३३ ॥
उपपादजन्म किसे कहते हैं ? देवनारकाणामुपपादः ॥ ३४॥ अर्थ-[ देवनारकाणां ] देव और नारकी जीवोके [ उपपादः ] उपपाद जन्म ही होता है अर्थात् उपपाद जन्म उन जीवोके ही होता है।
टीका १-देवोके प्रसूतिस्थानमे शुद्ध सुगंधित कोमल सपुटके आकार शय्या होती है उसमे उत्पन्न होकर अंतर्मुहूर्तमे परिपूर्ण जवान हो जाता
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२७२
मोक्षशास्त्र
है, जैसे कोई जीव शय्यासे सोकर जागता है उसीप्रकार आनन्द सहित वह जीव बैठा होता है । यह देवोंका उपपाद जन्म है ।
२ - नारकी जीव बिलोंमें उत्पन्न होते हैं मधुमक्खी के छत्तेकी भाँति अधा मुख किये हुये इत्यादि आकारके विविध मुखवाले उत्पत्तिस्थान हैं उनमें नारकी जीव उत्पन्न होते है और वे उल्टा सिर ऊपर पैर किये हुए अनेक कष्ट कर वेदनानोंसे निकलकर विलाप करते हुए धरती पर गिरते हैं यह नारकीका उपपादजन्म है || ३४ ॥
सम्मूर्च्छन जन्म किसके होता है ? शेषाणां सम्मूर्च्छनम् ॥ ३५ ॥
अर्थ - [ शेषाणां ] गर्भ और उपपाद जन्मवाले जीवोंके अतिरिक्त शेष जीवोंके [सम्मूर्च्छनम् ] सम्मूर्च्छन जन्म ही होता है अर्थात् सम्मूर्च्छन जन्म शेष जीवोके ही होता है ।
टीका
एकेन्द्रियसे असैनी चतुरिन्द्रिय जीवोंके नियमसे समूच्छंन जन्म होता है और असैनी तथा सेनी पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके गर्भ और सम्मूर्च्छन दोनों प्रकारके जन्म होते हैं अर्थात् कुछ गर्भज होते हैं और कुछ सम्मूर्च्छन होते हैं । लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योके भी सम्मूर्च्छनजन्म होता है ॥ ३५ ॥ शरीर के नाम तथा भेद
औदारिकवैक्रियिकाहार कतै जसकार्मणानि शरीराणि ॥ ३६ ॥
अर्थ - [ श्रदारिक- वैक्रियिक श्राहारक तेजस कार्मणाणि ] श्रोदारिक वैक्रियिक, ग्राहारक, तेजस, और कार्मरण [ शरीराणि ] यह पाँच शरीर हैं ।
औदारिक शरीर मनुष्य और तिर्यंचोंका शरीर जो कि सड़ता है गलता है तथा भरता है वह-प्रदारिक शरीर है । यह शरीर स्थूल होता है
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अध्याय २ सूत्र ३६-३७
१२७३ इसलिये उदार कहलाता है, सूक्ष्म निगोदियोका शरीर इन्द्रियोंके द्वारा न तो दिखाई देता है न मुड़ता है और न काटनेसे कटता है, फिर भी वह स्थूल है, क्योंकि दूसरे शरीर उससे क्रमशः सूक्ष्म है [ देखो इसके बादका सूत्र ]
वैक्रियिक शरीर-जिसमें हलके भारी तथा अनेक प्रकारके रूप वनानेकी शक्ति हो उसे वैक्रियिक शरीर कहते है वह देव और नारकियोंके ही होता है।
नोट-यह बात ध्यान रखना चाहिये कि प्रौदारिक शरीरवाले जीव के ऋद्धिके कारण जो विक्रिया होती है वह औदारिक शरीरका ही प्रकार है।
आहारकशरीर-सूक्ष्म पदार्थोके निर्णयके लिये अथवा सयमकी रक्षा इत्यादिके लिये छठवें गुणस्थानवर्ती मुनिके मस्तकसे जो एक हाथका पुत्तला निकलता है, उसे आहारक शरीर कहते हैं । ( तत्त्वोमै कोई शका होने पर केवली अथवा श्रु तकेवलीके पास जानेके लिए ऐसे मुनिके मस्तकसे एक हाथका पुतला निकलता है उसे आहारक शरीर कहते हैं।)
तैजस शरीर-~औदारिक, वैक्रियिक और आहारक इन तीन शरीरोको कान्ति देनेवाले तेजस वगंणासे बने हुए शरीरको तैजस शरीर कहते हैं।
कार्मण शरीर-ज्ञानावरणादि आठ कर्मोके समूहको कार्मण शरीर कहते है। नोट-पहिले तीन शरार माहार वर्गणा से बनते हैं।
शरीरोंकी सूक्ष्मताका वर्णन
परं परं सूक्ष्मम् ॥ ३७॥ अर्थ-पहिले कहे हुए शरीरोकी अपेक्षा [परं परं] आगे आगेके शरीर [ सूक्ष्मम् ] सूक्ष्म सूक्ष्म होते हैं अर्थात् औदारिककी अपेक्षा वैक्रियिक सूक्ष्म, वैक्रियिककी अपेक्षा आहारक सूक्ष्म, आहारककी अपेक्षा तेजस सूक्ष्म और तंजसकी अपेक्षासे कार्मण शरीर सूक्ष्म होता है ॥ ३७॥ पहिले पहिले शरीरकी अपेक्षा आगेके शरीरोंके प्रदेश थोड़े होंगे
ऐसी विरुद्ध मान्यता दूर करने के लिये सूत्र कहते हैं ।
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२७४
मोक्षशास्त्र
प्रदेशतोऽसंख्येयगुणं प्राक्तैजसात् ॥ ३८ ॥
अर्थ- [ प्रदेशतः ] प्रदेशोंकी अपेक्षासे [ तैजसात् प्राक् ] तैजस शरीरसे पहिलेके शरीर [ असंख्येयगुणं ] असंख्यात्गुरो हैं। टीका
प्रौदारिक शरीरके प्रदेशोंकी अपेक्षा असंख्यातगुणे प्रदेश, वैक्रियिक शरीरके है, और वैक्रियिक शरीरको अपेक्षा, असंख्यातगुणे प्रदेश आहारक शरीरके हैं ॥ ३८ ॥
अनन्तगुणे परे ॥ ३६ ॥
अर्थ - [ परे ] शेष दो शरीर [ अनन्तगुणे ] अनन्तगुणे परमाणु ( प्रदेश ) वाले हैं अर्थात् श्राहारक शरीरकी अपेक्षा अनन्तगुणे प्रदेश तैजस शरीरमें होते है और तेजस शरीर की अपेक्षा अनन्तगुणे प्रदेश कार्मरण शरीर में होते हैं ।
टीका
आगे आगेके शरीरोंमें प्रदेशोंकी संख्या अधिक होने पर भी उनका मिलाप लोहे के पिंडके समान सघन होता है इसलिये वे अल्परूप होते हैं । यहाँ प्रदेश कहनेका अर्थ परमाणु समझना चाहिये ॥ ३६ ॥ तेजस और कार्मणशरीरको विशेषता प्रतिघाते ॥ ४० ॥
अर्थ- तेजस और कारण ये दोनों शरीर [ प्रप्रतिघाते ] अप्रतिघात अर्थात् वाधा रहित हैं ।
टीका
ये दोनों शरीर लोकके अन्त तक हर जगह जा सकते हैं और चाहे जसि निकल सकते हैं । वैक्रियिक और ग्राहारक शरीर हर किसी में प्रवेश कर सकता है, परन्तु वैकिमि शरीर सनाली तक ही गमन कर सकता है । आहारक शरीरका गमन अधिक से अधिक बढ़ाई द्वीप पर्यंत जहाँ केवलो वोर केवल होने हैं वहाँ तक होता है। मनुष्यका वैकिलिक गरी
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अध्याय २ सूत्र ४०-४१
२७५ मनुष्यलोक ( अढाई द्वीप ) तक जाता है उससे अधिक नहीं जा सकता ।। ४० ॥
तैजस और कार्मण शरीरकी अन्य विशेषता
अनादिसम्बन्धे च ॥४१॥ अर्थ-[च ] और यह दोनों शरीर [ अनादिसम्बन्धे ] आत्माके साथ अनादिकालसे सम्बन्धवाले हैं।
टीका १. यह कथन सामान्य तैजस और कार्मणशरीरकी अपेक्षासे है। विशेष अपेक्षासे इसप्रकारके पहिले पहिले शरीरोंका सम्बन्ध छूटकर नये नये शरीरोके सम्बन्ध होता रहता है, अर्थात् अयोगी गुणस्थानसे पहिलेप्रति समय जीव इस तैजस और कार्मण शरीरके नये नये रजकणोको ग्रहण करता है और पुरानेको छोड़ता है। ( १४ वा गुणस्थानके अन्तिम समय इन दोनों का अभाव हो जाता है उसी समय जीव सीधी श्रेणीसे सिद्धस्थानमें पहुँच जाता है ) सूत्रमे 'च' शब्द दिया है उससे यह अर्थ निकलता है।
२. जीवके इन शरीरोंका संबंध प्रवाहरूपसे अनादि नही है परन्तु नया (सादि ) है ऐसा मानना गलत है, क्योकि जो ऐसा होता तो पहिले जीव अशरीरी था अर्थात् शुद्ध था और पीछे वह अशुद्ध हुआ ऐसा सिद्ध होगा; परन्तु शुद्ध जीवके अनन्त पुरुषार्थ होनेसे उसके अशुद्धता आ नही सकती और जहाँ अशुद्धता नहीं होती है वहाँ ये शरीर हो ही नही सकते । इसप्रकार जीवके इन शरीरोका सम्बन्ध सामान्य अपेक्षासे (-प्रवाहरूपसे) अनादिसे है। और यदि इन तैजस और कार्मण शरीरोंका सम्बन्ध अनादिसे प्रवाहरूप नही मानकर वहीका वही अनादिसे जीवसे सम्बन्धित है ऐसा माना जाय तो उनका सम्बन्ध अनन्तकाल तक रहेगा और तब जीवके विकार न करने पर भी उसे मोक्ष कभी भी नहीं होगा। अवस्थादृष्टिसे जीव अनादिकालसे अशुद्ध है ऐसा इस सूत्रसे सिद्ध होता है। ( देखो इसके बादके सूत्रकी टीका )
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२७६
मोक्षशास्त्र
ये शरीर अनादिकालसे सब जीवोंके होते हैं सर्वस्य ॥ ४२ ॥
अर्थ-ये तैजस और कार्मण शरीर [ सर्वस्य ] सब संसारी जीवोंके होते हैं ।
टीका
जिन जीवोंके इन शरीरोंका सम्बन्ध नहीं होता है उनके संसारी श्रवस्था नहीं होती है सिद्ध अवस्था होती है । यह बात ध्यानमें रखना चाहिए कि- किसी भी जीवके वास्तवमें ( परमार्थसे ) शरीर होता नहीं है । यदि जीवके वास्तव शरीर माना जाय तो जीव जड़ शरीररूप हो जायगा; परन्तु ऐसा होता नही है । जीव और शरीर दोनों एक आकाशक्षेत्र में ( एक क्षेत्रावगाह सम्बन्धरूप ) रहते हैं इसलिये अज्ञानी जीव शरीरको अपना मानते हैं; अवस्था दृष्टिसे जीव श्रनादिकालसे अज्ञानी है इसलिये 'अज्ञानी के इस प्रतिभास' को व्यवहार बतलाकर उसे 'जीवका शरीर' कहा जाता है ।
इसप्रकार जीवके विकारीभावका और इस शरीरका निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध बताया है, किन्तु जीव और शरीर एक द्रव्यरूप, एक क्षेत्ररूप, एक पर्यायरूप या एक भावरूप हो जाते हैं - यह बतानेका शास्त्रोंका हेतु नहीं है; इसलिये आगे सूत्रमे 'सम्बन्ध' शब्दका प्रयोग किया है, यदि इसप्रकार ( - व्यवहार कथनानुसार ) जीव और शरीर एकरूप हो जाँय तो दोनों द्रव्योंका सर्वथा नाश हो जायगा ॥ ४२ ॥
एक जीवके एक साथ कितने शरीरोंका सम्बन्ध होता है ? तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः ॥४३॥
अर्थ - [ तदादीनि ] उन तेजस और कार्मरण शरीरोंसे प्रारम्भ -करके -[ युगपत् ] एक साथ [ एकस्मिन् ] एक जीवके [ श्राचतुर्भ्यः ] चार शरीर तक [भाज्यानि ] विभक्त करना चाहिये अर्थात् जानना चाहिये ।
टीका
जीवके यदि दो शरीर हो तो तैजस और कार्मण, तीन हो तो
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अध्याय २-सूत्र ४३.४४
२७७ तेजस, कार्मण और गोदारिक अथवा तैजस कार्मण और वैक्रियिक, चार हो तो तेजस, कार्मण औदारिक और आहारक, अथवा तैजस कार्मण औदारिक और (लब्धिवाले जीवके ) वैक्रियिक शरीर होते हैं। इसमे (लब्धिवाले जीवके) औदारिकके साथ जो वैक्रियिक शरीर होना बतलाया है वह शरीर औदारिक की जातिका है, देवके वैक्रियिक शरीरके रजकरणो की जातिका नही ॥४३॥ (देखो सूत्र ३६ तथा ४७ की टीका)
कार्मण शरीर की विशेषता निरुपभोगमन्त्यम् ॥४४॥ अर्थ-[ अन्त्यम् ] अंतका कार्मण शरीर [ निरुपभोगम् ] उपभोग रहित होता है।
टीका १. उपभोग-इन्द्रियोंके द्वारा शब्दादिकके ग्रहण करना (-जानना ) सो उपभोग है।
२. विग्रहगतिमे जीवके भावेन्द्रियां होती हैं (देखो सूत्र १८) वहाँ जड़ इन्द्रियोंको रचनाका अभाव है [ देखो सूत्र १७ ] उस स्थितिमे शब्द, रूप, रस, गंध या स्पर्शका अनुभव (-ज्ञान ) नही होता, इसलिये कार्मण शरीरको निरुपभोग ही कहा है।
प्रश्न-तैजस शरीर भी निरुपभोग ही है तथापि उसे यहाँ क्यो नहीं गिना है ?
उत्तर-तैजसशरीर तो किसी योगका भी कारण नहीं है इसलिये निरुपभोगके प्रकरणमे उसे स्थान नही है। विग्रहगतिमें कार्मण शरीर कार्मण योगका कारण है (देखो सूत्र २५) इसलिये वह उपभोगके योग्य है या नही~यह प्रश्न उठ सकता है । उसका निराकरण करनेके लिये यह सूत्र कहा है । तैजसशरीर उपभोगके योग्य है या नही यह प्रभ ही नही उठ सकता, क्योकि वह तो निरुपभोग ही है, इसलिये यहाँ उसे नही लिया गया है।
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२७८
मोक्षशास्त्र ४. जीवकी अपनी पात्रता-योग्यता (-उपादान) के अनुसार बाह्य निमित्त संयोगरूप ( उपस्थितरूप ) होते हैं, और जव अपनी पात्रता नहीं. होती तब वे उपस्थित नहीं होते, यह बात इस सूत्रमें बतलाई गई है। जब जीव शब्दादिकका ज्ञान करने योग्य नहीं होता तब जड़ शरीररूप इन्द्रियाँ उपस्थित नही होती, और जब जीव वह ज्ञान करने योग्य होता है तब जड़ शरीररूप इन्द्रियाँ स्वयं उपस्थित होती है ऐसा समझना चाहिये।
५. पच्चीसवाँ सूत्र और यह सूत्र बतलाता है कि-परवस्तु जीवको विकारभाव नही कराती, क्योंकि विग्रहगतिमे स्थूल शरीर, खी, पुत्र इत्यादि कोई नहीं होते, द्रव्यकर्म जड़ हैं उनके ज्ञान नही होता, और व अपना-स्वक्षेत्र छोड़कर जीवके क्षेत्र में नहीं जा सकते इसलिये वे कर्म जीव में विकारभाव नहीं करा सकते । जब जीव अपने दोषसे अज्ञानदशामें प्रतिक्षण नया विकारभाव किया करता है तब जो कर्म अलग होते है उनपर उदयका आरोप होता है, और जीव जब विकारभाव नहीं करता तब पृथक् होनेवाले कर्मोपर निर्जरा का आरोप होता है अर्थात् उसे 'निर्जरा' नाम दिया जाता है । ४४ ॥
औदारिक शरीर का लक्षण गर्भसम्मूच्र्छनजमाद्यम् ॥ ४५ ॥ अर्थ- [ गर्भ ] गर्भ [ सम्मूर्च्छनजम् ] और सम्मूर्च्छन जन्मसे उत्पन्न होनेवाला शरीर [ प्राधं ] पहिला-प्रौदारिक शरीर कहलाता
टीका प्रश्न-शरीर तो जड़ पुद्गल द्रव्य है और यह जीवका अधिकार है फिर भी उसमें यह विषय क्यों लिया गया है ?
उत्तर-जीवके भिन्न भिन्न प्रकारके विकारीभाव होते हैं तब उसका किस किस प्रकारके शरीरोंके साथ एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध होता है, यह बतानेके लिये शरीरोका विषय यहाँ ( इस सूत्रमें तथा इस अध्याय के अन्य कई सूत्रोमें ) लिया गया है ॥ ४५ ॥
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अध्याय २ सूत्र ४६-४७-४८
वैक्रियिक शरीरका लक्षण औपपादिकं वैक्रियिकम् ॥४६॥ अर्थ-[प्रौपपादिकम्] उपपाद जन्मवाले अर्थात् देव और नारकियोंके शरीर [वैक्रियिकं ] वैक्रियिक होते हैं। ___ नोट-उपपाद जन्मका विषय ३४ वे सूत्र में और क्रियिक शरीरका विषय ३६ वें सूत्रमें आ चुका है, उन सूत्रोको और उनकी टीकाको यहाँ भी पढ लेना चाहिए । देव और नारकियोंके अतिरिक्त दूसरोंके वैक्नियिक शरीर
होता है या नहीं ?
लब्धिप्रत्ययं च ॥४७॥ अर्थ-वैक्रियिकशरीर [लब्धिप्रत्ययं च] लब्धिनैमित्तिक भी होता है। ...
टीका . वैक्रियिक शरीरके उत्पन्न होनेमें ऋद्धिका निमित्त है, सावुको तपको विशेषतासे प्राप्त होनेवाली ऋद्धिको 'लब्धि' कहा जाता है । प्रत्ययका अर्थ निमित्त है । किसी तिर्यंचको भी विक्रिया होती है । विक्रिया शुभभावका फल है, धर्मका नही । धर्मका फल तो शुद्ध असगभाव है और शुभभावका फल बाह्य संयोग है । मनुष्य तथा तियंचोका वैक्रियिक शरीर देव तथा नारकियोंके शरीरसे भिन्न जातिका होता है, वह औदारिक शरीरका ही एक प्रकार है॥४७॥ [देखो सूत्र ३६ तथा ४३ की टीका ] क्रियिकके अतिरिक्त किसी अन्य शरीरको भी लब्धिका निमित्त है ?
तैजसमपि ॥४८॥ अर्थ-[ तैजसम् ] तेजसशरीर [ अपि ] भी लब्धिनिमित्तक है।
टीका . " १-तेजसशरीरके दो भेद हैं-अनिःसरण और निःसरण । अनि:सरण सर्व संसारी जीवोके शरीरकी दीप्तिका कारण है, वह लब्धिप्रत्यय -नही है । उसका स्वरूप सूत्र ३६ की टीकामे पा चुका है।
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मोक्षशास्त्र २-नि:सरण-तैजस शुभ और अशुभके भेदसे दो प्रकारका है। यदि किसी क्षेत्रमें रोग, अकाल आदि पड़े तो उससे लोगोंको दुःखी देखकर तपस्याके धारी मुनिके अत्यन्त करुणा उत्पन्न हो जाय तो उनके दाहिने कधेमें से एक तेजसपिंड निकलकर १२ योजन तक जीवोंका दुःख मिटाकर मूलशरीरमें प्रवेश करता है उसे निःसरणशुभतैजसशरीर कहते है। और किसी क्षेत्रमे मुनि अत्यन्त क्रोधित हो जाय तो ऋद्धिके प्रभावसे उनके बायें कंधेसे सिंदूरके समान लाल अग्निरूप कान्तिवाला बिलावके आकार एक शरीर निकलकर (वह शरीर बढ़कर १२ योजन लंबा और ६ योजन विस्तारवाला होकर ) १२ योजन तकके सब जीवोंके शरीरको तथा अन्य पुदलो को जलाकर भस्म करके मूलशरीरमें प्रवेश करके उस मुनिको भी भस्म' कर देता है, ( वह मुनि नरक को प्राप्त होता है । ) उसे निःसरणअशुभतैजसशरीर कहते है ॥ ४८ ॥
आहारक शरीरका स्वामी तथा उसका लक्षण शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव ॥४॥
अर्थ-[ आहारकं ] आहारक शरीर [ शुभम् ] शुभ है अर्थात् यह शुभ कार्य करता है [ विशुद्धम् ] विशुद्ध है अर्थात् वह विशुद्धकर्म (मंद कषाय से बंधनेवाले कर्म ) का कार्य है। [च अव्याघाति ] और व्याघात-बाधारहित है तथा [प्रमत्तसंयतस्यैव ] प्रमत्तसयत (छठवे गुरणस्थानवर्ती ) मुनिके ही वह शरीर होता है ।
टीका १-यह शरीर चन्द्रकान्तमणिके समान सफेद रंगका एक हाथ प्रमाणका पुरुषाकार होता है, वह पर्वत वज्र इत्यादिसे नही रुकता इसलिये अव्याधाति है । यह शरीर प्रमत्तसयमी मुनिके मस्तकमे से निकलता है, प्रमत्तसंयत गुणस्थानमे हो यह शरीर होता है अन्यत्र नही होता; और यह शरीर सभी प्रमत्तसंयत मुनियोके भी नहीं होता।
२-यह आहारकशरीर ( १ ) कदाचित् लब्धि विशेषके सद्भाव जाननेके लिये, (२) कदाचित् सूक्ष्मपदार्थके निर्णयके लिये तथा (३) कदाचित् तीर्थगमनके या संयमकी रक्षाके निमित्त उसका प्रयोजन है, केवली
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अध्याय २ सूत्र ४६
२०१ भगवान् अथवा श्रुतकेवली भगवान्के पास जाते ही स्वयं निर्णय करके अंतर्मुहर्त में वापिस आकर सयमो मुनिके शरीरमें प्रवेश करता है।
३-जिससमय भरत-ऐरावत क्षेत्रोमें तीर्थंकर भगवान्की, केवली की, या श्रुतकेवलोकी उपस्थिति नही होती और उनके बिना मुनिका समाधान नही हो पाता तब महाविदेह क्षेत्रमें जहाँ तीर्थंकर भगवान इत्यादि विराजमान होते है वहाँ उन (भरत या ऐरावत क्षेत्रके) मुनिका आहारक शरीर जाता है और भरत-ऐरावत क्षेत्रमें तीर्थंकरादि होते हैं तब वह निकट के क्षेत्र में जाता है । महा विदेहमें तीर्थंकर त्रिकाल होते हैं इसलिये वहाँके मुनिके ऐसा प्रसंग आये तो उनका आहारक शरीर उस क्षेत्रके तीर्थंकरादिके पास जाता है।
४-(१) देव अनेक वैक्रियिक शरीर कर सकते हैं, मूलशरीर सहित देव स्वर्गलोकमें विद्यमान रहते है और विक्रियाके द्वारा अनेक शरीर करके दूसरे क्षेत्रमें जाते हैं जैसे कोई सामर्थ्यका धारक देव अपना एक हजार रूप किये परन्तु उन हजारों शरीरोंमे उस देवकी आत्माके प्रदेश होते है। मूल वैक्रियिक शरीर जघन्य दश हजार वर्ष तक रहता है अर्थात् अधिक जितनी आयु होती है उतने समय तक रहता है। उत्तर वैक्रियिक शरीरका काल जघन्य तथा उत्कृष्ट अंतर्मुहुर्त ही है। तीर्थकर भगवानके जन्मके समय और नंदीश्वरादिके जिनमदिरोंकी पूजाके लिये देव' जाते हैं तब बारंबार विक्रिया करते हैं।
(२) प्रमत्तसंयत मुनिका आहारक शरीर दूरक्षेत्र-विदेहादिमेजाता है। (३) तेजसशरीर १२ योजन ( ४८ कोस ) तक जाता है ।
(४) आत्मा अखंड है उसके खण्ड नहीं होते। प्रात्माके असंख्यात प्रदेश हैं वे कार्मण शरीरके साथ निकलते हैं मूलशरीर ज्योका त्यो वना रहता है, और उसमें भी प्रत्येक स्थलमें प्रात्माके प्रदेश अखण्ड रहते हैं ।
(५)-जैसे अन्नको प्राण कहना उपचार है उसीप्रकार इस सूत्रमे .माहारक शरीरको उपचारसे ही 'शुभ' कहा है। दोनों स्थानोमे कारण,
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मोक्षशास्त्र कार्य का उपचार (व्यवहार) किया गया है । जैसे अन्नका फल प्राण है उसीप्रकार शुभका फल आहारक शरीर है, इसलिये यह उपचार है ॥४६॥
लिंग अर्थात् वैदके स्वामी नारकसम्मूछिनो नपुंसकानि ॥ ५० ॥
अर्थ-[ नारकसम्मूच्छिनो ] नारकी और सम्मूर्छन जन्मवाले [ नपुंसकानि ] नपुंसक होते है ।
टीका १-लिंग अर्थात् वेद दो प्रकारके हैं-(१) द्रव्यलिंग-पुरुष स्त्री या नपुसकत्व बतानेवाला शरीरका चिह्न और (२) भावलिङ्ग-स्त्री, पुरुष अथवा स्त्री पुरुष दोनोंके भोगनेकी अभिलाषारूप आत्माके विकारी परिणाम । नारकी और सम्मूर्छन जीवोंके द्रव्यलिंग और भावलिंग दोनों नपुंसक होते हैं।
२-नारकी और सम्मूर्छन जीव नपुंसक ही होते हैं, क्योंकि उन जीवोंके स्त्री-पुरुष संबंधी मनोग्य शब्दका सुनना, मनोग्यगंधका सूचना, मनोग्यरूपका देखना, मनोग्यरसका चखना, या मनोग्यस्पर्शका स्पर्शन करना इत्यादि कुछ नही होता इसलिये थोड़ासा कल्पित सुख भी उन जीवोंके नहीं होता, अतः निश्चय किया जाता है कि वे जीव नपुसक ही हैं ॥ ५० ॥
देवोंके लिंग
न देवाः ॥ ५.१ ॥ अर्थ-[ देवाः ] देव [ न ] नपुंसक नही होते अर्थात् देवोंके पुरुपलिंग और देवियोंके स्त्रीलिंग होता है।
टीका १-देवगतिमे द्रव्यलिंग तथा भावलिग एकसे होते हैं। २-भोगभूमि म्लेच्छखण्डके मनुष्य स्त्रीवेद और पुरुपवेद दोनोंको धारण करते हैं, वहाँ नपुंसक उत्पन्न नहीं होते ॥ ५१ ॥
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अध्याय २ सूत्र ५२-५३
अन्य कितने लिंगवाले हैं ? शेषास्त्रिवेदाः || ५२ ॥
अर्थ - [ शेषाः ] शेषके गर्भज मनुष्य और तिथंच [ त्रिवेदा: ] तीनों वेदवाले होते है ।
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टीका
भाववेदके भी तीन प्रकार है- (१) पुरुषवेदकी कामाग्नि तृणकी अग्निके समान जल्दी शांत हो जाती है, (२) स्त्रीवेदकी कामाग्नि अंगारके समान गुप्त और कुछ समयके बाद शांत होती है, ओर (३) नपुंसकवेदकी कामाग्नि इंटकी नागके समान बहुत समयतक बनी रहती है ॥५२॥ किनकी आयु अपवर्तन (-अकालमृत्यु ) रहित है ? औपपादिकचरमोत्तम देहाऽसंख्येयवर्षायुषो ऽनपव
त्यायुषः ॥ ५३ ॥
अर्थ - [ प्रोपपादिक ] उपपाद जन्मवाले देव और नारकी, [ चरम उत्तम देहाः ] चरम उत्तम देहवाले अर्थात् उसी भवमे मोक्ष जाने वाले तथा [ श्रसंख्येयवर्ष श्रायुषः ] असख्यात वर्ष आयुवाले भोगभूमिके जीवोंकी [ प्रायुषः अनपर्वात ] आयु अपवर्तन रहित होती है ।
टीका
१-आठ कर्मों में आयुनामका एक कर्म है । भोग्यमान (भोगी जानेवाली) आयु कर्मके रजकरण दो प्रकारके होते हैं-सोपक्रम और निरुपक्रम । उनमेसे श्रायुके प्रमाण मे प्रतिसमय समान निषेक निर्जरित होते हैं, उस प्रकारका आयु निरुपक्रम अर्थात् अपवर्तन रहित है; और जिस आयुकर्मके भोगने पहिले तो समय समयमें समान निषेक निर्जरित होते हैं परन्तु उसके प्रतिमभागमें बहुतसे निषेक एकसाथ निर्जरित हो जाये उसी प्रकारकी आयु सोपक्रम कहलाती है । आयुकर्मके बधमें ऐसी विचित्रता है कि जिसके निरुपक्रम आयुका उदय हो उसके समय समय समान निर्जरा होती है इस
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मोक्षशास्त्र
लिये वह उदय कहलाता है, और सोपक्रम आयुवालेके पहिले अमुक समय तो उपरोक्त प्रकारसे ही निर्जरा होती है तब उसे उदय कहते हैं, परन्तु अन्तिम अंतमुहूर्तमें सभी निषेक एक साथ निर्जरित हो जाते हैं इसलिये उसे उदीरणा कहते हैं वास्तवमें किसी को आयु बढ़ती या घटती नही है परन्तु निरुपक्रम आयुका सोपक्रम आयुसे भेद बतानेके लिये सोपक्रम आयुवाले जीवकी 'अकाल मृत्यु हुई ऐसा व्यवहारसे कहा जाता है।
२-उत्तम अर्थात् उत्कृष्ट; चरमदेह उत्कृष्ट होती है, क्योंकि जो जो जीव केवलज्ञान पाते हैं उनका शरीर केवलज्ञान प्रगट होने पर परमौदारिक हो जाता है । जिस शरीरसे जीवको केवलज्ञान प्राप्त नही होता वह शरीर चरम नहीं होता, और परमौदारिक भी नहीं होता। मोक्ष प्राप्त करनेवाले जीवका शरीरके साथ निमित्त-नैमित्तिक संबंध केवलज्ञान प्राप्त होने पर कैसा होता है यह बतानेके लिये इस सूत्रमें चरम और उत्तमा, ऐसे दो विशेषण दिये गये हैं, जब केवलज्ञान प्रगट होता है तब उस शरीर को 'चरम' संज्ञा प्राप्त होती है, और वह परमौदारिकरूप हो जाता है इसलिये उसे 'उत्तम' संज्ञा प्राप्त होती है; परन्तु वज्रवृषभनाराचसंहनन तथा समचतुरस्रसंस्थानके कारण शरीरको 'उत्तम' संज्ञा नहीं दी जाती।
३-सोपक्रम-कदलीघात अर्थात् वर्तमानके लिये अपवर्तन होनेवाली आयुवालेके बाह्यमें विष, वेदना, रक्तक्षय, भय, शस्त्राघात, श्वासावरोध, अग्नि, जल, सर्प, अजीर्णभोजन, वजूपात, शूली, हिंसकजीव, तीनभूख या प्यास प्रादि कोई निमित्त होते हैं । ( कदलीघातके अर्थके लिये देखो अ०४ सूत्र २६ की टीका )
४-कुछ अंतःकृत केवली ऐसे होते हैं कि जिनका शरीर उपसर्गसे विदीर्ण हो जाता है परन्तु उनकी प्रायु अपवर्तनरहित है। चरमदेहधारी, गुरुदत्त, पांडव इत्यादिको उपसर्ग हुआ था परन्तु उनको आयु अपवर्तनरहित थी।
५-'उत्तम' शब्दका अर्थ त्रेसठ शलाका पुरुष, अथवा कामदेवादि ऋद्धियुक्त पुरुष ऐसा करना ठीक नहीं है । क्योंकि सुभौमचक्रवर्ती- अंतिम
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अध्याय २ उपसंहार ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती तथा अन्तिम अर्धचक्रवर्ती वासुदेव आयुके अपवर्तन होने पर मरणको प्राप्त हुये थे।
६-भरत और बाहुबलि तद्भवमोक्षगामी जीव हुये हैं, इसलिये परस्परमें लड़ने पर भी उनकी आयु बिगड़ सकती नहीं-ऐसा कहा है वह बताता है कि 'उत्तम' शब्दका तद्भवमोक्षगामो जीवोंके लिये ही प्रयोग किया गया है। . ७–सभी सकलचक्रवर्ती और अर्धचक्रवर्ती, अनपवर्तन आयुवाले होते हैं ऐसा नियम नही है।
८-सर्वार्थसिद्धि टीकामें श्री पूज्यपाद आचार्य देवने' 'उत्तम' शब्दका अर्थ किया है। इसलिये मूल सूत्र में वह शब्द है यह सिद्ध होता है। श्री अमृतचन्द्राचार्य देवने तत्त्वार्थसारके दूसरे अध्यायकी १३५ वीं गाथामें उत्तम शब्दका प्रयोग किया है, वह गाथा निम्नप्रकार है
असंख्येय समायुक्ताश्चरमोचममूर्तयः देवाश्च नारकाश्चैषाम् अपमृत्युन विद्यते ॥१३शा
उपसंहार (१) इस अध्यायमें जीवतत्वका निरूपण है, उसमें प्रथम ही जीव के प्रीपशमिकादि पाँच भावोंका वर्णन किया है [ सूत्र १ ] पांच भावोंके ५३ भेद सात सूत्रोंमें कहे हैं [ सूत्र ७ तक ] तत्पश्चात् जीवका प्रसिद्ध लक्षण उपयोग बतलाकर उसके भेद कहे हैं [ सूत्र ६ ] जीवके संसारी और मुक्त दो भेद कहे हैं [ सूत्र १० ] उनमेसे संसारी जीवोके भेद सैनी असैनी तथा त्रस स्थावर कहे हैं, और त्रसके भेद दो इन्द्रियसे पंचेन्द्रिय तक बतलाये हैं, पाँच इन्द्रियोंके द्रव्येन्द्रिय, और भावेन्द्रिय ऐसे दो भेद कहे हैं, और उसके विषय बतलाये हैं [ सूत्र २१ तक ] एकेन्द्रियादि जीवोंके कितनी इन्द्रियां होती हैं इसका निरूपण किया है [ सूत्र २३ तक ] श्रीर फिर सैनी जीवोंका तथा जीव परभवगमन करता है। उसका (गमनका ) स्वरूप कहा है [ सूत्र ३० तक ] तत्पश्चात् जन्मके भेद, योनिके भेद, तथा गर्भज, देव, नारकी, और सम्पूर्छन जीव कैसे उत्पन्न होते हैं इसका
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मोक्षशास्त्र
निर्णय किया है । [ सूत्र ३५ तक ] पाँच शरीरोंके नाम बतलाकर उनकी सूक्ष्मता और स्थूलताका स्वरूप कहा है, और वे कैसे उत्पन्न होते हैं इसका निरूपण किया है [ सूत्र ४६ तक ] फिर किस जीवके कोनसा वेद होता है यह कहा है [ सूत्र ५२ तक ] फिर उदयमरण और उदीरणामरणका नियम बताया है [ सूत्र ५३ ]
जबतक जीवकी अवस्था विकारी होती है तबतक ऐसे परवस्तुके संयोग होते है; यहाँ उनका ज्ञान कराया है; और सम्यग्दर्शन प्राप्त करके, वीतरागता प्राप्त करके संसारी मिटकर मुक्त होनेके लिये बतलाया है । २. पारिणामिकभावके सम्वन्धमें
जीव और उसके अनन्तगुरण त्रिकाल प्रखण्ड अभेद हैं इसलिये वे पारिणामिकभावसे है । प्रत्येक द्रव्यके प्रत्येकगुरणका प्रतिक्षरण परिणमन होता है; और जीव भी द्रव्य है इसलिए तथा उसमे द्रव्यत्व नामका गुण है इसलिए प्रतिसमय उसके अनन्तगुरणों का परिणमन होता रहता है, उस परिणमनको पर्याय कहते हैं । उसमें जो पर्यायें अनादिकालसे शुद्ध हैं वे भी पारिणामिक भावसे हैं ।
जीवकी अनादिकाल से संसारी अवस्था है यह बात इस अध्यायके १० वें सूत्रमे कही है; क्योंकि जीव अपनी अवस्थामे अनादिकालसे प्रतिक्षण नया विकार करता आ रहा है, किन्तु यह ध्यान रहे कि उसके सभी गुणोंकी पर्यायोंमे विकार नही होता किन्तु अनन्त गुरणोंमेसे बहुतसे कम गुणोंकी अवस्था में विकार होता है । जितने गुणोकी अवस्थामे विकार नहीं होता उतनी पर्याये शुद्ध हैं ।
प्रत्येक द्रव्य सत् है इसलिए उसकी पर्यायमें प्रतिसमय उत्पाद व्यय और धौव्यत्वको पर्याय अवलम्बन करती हैं । उन तीन अंशोंमेसे जो सदृशतारूप धीव्य अंश है वह अंश अनादि अनन्त एक प्रवाहरूप है, धीव्य पर्याय भी पारिणामिकभावसे है ।
इससे निम्नप्रकार पारिणामिकभाव सिद्ध हुआ
द्रव्यका त्रिकालत्व तथा अनन्तगुरण और उनकी पर्यायोंका एक
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अध्याय २ उपसंहार
२८७ प्रवाहरूपसे रहनेवाला अनादि अनन्त ध्रौव्यांश यह तीनों अभेदरूपसे पारिगामिकभाव है, और उसे द्रव्यदृष्टिसे परमपारिणामिकभाव कहा जाता है।
३. उत्पाद और व्यय-पर्याय
अब उत्पाद और व्ययपर्यायके सम्बन्धमें कहते हैं:-व्ययपर्याय अभावरूप है और वह पारिणामिक भावसे है।
द्रव्यके अनन्त गुणोंकी प्रतिसमय उत्पादपर्याय होती रहती है, उसमें जिन गुणोंकी पर्याय अनादिकालसे अविकारी है वह पारिणामिकभावसे है और वह पर्याय है इसलिए पर्यायाथिकनयसे पारिणामिकभाव है।
परकी अपेक्षा रखनेवाले जीवके भावोके चार विभाग होते है१-प्रीपशमिकभाव, २-क्षायोपशमिकभाव, ३-क्षायिकभाव और ४प्रौदयिकभाव । इन चार भावोंका स्वरूप पहिले इस अध्यायके सूत्र १ की टीकामें कहा है।
४. धर्म करनेके लिये पाँच भावोंका ज्ञान कैसे उपयोगी है ?
यदि जीव इन पाँच भावोंके स्वरूपको जान ले तो वह स्वयं यह समझ सकता है कि किस भावके आधारसे धर्म होता है । पाँच भावोंमेंसे पारिणामिकभावके अतिरिक्त शेष चार भावोंमेंसे किसीके लक्ष्यसे धर्म नहीं होता, और जो पर्यायार्थिकनयसे पारिणामिकभाव है उसके आश्रयसे भी धर्म नही होता-यह वह समझ सकता है।
जब कि अपने पर्यायाथिकनयसे वर्तनेवाले पारिणामिकभावके आश्रयसे भी धर्म नहीं होता तब फिर निमित्त जो कि परद्रव्य है-उसके आश्रयसे या लक्ष्यसे तो धर्म हो ही नहीं सकता; यह भी वह समझता है। और परमपारिणामिकभावके आश्रयसे ही धर्म होता है ऐसा वह समझता
५. उपादानकारण और निमिचकारणके सम्बन्धमें
प्रश्न-जैनधर्मने वस्तुका स्वरूप अनेकान्त कहा है, इसलिए किसी समय उपादान (परमपारिणामिकभाव) की मुख्यतासे धर्म हो और किसी समय निमित्त (परद्रव्य ) की मुख्यतासे धर्म हो, ऐसा होना चाहिए।
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मोक्षशास्त्र उपरोक्त प्रकारसे मात्र उपादान ( परमपारिणाभिकभाव ) से धर्म होता है ऐसा कहनेसे एकान्त हो जायगा।
उत्तर-यह प्रश्न सम्यक्अनेकान्त, मिथ्याअनेकान्त, और सम्यक् और मिथ्या एकान्तके स्वरूपकी अज्ञानता बतलाता है। परमपारिणामिक भावके आश्रयसे धर्म हो और दूसरे किसी भावके आश्रयसे धर्म न हो इस प्रकार अस्तिनास्ति स्वरूप सम्यक् अनेकान्त है। प्रश्नमें बतलाया गया अनेकान्त मिथ्याअनेकान्त है। और यदि इस प्रश्नमें बतलाया गया सिद्धान्त स्वीकार किया जाय तो वह मिथ्याएकान्त होता है, क्योंकि यदि किसी समय निमित्तकी मुख्यतासे (अर्थात् परद्रव्यकी मुख्यतासे ) धर्म हो तो परद्रव्य और स्वद्रव्य दोनों एक हो जाय, जिससे मिथ्याएकान्त होता है ?
जिससमय उपादान कार्य परिणत होता है उसी कार्यके समय निमित्त कारण भी स्वयं उपस्थित होता है, लेकिन निमित्तकी मुख्यतासे किसी भी कार्य किसी भी समय नहीं होता, ऐसा नियम दिखानेके लिए श्री बनारसीदासजीने कहा है कि
"उपादान निज गुण जहाँ, तहाँ निमित्त पर होय, भदज्ञान परवान विधि, विरला बूझे कोय, उपादान बल जहँ तहाँ, नहीं निमित्तको दाव, एक चक्रसों रथ चल, रविको यहै स्वभाव, सधै वस्तु असहाय जहँ, तहँ निमित्त है कौन,
ज्यों जहाज परवाहमें, तिरै सहज बिन पौन,"
प्रश्न-तब फिर शास्त्रमें यह तो कहा है कि सच्चे देव, शास्त्र, गुरु और भगवानकी दिव्यध्वनिके आश्रयसे धर्म होता है, इसलिए, कभी उन निमित्तोंकी मुख्यतासे धर्म होता है ऐसा माननेमें क्या दोष है ?
उत्तर-सच्चे देव, शास्त्र, गुरु आदिसे धर्म होता है ऐसा कथन व्यवहारनयका है, उसका परमार्थ तो ऐसा है कि परमशुद्धनिश्चयनयग्राहक परमपारिणामिकभावके आश्रयसे ( अर्थात निज त्रिकाल शुद्ध चैतन्य परमात्मभाव-ज्ञायकभावसे ) धर्म होता है; जीव शुभभावरूप राग
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अध्याय २ उपसंहार का अवलम्बन लेता है उसमे सत्देव, सत्गुरु, सत्शास्त्र तथा भगवान की दिव्यध्वनि निमित्तमात्र है; तथा उस ओरका राग विकल्पको टोल करके जीव जव परमपारिणामिकभावका ( ज्ञायकभावका') प्राश्रय लेता है तब उसके धर्म प्रगट होता है और उस समय रागका अवलम्बन छूट जाता है। -धर्म प्रगट होनेके पूर्व राग किस दिशामें ढला था यह बतानेके लिए देवगुरुशास्त्र या दिव्यध्वनि इत्यादिक निमित्त कहने में आते है, परन्तु निमित्त की मुख्यतासे किसी भी समय धर्म होता है यह बतानेके लिये निमित्त का ज्ञान नहीं कराया जाता।
(२) किसी समय उपादान कारणकी मुख्यतासे धर्म होता है और किसी समय निमित्तकारणकी मुख्यतासे धर्म होता है-अगर ऐसा मान लिया जाय तो धर्म करनेके लिये कोई त्रिकालवर्ती अबाधित नियम नही रहेगा; और यदि कोई नियमरूप सिद्धान्त न हो तो धर्म किस समय उपादान कारणकी मुख्यतासे होगा और किस समय निमित्तकारणकी मुख्यतासे होगा यह निश्चित् न होनेसे जीव कभी धर्म नहीं कर सकेगा।
(३) धर्म करनेके लिये त्रैकालिक एकरूप नियम न हो ऐसा नहीं हो सकता, इसलिये यह समझना चाहिये कि जो जीव पहिले धर्मको प्राप्त हुए हैं, वर्तमान में धर्मको प्राप्त हो रहे है और भविष्यमे धर्मको प्राप्त करेगे उन सबके पारिवामिकभावका ही आश्रय है, किसी अन्यका नहीं।
प्रश्न-सम्यग्दृष्टि जीव ही सम्यग्दर्शन होनेके बाद सच्चे देव गुरु शासका अवलंबन लेते हैं और उसके आश्रयसे उन्हें धर्म प्राप्त होता है तो वहाँ निमित्तकी मुख्यतासे धर्मका कार्य हुआ या नहीं ?
उचर-नही, निमित्तकी मुख्यता से कही भी कोई कार्य होता ही नही है । सम्यग्दृष्टिके जो' राग और रागका अवलंवन है उसका भी खेद रहता है, सच्चे देव गुरु या शास्त्रका भी कोई जीव अवलंबन ले ही नही सकता, क्योंकि वह भी परद्रव्य हैं। फिर भी जो यह कहा जाता है कि-ज्ञानीजन सच्चे देवगुरु शास्त्रका अवलंबन लेते हैं वह उपचार है, कथनमात्र है; वास्तव मे परद्रव्यका अवलंबन नही, किन्तु वहाँ अपनी अशुद्ध अवस्थारूप रागका ही अवलंबन है ।
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मोक्षशास्त्र
अब जो उस शुभभावके समय सम्यग्दृष्टिके शुद्ध भाव बढ़ता है वह अभिप्रायमें परमपारिणामिकभावका भाश्रय है उसीके वलसे बढ़ता है । अन्य प्रकारसे कहा जाय तो सम्यग्दर्शनके बलसे वह शुद्धभाव बढ़ते हैं किन्तु शुभराग या परद्रव्यके अबलंबनसे शुद्धता नहीं बढ़ती 1
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प्रश्न – देव गुरु शास्त्रको निमित्तमात्र कहा है और उनके अवलंबन को उपचारमात्र कहा है, इसका क्या कारण है ?
उचर- - इस विश्व में अनन्त द्रव्य हैं, उनमेसे रागके समय छद्मस्थ जीवका झुकाव किस द्रव्यकी ओर हुआ यह बतानेके लिये उस द्रव्यको 'निमित्त' कहा जाता है । जीव अपनी योग्यतानुसार जैसा परिणाम ( कार्य ) करता है वैसा अनुकूल निमित्तपनेका परद्रव्यमें उपचार किया जाता है इसप्रकार जीव शुभरागका आलंबन करे तो देव-गुरु-शास्त्र निमित्तमात्र है और उसका आलम्बन उपचारमात्र है ।
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निमित्त नैमित्तिक संबंध जीवको सच्चा ज्ञान करनेके लिये है, ऐसी मिथ्या मान्यता करनेके लिये नहीं कि- 'धर्म करनेमें किसी समय निमित्त की मुख्यता होती है । जो जीव सम्यग्दर्शन प्रगट करना चाहते हैं उन्हें स्वतंत्रतारूप निमित्त नैमित्तिक संबंधके स्वरूपका यथार्थज्ञान कर लेना चाहिये । उस ज्ञानकी आवश्यकता इसलिये है कि यदि वह ज्ञान न हो तो जीवका ऐसा अन्यथा झुकाव बना रह सकता है कि- किसीसमय निमित्तकी मुख्यतासे भी कार्य होता है, और इससे उसका अज्ञानपना दूर नही होगा । और इस निमित्ताधीनदृष्टि; पराधीनता स्वीकार करनेवाली संयोगदृष्टि है जो संसारका मूल है इससे उसके अपार संसार भ्रमरण चलता रहेगा ।
६. इन पाँच भावोंके साथ इस अध्यायके सूत्र कैसे संबंध रखते हैं, इसका स्पष्टीकरण
सूत्र - १. यह सूत्र पाँचों भाव बतलाता है, उसमें शुद्ध द्रव्यार्थिकनयके विषयरूप अपने पारिणामिक भावके आश्रयसे ही धर्म होता है ।
सूत्र २ - ६. यह सूत्र पहिले चार भावोंके भेद बतलाते है । उनमें से तीसरे सूत्र में औपशमिकभावके भेदोंका वर्णन करते हुए पहिले सम्यक्त्व
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अध्याय २ उपसंहार लिया है, क्योंकि धर्मका प्रारंभ औपशमिक सम्यक्त्वसे होता है; सम्यक्त्व प्राप्त होनेके बाद आगे बढने पर कुछ जीवोंके प्रौपशमिक चारित्र होता है इसलिए दूसरा औपशमिक चारित्र कहा है। इन दो के अतिरिक्त अन्य कोई औपशमिक भाव नहीं है। [ सूत्र ३ ]
जो जो जीव धर्मके प्रारम्भमें प्रगट होनेवाले औपशमिक सम्यक्त्व को पारिवामिकभावके आश्रयसे प्राप्त करते हैं वे अपनेमें शुद्धिको बढाते बढाते अन्तमें संपूर्ण शुद्धता प्राप्त कर लेते हैं, इसलिये उन्हें सम्यक्त्व और चारित्र की पूर्णता होनेके अतिरिक्त ज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीयं गुणोंकी पूर्णता प्रगट होती है । इन नौ भावोंकी प्राप्ति क्षायिकभाव से पर्याय में होती है, इसलिये फिर कभी विकार नही होता और वे जीव अनन्त काल तक प्रतिसमय सम्पूर्ण आनन्द भोगते हैं; इसलिये चौथे सूत्रमें यह नौ भाव बतलाये हैं । उन्हें नव लब्धि भी कहते हैं।
सम्यक्ज्ञानका विकास कम होनेपर भी सम्यग्दर्शन-सम्यग्चारित्र के बलसे वीतरागता प्रगट होती है, इसलिये उन दो शुद्ध पर्यायोके प्रगट होनेके बाद शेष सात क्षायिक पर्याय एक साथ प्रगट होती है, तब सम्यरज्ञानके पूर्ण होनेपर केवलज्ञान भी प्रगट होता है। [ सूत्र ४ ]
__ जीवमें अनादिकालसे विकार बना हुआ है फिर भी उसके ज्ञान, दर्शन और वीर्य गुण सर्वथा नष्ट नही होते, उनका विकास कम बढ अशतः रहता है। उपशम सम्यक्त्व द्वारा अनादिकालीन अज्ञान को दूर करने के वाद साधक जीवको क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है, और उन्हे क्रमशः चारित्र प्रगट होता है, वे सब क्षायोपशमिकभाव है। [ सूत्र ५ ]
जीव अनेक प्रकारका विकार करता है और उसके फलस्वरूप चतुगतिमें भ्रमण करता है। उसमे उसे स्वस्वरूपको विपरीत श्रद्धा, विपरीतज्ञान और विपरीत प्रवृत्ति होती है, और इससे उसे कषाय भी होती है।
और फिर सम्यग्ज्ञान होनेके बाद पूर्णता प्राप्त करनेसे पूर्व प्रांशिक कषाय होती है जिससे उसकी भिन्न २ लेश्याएं होती हैं । जीव स्वरूपका प्राश्रय छोड कर पराश्रय करता है इसलिये रागादि विकार होते हैं, उसे औदयिकभाव कहते है । मोह सम्बन्धी यह भाव ही ससार है। [ सूत्र ६]
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२६२
मोक्षशास्त्र सूत्र ७-जीवमें शुद्ध और अशुद्ध ऐसे दो प्रकारके पारिणामिकभाव है। [ सूत्र ७ तथा उसके नीचेकी टोका ]
सूत्र ८-९-जीवका लक्षण उपयोग है छमस्थ जीवका ज्ञानदर्शन का उपयोग क्षायोपशमिक होनेसे अनेकरूप और कम बढ़ होता है, और केवलज्ञान क्षायिकभावसे प्रगट होनेसे एकरूप और पूर्ण होता है। [ सूत्र ५-६]
सूत्र १०-जीवके दो भेद है संसारी और मुक्त । उनमें से अनादि अज्ञानी ससारी जीवके तीन भाव (औदयिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक ) होते हैं। प्रथम धर्म प्राप्त करने पर चार ( औदयिक, क्षायोपशमिक, औपशमिक और पारिणामिक ) भाव होते हैं । क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करनेके बाद उपशमश्रेणी मांडनेवाले जीवके पांचों भाव होते हैं और मुक्त जीवों के क्षायिक तथा पारिवामिक दो ही भाव होते हैं। [ सूत्र १० ]
सूत्र ११-जीवने स्वयं जिसप्रकारके ज्ञान, वीर्यादिके विकासकी योग्यता प्राप्त की होती है उस क्षायोपशमिकभावके अनुकूल जड़ मनका सद्भाव या अभाव होता है । जब जीव मनकी ओर अपना उपयोग लगाते हैं तब उन्हे विकार होता है, क्योंकि मन पर वस्तु है। और जब जीव अपना पुरुषार्थ मानकी ओर लगाकर ज्ञान या दर्शन का व्यापार करते हैं तब द्रव्यमनपर निमित्तपनेका आरोप आता है। वैसे द्रव्यमन कोई हानि या लाभ नही करता क्योंकि वह परद्रव्य है। [ सूत्र ११ ]
सूत्र १२-२०-अपने क्षायोपशमिक ज्ञानादिके अनुसार और नामकर्मके उदयानुसार ही जीव संसारमें त्रस या स्थावर दशाको प्राप्त होता है । इसप्रकार क्षायोपशमिकभावके अनुसार जीवकी दशा होती है। पहिले जो नामकर्म बंधा था उसका उदय होनेपर त्रस स्थावरत्वका तथा जड़ इन्द्रियों और मनका संयोग होता है। [सूत्र १२ से १७ तथा १६ से २०]
ज्ञानके क्षायोपशमिकभावके लब्धि और उपयोग दो प्रकार हैं। [ सूत्र १८1
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मध्याय २ उपसंहार
२६३ सूा २१ से ५३-ससारी जीवोंके औदयिकभाव होने पर जो कर्म एक क्षेत्रावगाहरूपसे बंधते हैं उनके उदयका निमित्त-नैमित्तिक संबंधजीवके क्षायोपशमिक तथा औदयिकभावके साथ तथा मन, इन्द्रिय, शरीर, कर्म, नये भवके लिये क्षेत्रान्तर, आकाशकी श्रेणी, गति, नौ कर्मका समय समय ग्रहण, तथा उनका प्रभाव, जन्म, योनि, तथा आयुके साथ कैसा होता है यह बताया है। [ सूत्र २१ से २६ तथा २८ से'५३ ]
सिद्धदशाके होनेपर जीवका आकाशकी किसी श्रेणीके साथ निमित्त-नैमित्तिक संबंध है यह २७ वें सूत्र में बताया है [सूत्र २७]
इससे यह समझना चाहिये कि जीवको विकारी या अविकारी अवस्थामे जिन परवस्तुओंके साथ सबंध होता है उन्हे जगतकी अन्य परवस्तुओसे पृथक् समझनेके लिये उतने ही समयके लिये उन्हें 'निमित्त' नाम देकर संबोधित किया जाता है। किन्तु इससे यह नहीं समझना चाहिये कि निमित्त की मुख्यतासे किसी भी समय कार्य होता है। इस अध्यायका २७ वाँ सूत्र इस सिद्धातको स्पष्टतया सिद्ध करता है । मुक्त जीव स्वयं लोकाकाशके अग्रभागमे जानेकी योग्यता रखते हैं और तब आकाशकी जिस श्रेणीमेसे वे जीव पार होते है उस श्रेणीको-आकाशके अन्य भागों से तथा जगतके दूसरे समस्त पदार्थोसे पृथक् करके पहिचाननेके लिये 'निमित्त' नाम (भारोपित करके ) दिया जाता है।
७. निमिच-नैमितिक सम्बन्ध यह सम्बन्ध २६-२७ वें सूत्रमे चमत्कारिक ढंगसे अत्यल्प शब्दोंमे कहा गया है। वह यहाँ बतलाया जाता है
१--जीवकी सिद्धावस्थाके प्रथम समयमें वह लोकके अग्रभागमें सीधी आकाश श्रेणीसे मोड़ा लिये बिना ही जाता है यह सूत्र २६-२७ मे प्रतिपादन किया गया है। जिस समय जीव लोकानमे जाता है उस समय वह जिस आकाश श्रेणीमेसे जाता है उसी क्षेत्रमे धर्मास्तिकायके और अधर्मास्तिकायके प्रदेश हैं, अनेक प्रकारकी पुद्गल वर्गणाए है, पृथक् परमाणु हैं, सूक्ष्म स्कंध है, कालाणुद्रव्य है, महास्कन्धके प्रदेश हैं, निगोदके जीवोके तथा उनके शरीरके प्रदेश हैं तथा लोकान्तमें (सिद्धशिलासे ऊपर)
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२६४
मोक्षशास्त्र पहिले मुक्त हुए जीवोंके कितने ही प्रदेश हैं, उन सबमें से पार होकर जीव लोकके अग्नभागमें जाता है । इसलिये अब उसमें उस आकाश श्रेणीमें निमित्तत्वका आरोप आया और दूसरोंमें नहीं आया, इसके कारणकी जांच करने पर मालूम होता है कि वह मुक्त होनेवाला जीव किस आकाशश्रेणीम से होकर जाता है इसका ज्ञान करानेके लिए उस 'आकाशश्रेणी' को निमित्त संज्ञा दी गई है। क्योंकि पहिले समयकी सिद्धदशाको आकाशके साथका संबंध बतानेके लिये उस श्रेणीका भाग ही अनुकूल है, अन्य द्रव्य, गुरण या पर्याय उसके लिये अनुकूल नही है।
२-सिद्धभगवानके उस समयके ज्ञानके व्यापारमें संपूर्ण-आकाश तथा दूसरे सब द्रव्य, उसके गुरण तथा उसकी त्रिकालवर्ती पर्याय ज्ञेय होती हैं इसलिये उसी समय ज्ञानमात्रके लिये वे सब ज्ञेय 'निमित्त' संज्ञाको प्राप्त होते है।
३-सिद्धभगवानके उस समयके परिणमनको काल द्रव्यकी वही समयकी पर्याय 'निमित्त' संज्ञाको प्राप्त होती है, क्योंकि परिणमनमें वह अनुकूल है, दूसरे अनुकूल नही हैं।
४-सिद्धभगवानकी उस समयकी क्रियावतीशक्तिके गति परिणाम को तथा ऊर्ध्वगमन स्वभावको धर्मास्तिकायके किसी आकाश क्षेत्रमें रहने वाले प्रदेश उसी समय 'निमित्त' संज्ञाको प्राप्त होते हैं, क्योंकि गतिमे वही अनुकूल हैं, दूसरे नही।
५-सिद्धभगवानके ऊर्ध्वगमनके समय दूसरे द्रव्य (जो कि आकाश क्षेत्रमें हैं वे तथा शेष द्रव्य ) भी 'निमित्त' संज्ञाको प्राप्त होते हैं, क्योंकि उन सब द्रव्योंका यद्यपि सिद्धावस्थाके साथ कोई संबंध नही है तथापि विश्व को सदा शाश्वत रखता है इतना बतानेके लिये वह अनुकूल निमित्त है।
६-सिद्धभगवानकी संपूर्ण शुद्धताके साथ कर्मोका अभावसंबंध है, इतनी अनुकूलता बतानेके लिये कर्मोका अभाव भी 'निमित्त' संज्ञाको प्राप्त होता है, इसप्रकार अस्ति और नास्ति दोनों प्रकारसे निमित्तपनेका आरोप
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अध्याय २ उपसंहार
२९५ किया जाता है। किन्तु निमित्तको किसी भी प्रकारसे मुख्यरूपसे या गौणरूपसे कार्यसाधक मानना गंभीर भूल है। शास्त्रीय परिभाषामें उसे मिथ्यात्व और अज्ञान कहा जाता है ।
७-निमित्त जनक और नैमित्तिक-जन्य है, इसप्रकार जीव अज्ञान दशामें मानता है, इसलिये अज्ञानियोंकी कैसी मान्यता होती है यह बताने के लिये व्यवहारसे निमित्तको जनक और नैमित्तिकको जन्य कहा जाता है किन्तु सम्यग्ज्ञानी जीव ऐसा नही मानते । उनका वह ज्ञान सच्चा है यह उपरोक्त पांचवां पैरा बतलाते हैं, क्योंकि उसमे बताये गये अनंत निमित्त या उनमेका कोई अंश भी सिद्ध दशाका जनक नही हुआ। और वे निमित्त या उनमेंसे किसीके अनंतवे अंशसे भी नैमित्तिक सिद्ध दशा जन्य नही हुई।
८-संसारी जीव भिन्न २ गतिके क्षेत्रोमें जाते हैं वे भी अपनी क्रियावतीशक्तिके उस उस समयके परिणमनके कारणसे जाते है। उसमें भी उपरोक्त पैरा १ से ५ मे बताये गये अनुसार निमित्त होते है। किन्तु क्षेत्रान्तरमें धर्मास्तिकायके प्रदेशोकी उस समयकी पर्यायके अतिरिक्त दूसरा कोई द्रव्य, गुण या पर्याय निमित्त संज्ञाको प्राप्त नहीं होता। उस समय अनेक कर्मोका उदय होने पर भी एक विहायोगति नामकर्मका उदय ही 'निमित्त' संज्ञा पाता है । गत्यानुपूर्वी कर्मके उदयको जीवके प्रदेशोके उस समयके प्राकारके साथ क्षेत्रान्तरके समय निमित्तपना है और जब जीव जिस क्षेत्रमे स्थिर हो जाता है उस समय अधर्मास्तिकायके उस क्षेत्रके प्रदेशोंकी उस समयकी पर्याय 'निमित्त' संज्ञाको प्राप्त होती है।
सूत्र २५ बतलाता है कि क्रियावती शक्तिके उस समयके परिणमनके समय योग गुणकी जो पर्याय पाई जाती है उसमे कार्मण शरीर निमित्त है, क्योकि कार्मण शरीरका उदय उसके अनुकूल है । कार्मण शरीर
और तैजस शरीर अपनी क्रियावतीशक्तिके उस समयके परिणमनके कारण जाता है, उसमे धर्मास्तिकाय निमित्त है।
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मोक्षशास्त्र
& - इस शास्त्र में निमित्तको किसी स्थान पर 'निमित्त' नामसे ही कहा गया है । [ देखो ० १ सू० १४ ] और किसी स्थान पर उपकार, उपग्रह, इत्यादि नामसे कहा गया है, [, देखो प्र० ५ सू० १७ से २० ], भावअपेक्षामें उसका एक ही अर्थ होता है, किन्तु अज्ञानी जीव यह मानते हैं कि एक वस्तुसे दूसरी वस्तुका भला-बुरा होता है; यह बतानेके लिये उसे 'उपकार' सहायक, बलाधान, बहिरंगसाधन; बहिरंगकारण, निमित्त और निमित्तकारण इत्यादि नामसे सम्बोधित करते हैं; किन्तु इससे यह नहीं मान लेना चाहिये कि वे वास्तविक कारण या साधन हैं । एक द्रव्य को, उसके गुणोंको या उसकी पर्यायोंको दूसरेसे पृथक करके दूसरेके साथ का उसका संयोगमात्र सम्बन्ध बतानेके लिये उपरोक्त नामोंसे सम्बोधित 'किया जाता है । इन्द्रियोंको धर्मास्तिकायको, अधर्मास्तिकाय इत्यादिको, बलाधानकारणके नामसे भी पहिचाना जाता है; किन्तु वह कोई भी सच्चा कारण नही है; फिर भी 'किसी भी समय उनकी मुख्यता से कोई कार्य होता है' ऐसा मानना निमित्तको ही उपादान माननेके बुराब्र अथवा व्यवहारा को ही निश्चय मानने के बराबर है ।
२६६
-
१० - उपादानकारणके योग्य निमित्त संयोगरूपसे उस उस समय अवश्य होते हैं । ऐसा सम्बन्ध उपादान कारणकी उस समयकी परिणमन शक्तिको, जिस पर निमित्तत्वका आरोप आता है उसके साथ है । उपादान को अपने परिणमनके समय उन उन निमित्तोंके प्रानेके लिये राह देखनी पड़े और वे न नायें तब तक उपादान नही परिरणमता, ऐसी मान्यता उपादान और निमित्त इन दो द्रव्योंको एकरूप माननेके बराबर है ।
११ – इसीप्रकार घड़ेका कुम्भकार के साथ और रोटीका अग्नि, रसोइया इत्यादिके साथका निमित्त नैमित्तिक संबंध समझ लेना चाहिये । सम्यग्ज्ञान प्रगट करनेके लिये जीवने स्वयं अपने पुरुषार्थसे पात्रता प्राप्त कीहो फिर भी उसे सम्यग्ज्ञान प्रगट करनेके लिये सद्गुरुकी राह देखनी पड़े ऐसा नही होता, किन्तु वह सयोगरूपसे उपस्थित होता ही है; इसलिये जब बहुतसे जीव धर्म प्राप्त करनेके लिये तैयार होते हैं तब तीर्थंकर भगवान
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मध्याय २ उपसंहार
२९७ का जन्म होता है और वे योग्य समयमें केवलज्ञानको प्राप्त करते हैं तथा उनकी दिव्यध्वनि स्वयं प्रगट होती है, ऐसा समझना चाहिये।
८.तात्पर्य
तात्पर्य यह है कि इस अध्यायमें कहे गये पांच भाव तथा उनके दूसरे द्रव्योंके साथके निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धका ज्ञान करके अन्य सब परसे लक्ष हटाकर परमपारिणामिकभावकी और अपनी पर्यायको उन्मुख करने पर सम्यग्दर्शन होता है और फिर उस ओर बल बढ़ाने पर सम्यग्चारित्र होता है। यही धर्ममार्ग ( मोक्षमार्ग) है।
इसप्रकार श्री उमास्वामी विरचित मोक्षशास्त्रके दूसरे अध्यायको
टीका समास हुई।
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मोक्षशास्त्र अध्याय तीसरा
भूमिका
इस शास्त्रके पहिले अध्यायके पहिले सूत्र में निश्चय 'सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकी एकता मोक्षमार्ग है' यह बतलाया है, दूसरा कोई मोक्षमार्ग नही है । इससे यहाँ यह भी बतलाया है कि पुण्यसे,-शुभभावसे अथवा परवस्तु अनुकूल हो तो धर्म हो सकता है ऐसा मानना भूल है। सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र आत्माकी शुद्ध पर्याय है। यदि उसे एक शब्दमें कहा जाय तो 'सत्य पुरुषार्थ' मोक्षमार्ग है। इससे सिद्ध हुआ कि आत्माकी अपनी अपनी शुद्ध परिणति ही धर्म है; यह बतलाकर अनेकान्त स्वरूप बतलाया है। प्रथम सूत्रमे जो पहिला शब्द 'सम्यग्दर्शन' कहा है वह सूचित करता है कि धर्मका प्रारम्भ निश्चय सम्यग्दर्शनसे ही होता है। उस अध्यायमें निश्चय सम्यग्दर्शनका लक्षण तत्त्वार्थ श्रद्धान कहा है । तत्पश्चात् तत्त्वार्थका स्वरूप समझाया है और सम्यग्ज्ञानके अनेक प्रकार बतलाकर मिथ्याज्ञानका स्वरूप भी समझाया है । सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी एकता (-एक ही) मोक्षमार्ग है;-इसप्रकार पहिले सूत्र में स्पष्टतया बतलाकर घोषित किया है कि-किसी समय उपादानकी परिणतिकी मुख्यतासे कार्य होता है और किसी समय संयोगरूप बाह्य अनुकूल निमित्तकी (जिसे उपचार कारण कहा जाता है उसकी) मुख्यतासे कार्य होता है-ऐसा अनेकांतका स्वरूप नही है।
दूसरे अध्यायसे जीव तत्त्वका अधिकार प्रारम्भ किया है, उसमें जीवके स्वतत्त्वरूप-निजस्वरूप पाँच भाव बतलाये हैं। उन पांच भावोंमेसे सकलनिरावरण, अखंड, एक, प्रत्यक्षप्रतिभासमय, अविनश्वर, शुद्धपारिणामिक परमभाव, ( ज्ञायकभाव ) के आश्रयसे धर्म होता है यह बतलानेके लिये, औपशमिकभाव जो कि धर्मका प्रारम्भ है उसे पहिले भावके रूपमें वर्णन किया है। तत्पश्चात् जीवका लक्षण उपयोग है यह बतलाकर उसके
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अध्याय ३ भूमिका
२६६. भेद बतलाये हैं; और यह बतलाया है कि पांच भावोंके साथ परद्रव्योंकाइन्द्रिय इत्यादिका कैसा सम्बन्ध होता है ।
जीवको औदयिकभाव ही संसार है । शुभभावका फल देवत्व है, अशुभभावकी तीव्रताका फल नारकीपन है, शुभाशुभभावोकी मिश्रताका फल मनुष्यत्व है, और मायाका फल तिर्यंचपना है, जीव अनादिकालसे अज्ञानी है इसलिये अशुद्धभावोके कारण उसका भ्रमण हुआ करता है वह भ्रमण कैसा होता है यह तीसरे और चौथे अध्यायमे बतलाया है । उस भ्रमणमें ( भवोंमे) शरीरके साथ तथा क्षेत्रके साथ जीवका किस प्रकारका संयोग होता है वह यहां बताया जा रहा है । मांस, शराब, इत्यादिके खान-पानके भाव, कठोर झूठ, चोरी, कुशील, तथा लोभ इत्यादिके तीन अशुभभावके कारण जीव नरकगतिको प्राप्त करता है उसका इस अध्यायमें पहिले वर्णन किया है और तत्पश्चात् मनुष्य तथा तिर्यंचोके क्षेत्रका वर्णन किया है।
चौथे अध्यायमे देवगतिसे सम्बन्ध रखनेवाले विवरण बताये गये हैं।
इन दो अध्यायोंका सार यह है कि-जीवके शुभाशुभ विकारीभावों के कारण जीवका अनादिकालसे परिभ्रमण हो रहा है उसका, मूलकारण मिथ्यादर्शन है, इसलिये भव्यजीवोंको मिथ्यादर्शन दूर करके सम्यग्दर्शन प्रगट करना चाहिये । सम्यग्दर्शनका बल ऐसा है कि उससे क्रमशः सम्यग्वारित्र बढ़ता जाता है और चारित्रकी पूर्णता करके परम यथाख्यातचारित्रकी पूर्णता करके, जीव सिद्ध गतिको प्राप्त करता है । अपनी भूलके कारण जीवकी कैसी कैसी गति हुई तथा उसने कैसे कैसे दुःख पाये और बाह्य संयोग कैसे तथा कितने समय तक रहे यह बतानेके लिये अध्याय २३-४ कहे गये हैं। और उस भूलको दूर करनेका उपाय पहिले अध्यायके पहिले सूत्रमे बतलाया गया है ।
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३००
मोक्षशास्त्र अधोलोकका वर्णन
सात नरक-पृथिवियाँ रत्नशर्कराबालुकापङ्कधूमतमोमहातमःप्रभा भूमयो घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः सप्ताऽधोऽधः ॥ १॥
___ * अर्थ:-अधोलोकमै रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा, और महातमप्रभा ये सात भूमियां हैं औरक्रमसे नीचे २ घनोदधिवातवलय, धनवातवलय, तनुवातवलय तथा प्राकाशका आधार है।
टीका १. रत्नप्रभा पृथ्वीके तीन भाग हैं-खरभाग, पंकभाग और अबहुलभाग । उनमें से ऊपरके पहिले दो भागोंमें व्यन्तर तथा भवनवासी देव रहते है, और नीचेके अव्बहुलभागमें नारकी रहते हैं। इस पृथ्वीका कुल विस्तार एक लाख अस्सी हजार योजन है। [२००० कोसका एक योजन होता है।
२. इन पृथ्वियोंके रूढ़िगत नाम ये हैं-१-धम्मा, २-वंशा, ३मेघा, ४-अंजना, ५-अरिष्टा, ६-मघवी और ७-माधवी है।
३-अम्बु (घनोदधि ) वातवलय-वाष्पका घना वातावरण,
धनवातवलय-घनी हवाका बातावरण । तनुवातवलय-पतली हवाका वातावरण ।
वातवलय-वातावरण । 'आकाश' कहनेसे यहाँ प्रलोकाकाश समझना चाहिए ॥१॥
** इस अध्यायमें भूगोल सबंधी वर्णन होनेसे, पहिले दो मध्यायोकी भांति सूत्रके शब्द पृथक् करके अर्थ नहीं दिया गया है किन्तु पूरे सूत्रका सीधा अर्थ दिया गया है।
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का fasवियप
Saमोना
का एफ रामू
का काममा तीन लोक
चना
श
मामला अमित ध्वनि
-ऊर्थ लोक
जानत-
प्रागत
.. का , . .
लापर
पाघराज
सोत्तर
ऊय लोक
DAT'
मध्य लोक
एफराजू
___ लोका
रल प्रमा
लोका का
हुल
शर्कग प्रमा
अधोलोक
पढ़ प्रभा
धूमप्रमा
सम प्रमा
सात नरक
माम प्रमा
निगोद
पावापयामयापीमायोजन CCM
LISTUICILLCLC नयावयम्
मायायामाना
का
रत्नज
-
का
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अध्याय ३ सूत्र २
सात पृथ्विके बिलोंकी संख्या
तासु त्रिंशत्पंचविंशतिपंचदशदश त्रिपंचो ने कनरकशतसहस्राणि पंच चैव यथाक्रमम् ॥ २॥
अर्थ:- :- उन पृथ्वियोमे क्रमसे पहिली पृथ्वीमे तीस लाख, दूसरी में २५ लाख, तीसरीमे १५ लाख, चौथी में १० लाख, पाँचवीमे ३ लाख, छठवीमें पाँच कम एक लाख ( EEEε५) और सातवीमें ५ ही नरक बिले हैं । कुल ८४ लाख नरकवास बिल है ।
टीका
३०१
कुछ लोग मनुष्यगति और तियंचगति यह दो ही गतियाँ मानते हैं क्योंकि वे दो प्रकारके जीवोको ही देखते हैं । उनका ज्ञान सकुचित होनेसे वे ऐसा मानते हैं कि मनुष्य और तिर्यंचगतिमें जो तीव्र दुःख है वही नरक गति है दूसरी कोई नरकगति वे लोग नही मानते । परन्तु उनकी यह मान्यता मिथ्या है, क्योकि मनुष्य और तिर्यंचगतिसे जुदी ऐसी नरकगति उन जीवोंके अशुभ भावका फल है । उसके अस्तित्वका प्रमाण निम्नप्रकार है:नरकगतिका प्रमाण
जो जीव अति कठोर भयंकर दुष्कृत्य करते हैं और यह देखने की आवश्यकता नही समझते कि स्वयं पाप कार्य करते समय दूसरे जीवोंको क्या दुःख होता है तथा जो अपनी अनुकूलतावाली एक पक्ष की दुष्ट बुद्धिमें एकाग्र रहते हैं उन जीवोंको उन क्रूर परिणामोंके फलरूप निरंतर अनंत प्रतिकूलताएँ भोगनेके स्थान अघोलोकमें है, उसे नरकगति कहते हैं ।
देव, मनुष्य, तियंच और नरक, यह चार गतियाँ सदा विद्यमान है, वे कल्पित नही किंतु जीवोंके परिणामका फल हैं । जिसने दूसरेको मारडालनेके क्रूरभाव किये उसके भावमे, अपनी अनुकूलताके सिद्ध करनेमें वाघा डालनेवाले कितने जीव मार डाले जाये जिनको संख्याकी कोई मर्यादा नही है, तथा कितने काल तक मारे जायें उसकी भी मर्यादा नही है इसलिये उसका फल भो अपार अनंत दुःख भोगनेका ही है, ऐसा स्थान नरक है,
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मोक्षशास्त्र
३०२
मनुष्यलोकमें ऐसा कोई स्थान नही है ।
जो दूसरोंको मारकर प्रतिकूलताको दूर करना चाहते हैं वे जितने विरोधी मालूम होते है उन सबको मारना चाहते हैं, फिर चाहे प्रतिकूलता करनेवाले दो चार हों या बहुत हों उन सबका नाश करनेकी भावनाका सेवन निरंतर करता है । उसके अभिप्रायमें अनंतकाल तक अनंतभव धारण करने के भाव भरे पड़े है । उस भवको अनंतसंख्याके कारण में अनत जीवोंको मारनेका संहार करनेका अमर्यादित पाप भाव है । जिस जीवने कारणमें अनन्तकाल तक अनन्त जीवोंको मारनेके, बाधा डालनेके भाव सेये हैं उसके फलमें उस जीवको तीव्र दुःखोंके संयोगमें जाना पड़ता है, और वह नरकगति है । लाखों खून ( - हत्या ) करनेवालेको लाखों बार फाँसी मिलती हो ऐसा इस लोकमें नहीं होता, इसलिये उसे अपने क्रूरभावोंके अनुसार पूरा फल नही मिलता; उसे अपने भावोंका पूरा फल मिलनेका स्थान - बहुतकाल तक अनन्त दुःख भोगनेका क्षेत्र नरक है, वह नीचे शाश्वत है || २ ॥
नारकियोंके दुःखोंका वर्णन
नारका नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रियाः ॥ ३ ॥
अर्थ - नारकी जीव सदैव ही अत्यन्त अशुभ लेश्या, परिणाम, शरीर, वेदना, और विक्रियाको धारण करते हैं ।
टीका
१. लेश्या - यह द्रव्यलेश्याका स्वरूप है जो कि आयु पर्यंत रहती है । यहाँ शरीरके रंगको द्रव्यलेश्या कहा है । भावलेश्या अंतर्मुहूर्त में वदल जाती है उसका वर्णन यहाँ नही है । अशुभलेश्याके भी तीन प्रकार हैं कापोत, नील और कृष्ण । पहिली और दूसरी पृथ्वीमें, कापोतलेश्या, तीसरी पृथ्वी में ऊपर के भागमें कापोत और नीचेके भागमें नील, चौथीमें
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मध्याय ३ सूत्र ३-४-५ नील, पांचवीमें ऊपरके भागमें नील और नीचेके भागमे कृष्ण और छठवीं तथा सातवी पृथ्वीमें कृष्णलेश्या होती है ।
२. परिणाम-~यहाँ स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्दको परिणाम कहा है।
३. शरीर-पहिली पृथ्वीमें शरीरकी ऊँचाई ७ धनुष्य ३ हाथ और ६ अंगुल है, वह हुडक आकारमे होता है । तत्पश्चात् नीचे २ को पृथ्वीके नारकियोके शरीर की ऊँचाई क्रमशः दूनी दूनी है।
४. वेदना-पहिलेसे चौथे नरक तक उष्ण वेदना है, पांचवेंके ऊपरी भागमें उष्ण और नीचले भागमें शीत है, तथा छुट्ट और सातवेंमें महाशीत वेदना है । नारकियो का शरीर वैक्रियिक होनेपर भी उसके शरीरके वैक्रियिक पुद्गल मल, मूत्र, कफ, वमन, सड़ा हुआ मास, हाड़ और चमड़ी वाले औदारिक शरीरसे भी अत्यन्त अशुभ होता है ।
५. विक्रिया-उन नारकियोंके क्रूर सिंह व्याघ्रादिरूप अनेक प्रकारके रूप धारण करनेकी विक्रिया होती है ।। ३ ।।
नारकी जीव एक दूसरेको दुःख देते हैं
परस्परोदीरितदुःखाः ॥४॥ अर्थ-नारकी जीव परस्पर एक दूसरेको दुःख उत्पन्न करते हैं (-वे कुत्तेकी भांति परस्पर लड़ते हैं ) ॥ ४॥
विशेष दुश्ख संक्लिष्टाऽसुरोदीरितदुःखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः ॥५॥
अर्थ-और उन नारकियोंके चौथी पृथ्वीसे पहिले पहिले (अर्थात् तीसरी पृथ्वी पर्यंत) अत्यन्त संक्लिष्ट परिणामके घारक अंब अंबरिष आदि जातिके असुरकुमार देवोंके द्वारा दुःख पाते हैं अर्थात् अंब-अंबरिष असुर- . कुमारदेव तीसरे नरक तक जाकर नारकी जीवोंको दुःख देते हैं तथा उनके
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३०४
मोक्षशास्त्र पूर्वके वैरका स्मरण करा कराके परस्परमें लड़ाते हैं। और दुःखी देख राजी होते हैं।
सूत्र ३-४-५ में नारकियोंके दुःखोंका वर्णन करते हुए उनके शरीर, उनका रंग, स्पर्श इत्यादि तथा दूसरे नारकियों और देवोंके दुःखका कारण कहा है वह उपचार कथन है। वास्तवमें वे कोई परपदार्थ दुःखोंके कारण नहीं हैं तथा उनका संयोगसे दुःख नहीं होता। परपदार्थोके प्रति जीवकी एकत्वबुद्धि ही वास्तवमें दुःख है उस दुःखके समय, नरंकगतिमें निमित्तरूप बाह्यसंयोग कैसा होता है उसका ज्ञान करानेके लिए यहां तीन सूत्र कहे हैं, परंतु यह नहीं समझना चाहिये कि वे शरीरादि वास्तवमें दुःखके
नारकोंकी उत्कृष्ट आयु का प्रमाण
तेष्वेकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा सत्त्वानां परा स्थितिः ॥६॥
अर्थ-उन नरकोंके नारकी जीवोंकी उत्कृष्ट प्रायुस्थिति क्रमसे पहिलेमें एक सागर, दूसरेमें तीन सागर, तीसरेमें सात सागर, चौथेमें दश सागर, पाँचवेंमें सत्रह सागर, छ8 में बावीस सागर और सातवेमें तेतीस सागर है।
टीका १. नारक गतिमें भयानक दुःख होनेपर भी नारकियों की आयु निरुपक्रम है-उनकी अकालमृत्यु नहीं होती।
२. आयु का यह काल वर्तमान मनुष्योंकी भायुकी अपेक्षा लम्बा लगता है परन्तु जीव अनादिकालसे है और मिथ्याष्टिपनके कारण यह नारकीपणा जीवने अनन्तवार भोगा है। अध्याय २ सूत्र १० की टीकामें द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावपरिभ्रमण ( परावर्तन ) का जो स्वरूप दिया गया है उसके देखनेसे मालूम होगा कि यह काल तो महासागर की एक बूंदसे भी बहुत कम है।
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अध्याय ३ सूत्र ६
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३. नारकी जीवोंको जो भयानक दुख होते हैं उसके वास्तविक कारण, भयानक शरीर, वेदना, मारपीट, तीव्र उष्णता तीव्र शीतलता इत्यादि नही है, परन्तु मिथ्यात्वके कारण उन सयोगोके प्रति अनिष्टपने की सोटी कल्पना करके जीव तीव्र आकुलता करता है उसका दुःख है । परसंयोग अनुकूल-प्रतिकूल होता ही नही, परन्तु वास्तवमे जीवके ज्ञानके क्षयोपशम उपयोगके अनुसार ज्ञेय ( - ज्ञानमे ज्ञात होने योग्य ) पदार्थ हैं, उन पदार्थोंको देखकर जव अज्ञानी जीव दुःखकी कल्पना करता है तब परद्रव्योपर यह आरोप होता है कि वे दुःखमे निमित्त हैं ।
४. शरीर चाहे जितना खराब हो, खानेको भी न मिलता हो, पीनेको पानी भी न मिलता हो, तीव्र गर्मी या ठण्ड हो, और बाह्य सयोग ( अज्ञानदृष्टिसे ) चाहे जितने प्रतिकूल हों परन्तु वे सयोग जीवको समयग्दर्शन ( धर्म ) करनेमें वाघक नही होते, क्योकि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यमे कभी वाघा नही डाल सकता, नरकगति में भी पहिलेसे सातवे नरक तक ज्ञानी पुरुषके सत्समागमसे पूर्वभवमें सुने गये श्रात्मस्वरूपके संस्कार ताजे करके नारकी जीव सम्यग्दर्शन प्रगट करते हैं। तीसरे नरकतकके नारकी जीवोको पूर्वभवका कोई सम्यग्ज्ञानी मित्र देव आत्मस्वरूप समझाता है तो उसके उपदेशको सुनकर यथार्थ निर्णय करके वे जीव सम्यग्दर्शन प्रगट करते हैं ।
५. इससे सिद्ध होता है कि - "जीवोंका शरीर अच्छा हो, खाना पीना ठीक मिलता हो और बाह्य संयोग अनुकूल हो, तो धर्म हो सकता है और उनकी प्रतिकूलता होने पर जीव धर्म नही कर सकता" यह मान्यता ठीक नही है । परको अनुकूल करनेमें प्रथम लक्ष रोकना और उसके अनुकूल होनेपर धर्मको समझना चाहिये,- - इस मान्यतामे भूल है, क्योकि धर्म पराधीन नही किन्तु स्वाधीन है और वह स्वाधीनतापूर्वक प्रगट किया जा सकता है ।
६. प्रश्न --- यदि बाह्य संयोग और कर्मोंका उदय धर्ममे बाघक नही है तो नारकी जीव चौथे गुरणस्थानसे ऊपर क्यों नही जाते ?
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मोक्षशास्त्र उत्तर-पहिले उन जीवोंने अपने पुरुषार्थकी बहुत विपरीतता की है और वे वर्तमानमें अपनी भूमिकाके अनुसार मंद पुरुषार्थ करते हैं इसलिये उन्हें ऊपर चढ़नेमे विलम्ब होता है।
७. प्रश्न- सम्यग्दृष्टिको नरकमें कैसा दुःख होता है ?
उत्तर-नरक या किसी क्षेत्रके कारण किसी भी जीवको सुख दुःख नही होता किंतु अपनी नासमझीके कारण दुःख और अपनी सच्ची समझके कारण सुख होता है किसी को पर वस्तुके कारण सुख दुःख या हानि लाभ हो ही नहीं सकता । अज्ञानी नारकी जीवको जो दुःख होता है वह अपनी विपरीत मान्यतारूप दोषके कारण होता है, बाह्य-संयोगके अनुसार या संयोगके कारण दुःख नही होता। अज्ञानी जीव परवस्तुको कभी प्रतिकूल मानते हैं और इसलिये वे अपनी अज्ञानताके कारण दुःखी होते हैं, और कभी पर वस्तुएँ अनुकूल हैं ऐसा मानकर सुखकी कल्पना करते हैं; इसलिये अज्ञानी जीव परद्रव्योंके प्रति इष्टत्व-अनिष्टत्वकी कल्पना करते है।
सम्यग्दृष्टि नारकी जीवोंके अनंत संसारका बंधन करनेवाली कषाय दूर होगई है स्वरूपाचरणकी आंशिक शांति निरंतर है इसलिये उतना सच्चा सुख उन्हें नरकमें भी निरन्तर मिलता है। जितनी कषाय है उतना अल्प दुःख होता है किंतु वह कुछ भवोंके बाद ही उस अल्प दुःखका भी नाश कर देगे। वे परको दुःखदायक नहीं मानते, किंतु अपनी असावधानी को दुःखका कारण मानते हैं इसलिये वे अपनी असावधानीको दूर करते जाते हैं । असावधानी दो प्रकार की है-स्वरूपकी मान्यताकी और स्वरूप के आचरणकी। उसमेंसे पहिले प्रकारकी असावधानी सम्यग्दर्शनके प्रगट होने पर दूर हो जाती है और दूसरे प्रकारको असावधानीको वे टालते जाते हैं।
८. सम्यग्दर्शन प्रगट करके-सम्यग्दृष्टि होनेके बाद जीव नरक आयुका बंध नहीं कर ता, किंतु सम्यग्दर्शनके प्रगट करनेसे पूर्व उस जीवने
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अध्याय ३ सूत्र ६
३०७ नरकायुका बंध किया हो तो वह पहिले नरकमें जाता है, किंतु वहाँ उसकी अवस्था पैरा ७ में बताये गये अनुसार होती है।
६. पहिले से चौथे नरक तक से निकलकर मनुष्य हुए जीवोमेसे योग्य जीव उसी भवमें मोक्ष प्राप्त कर लेते है। पाचवें नरकसे निकलकर मनुष्य हुए पात्रजीव सच्चा मुनित्व धारण कर सकते हैं, छ8 नरकसे निकलकर मनुष्य हुए पात्रजीव पांचवें गुणस्थान तक जा सकते हैं और सातवें नरकसे निकले हुए जीव क्रूर तिर्यंचगतिमे ही जाते हैं। यह भेद जीवोके पुरुषार्थकी तारतम्यताके कारण होते है।
१०. प्रश्न-सम्यग्दृष्टि जीवोका अभिप्राय नरकमे जानेका नही होता फिर भी यदि कोई सम्यग्दृष्टि नरकमे पहुँच जाय तो वहाँ तो जड़ कर्म का जोर है और जड़कर्म जीवको नरकमे ले जाता है इसलिये जाना पड़ता है, यह बात ठीक है या नही ?
उत्तर-यह बात ठीक नही है। एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कुछ नही कर सकता, इसलिये जड़कर्म जीवको नरकमें ले जाता हो ऐसा नही होता। सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि कोई जीव नरकमे जाना नही चाहता तो भी जो जो जीव नरकमे जाने लायक होते है वे वे जीव अपनी क्रियावती शक्तिके परिणमनके कारण वहाँ जाते हैं, उस समय कार्मण और तेजसशरीर भी उनकी अपनी ( पुद्गल परमाणुओंकी ) क्रियावती शक्तिके परिणमनके कारण उस क्षेत्रमे जीवके साथ जाते हैं।
और अभिप्राय तो श्रद्धागुणकी पर्याय है और इच्छा चारित्रगुणकी विकारी पर्याय है । द्रव्यका हरएक गुण स्वतंत्र और असहाय है । इसलिये जीव की इच्छा अथवा अभिप्राय चाहे जैसा हो फिर भी जीवकी क्रियावती शक्तिका परिणमन उससे (अभिप्राय और इच्छासे) स्वतंत्ररूपसे और उस समयकी उस पर्यायके धर्मानुसार होता है । वह क्रियावती शक्ति ऐसी है कि-जीवको किस क्षेत्रमे ले जाना चाहिये इसका ज्ञान होने की उसे आवश्यकता नह है। नरकमें जानेवाले वे जीव उनकी आयुपर्यंत उस क्षेत्रके संयोग
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३०८
मोक्षशास्त्र के योग्य होते हैं, और तब उन जीवोंके ज्ञानका विकास भी उस उस क्षेत्रमें रहनेवाले जीवों तथा पदार्थोके जाननेके योग्य होता है। नरकगतिका भव अपने पुरुषार्थके दोष से बँधा था इसलिये योग्य समयमें उसके फलरूपसे जीवकी अपनी योग्यताके कारण नारकीका क्षेत्र संयोगरूपसे होता है; कर्म उसे नरकमें नही ले जाता । कर्मके कारण जीव नरकमें जाता है यह कहना मात्र उपचार कथन है, जीवका कर्मके साथका निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध बताने के लिये शास्त्रों में वह कथन किया गया है, नहीं कि वास्तवमें जड़कर्म जीवको नरकमें ले जाते हैं। वास्तवमें कर्म जीवको नरकमें ले जाते हैं यह मानना मिथ्या है।
११. सागर-काल का परिमाण १-सागर दश करोड़xकरोड़ अद्धापल्य ।
१. अद्धापल्य-एक गोल खड्डा जिसका व्यास( Diametre) एक योजन (=२००० कोस ) और गहराई भी उतनी ही हो उसमें उत्तम भोगभूमिके सात दिन के भेडे के बच्चे के बालोंसे ठसाठस भरकर के उसमे से प्रति सौ वर्ष में एक बाल निकालने पर जितने समयमें गड्ढा खाली हो जाय, उतने समयका एक व्यवहारकल्प है, ऐसे असंख्यात व्यवहारकल्प= एक उद्धारपल्य । असंख्यात उद्धार पल्य-एक अद्धापल्य ।
इसप्रकार अधोलोकका वर्णन पूरा हुआ ॥ ६ ॥
मध्यलोकका वर्णन
कुछ द्वीप समुद्रों के नाम जम्बूद्वीपलवणोदादयः शुभनामानो द्वीपसमुद्राः ॥७॥
अर्थ-इस मध्यलोकमें अच्छे अच्छे नाम वाले जम्बूद्वीप इत्यादि द्वीप, और लवरणसमुद्र इत्यादि समुद्र है।
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मोक्षशास्त्र
३.
- इस द्वीपके विदेह क्षेत्रमें विद्यमान उत्तरकुरु भोगभूमि में अनादिनिधन पृथ्वीकायरूप अकृत्रिम परिवार सहित जम्बू वृक्ष है इसलिये इस द्वीप का नाम जम्बूद्वीप है ।
३१०
सात क्षेत्रों के नाम
भरत हैमवत हरिविदेह रम्यक हैरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि ॥ १० ॥
अर्थ - इस जम्बूद्वीपमें भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, वत और ऐरावत ये सात क्षेत्र हैं ।
हैरण्य -
टीका
जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में हम लोग रहते है, विदेहक्षेत्र में बीस विहरमान तीर्थंकरमें से श्री सीमंधरादि चार तीर्थंकर जम्बूद्वीपके विदेहमे विचरते है ॥ १० ॥
क्षेत्रोंके सात विभाग करनेवाले छह पर्वतोंके नाम तद्विभाजिनः पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवन्निषघनीलरुक्मिशिखरिणो वर्षधरपर्वताः ॥ ११ ॥
अर्थ — उन सात क्षेत्रोंका विभाग करनेवाले पूर्व से पश्चिम तक लम्वे १- हिमवत् २ - महाहिमवत्, ३ - निषेध, ४- नील, ५ - रुक्मि, और ६शिखरिन् ये छह वर्षधर - कुलाचल - पर्वत हैं [ वर्ष = क्षेत्र ] ॥। ११ ॥
कुलाचलों का रंग
माजु तपनी वैडूर्य रजतहेममयाः ॥ १२ ॥
अर्थ — ऊपर कहे गये पर्वत क्रमसे १ स्वर्ण, २-चांदी, ३- तपाया सोना, ४ - वैडूर्य (नील) मरिण ५-चांदी और ६ स्वर्ण जैसे रंगके है ||१२||
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३११
अध्याय ३ सूत्र १३-१४-१५-१६-१७
कुलाचलों का विशेष स्वरूप मणिविचित्रपार्था उपरि मूले च तुल्यविस्ताराः ॥१३॥
अर्थ-इन पर्वतोका तट चित्र-विचित्र मणियोंका है और ऊपर नीचे तथा मध्यमें एक समान विस्तारवाला है ॥ १३॥
कुलाचलों के ऊपर स्थित सरोवरों के नाम पद्ममहापद्मतिगिञ्छकेशरिमहापुण्डरीकपुण्डरीका हृदास्तेषामुपरि ॥ १४ ॥
अर्थ-इन पर्वतोके ऊपर क्रमसे १-पद्म, २-पहापद्म, ३-तिगिञ्छ, ४-केशरि, ५-महापुण्डरीक और ६-पुण्डरीक नामके ह्रद-सरोवर हैं ॥१४॥
प्रथम सरोवर की लम्बाई-चौड़ाई प्रथमो योजनसहसायामस्तदर्द्धविष्कम्भो हृदः ॥१५॥
अर्थ-पहिला पद्म सरोवर एक हजार योजन लम्बा और लंबाई से आधा अर्थात् पांचसो योजन चौड़ा है ॥ १५ ॥
प्रथम सरोवर की गहराई (ऊँडाई)
दशयोजनावगाहः ॥१६॥ मर्थ–पहिला सरोवर दश योजन अवगाह ( गहराई-ऊँडाई ) वाला है ॥ १६ ॥
उसके मध्यमें क्या है ? तन्मध्ये योजनं पुष्करम् ॥ १७॥ अर्थ-उसके बीच में एक योजन विस्तारवाला कमल है ॥ १७ ॥
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३१२
मोक्षशास्त्र महापद्मादि सरोवरों तथा उनमें रहनेवाले कमलोंका प्रमाण तद्विगुणद्विगुणा हृदा पुष्कराणि च ॥ १८॥ ___ अर्थ-पागेके सरोवर तथा कमल पहिलेके सरोवर तथा कमलों से क्रमसे दूने २ विस्तारवाले है ।
टीका
यह दूना २ क्रम तिगिंछनामके तीसरे सरोवर तक है, बादमें उसके आगेके तीन सरोवर तथा उनके तीन कमल दक्षिणके सरोवर और कमलोके समान विस्तारवाले हैं ॥ १८ ॥
हृदोंका विस्तार आदि
हृद नाम
स्थान
लम्बाई | चौड़ाई | गहराई | योजन योजना योजन
कमल योजन
धृति
पद्म । हिमवन् । १००० महापद्म महाहिमवन २००० तिगिन्छ ।
निषध
४००० ४ केशरी (केशरिन)/ नील ४००० ५ महापुण्डरीक रुक्मिन् १००० ६ पुण्डरीक शिखरिन् | १००० ५००
२०००
२०००
२ बुद्धि
१ लक्ष्मी
छह कमलों में रहनेवाली छह देवियाँ तन्निवासिन्यो देव्यः श्रीहीधृतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्म्यः पल्योपमस्थितयः ससामानिकपरिषत्काः ॥ १६ ॥
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अध्याय ३ सूत्र १६-२०-२१ अर्थ--एक 'पल्योपम आयुवाली और सामानिक तथा पारिपद् जातिके देवों सहित श्री, ह्री, धृति, कीति, बुद्धि और लक्ष्मी नामकी देवियाँ क्रमसे उन सरोवरोके कमलो पर निवास करती हैं ।
टीका ऊपर कहे हुए कमलोंकी कणिकाके मध्यभागमे एक कोस लम्बे, आघा कोस चौड़े और एक कोससे कुछ कम ऊंचे सफेद रंगके भवन हैं उसमें वे देवियाँ रहती है और उन तालावोंमे जो अन्य परिवार कमल हैं उनके ऊपर सामानिक तथा पारिषद देव रहते हैं ॥ १६ ॥
चौदह महा नदियोंके नाम गंगासिंधुरोहिद्रोहितास्याहरिद्धरिकान्तासीतासीतोदा नारीनरकांतासुवर्णरूप्यकूलारक्तारक्तोदाः
सरितस्तन्मध्यगाः ॥ २० ॥ अर्थ-( भरतमे ) गगा, सिन्धु, ( हैमवतमे ) रोहित, रोहितास्या, ( हरिक्षेत्रमे ) हरित्, हरिकान्ता, ( विदेहमे ) सीता, नोनोस, ( रम्यक्मे ) नारी, नरकान्ता, (हैरण्यवत्मे) स्वर्णकूला, रूप्यकुला और (ऐरावतमे ) रक्ता-रक्तोदा इस प्रकार ऊपर कहे हुए सात क्षेत्रोम नोह नदियां बीचमें वहती हैं।
टीका पहिले पद्म सरोवरमेसे पहिली तीन, ? पुडरीक नामना गरोवरसे अतिम तीन तथा वाकीके सरोवरोमेसे दो दो नदियां निकलती है।।२०।।
____ नदियों के वहनेका क्रमद्वयोद्वयोः पूर्वाः पूर्वगाः ॥ २१ ॥
अर्थ-(ये चौदह नदियां दोके समूहने लेना नाहिले) दोके समूहमेसे पहिलो नदी पूर्वको घोर बनी है । और अगर समुद्रमे मिलती है । ) ॥२१॥
४०
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मोक्षशास्त्र
शेषास्त्वपरगाः॥२२॥ अर्थ-बाकी रही सात नदियाँ पश्चिमकी ओर जाती हैं ( और उस तरफके समुद्रमें मिलती हैं। ) ॥ २२ ।।
इन चौदह महा नदियों की सहायक नदियाँ चतुर्दशनदीसहस्रपरिवृता गंगासिन्ध्वादयो नद्यः॥२३॥
अर्थ-गंगा-सिन्तु आदि नदियोंके युगल चौदह हजार सहायक नदियोंसे घिरे हुए हैं।
टीका सहायक नदियोंकी संख्याका क्रम भी विदेह क्षेत्रतक आगेके युगलोंमें पहिले पहिले युगलोंसे दूना २ है, और उत्तरके तीन क्षेत्रोंमें दक्षिण के तीन क्षेत्रोंके समान है। नदी युगल
सहायक नदियोंकी संख्या गंगा-सिंधु
१४ हजार रोहित रोहितास्या
२८ हजार हरित-हरिकान्ता
५६ हजार सीता-सीतोदा
१ लाख १२ हजार नारी-नरकान्ता स्वर्णकला-रूप्यकला
२८ हजार रक्ता-रक्तोदा
१४ हजार भरतक्षेत्रका विस्तार भरतः षड्विशतिपंचयोजनशतविस्तारः षट् चैकोनविंशतिभागा योजनस्य ॥२४॥
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अध्याय ३ सूत्र २४-२५-२६
३१५ अर्थ-भरतक्षेत्रका विस्तार, पाँचसौ छब्बीस योजन और एक यौजनके उन्नीस भागोंमेंसे ६ भाग अधिक है।
टीका
१. भरत क्षेत्रका विस्तार ५२६१९ योजन है। (देखो सूत्र ३२)
२. भरत और ऐरावत क्षेत्रके बीचमे पूर्व पश्चिम तक लंबा विजयाध पर्वत है जिनसे गंगा-सिन्धु और रक्ता-रक्तोदा नदियोके कारण दोनों क्षेत्रोंके छह छह खंड हो जाते है उनमें बीचका आर्यखंड और बाकीके पाँच म्लेच्छ खंड है। तीर्थंकरादि पदवीधारी पुरुष भरत-ऐरावतके मार्यखंडमे, तथा विदेह क्षेत्रोमे ही जन्म लेते है ॥ २४ ॥
आगेके क्षेत्र और पर्वतोंका विस्तार तद्विगुणद्विगुणविस्तारा वर्षधरवर्षा विदेहान्ताः॥२५॥
अर्थ-विदेहक्षेत्र तकके पर्वत और क्षेत्र भरतक्षेत्रसे दूने २ विस्तारवाले हैं ।। २५ ॥
विदेह क्षेत्रके आगेके पर्वत और क्षेत्रोंका विस्तार
उत्तरा दक्षिणतुल्याः ॥ २६ ॥ ___ अर्थ-विदेह क्षेत्रसे उत्तरके तीन पर्वत और तीन क्षेत्र दक्षिणके पर्वत और क्षेत्रोंके समान विस्तारवाले हैं ।
टीका क्षेत्रो और पर्वतोंका प्रकार नीचे प्रमाण हैक्षेत्र और पर्वत विस्तार-योजन ऊंचाई ऊंडाई १. भरतक्षेत्र ५२६१९ "
x २. हिमवत् कुलाचल १०५२१३ " १०० यो० २५ यो०
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३१६
मोक्षशास्त्र ३. हैमवत्क्षेत्र २१०५५ " ४. महा हिमवत् कुलाचल ४२१०११ " ५. हरिक्षेत्र
८४२१११ ६. निषध कुलाचल १६८४२२ " ७. विदेहक्षेत्र ३३६८४१ " ८. नील कुलाचल १६८४२१९ " ६. रम्यक् क्षेत्र
८४२१११ " १०. रुक्मिकुलाचल ४२१०१३ " ११. हैरण्यक्षेत्र
२१०५१ १२. शिखरीकुलाचल १०५२१३ " १३. ऐरावतक्षेत्र ५२६१६ ॥
xxxxxx
[ कुलाचलका अर्थ पर्वत समझना चाहिये ] ___ भरत और ऐरावतक्षेत्र में कालचक्रका परिवर्तन भरतैरावतयोवृद्धिहासौ षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यवस
पिणीभ्याम् ॥ २७॥ __ अर्थ-छह कालोंसे युक्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के द्वारा भरत और ऐरावत क्षेत्रमें जीवोंके अनुभवादि की वृद्धि-हानि होती रहती है।
टीका १. बोस कोड़ा कोड़ी सागरका एक कल्पकाल होता है उसके दो भेद हैं; (१)-उत्सर्पिणी-जिसमें जीवोंके ज्ञानादि की वृद्धि होती है, और (२)-प्रवसर्पिणी-जिसमें जीवोके ज्ञानादिका ह्रास होता है।
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३१८
मोक्षशास्त्र
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५ १२० वर्ष २० वर्ष ७ हाथ २ हाथ ६ २० वर्ष १५ वर्ष २ हाथ १ हाथ
मनुष्यों का आहार काल
आहार १ चौथे दिन बेर के बराबर एक दिनके अंतरसे बहेड़ा)
तीसरे काल तक भरत (फल) के बराबर
ऐरावत क्षेत्रमे भोगभूमि रहती एक दिनके अंतरसे आंवला )
बराबर रोज एक बार
कई बार ६ अति प्रचुरवृत्ति, मनुष्य नग्न, मछली इत्यादिके आहार, मुनिश्रावकोंका अभाव, धर्मका नाश ॥ २७ ॥
अन्य भूमियोंकी व्यवस्था ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः॥२८॥
अर्थ-भरत और ऐरावत क्षेत्रको छोड़कर दूसरे क्षेत्रों में एक ही अवस्था रहती है-उनमें कालका परिवर्तन नही होता ॥ २८ ॥
हैमवतक इत्यादि क्षेत्रोंमें आयु एकद्वित्रिपल्योपमस्थितयो हैमवतकहारिवर्षकदेव
कुरवकाः ॥ २६ ॥ अर्थ-हैमवतक, हारिवर्षक और देवकुरु ( विदेहक्षेत्रके अन्तर्गत एक विशेष स्थान ) के मनुष्य, तिथंच क्रमसे एक पल्य, दो पल्य और तीन पल्यकी आयुवाले होते हैं।
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अध्याय ३ सूत्र २९-३०-३१
टीका
इन तीन क्षेत्रोंके मनुष्योंकी ऊँचाई क्रमसे एक, दो और तीन कोस की होती है। शरीरका रंग नील, शुक्ल और पीत होता है ॥ २६ ॥ हैरण्यवतकादि क्षेत्रों में आयु तथोत्तराः ॥ ३० ॥
-
अर्थ — उत्तरके क्षेत्रोंमें रहनेवाले मनुष्य भी हैमवतकादिकके मनुष्य के समान आयुवाले होते हैं ।
टीका
१. हैरण्यवतक क्षेत्रकी रचना हैमवतकके समान, रम्यक्क्षेत्रकी रचना हरिक्षेत्रके समान और उत्तरकुरु ( विदेहक्षेत्रके अंतर्गत स्थान विशेष ) की रचना देवकुरुके समान है ।
३१६
२. भोगभूमि- इस तरह उत्तम, मध्यम, और जघन्यरूप तीन भोगभूमिके दो दो क्षेत्र है । जम्बूद्वीपमें छह भोगभूमियाँ और अढ़ाई द्वीपमें कुल ३० भोगभूमियाँ हैं जहाँ सर्वप्रकारकी सामग्री कल्पवृक्षोसे प्राप्त होती है उन्हें भोगभूमि कहते हैं ॥ ३० ॥
विदेहक्षेत्र में आयु की व्यवस्था
विदेहेषु संख्येयकालाः ॥ ३१ ॥
अर्थ — विदेहक्षेत्रोंमें मनुष्य और तियंचोंकी आयु संख्यात वर्षकी होती है ।
टीका
विदेहक्षेत्र में ऊँचाई पाँचसो धनुष और आयु एक करोड़ वर्ष पूर्वकी होती है ॥ ३१ ॥
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मोक्षशास्त्र
भरतक्षेत्रका दूसरी तरहसे विस्तार
भरतस्य विष्कंभो जम्बूद्वीपस्य नवतिशतभागः ॥ ३२॥
अर्थ - भरतक्षेत्रका विस्तार जम्बूद्वीपके एक सौ नब्वेवाँ (१९०)
३२०
भागके बराबर है !
टीका
२४ वें सूत्रमें भरतक्षेत्रका विस्तार बताया है उसमें और इसमें कोई अंतर नहीं है मात्र कहनेका प्रकार भिन्न है जो एक लाखके १६० हिस्से किये जाँय तो हरएक हिस्सेका प्रमाण ५२६६योजन होता है ॥३२॥ धातकी खंडका वर्णन
दूर्धातकीखण्डे ॥ ३३ ॥
अर्थ — धातकीखंड नामके दूसरे द्वीपमे क्षेत्र, कुलाचल, मेरु, नदी इत्यादि सब पदार्थोकी रचना जम्बूद्वीपसे दूनी दूनी है ।
टीका
घातकीखण्ड लवरणसमुद्रको घेरे हुए है । उसका विस्तार चार लाख योजन है । उसके उत्तरकुरु प्रान्त में धातकी ( आँवले ) के वृक्ष हैं इसलिये उसे घातकीखण्ड कहते है ॥ ३३ ॥
पुष्करार्ध द्वीप का वर्णन
पुष्करार्द्धे च ॥ ३४ ॥
अर्थ – पुष्करार्द्ध द्वीपमें भी सब रचना जम्बूद्वीपकी रचनासे दूनी दूनी है ।
टीका
पुष्करवरद्वीपका विस्तार १६ लाख योजन है, उसके बोचमें चूड़ीके आकार मानुषोत्तर पर्वत पड़ा हुआ है । जिससे उस द्वीपके दो हिस्से होगये
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अध्याय ३ सूत्र ३४-३५-३६
३२१ है । पूर्वार्धमें सारी रचना धातकी खडके समान है और जम्बूद्वीपसे दूनी है । इस द्वीपके उत्तरकुरुप्रान्तमे एक पुष्कर (-कमल ) है। इसलिये उसे पुष्करवरद्वीप कहते है ॥ ३४ ॥
मनुष्य क्षेत्रप्राङ्मानुषोत्तरान्मनुष्याः ॥ ३५ ॥
अर्थ-मानुषोत्तर पर्वत तक अर्थात् अढ़ाई द्वीपमे ही मनुष्य होते है,-मानुषोत्तर पर्वतसे परे ऋद्धिधारी मुनि या विद्याधर भी नही जा सकते।
टीका १. जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, धातकीखण्ड, कालोदधि और पुष्कराध इतना क्षेत्र अढाई द्वीप है, इसका विस्तार ४५ लाख योजन है।
२. केवल समुद्घात और मारणांतिक समुद्घातके प्रसंगके अतिरिक्त मनुष्यके प्रात्मप्रदेश ढाई द्वीपके बाहर नहीं जा सकते ।
३ आगे चलकर आठवाँ नन्दीश्वर द्वीप है उसकी चारों दिशामें चार अंजनगिरि पर्वत, सोलह दधिमुखपर्वत और बत्तीस रतिकर पर्वत है। उनके ऊपर मध्यभागमें जिन मदिर हैं। नन्दीश्वर द्वीपमे इसप्रकार बावन जिन मदिर हैं। बारहवाँ कुण्डलवर द्वीप है उसमे चार दिशाके मिलाकर चार जिनमंदिर हैं । तेरहवां रुचकवर नामका द्वीप है उसके वीचमे रुचकनामका पर्वत है, उस पर्वतके ऊपर चारो दिशामे चार जिन मन्दिर है वहाँ पर देव जिन पूजनके लिये जाते हैं इस पर्वतके ऊपर अनेक कूट हैं उनमे अनेक देवियोके निवास है । वे देवियां तीर्थंकरप्रभुके गर्भ और जन्मकल्याणकमे प्रभुको माताकी अनेक प्रकारसे सेवा करती हैं ॥ ३५ ॥
मनुष्योंके भेद आर्या म्लेच्छाश्च ॥ ३६ ॥ अर्थ-आर्य और म्लेच्छके भेदसे मनुष्य दो प्रकार के हैं। ४१
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३२२
मोक्षशास्त्र
टीका १. आर्यों के दो भेद हैं-ऋद्धिप्राप्त आर्य और अनऋद्धिप्राप्त
आर्य।
ऋद्धिप्राप्तमार्य=जिन आर्य जीवोंको विशेष शक्ति प्राप्त हो । अनऋद्धिप्राप्तआर्य=जिन आर्य जीवोंको विशेप शक्ति प्राप्त नहीं हो।
ऋद्धिप्राप्त आर्य
२. ऋद्धिप्राप्तआर्य के आठ भेद हैं-(१) बुद्धि, (२) क्रिया, ( ३ ) विक्रिया, (४) तप, (५) बल, (६ ) औषध, (७) रस, और (८) क्षेत्र इन आठ ऋद्धियोंका स्वरूप कहते है।
३. बुद्धिऋद्धि-बुद्धिऋद्धिके अठारह भेद हैं-(१) केवलज्ञान, (२) अवधिज्ञान, (३) मनःपर्ययज्ञान, (४) बीजबुद्धि, (५) कोष्टबुद्धि, (६) पदानुसारिणी, (७) सभिन्न श्रोतृत्व, (८) दूरास्वादनसमर्थता, ( 8 ) दूरदर्शनसमर्थता, ( १० ) दूरस्पर्शनसमर्थता, (११) दूरघ्रारणसमर्थता, (१२) दूरश्रोतृसमर्थता, ( १३ ) दशपूर्वित्व, (१४ ) चतुर्दशपूवित्व, ( १५) अष्टांगनिमित्तता, ( १६ ) प्रज्ञाश्रमणत्व, ( १७) प्रत्येकवुद्धता, और ( १८ ) वादीत्व इनका स्वरूप निम्नप्रकार है
(१-३) केवलज्ञान,-अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान इन तीनोंका स्वरूप अध्याय १, सूत्र २१ से २५ तथा २७ से ३० तक में आ गया है।
(४) वीजवुद्धि-एक वीजपदके ( मूलपदके ) ग्रहण करनेसे अनेकपद, और अनेक अर्थोका जानना सो वीजबुद्धि है।
(५) कोएबुद्धि-जैसे कोठारमें रखे हुए धान्य, वीज इत्यादि बहुत समय तक जैसके तैसे बने रहते हैं घटते बढ़ते नही है परस्परमें
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अध्याय ३ सूत्र ३६
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मिलते नहीं हैं, उसीप्रकार दूसरेके उपदेशसे ग्रहण किये हुये बहुतसे शब्द, अर्थ, बीज जिस बुद्धिमें जैसे तैसे रहते है एक अक्षर घट बढ़ नही होते आगे पीछे अक्षर नही होते वह कोष्टबुद्धि है ।
(६) पदानुसारिणीबुद्धि - ग्रन्थके प्रारम्भ मध्य और अन्तका एक पद श्रवण करके समस्त ग्रन्थ तथा उसके अर्थका निश्चय करना सो पदानुसारिणीबुद्धि है |
(७) संभिन्नश्रोतृत्वबुद्धि - चक्रवर्ती की छावनी चार योजन लम्बी और नवयोजन चौड़ी पड़ी होती है उसमे हाथी, घोड़ा, ऊँट, मनुष्यादिके जुदे २ प्रकारके अक्षर-अनक्षरात्मक शब्द एक समय एक साथ उत्पन्न होते हैं उसे तपविशेष के कारण ( वीर्यान्तराय श्रुतज्ञानांतराय तथा श्रोत्रेन्द्रियावरण कर्मका उत्कृष्ट क्षयोपशम होनेपर ) एक कालमे जुदे जुदे श्रवण करना सो सभिन्नश्रोतृत्वबुद्धि है ।
(८) दूरास्वादन समर्थ ताबुद्धि-तपविशेष के कारण ( प्रगट होनेवाले असाधारण रसनेन्द्रिय श्रुतज्ञानावरण, वीर्यान्तरायके क्षयोपशम और आगोपाग नामकर्मके उदयसे ) मुनिको रसका जो विषय नवयोजन प्रमारण होता है उसके रसास्वादनकी ( रस जाननेकी ) सामर्थ्य होना सो दूरास्वादनसमर्थताबुद्धि है ।
(९-१२) दूरदर्शन - स्पर्शन - घाण - श्रोतृसमर्थताबुद्धि —ऊपर लिखे अनुसार चक्षुरिन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, और श्रोत्रेन्द्रियके विषयके क्षेत्रसे बाहर बहुतसे क्षेत्रोके रूप, स्पर्श, गंध और शब्द को जानने की सामर्थ्य का होना सो उस उस नामकी चार प्रकारकी बुद्धि है ।
(१३) दशपूर्वित्वबुद्धि - महारोहिणी इत्यादि विद्या- देवता तीन बार आवे और हर एक अपना २ स्वरूप सामर्थ्य प्रगट करें ऐसे वेगवान विद्या- देवताओ के लोभादिसे जिनका चारित्र चलायमान नही होता उसे दशपूवित्वबुद्धि कहते है ।
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(१४) चतुर्दशपूर्वित्वबुद्धि – संपूर्ण श्रुतकेवलित्वका होना चतुर्दशपूवित्वबुद्धि है |
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(१५) अष्टांगनिमित्तताबुद्धि — अन्तरिक्ष, भोम, अंग, स्वर, व्यंजन, लक्षण, छिन्न और स्वप्न यह आठ प्रकारका निमित्तज्ञान है, उसका स्वरूप निम्नप्रकार है:
-
सूर्य, चन्द्र, नक्षत्रके उदय, अस्तादिको देखकर अतीत श्रनागतफल को जानना सो अन्तरिक्षनिमित्तज्ञान है ॥ १ ॥
पृथ्वी की कठोरता, कोमलता, चिकनाहट या रूखापन देखकर विचार करके अथवा पूर्वादि दिशामें सूत्र पड़ते हुए देखकर हानि - वृद्धि; जय-पराजय इत्यादि को जानना तथा भूमिगत स्वर्णं चांदी इत्यादिको प्रगट जानना सो भोमनिमित्तज्ञान है ॥ २ ॥
अंगोपांगादिके दर्शन - स्पर्शनादिसे त्रिकालभावी सुख दुःखादि को जानना सो अंगनिमित्तज्ञान है ॥ ३ ॥
अक्षर-अनक्षररूप तथा शुभाशुभको सुनकर इष्टानिष्टफलको जानना सो स्वरनिमित्तज्ञान है ॥ ४ ॥
मस्तक, मुख, गर्दन इत्यादिमें तल, मूरल, लाख इत्यादि लक्षण देखकर त्रिकाल सम्बन्धी - हित-अहित को जान लेना सो व्यंजननिमित्तज्ञान है ॥ ५ ॥
शरीरके ऊपर श्रीवृक्ष, स्वस्तिक, कलश इत्यादि चिह्न देखकर त्रिकाल सम्बन्धी पुरुषोंके स्थान, मान, ऐश्वर्यादि विशेषका जानना सो लक्षणनिमित्तज्ञान है ॥ ६ ॥
वस्त्र-शस्त्र-श्रासन-शयनादिसे, देव-मनुष्य - राक्षसादिसे तथा शस्त्रकंटकादिसे छिदे हुएको देखकर त्रिकाल सम्बन्धी लाभ-लाभ, सुख दुःखका जानना सो छिन्ननिमित्तज्ञान है ॥ ७ ॥
वात,
पित्त, कफ रहित पुरुपके मुख में पिछली रात्रिमें चन्द्रमा, सूर्य, पृथ्वी, पर्वत या समुद्रका प्रवेशादिका स्वप्न होना सो शुभस्वप्न है, घी तेलसे अपनी देह लिप्त और गधा ऊँट पर चढ़कर दक्षिण दिशामें गमन :
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अध्याय ३ सूत्र ३६
३२५ इत्यादि स्वप्न अशुभ स्वप्न है; उसके दर्शनसे आगामी कालमें जीवन-मरण, सुख-दुःखादिका ज्ञान होना सो स्वप्ननिमित्तज्ञान है। इन पाठ प्रकारके निमित्तज्ञानका जो ज्ञाता हो उसके अष्टागनिमित्तबुद्धिऋद्धि है।
(१६) प्रज्ञाक्षमणत्वबुद्धि-किसी अत्यन्त सूक्ष्म अर्थके स्वरूप का विचार जैसाका तैसा, चौदहपूर्वधारी ही निरूपण कर सकते हैं दूसरे नही कर सकते, ऐसे सूक्ष्म अर्थका जो संदेहरहित निरूपण करे ऐसी प्रकृष्ट श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे प्रगट होनेवाली प्रज्ञाशक्ति प्रज्ञाश्रवणत्वबुद्धि है।
(१७) प्रत्येकवुद्धितावृद्धि-परके उपदेशके बिना अपनी शक्तिविशेषसे ज्ञान-संयमके विधानमे निपुण होना प्रत्येकबुद्धताबुद्धि है।
(१८)वादित्वबुद्धि-इन्द्र इत्यादि पाकर वाद-विवाद करे उसे निरुत्तर करदे, स्वयं रुके नही और सामनेवाले वादीके छिद्रको जान लेना ऐसी शक्ति वादित्वबुद्धि है ।
__इसप्रकार - ऋद्धियोमेसे पहिली बुद्धिरिद्धिके अठारह प्रकार हैं। यह बुद्धिरिद्धि सम्यग्ज्ञानको महान् महिमाको बताती है।
४. दूसरी क्रियाऋद्धिका स्वरूप १. क्रियाऋद्धि दो प्रकारकी है आकाशगामित्व और चारण ।
(१) चारण ऋद्धि अनेक प्रकार की है-जलके ऊपर पैर रखने या उठाने पर जलकायिक जीवोंको बाधा न उत्पन्न हो सो जलचारणरिद्धि है । भूमिसे चार अंगुल ऊपर आकाशमें शीघ्रतासे सैकड़ों योजन गमन करनेमे समर्थ होना सो जंघाचारणरिद्धि है। उसीप्रकार तंतुचारण, पुष्पचारण, पत्रचारण, श्रेणिचारण, अग्निशिखाचारण इत्यादि चारण रिद्धियाँ है । पुष्प, फल इत्यादिके ऊपर गमन, करनेसे उन पुष्प फल इत्यादि के जीवोको बाधा नहीं होना सो समस्तचारणरिद्धि है।
(२) आकाशगामित्व विक्रियाऋद्धि-पर्यंकासन अथवा कायोत्सर्गासन करके पगके उठाये धरे बिना ही आकाशमै गमन करनेमे निपुण होना सो आकाशगामित्वक्रियाऋद्धि है।
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५. तीसरी विक्रियाऋद्धिका स्वरूप
विक्रिया ऋद्धि अनेक प्रकारकी है- ( १ ) अणिमा, (२) महिमा, (३) लघिमा, (४) गरिमा, (५) प्राप्ति, (६) प्राकाम्य, (७) ईशित्व, (८) वशित्व, (e) अप्रतिघात, (१०) अंतर्धान, (११) कामरूपित्व इत्यादि अनेक भेद हैं उनका स्वरूप निम्न प्रकार है ।
अणुमात्र शरीर करनेकी सामर्थ्य को अणिमाऋद्धि कहते हैं, वह कमलके छिद्रमें प्रवेश करके वहाँ बैठकर चक्रवर्तीकी विभूति रचता है । १ । मेरुसे भी महान शरीर करनेकी सामर्थ्यको महिमाऋद्धि कहते है । २ । पवनसे भी हलका शरीर बनानेकी सामर्थ्य को लघिमाऋद्धि कहते हैं । ३ । वज्रसे भी अतिभारी शरीर करने की सामर्थ्यको गरिमाऋद्धि कहते हैं । ४ । भूमिमें बैठकर उँगलीको आगे करके मेरुपर्वतके शिखर तथा सूर्यविमानादिको स्पर्श करनेकी शक्तिको प्राप्तिऋद्धि कहते हैं । ५ । जलमे जमीनको उन्मज्जन ( ऊपर लाना ) तथा निमज्जन ( डुबा देना ) करनेकी शक्तिको प्राकाम्यऋद्धि कहते हैं । ६ । त्रिलोकका प्रभुत्व रचनेकी सामर्थ्यको ईशित्व ऋद्धि कहते हैं ७ | देव, दानव, मनुष्य इत्यादिको वशीकरण करनेकी सामर्थ्यको वशित्वऋद्धि कहते हैं । ८ । पर्वतादिक अन्दर आकाशकी भांति गमन - आगमन करनेकी सामर्थ्यको प्रतिघातऋद्धि कहते हैं । ६ । अदृश्य होनेकी सामर्थ्यको अन्तर्धानऋद्धि कहते हैं । १० । एक साथ अनेक आकाररूप शरीर करने की सामर्थ्यको कामरूपित्वऋद्धि कहते हैं । ११ । इत्यादि अनेक प्रकार की विक्रिया ऋद्धि हैं ।
नोट:- यहाँ निमित्तनैमित्तिकसंबंध समझाया है किन्तु इससे यह नहीं समझना चाहिये कि जीव शरीरका या अन्य किसी द्रव्यका कुछ करता है । एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कुछ नही कर सकता । शरीरादि परद्रव्यकी जव उस प्रकारकी होने योग्य अवस्था होती है तब जीवके भाव तदनुकूल अपने कारण होते हैं । इतना निमित्त - नैमित्तिकसंबंध यहाँ बतलाया गया है ।
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३२७ ६. चौथी तप ऋद्धि तपऋद्धि सात प्रकारको है-(१) उग्रतप, (२) दीप्तितप, (३) निहारतप, (४) महानतप, (५) घोरतप, (६) घोरपराक्रमतप औरा (७) घोर ब्रह्मचर्यतप । उसका स्वरूप निम्नप्रकार है।
एक उपवास या दो-तीन-चार-पांच इत्यादि उपवास के निमित्तसे किसी योगका आरंभ हुआ तो मरणपर्यंत उपवासके उन दिनोंसे कम दिनों मे पारणा नहीं करता, किसी कारणसे अधिक उपवास हो जाय तो मरणपर्यंत उससे कम उपवास करके पारणा नहीं करता, ऐसी सामर्थ्य प्रगट होना सो उग्रतप ऋद्धि है ॥ १ ॥ महान उपवासादिक करते हुए मनवचन-कायका वल बढता ही रहे, मुख दुर्गंध रहित रहे, कमलादिककी सुगंध जैसी सुगंधित श्वास निकले और शरीर को महान् दीप्ति प्रगट हो जाय सो दीप्तिऋद्धि है ॥२॥ तपे हुए लोहेकी कढ़ाईमें पानी की बून्र्दे पड़ते ही जैसे सूख जाय, तैसे आहार पच जाय, सूख जाय और मल रुधिरादिरूप न परिणमे तथा निहार भी न हो सो निहारतपऋद्धि है ।।३।। सिंहक्रीड़ितादि महान तप करनेमें तत्पर होना सो महानतपऋद्धि है ॥ ४ ॥ वात, पित्त, श्लेष्म इत्यादिसे उत्पन्न हुए ज्वर, खांसी, श्वास, शूल, कोढ़, प्रमेहादिक अनेक प्रकारके रोगवाला शरीर होने पर भी अनशन, कायक्लेशादि न छूटें और भयानक स्मशान, पर्वतका शिखर, गुफा, खण्डहर, ऊजड़ ग्राम इत्यादि में दुष्ट राक्षस, पिशाचादि प्रवर्तित हों और बुरे विकार धारण करें तथा गीदड़ोंका कठोर रुदन, सिंह-व्याघ्र इत्यादि दुष्ट जीवोंका भयानक शब्द जहाँ निरंतर होता हो ऐसे भयंकर स्थानमें भी निर्भय होकर रहे सो घोरतपऋद्धि है ॥५॥ पूर्वोक्त रोगसहित शरीर होने पर भी अति भयंकर स्थानमे रहकर योग (स्वरूपकी एकाग्रता) बढ़ानेकी तत्परताका होना सो घोरपराक्रमतपऋद्धि है ॥ ६ ॥ बहुत समयसे ब्रह्मचर्यके धारक मुनिके अतिशय चारित्रके बलसे ( मोहनीयकर्मके क्षयोपशम होने पर ) खोटे स्वप्नोंका नाश होना सो घोर ब्रह्मचर्यतपऋद्धि है ॥ ७ ॥ इसप्रकार सात प्रकारको तप ऋद्धि है।।
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मोक्षशास्त्र नोट:-सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक चारित्रधारी जीवोंके कैसा उग्र पुरुषार्थ होता है सो यहाँ बताया है । तपऋद्धिके पांचवें और छ? भेदोंमें अनेक प्रकारके रोगोंवाला शरीर कहा है उससे यह सिद्ध होता है कि-शरीर परवस्तु है, चाहे जैसा खराब हो फिर भी वह आत्माको पुरुषार्थ करने में बाधक नही होता । 'शरीर निरोग हो और वाह्य अनुक्ललता हो तो धर्म हो सकता है' ऐसी मान्यता मिथ्या है ऐसा सिद्ध होता है।
७. पाँचवीं बलद्धिका स्वरूप बल ऋद्धि तीन प्रकार की है-(१) मनोवलऋद्धि (२) वचनबलऋद्धि और ( ३ ) कायवलऋद्धि, उनका स्वरूप निम्नप्रकार है। प्रकर्ष पुरुषार्थसे मन.श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तरायके क्षयोपशम होने पर अंतर्मुहूर्तमें संपूर्ण श्रुत अर्थके चितवन करनेकी सामर्थ्य सो मनोबलऋद्धि है ॥ १ ।। अतिशय पुरुषार्थसे मन-इन्द्रिय श्रुतावरण तथा जिह्वा श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तरायके क्षयोपशम होने पर अंतर्मुहुर्तमें सकल श्रुत को उच्चारण करने की सामर्थ्य होना तथा निरंतर उच्च स्वरसे बोलने पर खेद नहीं उत्पन्न हो, कंठ या स्वरभंग नही हो सो वचनवलऋद्धि है ॥२॥ वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे असाधारण कायबल प्रगट हो और एक मास, चार मास या बारहमास प्रतिमायोग धारण करने पर भी खेदरूप नहीं होना सो कायबलऋद्धि है ॥ ३ ॥
८. छट्ठी औषधिऋद्धिका स्वरूप औषधिऋद्धि आठ प्रकार की है-(१) आमर्ष ( २ ) क्षेल (३) जल (४) मल (५) विट (६) सर्व (७) आस्याविष (८) दृष्टिविष उनका स्वरूप निम्नप्रकार है ।
असाध्य रोग हो तो भी जिनके हाथ-चरणादिके स्पर्श होने से ही सब रोग नष्ट हो जॉय सो पामर्षऔषधऋद्धि है ॥ १॥ जिनके थूक लार कफादिकके स्पर्श होने से ही रोग नष्ट हो जाय सो क्षेलौषधऋद्धि है ॥२॥ जिनके देहके पसीनेका स्पर्श होनेसे रोग मिट जाय सो जल
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३२६ औषधिऋद्धि है ॥ ३ ॥ जिनके कान दांत, नाक और नेत्रका मल ही सव रोगोंके निराकरण करनेमे समर्थ हो सो मलऔषधिऋद्धि है ॥ ४ ॥ जिनकी बीट-टट्टी तथा मूत्र ही औषधिरूप हो सो बोटऔषधिऋद्धि है ॥ ५॥ जिनका अंग उपांग नख, दाँत, केशादिकके स्पर्श होनेसे ही सब रोगोंको दूर कर देता है सो सर्वोषधिऋद्धि है ॥ ६ ॥ तीन जहरसे मिला हुआ थाहार भी जिनके मुखमें जाते ही विष रहित हो जाय तथा विषसे व्याप्त जीवका जहर जिनके वचनसे ही उतर जाय वो आस्याविषग्रीषधिऋद्धि है ॥७॥ जिनके देखनेसे महान विषधारी जीवका विष जाता रहे तथा किसी के विष चढा हो तो उतर जाय ऐसी ऋद्धि सो दृष्टिविपऋद्धि है ॥ ८ ॥
९. सातवीं रसऋद्धिका स्वरूप रसऋद्धि ६ प्रकार की है। (१) आस्यविष (२) दृष्टिविष (३) क्षीर (४) मधुस्रावी (५) घृतस्रावी और (६ ) अमृतस्रावी उनका स्वरूप निम्नप्रकार है
प्रकृष्ट तपवाले योगी कदाचित् क्रोधी होकर कहे कि 'तू मर जा' तो उसी समय विष चढने से मर जाय सो आस्यविषरसऋद्धि है ॥१॥ कदाचित् क्रोधरूपी दृष्टिके देखने से मर जावे सो दृष्टिविषऋद्धि है ॥२॥ वीतरागी मुनिके ऐसी सामर्थ्य होय कि उनके क्रोधादिक उत्पन्न न हो और उनके हाथमें प्राप्त हुआ नीरस भोजन क्षीररसरूप हो जाय तथा जिनके वचन दुर्बलको क्षीरके समान पुष्ट करे सो क्षीररसऋद्धि है ॥ ३ ॥ ऊपर कहा हुआ भोजन, मिष्ट रसरूप परिणमित हो जाय सो मधुस्रावीरसऋद्धि है ॥ ४॥ तथा वह भोजन, घृतरसरूप परिणमित हो जाय सो घृतस्रावीरसऋद्धि है ॥ ५॥ "भोजन अमृत रसरूप परिणमित हो जाय सो अमृतस्रावीरसऋद्धि है ॥ ६ ॥ इसप्रकार ६ प्रकार की रसऋद्धि है।
१०. आठवीं क्षेत्रऋद्धिका स्वरूप क्षेत्रऋद्धि दो प्रकार की है। (१) अक्षीणमहान और ( २)
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३३०
मोक्षशास्त्र
अक्षीरगमहालय | उनका स्वरूप निम्नप्रकार है ।
लार्भात रायके उत्कृष्ट क्षयोपशम से अति संयमवान मुनिको जिस भाजन में से जो भोजन दे उस भाजन मेंसे चक्रवर्ती की समस्त सैन्य भोजन करले तो भी उस दिन भोजन सामग्री न घटे सो अक्षीरणमहानक्षेत्रऋद्धि है ॥ १ ॥ ऋद्धिसहितमुनि जिस स्थानमें बैठे वहाँ देव, राजा, मनुष्यादिक बहुतसे आकर बैठें तो भी क्षेत्रमें कमी न पड़े, आपस में बाधा न होय सो अक्षीणमहालयक्षेत्रऋद्धि है ||२|| इसप्रकार दो प्रकारकी क्षेत्रऋद्धि है ।
इस प्रकार, पहिले आर्य और म्लेच्छ ऐसे मनुष्योके दो भेद किये थे उनमें से आर्यके ऋद्धिप्राप्त और अनऋद्धिप्राप्त ऐसे दो भेद किये । उनमें से ऋद्धिप्राप्त आर्योंके ऋद्धिके भेदोंका स्वरूप वर्णन किया; अब अनऋद्धिप्राप्त आर्योका भेद वर्णन करते हैं ।
११. अनऋद्धिप्राप्त आर्य
अनऋद्धिप्राप्त आर्योके पांच भेद हैं- ( १ ) क्षेत्रआर्य, ( २ ). जातिश्रार्य, ( ३ ) कर्मचार्य, (४) चारित्रआर्य और ( ५ ) दर्शनआर्य, उनका स्वरूप निम्नप्रकार है ।
(१) क्षेत्रआर्य - जो मनुष्य आर्य देशमें उत्पन्न हों उन्हें क्षेत्रश्रार्य कहते हैं ।
(२) जाति आर्य - जो मनुष्य ईक्ष्वाकुवंश, भोजवंशादिकमें उत्पन्न हों उन्हें जातिआर्य कहते है ।
( ३ ) कर्म आर्य – उनके तीन भेद होते हैं- सावद्यकर्म आर्य, अल्पसावद्यकर्म आर्य और असावद्यकर्म आर्य । उनमेंसे सावद्यकर्ममार्यो ६ भेद हैं-असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प और वाणिज्य |
जो तलवार इत्यादि आयुध धारण करके आजीविका करते हैं उन्हें असि कर्मचार्य कहते हैं । जो द्रव्य की आय तथा खर्च लिखने में निपुण हों उन्हें मसिकर्मप्रार्य कहते है । जो हल वखर इत्यादि खेती के साधनोसे खूब खेती करके आजीविकामे प्रवीण हों उन्हें कृषिकमंआर्य कहते हैं । श्रालेख्य, गणितादि बहत्तर कलामें प्रवीण हों उन्हें विद्याकर्म आर्य कहते हैं ।
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अध्याय ३ सूत्र ३६ धोबी, हजाम, कुम्हार, लुहार, सुनार इत्यादिके कार्य में प्रवीण हों उन्हें शिल्पकर्मआर्य कहते हैं। जो चन्दनादि गंध, घी इत्यादि रस, धान्य, कपास, वस्त्र, मोती-माणिक इत्यादि अनेक प्रकारकी वस्तुओंका संग्रह करके व्यापार करते हैं उन्हे वाणिज्यकर्मआर्य कहते है।
ये ६ प्रकारके कर्म जीवकी अविरतदशामें (पहिलेसे चौथे गुणस्थान तक ) होते है इसलिये उन्हे सावद्यकर्मआर्य कहते हैं।
विरताविरतरूप परिणत जो श्रावक (पाँचवें गुणस्थानवर्ती ) हैं उन्हे अल्पसावद्यकर्मआर्य कहते हैं।
जो सकलसंयमी साधु हैं उन्हें असावद्यकर्ममार्य कहते है ।
(असावद्यकर्ममार्य और चारित्रयायके बीच क्या भेद है सो बताया जायगा)
(४) चारित्रार्य-के दो भेद है-अभिगतचारित्रमार्य और अनभिगतचारित्रआर्य ।
जो उपदेशके बिना ही चारित्रमोहके उपशम तथा क्षयसे प्रात्माकी उज्ज्वलतारूप चारित्रपरिणामको धारण करें, ऐसे उपशांतकषाय और क्षीणकषायगुणस्थानधारकमुनि अभिगतचारित्रआर्य हैं । और जो अंतरगमें चारित्रमोहके क्षयोपशमसे तथा बाह्यमे उपदेशके निमित्तसे संयमरूप परिरणाम धारण करें वे अनभिगतचारित्रमार्य हैं।
असावद्यार्य और चारित्रार्य ये दोनों साधु ही होते हैं, परन्तु वे साधु जब पुण्यकर्मका बंध करते हैं तब (छट्ठ गुणस्थानमे ) उन्हे असावद्यकर्मधार्य कहते हैं, और जब कर्मकी निर्जरा करते हैं तब (छ8 गुणस्थान से ऊपर ) उन्हे चारित्रआर्य कहते हैं।
(५ दर्शनार्य के देश मेद हैं-आज्ञा, मार्ग, उपदेश, सूत्र, बीज, संक्षेप, विस्तार, अर्थ, अवगाढ़ और परमावगाढ़ [ इन दश भेद संबंधी विशेष खुलासा मोक्षमार्ग प्रकाशक अ० ६ में से जानना चाहिये ]
इसप्रकार अनऋद्धिप्राप्तआर्यके भेदोका स्वरूप कहा । इसप्रकार मार्य मनुष्योंका वर्णन पूरा हुआ।
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३३
मोक्षशास्त्र अब म्लेच्छ मनुष्योंका वर्णन करते हैं ।
१२. म्लेच्छ म्लेच्छ मनुष्य दो प्रकारके हैं-कर्मभूमिज और अन्तर्वीपज, (१) पाँच भरतके पाँच खंड, पाँच ऐरावतके पाँच खंड और विदेहके आठसौ खंड, इसप्रकार ( २५+२५+८०० ) आठसौ पचास म्लेच्छ क्षेत्र हैं, उनमें उत्पन्न हुए मनुष्य कर्मभूमिज हैं; (२) लवणसमुद्रमें अड़तालीस द्वीप तथा कालोदधि समुद्र में अड़तालीस द्वीप, दोनों मिलकर छियानवे द्वीपोंमें कुभोगभूमियाँ मनुष्य हैं उन्हें प्रतीपज म्लेच्छ कहते हैं। उन अंत:पज म्लेच्छ मनुष्योंके चेहरे विचित्र प्रकारके होते हैं। उनके मनुष्योके शरीर (धड़ ) और उनके ऊपर हाथी, रीछ, मछली इत्यादिकोंका सिर, बहुत लम्बे कान, एक पग, पूछ इत्यादि होती है। उनकी आयु एक पल्यकी होती है और वृक्षोंके फल मिट्टी इत्यादि उनका भोजन है ॥ ३६॥
कर्मभूमिका वर्णन भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र
देवकुरूत्तरकुरुभ्यः ॥ ३७॥ अर्थ-पांच मेरु संबंधी पांच भरत, पांच ऐरावत, देवकुरु तथा उत्तरकुरु ये दोनों छोड़कर पांच विदेह, इसप्रकार अढ़ाईद्वीपमें कुल पन्द्रह कर्मभूमियां हैं।
टीका १. जहाँ असि, मसि, कृषि, वाणिज्य विद्या और शिल्प इन छह कर्मकी प्रवृत्ति हो उसे कर्मभूमि कहते हैं। विदेहके एक मेरु संबंधी बत्तीस भेद हैं; और पांच विदेह हैं उनके ३२४५=१६० क्षेत्र पांच विदेहके हुए, और पाँच भरत तथा पाँच ऐरावत ये दश मिलकर कुल पन्द्रह कर्मभूमियोंके १७० क्षेत्र हैं । ये पवित्रताके धर्मके क्षेत्र हैं और मुक्ति प्राप्त करनेवाले मनुष्य वहाँ ही जन्म लेते हैं।
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अध्याय ३ सूत्र ३७-३८ एक मेरुसम्बन्धी हिमवत्, हरिक्षेत्र, रम्यक्, हिरण्यवत, देवकुरु और उत्तरकुरु ऐसी छह भोगभूमियाँ हैं। इसप्रकार पाँच मेरु सम्बन्धी तीस भोगभूमियाँ हैं। उनमेसे दश जघन्य, दश मध्यम, और दश उत्कृष्ट हैं। उनमें दश प्रकारके कल्पवृक्ष है। उनके भोग भोगकर जीव संक्लेश रहित-सातारूप रहते हैं।
२. प्रश्न, कर्मके आश्रय तो तीनलोकका क्षेत्र है तो कर्मभूमिके एकसौ सत्तर क्षेत्र ही क्यों कहते हो, तीनलोकको कर्मभूमि क्यों नहीं कहते?
उचर-सर्वार्थसिद्धि पहुँचनेका शुभकर्म और सातवे नरक पहुँचने का पापकर्म इन क्षेत्रोंमें उत्पन्न हुए मनुष्य उपार्जन करते हैं। असि, मसि, कृषि प्रादि छहकर्म भी इन क्षेत्रोंमें ही होते है, तथा देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये छह प्रकार के शुभ (प्रशस्त ) कर्म भी इन क्षेत्रोंमे ही उत्पन्न हुए मनुष्य करते हैं। इसीलिये इन क्षेत्रोंको ही कर्मभूमि कहते हैं ।। ३७॥
मनुष्यों की उत्कृष्ट तथा जघन्य आयु नस्थिती पराऽवरे त्रिपल्योपमान्तमुहूर्ते ॥३८॥
अर्थ-मनुष्योंकी उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य और जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त की है।
टीका यह ध्यान रखना चाहिये कि मनुष्यभव एक प्रकारको सगति है, दो इंद्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय तक त्रसगति है। उसका एक साथ उत्कृष्टकाल दो हजार सागरोपमसे कुछ अधिक है। उसमें संज्ञी पर्याप्तक मनुष्यत्वका काल तो बहुत ही थोड़ा है । मनुष्यभवमे जो जीव सम्यग्दर्शन प्रगट करके धर्मका प्रारंभ न करे तो मनुष्यत्व मिटने के बाद कदाचित् त्रसमें ही रहे तो भी नारकी-देव-तिर्यंच और बहुत थोड़े मनुष्यभव करके
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मोक्षशास्त्र अंतमें त्रस पर्यायका काल (-दो हजार सागरोपम ) पूरा करके एकेंद्रियत्व पावेगा। वहां अधिकसे अधिक काल ( उत्कृष्ट रूपसे असंख्यात पुद्गलपरावर्तन काल ) तक रहकर एकेन्द्रियपर्याय ( शरीर ) धारण करेगा ॥ ३८ ॥
तिर्यंचों की आयुस्थिति तिर्यग्योनिजानां च ॥ ३४ ॥ अर्थ-तियंचोंकी आयु की उत्कृष्ट तथा जघन्य स्थिति उतनी ही ( मनुष्यों जितनी ) है।
टीका तिर्यंचोंकी आयुके उपविभाग निम्नप्रकार हैं:जीवकी जाति
उत्कृष्ट आयु (१) पृथ्वीकाय
२२००० वर्ष (२) वनस्पतिकाय
१०००० वर्ष (३) अपकाय
७००० वर्ष (४) वायुकाय
३००० वर्ष (५) अग्निकाय
३ दिवस (६) दो इन्द्रिय
१२ वर्ष (७) तीन इन्द्रिय
४६ दिवस (८) नुरिन्द्रिय
६ मास (C) नेन्द्रिय १. गर्मभूमि पशु असंशी पंचेन्द्रिग माली यादि
१ फरोटपून गर्ग २. परिमान जानि म
सांग गर्ष
४२००० यम ४. पी
७२००० पर 2. भागमणि पोरा प्राणी
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अध्याय ३ सूत्र ३९
३३५ भोगभूमियोंको छोड़कर इन सब की जघन्य आयु एक अंतर्मुहूर्तकी है॥३६ ।
क्षेत्रके नापका कोष्टक
(१) अनंत पुद्गल अनन्त पुद्गल-१ उत्संज्ञासंज्ञा, (२) ८ उत्संज्ञासंज्ञा
१ संज्ञासंज्ञा, (३) ८ संज्ञासंज्ञा
१ त्रटरेणु, (४) ८ वटरेणु
१ त्रसरेणु, (५) ८ त्रसरेणु
१ रथरेणु, (६) ८ रथरेणु
१ उत्तम भोगभूमियांके बालका अग्नभाग, (७) ८ वैसे ( बालके ) अग्रभाग= १ मध्यम भोगभूमियाँके बालका
अग्नभाग, (८) ८ वैसे (बालके ) अग्रभाग= १ जघन्य भोगभूमियांके बालका
अग्रभाग, (8) ८ वैसे (बालके ) अग्नभाग= १ कर्मभूमियाके वालका अग्रभाग, (१०) ८ वैसे (बालके ) अग्रभाग: १ लीख, (११) ८ लीख-3
१ जू (यूक ) सरसों, (१२) ८ यूक
१ यव ( जवके बीजका व्यास ) (१३ ) ८ यव
१ उत्सेध अंगुल ( छोटी अंगुलीकी चौड़ाई ) (१४) ५०० उल्सेघ अंगुल= १ प्रमाणअंगुल अर्थात् अवसर्पिणीके प्रथम
चक्रवर्तीकी अंगुलीकी चौड़ाई,
(१) ६ अंगुल (२) २ पाद ( १२ अंगुल ) ( ३ ) २ बिलस्त (४) २ हाथ
१ पाद १ विलस्त १ हाथ १ गज ( ईषु)
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मोक्षशास्त्र
(५) २ गज
१ धनुष (Bow) (६) २००० धनुष
१ कोष (७) ४ कोस
१ योजन जहाँ जो अंगुल लागू पड़ता हो वहाँ उस प्रमाण (-नाप) समझना चाहिये।
नोट-१ प्रमाणभंगुल उत्सेधांगुलसे ५०० गुणा है, उससे द्वीप, समुद्र, पर्वत, द्वीप समुद्रकी वेदी विमान नरकोंका प्रस्तार इत्यादि अकृत्रिम वस्तुओं की लम्बाई चौड़ाई नापी जाती है।
२. उत्सेध अंगुलसे देव-मनुष्य-तिर्यंच और नारकियोंका शरीर तथा अकृत्रिम जिन प्रतिमाओंके देहका नाप किया जाता है। देवोंके नगर तथा मंदिर भी इस ही नापसे नापे जाते हैं।
३. जिस कालमें जैसा मनुष्य हो उस कालमें उसका अंगुल आत्मांगुल कहलाता है। पल्यके अर्धच्छेदका असंख्यातमें भागप्रमाण धनांगुल मांडकर गुणा करनेसे एक जगतश्रेणी होती है। जगतश्रेणी- ७ राजू लोककी लम्बाई जो उसके अंतमें नीचे है
वह । जगतप्रतर-७ राजु ७ राजु-४६ राजुक्षेत्र उस लोकके नीचे
भागका क्षेत्रफल ( लम्बाई चौड़ाई ) है। जगतघन (लोक )७३ राजु अर्थात् ७ राजु ७ राजु४७ राजु
=३४३ राजु यह सम्पूर्णलोकका नाप
(लम्बाई चौड़ाई मोटाई ) है ॥ ३९ ॥ मध्यलोकके वर्णनका संक्षिप्त अवलोकन
जम्बूद्वीप
(१) मध्यलोकके अत्यन्त वीचमें एक लाख 2 योजन चौड़ा, गोल * एक योजन-दो हजार कोस
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अध्याय ३ सूत्र ३६
३३७ थाली जैसा ) जम्बूद्वीप है। जम्बूद्वीपके बीच में एक लाख योजन सुमेरुपर्वत है, जिसकी एक हजार योजन जमीनके अन्दर जड़ है नव्वे हजार योजन जमीनके ऊपर है, और उसकी चालीस योजन की चूलिका (चोटी)
जम्बूद्वीपके बीचमे पश्चिम पूर्व लम्बे छह कुलाचल (पर्वत) है उनसे जम्बूद्वीपके सात खण्ड होगये हैं, उन सात खण्डोंके नाम भरत, हैमवत्, हरि, विदेह, रम्यक्, हैरण्यवत् और ऐरावत हैं।
(२) उत्तरकुरु-देवकुरु विदेहक्षेत्र में मेरुके उत्तरदिशामें उत्तरकुरु तथा दक्षिणदिशामें देवकुरुक्षेत्र है।
(३) लवणसमुद्र जम्बूद्वीपके चारों तरफ खाईके माफक घेरे हुए दो लाख योजन चौड़ा लवणसमुद्र है।
(४) धातकीखंडद्वीप लवरणसमुद्रके चारों ओर घेरे हुए चार लाख योजन चौड़ा धातकीखण्डद्वीप है। इस द्वीपमे दो मेरु पर्वत हैं, इसलिये क्षेत्र तथा कुलाचल (पर्वत) इत्यादि की सभी रचना जम्बूद्वीपसे दूनी है।
(५) कालोदधिसमुद्र घातकीखण्डके चारों ओर घेरे हुए आठ लाख योजन चौड़ा कालोदधिसमुद्र है।
(६) पुष्करद्वीप कालोदधिसमुद्रके चारो ओर घेरे हुए सोलह लाख योजन चौड़ा पुष्करद्वीप है। इस द्वीपके बीचोबीच वलय (चूड़ीके) के माकार, पृथ्वी पर एक हजार बावीस ( १०२२) योजन चौडा, सत्रहसौ इक्कीस योजन ( १७२१ ) ऊँचा और चारसौ सत्तावीस (४२७ ) योजन जमीनके अन्दर जड़वाला, मानुषोत्तर पर्वत है और उससे पुष्करद्वीपके दो खण्ड होगये हैं।
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३३८
मोक्षशास्त्र पुष्करद्वीपके पहिले अर्धभागमें जम्बूद्वीपसे दूनी अर्थात् धातकीखण्ड बराबर सब रचना है ।
___ (७) नरलोक ( मनुष्यक्षेत्र) जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड, पुष्करार्ध (पुष्करद्वीपका आधाभाग) लवणसमुद्र और कालोदघिसमुद्र इतना क्षेत्र नरलोक कहलाता है ।
(८) दूसरे द्वीप तथा समुद्र पुष्करद्वीपसे आगे परस्पर एक दूसरेसे घिरे हुए दूने दूने विस्तार वाले मध्यलोकके अन्ततक द्वीप और समुद्र हैं ।
(९) कर्मभूमि और भोगभूमिकी व्याख्या यहाँ असि, मसि, कृषि, सेवा, शिल्प, और वाणिज्य, इन छह कर्मों को प्रवृत्ति हो वे कर्मभूमियाँ हैं । जहाँपर उनकी प्रवृत्ति न हो वे भोगभूमियां कहलाती हैं।
(१०) पन्द्रह कर्मभूमियाँ पाँच मेरुसम्बन्धी पाँच भारत, पांच ऐरावत और ( देवकुरु उत्तरकुरुको छोड़कर ) पांच विदेह इसप्रकार कुल पन्द्रह कर्मभूमियाँ है।
(११) भोगभूमियाँ पांच हैमवत और पाँच हैरण्यवत् ये दश क्षेत्र जघन्य भोगभूमियाँ हैं । पाँच हरि और पांच रम्यक् ये दश क्षेत्र मध्यमभोगभूमियाँ है, और पाँच देवकुरु और पांच उत्तरकुरु ये दश क्षेत्र उत्कृष्ट भोगभूमियां हैं।
(१२) भोगभूमि और कर्मभूमि जैसी रचना मनुष्यक्षेत्रसे बाहरके सभी द्वीपोमें जघन्य भोगभूमि जैसी रचना है, परन्तु स्वयंभूरमणद्वीपके उत्तरार्धमे तथा समस्त स्वयंभूरमण समुद्र में और चारों कोनेकी पृथ्वियोमें कर्मभूमि जैसी रचना है । लवणसमुद्र और कालोदधिसमुद्रमें ९६ अन्तर्वीप हैं। वहां कुभोगभूमिकी रचना है, और वहाँ पर मनुष्य ही रहते हैं । उन मनुष्योंकी प्राकृतियां अनेक प्रकारको कुत्सित हैं।
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प्रध्याय ३ उपसंहार
३३६
स्वयंभूरमणद्वीपके उत्तरार्धकी, स्वयंभूरमणसमुद्रकी और चारों कोनों की रचना कर्मभूमि जैसी कही जाती है; क्योंकि कर्मभूमिमें और वहां विकलत्रय ( दो इन्द्रियसे चार इन्द्रिय ) जीव है, और भोगभूमिमें विकलत्रय जीव नही है । तिर्यक्लोकमे पंचेन्द्रिय तिर्यंच रहते हैं, किंतु जलचर तिर्यंच लवरणसमुद्र, कालोदधिसमुद्र, और स्वयंभूरमरण समुद्रको छोड़फर अन्य समुद्रोंमें नही है ।
स्वयंवरमरणसमुद्रके चारों ओर के कोनेके अतिरिक्त भागको तिर्यक्लोक कहा जाता है ।
उपसंहार
लोकके इन क्षेत्रोंको किसीने बनाये नही है, किन्तु अनादि अनंत है | स्वर्ग-नरक मोर द्वीपसमुद्र श्रादि जो है वे अनादिसे इसोप्रकार हैं, और सदा ऐसे ही रहेगे। जैसे जीवादिक पदार्थ इस लोकमें अनादिनिधन हैं उसी प्रकार यह भी अनादिनिधन समझना चाहिये ।
इसप्रकार यथार्थ श्रद्धानके द्वारा लोकमे सभी पदार्थ अकृत्रिम भिन्न-भिन्न अनादिनिधन समझना चाहिये । जो कुछ कृत्रिम घरबार आदि इंद्रियगम्य वस्तुएं नवीन दिखाई देती हैं वे सब अनादि निघन पुगलद्रव्य की संयोगी पर्यायें हैं । वे पुगल कुछ नये नही बने है । इसलिये यदि जीव निरर्थक भ्रमसे सच्चे झूठेका ही निश्चय न करे तो वह सच्चा स्वरूप नही जान सकता । प्रत्येक जीव अपने श्रद्धानका फल प्राप्त करता है इसलिये योग्य जीवोंको सम्यक् श्रद्धा करनी चाहिये ।
सात नरकभूमियों, बिल, लेश्या, आयु, द्वीप, समुद्र, पर्वत, सरोवर, नदी, मनुष्य-तियंचकी श्रायु इत्यादिका वर्णन करके श्री आचार्यदेवने तीसरा अध्याय पूर्ण किया ।
इसप्रकार तीसरे अध्यायमे अधोलोक और मध्यलोकका वर्णन किया है, अब ऊर्ध्वलोकका वर्णन चौथे अध्यायमें किया जायगा, इस प्रकार श्री उमास्वामी विरचित मोक्षशास्त्र के तीसरे अध्यायकी टीका समाप्त हुई ।
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मोक्षशास्त्र अध्याय चौथा
भूमिका
इस शास्त्रके पहिले अध्यायके पहिले सूत्रमें यह बतलाया गया है कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी एकता ही मोक्षमार्ग है । तत्पश्चात् दूसरे सूत्रमें सम्यग्दर्शनका लक्षण 'तत्वार्थ श्रद्धान' कहा गया है । पश्चात् जिन तत्वोंके यथार्थ श्रद्धानसे सम्यग्दर्शन होता है उनके नाम देकर चौथे सूत्र में सात तत्त्व बताये गये हैं। उन सात तत्त्वोंमें पहिला जीवतत्त्व है। उस जीवका स्वरूप समझनेके लिए दूसरे अध्यायमें यह बताया गया है कि जीवके भाव, जीवका लक्षण, इन्द्रियाँ-जन्म-शरीर इत्यादिके साथ संसारी जीवोंका निमित्तनैमित्तिक संबंध कैसा होता है। तीसरे अध्यायमें चार प्रकारके संसारी जीवोंमेसे नारकी जीवोंका वर्णन किया है तथा जीवोंके निवास स्थान बतलाये हैं, और बतलाया है कि मनुष्य तथा अन्य जीवोंके रहनेके क्षेत्र कौनसे हैं तथा मनुष्य और तिर्यंचोंकी आयु इत्यादिके संबंधों कुछ बातें बताई गई हैं।
इसप्रकार संसारकी चार गतियोंके जीवोंमेंसे मनुष्य, तिर्यंच, और नरक इन तीनका वर्णन तीसरे अध्यायमें हो चुका है, अब देवाधिकार शेष रहता है, जो कि इस चौथे अध्यायमें मुख्यतासे निरूपित किया गया है। इसप्रकार अध्याय २ सूत्र १० में जीवके दो भेद (संसारी और मुक्त) बतलाये थे उनमें से संसारी जीवोसे संबंध रखनेवाला अधिकार वणित हो जाने पर मुक्त जीवोंका अधिकार शेष रह जाता है जो कि दशवें अध्यायमें वरिणत किया जायगा।
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३४१
अध्याय ४ सूत्र १-२-३ ऊलोक वर्णन
देवोंके भेद देवाश्चतुर्णिकायाः॥१॥ अर्थ-देव चार समूहवाले हैं अर्थात् देवोके चार भेद हैं-१. भवनवासी, २. व्यंतर, ३. ज्योतिषी और ४. वैमानिक ।
टीका देव-जो जीव देवगतिनामकर्मके उदयसे अनेक द्वीप, समुद्र तथा पर्वतादि रमणीक स्थानोमे क्रीड़ा करें उन्हें देव कहते है ॥१॥
भवनत्रिक देवोंमें लेश्याका विभाग आदितस्त्रिषु पीतांतलेश्याः ॥ २॥
अर्थ–पहिलेके तीन निकायोंमे पीत तक अर्थात् कृष्ण, नील, कापोत और पीत ये चार लेश्याएँ होती है।
टीका (१) कृष्ण-काली, नील नीले रंगकी, कापोत-चितकबरीकबूतरके रंग जैसी, पीतः-पीली।
(२) यह वर्णन भावलेश्याका है । वैमानिक देवोंकी भावलेश्याका वर्णन इस अध्यायके २२ वें सूत्र में दिया है ॥२॥
चार निकायके देवोंके प्रभेद 'दशाष्टपंचद्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यंताः॥३॥
अर्थ-कल्पोपपन्न (सोलहवें स्वर्गतकके देव) पर्यन्त इन चारप्रकार के देवोके क्रमसे दश, आठ, पांच, और बारह भेद हैं।
टीका भवनवासियोके दश, व्यन्तरोके पाठ, ज्योतिषियोके पांच, और
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३४२
मोक्षशास्त्र कल्पोपपन्नोंके बारह भेद हैं [कल्पोपपन्न देव वैमानिक जातिके ही हैं] ॥३॥
चार प्रकारके देवोंके सामान्य भेद इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिंशपारिषदात्मरक्षलोकपालानीक
प्रकीर्णकाभियोग्यकिल्विषिकाश्चैकशः॥४॥
अर्थ-ऊपर कहे हुए चार प्रकारके देवोंमें हरएकके दश भेद हैं१-इन्द्र, २-सामानिक, ३-त्रायविंश,४-पारिषद, ५-आत्मरक्ष, ६-लोकपाल, ७-अनीक, ८-प्रकीर्णक, ६-प्राभियोग्य, और १०-किल्विषिक ।
टीका १. इन्द्र-जो देव दूसरे देवोंमें नहीं रहनेवाली अणिमादिक ऋद्धियोंसे सहित हों उन्हें इन्द्र कहते हैं वे देव राजाके समान होते हैं। [ Like a King]
२. सामानिक-जिन देवोंके आयु, वीर्य, भोग उपभोग इत्यादि इन्द्रसमान होते है, तो भी आज्ञारूपी ऐश्वयंसे रहित होते हैं, वे सामानिक देव कहलाते हैं। वे देव पिता या गुरुके समान होते हैं [ Like father, teacher]
३. प्रायस्त्रिंश-जो देव मन्त्री-पुरोहितके स्थान योग्य होते हैं उन्हें प्रायविंश कहते हैं। एक इन्द्रकी सभामें ऐसे-देव तेतीस ही होते हैं [ Ministers ]
४. पारिषद-जो देव इन्द्रकी सभामें बैठनेवाले होते हैं उन्हे पारिषद कहते हैं। [Courtiers ]
५. आत्मरक्ष-जो देव अंगरक्षकके समान होते हैं उन्हें प्रात्मरक्ष कहते हैं। [ Bodyguards]
नोट:-देवोमें घात इत्यादि नहीं होता तो भी ऋद्धिमहिमाके प्रदर्शन आत्मरक्ष देव होते हैं।
६. लोकपाल-जो देव कोतवाल ( फौजदार) की समान लोगों का पालन करें उन्हे लोकपाल कहते हैं। [ Police]
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अध्याय ४ सूत्र ४-५-६
.३४३ ७. अनीक-जो देव पैदल इत्यादि सात प्रकारकी सैनामे विभक्त रहते हैं उन्हे अनीक कहते है । [Army ]
८. प्रकीर्णक-जो देव नगरवासियोके समान होते हैं उन्हे प्रकीर्णक कहते हैं । [LPeople ]
९. आभियोग्य-जो देव दासोंकी तरह सवारी आदिके काम आते है उन्हे आभियोग्य कहते हैं । इसप्रकारके देव घोड़ा, सिंह, हंस इत्यादि प्रकारके बाहनरूप ( दूसरे देवाके उपयोग लिये ) अपना रूप बनाते हैं। [ Conveyances ]
१०. किल्विषिक-जो देव चांडालादिकी भांति हलके दरजेके काम करते है उन्हे किल्विषिक कहा जाता है [ Servile grade ] ॥४॥
व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें इन्द्र आदि भेदों की विशेषता त्रायस्त्रिंशलोकपालवा व्यन्तरज्योतिष्काः ॥५॥
अर्थ-ऊपर जो दश भेद कहे हैं उनमेसे त्रायस्त्रिंश और लोकपाल ये भेद व्यन्तर और ज्योतिषी देवोमे नही होते अर्थात् उनमे दो भेदोको छोडकर बाकोके आठ भेद होते है ॥५॥
देवोंमें इन्द्रोंकी व्यवस्था
पूर्वयोटद्राः ॥६॥ अर्थ-भवनवासी और व्यन्तरोमे प्रत्येक भेदमे दो दो इन्द्र होते है ।
टीका
भवनवासियोंके दश भेद हैं इसलिये उनमे बीस इन्द्र होते हैं। व्यन्तरोके आठ भेद हैं इसलिये उनमे सोलह इन्द्र होते हैं, और दोनोमे इतने ही ( इन्द्र जितने ही ) प्रतीन्द्र होते है।
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. मोक्षशास्त्र ... २. जो देव युवराजसमान अथवा इन्द्र समान होते हैं अर्थात् जो देव इन्द्र जैसा कार्य करते हैं उन्हें प्रतीन्द्र कहते हैं।
[ त्रिलोकप्रज्ञप्ति, पृष्ठ ११८-११९ ] ३. श्री तीर्थंकरभगवान सौ इन्द्रोंसे पूज्य , होते हैं वे सौ इन्द्र निम्नलिखित है।
४० भवनवासियोंके-बीस इन्द्र और बीस प्रतीन्द्र । ३२ व्यन्तरोंके-सोलह इन्द्र और सोलह प्रतीन्द्र । २४ सोलह स्वर्गोमेंसे-प्रथमके चार देवलोकोंके चार, मध्यमके आठ
देवलोकोंके चार और अन्तके चार देवलोकोंके चार इसप्रकार बारह इन्द्र और बारह प्रतीन्द्र । २ ज्योतिषी देवोंके-चन्द्रमा इन्द्र और सूर्य प्रतीन्द्र ।
१ मनुष्योंके-चक्रवर्ती इन्द्र । __१ तिर्यंचोंके अष्टापद-सिंह इन्द्र ।
१००
देवोंका काम सेवन संबंधी वर्णन कायप्रवीचारा आ ऐशानात् ॥ ७ ॥
अर्थ-ऐशानस्वर्गतकके देव ( अर्थात् भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, और पहिले तथा दूसरे स्वर्गके देव ) मनुष्योंकी भांति शरीरसे काम सेवन करते है।
टीका देवोंमें संततिकी उत्पत्ति गर्भद्वारा नहीं होती, तथा वीर्य और दूसरी धातुओंसे बना हुआ शरीर उनके नही होता, उनका शरीर वैक्रियिक होता है। केवल मनकी कामभोगरूप वासना तृप्त करनेके लिये वे यह उपाय करते है। उसका वेग उत्तरोत्तर मंद होता है इसलिये थोड़े ही साधनोंसे यह वेग मिट जाता है । नीचेके देवोंकी वासना तीन होती है इसलिये वीर्य
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अध्याय ४ सूत्र ७-८-६ स्खलनका संबंध नहीं होने पर भी शरीर संबंध हुए बिना उनकी वासना दूर नहीं होती। उनसे भी आगे के देवोंकी वासना कुछ मंद होती है इसलिये वे आलिंगनमात्रसे ही संतोष मानते हैं । आगे पागेके देवोंकी वासना उनसे भी मंद होती है इसलिये वे रूप देखनेसे तथा शब्द सुननेसे ही उनके मनकी वासना शांत हो जाती है । उनसे भी आगेके देवोंके चितवनमात्रसे कामशांति हो जाती है। कामेच्छा सोलहवें स्वर्गतक है उसके आगेके देवोंके कामेच्छा उत्पन्न ही नही होती ॥ ७॥
शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनः प्रवीचाराः॥८॥
अर्थ-शेष स्वर्गके देव, देवियोंके स्पर्शसे, रूप देखने से, शब्द सुनने से और मनके विचारोंसे काम' सेवन करते है।
टीका तीसरे और चौथे स्वर्ग के देव, देवियोके स्पर्शसे, पांचवेसे आठवे स्वर्ग तकके देव, देवियोंके रूप देखनेसे, नवमेसे बारहवें स्वर्ग तकके देव, देवियोंके शब्द सुननेसे, और तेरहवेंसे सोलहवें स्वर्ग तकके देव, देवियो संबंधी मनके विचारमात्रसे तृप्त हो जाते है-उनकी कामेच्छा शात हो जाती है ।।८।।
परेऽप्रवीचाराः ॥ ६ ॥ अर्थ-सोलहवे स्वर्गसे प्रागेके देव कामसेवन रहित हैं ( उनके कामेच्छा उत्पन्न ही नही होती तो फिर उसके प्रतिकारसे क्या प्रयोजन ?)
टीका १. इस सूत्रमे 'परे' शब्दसे कल्पातीत ( सोलहवें स्वर्गसे ऊपरके) सब देवोंका संग्रह किया गया है। इसलिये यह समझना चाहिये कि अच्युत (सोलहवें) स्वर्गके ऊपर नवग्रेवेयिकके ३०६ विमान, नव अनुदिश विमान और पांच अनुत्तर विमानोंमें बसनेवाले अहमिन्द्र हैं, उनके कामसेवनके भाव नही हैं वहां देवांगनाएँ नही है। (सोलहवे स्वर्गसे ऊपरके देवोमे भेद नही है, सभी समान होते हैं इसलिये उन्हे अहमिन्द्र कहते है )
४४
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३४६
मोक्षशास्त्र २. नवग्रेवेयिकके देवोंमेंसे कुछ सम्यग्दृष्टि होते हैं और कुछ मिथ्या दृष्टि होते हैं । यथाजात द्रव्यलिंगी जैन मुनिके रूपमें अतिचार रहित पांच महाव्रत इत्यादि पालन किये हों ऐसे मिथ्यादृष्टि भी नवमें ग्रेवेयिक तक उत्पन्न होते है। मिथ्यादृष्टियोंके ऐसा उत्कृष्ट शुभभाव है। ऐसा शुभभाव मिथ्यादृष्टि जीवने अनंतवार किया [ देखो अध्याय २ सूत्र १० की टीका पैरा १० ] फिर भी वह जीव धर्मके अंशको या प्रारंभको प्राप्त नहीं कर सका । आत्मप्रतीति हुए विना समस्त व्रत और तप वालवत और बालतप कहलाते हैं । जीव ऐसे बालव्रत और बालतप चाहे जितने वार (अनंतानंत वार ) करे तो भी उससे सम्यग्दर्शन अथवा धर्मका प्रारंभ नहीं हो सकता इसलिये जीवको पहिले प्रात्मभानके द्वारा सम्यग्दर्शन प्राप्त करने की विशेष आवश्यकता है । मिथ्याष्टिके उत्कृष्ट शुभभावके द्वारा अंशमात्र धर्म नहीं हो सकता । शुभभाव विकार है और सम्यग्दर्शन प्रात्माकी अविकारी अवस्था है। विकारसे या विकारभावके बढ़नेसे अविकारी अवस्था नही प्रगट होती परन्तु विकार के दूर होनेसे ही प्रगट होती है। शुभभावसे धर्म कभी नही होता ऐसी मान्यता पहिले करना चाहिये। इसप्रकार जीव पहिले मान्यताको भूलको दूर करता है और पीछे क्रमक्रमसे चारित्रके दोष दूर करके संपूर्ण शुद्धताको प्राप्त करता है।
३. नवगैवेयिकके सम्यग्दृष्टि देव और उससे ऊपरके देव (सबके सब सम्यग्दृष्टि ही हैं) उनके चौथा गुणस्थान ही होता है । उनके देवांगनाओंका संयोग नही होता फिर भी पांचवें गुणस्थानवर्ती स्त्रीवाले मनुष्य और तिर्यंचोंकी अपेक्षा उनके अधिक कषाय होती है ऐसा समझना चाहिये।
४. किसी जीवके कषायकी बाह्य प्रवृत्ति तो बहुत होती है और अंतरंग कषायशक्ति कम होती है-(१) तथा किसीके अंतरंग कषायशक्ति तो बहुत हो और बाह्य प्रवृत्ति थोड़ी हो उसे तीन कषायवान् कहा जाता है। (२) दृष्टांत
(१) पहिले भागका दृष्टांत इसप्रकार है-व्यन्तरादि देव कषायसे नगर नाशादि कार्य करते हैं तो भी उनके कषाय शक्ति थोड़ी होनेसे पीतलेश्या कही गई है। एकेन्द्रियादि जीव ( बाह्यमें ) कषाय-कार्य करते हुए
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अध्याय ४ सूत्र ६-१०
३४७ मालुम नहीं होते फिर भी उनके तीव्रकषायशक्ति होनेसे कृष्णादि लेश्याएं कही गई हैं।
(२) दूसरे भागका दृष्टांत यह सूत्र ही है, जो यह बतलाता है कि सर्वार्थसिद्धिके देव कषायरूप अल्प प्रवृत्त होते है। वे अब्रह्मचर्यका सेवन नही करते, उनके देवांगनाएँ नही होती, फिर भी पंचमगुणस्थानवर्ती ( देशसंयमी ) की अपेक्षा उनके कषायशक्ति अधिक होनेसे वे चतुर्थगुणस्थानवर्ती असंयमी है । पचमगुणस्थानवर्ती जीव व्यापार और अब्रह्मचर्यादि कपायकार्यरूप बहुत प्रवृत्ति करते हैं फिर भी उनको मदकषायशक्ति होनेसे देशसंयमी कहा है, और यह सूत्र यह भी बतलाता है कि नवग्रेवेयकके मिथ्यादृष्टि जीवोके बाह्यब्रह्मचर्य है फिर भी वे पहिले गुणस्थानमे है, और पचमगुणस्थानवर्ती जीव विवाहादि करते हैं तथा अब्रह्मचर्यादिकार्यरूप प्रवृत्ति करते है फिर भी वे देशसंयमी सम्यग्दृष्टि है।।
५. इस सूत्रका सिद्धांत वाह्य संयोगोके सद्भाव या असद्भावका और बाह्य प्रवृत्ति या निवृत्ति को देख करके बाह्य स्वांगके अनुसार जीवकी अपवित्रता या पवित्रता का निर्णय करना न्यायविरुद्ध है; और अंतरग मान्यता तथा कषायशक्ति परसे ही जीव की पवित्रता या अपवित्रता का निर्णय करना न्यायपूर्ण है । मिथ्यादृष्टि जीव बहिरात्मा (बाहरसे आत्माका नाप करनेवाला) होता है इसलिये वह यथार्थ निर्णय नही कर सकता, क्योकि उसका लक्ष वाह्य संयोगोंके सद्भाव या असद्भाव पर तथा बाह्य-प्रवृत्ति या निवृत्ति पर होता है इसलिये उसका निर्णय बाह्य स्थितिके आधारसे होता है। सम्यग्दृष्टि जीव अन्तरात्मा (अन्तष्टिसे आत्माका नाप करनेवाला) होता है इसलिये उसका निर्णय अंतरंग स्थिति पर अवलंबित होता है; इसलिये वह अन्तरंगमान्यता और कषायशक्ति कैसी है इसपरसे निर्णय करता है, इसलिये उसका निर्णय यथार्थ होता है ॥ ६ ॥
भवनवासी देवोंके दश भेद भवनवासिनोऽसुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितो
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३४८
मोक्षशास्त्र
दधिद्वपदिक्कुमाराः ॥ १० ॥
अर्थ — भवनवासी देवोंके दश भेद हैं—१—असुरकुमार, २नागकुमार, ३ - विद्युत्कुमार, ४- — सुपर्णकुमार, ५ —अग्निकुमार, ६– वातकुमार, ७ —– स्तनितकुमार, FI - उदधिकुमार, 8 —— द्वीपकुमार और
•
-
१० दिक्कुमार ।
टीका
१. २० वर्षके नीचेके युवकके जैसा जीवन और आदत होती है वैसा ही जीवन और श्रादत इन देवोंके भी होती है इसलिये उन्हें कुमार कहते हैं ।
२. उनके रहनेका स्थान निम्नप्रकार है
प्रथम पृथ्वी- रत्नप्रभामें तीन भूमियाँ ( Stages) हैं उसमें पहिली भूमिको 'खरभाग' कहते हैं उसमें असुरकुमारको छोड़कर नवप्रकारके भवनवासी देव रहते हैं ।
जिस भूमिमें असुरकुमार रहते हैं उस भागको 'पंकभाग' कहते हैं, उसमें राक्षस भी रहते हैं । 'पंकभाग' रत्नप्रभा पृथ्वीका दूसरा भाग है । रत्नप्रभाका तीसरा ( सबसे नीचा ) भाग 'अब्बहुल' कहलाता है वह पहिला नरक है ।
३. भवनवासी देवोंकी यह असुरकुमारादि दश प्रकारकी संज्ञा उन उन प्रकारके नामकर्मके उदयसे होती है ऐसा जानना चाहिये । 'जो देव युद्ध करें, प्रहार करें वे असुर हैं, ऐसा कहना ठीक नही है अर्थात् वह देवोंका प्रवर्णवाद है और उससे मिथ्यात्वका बन्ध होता है ।
४. दश जातिके भवनवासी देवोंके सात करोड़ बहत्तर लाख भवन हैं; ये भवन महासुगन्धित, अत्यंत रमणीक, श्रौर अत्यंत उद्योतरूप हैं; और उतनी ही संख्या ( ७,७२,००,००० ) जिन चंत्यालयोंकी है । दशप्रकारके चैत्यवृक्ष जिनप्रतिमासे विराजित होते हैं ।
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अध्याय ४ सूत्र १०-११
३४६ ५. भवनवासी देवोंका आहार और श्वासका काल
१-असुरकुमार देवोंके एक हजार वर्ष बाद प्राहारकी इच्छा उत्पन्न होती है और मनमें उसका विचार आते ही कंठसे अमृत झरता है, वेदना व्याप्त नही होती, पन्द्रह दिन बीत जाने पर श्वास लेते है ।
२-४ नागकुमार, सुपर्णकुमार और द्वीपकुमार ये तीनप्रकारके देवों के साडे बारह दिन बाद माहारकी इच्छा होती है और साढ़े बारह मुहूर्त बीत जाने पर श्वास लेते हैं ।
५-७ उदधिकुमार, विद्युतकुमार और स्तनितकुमार इन तीन प्रकारके देवोंके बारह दिन बाद आहारकी इच्छा होती है और बारह मुहूर्त बाद श्वास लेते है।
८-१० दिक्कुमार, अग्निकुमार और वातकुमार इन तीनप्रकारके देवोंके साढे सात दिन बाद आहारकी इच्छा होती है और साढ़े सात मुहूर्त बाद श्वास लेते हैं।
देवोंके कवलाहार नही होता उनके कंठमेसे अमृत झरता है, और उनके वेदना व्यापती नहीं है।
इस अध्यायके अंतमें देवोंको व्यवस्था बतानेवाला कोष्टक है उससे दूसरी बातें जान लेना चाहिये ॥१०॥
व्यन्तर देवोंके आठ भेद व्यन्तराः किन्नरकिंपुरुषमहोरगगन्धर्वयक्षराक्षस
भूतपिशाचाः ॥ ११ ॥ अर्थ-व्यन्तर देवोके आठ भेद हैं-१-किन्नर, २-किंपुरुष, ३महोरग, ४-गन्धर्व, ५-यक्ष, ६-राक्षस, ७-भूत और ८-पिशाच ।
टीका
१. कुछ व्यन्तरदेव जम्बूद्वीप तथा दूसरे असंख्यात द्वीप समुद्रोंमे रहते हैं । राक्षस रत्नप्रभा पृथ्वीके 'पंकभागमे' रहते हैं और राक्षसोंको
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मोक्षशास्त्र छोड़कर दूसरे सात प्रकारके व्यन्तरदेव 'खरभागमें रहते हैं।
२. जुदी जुदी दिशाओंमें इन देवोंका निवास है इसलिये उन्हें व्यन्तर कहते हैं, उपरोक्त पाठ संज्ञाएँ जुदे २ नामकर्मके उदयसे होती हैं । उन संज्ञाओंका कुछ लोग व्युत्पत्तिके अनुसार अर्थ करते हैं किन्तु ऐसा अर्थ गलत है अर्थात् ऐसा कहनेसे देवोंका अवर्णवाद होता है और मिथ्यात्वके बंधका कारण है।
३. पवित्र वैक्रियिक शरीरके धारी देव कभी भी मनुष्योंके अपवित्र औदारिक शरीरके साथ कामसेवन करते ही नही; देवोंके मांस भक्षण कभी होता ही नही, देवोंको कंठसे झरनेवाला अमृतका आहार होता है, किन्तु कवलाहार नही होता।
४. व्यन्तर देवोंके स्थानमें जिनप्रतिमासहित आठ प्रकारके चैत्यवृक्ष होते है और वे मानस्थंभादिक सहित होते हैं।
५. व्यन्तर देवोंका आवास-द्वीप, पर्वत, समुद्र, देश, ग्राम, नगर, निराहा, चौराहा, घर, आँगन, रास्ता, गली, पानीका घाट, बाग, वन, देवकुल इत्यादि असंख्यात स्थान हैं ॥ ११ ॥
ज्योतिषी देवों के पाँच भेद ज्योतिष्काः सूर्याचन्द्रमसौ ग्रहनक्षत्र
प्रकीर्णकतारकाच ॥ १२॥ अर्थ-ज्योतिषी देवोंके पांच भेद है-१-सूर्य, २-चन्द्रमा, ३ग्रह, ४-नक्षत्र, और ५- प्रकीर्णक तारे ।
टीका ज्योतिपी देवोंका निवास मध्यलोकमें सम घरातलसे ७६० योजनकी ऊंचाईसे लेकर ६०० योजनकी ऊंचाई तक आकाशमें है सबसे नीचे तारे है, उनसे १० योजन ऊपर सूर्य हैं; सूर्यसे ८० योजन ऊपर चन्द्रमा हैं;
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अध्याय ४ सूत्र १२-१३-१४-१५ चन्द्रमासे चार योजन ऊपर २७ नक्षत्र हैं; नक्षत्रोंसे ४ योजन ऊपर बुधका ग्रह, उससे ३ योजन ऊपर शुक्र, उससे ३ योजन ऊपर बृहस्पति, उससे ३ योजन ऊपर मंगल, और उससे ३ योजन ऊपर शनि है; इसप्रकार पृथ्वीसे ऊपर ६०० योजन तक ज्योतिषी मंडल है। उनका आवास मध्यलोकमें है। [ यहाँ २००० कोसका योजन जानना चाहिये ] ॥१२॥
__ज्योतिषी देवोंका विशेष वर्णन मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नलोके ॥१३॥
अर्थः-ऊपर कहे हुए ज्योतिपी देव मेरुपर्वतकी प्रदक्षिणा देते हुए मनुष्यलोकमे हमेशा गमन करते है । ( अढ़ाई द्वीप और दो समुद्रोंको मनुष्यलोक कहते है ) ॥ १३॥
उनसे होनेवाला कालविभाग
तत्कृतः कालविभागः ॥ १४ ॥ अर्थः-घड़ी, घंटा, दिवस, रात, इत्यादि व्यवहारकालका विभाग है वह गतिशील ज्योतिषीदेवोंके द्वारा किया जाता है।
टीका काल दो प्रकारका है-निश्चयकाल और व्यवहारकाल । निश्चय कालका स्वरूप पांचवें अध्यायके २२ वे सूत्रमें किया जायगा। यह व्यवहार काल निश्चयकालका बतानेवाला है ॥ १४ ॥
बहिरवस्थिताः ।। १५ ।। __ अर्थ:--मनुष्यलोक ( अढ़ाई द्वीप ) के बाहरके ज्योतिषी देव स्थिर है।
टीका अढ़ाईद्वीपके बाहर असंख्यात द्वीप समुद्र है उनके ऊपर ( सबसे अंतिम स्वयंभूरमण समुद्रतक ) ज्योतिषीदेव स्थिर हैं ॥ १५ ॥
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३५२
मोक्षशास्त्र
इसप्रकार भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी इन तीन प्रकारेके देवों का वर्णन पूरा हुआ, अब चौथे प्रकारके-वैमानिक देवोंका स्वरूप कहते हैं।
वैमानिक देवोंका वर्णन
वैमानिकाः ॥ १६ ॥ अर्थ-अब वैमानिक देवोंका वर्णन शुरू करते हैं।
टीका
विमान-जिन स्थानोंमें रहनेवाले देव अपनेको विशेष पुण्यात्मा समझे उन स्थानोंको विमान कहते है।
वैमानिक-उन विमानोंमें पैदा होनेवाले देव वैमानिक कहे जाते हैं।
वहाँ सब चौरासी लाख सतानवे हजार तेवीस विमान हैं। उनमें उत्तम मंदिर, कल्पवृक्ष, वन-बाग बावड़ी, नगर इत्यादि अनेक प्रकारकी रचना होती है। उनके मध्यमें जो विमान है वे इंद्रक विमान कहे जाते हैं उन की पूर्वादि चारों दिशाओंमें पंक्तिरूप (सीधी लाइनमें) जो विमान हैं उन्हें श्रेणिबद्ध विमान कहते हैं। चारों दिशाओंके बीच अंतरालमे-विदिशाओंमें जहाँ तहाँ बिखरे हुए फूलोंकी तरह जो विमान हैं उन्हे प्रकीर्णक विमान कहते हैं । इसप्रकार इन्द्रक, श्रेरिणबद्ध और प्रकीर्णक ये तीनप्रकारके विमान हैं ॥ १६ ॥
वैमानिक देवोंके भेदकल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च ।। १७॥ अर्थ-वैमानिक देवोके दो भेद हैं-१. कल्पोपपन्न और २. कल्पातीत ।
टीका जिनमे इंद्रादि दशप्रकारके भेदोंकी कल्पना होती है ऐसे सोलह स्वर्गोंको कल्प कहते हैं, और उन कल्पोंमें जो देव पैदा होते हैं उन्हें कल्लो
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अध्याय ४ सूत्र १७-१८-१९
१३५३ पपन्न कहते है; तथा सोलहवें स्वर्गसे ऊपर जो देव उत्पन्न होते हैं उन्हें कल्पातीत कहते है ॥ १७ ॥
कल्पोंकी स्थितिका क्रम
उपयु परि ॥१८॥ अर्थ-सोलह स्वर्गके आठ युगल, नव अवेयक, नव अनुदिश और पांच अनुत्तर ये सब विमान क्रमसे ऊपर ऊपर है ॥ १८ ॥
वैमानिक देवोंके रहनेका स्थान सौधर्मेशानसानत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मब्रह्मोत्तरलान्तवकापिष्ठशुक्रमहाशुक्रसतारसहस्रारेष्वानतप्राणतयोरारणाच्युतयोनवसुप्रैवेयकेषु विजयवैजयन्तजयन्तापराजितेषु
सर्वार्थसिद्धौ च ॥ १६ ॥ अर्थ-सौधर्म-ऐशान, सनत्कुमार-माहेन्द्र, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, लातवकापिष्ट, शुक्र-महाशुक्र, सतार-सहस्रार इन छह युगलोके बारह स्वर्गोमें, आनत-प्राणत ये दो स्वर्गोमे, प्रारण-अच्युत ये दो स्वर्गोमें, नव ग्रेवेयक विमानोमें, नव अनुदिश विमानोंमे और विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित तथा सर्वार्थसिद्धि इन पांच अनुत्तर विमानोंमे वैमानिक देव रहते हैं।
टीका १. नव वेयको के नाम-(१) सुदर्शन, (२) अमोघ, (३) सुप्रबुद्ध, (४) यशोधर, (५) सुभद्र, (६) विशाल, (७) सुमन, (८) सौमन और ( 8 ) प्रीतिकर ।
२. नव अनुदिशोंके नाम-(१) आदित्य, ( २ ) अचि, (३) अचिमाली, (४) वैरोचन, (५) प्रभास, (६) अचिप्रभ, (७) अर्चिमध्य ( ८ ) अचिरावर्त और (६ ) अचिविशिष्ठ ।
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३५४
मोक्षशास्त्र सूत्र में अनुदिश नाम नहीं है परन्तु 'नवसु' पदसे उसका ग्रहण हो जाता है। नव और ग्रैवेयक इन दोनोंमें सातवीं विभक्ति लगाई गई है वह बताती है कि प्रैवेयकसे नव ये जुदे स्वर्ग हैं।
३. सौधर्मादिक एक एक विमानमें एक एक जिनमंदिर अनेक विभूति सहित होते है। और इद्रके नगरके बाहर अशोकवन,आम्रवन इत्यादि होते है। उन बनमें एक हजार योजन ऊँचा और पाँचसौ योजन चौड़ा एक चैत्यवृक्ष है उसकी चारों दिशामें पल्यंकासन जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा है ।
४. इन्द्रके इस स्थानमण्डपके अग्रभागमें मानस्थंभ होता है उस मानस्थंभमें तीर्थकर देव जब गृहस्थदशामे होते हैं, उनके पहिनने योग्य प्राभरणोंका रत्नमई पिटारा होता है। उसमेंसे इन्द्र आभरण निकालकर तीर्थंकर देवको पहुँचाता है । सौधर्मके मानस्थंभके रत्नमई पिटारेमें भरतक्षेत्रके तीर्थंकरोंके आभरण होते हैं । ऐशान स्वर्गके मानस्थंभके पिटारेमें ऐरावतक्षेत्रके तीर्थंकरोंके आभरण होते हैं। सानत्कुमारके मानस्थम्भके पिटारेमें पूर्व विदेहके तीर्थंकरोंके आभरण होते हैं। महेन्द्रके मानस्थम्भके पिटारेमें पश्चिम विदेहके तीर्थंकरोंके आभरण होते हैं । इसलिये वे मानस्थम्भ देवोंसे पूज्यनीय हैं । इन मानस्थम्भोंके पास ही आठ योजन चौड़ा, आठ योजन लम्बा, तथा ऊंचा उपपाद गृह है। उन उपपादगृहोंमें एक रत्न मई शय्या होती है, वह इन्द्रका जन्म स्थान है । उस उपपादगृहके पासमे ही अनेक शिखरवाले जिनमंदिर हैं । उनका विशेष वर्णन त्रिलोकसारादि ग्रंथों मेंसे जानना चाहिये ॥ १९ ॥
वैमानिक देवोंमें उत्तरोचर अधिकता स्थितिप्रभावसुखद्यतिलेश्याविशुद्धीन्द्रियावधि
विषयतोऽधिकाः ॥२०॥ अर्थ- आयु, प्रभाव, सुख, द्युति, लेश्याकी विशुद्धि, इन्द्रियोंका विषय और अवधिज्ञानका विषय ये सब ऊपर ऊपरके विमानोंमे (वैमानिक देवोंके ) अधिक हैं।
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अध्याय ४ सूत्र २०-२१
टीका
स्थिति — प्रायुकर्मके उदयसे जो भवमें रहना होता है उसे स्थिति
कहते हैं ।
३५५
प्रभाव- -
- परका उपकार तथा निग्रह करनेवाली शक्ति प्रभाव है । सुख — सातावेदनीयके उदयसे इन्द्रियोंके इष्ट विषयोंकी अनुकूलता सो सुख है । यहाँ पर 'सुख' का अर्थ बाहरके संयोगकी अनुकूलता किया है, निश्रयसुख ( आत्मोक सुख ) यहाँ नही समझना चाहिये । निश्चयसुख का प्रारम्भ सम्यग्दर्शनसे होता है; यहाँ सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टिके भेदकी अपेक्षासे कथन नही है किन्तु सामान्य कथन है ऐसा समझना चाहिये ।
श्रुति – शरीरकी तथा वस्त्र आभूषण आदिकी दीप्ति सो द्युति है । लेश्याविशुद्धि - लेश्या की उज्ज्वलता सो विशुद्धि है; यहाँ भावलेश्या समझना चाहिये ।
इन्द्रियविषय – इन्द्रियद्वारा ( मतिज्ञानसे) जानने योग्य पदार्थोको इन्द्रियविषय कहते है ।
अवधि विषय – अवधिज्ञानसे जानने योग्य पदार्थ सो श्रवधिविषय 1120 11
वैमानिक देवोंमें उतरोतर हीनता
गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः ॥ २१ ॥
अर्थ — गति, शरीर, परिग्रह, और अभिमान की अपेक्षासे ऊपर उ.परके वैमानिक देव हीन होन हैं ।
टीका
१. गति - यहाँ 'गति' का अर्थ गमन है; एक क्षेत्रको छोड़कर अन्य क्षेत्रमे जाना सो गमन (गति) है । सोलहवें स्वर्गसे आगेके देव अपने विमानोंको छोड़ दूसरी जगह नही जाते ।
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मोक्षशास्त्र शरीर-शरीरका विस्तार सो शरीर है । परिग्रह-लोभ कषायके कारण ममतापरिणाम सो परिग्रह है। अभिमान-मानकषायके कारण अहंकार सो अभिमान है।
२. प्रश्न-ऊपर ऊपरके देवोंके विक्रिया आदि की अधिकताके कारण गमन इत्यादि विशेष रूपसे होना चाहिये फिर भी उसकी हीनता कैसे कही?
उचर-गमनकी शक्ति तो ऊपर ऊपरके देवोंमें अधिक है किन्तु अन्य क्षेत्रमें गमन करनेके परिणाम अधिक नहीं हैं इसलिये गमनहीन हैं ऐसा कहा है । सौधर्म-ऐशानके देव क्रीड़ादिकके निमित्तसे महान् विषयानुरागसे बारम्बार अनेक क्षेत्रोंमें गमन करते है। ऊपरके देवोंके विषयकी उत्कट ( तीव्र ) वांच्छाका अभाव है इसलिये उनकी गति हीन है।
३. शरीरका प्रमाण चालू अध्यायके अन्तिम कोष्टकमें बताया है वहाँ से जानना चाहिये ।
४. विमान-परिवारादिकरूप परिग्रह ऊपर ऊपरके देवोंमें थोड़ा २ होता है। कषायकी मंदतासे अवधिज्ञानादिमें विशुद्धता बढ़ती है और अभिमान कमती होता है। जिनके मंद कषाय होती है वे ऊपर ऊपर उत्पन्न होते है। ५. शुभ परिणामके कारण कौन जीव किस स्वर्गमें उत्पन्न होता है
उसका स्पष्टीकरण वौन उपजे ?
कहाँ उपजे? (१) असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त
भवनवासी तथा तियंच
व्यन्तर...... .... (२) कर्मभूमिके संज्ञी पर्याप्त
बारहवें स्वर्ग पर्यंत तिर्यचमिथ्याइष्टि या सासादन गुणस्थानवाले,
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अध्याय ४ सूत्र २१
( ३ ) ऊपरके तियंच- सम्यग्दृष्टि (स्वयंप्रभाचल से बाहरके भागमे रहनेवाले )
( ४ ) भोगभूमिके मनुष्य, तियंच - मिथ्यादृष्टि या सासादन गुणस्थानवाले
( ५ ) तापसी
( ६ ) भोगभूमिके सम्यग्दृष्टि. मनुष्य या तियंच
( ७ ) कर्मभूमिके मनुष्यमिथ्यादृष्टि अथवा सासादन
( ८ ) कर्मभूमिके मनुष्य -
जिनके द्रव्य ( बाह्य ) जिनलग और भाव मिथ्यात्व या सासादन होते है ऐसे-
( 8 ) जो अभव्य मिथ्यादृष्टि
निग्रंथ लिंग धारण करके महान् शुभभाव और तप सहित हों वे -
( १० ) परिव्राजक तापसियोंका
उत्कृष्ट उपपाद
( ११ ) आजीवक ( कांजीके अहारी )
का उपपाद
( १२ ) सम्यग्दर्शन -ज्ञान
चारित्रकी प्रकर्षतावाले श्रावक
३५७
सौधर्मादिसे अच्युत स्वर्ग पर्यंत
ज्योतिषियों में
ज्योतिषियों में
सौधर्म और ऐशान में
भवनवासीसे उपरिम ग्रैवेयक तक
ग्रैवेयक पर्यन्त
उपरिम (नवमे ) ग्रैवेयकमे 1
ब्रह्म (पंचम) स्वर्गपर्यंत
बारहवें स्वर्गं पर्यन्त
सौधर्मादिसे अच्युत तक ( उससे नीचे या ऊपर नही )
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३५८
( १३ ) भावलिंगी निर्ग्रन्थ साधु
( १४ ) अढ़ाईद्वीपके अणुव्रतधारी तिर्यन्च
मोक्षशास्त्र
( १५ ) पॉच मेरु संबंधी तीस भोगभूमिके मनुष्य-तियंन्च मिथ्यादृष्टि
( १६ )
सम्यग्दृष्टि
13
( १७ ) छ्यानवें अंतद्वीप कुभोगभूमिके
म्लेच्छ मनुष्य; मानुषोत्तर और स्वयंप्रभाचल पर्वतके बीचके
श्रसंख्यात द्वीपोंमे उत्पन्न हुए तिर्यन्च
23
कहाँ से आता है ?
( १ ) भवनत्रिक देव और सौधर्म-ऐशान से
नोट - एकेन्द्रिय, विकलत्रय, देव तथा नारकी ये देवों में उत्पन्न नही होते क्योंकि उनके देवोंमें उत्पन्न होनेके योग्य शुभभाव होते ही नहीं । ६. देव पर्यायसे च्युत होकर कौनसी पर्याय धारण करता है उसकी विगत
( २ ) सनत्कुमारादिकसे ( ३ ) बारहवें स्वर्ग पर्यन्तसे
( ४ ) आनत - प्राणतादिक से
सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त सौधर्म में लेकर बारहवें स्वर्ग पर्यन्त । भवनत्रिक में
(वारहवें स्वर्गके ऊपरसे )
सौधर्म ऐशान में भवन त्रिकमें
कौनसी पर्याय धारण करे ? एकेन्द्रिय बादर पर्याप्त पृथ्वीकाय, अपकाय, प्रत्येक वनस्पति, मनुष्य
तथा पंचेन्द्रिय तिर्यन्च में उपजे ( विकलत्रयमे नही जाता ) स्थावर नही होता । पंचेन्द्रिय तिर्यन्च तथा मनुष्य होता है ।
नियमसे मनुष्यमें ही उत्पन्न होता है तिर्यन्चोमे नही होता ।
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अध्याय ४ सूत्र २१
३५६ ( ५ ) सौधर्मसे प्रारम्भ करके त्रेसठ शलाका पुरुष भी हो
नवनवेयक पर्यन्तके देवों सकते हैं।
मेसे कोई (६) अनुदिश और अनुत्तरसे तोशंकर, चक्रवर्ती, बलभद्र आये हुये।
इत्यादिमें उत्पन्न हो सकते है
किंतु अर्धचक्री नहीं हो सकते । (७) भवनत्रिकसे
त्रेसठ शलाका पुरुषोंमें नही
उत्पन्न होते। (८) देव पर्यायसे
समस्त सूक्ष्मोंमें, तैजसकायोंमे, ( समुच्चयसे)
वातकायोमें उत्पन्न नहीं होते। तथा विकलत्रयोंमें, असंज्ञियों या लब्धिमपर्याप्तकोमें नही उत्पन्न होते और भोगभूमियोंमें, देवोमें तथा नारकियोंमें भी
उत्पन्न नहीं होते। ७. इस सूत्रका सिद्धांत (१) जब जीव मिथ्यादृष्टिके रूपमे उत्कृष्ट शुभभाव करता है तब नवमें अवेयक तक जाता है, परन्तु वे शुभभाव सम्यग्दर्शनके या धर्मके कारण नहीं है; मिथ्यात्वके कारण अनन्त संसारमे परिभ्रमण करता है इसलिये शुभ भावको धर्म था धर्मका कारण नही मानना चाहिये।
(२) मिथ्यादृष्टिको उत्कृष्ट शुभभाव होते हैं तब उसके गृहीतमिथ्यात्व छूट जाता है अर्थात् देव-गुरु-शास्त्रकी रागमिश्रित व्यवहार श्रद्धा तो ठीक होती है, उसके बिना उत्कृष्ट शुभभाव हो ही नहीं सकते। नवमें
वेयक जानेवाला मिथ्यादृष्टि जीव देव-गुरु शास्त्रके व्यवहारसे ( रागमिश्रित विचारसे ) सच्चा निर्णय करता है किन्तु निश्चयसे अर्थात् रागसे पर हो सच्चा निर्णय नहीं करता है तथा उसके 'शुभ भावसे धर्म होता है'
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३६०
मोक्षशास्र
ऐसी सूक्ष्म मिथ्यामान्यता रह जाती है इसलिये यह मिथ्यादृष्टि बना रहता है ।
( ३ ) सच्चे देव - गुरु शास्त्रकी व्यवहार श्रद्धाके बिना उच्च शुभभाव भी नही हो सकते, इसलिये जिन जीवोको सच्चे देव गुरु शास्त्रका सयोग प्राप्त हो जाता है । फिर भी यदि वे उसका रागमिश्रित व्यवहारिक यथार्थं निर्णय नही करते तो गृहीतमिथ्यात्व बना रहता है; और जिसे कुगुरु-कुदेव- कुशास्त्रकी मान्यता होती है उसके भी गृहीतमिथ्यात्व होता ही है; श्रोर जहाँ गृहीतमिथ्यात्व होता है वहाँ अगृहीतमिथ्यात्व भी अवश्य होता है; इसलिए ऐसे जीवको सम्यग्दर्शनादि धर्म तो होता नही, प्रत्युत मिथ्यादृष्टि होने वाला उत्कृष्ट शुभभाव भी उसके नही होता, ऐसे जीवों के जैन धर्मको श्रद्धा व्यवहारसे भी नही मानी जा सकती ।
( ४ ) इसी कारण से अन्यधर्मको मान्यतावालोंके सच्चे धर्मका प्रारम्भ अर्थात् सम्यग्दर्शन तो होता ही नहीं है और मिथ्यादृष्टि योग्य उत्कृष्ट शुभभाव भी वे नही कर सकते, वे अधिक से अधिक बारहवे देवलोक की प्राप्तिके योग्य शुभभाव कर सकते है ।
( ५ ) बहुतसे अज्ञानी लोगोंकी यह मान्यता है कि 'देवगति में सुख है' किन्तु यह उनकी भूल है । बहुतसे देव तो मिथ्यात्वके कारण प्रतत्त्वश्रद्धानयुक्त ही है । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोके अति मंद कषाय नही होती, उपयोग भी बहुत चंचल होता है तथा कुछ शक्ति है इसलिये कौतुहल तथा विषयादि कार्यों में ही लगे रहते है और इसलिये वे अपनी उस व्याकुलतासे दुःखी ही है । वहाँ माया -लोभ कषायके कारण होनेसे वैसे कार्योकी मुख्यता है । वहाँ विषयसामग्री की इच्छा करना, छल करना इत्यादि कार्य विशेष होते है किंतु वैमानिक देवोंमें ऊपर ऊपरके देवोके वे कार्य अल्प होते हैं । वहाँ हास्य और रति कषायके कारण होनेसे वैसे कार्योंकी मुख्यता होती है । इसप्रकार देवोको कषायभाव होता है और कषायभाव दुःख ही है । ऊपरके देवोके उत्कृष्ट पुण्यका उदय है और कषाय अति मंद है, तथापि उनके भी इच्छाका अभाव नहीं है इसलिये वास्तवमें वे दुःखी ही हैं ।
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अध्याय ४ सूत्र २१-२२ जो देव सम्यग्दर्शनको प्राप्त हुए हैं वे ही जितने दरजेमें वीतरागभावरूप रहते हैं उतने दरजेमें सच्चे सुखी हैं। सम्यग्दर्शनके बिना कही भी सुखका अंश प्रारंभ नही होता, और इसीलिये ही इसी शास्त्रके पहिले ही सूत्रमे मोक्ष का उपाय बतलाते हुए उसमे सम्यग्दर्शन पहिला बताया है । इसलिये जीवोंको प्रथम ही सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिका उपाय करना आवश्यक है।
(६)-उत्कृष्ट देवत्वके योग्य सर्वोत्कृष्ट शुभभाव सम्यग्दृष्टिके ही होते है । अर्थात् शुभभावके स्वामित्वके निषेधकी भूमिकामें ही वैसे उत्कृष्ट शुभभाव होते है, मिथ्यादृष्टिके वैसे उच्च शुभभाव नही होते ॥ २१ ॥
वैमानिक देवोंमें लेश्या का वर्णन पीतपद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु ॥२२॥
अर्थ-दो युगलोंमे पीत; तीन युगलोमे पद्म और बाकीके सब विमानोमे शुक्ललेश्या होती है।
टीका
१३ पहिले और दूसरे स्वर्गमे पीतलेश्या, तीसरे और चौथेमे पीत तथा पद्मलेश्या, पांचवेंसे आठवें तक पद्मलेश्या, नववेसे बारहवें तक पद्म और शुक्ललेश्या और बाकीके सब वैमानिक देवोके शुक्ललेश्या होती है, नव अनुदिश और पांच अनुत्तर इन चौदह विमानोके देवोके परमशुक्ललेश्या होती है । भवनत्रिक देवोकी लेश्याका वर्णन इस अध्यायके दूसरे सूत्रमें आगया है । यहाँ भावलेश्या समझना चाहिये।
२. प्रश्न-सूत्रमे मिश्रलेश्याओका वर्णन क्यो नही किया ?
उत्तर---जो मुख्य लेश्याएँ है उन्हे सूत्र में बतलाया है जो गौण लेश्याएँ है उन्हे नही कहा है, गौरण नेश्याओका वर्णन उसीमे गर्भित है। इसलिये वे उसमे अविवक्षितरूपसे है । इस शास्त्रमे सक्षिप्त सूत्ररूपसे मुख्य वर्णन किया है, दूसरा उसमे गभित है । इसलिये यह गभित कथन परम्परा के अनुसार समझ लेना चाहिये ॥ २२॥
४६
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३६२
मोक्षशास्त्र कल्पसंज्ञा कहाँ तक है ? प्राग्वेयकेभ्यः कल्पाः॥२३॥ अर्थ-वेयकोंसे पहिलेके सोलह स्वर्गोको कल्प कहते है। उनसे आगेके विमान कल्पातीत है।
टीका सोलह स्वर्गोके बाद नवग्रैवेयक इत्यादिके देव एक समान वैभवके धारी होते है इसलिये उन्हें अहमिन्द्र कहते है, वहाँ इन्द्र इत्यादि भेद नहीं है, सभी समान हैं ॥ २३ ॥
लौकान्तिक देव ब्रह्मलोकालया लौकान्तिकाः ॥ २४ ॥
अर्थ-जिनका निवास स्थान पाँचवे स्वर्ग ( ब्रह्मलोक ) है उन्हें लौकान्तिक देव कहते है।
टीका ये देव ब्रह्मलोकके अंतमें रहते है तथा एक भवावतारी ( एकावतारी ) है तथा लोकका अंत ( संसारका नाश ) करनेवाले है इसलिये उन्हे लोकान्तिक कहते है। वे द्वादशांगके पाठी होते है, चौदह पूर्वके धारक होते है, ब्रह्मचारी रहते है और तीर्थंकर प्रभुके मात्र तप कल्याणक में आते है । वे देवर्षि भी कहे जाते हैं ॥ २४ ॥
* लौकान्तिक देवोंके नाम सारस्वतादित्यवयरुणगर्दतोयतुषिताव्याबाधा
रिष्टाश्च ॥ २५॥ अर्थ-लौकान्तिक देवोंके आठ भेद है:-१-सारस्वत, २-प्रादित्य, ३-वह्नि, ४-अरुण, ५-गर्दतोय, ६-तुषित, ७-अव्याबाध, और ८अरिष्ट ये देव ब्रह्मलोककी ईशान इत्यादि आठ दिशाओंमें रहते हैं।
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सध्याय ४ सूत्र २५-२६
टीका इन देवोंके ये आठ मूल भेद है और उन आठोंके रहनेके स्थानके बीच के भागमे रहनेवाले देवोंके दूसरे सोलह भेद है। इसप्रकार कुल २४ भेद है इन देवोके स्वर्गके नाम उनके नामके अनुसार ही है । उनमे सभी समान है, उनमे कोई छोटा बडा नही है सभी स्वतन्त्र है उनकी कुल संख्या ४०७८२० है । सूत्रमे पाठ नाम बतलाकर अंतमें 'च' शब्द दिया है उससे यह मालूम होता है कि इन आठ के अतिरिक्त दूसरे भेद भी हैं ॥२५॥
अनुदिश और अनुत्तरवासी देवोंके अवतारका नियम
विजयादिषु द्विचरमाः॥ २६ ॥ अर्थ-विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और अनुदिश विमानो के अहमिन्द्र द्विचरमा होते हैं अर्थात् मनुष्यके दो जन्म (भव) धारण करके अवश्य ही मोक्ष जाते है ( ये सभी जीव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं।)
टीका
१. सर्वार्थसिद्धिके देव उनके नामके अनुसार एकावतारी ही होते हैं । विजयादिकमें रहनेवाले जीव एक मनुष्यभव अथवा दो भव भी धारण करते है।
२. सर्वार्थसिद्धिके देव, दक्षिणके छह इन्द्र (-सौधर्म, सानत्कुमार, ब्रह्म, शुक्र, आनत, आरण ) सौधर्मके चारों लोकपाल, सौधर्म इन्द्रको 'शचि' नामकी, इन्द्राणी और लौकान्तिक देव-ये सभी एक मनुष्य जन्म धारण करके मोक्ष जाते हैं [ सर्वा० एटा, पृ० ८७-८८ की फुटनोट ] ॥ २६ ॥
[ तीसरे अध्यायमें नारकी और मनुष्य संबंधी वर्णन किया था और इस चौथे अध्यायमे यहाँ तक देवोंका वर्णन किया । अव एक सूत्र द्वारा तिर्यंचोंकी व्याख्या बतानेके बाद देवोकी उत्कृष्ट तथा जघन्य आयु
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मोक्षशास्त्र कितनी है यह बतावेंगे तथा नारकियोंकी जघन्य आयु कितनी है यह बतावेगे। मनुष्य तथा तिर्यंचोंकी आयुकी स्थितिका वर्णन तीसरे अध्यायके सूत्र ३८-३६ में कहा गया है।
___ इसप्रकार, दूसरे अध्यायके दशवें सूत्रमें जीवोंके संसारी और मुक्त ऐसे जो दो भेद कहे थे उनमेंसे संसारी जीवोंका वर्णन चौथे अध्याय तक पूरा हुआ। तत्पश्चात् पांचवें अध्यायमें अजीव तत्त्वका वर्णन करेगे। छठवें तथा सातवें अध्यायमें पाश्रव तथा पाठवें अध्यायमें बन्ध तत्त्वका वर्णन करेगे तथा नवमें अध्यायमें संवर और निर्जरा तत्त्वका वर्णन करेगे और मुक्त जीवों का ( मोक्ष तत्त्वका ) वर्णन दशवें अध्यायमें करके ग्रंथ पूर्ण करेगे।]
तिर्यंच कौन हैं ? औपपादिकमनुष्येभ्यः शेषास्तिर्यग्योनयः ॥२७॥
अर्थ-उपपाद जन्मवाले ( देव तथा नारकी ) और मनुष्योंके अतिरिक्त बाकी बचे हुए तियंच योनिवाले ही हैं।
टीका देव नारकी और मनुष्योंके अतिरिक्त सभी जीव तिर्यंच हैं उनमेसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव तो समस्त लोकमे व्याप्त है । लोकका एक भी प्रदेश सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोसे रहित नही है। बादर एकेन्द्रिय जीवोंको पृथ्वी इत्यादिका आधार होता है।
विकलत्रय (दो तीन और चार इन्द्रिय) और संज्ञी-असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव त्रसनालीमें कही कही होते हैं त्रसनालीके बाहर त्रसजीव नही होते। तिथंच जीव समस्त लोकमें होनेसे उनका क्षेत्र विभाग नही है ॥ २७ ॥
भवनवासी देवोंकी उत्कृष्ट आयुका वर्णन स्थितिरसुरनागसुपर्णद्वीपशेषाणां सागरोपमत्रिपल्यो
पमा हीनमिताः॥२८॥
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अध्याय ४ सूत्र २८-२६-३०
अर्थ - भवनवासी देवोंमे असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, द्वीपकुमार और वाकीके छह कुमारोंकी आयु क्रमसे एक सागर, तीन पल्य, ढाई पल्य, दो पत्य, श्रीर डेढ पल्य है ॥ २८ ॥
३६५
वैमानिक देवोंकी उष्कृष्ट आयु
सौधर्मैशानयोः सागरोपमे अधिके ॥२६॥
अर्थ-सोधर्म और ईशान स्वर्गके देवोकी श्रायु दो सागरसे कुछ अधिक है ।
टीका
१, भवनवासी देवोके बाद व्यंतर और ज्योतिषी देवोंकी श्रायु वतानेका क्रम है तथापि वैमानिक देवोंकी आयु बतानेका कारण यह है कि ऐसा करनेसे वादके सूत्रोंमे लघुता ( संक्षेपता ) आ सकती है ।
२. 'सागरोपमे' यह शब्द द्विवचनरूप है उसका अर्थ 'दो सागर' होता है ।
३. 'अधिके' यह शब्द घातायुष्क जीवोकी अपेक्षासे है; उसका खुलासा यह है कि कोई सम्यग्दृष्टि मनुष्यने शुभ परिणामोसे दश सागर प्रमाण ब्रह्म ब्रह्मोत्तर स्वर्गकी आयु बांधली तत्पश्चात् उसने ही मनुष्य भव मे संक्लेश परिणामसे उस आयुकी स्थितिका घात किया और सोधर्म-ईशान मे उत्पन्न हुआ तो वह जीव घातायुष्क कहलाता है; सौधर्म ईशानके दूसरे देवोंकी अपेक्षा उसकी आधा सागरमे एक अंतर्मुहूर्तं कम प्रायु अधिक होती है । ऐसा घातायुष्कपना पूर्वमें मनुष्य तथा तियंच भवमे होता है ।
४. प्रायुका घात दो प्रकारका है— एक अपवर्तनघात और दूसरा कदलीघात । वध्यमान आयुका घटना सो अपवर्तनघात है । और भूज्यमान (भोगनेमें आनेवाली) आयुका घटना सो कदलीघात है । देवोमे कदलीघात आयु नही होती ।
५. घातायुष्क जीवका उत्पाद बारहवे देवलोक पर्यन्त ही होता है ॥ २६ ॥
सानत्कुमारमाद्रयोः सप्त ॥ ३० ॥
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मोक्षशास्त्र अर्थ–सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गके देवोंकी आयु सात सागरसे कुछ अधिक है।
नोट:-इस सूत्रमें 'अधिक' शब्द की अनुवृत्ति पूर्व सूत्रसे आयी है ॥ ३० ॥ त्रिसप्तनवैकादशत्रयोदशपंचदशभिरधिकानितु ॥ ३१ ॥
अर्थ:-पूर्व सूत्रमें कहे हुए युगलोंकी आयु ( सात सागर ) से क्रमपूर्वक, तीन, सात, नव, ग्यारह, तेरह और पन्द्रह सागर अधिक आयु ( उसके बादके स्वर्गोमें ) है।।
१. ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर स्वर्गमें दश सागरसे कुछ अधिक, लांतव और कापिष्ट स्वर्ग में चौदह सागरसे कुछ अधिक, शुक्र और महाशुक स्वर्गमें सोलह सागरसे कुछ अधिक, सतार और सहस्रार स्वर्ग में अठारह सागरसे कुछ अधिक, आनत और प्राणत स्वर्ग में बीस सागर तथा आरण और अच्युत स्वर्गमें बावीस सागर उत्कृष्ट आयु है।
२. 'तु' शब्द होनेके कारण 'अधिक' शब्दका सम्बन्ध बारहवें स्वर्ग तक ही होता है क्योंकि घातायुष्क जीवोंकी उत्पत्ति वहाँ तक ही होती है ॥ ३१ ॥
____ कल्पोपपन्न देवोंकी आयु कह करके अब कल्पातीत देवोंकी आयु कहते है।
__कल्पातीत देवोंकी आयु श्रारणाच्युतादूर्ध्वमेकैकेन नवसु चेयकेषु विजया
दिषु सर्वार्थसिद्धौ च ॥३२॥ अर्थ-आरण और अच्युत स्वर्गसे ऊपरके नव वेयकोंमें, नव अनुदिशोमें, विजय इत्यादि विमानोमें और सर्वार्थ सिद्धि विमानमे देवोंकी आयु-एक एक सागर अधिक है।
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श्रध्याय ४ सूत्र ३२-३३-३४-३५
टीका
१. पहिले ग्रैवेयक में २३, दूस रेमें २४, तोसरेमें २५, चौथेमें २६, पाँचवेंमें २७, छठवे में २८, सातवे में २६, आठवे में ३०, नववे में ३१, नव अनुदिशोंमें ३२, विजय आदिमे ३३ सागर की उत्कृष्ट आयु है । सर्वार्थसिद्धिके सभी देवों की ३३ सागर की ही स्थिति होती है इससे कम किसी की नहीं होती ।
३६७
२. मूल सूत्रमें 'अनुदिश' शब्द नहीं है किन्तु 'आदि' शब्द से अनुदिशोका भी ग्रहरण हो जाता है ।। ३२ ।
स्वर्गो की जघन्य आयु
अपरा पल्योपमधिकम् ॥ ३३ ॥
अर्थ- सौधर्म और ईशान स्वर्गमें जघन्य आयु एक पल्यसे कुछ श्रधिक है ।
टीका
सागर और पल्यका नाप तीसरे अध्यायके छठवे सूत्रकी टीकामें दिया है । वहाँ अद्धापल्य लिखा है उसे ही पल्य समझना चाहिये ||३३||
परतः परतः पूर्वा पूर्वाऽनंतरा ॥ ३४ ॥
अर्थ -- जो पहिले पहिलेके युगलोकी उत्कृष्ट आयु है वह पीछे पीछेके युगलोकी जघन्य आयु होती है ।
टीका
सोघमं और ईशानस्वर्गं की उत्कृष्ट आयु दो सागरसे कुछ अधिक है; उतनी ही सानत्कुमार और माहेन्द्रको जघन्य श्रायु है । इसी क्रमके अनुसार आगेके देवोंकी जघन्य आयु समझना चाहिये । सर्वार्थसिद्धिमे जघन्य आयु नही होती ॥ ३४ ॥
नारकियों की जघन्य आयु
नारकार्णा च द्वितीयादिषु ॥ ३५ ॥
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मोक्षशास्त्र अर्थः-दूसरे इत्यादि नरकके नारकियोंकी जघन्य आयु भी देवोंकी जघन्य आयुके समान है-अर्थात् जो पहिले नरककी उत्कृष्ट प्रायु है वही दूसरे नरककी जघन्य आयु है । इसप्रकार आगेके नरकोंमें भी जघन्य आयु जानना चाहिये ॥ ३५ ॥
पहिले नरककी जघन्य आयु दशवर्षसहस्राणि प्रथमायाम् ॥३६॥ अर्थः-पहिले नरकके नारकियोंकी जघन्य आयु दश हजार वर्षको
(नारकियोंकी उत्कृष्ट आयुका वर्णन तीसरे अध्यायके छठवें सूत्रमें किया है।)॥३६॥
भवनवासी देवोंकी जघन्य आयु
भवनेष च ॥ ३७॥ अर्थ:-भवनवासी देवोंकी भी जघन्य आयु दश हजार वर्षकी है ॥
व्यन्तर देवोंकी जघन्य आयु
व्यन्तराणां च ॥३८॥ अर्थ:-व्यन्तर देवोंको भी जघन्य प्रायु दश हजार वर्षको है ॥३८॥
___ व्यन्तर देवोंकी उत्कृष्ट श्रायु
परा पल्योपममधिकम् ॥३६॥ अर्थः-व्यन्तर देवोंकी उत्कृष्ट आयु एक पल्योपमसे कुछ अधिक है।
ज्योतिषी देवोंकी उत्कृष्ट आयु
ज्योतिष्काणां च ॥४०॥ अर्थ:-ज्योतिषी देवोंकी भी उत्कृष्ट आयु एक पल्योपमसे कुछ अधिक है ॥ ४० ॥
ज्योतिषी देवोंकी जघन्य आयु तदष्टभागोऽपरा ॥४१॥ .
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अध्याय ४ सूत्र ४१-४२
३६९ अर्थ:-ज्योतिषी देवोंकी जघन्य आयु एक पल्योपमके आठवें भाग है ।। ४१ ॥
लौकान्तिक देवोंकी आयु लौकान्तिकानामष्टौ सागरोपमाणि सर्वेषास् ॥ ४२ ॥
अर्थ-समस्त लोकान्तिक देवोकी उत्कृष्ट तथा जघन्य आयु आठ सागरकी है ॥ ४२ ॥
" ' उपसंहार इस चौथे अध्याय तक सात तत्त्वोंमेसे जीव तत्त्वका अधिकार पूर्ण हुआ। .
पहिले अध्यायके पहिले सूत्रमे मोक्षमार्गकी व्याख्या करते हुए सम्यग्दर्शनसे ही धर्मका प्रारंभ, होता है. ऐसा-बतलाया है। दूसरे ही सूत्र में सम्यग्दर्शनकी व्याख्या करते हुए बताया है. कि-तत्त्वार्थश्रद्धा सो सम्यग्दर्शन है । तत्पश्चात् चौथे सूत्रमे तत्त्वोंने नाम बतलाये और तत्त्व सात हैं यह बताया । सात नाम होने पर भी, बहुवचनका प्रयोग नही करते हुए 'तत्त्वं' इसप्रकार एक वचनका,प्रयोग किया है-उससे यह मालूम होता है कि इन सातों तत्त्वोंके राग मिश्रित विचारसे ज्ञान करने के बाद भेदका आश्रय दूर करके जीवके त्रिकालिक अमेद ज्ञायक भावका आश्रय करने से सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। ...
सूत्र ५ तथा ६ मे बताया है कि इन तत्त्वोंको निक्षेप, प्रमाण तथा नयोके द्वारा जानना चाहिये; इसमे सप्तभंगोका समावेश हो जाता है। इन सबको संक्षेपमे सामान्यरूपसे कहना हो तो तत्वोंका स्वरूप जो अनेकान्तरूप है, और जिसका द्योलक स्याद्वाद है उनका स्वरूप भलीभांति समझ लेना चाहिये। ..
. जीवका यथार्थज्ञान करने के लिये स्याद्वाद पद्धतिसे अर्थात् निक्षेप, प्रमाण, नय और सप्तभंगीसे जीवका स्वरूप संक्षेपमें कहा जाता है। उसमे पहिले 'सप्तभंगीके द्वारा जीवका स्वरूप कहा जाता है-सप्तभंगीका स्वरूप जीवमे निम्नप्रकारसे लगाया जाता है।
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३७०
मोक्षशास्त्र
सप्तभंगी [स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति ] 'जीव है' यह कहते ही जीव जीवस्वरूपसे है और जीव जड़स्वरूप से ( अजीवस्वरूपसे) नहीं है-यदि यह समझा जा सके तो ही जीवको जाना कहलाता है; अर्थात् 'जीव है, यह कहते ही यह निश्चित् हुआ कि 'जीव जीवस्वरूपसे है और उसमें यह गभित होगया कि 'जीव परस्वरूप से नहीं है । वस्तु के इस धर्मको 'स्यात् अस्ति' कहा जाता है उसमें 'स्यात्' का अर्थ किसी 'एक अपेक्षासे' है; और अस्तिका अर्थ है' होता है । इसप्रकार 'स्यात् अस्ति' का अर्थ 'अपनी अपेक्षासे है' यह होता है, उसमें 'स्यात् नास्ति' अर्थात् 'परकी अपेक्षासे नहीं है। ऐसा गभितरूपसे आ जाता है। जो इसप्रकार जानता है वही जीवका 'स्यात् अस्ति' भंग अर्थात् 'जीव है' इसप्रकार यथार्थ जानता है, किन्तु यदि 'परकी अपेक्षासे नहीं है ऐसा उसके लक्षमें गभितरूपसे न आये तो जीवका 'स्यात् अस्ति' स्वरूपको भी वह जीव भलीभाँति नहीं समझा है और इसलिये वह अन्य छह भगोंको भी नहीं समझा है; इसलिये उसने जीवका यथार्थ स्वरूप नहीं समझा है। यह ध्यान रखना चाहिये कि-'हर समय बोलनेमें 'स्यात्' शब्द बोलना ही चाहिये' ऐसी आवश्यकता नही है। किन्तु 'जीव है' ऐसा कहनेवालेके 'स्यात्' पदके भावका यथार्थ ख्याल होना चाहिये, यदि ऐसा न हो तो 'जीव है' इस पदका यथार्थ ज्ञान उस जीवके है ही नहीं।
'जीवका अस्तित्व पर स्वरूपसे नहीं है' यह पहले 'स्यात् अस्ति' भंगमें गभित था; वह दूसरे 'स्यात् नास्ति' भगमें प्रगटरूपसे बतलाया जाता है । स्यात् नास्तिका अर्थ ऐसा है कि पर अपेक्षासे जीव नहीं है। 'स्यात्' अर्थात् किसी अपेक्षासे और 'नास्ति' अर्थात् न होना । जीवका पर अपेक्षासे नास्तित्व है अर्थात् जीव परके स्वरूपसे नहीं है इसलिये परअपेक्षासे जीवका नास्तित्व है अर्थात् जीव और पर एक दूसरेके प्रति अवस्तु है-ऐसा 'स्यात् नास्ति' भंगका अर्थ समझना चाहिये।
इससे यह समझना चाहिये कि-जैसे 'जीव' शब्द कहनेसे जीवका अस्तित्व ( जीवकी सत्ता ) भासित होता है वह जीवका स्वरूप
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अध्याय ४ उपसंहार
३७१ है उसी प्रकार उसीसमय उस जीवको छोड़कर दूसरेका निषेध भासित होता है वह भी जीवका स्वरूप है ।
इससे सिद्ध हुआ कि स्वरूपसे जीवका स्वरूप है और पररूपसे न होना भी जीवका स्वरूप है । यह जीवमे स्यात् अस्ति तथा स्यात् नास्ति का स्वरूप बतलाया है ।
इसोप्रकार परवस्तुओं का स्वरूप उन वस्तुरूपसे है और परवस्तुओं का स्वरूप जोवरूपसे नही है;- - इसप्रकार सभी वस्तुओमे श्रस्ति नास्ति स्वरूप समझना चाहिये । शेष पाँच भंग इन दो भंगोके ही विस्तार है । "आप्तमीमांसाकी १११ वी कारिकाकी व्याख्यामे श्रकलकदेव कहते हैं कि- वचनका ऐसा स्वभाव है कि स्वविषयका अस्तित्व दिखानेसे वह उससे इतरका ( परवस्तुका ) निराकरण करता है, इसलिये अस्तित्व और नास्तित्व- इन दो मूल धर्मोके आश्रयसे सप्तभंगीरूप स्याद्वाद की सिद्धि होती है ।" [ तत्वार्थसार पृष्ठ १२५ का फुट नोट ]
साधक जीवको अस्ति-नास्तिके ज्ञानसे होनेवाला फल
जीव अनादि अविद्याके कारण शरीरको अपना मानता है और इसलिये वह शरीरके उत्पन्न होने पर अपनी उत्पत्ति तथा शरीर का नाश होने पर अपना नाश होना मानता है पहिली भूल 'जीवतत्त्वकी विपरीत श्रद्धा है और दूसरी भूल 'अजीवतत्त्व' को विपरीत श्रद्धा है । [ जहाँ एक तत्त्वकी विपरीत श्रद्धा होती है वहीं दूसरे तत्त्वोकी भी विपरीत श्रद्धा होती ही है । ]
इस विपरीत श्रद्धाके कारण जीव यह मानता रहता है कि वह शारीरिक क्रिया कर सकता है; उसे हिला डुला सकता है, उठा बैठा सकता है; सुला सकता है और शरीरकी सँभाल कर सकता है इत्यादि । जीवतत्त्व संबंधी यह विपरीत श्रद्धा अस्ति नास्ति भंगके यथार्थ ज्ञानसे दूर होती है ।
यदि शरीर अच्छा हो तो जीवको लाभ होता है, और खराब हो तो हानि होती है, शरीर अच्छा हो तो जीव धर्म कर सकता है और
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३७२
मोक्षशास्त्र
खराब हो तो धर्म नहीं कर सकता, इत्यादि प्रकारसे अजीवतत्त्व सम्बन्धी विपरीत श्रद्धा किया करता है। वह भूल भी अस्ति-नास्ति भंगके यथार्थज्ञानसे दूर होती है।
जीव जीवसे अस्तिरूपसे है और परसे अस्तिरूपसे नहीं है किन्तु नास्तिरूपसे है, इसप्रकार जब यथार्थतया ज्ञानमें निश्चय करता है तब प्रत्येक तत्त्व यथार्थतया भासित होता हैइसीप्रकार जीव परद्रव्योंके प्रति संपूर्णतया अकिंचित्कर है तथा परद्रव्य जीवके प्रति संपूर्णतया अकिंचित्कर है, क्योंकि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूपसे नास्ति है, ऐसा विश्वास होता है और इससे जीव पराश्रयी-परावलंबित्वको मिटा कर स्वाश्रयो-स्वावलम्बी हो जाता है, यही धर्मका प्रारम्भ है।
__जीवका परके साथ निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध कैसा है इसका ज्ञान इन दो भंगोसे किया जा सकता है। निमित्त परद्रव्य है इसलिये वह नैमित्तिक जीवका कुछ नही कर सकता, वह मात्र आकाश प्रदेशमें एक क्षेत्रावगाहरूपसे या संयोग-अवस्थारूपसे उपस्थित होता है; किन्तु नैमित्तिक-निमित्तसे पर है और निमित्त-नैमित्तिकसे पर है इसलिये एक दूसरेका कुछ नही कर सकता । निमित्त तो परज्ञेयरूपसे ज्ञान में ज्ञात होता है, इतना मात्र व्यवहार सम्बन्ध है । दूसरेसे चौथे अध्याय तक यह अस्ति-नास्ति स्वरूप कहाँ कहाँ .
बताया है उसका वर्णन अध्याय २ सूत्र १ से ७-जीवके पांचभाव अपने अस्तिरूपसे हैं और परसे नास्तिरूप हैं ऐसा बताया है।
अ० २ सूत्र ८-६ जीवका लक्षण अस्तिरूपसे क्या है यह बताया है। उपयोग जीवका लक्षण है ऐसा कहनेसे दूसरा कोई लक्षण जीवका नही है ऐसा प्रतिपादित हुअा। जीव अपने लक्षणसे अस्तिरूप है और इसीलिये उसमे परकी नास्ति आगई-ऐसा बताया है ।
अ० २ सू० १०-जीवकी विकारी तथा शुद्ध पर्याय जोवसे अस्ति रूपसे है और परसे नास्तिरूपसे अर्थात परसे नही है ऐसा बताया है ।
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अध्याय ४ उपसंहार
३७३ म० २ सूत्र ११ से १७-जीवके विकारीभावोंका पर वस्तुओसे -कर्म, मन, वचन, शरीर, इन्द्रिय, परक्षेत्र इत्यादिके साथ कैसा निमित्त नैमित्तिकभाव है यह बतलाकर यह बताया है कि-जीव पराश्रयसे जीवके विकारीभाव करता है किंतु परनिमित्तसे विकारीभाव नही होते अर्थात् पर निमित्त विकारीभाव नही कराता यह अस्ति-नास्तिपन बतलाता है।
अ० २ सूत्र १५-जीवकी क्षयोपशमरूप पर्याय अपने अस्तिरूपसे है, परसे नहीं है ( नास्तिरूपसे है ) अर्थात् परसे-कर्मसे जीवकी पर्याय नही होती यह बताया है।
___ अ० २ सूत्र २७ जीवका सिद्धक्षेत्रके साथ कैसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है उसे बताते हैं।
अ० २ सू० ५० से ५२-जीवकी वेदरूप ( भाववेदरूप ) विकारी पर्याय अपनी योग्यतासे-अस्तिरूपसे है परसे नही है यह बताया है।
म० २ सू० ५३-जीवका आयुकर्मके साथ निमित्त-नैमित्तिकभाव वताया है; उसमें जीवका नैमित्तिकभाव जीव को अपनो योग्यतासे है और आयुकर्मसे अथवा परसे नही है ऐसा बताया है तथा निमित्त आयुकर्मका निश्चय सम्बन्ध जीव या किसी दूसरे परके साथ नही है ऐसा अस्ति-नास्ति भंगसे सिद्ध होता है।
अ० ३ सू० १ से ६ नारकोभावके भोगनेके योग्य होनेवाले जीवके किस प्रकारके क्षेत्रोका संबंध निमित्तरूपसे होता है तथा उत्कृष्ट आयुका निमित्तपना किसप्रकारसे होता है यह बताकर, निमित्तरूप, क्षेत्र या आयु वह जीव नहीं है किन्तु जीवसे भिन्न है ऐसा सिद्ध होता है।
अ० ३ सू० ७ से ३६ मनुष्यभाव या तिर्यंचभावको भोगनेके योग्य जीव के किसप्रकार के क्षेत्रोका तथा आयु का संबध निमित्तरूपसे होता है यह बताकर जीव स्व है और निमित्त पर है ऐसा अस्ति-नास्ति स्वरूप बतलाया है।
अ० ४ सू० १ से ४२ देवभाव और तिर्यंचभाव होनेपर तथा सम्यग्दृष्टि और मिथ्यावृष्टिरूप अवस्थामे जीवके कैसे परक्षेत्रोंका तथा
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३७४
मोक्षशास्त्र आयुका निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध होता है यह बताकर अस्ति-नास्ति स्वरूप बताया है।
सप्तभंगी के शेष पाँच भंगोंका विवेचन १-२-अस्ति और नास्ति यह दो जीवके स्वभाव सिद्ध कर दिया।
३-जीवके अस्ति और नास्ति इन दोनों-स्वभावोंको क्रमसे कहना हो तो 'जीव अस्ति नास्ति-दोनों धर्ममय है' ऐसा कहा जाता है. इसलिये जीव 'स्यात् अस्ति-नास्ति' है; यह तीसरा भंग हुआ।
४-अस्ति और नास्ति ये दोनों जीवके स्वभाव है तो भी वे दोनों एक साथ नहीं कहे जा सकते है, इस अपेक्षासे जीव 'स्यात अवक्तव्य' है यह चौथा भंग हुआ।
५-जीवका स्वरूप जिस समय अस्तिरूपसे कहा जाता है उसी समय नास्ति तथा दूसरे गुण इत्यादि नही कहे जा सकते-प्रवक्तव्य है; इसलिये जीव 'स्यात् अस्ति-प्रवक्तव्य' है; यह पांचवां भंग हुआ।
६-जीवका स्वरूप जिस समय नास्तिसे कहा जाता है उस समय अस्ति तथा अन्यगुरण इत्यादि नही कहे जा सकते-अवक्तव्य है; इसलिये जीव 'स्यात् नास्ति-प्रवक्तव्य' है यह छट्ठा भंग हुआ।
७-स्यात् अस्ति और स्यात् नास्ति यह दोनों भंग क्रमशः वक्तव्य हैं किन्तु युगपत् वक्तव्य नही है। इसलिये जीव 'स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य' है; यह सातवां भंग हुआ ।
जीवमें अवतरित सप्तभंगी १-जीव स्यात् अस्ति ही है । २-जीव स्यात् नास्ति ही है। ३जीव स्यात् अस्ति-नास्ति ही है। ४-जीव स्यात् प्रवक्तव्य ही है । ५-जीव स्यात् अस्ति अवक्तव्य ही है। ६-जीव स्यात् नास्ति-अवक्तव्य ही है । ७जीव स्यात् अस्ति-नास्ति वक्तव्य ही है।
स्यात्का अर्थ कुछ लोग 'संशय' करते हैं किन्तु यह उनकी भूल है। 'कथंचित् किसी अपेक्षासे' ऐसा उसका अर्थ होता है । स्यात् कथनसे ( स्याद्वादसे ) वस्तु स्वरूपके ज्ञानकी विशेष दृढ़ता होती है ।
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अध्याय ४ उपसंहार
सप्तभंगीमें लागू होनेवाले नय
'अस्ति' स्वरूपसे है इसलिये निश्चयनयका विषय है, और नास्ति पर रूपसे है इसलिये व्यवहारनयका विषय है। शेष पाँच भंग व्यवहारनयसे हैं क्योंकि वे कुछ या अधिक अंशमे परकी अपेक्षा रखते हैं । लागू पड़नेवाले नय
अस्तिमें
अस्तिके निश्चय अस्ति और व्यवहार अस्ति ये दो भेद हो सकते
३७५
हैं । जीवकी शुद्ध पर्याय निश्चयनयसे अस्ति है क्योंकि वह जीवका स्वरूप
है । श्रर विकारी पर्याय व्यवहारनयसे अस्तिरूप है क्योंकि वह जीवका स्वरूप नहीं है | विकारी पर्याय अस्तिरूप है अवश्य किन्तु वह टालने योग्य है; व्यवहारनयसे वह जीवका है और निश्चयनयसे जीवका नहीं है ।
अस्ति में दूसरे प्रकार से लागू पड़नेवाले नय
अस्तिका अर्थ 'सत्' होता है, सत् उत्पाद व्यय घ्रौव्ययुक्त होता है उसमे धीय निश्चयनयसे अस्ति है और उत्पाद - व्यय व्यवहारनयसे हैं । जीवका धौव्य स्वरूप त्रिकाल अखण्ड शुद्ध चैतन्य चमत्कार मात्र है, वह कभी विकारको प्राप्त नही हो सकता; मात्र उत्पादरूप पर्यायमें पराश्रयसे क्षणिक विकार होता है । जीव जब अपना स्वरूप समझनेके लिये अपने अखण्ड घ्रौव्य स्वरूपकी ओर उन्मुख होता है तब शुद्ध पर्याय प्रगट होती है । प्रमाण
श्रुतप्रमाणका एक अंश नय है । जहाँ श्रुतप्रमाण नहीं होता वहाँ नय नहीं होता, जहाँ नय होता है वहाँ श्रुतप्रमाण होता ही है । प्रमाण उन दोनों नयोके विषयका यथार्थ ज्ञान करता है इसलिये अस्तिनास्तिका एक साथ ज्ञान प्रमाण ज्ञान है ।
निक्षेप
यहाँ जीव ज्ञेय है ज्ञेयका अंश निक्षेप है । अस्ति, नास्ति इत्यादि धर्म जीवके अंश है । जीव स्वज्ञेय है और अस्तिनास्ति इत्यादि स्वज्ञेयके श्रंशरूप निक्षेप है; यह भाव निक्षेप है । उसका यथार्थ ज्ञान नय है । निक्षेप विषय है और नय उसका विषय करनेवाला ( विषयी ) है |
स्वज्ञेय
जीव स्वज्ञेय है तथा स्वयं ज्ञान स्वरूप है । द्रव्य-गुण- पर्याय ज्ञेय
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३७६
मोक्षशास्त्र
हैं और उनका त्रिकाल जाननेका स्वभाव गुरण है; तथा ज्ञानकी वर्तमान पर्याय स्वज्ञेयको जानती है । स्वज्ञेयके जाननेमें यदि स्व-परका भेद विज्ञान हो तब ही ज्ञानकी सच्ची पर्याय है ।
अनेकांत
[ स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा ३११-३१२ पृष्ठ ११८ से १२० के आधारसे ]
१ - वस्तुका स्वरूप अनेकान्त है । जिसमें अनेक प्रत अर्थात् धर्म हो उसे अनेकान्त कहते हैं । उन धर्मों में अस्तित्व नास्तित्व, एकत्व, अनेकत्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, भेदत्व, अभेदत्व, अपेक्षात्व, अनपेक्षात्व, देवसाध्यत्व, पौरुषसाध्यत्व, हेतुसाध्यत्व, आगमसाध्यत्व, अंतरंगत्व, बहिरंगत्व, द्रव्यत्व, पर्यायत्व, इत्यादि सामान्य धर्म हैं । और जीवत्व, अजीवत्व, स्पर्शत्व, रसत्व, गंधत्व, वर्णत्व, शब्दत्व, शुद्धत्व, अशुद्धत्व मूर्तत्व अमूर्तत्व, संसारीत्व, सिद्धत्व, अवगाहहेतुत्व, गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, वर्तनाहेतुत्व इत्यादि विशेष धर्म हैं । वस्तुको समझनेके लिये प्रश्न उठने पर प्रश्नके वशसे उन धर्मोके सम्बन्ध में विधिनिषेधरूप वचनोंके सात भंग होते हैं । उन सात भंगों में 'स्यात्' यह पद लगाया है । 'कथंचित्' किसीप्रकार इस अर्थ में 'स्यात् ' शब्द है उसके द्वारा वस्तुका अनेकान्त स्वरूप सिद्ध करना चाहिये ।
का
सप्तभंगी और अनेकांत
( १ ) १. वस्तु स्यात् अस्तिरूप है अर्थात् किसीप्रकार अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल भावरूपसे अस्तिरूप कही जाती है । २. वस्तु स्यात् नास्तिरूप है अर्थात् परवस्तुके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूपसे नास्तित्वरूप कही जाती है । ३. वस्तु स्यात् अस्तित्व - नास्तित्वरूप है - यह वस्तुमें अस्तिनास्ति - दोनों धर्म रहते हैं, उसे वचनके द्वारा क्रमसे कह सकते हैं । ४. और वस्तु स्यात् प्रवक्तव्य है; क्योकि वस्तुमे अस्ति नास्ति दोनों धर्म एक ही समय रहते हैं किन्तु वचनके द्वारा एक साथ दोनों धर्म कहे नही जा सकते; इसलिये किसी प्रकारसे वस्तु प्रवक्तव्य है । ५. अस्तित्वरूपसे वस्तु स्वरूप कहा जा सकता है, किन्तु ग्रस्ति नास्ति दोनों धर्मं वस्तुओं एक साथ
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श्रध्याय ४ उपसंहार
३७७
रहते हैं, इसलिये वस्तु एक साथ कही नही जा सकती इसप्रकार वस्तु वक्तव्य भी है और अवक्तव्य भी है; इसलिये स्यात् अस्ति - अवक्तव्य है । ६. इस ही प्रकार ( अस्तित्वकी भांति ) वस्तुके स्यात् नास्ति अवक्तव्य कहना चाहिये । ७. और दोनो धर्मोको क्रमसे कह सकते हैं किन्तु एक साय नही कह सकते इसलिये वस्तु स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य कहना चाहिये | ऊपर कहे अनुसार सात भंग वस्तुमे संभव हैं ।
(२) इसप्रकार एकत्व, अनेकत्व इत्यादि सामान्य धर्म पर सात भग विधि-निषेघसे लगाना चाहिये । जहाँ जो अपेक्षा संभव हो उसे लगाना चाहिये और उसीप्रकारसे जीवत्व, श्रजीवत्व आदि विशेष धर्मो में वे भंग लगाना चाहिये | जैसे कि-जीव नाम की वस्तु है वह स्यात् जीवत्व है स्यात् अजीवत्व है इत्यादि प्रकारसे लगाना चाहिये । वहाँ पर इस प्रकार
पेक्षा पूर्वक समझना कि जीवका अपना जीवत्वधर्म जीवमे है इसलिये जीवत्व है, पर-प्रजीवका अजीवत्वधर्म जीवमे नही है तो भी जीवके दूसरे (ज्ञानको छोड कर ) धर्मोकी मुख्यता करके कहा जावे तो उन धर्मोकी अपेक्षासे प्रजीवत्व है; इत्यादि सात भंग लगाना चाहिये । तथा जीव अनंत हैं उसकी अपेक्षासे अर्थात् अपना जीवत्व अपनेमे है परका जीवत्व अपनेमे नही है इसलिये पर जीवोकी अपेक्षासे प्रजीवत्व है, इस प्रकार से भी अजीवत्व धर्म प्रत्येक जीव मे सिद्ध हो सकता है— कह सकते हैं । इसप्रकार अनादिनिधन अनंत जीव अजीव वस्तुएं है । उनमें प्रत्येक अपना अपना द्रव्यत्व, पर्यायत्व इत्यादि अनंत धर्म हैं । उन धर्मों सहित सात भंगोसे वस्तु को सिद्धि करना चाहिये ।
I
(३) वस्तुकी स्थूल पर्याय है वह भी चिरकाल स्थाई अनेक धर्मरूप होती है । जैसे कि जीवमें संसारीपर्याय और सिद्धपर्याय । और संसारी में त्रस, स्थावर; उसमे मनुष्य, तियंच इत्यादि । पुदुलमें अणु, स्कन्ध तथा घट, पट इत्यादि । वे पर्यायें भी कथचित् वस्तुपना सिद्ध करती हैं । उन्हें भी उपरोक्त प्रकारसे ही सात भंगसे सिद्ध करना चाहिये; तथा जीव और पुद्गल के संयोगसे होनेवाले श्राश्रव, बंध, सवर, निर्जरा, पुण्य, पाप, मोक्ष इत्यादि भावोमे भी, वहुतसे धर्मपनाको अपेक्षासे तथा परस्पर विधिनिषेध
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मोक्षशास्त्र
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से, अनेक धर्मरूप कथंचित् वस्तुपना संभवित है; उसे सप्त भंगसे सिद्ध करना चाहिये ।
(४) यह नियमपूर्वक जानना चाहिये कि प्रत्येक वस्तु अनेक धर्म स्वरूप है उन सबको अनेकान्त स्वरूप जानकर जो श्रद्धा करता है और उसी प्रमाणसे ही संसारमें व्यवहारकी प्रवृत्ति करता है सो सम्यग्दृष्टि है | जीव, अजीव, प्राश्रव, बंध, पुण्य, पाप, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये नव पदार्थ हैं उनकी भी उसी प्रकारसे सप्त भंगसे सिद्धि करना चाहिये । उसका साधन श्रुतज्ञान प्रमाण है ।
नय
(१) श्रुतज्ञान प्रमाण है । र श्रुतज्ञान प्रमाणके अंशको नय कहते है । नय के दो भेद है -द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । और उनके (द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक के) नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़, और एवंभूतनय, ये सात भेद हैं, उनमेंसे पहिलेके तीन भेद द्रव्यार्थिकके हैं और बाकीके चार भेद पर्यायार्थिकके हैं । और उनके भी उत्तरोत्तर भेद, जितने वचनके भेद हैं उतने हैं । उन्हे प्रमारण सप्तभंगी और नय सप्तभंगीके विधानसे सिद्ध किया जाता है । इसप्रकार प्रमाण और नय के द्वारा जीवादि पदार्थोंको जानकर श्रद्धान करे तो शुद्ध सम्यदृष्टि होता है ।
(२) और यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि नय वस्तुके एक एक धर्मका ग्राहक है । वह प्रत्येक नय अपने अपने विषयरूप धर्मके ग्रहण करने में समान है । तथापि वक्ता अपने प्रयोजनवश उन्हें - मुख्य-गौण करके कहता है ।
जैसे जीव नामक वस्तु है, उसमें अनेक धर्म हैं तथापि चेतनत्व, प्राणधारणत्व इत्यादि धर्मोको अजीवसे असाधारण देखकर जीवको अजीव से भिन्न दर्शानेके लिये उन धर्मोको मुख्य करके वस्तुका नाम जीव रखा है; इसी प्रकार वस्तुके सर्व धर्मोमें प्रयोजनवश मुख्य गौण समझना चाहिये । अध्यात्मके नय
(१) इसी श्राशयसे अध्यात्मकथनी में मुख्यको निश्चय और गौण
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मध्याय ४ उपसंहार
३७६ को व्यवहार कहा है, उसमे अभेद धर्मको मुख्य करके उसे निश्चयका विषय कहा है और भेदको गौरण करके उसे व्यवहार नयका विषय कहा है । द्रव्य तो अभेद है इसलिये निश्चयका प्राश्रय द्रव्य है; और पर्याय भेदरूप है, इस लिये व्यवहार का प्राश्रय पर्याय है उसमें प्रयोजन इसप्रकार है कि भेदरूप वस्तुको सर्वलोक जानता है उसके भेदरूप वस्तु ही प्रसिद्ध है इसलिये लोक पर्यायबुद्धि है । जीवकी नर-नारकादि पर्याये है तथा राग द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि पर्यायें हैं तथा ज्ञानके भेदरूप मतिज्ञानादि पर्यायें हैं। लोग उन पर्यायोको ही जीव समझते है इसलिये (अर्थात् उस पर्यायबुद्धि को छुडानेके प्रयोजनसे ) उस पर्यायमें अभेदरूप अनादि अनत एक भाव जो चेतना धर्म है उसे ग्रहण करके निश्चयनयका विषय कहकर जीवद्रव्यका ज्ञान कराया है, और पर्यायाश्रित भेदनयको गौण किया है तथा अभेद दृष्टिमे वे भेद दिखाई नहीं देते इसलिये अभेदनयको दृढ़ श्रद्धा करानेके लिये कहा है कि जो पर्यायनय है सो व्यवहार है, अभूतार्थ है, असत्यार्थ है । यह कथन मेदबुद्धिके एकतिका निराकरण करनेके लिये समझना चाहिये।
(२) यहाँ यह नही समझना चाहिये कि जो भेद है उसे असत्यार्थ कहा है। इसलिये भेद वस्तुका स्वरूप ही नही है । यदि कोई सर्वथा यह माने कि 'भेद नहीं है तो वह अनेकांतको समझा ही नही है और वह सर्वथा एकांत श्रद्धाके कारण मिथ्या दृष्टि है। अध्यात्मशास्रोमें जहाँ निश्चय-व्यवहार नय कहे हैं वहाँ भी उन दोनोंके परस्पर विधि-निषेधके द्वारा सप्तभंगीसे वस्तुको साधना चाहिये, यदि एक नयको सर्वथा सत्यार्थ माने और एकको सर्वथा असत्यार्थ माने तो मिथ्या-श्रद्धा होती है, इसलिये वहाँ भी 'कथंचित्' जानना चाहिये।
उपचार नय (१) एक वस्तुका दूसरी वस्तुमे प्रारोप करके प्रयोजन सिद्ध किया जाता है उसे उपचारनय कहते है । वह भी व्यवहारमें ही गभित है ऐसा कहा है । जहाँ प्रयोजन या निमित्त होता है वहाँ उपचारकी प्रवृत्ति होती है। घीका घड़ा ऐसा कहनेपर मिट्टीके घडेके आश्रयसे घी भरा है उसमें व्यवहारी मनुष्योंको अाधार-आधेयभाव भासित होता है उसे प्रघान करके
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३८०
मोक्षशास्त्र (घीका घड़ा) कहने में प्राता है । जो 'धीका घडा है' ऐसा ही कहा जाय तो लोग समझ जाते है और 'घीका घड़ा' मंगावे तव उसे ले आते हैं इसलिये उपचारमें भी प्रयोजन संभव है। तथा जहाँ अभेदनयकी मुख्यता की जाती है वहाँ अभेद दृष्टिमें भेद दिखता नहीं है फिर भी उस समय उसमें ( अभेदनयकी मुख्यता में ) ही भेद कहा है वह असत्यार्थ है । वहाँ भी उपचार की सिद्धि गौणरूपसे होती है।
सम्यग्दृष्टिका और मिथ्यादृष्टिका ज्ञान (१)-इस मुख्य-गौणके भेदको सम्यग्दृष्टि जानता है; मिथ्यादृष्टि अनेकांत वस्तुको नही जानता और जब सर्वथा एक धर्म पर दृष्टि पड़ती है तब उस एक धर्मको ही सर्वथा वस्तु मानकर वस्तुके अन्य धर्मोको सर्वथा गौण करके असत्यार्थ मानता है अथवा अन्य धर्मोका सर्वथा अभाव ही मानता है । ऐसा माननेसे मिथ्यात्व दृढ़ होता है जहाँ तक जीव यथार्थ वस्तुस्वरूप को जाननेका पुरुषार्थ नही करता तब तक यथार्थश्रद्धा नही होती । इस अनेकांत वस्तुको प्रमाण-नय द्वारा सात भंगोंसे सिद्ध करना सम्यक्त्वका कार्य है, इसलिये उसे भी सम्यक्त्व ही कहते हैं ऐसा जानना चाहिये। जिनमत की कथनी अनेक प्रकारसे है, उसे अनेकांतरूपसे समझना चाहिये।
(२) इस सप्तभंगीके अस्ति और नास्ति ऐसे दो प्रथमभेद विशेष लक्षमें लेने योग्य है, वे दो भेद यह सूचित करते हैं कि जीव अपनेमें उल्टे था सीधे भाव कर सकता है किंतु परका कुछ नही कर सकता, तथा परद्रव्यरूप अन्य जीव या जड़ कर्म इत्यादि सब अपने अपनेमे कार्य कर सकते हैं; किन्तु वे कोई इस जीवका भला बुरा कुछ नही कर सकते, इसलिये परवस्तुओंकी ओरसे लक्ष हटाकर और अपने में होनेवाले भेदोंको गौण करनेके लिये उन भेदोंपरसे भी लक्ष हटाकर अपने त्रिकाल अभेद शुद्ध चैतन्यस्वरूपपर दृष्टि डालनेसे-उसके आश्रयसे निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। उसका फल अज्ञानका नाश होकर उपादेय की बुद्धि और वीतरागता की प्राप्ति है।
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अध्याय ४ उपसंहार
अनेकांत क्या बतलाता है ?
( १ ) अनेकांत वस्तुको परसे प्रसंग ( भिन्न ) बतलाता है । असंगत्वकी (स्वतंत्र की ) श्रद्धा असंगत्व के विकासका उपाय है; तीनोकाल परसे भिन्नत्व वस्तुका स्वभाव है ।
३८१
(२) अनेकांत वस्तुको 'स्वरूपसे है और पररूपसे नही है' इसप्रकार बतलाता है । पररूप आत्मा नहीं है इसलिये वह परवस्तुका कुछ भी करनेके लिये समर्थ नही है । और किसीका संयोग-वियोगसे मेरा कुछ भी इष्ट-अनिष्ट नहीं हो सकता ऐसे सच्चे ज्ञानसे श्रात्मा सुखी होता है ।
'तू निजरूपसे है' अतः पररूपसे नही है और परवस्तु अनुकूल हो या प्रतिकूल उसे बदलनेमे तू समर्थ नही है । बस, इतना निश्चय कर तो श्रद्धा, ज्ञान और शांति तेरे पास ही है ।
(३) अनेकान्त वस्तुको निजरूपसे सत् बतलाता है । सत्को पर सामग्री की आवश्यकता नही है; संयोग की आवश्यकता नही है; किन्तु सत्को सत्के निर्णय की आवश्यकता है कि 'मैं स्वरूपसे हूँ और पररूपसे नही ।'
( ४ ) अनेकान्त वस्तुको एक-अनेक स्वरूप बतलाता है । 'एक' कहने पर ही 'अनेक' की अपेक्षा आती है । तू अपनेमे एक है और अपनेमे ही अनेक है | तूं अपने गुरण-पर्यायसे अनेक है और वस्तुसे एक है ।
( ५ ) अनेकांत वस्तुको नित्य अनित्यस्वरूप बतलाता है । स्वयं नित्य है और स्वयं ही पर्यायसे अनित्य है । उसमें जिस ओरकी रुचि होती है उसी और परिणमन होता है । नित्यवस्तुकी रुचि करनेपर नित्य रहनेवाली वीतरागता होती है और अनित्य पर्यायको रुचि हो तो क्षणिक रागद्वेष होते है ।
( ६ ) अनेकांत प्रत्येक वस्तुकी स्वतन्त्रताको घोषित करता है । वस्तु परसे नही है और स्वसे है ऐसा जो कहा है उसमे 'स्व अपेक्षासे प्रत्येक वस्तु परिपूर्ण ही है' यह श्रा जाता है । वस्तुको परकी आवश्यकता नही है वह स्वतः स्वयं स्वाधीन - परिपूर्ण है ।
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३८२
मोक्षशास्त्र (७) अनेकान्त प्रत्येक वस्तुमें अस्ति-नास्ति आदि दो विरुद्ध शक्तियोंको बतलाता है। एक वस्तुमें वस्तुत्वकी उत्पादक दो विरुद्ध शक्तियोंका एक साथ रहना ही तत्त्वकी पूर्णता है। ऐसी दो विरुद्ध शक्तियोंका होना वस्तुका स्वभाव है।
शास्त्रोंके अर्थ करने की पद्धति व्यवहारनय स्वद्रव्य-परद्रव्यको या उसके भावोंको अथवा कारणकार्यादिको किसीको किसीमें मिलाकर निरूपण करता है इसलिए ऐसे ही श्रद्धानसे मिथ्यात्व है अतः उसका त्याग करना चाहिए। और निश्चयनय उसीको यथावत् निरूपण करता है तथा किसीको किसीमें नही मिलाता, अतः ऐसे ही श्रद्धानसे सम्यक्त्व होता है इसलिए उसका श्रद्धान करना चाहिए।
प्रश्न-यदि ऐसा है तो जिनमार्गमें जो दोनों नयोंका ग्रहण करने को कहा है उसका क्या कारण है ?
उत्तर-जिनमार्गमें कहीं कहीं निश्चयनयकी मुख्यतासे जो कथन है उसे यह समझना चाहिए कि-'सत्यार्थ ऐसा ही है', तथा कहीं कहीं व्यवहारनयकी मुख्यतासे जो कथन है उसे यह समझना चाहिए कि 'ऐसा नही है किन्तु निमित्तादिकी अपेक्षासे यह उपचार किया है। और इस प्रकार जाननेका नाम ही दोनों नयोंका ग्रहण है । किन्तु दोनों नयोके कथनको समान सत्यार्थ जानकर 'इसप्रकार भी है और इसप्रकार भी है' ऐसे भ्रमरूप प्रवर्तनसे दोनों नयोंका ग्रहण करनेको नही कहा है।
प्रश्न-यदि व्यवहारनय असत्यार्थ है तो फिर जिनमार्गमें उसका उपदेश क्यों दिया गया है ? एक निश्चयनयका ही निरूपण करना चाहिए था।
उचर-यही तर्क श्री समयसारमें भी किया गया है, वहाँ यह उत्तर दिया गया है कि जैसे कोई अनार्य-म्लेच्छको म्लेच्छ भापाके बिना अर्थ ग्रहण कराने में कोई समर्थ नहीं है उसीप्रकार व्यवहारके विना परमार्थका उपदेश अशक्य है इसलिये व्यवहारका उपदेश है। और इसी
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अध्याय ४ उपसंहार
३८३ सूत्रकी व्याख्यामे यह कहा है कि-इसप्रकार निश्चयको अंगीकार कराने के लिए व्यवहारसे उपदेश देते है किन्तु व्यवहारनय अंगीकार करने योग्य नहीं है।
-मोक्षमार्ग प्रकाशक । मुमुक्षुओंका कर्तव्य आजकल इस पंचमकालमे इस कथनको समझनेवाले सम्यग्ज्ञानी गुरुका निमित्त सुलभ नही है, किन्तु जहाँ वे मिल सके वहाँ उनके निकट से मुमुक्षुओको यह स्वरूप समझना चाहिए और जहाँ वे न मिल सकें वहाँ शाखोंके समझनेका निरंतर उद्यम करके इसे समझना चाहिए। सत् शास्त्रों का श्रवण, पठन, चितवन करना, भावना करना, धारण करना, हेतु युक्ति के द्वारा नय विवक्षाको समझना, उपादान निमित्तका स्वरूप समझना और वस्तु के अनेकान्त स्वरूपका निश्चय करना चाहिए । वह सम्यग्दर्शन की प्राप्तिका मुख्य कारण है, इसलिये मुमुक्षु जीवोको उसका निरंतर उपाय करना चाहिये। इसप्रकार श्री उमास्वामी विरचित मोक्षशास्त्र के चौथे अध्यायकी टीका
समाप्त हुई।
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देव
भवनवासी
१ असुरकुमार
२ नागकुमार
३ विद्युतकुमार
४
सुपर्णकुमार
५ अग्निकुमार
६ वातकुमार
७ स्तनितकुमार
उदधिकुमार ६ द्वीपकुमार १० दिककुमार
निवास
रत्नप्रभा के पंक
भागमें
रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर नीचे एक एक
हजार योजन छोड़कर खर भागमें
देवगति की व्यवस्था [ भवनत्रिक ]
शरीर की ऊंचाई
भेद इन्द्र लेश्या
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कृष्ण, नील
कापोत
तथा जघ
न्य पीत
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उत्कृष्ट आयु
१ सागर
३ पल्य
१॥ पल्य
२॥ पल्य
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२ पल्य
९॥ पल्य
जघन्य आयु
१० हजार वर्ष
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प्रवीचार
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व्यन्तर
८
३२
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काय प्रवीचार
एक पल्य से कुछ
अधिक
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ऊपरके खरभागमें
१ किन्नर २ किंपुरुष ३ महोरग ४ गंधर्व ५ यक्ष ६ राक्षस
,
-
पंकभागमें ऊपरके खरभाग
८ पिशाच
ज्योतिषी
-
एक पल्य से कुछ
अधिक'
काय प्रवीचार
२ चन्द्रमा
समान धरातलसे ७६० योजन की ऊचाईसे प्रारंभ करके ६०० योजन ऊंचाई तक के मध्य
लोकमें
७ घनुष
(४ नक्षत्र
५ प्रकीर्णक
।
-
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देवगति की व्यवस्था [ वैमानिक देव ]
उत्कृष्ट आयु
| जघन्य आयु
प्रवीचार
देव । निवास भेद इन्द्र | लेश्या ।
गा। शरीर की
| ऊंचाई कल्प सौधर्म-ईशान | ऊर्ध्वलोक | १२ | २४ | पीत |७ हाथ सानत्कुमारमाहेंद्र
पीत-पद्म |६ हाथ ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर
५ हाथ लान्तव-कापिष्ट
पद्म ५ हाथ
काय
सागर से अधिकापल्यसे अधिक
" " २ सागर " १०" " ७ सागर " १४ सागर से कुछ | १० सागर से
अधिक | कुछ अधिक १६ सागर , १४ " " १८ सागर " |१६ " " २० सागर |१८ , , २२ सागर
।
शब्द
शुक-महाशुक्र सतार-सहस्त्रार आनत-प्राणत भारण-अच्युत
पद्म-शुक्ल ४ हाथ ___ ४ हाथ
शुक्ल |३॥ हाथ ___ |३ हाथ
REEEEEEEEE
शब्द मन मन
(२०
प्रैवेयक
(सुदर्शन
अमोघ
२|| हाथ
(सुप्रबुध (यशोधर सुभद्र
B: RRBA
२॥ हाथ | २|| हाथ
२ हाथ २ हाथ |२ हाथ
२३ सागर २४ सागर
सागर २६ सागर २७ सागर र सागर
२२ सागर २३ सागर २४ सागर २५ सागर २६सागर |२७ सागर
| १६ स्वर्गसे
ऊपरके सभी | देव अप्रवी|चारी हैं क्यों | कि उनके काम वासना ही
(विशाल
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सुमन सौमन
प्रीतिकर
अनुदिश
आदित्य
अचि
अर्चिमाली
वैरोचन
प्रभास
अर्चिप्रभ
श्रर्चिर्मध्य
अचिरावत
अर्चिर्विशिष्ठ
अनुत्तर
विजय
वैजयन्त
जयन्त अपराजित
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जघन्य आयु नहीं होती " नोट:---१ वैमानिक देवोंके स्वर्ग १६ हैं, परन्तु उनके इन्द्र १२ हैं । यहाँ इन्द्रों की अपेक्षा से १२ भेद कहे हैं । पहिले के चार तथा अन्तके चार, स्वर्गो में प्रत्येकके एक इन्द्र है और बीचके आठ स्वर्गो में दो दो स्वर्गों के एक इन्द्र हैं। २. पाँचवें स्वर्गमें जो लौकान्तिक देव रहते हैं उनके आयु ८ सागर की होती है।
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मोक्षशास्त्र अध्याय पाँचवाँ
भूमिका
इस शास्त्रके प्रारंभ करते ही आचार्य भगवानने प्रथम अध्यायके पहले ही सूत्रमें बताया है कि सच्चे सुखका एक ही मार्ग है और वह मार्ग सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी एकता है। इसके बाद यह बताया है कि जो तत्त्वार्थका श्रद्धान है सो सम्यग्दर्शन है। फिर सात तत्त्व बताये हैं। उन तत्त्वोंमें पहला जीव तत्त्व है; उसका निरूपण पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे अध्यायमें किया है।
दूसरा अजीव तत्त्व है-उसका ज्ञान इस पांचवें अध्यायमें कराया गया है । पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और कालमे पाँच अजीव द्रव्य है, ऐसा निरूपण करनेके बाद उनकी पहचान करनेके लिये उनके खास लक्षण तथा उनका क्षेत्र बताया है। जीव सहित छह द्रव्य है यह कहकर द्रव्य, गुरण, पर्याय, नित्य, अवस्थित तथा अनेकांत आदिका स्वरूप बतलाया है।
यह मान्यता भ्रमपूर्ण है कि ईश्वर इस जगत्का कर्ता है । जगत्के सभी द्रव्य स्व की अपेक्षा सत् हैं, उन्हें किसीने नहीं बनाया, ऐसा बतानेके लिए 'सत् द्रव्य लक्षरण' द्रव्यका लक्षण सत् है इसप्रकार २६ वें सूत्रमें कहा है । जगत्के सभी पदार्थ की क्षण-क्षणमे स्वमें ही स्व की अवस्था स्वसे बदलती रहती है, इसी प्रकार सत्का स्वरूप निरूपण करनेके लिये ३० वाँ सूत्र कहा है । प्रत्येक वस्तु द्रव्यकी अपेक्षासे नित्य और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य है, ऐसा निरूपण करनेके लिए गुण-पर्यायवाला द्रव्य है ऐसा द्रव्यका दूसरा लक्षरण ३८ वें सूत्र में कहा है । प्रत्येक द्रव्य स्वयं स्वसे परिणमन करता है, अन्य तो निमित्तमात्र व्यवहार कारण है, इसलिये एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कुछ नहीं कर सकता, ऐसा प्रतिपादन करनेके लिये ४२ वां सूत्र कहा है । वस्तुका स्वरूप अनेकांतात्मक है, किन्तु वह एक साथ नही
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अध्याय ५ सूत्र १
३८६
कहा जा सकता, इसलिए कथनमें मुख्य और गोरापनेकी अपेक्षा होती है, इसप्रकार ३२ वें सूत्रमें बताया है । इसतरह बहुतसे उपयोगी सिद्धांत इस अध्याय में लिए गए हैं ।
इस अध्यायमें 'सद्द्रव्यलक्षण', 'उत्पादव्यय श्रीव्ययुक्तं सत्,' 'गुण पर्यंयवद्द्द्रव्यं,' 'अर्पितानर्पित सिद्धेः' और 'तद्भाव परिणामः' ये पाँच ( २६, ३०, ३८, ३२ और ४२ ) सूत्र वस्तु स्वरूपके नीवरूप हैं - विश्वधर्म के नीवरूप हैं । यह अध्याय सिद्ध करता है कि सर्वज्ञके बिना दूसरा कोई, जीव और जीवका सत्य स्वरूप नही कह सकता । जीव और दूसरे पाँच अजीव (पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल ) द्रव्यो का स्वरूप जैसा इस शास्त्रमे निरूपित है वैसा ही दि० जैन शास्त्रोमे बताया है । और वह अद्वितीय है । इससे विरुद्ध मान्यता यदि जगतके किसी भी जीव की हो तो वह असत्य है- मिथ्या है । इसलिए जिज्ञासुओको यथार्थ समझकर सत्यस्वरूपको ग्रहण करना और झूठी मान्यता तथा अज्ञान छोड़ना चाहिए |
धर्मके नाम पर संसारमे जैनके अतिरिक्त दूसरी भी अनेक मान्यतायें प्रचलित हैं, किन्तु उनमे वस्तुका यथार्थ कथन नही मिलता, वे जीव अजीव श्रादि तत्त्वोंका स्वरूप अन्य प्रकारसे कहते हैं; आकाश और काल का जैसा स्वरूप वे कहते हैं वह स्थूल और अन्यथा है और धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकायके स्वरूप से तो वे बिल्कुल अज्ञात हैं । इस उपरोक्त कथनसे सिद्ध होता है कि वस्तुके सत्य स्वरूपसे विरुद्ध चलती हुई वे सभी मान्यताएँ मिथ्या हैं, तत्त्वसे विरुद्ध हैं ।
अजीव तत्वका वर्णन
अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः ॥ १॥
अर्थ:- [ धर्माधर्माकाश पुद्गलाः ] धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश और पुद्गल में चार [ प्रजीवकायाः ] अजीव तथा बहु प्रदेशी है ।
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मोक्षशास्त्र
टीका
(१) सम्यग्दर्शन की व्याख्या करते हुए तत्त्वार्थका श्रद्धान सम्यग्दर्शन है ऐसा प्रथम अध्यायके दूसरे सूत्र में कहा है, फिर तीसरे सूत्र में तत्त्वोंके नाम बताये हैं, उनमेंसे जीवका अधिकार पूर्ण होने पर अजीव तत्त्वका कथन करना चाहिये, इसलिये इस अध्यायमें मुख्य रूपसे अजीव का स्वरूप कहा है ।
३६०
(२) जीव अनादिसे स्व स्वरूप नही जानता और इसीलिये उसे सात तत्त्व सम्बन्धी अज्ञान रहता है । शरीर जो पुद्गल पिंड है उसे वह अपना मानता है; इसलिए यहाँ यह बताया है कि यह पुद्गल तत्त्व जीवसे बिल्कुल भिन्न है और जीव रहित है अर्थात् अजोव है ।
(३) जीव अनादिसे यह मान रहा है कि शरीरके जन्म होने पर मैं उत्पन्न हुआ और शरीर के वियोग होने पर मेरा नाश हुआ, यह उसकी मुख्य रूपसे अजीव तत्त्व सम्बन्धी विपरीत श्रद्धा है । आकाशचे स्वरूपका भी उसे भ्रम है और स्वयं उसका स्वामी है ऐसा भी यह जीव मानता है । यह विपरीत श्रद्धा दूर करनेके लिए इस सूत्रमे यह कहा गया है कि वे द्रव्य अजीव हैं । धर्म और अधर्म द्रव्यको भी वह नहीं जानता, इसीलिए वस्तुके होते हुए भी उसे उसका निषेध है; यह दोष भी इस सूत्रसे दूर होता है । आकाशका स्वरूप ४, ६, ७, ६, १८ वें सूत्रोंमें बताया है, धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्यका स्वरूप ४-६-७-८-१२ और १७ वें सूत्रोंमें बताया गया है | दिशा श्राकाशका भाग है ।
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(४) प्रश्न- - 'काय' का अर्थ तो शरीर है तथापि यहाँ धर्मादि द्रव्यको काय क्यों कहा है ?
उचर- - यहाँ उपचारसे उन्हें ( धर्मादि द्रव्यको ) काय कहा है । जैसे शरीर पुद्गल द्रव्यका समूहरूप है उसी प्रकार धर्मादि द्रव्यों को भी प्रदेशोंके समूहरूप कायके समान व्यवहार है । यहाँ कायका प्रर्थ बहुप्रदेशी समझना चाहिये ।
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अध्याय ५ सूत्र १-२.३
३६१ (५)प्रश्न-पुद्गल द्रव्य तो एक प्रदेशी हैं, उसे काय शब्द कैसे लागू होगा ?
उत्तर-उसमें दूसरे पुद्गलोंके साथ मिलने को और इसलिए बहुप्रदेशी होने की शक्ति है, इसी अपेक्षासे उसे काय कहा जाता है।
(६) धर्म और अधर्म ये दो द्रव्य सर्वज्ञ प्रणीत शाखोमें हैं । ये नाम शास्त्र रूढ़िसे दिए गए हैं ॥ १ ॥
ये अजीवकाय क्या हैं ?
द्रव्याणि ॥२॥ अर्थ-ये चार पदार्थ [ द्रव्याणि ] द्रव्य हैं, ( द्रव्यका लक्षण २९, ३०, ३८, वे सूत्रोंमें पायगा )।
टीका (१) जो त्रिकाल अपने गुण पर्यायको प्राप्त होता है उसे द्रव्य कहते हैं।
(२) द्रव्य अपने गुण पर्यायको प्राप्त होता है, अर्थात् परके गुण पर्यायको कोई प्राप्त नहीं होता, ऐसा (अस्ति-नास्तिरूप ) अनेकात दृष्टिसे अर्थ होता है। पुद्गल अपने पर्यायरूप शरीरको प्राप्त होता है, किन्तु जीव या दूसरा कोई द्रव्य शरीरको प्राप्त नहीं होता । यदि जीव शरीरको प्राप्त हो तो शरीर जीव की पर्याय हो जाय; इससे यह सिद्ध हुआ कि जीव और शरीर अत्यन्त भिन्न पदार्थ हैं और इसीलिए जीव शरीरको प्राप्त न होनेसे त्रिकालमें भी शरीरका कुछ कर नही सकता ॥२॥
द्रव्यमें जीव की गिनती
जीवाश्च ॥३॥ अर्थ-[ जीवाः ] जीव [च ] भी द्रव्य है ।
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...मोक्षशास्त्र
टीका
( १ ) यहाँ 'जीवाः' शब्द बहुवचन है; वह यह बतलाता है कि जीव अनेक हैं । जीवका व्याख्यान पहले ( पहले चार अध्यायों में) हो चुका है; इसके अतिरिक्त ३६ वें सूत्रमें 'काल' द्रव्य बतलाया है, अत: सब मिलकर छह द्रव्य हुए ।
३.६२
( २ ) जीव बहुत से हैं और प्रत्येक जीव 'द्रव्य' है ऐसा इस सूत्र में प्रतिपादन किया है इसका क्या अर्थ है; यह विचार करते हैं । जीव अपने ही गुरण पर्यायको प्राप्त होता है इसलिये उसे भी द्रव्य कहा जाता है । शरीर तो जीव द्रव्यकी पर्याय नहीं; किन्तु पुद्गल द्रव्यकी पर्याय है, क्योंकि उसमें स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण पाया जाता है और चेतन नहीं । कोई द्रव्यं दूसरे द्रव्य के गुरण पर्यायको प्राप्त ही नहीं होता, इसलिये पुद्गल द्रव्य या उसकी शरीरादि पर्याय चेतन रूपको ( जीवत्त्वको या जीवके किसी गुरण पर्यायको ) कभी भी प्राप्त नहीं होता । इस नियमके अनुसार जीव वास्तवमें शरीरको प्राप्त होता है यह बनता ही नहीं । जीव प्रत्येक समय अपनी पर्यायको प्राप्त होता है और शरीरको प्राप्त नहीं होता ! इसलिये जीव शरीरका कुछ कर नहीं सकता, यह त्रिकाल प्रबाधित सिद्धान्त है । इस सिद्धान्तको समझे बिना जीव- अजीव तत्वुको अनादिसे चली आई भूल कैभी दूर नहीं हो सकती ।
( ३ ) जीवका शरीर के साथ जो सम्बन्ध दूसरे, तीसरे और चौथे अध्यायोंमें बताया है वह एक क्षेत्रावगाहरूप सम्बन्ध मात्र बताया है, तादात्म्य सम्बन्ध नही बताया, अतः यह व्यवहार कथन है । जो व्यवहारा के वचनोंको वास्तव में निश्चयके वचन मानते हैं वे 'घी का घड़ा' ऐसा कहनेसे घड़ेको वास्तवमें घी का बना हुआ मानते हैं, मिट्टी या धातुका बना हुआ नही मानते, इसलिये वे लौकिक मिथ्यादृष्टि हैं । शास्त्रोंमें ऐसे जीवोंको 'व्यवहार विमूढ' कहा है । जिज्ञासुओंके अतिरिक्त जीव इस व्यवहार मूढताको नहीं छोड़ेंगे और व्यवहार, विमूढ़ जीवोंकी संख्या त्रिकाल बहुत ज्यादा रहेगी । इसलिए धर्मप्रेमी जीव ( दुःखको दूर करनेवाले
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अध्याय ५ सूत्र ३-४
३६३ सच्चे उम्मेदवार ) इस अध्यायके १-२-३ सूत्रोंकी टीकामें जो स्वरूप बताया है उसे लक्ष्यमें लेकर इस स्वरूपको यथार्थ समझकर जीव और अजीव तत्त्वके स्वरूपकी अनादिसे चली आई भ्रांति दूर करें।
पुद्गल द्रव्यसे अतिरिक्त द्रव्योंकी विशेषता
नित्यावस्थितान्य रूपाणि ॥४॥ अर्थः-ऊपर कहे गये द्रव्योंमेसे चार द्रव्य [ अरूपाणि ] रूप रहित [ नित्यावस्थितानि ] नित्य और अवस्थित हैं।
टीका (१) नित्यः-जो कभी नष्ट न हो उसे नित्य कहते हैं । (देखो सूत्र ३१ और उसकी टीका )
__ अवस्थितः-जो अपनी संख्याको उल्लंघन न करे उसे अवस्थित कहते हैं।
__ अरूपी:-जिसमें स्पर्श, रस, गध और वर्ण न पाया जाय उसे अरूपी कहते है।
(२) पहले दो स्वभाव समस्त द्रव्योंमें होते हैं । ऊपर जो आसमानी रंग दिखाई देता है उसे लोग आकाश कहते हैं किन्तु यह तो पुद्गल का रंग है आकाश तो सर्व व्यापक, अरूपी, अजीव एक द्रव्य है।
'नित्य' और 'अवस्थित' का विशेष स्पष्टीकरण
(३) 'अवस्थित' शब्द यह बतलाता है कि प्रत्येक द्रव्य स्वयं परिगमन करता है। परिणाम और परिणामित्त्व अन्य किसी तरह नहीं बन सकता। यदि एक द्रव्य, उसका गुण या पर्याय दूसरे द्रव्यका कुछ भी करे या करावे तो वह तन्मय ( परद्रव्यमय) हो जाय । किन्तु कोई द्रव्य परद्रव्यमय तो नहीं होता। यदि कोई द्रव्य अन्य द्रव्यरूप हो जाये तो उस द्रव्यका नाश हो जाय और द्रव्योंका 'अवस्थितपन' न रहेगा। और फिर द्रव्योंका नाश होने पर उनका 'नित्यत्त्व' भी न रहेगा।
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मोक्षशास्त्र
( ४ ) प्रत्येक द्रव्य अनंत गुरणोंका पिण्ड है । द्रव्यकी नित्यतासें उसका प्रत्येक गुण नित्य रहता है पुनरपि एक गुरण उसी गुणरूप रहता है, दूसरे गुणरूप नही होता । इस तरह प्रत्येक गुरणका अवस्थितत्त्व है; यदि ऐसा न हो तो गुरणका नाश हो जायगा, और गुणके नाश होनेसे सम्पूर्ण द्रव्यका नाश हो जायगा और ऐसा होने पर द्रव्यका 'नित्यत्व' नही रहेगा ।
३६४
( ५ ) जो द्रव्य अनेक प्रदेशी हैं उसका भी प्रत्येक प्रदेश नित्य और अवस्थित रहता है। उनमेसे एक भी प्रदेश अन्य प्रदेशरूप नही होता । यदि एक प्रदेशका स्थान अन्य प्रदेशरूप हो तो प्रदेशोंका अवस्थितपन न रहे । यदि एक प्रदेशका नाश हो तो सम्पूर्ण द्रव्यका नाश हो श्रीर ऐसा हो तो उसका नित्यत्त्व न रहे ।
( ६ ) प्रत्येक द्रव्यकी पर्याय अपने-अपने समय पर प्रगट होती है और फिर तत्पश्चात् अपने अपने समय पर बादकी पर्यायें प्रगट होती हैं, और पहले पहलेकी पर्याय प्रगट नहीं होती, इस तरह पर्यायका अवस्थितपन सिद्ध होता है । यदि पर्याय अपने-अपने समय पर प्रगट न हो और दूसरी पर्यायके समय प्रगट हो तो पर्यायका प्रवाह अवस्थित न रहे और ऐसा होनेसे द्रव्यका अवस्थितपन भी न रहे ।
एक पुद्गल द्रव्यका ही रूपित्त्व बतलाते हैं रूपिणः पुद्गलाः ॥ ५ ॥
श्रर्थः-- [पुद्गलाः ] पुद्गल द्रव्य [रूपिणः ] रूपी अर्थात् मूर्तिक हैं । टीका
(१) 'रूपी' का अर्थ स्पर्श, रस, गंध और वर्ण सहित है । (देखो सूत्र २३ ) पुद्गल ये दो पद मिलकर पुद्गल शब्द बना है । पुद् अर्थात् इकट्ठे होना - मिल जाना और गल अर्थात् बिछुड़ जाना । स्पर्श गुणकी पर्याय की विचित्रताके कारण मिलना और बिछुड़ना पुद्गलमें ही होता है इसीलिए जब उसमें स्थूलता आती है तब पुद्गल द्रव्य इन्द्रियोंका विषय बनता
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श्रध्याय ५ सूत्र ५
३६५
है । रूप, रस, गंध, स्पर्शका गोल, त्रिकोण, चौकोर, लम्बे इत्यादि रूपसे जो परिणमन है सो मूर्ति है ।
( २ ) पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और द्रव्यमन ये वणं, गंध, रस और स्पशंवाले हैं, इसीसे ये पांचो पुद्गल द्रव्य है । द्रव्यमन सूक्ष्म पुद्गल के प्रचयरूप आठ पांखुडीके खिले हुए कमलके आकार में हृदय स्थान में रहता है, वह रूपो अर्थात् स्पर्श, रस, गंध और वर्णवाला होनेसे पुद्गल द्रव्य है । ( देखो इस अध्यायके १६ वें सूत्रकी टीका )
( ३ ) नेत्रादि इंद्रिय सदृश मन स्पर्श, रस, गंध और वर्णवाला होनेसे रूपी है, मूर्तिक है, ज्ञानोपयोगमे वह निमित्त कारण है ।
शंका::- शब्द अमूर्तिक है तथापि ज्ञानोपयोगमे निमित्त है इसलिए जो ज्ञानोपयोगका निमित्त हो सो पुद्गल है ऐसा कहनेमे हेतु व्यभिचारित होता है ( अर्थात् शब्द श्रमूर्तिक है तथापि ज्ञानोपयोगका निमित्त देखा जाता है इसलिये यह हेतु पक्ष, सपक्ष और विपक्षमे रहने से व्यभिचारी हुआ ) सो मन मूर्तिक है ऐसा किस कारणसे मानना
?
समाधान
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- शब्द अमूर्तिक नही है । शब्द पुद्गलजन्य है अतः उसमें मूर्तिकपन है. इसलिए ऊपर दिया हुआ हेतु व्यभिचारी नही है किंतु सपक्षमे ही रहनेवाला है, इससे यह सिद्ध हुआ कि द्रव्यमन पुद्गल है ।
( ४ ) उपरोक्त कथनसे यह नही समझना कि इन्द्रियोसे ज्ञान होता है । इन्द्रियाँ तो पुद्गल हैं, इसलिये ज्ञान रहित हैं; यदि इन्द्रियो से ज्ञान हो तो जोव चेतन न रहकर जड़-पुद्गल हो जाय, किन्तु ऐसा नही है । जीवके ज्ञानोपयोगकी जिसप्रकार की योग्यता होती है उसीप्रकार पुदगल इन्द्रियोका संयोग होता है, ऐसा उनका निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है, किन्तु निमित्त परद्रव्य होनेसे उनका आत्मामे अत्यन्त प्रभाव है और उससे वह आत्मामे कुछ कर सकता है या सहायता कर सकता है ऐसा मानना सो विपरीतता है ।
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मोक्षशास्त्र
(५) सूत्र नें पुद्गलाः बहुवचन है वह यह बतलाता है कि पुद्गलों को संख्या बहुत है तथा पुद्गल के अणु, स्कंधादि भेदके कारण कई भेद हैं ।
३६६
(६) मन तथा सूक्ष्म पुद्गल इन्द्रियों द्वारा नहीं जाने जा सकते किन्तु जब वह सूक्ष्मता छोड़कर स्थूलता धारण करते हैं तब इन्द्रियों द्वारा जाने जा सकते हैं और तभी उनमें स्पर्श, रस, गंध, और वर्णकी अवस्था प्रत्यक्ष दिखाई देती है इसलिए यह निश्चित होता है कि सूक्ष्म अवस्था में भी वह स्पर्श, रस, गंध और वर्णवाले है |
(७) पुद्गल परमाणुओं का एक अवस्था से दूसरी अवस्था में परिवर्तन हुआ करता है । जैसे मिट्टी के परमाणुओंमेंसे जल होता है, पानीसे बिजली - श्रग्नि होती है, वायुके मिश्रणसे जल होता है । इसलिये यह मान्यता ठीक नहीं कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, मन इत्यादिके परमाणु भिन्न भिन्न प्रकारके होते है, क्योंकि पृथ्वी श्रादि समस्त पुद्गलके हो विकार हैं ।
अब धर्मादि द्रव्योंकी संख्या बतलाते हैं या आकाशादेकद्रव्याणि ॥ ६ ॥
अर्थः-- [ श्रा प्राकाशात् ] आकाश पर्यन्त [ एक द्रव्याणि ] एक एक द्रव्य हैं अर्थात् धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य और श्राकाश द्रव्य एक एक हैं । टीका
जीव द्रव्य अनन्त है, पुद्गल द्रव्य अनंतानन्त है; और काल द्रव्य प्रसंख्यात अणुरूप हैं । पुद्गल द्रव्य एक नही है यह बताने के लिए, इस सूत्र में पहले सूत्रकी सधि करनेके लिये 'आ' शब्दका प्रयोग किया है ।
अब इनका गमन रहितत्त्व सिद्ध करते हैं निष्क्रियाणि च ॥७॥
प्रयं:- [च] और फिर यह धर्म द्रव्य, अधमं द्रव्य और आकाश
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श्रध्याय ५ सूत्र ७
३६७
द्रव्य [ निष्क्रियाणि ] किया रहित है अर्थात् ये एक स्थानसे दूसरे स्थानको प्राप्त नही होते ।
टीका
(१) क्रिया शब्दके कई अर्थ है - जैसे - गुणकी परिणति, पर्याय, एक क्षेत्रसे दूसरे क्षेत्रमे गमन । इन अर्थोंमेंसे अतिम अर्थ यहाँ लागू होता है । काल द्रव्य भो क्षेत्रके गमनागमनसे रहित है, किन्तु यहाँ उसके बतलाने का प्रकरण नही है, क्योंकि पहिले सूत्रमे कहे गए चार द्रव्यों का प्रकरण चल रहा है, जीव और कालका विषय नही चल रहा है। पुद्गल द्रव्य अणु श्रौर स्कंध दोनों दशाओंमें गमन करता है अर्थात् एक क्षेत्रसे दूसरे क्षेत्रमे गमन करता है इसलिये उसे यहाँ छोड दिया है । इस सूत्र में तीन द्रव्यों मे क्रियाका अभाव बताया और बाकी रहे पुगल द्रव्यमे क्रिया-हलन चलनका अस्तित्व बतानेको अनेकान्त सिद्धांत के अनुसार क्रियाका स्वरूप सिद्ध किया है ।
(२) उत्पाद व्ययरूप क्रिया प्रत्येक द्रव्यमे समय समय पर होती है, वह इन द्रव्योमे भी है ऐसा समझना चाहिये ।
( ३ ) द्रव्यों में दो तरह की शक्ति होती है एक भाववती और दूसरी क्रियावती; उनमेसे भाववती शक्ति समस्त द्रव्योमे है ओर उससे उस शक्ति का परिणमन- उत्पाद व्यय प्रत्येक द्रव्यमे द्रव्यत्वको कायम रख कर होता है । क्रियावती शक्ति जीव और पुद्गल इन दो ही द्रव्योंमें होती है । यह दोनों द्रव्य एक क्षेत्रसे दूसरे क्षेत्रमे जाते हैं, किन्तु इतनी विशेषता है कि जीव जब विकारी हो तब और सिद्धगति मे जाते समय क्रियावान होता है और सिद्धगतिमे वह स्थिररूपसे रहता है । ( सिद्धगतिमें जाते समय जीव एक समयमे सात राजू जाता है ) सूक्ष्म- पुद्गल भी शीघ्रगतिसे एक समयमे १४ राजू जाता है अर्थात् पुद्गलमे मुख्य रूपसे हलन चलनरूप क्रिया है, जव कि जीव द्रव्यमे ससारी अवस्थामे किसी किसी समय : गमनरूप क्रिया होती है । अब धर्म
द्रव्य,
अधर्म द्रव्य और एक जीव द्रव्य के प्रदेशों की संख्या बताते हैं
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३६८
मोक्षशास्त्र
असंख्येयाः प्रदेशाः धर्माधर्मैकजीवानाम् ॥ ८ ॥
अर्थ - [ धर्माधर्मैकजीवानाम् ] धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य और एक जीव द्रव्यके [ प्रसंख्येयाः ] असंख्यात [ प्रदेशाः ] प्रदेश हैं । टीका
( १ ) प्रदेश - प्रकाशके जिनने क्षेत्रको एक पुद्गल परमाणु रोके उतने क्षेत्रको एक प्रदेश कहते हैं |
( २ ) ये प्रत्येक द्रव्य द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा से प्रखण्ड, एक, निरंश है । पर्यायार्थिक नयको अपेक्षासे असंख्यात प्रदेशी है । उसके असंख्यात प्रदेश हैं इससे कुछ उसके असंख्य खण्ड या टुकड़े नहीं हो जाते । और पृथक् २ एक २ प्रदेश जितने टुकड़ों के मिलनेसे बना हुआ भी वह द्रव्य नही है ।
( ३ ) आकाश भी द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा से प्रखण्ड, निरंश, सर्वगत, एक और भिन्नता रहित है । पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे जितने अंश को परमाणु रोक्रे उतने अंशको प्रदेश कहते हैं । आकाशमें कोई टुकड़े नहीं हैं या उसके टुकड़े नहीं हो जाते । टुकड़ा तो संयोगी पदार्थका होता है; पुद्गलका स्कंध संयोगी है इसलिये जब वह खण्ड होने योग्य हो तब वह खण्ड टुकड़े रूपमें परिणमन करता है ।
( ४ ) आकाशको इस सूत्रमें नही लिया, क्योंकि उसके अनन्त प्रदेश हैं, इसलिये वह नवमें सूत्रमें कहा जायगा ।
( ५ ) धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और जीवके प्रदेश असंख्यात हैं और वे संख्याको अपेक्षासे लोक प्रमाण असंख्यात हैं तथापि उनके प्रदेशों की व्यापक अवस्थामें अन्तर है । धर्म और अधर्म द्रव्य सम्पूर्ण लोकमें व्याप्त हैं । यह बारहवें और तेरहवें सूत्रोंमें कहा है और जीवके प्रदेश उस उस समय के जीवके शरीरके प्रमाणसे चौड़े या छोटे होते हैं (यह सोलहवें सूत्रमे कहा है ) जीव जब केवलि समुद्घात अवस्था धारण करता है तब उसके प्रदेश सम्पूर्ण लोकाकाशमें व्याप्त होते हैं तथा समुद्घातके समय उस
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अध्याय ५ सूत्र ८-१-१०
३६६
उस शरीरमे प्रदेश रहकर कितने ही प्रदेश बाहर निकलते है, बीचमें खण्ड नही पड़ते ।
( ६ ) दूसरे समुद्घातका स्वरूप अध्याय २ सूत्र ४८-४९ की टीका में कहा जा चुका है और विशेष - बृहद् द्रव्यसंग्रह गा० १० की टीका में देखो ।
अब आकाशके प्रदेश बतलाते हैं। आकाशस्यानन्ताः ॥ ६ ॥
अर्थ - [ श्राकाशस्य ] आकाशके [ अनंता: ] अनन्त प्रदेश हैं । टीका
( १ ) आकाशके दो विभाग है - अलोकाकाश और लोकाकाश । उसमेसे लोकाकाशके असख्यात प्रदेश है । जितने प्रदेश धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकायके है उतने ही प्रदेश लोकाकाशके हैं फिर भी उनका विस्तार एक सरीखा है । लोकाकाश छहो द्रव्योंका स्थान है । इस बारेमे बारहवें सूत्रमें कहा है | आकाशके जितने हिस्सेको एक पुद्गल परमाणु रोके, उसे प्रदेश कहते हैं ।
( २ ) दिशा, कोना, ऊपर, नीचे ये सब आकाशके विभाग हैं ।
अब पुद्गलके प्रदेशोंकी संख्या बताते हैं संख्येयाऽसंख्येयाश्च पुद्गलानाम् ॥ १० ॥
अर्थ – [ पुद्गलानाम् ] पुद्गलोंके [ संख्येयाऽसंख्येयाः च] संख्यात, असख्यात और अनन्त प्रदेश हैं ।
टीका
( १ ) इसमें पुद्गलोकी संयोगी पर्याय ( स्कंध ) के प्रदेश बताये हैं । प्रत्येक अणु स्वतंत्र पुद्गल । उसके एक ही प्रदेश होता है ऐसा ११ वें सूत्रमे कहा है ।
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४००
मोक्षशास्त्र (२) स्कंध दो परमाणुओंसे लेकर अनन्त परमाणुओंका होता है, इसका कारण ३३ वें सूत्र में दिया गया है ( बताया गया है )
(३) शंका-जब कि लोकाकाशके असंख्यात ही प्रदेश हैं तो उसमें अनंत प्रदेशवाला पुद्गल द्रव्य तथा दूसरे द्रव्य कैसे रह सकते है ?
समाधान-पुद्गल द्रव्यमें दो तरहका परिणमन होता है, एक सूक्ष्म और दूसरा स्थूल । जब उसका सूक्ष्म परिणमन होता है तब लोकाकाशके एक प्रदेशमें भी अनन्त प्रदेशवाला पुद्गल स्कंध रह सकता है । और फिर सब द्रव्योंमें एक दूसरेको अवगाहन देनेकी शक्ति है, इसलिये अल्पक्षेत्र में ही समस्त द्रव्योंके रहने में कोई बाधा उपस्थित नही होती । अाकाशमें सब द्रव्योंको एक साथ स्थान देने की सामर्थ्य है, इसलिये एक प्रदेशमें अनंतानन्त परमाणु रह सकते हैं, जैसे एक कमरेमें एक दीपकका प्रकाश रह सकता है और उसी कमरेमें उतने ही विस्तारमें पचास दीपकोंका प्रकाश रह सकता है ।
अब अणुको एक प्रदेशी बतलाते हैं ।
नाणोः ॥ ११ ॥ अर्थ-[ अणोः ] पुद्गल परमाणुके [ न ] दो इत्यादि प्रदेश नहीं हैं अर्थात् एक प्रदेशी है।
टीका
१. अणु एक द्रव्य है, उसके एक ही प्रदेश है, क्योंकि परमाणुओं का खंड नहीं होता।
२. द्रव्यों के अनेकांत स्वरूपका वर्णन (१) द्रव्य मूर्तिक और अमूर्तिक दो प्रकारके हैं। (२) अमूर्तिक द्रव्य चेतन और जड़के भेदसे दो प्रकारके हैं। (३) मूर्तिक द्रव्य दो तरहके हैं, एक अणु और दूसरा स्कंध ।
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४०१
अध्याय ५ सूत्र ११ (४) मूर्तिक द्रव्यके सूक्ष्म और बादर इसतरह दो भेद हैं ।
(५) सूक्ष्म मूर्तिक द्रव्य दो तरहका है एक सूक्ष्मसूक्ष्म और दूसरा सूक्ष्म ।
(६) स्कंध, सूक्ष्म और बादरके भेदसे दो प्रकारका है। (७) सूक्ष्म अणु दो तरहके हैं-१-पुद्गल अणु और २-कालाणु
(८) अक्रिय (गमनागमनसे रहित चार द्रव्य) और सक्रिय (गमनागमन सहित जीव और पुद्गल) के भेदसे द्रव्य दो तरहके है ।
() द्रव्य दो तरहके है-१-एक प्रदेशी और २-बहुप्रदेशी।
(१०) बहुप्रदेशी द्रव्य दो भेदरूप हैं संख्यात प्रदेशवाला और संख्यासे पर प्रदेशवाला।
(११) सख्यातीत बहुप्रदेशी द्रव्य दो भेदरूप है, असंख्यात प्रदेशी और अनन्त प्रदेशी।
(१२) अनन्त प्रदेशी द्रव्य दो तरहका है ?-अखंड आकाश और २-अनन्त प्रदेशी पुद्गल स्कंध ।
(१३) लोकके असख्यात प्रदेशोंको रोकनेवाले द्रव्य दो तरह के है -अखण्ड द्रव्य (धर्म, अधर्म तथा केवल समुद्घात करनेवाला जीव ) और पुद्गल महा स्कन्ध यह संयोगी द्रव्य है।
(१४) अखण्ड लोक प्रमाण असख्यात प्रदेशी द्रव्य दो प्रकारका है, १-धर्म तथा अधर्म ( लोक व्यापक ) और २-जोव ( लोक-प्रमाण ) सख्यासे असख्यात प्रदेशी और विस्तारमे शरीरके प्रमाणसे व्यापक है।
(१५) अमूर्त बहुप्रदेशी द्रव्य दो भेदरूप है-संकोच-विस्तार रहित (आकाश, धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य तथा सिद्ध जीव) और संकोच विस्तार सहित (संसारी जीवके प्रदेश सकोच-विस्तार सहित हैं )
[ सिद्ध जीव चरमशरीरसे किंचित् न्यून होते हैं ]
(१६) द्रव्य दो तरहके हैं-सर्वगत ( आकाश ) और देशगत ( अवशिष्ट पाँच द्रव्य )
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૪૦૨
मोक्षशास्त्र
(१७) सर्वगत दो प्रकारसे है— क्षेत्र सर्वगत ( आकाश ) श्रीर भावसे सर्वगत (ज्ञांनशक्ति)
( १८ ) देशगत दो भेद रूप है- एक प्रदेशगत (परमाणु, काला तथा एक प्रदेश स्थित सूक्ष्म स्कंध ) और अनेक देशगत (धर्म, धर्म, जीव और पुद्गल स्कंध )
(१६) द्रव्योंमें अस्ति दो प्रकारसे हैं-अस्तिकाय (आकाश, धर्म, अधर्म, जीव तथा पुद्गल ) और काय रहित अस्ति (काला )
( २० ) अस्तिकाय दो तरहसे हैं - अखण्ड अस्तिकाय (आकाश, धर्म, अधर्म तथा जीव) और उपचरित अस्तिकाय ( संयोगी पुद्गल स्कंध, पुद्गलमें ही समूहरूप - स्कन्धरूप होने की शक्ति है )
(२१) प्रत्येक द्रव्यके गुरणं तथा पर्याय में अस्तित्व दो तरह से हैस्वसे अस्तित्व और परकी अपेक्षासे नास्तिरूपका अस्तित्व ।
(२२) प्रत्येक द्रव्यमें अस्तित्व दो तरहसे है- ध्रुव और उत्पाद
व्यय ।
(२३) द्रव्यों में दो तरहकी शक्ति है एक भावंत्रती दूसरी क्रियावती । (२४) द्रव्यों में सम्बन्ध दो तरहका है -विभाव सहित ( जीव और पुद्गलके अशुद्ध दशा में विभाव होता है ) और विभाव रहित (दूसरे द्रव्यं त्रिकाल विभाव रहित हैं )
(२५) द्रव्योंमें विभाव दो तरहसे है -- १ - जीवके विजातीय द्गलके साथ, २- पुंगलके सजातीय एक दूसरेके साथ तथा सजातीय दंगल और विजातीय जीव इन दोनोंके साथ |
नोट- स्याद्वाद समस्त वस्तुओंके स्वरूपका सांघनेवाला, अहंत सर्वेश का एक अस्खलित शासन है । वह यह बतलाना है कि 'संभो 'अनेकान्तात्मक है' । स्याद्वाद वस्तुके यथार्थ स्वरूपका निर्णय कराता है । यह संशयवाद नही है । कितने ही लोग कहते है कि स्याद्वाद प्रत्येक वस्तुको नित्य और अनित्य आदि दो तरह से बतलाता है, इसलिए संशयका कारण है,
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अध्याय ५ सूत्र ११-१२ किन्तु उनका यह कथन मिथ्या है। अनेकांतमें दोनों पक्ष निश्चित हैं, इसलिए वह संशयका कारण नही है ।
३. द्रव्य परमाणु तथा भाव परमाणुका दूसरा अर्थ, जो यहाँ उपयुक्त नहीं है।
प्रश्न-'चारित्रसार' इत्यादि शाखोंमे कहा है कि यदि द्रव्य परमाणु और भाव परमाणुका ध्यान करे तो केवलज्ञान हो, इसका क्या अर्थ है।
उचर-वहाँ द्रव्य परमाणुसे आत्म द्रव्यकी सूक्ष्मता और भाव परमाणुसे भावको सूक्ष्मता बतलाई है। वहाँ पुद्गल परमाणुका कथन नही है। रागादि विकल्पको उपाधिसे रहित आत्मद्रव्यको सूक्ष्म कहा जाता है । क्योकि निर्विकल्प समाधिका विषय आत्मद्रव्य मन और इन्द्रियोके द्वारा नहीं जाना जाता। भाव शब्दका अर्थ स्वसवेदन परिणाम है । परमाणु शब्दसे भावकी सूक्ष्म अवस्था समझना चाहिए क्योंकि वीतराग, निर्विकल्प, समरसीभाव पांचों इन्द्रियों और मनके विषयसे परे है । (देखो परमात्मप्रकाश अध्याय २ गाथा ३३ की टोका, पृष्ठ १६८-१६६ ) यह अर्थ यहाँ लागू नहीं होता है ?
प्रश्न-द्रव्य परमाणुका यह अर्थ यहाँ क्यों लागू ( उपयुक्त) नही है।
उचर-इस सूत्रमें जिस परमाणुका वर्णन है वह पुद्गल परमाणु है, इसलिये द्रव्य परमाणुका उपरोक्त अर्थ यहां लागू नही होता।
अब समस्त द्रव्योंके रहनेका स्थान बतलाते हैं
लोकाकाशेऽवगाहः॥१२॥ अर्थ-अवगाहः ] उपरोक्त समस्त द्रव्योंका अवगाह (स्थान) [लोकाकाशे ] लोकाकाशमे है।
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मोक्षशास्त्र
टीका
(१) आकाशके जितने हिस्से में जीव आदि छहों द्रव्य है उतने हिस्सेको लोकाकाश कहते हैं और अवशिष्ट आकाशको अलोकाकाश कहते
(२) आकाश एक अखण्ड द्रव्य है। उसमें कोई भाग नहीं होते, किन्तु परद्रव्यके अवगाह की अपेक्षासे यह भेद होता है-अर्थात् निश्चय से आकाश एक अखण्ड द्रव्य है, व्यवहारसे परद्रव्यके निमित्त की अपेक्षासे ज्ञानमें उसके दो भाग होते है-लोकाकाश और अलोकाकाश ।
(३ ) प्रत्येक द्रव्य वास्तवमें अपने अपने क्षेत्रमें रहता है। लोका- , काशमें रहता है, यह परद्रव्यकी अपेक्षासे निमित्तका कथन है। उसमें पर क्षेत्रको अपेक्षा आती है, इसलिये वह व्यवहार है। ऐसा नही है कि आकाश पहले हुना हो तथा दूसरे द्रव्य उसमें बादमे उत्पन्न हुए हों क्योकि सभी द्रव्य अनादि अनन्त हैं।
(४) आकाश स्वयं अपनेको अवगाह देता है, वह अपनेको निश्चय अवगाहरूप है । दूसरे द्रव्य आकाशसे बड़े नही हैं और न हो ही सकते है, इसलिये उसमें व्यवहार अवगाह की कल्पना नही हो सकती।
(५) सभी द्रव्योंमें अनादि पारिणामिक, युगपदत्व हैं, आगे पीछे का भेद नही है। जैसे युतसिद्धके व्यवहारसे आधार-आधेयत्व होता है उसीप्रकार अयुतसिद्धके भी व्यवहारसे आधार-प्राधेयत्व होता है ।
युत्सिद्धबादमें मिले हुए, अयुसिद्ध-मूलसे एकमेक । दृष्टान्त'टोकरीमे बेर' बादमें मिले हुए का दृष्टान्त है; और 'खम्भेमे सार' मूलतः एकत्वका दृष्टान्त है।
(६) एवंभूत नयकी अपेक्षासे अर्थात् जिस स्वरूपसे पदार्थ है उस स्वरूपके द्वारा निश्चय करनेवाले नयकी अपेक्षासे सभी द्रव्योके निज निज का आधार है। जैसे-किसीसे प्रश्न किया कि तुम कहाँ हो ? तो वह कहता है कि मैं निजमे हूँ । इसी तरह निश्चय नयसे प्रत्येक द्रव्यको स्व स्व
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अध्याय ५ सूत्र १२-१३
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का आधार है । आकाशसे दूसरे कोई द्रव्य बड़े नही है । आकाश सभी ओरसे अनंत है इसलिये व्यवहार नयसे यह कहा जा सकता है कि वह धर्मादिका श्राधार है । धर्मादिक द्रव्य लोकाकाशके बाहर नही है यही सिद्ध करनेके लिये यह आधार - आधेय सम्बन्ध माना जाता है ।
(७) जहाँ धर्मादिक द्रव्य देखे जाते हैं उस श्राकाशका भाग लोक कहलाता है और जहाँ धर्मादिक द्रव्य नही देखे जाते उस भागको अलोक कहते हैं । यह भेद - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीव, पुद्गल और कालके कारण होता है, क्योकि धर्म द्रव्य और अधर्मं द्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाशमे व्याप्त है । समस्त लोकाकाशमे ऐसा कोई भी प्रदेश नही है (एक भी प्रदेश नहीं है ) जहाँ जीव न हो । तथापि जीव जब केवल समुद्घात करता है तब समस्त लोकाकाशमे व्याप्त हो जाता है । पुद्गलका अनादि अनन्त एक महा स्कन्ध है, जो लोकाकाशव्यापी है और सारा ही लोक भिन्न २ पुद्गलोसे भी भरा हुआ है । कालाणु एक एक ग्रलग अलग रत्नोकी राशि की तरह समस्त लोकाकाश में भरे हुए है ।
ra धर्म अधर्म द्रव्यका अवगाहन बतलाते हैं धर्माधर्मयोः कृत्स्ने ॥ १३ ॥
`
श्रथं - [धर्माधर्मयोः ] धर्म और अधर्म द्रव्यका अवगाह [ कृत्स्ने ] तिलमे तेलकी तरह समस्त लोकाकाश मे है ।
टीका
( १ ) लोकाकाशमें द्रव्यके अवगाहके प्रकार पृथक् पृथक् है, ऐसा यह सूत्र बतलाता है । इस सूत्र में धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्यके अवगाहका प्रकार वतलाया है । पुद्गलके अवगाहका प्रकार १४ वे सूत्रमे और जीवके अवगाहका प्रकार १५ वें तथा १६ वे सूत्रमे दिया गया है । कालद्रव्य असंख्याते अलग अलग है, इसलिए उसका प्रकार स्पष्ट है अर्थात् कहनेमे नही आया, किन्तु इसी सूत्र परसे उसका गर्भित कथन समझ लेना चाहिए ।
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मोक्षशास्त्र (२) यह सूत्र यह भी बतलाता है कि धर्म द्रव्यके प्रत्येक प्रदेशका अधर्म द्रव्यके प्रत्येक प्रदेशमें व्याघात रहित (वे रोक टोक) प्रवेश है और अधर्म द्रव्यके प्रत्येक प्रदेशका धर्म द्रव्यके प्रत्येक प्रदेश में व्याघात रहित प्रवेश है। यह परस्परमें प्रवेशपना धर्म-अधर्मकी अवगाहन शक्तिके निमित्त से है।
(३ ) भेद-संघातपूर्वक आदि सहित जिसका सम्बन्ध है, ऐसे प्रति स्थूल स्कंधमें वैसे किसीके स्थूल प्रदेश रहने में विरोध है और धर्मादिक द्रव्योंके आदि मान सम्बन्ध नहीं है किंतु पारिणामिक अनादि सम्बन्ध है इसलिए परस्परमें विरोध नहीं हो सकता। जल, भस्म, शकर आदि मूर्तिक संयोगी द्रव्य भी एक क्षेत्र में विरोध रहित रहते हैं तो फिर प्रमूर्तिक-धर्म, अधर्म और आकाशके साथ रहने में विरोध कैसे हो सकता है ? अर्थात् नही हो सकता।
अब पुद्गलका अवगाहन बलाते हैं एकप्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम् ॥१४॥
अर्थ-[पुद्गलानाम् ] पुद्गल द्रव्यका अवगाह [एक प्रदेशादिषु] लोकाकाशके एक प्रदेशसे लेकर संख्यात और असंख्यात प्रदेश पर्यंत भाज्य: ] विभाग करने योग्य है-जानने योग्य है।
टीका समस्त लोक सर्व ओर सूक्ष्म और बादर अनेक प्रकारके अनन्तानन्त पुद्गलोसे प्रगाढ़ रूपसे भरा हुआ है। इसप्रकार सम्पूर्ण पुद्गलोंका अवगाहन सम्पूर्ण लोकमें है । अनन्तानन्त पुद्गल लोकाकाशमें कैसे रह सकते हैं, इसका स्पष्टीकरण इस अध्यायके १० वें सूत्रकी टीकामें किया गया है, उसे समझ लेना चाहिए।
____ अब जीवोंका अवगाहन बतलाते हैं असंख्येयभागादिषु जीवानाम् ॥१५॥
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अध्याय ५ सूत्र. १५-१६
४०७ अर्ष-[ जीवानाम् ] जीवोंका अवगाह असंख्येय भागादिषुः] लोकाकाशके असंख्यात भागसे लेकर संपूर्ण लोक क्षेत्रमें, है ।
टीका जीव अपनी छोटीसे छोटी अवगाहनरूप अवस्थामें भी असंख्यात प्रदेश रोकता है । जीवोंके सूक्ष्म अथवा बादर शरीर होते हैं । सूक्ष्म शरीरा वाले एक निगोद जीवके अवगाहन योग्य क्षेत्रमें साधारण शरीरवाला (-निगोद ) जीव अनंतानत रहते हैं तो भी परस्पर बावा नही पाते । (-सर्वार्थसिद्धि टीका) जीवोका जघन्य अवगाहन घनांगुलके असंख्याता भाग कहा है । (धवला पृ. ४ पृ. २२ सर्वा. अ. ८ सूत्र २४ की टीका-) सूक्ष्म जीव तो समस्त लोकमें हैं । लोकाकाशका कोई प्रदेश ऐसा नहीं है जिसमें जीव न हों।
जीवका अवगाहन लोकके असंख्यात भागमें कैसे है ?
प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् ॥१६॥
अर्थ:-[ प्रदीपवत् ] दीपकके प्रकाशकी भांति [प्रदेशसंहारविसर्पान्यो ] प्रदेशोके संकोच और विस्तारके द्वारा जीव लोकाकाशके असंख्यातादिक भागोमे रहता है।
टीका जसे एक बड़े मकानमें दीपक रखनेसे उसका प्रकाश-समस्त मकान मे फैल जाता है और उसी दीपकको एक छोटे घडे मे रखनेसे उसका प्रकाश उसीमें मर्यादित हो जाता है। उसीप्रकार जीव भी छोटे या बड़े जैसे शरीरको प्राप्त होता है उसमे उतना ही विस्तृन या संकुचित होकर-रह जाता है, परन्तु केवलोके प्रदेश समुद्घात-अवस्थामे सम्पूर्ण लोकाकाशमे व्याप्त हो जाते है और सिद्ध अवस्थामें अतिम शरीरसे कुछ न्यून रहता है।
(२) बेड़ेसे बडा शरीर स्वयंभूरमण समुद्रके महामत्स्यका है जो १००० योजन लम्बा है । छोटेसे छोटा शरीर (अंगुलके असंख्यातवें भाग
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मोक्षशास्त्र
प्रमाण ) लब्ध्यपर्याप्तक सूक्ष्म निगोदिया जीवका है, जो एक श्वासमें १८ बार जन्म लेता है तथा मरण करता है ।
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( ३ ) स्वभावसे जीव अमूर्तिक है किन्तु अनादिसे कर्म के साथ एक क्षेत्र वगाह सम्बन्ध है और इसप्रकार छोटे बड़े शरीर के साथ जीवका संबंध रहता है | शरीरके अनुसार जीवके प्रदेशोंका संकोच विस्तार होता है, ऐसा निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध है ।
(४) प्रश्न - धर्मादिक छहों द्रव्योंके परस्पर में प्रदेशोंके अनुप्रवेशन होनेसे क्या एकता प्राप्त होती है ?
उत्तर- — उनके एकता प्राप्त नहीं होती । आपसमें अत्यन्त मिलाप होनेपर भी द्रव्य अपने अपने स्वभावको नहीं छोड़ते । कहा है कि - 'छहों द्रव्य परस्पर प्रवेश करते है, एक दूसरेको अवकाश देते हैं और नित्य मिलाप होनेपर भी अपने स्वभावको नही छोडते ।" [ पंचास्तिकाय गाथा ७ ] द्रव्य बदलकर परस्पर में एक नहीं होते, क्योंकि उनमे प्रदेश से भेद है, स्वभावसे भेद है और लक्षरगसे भेद है |
(५) १२ से १६ तकके सूत्र द्रव्योंके अवगाह ( स्थान देने ) के संबंध में सामान्य - विशेषात्मक अर्थात् अनेकांत स्वरूपको कहते है । अब धर्म और अधर्म द्रव्यका जीन और पुद्गल के साथ का विशेष सम्बन्ध बतलाते हैं
गतिस्थित्युपग्रह धर्माधर्मयारुपकारः ॥ १७ ॥
अर्थ:- [ गतिस्थित्युपग्रहो ] स्वयमेव गमन तथा स्थितिको प्राप्त हुए जीव और पुद्गलोके गमन तथा ठहरनेमे जो सहायक है सो [धर्माधर्मयोः उपकारः ] क्रमसे धर्म और अधर्म द्रव्यका उपकार है ।
टीका
१. उपकार, सहायकता, उपग्रहका विषय १७ से २२ तकके सूत्रों में दिया गया है । वे भिन्न भिन्न द्रव्योंका भिन्न भिन्न प्रकारका निमित्तत्व
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भध्याय ५ सूत्र १७
४०६ बतलाते है । उपकार, सहायकता या उपग्रहका अर्थ ऐसा नहीं होता कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका भला करता है, क्योकि २० वें सूत्र में यह बताया है कि जीवको दुःख और मरण होने में पुद्गल द्रव्यका उपकार है, यहां ऐसा समझना चाहिये कि लोक व्यवहारमें जब किसीके द्वारा किसीको कोई सुविधा दी जाती है तव व्यवहार भाषामे यह कहा जाता है कि एक जीवने दूसरेका उपकार किया-भला किया। किंतु यह मात्र निमित्त सूचक भाषा है । एक द्रव्य न तो अपने गुण पर्यायको छोड़ सकता है और न दूसरे द्रव्यको दे सकता है। प्रत्येकके प्रदेश दूसरे द्रव्योके प्रदेशोसे अत्यन्त भिन्न है, परमार्थसे-निश्चयसे एक दूसरेके क्षेत्रमे प्रवेश नही कर सकते, एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यमे त्रिकाल प्रभाव है, इसलिये कोई द्रव्य दूसरे द्रव्यका वास्तवमै लाभ या हानि नही कर सकता । एक द्रव्यको अपने कारणसे लाभ या हानि हुई तव उस समय दूसरे कौन द्रव्य निमित्तरूपमे मौजूद हुए, यह बतलानेके लिए १७ से २२ वे तकके सूत्रोंमें 'उपकार' शब्दका प्रयोग किया है (इस सम्बन्धमे प्रथम अध्यायके १४ वें सूत्रको जो टीका दी गई है वह तथा इस अध्यायके २२ वें सूत्रकी टीका यहाँ देखना चाहिए।
(२) यह सूत्र धर्म और अधर्म द्रव्यका लक्षण बतलाता है।
(३) उपग्रह, निमित्त, अपेक्षा, कारण हेतु ये सभी निमित्त बताने के लिये प्रयोग किये जाते हैं । "उपकार शब्दका अर्थ भला करना नही लेना कछु कार्य को निमित्त होय तिसको उपकारो कहिये है" अर्थात् किसी कार्यमें जो निमित्त हो उसे उपकार कहते है ।
(देखो पं० जयचन्दजीकृत सर्वार्थसिद्धि वचनिका पृष्ठ ४३४ अर्थप्रकाशिका सूत्र १६ की टीका प्रथमावृत्ति पृष्ठ ३०६ और सूरतसे प्रकाशित द्वितीयावृत्ति पृष्ठ २०२)
(४) प्रश्न-धर्म और अधर्म द्रव्य किसीके देखने में नहीं पाते, इसलिये वे है ही नही ?
उचर-सर्वज्ञ वीतरागने प्रत्यक्ष देखकर कहा है इसलिये यह कहना ठीक नही है कि धर्म और अधर्म द्रव्य किसीको दिखाई नहीं देते। जो नेत्रसे न देखा जाय उसका प्रभाव बतलाना ठीक नहीं है। जो इन्द्रि
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योंके द्वारा ग्रहण न किया जाय यदि उसका अभाव मानेंगे तो बहुत सी वस्तुनोंका अभाव मानना पड़ेगा । जैसे अमुक पेढ़ीके बुजुर्ग, दूरवर्ती देश, भूतकालमें हुए पुरुष, भविष्य में होनेवाले पुरुष ये कोई आँखसे नहीं देखे जाते, इसलिये उनका भी अभाव मानना पड़ेगा; अतः यह तर्क यथार्थ नहीं है । अमूर्ति पदार्थोंका सम्यग्ज्ञानी छद्मस्थ अनुमान प्रमाणसे निश्चय कर सकता है और इसीलिए उसका यहाँ लक्षरण कहा है ।
अब आकाश और दूसरे द्रव्योंके साथका निमित्च नैमित्तिक सम्बन्ध बताते हैं
आकाशस्यावगाहः ॥ १८
अर्थ – [ अवगाहः ] समस्त द्रव्योंको अवकाश-स्थान देना यह [ श्राकाशस्य ] आकाशका उपकार है ।
टीका
( १ ) जो समस्त द्रव्योंको रहनेको स्थान देता है उसे श्राकाश कहते हैं । 'उपकार' शब्दका अध्याहार पहले सूत्रसे होता है ।
( २ ) यद्यपि अवगाह गुरण समस्त द्रव्योंमें है तथापि श्राकाशमें यह गुरण सबसे बड़ा है, क्योंकि यह समस्त पदार्थोको साधारण एक साथ अवकाश देता है । अलोकाकाशमें अवगाह हेतु है किन्तु वहाँ श्रवगाह लेनेवाले कोई द्रव्य नही हैं इसमें आकाश का क्या दोष है ? श्राकाशका अवगाह देनेका गुरण इससे बिगड़ या नष्ट नही हो जाता, क्योकि द्रव्य अपने स्वभाव को नही छोड़ता ।
(३) प्रश्न- जीव और पुद्गल क्रियावाले है और क्रियापूर्वक श्रवगाह करनेवालोंको अवकाश देना ठीक है, किन्तु यह कैसे कहते हो कि धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय और काला तो क्षेत्रांतर की क्रिया रहित है और आकाशके साथ नित्य संबंधरूप है फिर भी उन्हें अवकाश दान देता है ?
उत्तर- - उपचार से अवकाश दान देता है ऐसा कहा जाता है । जैसे - आकाश गति रहित है तो भी उसे सर्वगत कहा जाता है । उसीप्रकार
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अध्याय ५ सूत्र १८-१९ ऊपर कहे गये द्रव्य गति रहित है तो भी लोकाकाशमें उनकी व्याप्ति है इसलिये यह उपचार किया जाता है कि आकाश उन्हें अवकाश देता है।
(४) प्रश्न-आकाशमे अवगाहन हेतुत्व है तथापि वज्र इत्यादिसे गोले आदिका और भीत ( दीवाल ) आदिसे गाय आदिका रुकना क्यों होता है।
उचर-स्थूल पदार्थोका ही पारस्परिक व्याघात हो ऐसा निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है, इसीलिये आकाशके गुणमे कोई दूषण नहीं आता। अब पुद्गल द्रव्यका जीवके साथ निमित्त नैमिचिक
सम्बन्ध बताते हैं शरीरवाङ्मनः प्राणापानाः पुद्गलानाम् ॥ १६ ॥
अर्थ-[ शरीरवाङ्मनः प्राणापानाः ] शरीर, वचन, मन तथा श्वासोच्छवास ये [पुदगलानाम् ] पुद्गल द्रव्यके उपकार है अर्थात् शरीरादिकी रचना पुद्गलसे ही होती है।
टीका (१) यहाँ 'उपकार' शब्दका अर्थ भला करना नही, किन्तु किसी कार्यमे निमित्त होय तिसको उपकारी कहिये है। ( देखो १७ वें सूत्रकी टीका)
(२) शरीरमें कार्माण शरीरका समास होता है । वचन तथा मन पुद्गल हैं, यह पांचवें सूत्रकी टीकामें बताया गया है। प्राणापान ( श्वासोच्छ्वास ) पुद्गल है ।
(३) भावमन लब्धि तथा उपयोगरूप है । यह अशुद्ध द्रव्याथिक नयकी अपेक्षासे जीव की अवस्था है । यह भावमन जब पौद्गलिक मनकी ओर झुकाव करता है तब कार्य करता है इसलिये निश्चय (परमार्थ, शुद्ध ) नयसे यह जीवका स्वरूप नही है; निश्चय नयसे वह पौगलिक है।
(४) भाववचन भी जीव की अवस्था है। वह अशुद्ध द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे जीवकी अवस्था है। उसके कार्यमे पुद्गलका निमित्त होता
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है इसलिये निश्चय नयसे वह जीव की अवस्था नहीं है । यह निश्चय नयसे जीवका स्वरूप नहीं है इसलिये पोद्गलिक है । यदि वह जीवका त्रिकाली स्वभाव हो तो वह दूर न हो, किन्तु वह भाववचनरूप अवस्था जीवमेंसे दूर हो सकती है— अलग हो सकती है - इसी अपेक्षाको लक्ष्यमें रखकर उसे पौद्गलिक कहा जाता है ।
(५) भावमन सम्बन्धी अध्याय २ सूत्र ११ की टीका पढे । वहाँ जीवकी विशुद्धिको भावमन कहा है सो वह अशुद्ध द्रव्यार्थिक नयकी दृष्टि से कहा है ऐसा समझना ।
अब पुद्गलका जीवकी साथका निमित्त नैमित्तिक संबन्ध बताते हैं सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च ॥ २० ॥
श्रर्थ - [ सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च ] इंद्रियजन्य सुख दु:ख, जीवन, मरण ये भी पुद्गलके उपकार हैं ।
टीका
(१) उपकार ( - उपग्रह ) शब्दका श्रर्थं किसी का भला करना नहीं किन्तु निमित्त मात्र ही समझना चाहिये; नहीं तो यह नही कहा जा सकता कि "जीवों को दुःख मरणादिके उपकार" पुद्गल द्रव्यके हैं ।
(२) सूत्रमें 'च' शब्दका प्रयोग यह बतलाता है कि जैसे शरीरादिक निमित्त हैं वैसे ही पुद्गल कृत इंद्रियाँ भी जीवको अन्य उपकाररूप से हैं ।
(३) सुख दुःखका संवेदन जीवको है, पुद्गल अचेतन-जड़ है, उसे सुख दुखका संवेदन नहीं हो सकता ।
(४) निमित्त उपादानका कुछ कर नही सकता । निमित्त अपने में पूरा पूरा कार्य करता है और उपादान अपने में पूरा पूरा कार्य करता है । यह मानना कि निमित्त पर द्रव्यका वास्तवमें कुछ असर प्रभाव करता है सो दो द्रव्यों को एक माननेरूप असत् निर्णय है ।
(५) प्रश्न - निमित्त उपादानका कुछ भी कर नहीं सकता तो सूई
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प्रध्याय ५ सूत्र २०-२१
शरीरमें घुस जानेसे जीवको दुःख क्यों होता है ?
समाधान -- १. अज्ञानी जीवको शरीरमें एकत्व बुद्धि होनेसे शरीर की अवस्थाको अपनी मानता है और अपनेको प्रतिकूलता हुई ऐसा मानता है, और ऐसी ममत्व बुद्धिके कारण दुःख होता है, परन्तु सूईके प्रवेशके कारण दुःख नही हुआ है ।
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२. मुनिको उपसर्ग श्राने पर भी निर्मोही पुरुषार्थकी वृद्धि करता है; दुखी नही होता है और ।
३. केवली-तीर्थंकरोंको कभी और किसी प्रकार उपसर्ग नही होता [ त्रिलोक प्रज्ञप्ति भाग - १ -पृ० ८ श्लो० ५६-६४ ]
४. ज्ञानीको निम्न भूमिकामें अल्प राग है वह शरीरके साथ एकत्व बुद्धिका राग नही है, परंतु अपनी सहन शक्तिकी कमजोरीसे जितना राग हो उतना ही दुःख होता है; - सूईसे किंचित् भी दुःख होना मानता नही है । ५. विशेष ऐसा समझना चाहिये कि सूई और शरीर भिन्न भिन्न द्रव्य है, सूईका शरीरके परमाणुओंमे प्रवेश नही हो सकता 'एक परमाणु दूसरेको परस्पर चुंबन भी नही करते' तो सूईका प्रवेश शरीरमें कैसे हो सकता है ? सचमुच तो सूईका शरीरके परमाणुओमें प्रवेश नही हुम्रा है, दोनों की सत्ता और क्षेत्र भिन्न २ होने से, आकाश क्षेत्रमें दोनोंका संयोग हुआ कहना वह व्यवहारमात्र है ।
जीवका उपकार
परस्परोपग्रहो जीवानाम् ॥ २१ ॥
पर्थ - [ जीवानाम् ] जीवोके [ परस्परोपग्रहः ] परस्परमे उपकार है ।
टीका
(१) एक जीव दूसरे को सुखका निमित्त, दुःखका निमित्त, जोवन का निमित्त, मरणका निमित्त, सेवा सुश्रुषा आदिका निमित्त होता है । (२) यहाँ 'उपग्रह' शब्द है । दुःख और मरणके साथ भी उसका
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सम्बन्ध है, किन्तु उसका अर्थ 'भला करना' नहीं होता किन्तु निमित्तमात्र है ऐसा समझना चाहिये ।
(३) बीसवें सूत्रमें कहे गये सुख, दुःख, जीवन, मररणके साथ इसका संबंध बतानेके लिये 'उपग्रह' शब्दका प्रयोग इस सूत्रमें किया है । (४) जहाँ 'सहायक' शब्दका प्रयोग हुआ है वहाँ भी निमित्त मात्र अर्थ है | प्रेरक या अप्रेरक चाहे जैसा निमित्त हो किन्तु वह परमें कुछ करता नही है ऐसा समझना चाहिये और वह भेद - निमित्तकी ओर से निमित्त के हैं, किन्तु उपादानको अपेक्षा दोनों प्रकारके निमित्त उदासीन ( अप्रेरक ) माना है, श्री पूज्यपादाचार्यने इष्टोपदेशको गाथा. ३४ में भी कहा है कि 'जो सत् कल्यारणका र्वाछिक है, वह आप ही मोक्ष सुखका बतलानेवाला तथा मोक्ष सुखके उपायोंमें अपने आपको प्रवर्तन करानेवाला है इसलिये अपना ( आत्माका ) गुरु आप ही ( श्रात्मा ही ) है' इसपर शिष्यते श्रक्षेप सहित प्रश्न किया कि "अगर आत्मा ही आत्माका गुरु है तो गुरु शिष्यके उपकार, सेवा आदि व्यर्थ ठहरेगे" उसको आचार्य गाथा ३५ से जबाब देते हैं कि
" नाज्ञो विज्ञत्वमायाति विज्ञानाज्ञत्व मृच्छति ।
निमित्तमात्रमन्यस्तु गतेर्धर्मास्तिकायवत् || ३५ ॥ अर्थ-अज्ञानी किसी द्वारा ज्ञानी नहीं हो सकता, तथा ज्ञानी किसीके द्वारा अज्ञानी नहीं किया जा सकता, अन्य सब कोई तो गति ( गमन ) में धर्मास्तिकायके समान निमित्तमात्र हैं अर्थात् जब जीव और पुद्गल स्वयं गति करे उस समय धर्मास्तिकायको निमित्तमात्र कारण कहा जाता है उसी प्रकार जिस समय शिष्य स्वयं अपनी योग्यतासे ज्ञानी होता है तो उस समय गुरुको निमित्तमात्र कहा जाता है उसीप्रकार जीव जिस समय मिथ्यात्व रागादिरूप परिणमता है उस समय द्रव्यकर्म और नोकर्म (- कुदेवादिको ) आदिको निमित्तमात्र कहा जाता है जो कि उपचार कारण है, (-अभूतार्थं कारण है ) उपादान स्वयं अपनी योग्यतासे जिस - समय कार्यरूप परिणमता है तो ही उपस्थित क्षेत्र - काल-संयोग आदिमें निमित्तकारणपनेका उपचार किया जाता है अन्यथा निमित्त किसका ?
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अध्याय ५ सूत्र २१-२२
४१५ ऐसा किसी को कभी नहीं हो सकता कि द्रव्यकी जिस समय जैसा परिणमन करने की योग्यता हो उस समय उसके अनुकूल निमित्त न हो और उसका उसरूप परिगमन होना रुक जावे, अथवा किसी क्षेत्र, काल, संयोगकी बाट (-राह ) देखनी पड़े अथवा निमित्त को जुटाना पड़े ऐसा निमित्त नैमित्तिक संबंधका स्वरूप नही है।
उपादानके परिणमनमें सर्व प्रकारका निमित्त अप्रेरक है ऐसा समयसार नाटक सर्व विशुद्ध द्वार काव्य ६१ में कहा है देखो इस अध्याय के सू० ३० की टीका।
अब काल द्रव्यका उपकार बतलाते हैं वर्तनापरिणामक्रियाःपरत्वापरत्वे च कालस्य ॥२२॥
अर्थ-[ वर्तनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च ] वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व [ कालस्य ] काल द्रव्यके उपकार हैं ।
(१) सत् अवश्य उपकार सहित होने योग्य है और काल सत्ता स्वरूप है इसलिये उसका क्या उपकार ( निमित्तत्त्व ) है सो इस सूत्र में बताते है । ( यहाँ भी उपकारका अर्थ निमित्तमात्र होता है।)
(२) वर्तनाः-सर्व द्रव्य अपने अपने उपादान कारणसे अपनी पर्यायके उत्पादरूप वर्तता है, उसमे बाह्य निमित्तकारण कालद्रव्य है इसलिये वर्तना कालका लक्षण या उपकार कहा जाता है।
परिणाम-जो द्रव्य अपने स्वभावको छोडे बिना पर्यायरूपसे पल्टे (बदले) सो परिणाम है। धर्मादि सर्व द्रव्योंके अगुरुलघुत्त्व गुणके अविभाग प्रतिच्छेदरूप अनन्त परिणाम (षट्गुण हानि वृद्धि सहित ) है, वह अति सूक्ष्म स्वरूप है। जीवके उपशमादि पांच भावरूप परिणाम है और पुद्गलके वर्णादिक परिणाम हैं तथा घटादिक अनेकरूप परिणाम हैं। द्रव्य की पर्याय-परिणतिको परिणाम कहते हैं।
क्रिया--एक क्षेत्र अन्य क्षेत्रको गमन करना क्रिया है । वह क्रिया जीव और पुद्गल दोनोके होती है। दूसरे चार द्रव्योके क्रिया नहीं होती।
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मोक्षशास्त्र
परत्व- -जिसे बहुत समय लगे उसे परत्व कहते हैं ।
अपरत्व - जिसे थोड़ा समय लगे उसे अपरत्व कहते हैं ।
इन सभी कार्योका निमित्त कारण काल द्रव्य है । वे कार्य काल को बताते हैं ।
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(३) प्रश्न - परिणाम आदि चार भेद वर्तनाके हो हैं इसलिये एक वर्तना कहना चाहिये ?
उत्तर- - काल दो तरहका है, निश्चयकाल और व्यवहारकाल | उनमें जो वर्तना है सो तो निश्चयकालका लक्षण है और जो परिणाम आदि चार भेद हैं सो व्यवहारकालके लक्षण हैं । यह दोनों प्रकारके काल इस सूत्र बताये है ।
-
(४) व्यवहारकाल - जीव पुद्गल के परिणामसे प्रगट होता है । व्यवहारकालके तीन भेद हैं भूत, भविष्यत्, और वर्तमान । लोकाकाश एक एक प्रदेशमें एक २ भिन्न भिन्न असंख्यात कालाणु द्रव्य हैं, वह परमार्थं काल—निश्चयकाल है । वह कालाणु परिणति सहित रहता है । (५) उपकारके सूत्र १७ से २२ तकका सिद्धांत
कोई द्रव्य परद्रव्यकी परिणतिरूप नहीं वर्तता, स्वयं अपनी परिगतिरूप ही प्रत्येक द्रव्य वर्तता है । परद्रव्य तो बाह्य निमित्तमात्र है, कोई द्रव्य दूसरे द्रव्यके क्षेत्रमें प्रवेश नहीं करता ( अर्थात् निमित्त परका कुछ कर नहीं सकता ) ये सूत्र निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध बतलाता है । धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल, जीव और कालके परके साथके निमित्त सम्बन्ध बतानेवाले लक्षरण वहाँ पर कहे है ।
(६) प्रश्न- "काल वर्तानेवाला है" ऐसा कहनेसे उसमें क्रिया-वानपना प्राप्त होता है ? ( अर्थात् काल पर द्रव्यको परिणमाता है, क्या ऐसा उसका अर्थ हो जाता है ? )
उत्तर—वह दूषण नहीं आता । निमित्तमात्रमें सहकारी हेतुका कथन (व्यपदेश), किया जाता है, जैसे यह कथन किया जाता है कि जाड़ों
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अध्याय ५ सूत्र २२-२३
४१७ कंडोंकी अग्नि शिष्यको पढाती है। वहां शिष्य स्वयं पढता है किन्तु अग्नि (ताप) उपस्थित रहती है इसलिये उपचारसे यह कथन किया जाता है कि 'अग्नि पढाती है। इसी तरह पदार्थोके वर्तानेमें कालका प्रेरक हेतुत्व कहा है वह उपचारसे हेतु कहा जाता है । और अन्य पांचों द्रव्य भी वहाँ उपस्थित है किन्तु उनको वर्तनामें निमित्त नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उनमें उस तरहका हेतुत्व नही है।
___ अव पुद्गल द्रव्यका लक्षण कहते हैं स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः ॥२३॥
अर्थः-[स्पर्श रस गंध वर्णवतः] स्पर्श, रस, गंध और वर्णवाले [पुद्गलाः ] पुद्गल द्रव्य है।
टीका (१) सूत्र में 'पुद्गलाः' यह शब्द बहुवचनमें है, इससे यह कहा है कि बहुतसे पुद्गल है और प्रत्येक पुद्गलमे चार लक्षण हैं, किसीमें भी चारसे कम नही हैं, ऐसा समझाया गया है।
(२) सूत्र १६, २० वें मे पुद्गलोंका जीवके साथका निमित्तत्व बताया था और यहाँ पुद्गलका तद्भूत ( उपादान ) लक्षण बताते हैं। जीवका तद्भूत लक्षण उपयोग, अध्याय २ सूत्र अाठमें बताया गया था और यहाँ पुद्गलके तमृत लक्षण कहे है।
(३) इन चार गुणोकी पर्यायोके भेद निम्नप्रकार हैं:-स्पर्श गुण की आठ पर्यायें है १-स्निग्ध, २-रूक्ष, ३-शीत, ४-उष्ण, ५हल्का, ६-भारी, ७-मृदु और ८-कर्कश ।
रस गुणकी दो पर्यायें है १-खट्टा, २-मीठा, ३-कडुवा, ४कषायला और ५-चर्परा । इन पाँचोमेसे परमाणुमे एक कालमे एक रस पर्याय प्रगट होती है।
गंध गुणकी दो पर्यायें है:--१-सुगंध और २ --दुगंध । इन दोनों मेसे एक कालमें एक गंध पर्याय प्रगट होती है।
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मोक्षशास्त्र वर्ण गुणकी पाँच पर्याय है-१-काला, २-नीला, ३-पीला, ४लाल और ५-सफेद । इन पांचोंमेंसे परमाणुके एक कालमें एक वर्ण पर्याय प्रगट होती है।
___ इस तरह चार गुणके कुल २० भेद-पर्याय हैं। प्रत्येक पर्यायके दो, तीन, चारसे लेकर संख्यात, असंख्यात और अनन्त भेद होते है।
(४) कोई कहता है कि 'पृथ्वी, जल, वायु तथा अग्निके परमाणुओं में जाति भेद है' किंतु यह कथन यथार्थ नहीं है । पुदल सब एक जातिका है। चारों गुण प्रत्येकमें होते हैं और पृथ्वी आदि अनेकरूपसे उसका परिणाम है । पाषाण और लकड़ीरूपसे जो पृथ्वी है वह अग्निरूपसे परिणमन करती है । अग्नि, काजल, राखादि पृथ्वीरूपमें परिणमते हैं । चन्द्रकांत मरिण पृथ्वी है उसे चन्द्रमाके सामने रखने पर वह जलरूपमें परिणमन करती है । जल, मोती, नमक आदि पृथ्वीरूपसे उत्पन्न होते हैं । जो नामका अनाज (जो पृथ्वीकी जातिका है) खानेसे वायु उत्पन्न होती है, क्योंकि पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु पुद्गल द्रव्यके ही विकार है (पर्याय है)।
(५) प्रश्न-इस अध्यायके ५ वें सूत्र में पुद्गलका लक्षण रूपित्व कहा है तथापि इस सूत्रमे पुद्गलका लक्षण क्यो कहा ?
उत्तर-इस अध्यायके चौथे सूत्रमे द्रव्योंकी विशेषता बतानेके लिये नित्य, अवस्थित और अरूपी कहा था और उसमें पुद्गलोंको अमूर्तिकत्व प्राप्त होता था, उसके निराकरणके लिए पाँचवाँ सूत्र कहा था और यह सूत्र तो पुद्गलोका स्वरूप बतानेके लिए कहा है।
(६) इस अध्यायके पांचवें सूत्रको टीका यहां पढ़नी चाहिए।
(७) विदारणादि कारणसे जो टूट फूट होती है तथा संयोगके कारणसे मिलना होता है-उसे पुद्गलके स्वरूपको जाननेवाले सर्वज्ञदेव पुद्गल कहते हैं। (देखो तत्त्वार्थसार अध्याय ३ गाथा ५५ )
(८) प्रश्न-हरा रंग कुछ रंगोंके मेलसे बनता है, इसलिए रंग के जो पांच मेद बताये हैं वे मूल भेद से रह सकते हैं ?
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अध्याय ५ सूत्र २३-२४
४१६ उत्तर-मूल सत्ताकी अपेक्षासे ये भेद नहीं कहे गये किन्तु परस्पर के स्थूल अन्तरकी अपेक्षासे कहे हैं। रसादिके सम्बन्धमे यही बात समझनी चाहिए। रंगादिको नियत संख्या नही है । (तत्त्वार्थ सार पृष्ठ १५८)
अव पुद्गलकी पर्याय बतलाते हैं शब्दबन्धसौक्ष्म्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योत
वन्तश्च ॥ २४ ॥ अर्थः-उक्त लक्षणवाले पुद्गल [शब्द बंध सौम्य स्थौल्य संस्थान भेद तमश्छायातपोद्योतवंतः च ] शब्द, बंध, सूक्ष्मता, स्थूलता, संस्थान (प्राकार), भेद, अंधकार, छाया, आतप और उद्योतादिवाले होते हैं, अर्थात् ये भी पुद्गलकी पर्यायें हैं।
टीका
(१) इन अवस्थाओंमेंसे कितनी तो परमाणु और स्कंध दोनोमे होती है और कई स्कंधमें ही होती हैं।
(२) शब्द दो तरहका है-१-भाषात्मक और २-अभाषात्मक । इनमें से भाषात्मक दो तरहका है-१-अक्षरात्मक और २-अनक्षरात्मक । उनमे अक्षरात्मक भाषा संस्कृत और देशभाषारूप है। यह दोनों शास्त्रोंको प्रगट - करनेवाली और मनुष्यके व्यवहारका कारण है । अनक्षरात्मक भाषा दो इन्द्रियसे लेकर चार इन्द्रियवालो तथा कितनेक पंचेन्द्रिय जीवोके होती है और अतिशय रूप ज्ञानको प्रकाशित करनेकी कारण केवली भगवानको दिव्य ध्वनि-ये सभी अनक्षरात्मक भाषा हैं । यह पुरुष निमित्तक है, इसलिए प्रायोगिक है।
__ अभाषात्मक शब्द भी दो भेद रूप हैं । एक प्रायोगिक दूसरा वैससिक। जिस शब्दके उत्पन्न होनेमे पुरुष निमित्त हो वह प्रायोगिक है और जो पुरुष को बिना अपेक्षाके स्वभावरूप उत्पन्न हो वह वैनसिक है, जैसे मेघ गर्जनादि । प्रायोगिक भाषा चार तरहकी है-१-तत २-वितत ३-धन और ४-सुषिर । जो चमड़ेके ढोल, नगाड़े आदिसे उत्पन्न हो वह तत
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४२०
मोक्षशास्त्र है। तारवाली वीणा, सितार तम्बूरादिसे उत्पन्न होनेवाली भाषाको वितत कहते हैं। घंटा आदिके बजानेसे उत्पन्न होनेवाली भाषा धन कहलाती है और जो बांसुरी शंखादिकसे उत्पन्न हो उसे सुषिर कहते है।
जो कानसे सुना जाय उसे शब्द कहते है। जो मुखसे उत्पन्न हो सो भाषात्मक शब्द है । जो दो वस्तुके आघातसे उत्पन्न हो उसे प्रभाषात्मक शब्द कहते है। अभाषात्मक शब्द उत्पन्न होने में प्राणी तथा जड़ पदार्थ दोनों निमित्त है । जो केवल जड़ पदार्थाके आवातसे उत्पन्न हो उसे वैससिक कहते है, जिसके प्राणियोंका निमित्त होता है उसे प्रायोगिक कहते हैं।
मुखसे निकलनेवाला जो.शब्द अक्षर, पद, वाक्यरूप है उसे साक्षर भाषात्मक कहते हैं, उसे वर्णात्मक भी कहते है।
तीर्थंकर भगवानके सर्व प्रदेशोंसे जो निरक्षर ध्वनि निकलती है उसे अनक्षर भाषात्मक कहा जाता है, ध्वन्यात्मक भी कहा जाता है।
चंध दो तरहका है-१-वैससिक और दूसरा प्रायोगिक । पुरुष की अपेक्षासे रहित जो बंध होता है उसे वैनसिक कहते हैं। यह वैनसिक दो तरहका है १-आदिमान २-अनादिमान । उसमें स्निग्ध रूक्षादि के कारण से जो बिजली, उल्कापात, बादल, आग, इन्द्रधनुष आदि होते हैं उसे आदिमान वैस्रसिक-बंध कहते हैं। पुद्गलका अनादिमान बंध महास्कंध आदि हैं। ( अमूर्तिक पदार्थोमें भी वनसिक अनादिमान बंध उपचारसे कहा जाता है । यह धर्म, अधर्म तथा आकाशका है एवं अमूर्तिक और मूर्तिक पदार्थका अनादिमान बंध-धर्म, अधर्म, आकाश और जगद्व्यापी महास्कंधका है)
जो पुरुपकी अपेक्षा सहित हो वह प्रायोगिक बंध है। उसके दो भेद हैं-१-अजीव विषय २-जीवाजीव विषय । लाखका लकड़ीका जो वध है सो अजीव विषयक प्रायोगिक बंध है। जीवके जो कर्म और नौकर्म बंध हैं सो जीवाजीव विपयक प्रायोगिक बंध हैं ।
सूक्ष्म-दो तरह का है-१-ग्रंत्य २-प्रापेक्षिक । परमाणु अंत्य सूदम है। आंवलेसे बेर सूक्ष्म है, वह आपेक्षिक सूक्ष्म है।
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अध्याय ५ सूत्र २४
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स्थूल - दो तरहका है (१) अन्त्य, (२) आपेक्षिक | जो जगद्व्यापी महास्कंध है सो अन्त्य स्थूल है, उससे बड़ा दूसरा कोई स्कंध नहीं है । 'बेर' आँवला आदि आपेक्षिक स्थूल हैं ।
संस्थान - प्राकृतिको संस्थान कहते हैं उसके दो भेद हैं ( १ ) इत्थं लक्षण संस्थान और (२) अनित्थंलक्षण संस्थान । उसमे गोल, त्रिकोण, चोरस, लम्बा, चौड़ा, परिमंडल ये इत्थलक्षण संस्थान है । बादल आदि जिसकी कोई आकृति नही वह अनित्थंलक्षण संस्थान है ।
भेद-छह तरहका है । (१) उत्कर, (२) चूर्ण, (३) खंड, (४) चूरिका, (५) प्रतर और (६) अनुचटन । आरे आदिसे लकड़ी श्रादिका विदारण करना सो उत्कर है। जो, गेहूँ, बाजरा आदिका आटा चूर्ण है । घडे आदिके टुकडे खण्ड हैं । उड़द, मूग, चना, चोला आदि दालको चूरिका कहते है । तप्त्यमान लोहेको घन इत्यादिसे पीटने पर जो स्फुलिंग ( चिन्गारियाँ ) निकलते हैं उसे अनुचटन कहते हैं ।
अन्धकार - जी प्रकाशका विरोधी है सो अन्धकार है ।
छाया-प्रकाश (उजेले) को ढकनेवाली छाया है । वह दो प्रकारकी है ( १ ) तद्वर्णपरिणति (२) प्रतिबिम्बस्वरूप । रंगोन काँचमेसे देखने पर जैसा काँचका रंग हो वैसा ही दिखाई देता है यह तदुद्वर्णपरिणति कह - लाती है । और दर्पण, फोटो आदिमे जो प्रतिबिंब देखा जाता उसे प्रतिबिम्ब स्वरूप कहते है ।
आतप - सूर्य विमानके द्वारा जो उत्तम प्रकाश होता है उसे श्रातप कहते हैं ।
उद्योत - चन्द्रमा, चन्द्रकान्त भरिण, दीपक श्रादिके प्रकाशको उद्योत कहते है ।
सूत्रमें जो 'च' शब्द कहा है उसके द्वारा प्रेरणा, श्रभिघात ( मारना) आदि जो पुद्गलके विकार है उनका समावेश किया गया है ।
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मोक्षशास्त्र उपरोक्त भेदोंमें 'सूक्ष्म' तथा 'संस्थान' (ये दो भेद) परमाणु और स्कंध दोनोंमें होते है और अन्य सब स्कंधके प्रकार हैं ।
(३) दूसरी तरहसे पुद्गलके छह भेद हैं १-सूक्ष्म-सूक्ष्म, २-सूक्ष्म, ३-सूक्ष्मस्थूल, ४-स्थूलसूक्ष्म, ५-स्थूल और ६-स्थूलस्थूल ।
१-सूक्ष्म-सूक्ष्म-परमाणु सूक्ष्म-सूक्ष्म है । २-सूक्ष्म-कार्माणवर्गणा सूक्ष्म है।
३-सूक्ष्म-स्थूल स्पर्श, रस, गंध और शब्द ये सूक्ष्मस्थूल हैं। क्योंकि ये आँखसे दिखाई नही देते इसलिये सूक्ष्म है और चार इन्द्रियोंसे जाने जाते हैं इसलिये स्थूल हैं।
४-स्थूल-सूक्ष्म-छाया, परछाँई, प्रकाश आदि स्थूलसूक्ष्म हैं क्योंकि वह आँखसे दिखाई देती हैं इसलिये स्थूल हैं और उसे हाथसे पकड़ नही सकते इसलिये सूक्ष्म है।
५-स्थूल-जल, तेल आदि सब स्थूल है क्योंकि छेदन, भेदनसे ये अलग हो जाते हैं और इकट्ठ करनेसे मिल जाते हैं ।
६-स्थूल-स्थल-पृथ्वी, पर्वत, काष्ठ आदि स्थूल-स्थूल हैं वे पृथक् • करनेसे पृथक् तो हो जाते हैं किन्तु फिर मिल नहीं सकते।
परमाणु इन्द्रिय ग्राह्य नही है तो इन्द्रिय ग्राह्य होनेकी उसमें योग्यता है । इसीतरह सूक्ष्म स्कंधको भी समझना चाहिये।
(४) शब्दको आकाशका गुण मानना भूल है, क्योंकि आकाश अमूर्तिक है और शब्द मूर्तिक है, इसलिये शब्द आकाशका गुण नहीं हो सकता । शब्दका मूर्तिकत्व साक्षात् है क्योंकि शब्द कर्ण इन्द्रियसे ग्रहण होता है, हस्तादिसे तथा दीवाल आदिसे रोका जाता है और हवा आदि मूर्तिक वस्तुसे उसका तिरस्कार होता है, दूर जाता है। शब्द पुद्गल द्रव्यकी पर्याय है इसलिये मूर्तिक है। यह प्रमारणसिद्ध है। पुलस्कंधके परस्पर भिड़नेसे-टकरानेसे शब्द प्रगट होता है ॥२४॥
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अध्याय ५ सूत्र २५-२६
४२३ अब पुद्गलके भेद बतलाते हैं
अगवः स्कन्धाश्च ॥ २५ ॥ अर्थ-पुदल द्रव्य [ प्रणवः स्कन्धाः च ] अणु और स्कंध के भेदसे दो प्रकारके है।
टीका (१) अणु-जिसका विभाग न हो सके ऐसे पुद्गलको अणु कहते है । पुद्गल मूल (Simple ) द्रव्य है।
स्कंध-दो तीन से लेकर संख्यात, असंख्यात और अनन्त पर. माणुओंके पिण्डको स्कंध कहते है।
(२) स्कंध पुद्गल द्रव्यकी विशेषता है । स्पर्श गुणके कारणसे वे स्कंधरूपसे परिणमते हैं। स्कंधरूप कब होता है यह इस अध्यायके २६, ३३, ३६ और ३७ वें सूत्रमे कहा है और वह कब स्कंधरूपमे नही होता यह सूत्र ३४ व ३५ मे बताया है।
(३) ऐसी विशेषता अन्य किसी द्रव्यमें नहीं है, क्योकि दूसरे द्रव्य अमूर्तिक हैं। यह सूत्र मिलापके संबंधमे द्रव्योंका अनेकान्तत्व बतलाता है।
(४) परमाणु स्वय ही मध्य और स्वयं ही अंत है, क्योकि वह एक प्रदेशी और अविभागी है ॥ २५ ॥
अब स्कंधोंकी उत्पचिका कारण बतलाते हैं
भेदसंघातेभ्यः उत्पद्यन्ते ॥ २६ ॥ अर्थ--परमाणुओके [ भेदसंघातेभ्यः ] भेद ( अलग होनेसे ) संघात ( मिलने से ) अथवा भेद संघात दोनो से [ उत्पद्यन्ते ] पुद्गल स्कंधोंकी उत्पत्ति होती है।
टीका (१) पिछले सूत्रोंमे (पूर्वोक्त सूत्रोमें ) पुद्गलद्रव्यकी विशिष्टता बत
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४२४
मोक्षशास्त्र लाते हुए अणु और स्कंध ये दो भेद बताए; तब प्रश्न यह उठता है कि स्कंधोंकी उत्पत्ति किस तरह होती है ? उसके स्पष्टरूपसे तीन कारण बतलाए है । सूत्र में द्विवचनका प्रयोग न करते हुए बहुवचन ( संघातेभ्यः) प्रयोग किया है, इससे भेद-संघातका तीसरा प्रकार व्यक्त होता है ।
(२) दृष्टान्त-१०० परमाणुओंका स्कंध है, उसमेंसे दस परमाणु अलग हो जानेसे ६० परमाणुओंका स्कंध बना; यह भेदका दृष्टान्त है। उसमें ( सौ परमाणुके स्कंधमें ) दस परमाणुमोंके मिलनेसे एक सौ दस परमाणुओका स्कंध हुआ; यह सघातका दृष्टान्त है। उसीमें ही एक साथ दस परमाणुओंके अलग होने और पन्द्रह परमाणुओंके मिल जानेसे एक सौ पांच परमाणुओंका स्कंध हुआ, यह भेद संघातका उदाहरण है।।२६॥ __ अब अणुकी उत्पचिका कारण बतलाते हैं
भेदादणुः ॥२७॥ अर्थ-[अणुः] अणुकी उत्पत्ति [भेदात्] भेदसे होती है ॥२७॥ दिखाई देने योग्य स्थूल स्कन्धकी उत्पचिका कारण बतलाते हैं
भेदसंघाताभ्यां चाक्षुषः ॥२८॥ अर्थ-[चाक्षुषः] चक्षुइन्द्रियसे देखनेयोग्य स्कंध[भेदसंघाताभ्याम्] भेद और संघात दोनोंके एकत्र रूप होनेसे उत्पन्न होता है, अकेले भेद से नहीं।
टीका (१) प्रश्न-जो चक्षुइन्द्रियके गोचर न हो ऐसा स्कंध चक्षुगोचर कैसे होता है ?
उचर-जिस समय सूक्ष्म स्कंधका भेद हो उसी समय चक्षुइंद्रियगोचर स्कंधमें वह संघातरूप हो तो वह चक्षुगोचर हो जाता है। सूत्रमें "चाक्षुषः' शब्दका प्रयोग किया है, उसका अर्थ चक्षु इंद्रियगोचर होता है। चक्षुइंद्रियगोचर स्कंव अकेले भेदसे या अकेले सघातसे नहीं होता।
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मध्याय ५ सूत्र २८-२९
४२५ ( देखो राजवातिक सूत्र २८ की टीका, पृष्ठ ३६१, अर्थ प्रकाशिका पृष्ठ २१०)
(2) Marsh-gas treated with chlorine gives Methyl Chloride and Hydrochloric acid the formula is: CH 4 + cl2=3DCH3 cl + H + cl.
अर्थ-सड़े पानीमें उत्पन्न गैसको 'मार्श गैस' कहते हैं । उसकी गंध नही आती, रंग भी मालूम नही होता, किन्तु वह जल सकता है। उसे एक क्लोरीन नामक गैस जो हरिताभ पीले रंगका है उसके साथ मिलाने पर वह नेत्र इन्द्रियसे दिखाई देनेवाला एक तीसरा एसिड पदार्थ होता है, उसे मैथील क्लोराइड हाइड्रोक्लोरिक एसिड कहते हैं। (इंग्लिश तत्त्वार्थसूत्रके इस सूत्रके नीचेकी टीका )
(३) ओक्सीजन और हाइड्रोजन दो वायु है, दोनों नेत्र इन्द्रियसे अगोचर स्कंध हैं। दोनोंके मिलाप होनेपर नेत्र इन्द्रिय गोचर जल हो जाता है । इसलिये नेत्रइन्द्रियगोचर स्कंध होनेके लिए जिसमे मिलाप हो वह नेत्रइन्द्रियगोचर होना ही चाहिये ऐसा नियम नही है और सूत्र में भी नेत्रइन्द्रियगोचर स्कंध चाहिए ही ऐसा कथन नहीं है। सूत्र में सामान्य कथन है ।। २८ ॥ इसतरह छहों द्रव्योंके विशेष लक्षणोंका कथन किया जा चुका ।
अव द्रव्योंका सामान्य लक्षण कहते हैं
सद्व्य लक्षणम् ॥ २६ ॥ अर्थ:-[ ब्रव्यलक्षणम् ] द्रव्यका लक्षण [ सत् ] सत् ( अस्ति
टीका (१) वस्तु स्वरूपके बतलानेवाले ५ महासूत्र इस अध्यायमें दिए गए हैं । वे २९-३०-३२-३८ और ४२ वें सूत्र हैं। उनमें भी यह सूत्र मूलनीवरूप है, क्योकि किसी भी वस्तुके विचार करनेके लिए सबसे पहले यह
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४२६
मोक्षशास्त्र निश्चय होना चाहिये कि वह वस्तु है या नहीं। इसलिये जगत्में जो जो वस्तु हो वह सतरूपसे होनी हो चाहिये। जो वस्तु है उसीका विशेष विचार किया जाता है।
(२) इस सूत्रमें 'द्रव्य' शब्दका प्रयोग किया है, वह ऐसा भी बतलाता है कि उसमें द्रव्यत्व गुण है, 'कि जिस शक्तिके कारण द्रव्य सदा एक रूपसे न रहने पर उसकी अवस्था (-पर्याय ) हमेशा बदलती रहती है।'
(३) अब प्रश्न यह उठता है कि जब कि द्रव्य हमेशा अपनी पर्याय बदलता है तब क्या वह द्रव्य बदलकर दूसरे द्रव्यरूप हो जाता है ? इस प्रश्नका उत्तर इस सूत्रमें प्रयोग किया गया 'सत्' शब्द देता है 'सत्' शब्द बतलाता है कि द्रव्यमें अस्तित्व गुण है और इस शक्तिके कारण द्रव्यका कभी नाश नहीं होता।
(४) इससे यह सिद्ध हुआ कि द्रव्यकी पर्याय समय समय पर वदलती है तो भी द्रव्य त्रिकाल कायम ( मौजूद ) रहता है । यह सिद्धान्त सूत्र ३० और ३८ में दिया गया है।
(५) जिसके 'है' पन ( अस्तित्व ) हो वह द्रव्य है। इसतरह 'अस्तित्व' गुणके द्वारा द्रव्यकी रचना की जा सकती है । इसलिए इस सूत्रमें द्रव्यका लक्षण 'सत्' कहा है। यह सूत्र बतलाता है कि जिसका अस्तित्व हो वह द्रव्य है।
(६) अतः यह सिद्ध हुआ कि 'सत्' लक्षण द्वारा द्रव्य पहचाना जा सकता है। उपरोक्त कथनसे दो सिद्धांत निकले कि द्रव्यमें 'प्रमेयत्व' ( ज्ञानमे ज्ञात होने योग्य-Knowable ) गुण है और यह द्रव्य स्वयं स्व को जाननेवाला हो अथवा दूसरे द्रव्य उसे जाननेवाला हो । यदि ऐसा न हो तो निश्चित ही नही होता कि 'द्रव्य' है । इसलिये यह भी सिद्ध होता है कि द्रव्यमै 'प्रमेयत्व' गुण है और द्रव्य या तो जाननेवाला (चेतन) अथवा नही जाननेवाला (अचेतन) है। जाननेवाला द्रव्य 'जीव' है और नही जाननेवाला 'अजीव' है।
(७) प्रत्येक द्रव्य अपनी प्रयोजनभूत अर्थक्रिया (Functionality) करता ही है । यदि द्रव्य अर्थ क्रिया न करे तो वह कार्य रहित हो
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अध्याय ५ सूत्र २६
४२७
जाय अर्थात् व्यर्थ हो जाय किन्तु व्यर्थंका ( अपने कार्य रहित ) कोई द्रव्य होता ही नही । इससे यह सिद्ध हुआ कि प्रत्येक द्रव्यमें 'वस्तुत्व' नामका गुण है ।
(८) और वस्तुत्व गुरण के कारण जो स्वयं अपनी क्रिया करे वही वस्तु कहो जाती है । इससे यह सिद्ध हुआ कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कुछ कर नही सकता |
(६) पुनरपि जो द्रव्य है उसका 'द्रव्यत्व' 'गुरणत्व' जिस रूपमें हो वैसा कायम रहकर परिणमन करता है किन्तु दूसरेमे प्रवेश नहीं करा सकता, इस गुरणको 'अगुरुलघुत्व' गुण कहते है । इसी शक्तिके कारण द्रव्य का द्रव्यत्व रहता है और एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप परिणमित नहीं होता, और एक गुण दूसरे गुणरूप परिणमित नहीं होता, तथा एक द्रव्यके अनेक (अनन्त) गुण विखर कर अलग अलग नही हो जाते ।
(१०) इस तरह प्रत्येक द्रव्यमे सामान्य गुरण बहुत से होते हैं किंतु मुख्य रूपसे छह सामान्य गुण हैं १ - अस्तित्व ( जो इस सूत्रमे 'सत्' शब्द के द्वारा स्पष्ट रूपसे बतलाया है ), २-वस्तुत्व ३ द्रव्यत्व ४ - प्रमेयत्व ५- अगुरुलघुत्व और ६ - प्रदेशत्व ।
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(११) प्रदेशत्व गुरण की ऐसी व्याख्या है कि जिस शक्ति के कारण द्रव्यका कोई न कोई आकार अवश्य हो ।
(१२) इन प्रत्येक सामान्य गुरगोमे 'सत्' (अस्तित्व) मुख्य है क्योंकि उसके द्वारा द्रव्यका अस्तित्व ( होने रूप - सत्ता ) निश्चित होता है । यदि द्रव्य हो तो ही दूसरे गुरण हो सकते हैं, इसलिये यहाँ 'सत्' को द्रव्यका लक्षण कहा है |
(१३) प्रत्येक द्रव्यके विशेष लक्षण पहले कहे जा चुके हैं वे निम्न प्रकार हैं- ( १ ) जीव - अध्याय २, सूत्र १ तथा ८ ( २ ) अजीवके पांच भेदोंमेसे पुद्गल अध्याय ५ सूत्र २३ | धर्म और अधर्म - अध्याय ५ सूत्र १७ आकाश - अध्याय ५, सूत्र १८ और काल- अध्याय ५ सूत्र २२ ।
जीव तथा पुद्गलको विकारी अवस्थाका निमित्त नैमित्तिक संबंध इस अध्याय के सूत्र १६, २०, २१, २४, २५, २६, २७, २८, ३२, ३५,
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मोक्षशास्त्र
-३६, ३८ में दिया है। उनमें जीवका एक दूसरेका सम्बन्ध सूत्र २० में बताया । जीवका पुद्गलके साथका सम्बन्ध सूत्र १६, २० में बताया और पुद्गलका परस्परका सम्बन्ध बाकीके सूत्रोंमें बताया गया है।
(१४) 'सत्' लक्षण कहनेसे यह सिद्ध हुआ कि स्व की अपेक्षासे 'द्रव्य सत्' है । इसका यह अर्थ हुआ कि वह स्वरूपसे है पर रूपसे नही। 'अस्तित्व' प्रगट रूपसे और नास्तित्व' गर्भित रूपसे (इस सूत्र में) कहकर यह बतलाया है कि प्रत्येक द्रव्य स्वयं स्वसे है और पर रूपसे न होनेसे एक द्रव्य अपना सब कुछ कर सकता है, किंतु दूसरे द्रव्यका कभी कुछ नही कर सकता । इस सिद्धान्तका नाम 'अनेकांत' है और वह इस अध्यायके ३२ वें सूत्रमे बतलाया गया है ॥ २६ ॥
अब सत्का लक्षण बताते हैं उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत् ॥३०॥ अर्थः-[ उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं ] जो उत्पाद व्यय-ध्रौव्य सहित हो [ सत् ] सो सत् है।
टीका (१) जगत्में सत्के संबंधमें कई असत् मान्यतायें चल रही हैं। कोई 'सत्' को सर्वथा कूटस्थ-जो कभी न बदले ऐसा मानते है; कोई ऐसा कहते हैं कि सत् ज्ञान गोचर नही है, इसलिए 'सत्' का यथार्थ त्रिकाली अबाधित स्वरूप इस सूत्रमे कहा है।
(२) प्रत्येक वस्तुका स्वरूप 'स्थायी रहते हुये बदलता है' उसे इंग्लिश में Permanancy with a change (बदलनेके साथ स्थायित्व); कहा है । उसे दूसरी तरह यों भी कहते हैं कि-No substance is destroyed, every substance changes its form. (कोई वस्तु नाश नही होती, प्रत्येक वस्तु अपनी अवस्था बदलती है )।
(३) उत्पाद-चेतन अथवा अचेतन द्रव्यमें नवीन अवस्थाका प्रगट होना सो उत्पाद है । प्रत्येक उत्पाद होने पर पूर्वकालसे चला आया जो स्वभाव या स्वजाति है वह कभी छूट नही सकती।
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मध्याय ५ सूत्र ३०
४२६ व्यय-स्वजाति यानी मूल स्वभावके नष्ट हुए बिना जो चेतन तथा अचेतन द्रव्यमें पूर्व अवस्थाका विनाश (उत्पादके समय ही) होना सो व्यय है।
ध्रौव्य-अनादि अनन्तकाल तक सदा बना रहनेवाला मूल स्वभाव जिसका व्यय या उत्पाद नही होता उसे ध्रौव्य कहते है (देखो तत्त्वार्थसार अध्याय ३ गाथा ६ से ८)
(४) सर्वार्थसिद्धिमे ध्रौव्यकी व्याख्या इस सूत्र की टीकामे पृष्ठ १०५ में संस्कृतमे निम्नप्रकार दी है:"अनादिपारिणामिकत्वभावेन व्ययोदयाभावातध्रवति स्थिरी
भवतीति ध्रवः " अर्थः-जो अनादि पारिणामिक स्वभावके द्वारा व्यय तथा उत्पाद के अभावसे ध्रव रहता है-स्थिर रहता है वह ध्रुव है।
(५) इस सूत्रमे 'सत्' का अनेकांत रूप बतलाया है । यद्यपि त्रिकालापेक्षासे सत् 'ध्रुव' है तो भी समय समय पर नवीन पर्याय उत्पन्न होती है और पुरानी पर्याय नष्ट होती है अर्थात् द्रव्यमे समा जाती है, वर्तमान काल की अपेक्षासे प्रभावरूप होता है इस तरह कथंचित् नित्यत्व और कथंचित् अनित्यत्व द्रव्यका अनेकांतपन है।
(६) इस सूत्रमे पर्यायका भी अनेकातपन बतलाया है । जो उत्पाद है सो अस्तिरूप पर्याय है और जो व्यय है सो नास्तिरूप पर्याय है। स्वकी पर्याय स्वसे होती है परसे नही होती ऐसा 'उत्पाद' से बताया। स्व पर्यायको नास्ति-अभाव भी स्वसे ही होता है, परसे नहीं होता । "प्रत्येक द्रव्यका उत्पाद व्यय स्वतंत्र उस द्रव्यसे है" ऐसा बताकर द्रव्य, गुरण तथा पर्यायकी स्वतंत्रता बतलाई-परका असहायकपन बतलाया।
(७) धर्म ( शुद्धता ) आत्मामें द्रव्यरूपसे त्रिकाल भरपूर है, अनादिसे जीवके पर्याय रूपमे धर्म प्रगट नहीं हुआ, किंतु जीव जब पर्याय में धर्म व्यक्त करे तब व्यक्त होता है, ऐसा उत्पाद शब्दका प्रयोग बताया और उसी समय विकारका व्यय होता है ऐसा व्यय शब्दको कहकर बताया।
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४३०
मोक्षशास्त्र
उस अविकारी भावके प्रगट होने और विकारीभावके व्ययका लाभ त्रिकाल मौजूद रहनेवाले ऐसे ध्रुव द्रव्यके प्राप्त होता है ऐसा धौव्य शब्द अन्तमें देकर बतलाया है |
(८) प्रश्न- - "युक्त" शब्द एक पदार्थसे दूसरे पदार्थका पृथकत्व बतलाता है - जैसे----- --दण्ड युक्त दंडी । ऐसा होनेसे उत्पाद व्यय और प्रोव्य का द्रव्यसे भिन्न होना समझा जाता है अर्थात् द्रव्यके उत्पाद व्यय और श्रीव्यका द्रव्यमें अभावका प्रसंग आता है उसका क्या स्पष्टीकरण है ?
उत्तर- 'युक्त' शब्द जहाँ अभेदकी अपेक्षा हो वहाँ भी प्रयोग किया जाता है जैसे—सार युक्त स्तंभ । यहाँ युक्तं शब्द अभेदनयसे कहा है । यहाँ युक्तं शब्द एकमेकतारूप अर्थ में समझना ।
(६) सत् स्वतंत्र और स्व सहायक है अतः उत्पाद और व्यय भी प्रत्येक द्रव्यमें स्वतंत्ररूपसे होते है । श्री कुन्दकुन्दाचार्यने प्र० सार गा० १०७ में पर्यायको भी सत्पना कहा है- “ सद्द्रव्यं सच्च गुरणः सच्चेव च पर्याय इति विस्तारः ।"
प्रश्न – जीव में होनेवाली विकारी पर्याय पराधीन कही जाती है इसका क्या कारण है ?
उचर- - पर्याय भी एक समय स्थायी अनित्य सत् होनेसे विकारी पर्याय भी जीव जब स्वतंत्ररूपसे अपने पुरुषार्थके द्वारा करे तब होती है । यदि वैसा न माना जाय तो द्रव्यका लक्षण 'सत्' सिद्ध न हो श्रौर इसलिए द्रव्यका नाश हो जाय । जीव स्वयं स्वतंत्र रूप से अपने भावमें परके आधीन होता है इसलिए विकारी पर्यायको पराधीन कहा जाता है । किंतु ऐसा मानना न्याय संगत नही है कि 'परद्रव्य जीवको आधीन करता है इसलिये विकारी पर्याय होती है ।"
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प्रश्न – क्या यह मान्यता ठीक है कि "जब द्रव्य कर्मका वल होता है तब कर्म जीवक आधीन कर लेते हैं क्योकि कर्म में महान शक्ति है ?"
उत्तर--नहीं ऐसा नही है । प्रत्येक द्रव्यका प्रभाव और शक्ति
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अध्याय ५ सूत्र ३० उसके क्षेत्रमें रहती है । जीवमें कर्मकी शक्ति नहीं जा सकती इसलिए कर्म जीवको कभी भी आधीन नहीं कर सकता। यह नियम श्रीसमयसार नाटकमें दिया गया है वह उपयोगी होनेसे यहाँ दिया जाता है:१-अज्ञानियोंके विचारमें रागद्वेषका कारण:
-दोहाकोई मूरख यों कहै, राग द्वेष परिणाम । पुद्गलकी जोरावरी, वरतै आतमराम ॥६२॥ ज्यों ज्यों पुद्गल बल करे धरि धरि कर्मज भेष ।
रागदोषको परिणमन, त्यौ त्यौं होइ विशेष ॥६३॥ अर्थः-कोई कोई मूर्ख ऐसा कहते हैं कि आत्मामें राग-द्वेष भाव पुद्गलकी जबरदस्तीसे होता है ॥६२।। पुद्गल कर्मरूप परिणमनके उदय मे जितना जितना बल करता है उतनी उतनी बाहुल्यतासे राग-द्वेष परिणाम होते हैं ।।६३॥ --अज्ञानीको सत्य मार्गका उपदेश
-दोहाइहि विध जो विपरीत पख, गहै सद्दहै कोइ । सो नर राग विरोध सों, कबहूँ भिन्न न होइ॥६४॥ सुगुरु कहैं जगमे रहै, पुद्गल संग सदीव । सहज शुद्ध परिणमनिको, औसर लहै न जीव ॥६॥ तातै चिद्भावनि विष, समरथ चेतन राउ । राग विरोध मिथ्यातमे, समकितमें सिव भाउ ॥६६।।
(देखो समयसार नाटक पृष्ठ ३५३ ) अर्थ:-ऊपर जो रीति कही है वह तो विपरीत पक्ष है । जो कोई उसे ग्रहण करता है या श्रद्धान करता है उस जीवके राग द्वेष और मोह कभी पृथक होते ही नही । श्री गुरु कहते हैं कि जीवके पुद्गलका साथ सदा (अनादिका) रहता है तो फिर सहज शुद्ध परिणमनका अवसर जीवको कभी मिले ही नहीं। इसलिये चैतन्यका भाव करनेमे चेतन राजा ही समर्थ
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४३२'
मोक्षशास्त्र हैं। वह मिथ्यात्वदशामें स्व से राग द्वेषरूप होता है और सम्यक्त्वदशामेंशिव भाउ अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप होता है।
२-जीवको कर्मका उदय कुछ असर नहीं कर सकता अर्थात् निमित्त उपादानको कुछ कर नहीं सकता। इन्द्रियोंके भोग, लक्ष्मी, सगे सम्बन्धी या मकान आदिके सम्बन्धमें भी यही नियम है । यह नियम श्री समयसार नाटकके सर्वविशुद्धि द्वारमें निम्नरूपसे दिया है:
-सवैयाकौऊ शिष्य कह स्वामी राग रोष परिनाम,
ताको मूल प्रेरक कहहु तुम कौन है ? पुद्गल करम जोगं किधों इन्द्रिनिको भोग,
किधी धन किधौ परिजन किधौ भौन है ॥ गुरु केहैं छहों दर्व अपने अपने रूप,
सबनिको सदा असहाई परिनीन है। कोउ दरब काहुकों न प्रेरक कदाचि तातै,
राग दोष मोह मृषा मदिरा अचौन है ॥६॥ अर्थ-शिष्य कहता है-है स्वामी ! राग द्वेष परिणामका मूल प्रेरक कौन है सो श्राप कही, पुद्गल कर्म या इन्द्रियोके भोग या धन या घरके मनुष्य या मकान ? श्री गुरु समाधान करते हैं कि छहों द्रव्य अपने अपने स्वरूपमें सदा असहाय परिणमते हैं । कोई द्रव्य किसी द्रव्यका कभी भी प्रेरक नही है । राग द्वेषका कारण मिथ्यात्वरूपी मदिराका पान है।
(१०) पंचाध्यायी अ० १ गा० ८६ में भी वस्तुकी हरएक अवस्था(-पर्याय भी ) "स्वतः सिद्ध" एवं 'स्वसहाय' है ऐसा कहा है
वस्त्वस्ति स्वतः सिद्धं यथा तथा तत्स्वतश्च परिणामि। तस्मादुत्पादस्थिति भंगमयं तत् सदेतदिह नियमात् ॥ ८९॥ .
अर्थ-जैसे वस्तु स्वतः सिद्ध है वैसे ही यह "स्वतः परिणमनशील" भी है, इसलिये यहाँ पर यह सत् नियमसे उत्पाद व्यय और ध्रौव्य स्वरूप है । इसप्रकार किसी भी वस्तुकी कोई भी अवस्था, किसी भी
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पध्याय ५ सूत्र ३०-३१-३२
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समय, परके द्वारा नहीं की जा सकती, वस्तु सदा स्वतः परिगमनशील होनेसे अपनी पर्याय यानी अपने हरएक गुणके वर्तमान ( अवस्था विशेष ) का वह स्वयं ही सृष्टा - रचयिता है ॥ ३० ॥
अव नित्यका लक्षण कहते हैं तद्भावाव्ययं नित्यम् ॥ ३१ ॥
अर्थ-- [ तदभावाव्ययं । तद्भावसे जो अध्यय है-नाश नहीं होना सो [ नित्यम् ] नित्य है ।
टीका
( १ ) जो पहले समयमें हो वही दूसरे समयमें हो उसे तद्भाव कहते हैं; वह नित्य होता है - अव्यय = अविनाशी होता है ।
( २ ) इस अध्यायके चौथे सूत्रमे कहा है कि द्रव्यका स्वरूप नित्य है । उसकी व्याख्या इस सूत्रमें दो गई है ।
( ३ ) प्रत्यभिज्ञानके हेतु को तदभाव कहते हैं । जैसे कि द्रव्यको पहले समय में देखनेके बाद दूसरे आदि समयोमें देखनेसे "यह वही है जिसे मैंने पहले देखा था " ऐसा जो जोड़रूपज्ञान है वह द्रव्यका द्रव्यत्व बतलाता है, परन्तु यह नित्यता कथंचित् है क्योकि यह सामान्य स्वरूप की अपेक्षासे होती है । पर्यायकी अपेक्षासे द्रव्य अनित्य है । इसतरह जगत मे समस्त द्रव्य नित्यानित्यरूप हैं । यह प्रमाण दृष्ट है ।
( ४ ) आत्मामें सर्वथा नित्यता मानने से मनुष्य, नरकादिकरूप संसार तथा संसारसे अत्यन्त छूटनेरूप मोक्ष नही बन सकता । सर्वथा नित्यता माननेसे संसार स्वरूपका वर्णन और मोक्ष - उपायका कथन करने में 'विरोधता आती है, इसलिये सर्वथा नित्य मानना न्याय संगत नही है ।। ३१ ।।
एक वस्तुमें दो विरुद्ध धर्म सिद्ध करने की रौति बतलाते हैं। अर्पितानर्पित सिद्धेः ॥ ३२ ॥
५५
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मोक्षशाख अर्थ-[ अपितानर्पितसिद्धः ] प्रधानता और गौणतासे पदार्थों की सिद्धि होती है।
टीका (१) प्रत्येक वस्तु अनेकान्त स्वरूप है यह सिद्धान्त इस सूत्रमें स्याद्वाद द्वारा कहा है। नित्यता और अनित्यता परस्पर विरोधी धर्म हैं, तथापि वे वस्तुको वस्तुपनमें निष्पन्न (सिद्ध ) करनेवाले हैं, इसीलिये वे प्रत्येक द्रव्यमें होते ही है। उनका कथन मुख्य गौणरूपसे होता है, क्योंकि सभी धर्म एक साथ नहीं कहे जा सकते । जिस समय जिस धर्मको सिद्ध करना हो उस समय उसकी मुख्यता ली जाती है । उस मुख्यता-प्रधानता को 'अर्पित' कहा जाता है, और उस समय जिस धर्मको गौण रखा हो उसे अनर्पित कहा जाता है । ज्ञानी पुरुष जानता है कि अनर्पित किया हुआ धर्म यद्यपि उस समय कहने में नहीं आया तो भी वह धर्म रहते ही है।
(२) जिस समय द्रव्यको द्रव्यकी अपेक्षासे नित्य कहा है उसी समय वह पर्यायकी अपेक्षासे अनित्य है। सिर्फ उस समय 'अनित्यता' कही नहीं गई किन्तु गभित रखी है। इसी प्रकार जब पर्यायकी अपेक्षासे द्रव्यको अनित्य कहा है उसी समय वह द्रव्यकी अपेक्षासे नित्य है सिर्फ उस समय नित्यता कही नही है। क्योंकि दोनों धर्म एक साथ कहे नहीं जा सकते।
(३) अर्पित और अनर्पित के द्वारा अनेकान्त स्वरूप का कथन___ अनेकान्त की व्याख्या निम्न प्रमाण है
"एक वस्तुमें वस्तुत्वको निष्पादक परस्पर विरुद्ध दो शक्तियोंका एक ही साथ प्रकाशित होना सो अनेकान्त है।" जैसे कि जो वस्तु सत् है वही असत् है अर्थात् जो अस्ति है वही नास्ति है, जो एक है वही अनेक है, जो नित्य है वही अनित्य है इत्यादि । ( स० सार सर्व विशुद्धिज्ञानाधिकार पृ० ५६५)
अपित और अनर्पितका स्वरूप समझनेके लिये यहाँ कितने ही
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अध्याय ५ सूत्र ३२
.४३५ दृष्टान्तोंकी जरूरत है, वे नीचे दिये जाते हैं
(१) 'जीव चेतन हैं' ऐसा कहने से 'जीव अचेतन नहीं है। ऐसा उसमें स्वयं गभितरूपसे आगया । इसमे 'जीव चेतन है' यह कथन अर्पित हुआ और 'जीव अचेतन नही है' यह कथन अनर्पित हुआ।
(२) 'अजीव जड़ है' ऐसा कहने से 'अजीव चेतन नही है' ऐसा उसमें स्वयं गभित रूपसे आगया। इसमें पहला कथन अर्पित है और उसमें 'अजीव चेतन नही है' यह भाव अनर्पित-गौरणरूपसे आगया, अर्थात् बिना कहे भी उसमे गर्भित है ऐसा समझ लेना चाहिये।
(३) 'जीव अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से सत् है' ऐसा कहने पर 'जीव पर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावसे असत् है ऐसा बिना कहे भी आगया । पहला कथन 'अर्पित है और दूसरा 'अनर्पित' है।
(४) 'जीव द्रव्य एक है' ऐसा कहने पर उसमें यह आगया कि 'जीव गुण और पर्यायसे अनेक है।' पहला कथन 'अर्पित है और दूसरा 'अनर्पित है।
(५) 'जीव द्रव्य-गुणसे नित्य है ऐसा कहनेसे उसमें यह कथन आगया कि 'जीव पर्यायसे अनित्य है। पहला कथन अर्पित और दूसरा अनर्पित है।
(६) 'जीव स्व से तत् ( Identical ) है ऐसा कहनेसे उसमें यह कथन आगया कि 'जीव परसे अतत् है। इसमें पहला कथन अर्पित और दूसरा अनर्पित है।
(७) 'जीव अपने द्रव्य-गुण-पर्यायसे अभिन्न है' ऐसा कहनेसे उसमें यह कथन आगया कि 'जीव परद्रव्य-उसके गुण और पर्यायसे भिन्न है। पहला कथन अर्पित और दूसरा कथन अर्पित है।
(८) 'जीव अपनी पर्यायका कर्ता हो सकता है' ऐसा कहने पर 'जीव परद्रव्यका कुछ कर नही सकता' यह आगया। इसमे पहला कथन अपित और दूसरा अनर्पित है।
(९) 'प्रत्येक द्रव्य अपनी पर्यायका भोक्ता हो सकता है' ऐसा
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मोक्षशास्त्र
कहने से यह भी आगया कि 'कोई पर द्रव्यका भोक्ता नहीं हो सकता ।' इसमें पहला कथन अर्पित और दूसरा श्रनर्पित है ।
(१०) 'कर्मका विपाक कर्ममें आ सकता है' ऐसा कहनेसे यह कथन भी आ गया कि 'कर्मका विपाक जीवमें नही आ सकता, इसमें पहला कथन अर्पित और दूसरा अनर्पित है ।
(११) 'सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रको एकता मोक्षमार्ग है' ऐसा कहने पर यह कथन भी आ गया कि 'पुण्य पाप, श्रास्रव बंध ये मोक्षमार्ग नहीं है' इसमें पहला कथन अर्पित और दूसरा अनर्पित है ।
(१२) 'शरीर परद्रव्य है' ऐसा कहने पर यह कथन भी आ गया कि 'जीव शरीरकी कोई क्रिया नहीं कर सकता, उसे हला- चला नही सकता, उसकी संभाल नहीं रख सकता, उसका कुछ कर नहीं सकता वैसे ही शरीरकी क्रियासे जीवको राग, द्वेष, मोह, सुख, दुःख वगैरह नहीं हो सकता ।' इसमें पहला कथन अर्पित और दूसरा अनर्पित है ।
(१३) 'निमित्त पर द्रव्य है' ऐसा कहने पर उसमें यह कथन भी आगया, कि 'निमित्त पर द्रव्यका कुछ कर नही सकता, उसे सुधार या बिगाड़ नहीं सकता, सिर्फ वह अनुकूल संयोगरूपसे होता है' इसमें पहला कथन अर्पित और दूसरा अनर्पित है ।
(१४) 'घीका घड़ा' कहनेसे उसमें यह 'घड़ा घीमय नही किन्तु मिट्टीमय है, घीका घड़ा कथन है' इसमे पहला कथन श्रर्पित और दूसरा
कथन भी आगया कि है यह तो मात्र व्यवहारा अनर्पित है ।
(१५) 'मिथ्यात्व कर्मके उदयसे जीव मिथ्यादृष्टि होता है । इस कथनसे यह भी आगया कि 'जीव उस समयकी अपनी विपरीत श्रद्धा को लेकर मिथ्यादृष्टि होता है, वास्तव में मिथ्यात्व कर्मके उदयके कारण जीव, मिथ्यादृष्टि नही होता, मिथ्यात्वकर्मके उदयसे जीव मिथ्यादृष्टि होता हैयह तो उपचारमात्र व्यवहार कथन है, वास्तवमे तो जीव जब स्वयं मिथ्याश्रद्धारूप परिरणमा तब मिथ्यात्व मोहनीय कर्मके जो रजकरण उस समय उदयरूप हुये, उन पर निर्जराका आरोप न आकर विपाक उदयका आरोप
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अध्याय ५ सूत्र ३२
श्राया' इसमें पहला कथन अर्पित दूसरा अनर्पित है ।
(१६) 'जीव जड़कर्मके उदयसे ग्यारहवें गुरणस्थानसे गिरा' ऐसा कहनेसे यह कथन भी आगया कि 'जीव अपने पुरुषार्थकी कमजोरी से गिरा, जड़ कर्म परद्रव्य है और ११ वे गुणस्थानमें तो मोह कर्मका उदय ही नही है । वास्तवमें ( - सचमुच ) तो कर्मोदयसे जीव गिरता नही है, किन्तु जिस समय अपने पुरुषार्थं की कमजोरी से गिरा - तब मोहकर्म के उदयसे गिरा ऐसा आरोप ( - उपचार - व्यवहार ) आया' इसमें पहला कथन अर्पित और दूसरा अनर्पित है ।
(१७) 'जीव पंचेन्द्रिय है' ऐसा कहने से यह कथन भी आगया कि 'जीव चेतनात्मक है जड़ इन्द्रियात्मक नही है, पाँचों इन्द्रियां जड़ हैं मात्र उसे उनका संयोग है ।' इसमें पहला कथन अर्पित दूसरा अनर्पित है । (१८) 'निगोदका जीव कर्मका उदय मंद होनेपर ऊँचा चढ़ता है' यह कहने से उसमें यह कथन आगया कि 'निगोदिया जीव स्वयं अपने पुरुपार्थके द्वारा मंद कषाय करनेपर चढ़ता है, कर्म परद्रव्य है इसलिये कर्मके कारणसे जीव ऊँचा नही चढ़ा, (-अपनी योग्यता से चढ़ा है ) पहला कथन अर्पित और दूसरा अर्नार्पित है ।
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(१६) 'कर्मके उदयसे जीव असंयमी होता है क्योंकि चारित्रमोह के उदयके बिना उसकी अनुपपत्ति है' ऐसा कहनेसे यह कथन आगया कि 'जीव अपने पुरुषार्थके दोषके कारण अपने चारित्र गुरणके विकारको नहीं टालता और असंयमरूप परिणमता है इसलिये वह असंयमी होता है, यद्यपि उस समय चारित्र मोहके कर्म भी झड़ जाते हैं तो भी जीवके विकारका निमित्त पाकर नवीन कर्म स्वयं बांधता है, इसलिये पुराने चारित्र मोहकर्मपर उदयका आरोप आता है' इसमे पहला कथन अर्पित और दूसरा श्रनर्पित है ।
(२०) 'कर्मके उदयसे जीव ऊर्ध्वलोक मध्यलोक और अधोलोक में जाता है क्योंकि श्रानुपूर्वी कर्मके उदयके विना उसकी अनुपपत्ति है' ऐसा कहनेसे उसमे यह कथन भी आगया कि 'जीवको क्रियावती शक्तिको उस समयकी वैसी योग्यता है इसलिये जीव ऊर्ध्व लोकमे अधोलोकमें श्रीर तियं
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मोक्षशास्त्र
ग्लोकमें जाता है, उस समय उसे अनुकूल आनुपूर्वी नाम कर्मका उदय संयोगरूपसे होता है । कर्मपरद्रव्य है इसलिये वह जीवको किसी जगह नहीं ले जा सकता' इसमें पहला कथन अर्पित और दूसरा अनर्पित है । उपरोक्त दृष्टांत ध्यानमें रखकर शास्त्रमें कैसा भी कथन किया हो उसका निम्नलिखित अनुसार अर्थ करना चाहिये
पहले यह निश्चय करना चाहिये कि शब्दार्थके द्वारा यह कथन किस नयसे किया है । उसमें जो कथन जिस नयसे किया हो वह कथन अर्पित है ऐसा समझना । और सिद्धान्तके अनुसार उसमें गौणरूपसे जो दूसरे भाव गर्भित हैं, यद्यपि वे भाव जो कि वहाँ शब्दोमे नही कहे तो भी ऐसा समझ लेना चाहिये कि वे गर्भितरूपसे कहे है, यह अनर्पित कथन है । इसप्रकार अर्पित और अनर्पित दोनों पहलुओं को समझकर यदि जीव अर्थ करे तो हो जीवको प्रमाण और नयका सत्य ज्ञान हो । यदि दोनों पहलुनों को यथार्थ न समझे तो उसका ज्ञान अज्ञानरूपमें परिणमा है इसलिये उसका ज्ञान अप्रमाण और कुनयरूप है । प्रमारणको सम्यक् अनेकांत भी कहा जाता है ।
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जहाँ जहाँ निमित्त और प्रोदयिक भाव की सापेक्षताका कथन हो, वहाँ मोदयिकभाव जीवका स्वतत्त्व होनेसे- निश्चयसे निरपेक्ष ही है सापेक्ष नही है इस मुख्य बातका स्वीकार होना चाहिये । एकान्त सापेक्ष मानने से शास्त्रका सच्चा अर्थ नही होगा ।
(४) अनेकान्तका प्रयोजन
अनेकान्त भी सम्यक् एकान्त ऐसा निजपदकी प्राप्ति कराने के अतिरिक्त अन्य दूसरे हेतुसे उपकारी नही है ।
(५) एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कुछ भी कर सकता है इस मान्यता में आनेवाले दोषोंका वर्णन
जगतमे छहों द्रव्य अत्यंत निकट एक क्षेत्रावगाह रूपसे रहे हुये हैं, वे स्वयं निजमें अंतर्मग्न रहते हुये अपने अनन्त धर्मोके चक्रको चूमते हैं,स्पर्श करते है तो भी वे परस्परमें एक दूसरे को स्पर्श नही करते । यदि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यको स्पर्श करे तो वह परद्रव्यरूप हो जाय और यदि
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अध्याय ५ सूत्र ३२
४३६ पराहनाय तो निम्नलिखित दोप पावें:
१--संकर दोप दोपएरप हो जाये तो संकर दोर आता है।
गगनाम् गुगपत्प्राप्तिः संकरः"-जो अनेक द्रव्योंके एक रूपताकी मामि मोफर दोग है। जीव अनादि से अजान दशामे शरीरको, शरीरकी मिशागरगोजे, भाव इन्द्रियोको तथा उनके विषयोंको स्व से पारूप मानता है यह शेय-भायक संकर दोप है। इस सूत्रमें कहे हुये परत करपले गमभने पर अर्थात् जीव जोवरूपसे है कर्मरूपसे नही
की से पगं, इन्द्रिया, परीर, जीवको विकारी और अपूर्ण दशा है मोर जीपमा स्वरूप (-ज्ञान ) नहीं है ऐसा समझकर भेद विमान प्रगट करे सर प शायक संकर दोप दूर होता है अर्थात् सम्यन प्रगट होनेपर ही संकर दोप टलता दूर होता है।
जीप जिसने मोमे मोहकामके साथ युक्त होकर दुःख भोगता है वह मार मापनः संगार दोष है । उस दोपको दूर करनेका प्रारंभ सम्यग्दर्शन प्रगट होने पर होता है और अपायज्ञानस्वभावका अच्छी तरह पालंबन पारने गया पपायभाव दूर होनेपर वह संकर दोप सर्वथा दूर होता है।
२-व्यतिकर दोप यदि जोय जच्या पुछ कार्य करे और जड़ कम या शरीर जीवका गुछ मना-बुरा करे तो जीव जरूप हो जाय और जड चेतनरूप हो जाय तथा एक जीवके दूसरे जीय पुग्छ भला बुरा करें तो एक जीव दूसरे जीवरुप हो जाय । इस तरह एकका विषय दूसरेमें चला जायगा इसके व्यतिफर दोष भावेगा-"परस्परविपयगमनं व्यतिकरः।"
जदकर्म हलका हो और मार्ग दे तो जीवके धर्म हो और जडकर्म बनवान हो तो जीव धर्म नहीं कर सकता-ऐसा माननेमें संकर और व्यतिकर दोनों दोष पाते हैं।
जीव मोक्षका-धर्मका पुरुषार्थ न करे और अशुभभावमे रहे तब उसे बहकार्गी जीव कहा जाता है, अथवा यों कहा जाता है कि-'उसके कर्म
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मोक्षेशोष का तीव्र उदय है इसलिये वह धर्म नहीं करता। उस जीवको लक्ष्य स्वसन्मुख नहीं है किंतु परवस्तु पर है, इतना बतानेके लिये वह व्यवहार कथन है। परन्तु ऐसे उपचार कथनको सत्यार्थ माननेसे दोनों दोष आते हैं कि जड़ कर्म जीवको नुकसान करता है या जीव जड़कर्मका क्षय करता है। और ऐसा मानने में दो द्रव्यके एकत्वको मिथ्या श्रद्धा होती है।
३-अधिकरण दोष यदि जीव शरीरका कुछ कर सकता, उसे हला-चला सकता या दूसरे जीवका कुछ कर सकता तो वह दोनों द्रव्योंका अधिकरण ( स्वक्षेत्ररूप प्राधार ) एक होजाय और इससे 'अधिकरण' दोष आवेगा।
४-परस्पराश्रय दोष जीव स्व की अपेक्षासे सत् है और कर्म परवस्तु है उस अपेक्षासे जीव असत् है, तथा कर्म उसकी अपनी अपेक्षासे सत् है और जीवकी अपेक्षासे कर्म असत है। ऐसा होनेपर भी जीव कर्मको बाँधे-छोड़े-उसका क्षय करे वैसे ही कम कमजोर हों तो जीव धर्म कर सकता है-ऐसा माननेमें 'परस्पराश्रय' दोष है। जीव कर्म इत्यादि समस्त द्रव्य सदा स्वतंत्र हैं और स्वयं स्व से स्वतंत्ररूपसे कार्य करते है ऐसा माननेसे 'परस्पराश्रय' दोष नहीं आता।
५-संशय दोष जीव अपने रागादि विकार भावको जान सकता है, स्वद्रव्यके श्रावनसे रागादि दोषका अभाव हो सकता है परन्तु उसे टालनेका प्रयत्न नहीं करता और जो जड़कर्म और उसके उदय हैं उसको नहीं देख सकता तथापि ऐसा माने कि 'कर्मका उदय पतला पडे, कमजोर हो, कर्मके आवरण हटे तो धर्म या सुख हो सकता है; जड़कर्म बलवान हो तो जीव गिरा जाय, अधर्मी या दुःखी होजाय, (जो ऐंसा माने) उसके सशय-(-भय) दूर नही होता अथवा निज आत्माश्रित निश्चय रत्नत्रयसे धर्म होगा या पुण्यसे-व्यवहार करते २ धर्म होगा? ऐसा संशय दूर किये बिना जीव स्वतंत्रताको श्रद्धा और सच्चा पुरुषार्थ नहीं कर सकता और विपरीत अभिप्राय रहितपनेका सच्चा पुरुषार्थ विना, किसी जीवको कभी धर्म या सम्यग्दर्शन
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अध्याय ५ सूत्र ३२
४४१ नहीं हो सकता। कोई भी द्रव्य दूसरोंका कुछ कर सकता है या नहीं ऐसी मान्यतामें संशय दोष भाता है वह सच्ची समझसे दूर करना चाहिये।
६-अनवस्था दोष जीव अपने परिणामका ही कर्ता है और अपना परिणाम उसका कर्म है । सर्व द्रव्योंके अन्य द्रव्योंके साथ उत्पाध-उत्पादक भावका अभाव है, इसीलिये अजीवके साथ जीवके कार्य-कारणत्व सिद्ध नहीं होता। यदि एक द्रव्य दूसरेका कार्य करे, दूसरा तीसरेका कार्य करे-ऐसी परंपरा मानने पर अनन्त द्रव्य है उसमें कोन द्रव्य किस द्रव्यका कार्य करे इसका कोई नियम न रहेगा और इसीलिये अनवस्था दोष आवेगा। परन्तु यदि ऐसा नियम स्वीकार करें कि प्रत्येक द्रव्य अपना ही कार्य करता है परका कार्य नही कर सकता तो वस्तुको यथार्थ व्यवस्था ज्यों की त्यों बनी रहती है और उसमें कोई अनवस्था दोष नहीं आता।
७-अप्रतिपचि दोष प्रत्येक द्रव्यका द्रव्य त्व-क्षेत्रत्व-कालत्व (-पर्यायत्व) और भावत्व (-गुण) जिस प्रकारसे है उसीप्रकारसे उसका यथार्थ ज्ञान करना चाहिये। जीव क्या कर सकता और क्या नही कर सकता वैसे ही जड़ द्रव्य क्या कर सकते और क्या नहीं कर सकते-इसका ज्ञान न करना और तत्त्वज्ञान करनेका प्रयत्न नहीं करना सो अप्रतिपत्ति दोष है ।
८-विरोध दोष __ यदि ऐसा माने कि एक द्रव्य स्वयं स्व से सत् है और वही द्रव्य परसे भी सत् है तो 'विरोध' दोष माता है । क्योकि जीव जैसे अपना कार्य करे वैसे पर द्रव्यका-कर्म अर्थात् पर जीव मादिका-भी कार्य करे तो विरोध दोष लागू होता है।
९-अभाव दोष यदि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कार्य करे तो उस द्रव्यका नाश हो और एक द्रव्यका नाश होतो क्रम क्रमसे सर्व द्रव्योका नाश होगा, इस तरह उसमें 'प्रभाव' दोष पाता है।
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४४२
मोक्षशास्त्र इन समस्त दोषोंको दूरकर वस्तुका अनेकांत स्वरूप समझनेके लिये प्राचार्य भगवानने यह सूत्र कहा है।
अर्पित (मुख्य ) और अनर्पित (गौण ) का विशेष
समझमें तथा कथन करनेके लिये किसी समय उपादानको मुख्य किया जाता है और किसी समय निमित्तको, ( कभी निमित्तकी मुख्यतासे कार्य नहीं होता मात्र कथनमें मुख्यता होती है ) किसी समय द्रव्यको मुख्य किया जाता है तो किसी समय पर्यायको, किसी समय निश्चयको मुख्य कहा जाता है और किसी समय व्यवहारको । इस तरह जब एक पहलूको मुख्य करके कहा जावे तब दूसरे गोरण रहनेवाले पहलुओंका यथायोग्य ज्ञान कर लेना चाहिये । यह मुख्य और गौणता ज्ञानको अपेक्षासे समझनी।
-परन्तु सम्यग्दर्शनकी अपेक्षासे हमेशा द्रव्यदृष्टिको प्रधान करके उपदेश दिया जाता है द्रव्यदृष्टिकी प्रधानतामें कभी भी व्यवहारकी मुख्यता नहीं होती; वहाँ पर्यायदृष्टिके भेदको गौरण करके उसे व्यवहार कहा है। भेद दृष्टिमें रुकने पर निर्विकल्प दशा नही होती और सरागीके विकल्प रहा करता है। इसलिये जबतक रागादिक दूर न हों तबतक भेदको गौण कर अभेदरूप निर्विकल्प अनुभव कराया जाता है। द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षासे व्यवहार, पर्याय या भेद हमेशा गौरण रखा जाता है, उसे कभी मुख्य नहीं किया जाता ॥ ३२॥
अब परमाणुओंमें बंध होनेका कारण बतलाते हैं
स्निग्धरूक्षत्वाद्बन्धः॥३३॥ अर्थ:-[ स्निग्धरूक्षत्वात् ] चिकने और रूखेके कारण [बंधः] दो, तीन इत्यादि परमाणुओंका बंध होता है।
., टीका (१) पुद्गलमें अनेक गुण हैं किंतु उनमेंसे स्पर्श गुणके अतिरिक्त दूसरे गुणोंका पर्यायोंसे वन्ध नहीं होता, वैसे ही स्पर्शकी पाठ पर्यायों मेंसे भी स्निग्ध और रूक्ष नामके पर्यायोंके कारणसे ही बंध होता है और दूसरे
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अध्याय ५ सूत्र ३३-३४
४४३ छह प्रकारके पर्यायोंसे बन्ध नहीं होता, ऐसा यहां बताया है। किस तरह की स्निग्ध और रूक्ष अवस्था हो तब बंध हो यह ३६ वें सूत्र में कहेगे और किस तरहके हों तब बन्ध नही होता यह ३४-३५ वें सूत्र में कहेंगे। बंध होने पर किस जातिका परिणमन होता है यह ३७ वें सूत्रमे कहा जायगा।
(२) बंध-अनेक पदार्थोमे एकत्वका ज्ञान करानेवाले संबंध विशेष को बन्ध कहते हैं।
(३) बंध तीन तरहका होता है-१-स्प के साथ पुद्गलोंका बन्ध, २-रागादिके साथ जीवका बन्ध, और ३-अन्योन्य अवगाह पुद्गल जीवात्मक बन्ध । (प्रवचनसार गाथा १७७ ) उनमेसे पुद्गलोंका बन्ध इस सूत्रमे बताया है।
(४) स्निग्ध और रूक्षत्वके जो अविभाग प्रतिच्छेद हैं उसे गुण कहते हैं । एक, दो, तीन, चार, पांच, छह इत्यादि तथा संख्यात, असंख्यात या अनंत स्निग्ध गुण रूपसे तथा रूक्ष गुणरूपसे एक परमाणु और प्रत्येक परमाणु स्वतः स्वयं परिणमता है।
(५) स्निग्ध स्निग्धके साथ, रूक्ष रूक्षके साथ तथा एक दूसरेके साथ बन्च होता है।
बंध कव नहीं होता ?
न जघन्यगुणानाम् ॥३४॥ अर्थः-[ जघन्यगुणानाम् ] जघन्य गुण सहित परमाणुओंका [न] बन्ध नहीं होता।
टीका
(१) गुणकी व्याख्या सूत्र ३३ की टीका दी गई है । 'जघन्य गुण परमाणु' अर्थात् जिस परमाणुमे स्निग्धता या रूक्षताका एक अविभागी अंश हो उसे जघन्य गुण सहित परमाणु कहते हैं । जघन्यगुण अर्थात् एक गुण समझना।
* यहाँ द्रव्य गुण पर्याय पानेवाला गुण नही समझना परन्तु गुणका अर्थ 'स्निग्ध-रूक्षत्वकी शक्तिका नाप करनेका साधन' समझना चाहिये।
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मोक्षशास्त्र (२) परम चैतन्य स्वभावमें परिणति रखनेवालेके परमात्मस्वरूप के भावनारूप धर्मध्यान और शुक्लध्यानके बलसे जब जघन्य चिकनेके स्थानमें राग क्षीण हो जाता है तब जैसे जल और रेतीका बन्ध नहीं होता वैसे ही जघन्य स्निग्ध या रूक्ष शक्तिधारी परमाणुका भी किसीके साथ बंध नहीं होता। (प्रवचनसार अध्याय २, गाथा ७२, श्री जयसेन प्राचार्यकी संस्कृत टीका, हिन्दी पुस्तक पृष्ठ २२७ ) जल और रेतीके दृष्टांतमें जैसे जीवोंके परमानन्दमय स्व संवेदन गुणके बलसे रागद्वेष हीन हो जाता है और कर्मके साथ बन्ध नहीं होता उसीप्रकार जिस परमाणुमें जघन्य स्निग्ध था रूक्षता होती है उसके किसीसे बंध नही होता ।
(हिन्दी प्रवचनसार गाथा ७३ पृ० २२८) (३) श्री प्रवचनसार अध्याय २, गाथा ७१ से ७६ तक तथा गोम्मटसार जीवकांड गाथा ६१४ तथा उसके नीचेको टीकामें यह बतलाया है कि पुद्गलोंमें बंध कब नही होता और कब होता है, अतः वह बाँचना।
(४) चौतीसवें सूत्रका सिद्धांत (१) द्रव्यमें अपने साथ जो एकत्व है वह बंधका कारण नहीं होता किंतु अपनेमें-निजमें च्युतिरूपद्वैत-द्वित्व हो तब बन्ध होता है। भात्मा एकभावस्वरूप है, परन्तु मोह राग-द्वेषरूप परिणमनसे द्वैतभावरूप होता है और उससे बन्ध होता है। (देखो प्रवचनसार गाथा १७५ की टीका) आत्मा अपने त्रिकाली स्वरूपसे शुद्ध चैतन्य मात्र है। यदि पर्यायमें वह त्रिकाली शुद्ध चैतन्यके प्रति लक्ष्य करके अंतर्मुख हो तो द्वैतपन नहीं होता, बन्ध नही होता अर्थात् मोह-राग-द्वेषमें नहीं रुकता । आत्मा मोहरागद्वेष में अटकता है वही बन्ध है। अज्ञानतापूर्वकका रागद्वेष ही वास्तवमें स्निग्ध और रूक्षत्वके स्थानमें होनेसे बन्ध है ( देखो प्रवचनसार गाथा १७६ की टीका ) इसप्रकार जब आत्मामें द्वित्व हो तब बन्ध होता है और उसका निमित्त पाकर द्रव्यबन्ध होता है।
(२) यह सिद्धांत पुद्गलमें लागू होता है । यदि पुद्गल अपने स्पर्शमें एक गुणरूप परिणमे तो उसके अपनेमे ही बन्धकी शक्ति (भावबंध) प्रगट न
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अध्याय ५ सूत्र ३४-३५
४४५ होनेसे दूसरे पुद्गलके साथ बन्ध नहीं होता। किन्तु यदि उस पुद्गलके स्पर्शमें दो गुणरूप अधिकपन आवे तो बन्ध की शक्ति (भावबन्धकी शक्ति) होनेसे दूसरे चार गुणवाले स्पर्शके साथ बन्ध हो जाता है, यह द्रव्यबंध है। बन्ध होनेमे द्वित्व-द्वैत अर्थात् भेद होना ही चाहिए।
(३) दृष्टान्त-दशामें गुणस्थानमे सूक्ष्मसांपराय-जघन्य लोभ कषाय है तो भी मोहकर्मका बन्ध नही होता । संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ तथा पुरुषवेद जो नवमें बन्धको प्राप्त थे उनकी वहाँ व्युच्छित्ति हुई उनका बन्ध वहाँ रुक गया। (देखो अध्याय ६ सूत्र १४ की टीका)
दृष्टान्तपरसे सिद्धांत-जीवका जघन्य लोभकषाय विकार है किंतु वह जघन्य होनेसे कार्माण-वर्गणाको लोभरूपसे बन्धने में निमित्त नही हुआ। (२) उस समय संज्वलन लोभकर्मकी प्रकृति उदयरूप है तथापि उसकी जघन्यता नवीन मोह कर्मके बन्धका निमित्त कारण नहीं होती (३) यदि जघन्य विकार कर्म बन्धका कारण हो तो कोई जीव बन्ध रहित नही हो सकता ॥३४॥
बंध कव नहीं होता इसका वर्णन करते हैं
गुणसाम्ये सहशानाम् ॥३५॥ अर्थ:-[ गुणसाम्ये ] गुणोंकी समानता हो तब [ सहशानाम् ] समान जातिवाले परमाणुके साथ बन्ध नहीं होता । जैसे कि-दो गुणवाले स्निग्ध परमाणुका दूसरे दो गुणवाले स्निग्ध परमाणुके साथ बन्ध नही होता अथवा वैसे स्निग्ध परमाणुका उतने ही गुणवाले रूक्ष परमाणुके साथ बन्ध नहीं होता । 'न-(बन्ध नहीं होता)' यह शब्द इस सूत्रमे नहीं कहा परन्तु ऊपरके सूत्रमें कहा गया 'न' शब्द इस सूत्रमे भी लागू होता है।
टीका - (१) सूत्र में 'सदृशानाम् पदसे यह प्रगट होता है कि गुणों को विषमतामे समान जातिवाले तथा भिन्न जातिवाले पुद्गलोंका वन्ध होता
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मोक्षशास्त्र (२) दो गुण या अधिक गुण स्निग्धता और वैसे ही दो या अधिक गुण रूक्षता समानरूपसे हो तब बन्ध नहीं होता, ऐसा बतानेके लिये 'गुणसाम्ये' पद इस सूत्र में लिया है ॥ ३५ ॥ ( देखो सर्वार्थसिद्धि, संस्कृत हिन्दी टीका, अध्याय ५ पृष्ठ १२३)
बन्ध कव होता है ? द्वयधिकादिगुणानां तु॥३६॥ अर्थः-[द्वयधिकादिगुणानां तु ] दो अधिक गुण हों इस नरहके गुण वालेके साथ ही वन्ध होता है।
टीका जब एक परमाणुसे दूसरे परमाणुमें दो अधिक गुण हों तब ही बंध होता है। जैसे कि दो गुरणवाले परमाणुका बंध चार गुणवाले परमाणुके साथ हो; तीन गुणवाले परमाणुका पांच गुणवाले परमाणुके साथ बंध हो परन्तु उससे अधिक या कम गुणवाले परमाणुके साथ बंध नहीं होता। यह बन्ध स्निग्धका स्निग्धके साथ, रूक्षका रूक्षके साथ, स्निग्धका रूक्षके साथ तथा रूक्षका स्निग्धके भी बंध होता है ॥३६॥ दो गुण अधिकके साथ मिलने पर नई व्यवस्था कैसी होती है ?
बन्धेऽधिको पारिणामिकौ च ॥ ३७॥
अर्थ:-[च ] और [ बन्धे ] बन्धरूप अवस्थामें [ अधिको ] अधिक गुणवाले परमाणुओं अपने रूपमें [पारिणामिकौ] (कम' गुरगवाले परमाणुओंका ) परिणमानेवाले होता है । (यह कथन निमित्तका है)
टीका जो अल्पगुणधारक परमाणु हो वह जब अधिक गुणधारक परमाणुके साथ बंध अवस्थाको प्राप्त होता है तब वह अल्पगुण धारक परमाणु अपनी पूर्व अवस्थाको छोड़कर दूसरी अवस्था प्रगट करता है और
• श्वेताम्बर मतमे इस व्यवस्था को नही माना है।
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अध्याय ५ सूत्र ३७-३८
'४४७ एक स्कंध हो जाता है अर्थात् अधिक गुणधारक परमाणुकी जातिका और उतने गुणवाला स्कंध होता है ॥ ३७ ॥
द्रव्य का दूसरा लक्षण गुणपर्ययवत् द्रव्यम् ॥ ३८॥ अर्थ-[ गुणपर्ययवत् ] गुण पर्यायवाला [ व्रव्यम् ] द्रव्य है ।
टीका
(१) गुण-द्रव्यकी अनेक पर्याय बदलने पर भी जो द्रव्यसे कभी पृथक् नही हो, निरन्तर द्रव्यके साथ सहभावी रहे वह गुण कहलाता है।
(२) जो द्रव्यके पूरे हिस्से में तथा उसकी सभी हालतमें रहे उसे गुण कहते हैं । (जैन सिद्धान्त प्रवेशिका प्रश्न ११३ ) (३) जो द्रव्यमें शक्तिकी अपेक्षासे भेद किया जावे वह गुण शब्दका अर्थ है(तत्त्वार्थसारअध्याय ३, गाथा | पृष्ठ १३१) सूत्रकार गुणको व्याख्या ४१ वें सूत्र में देंगे।
(२) पर्याय-१-क्रमसे होनेवाली वस्तुको गुणकी अवस्थाको पर्याय कहते हैं; २-गुणके विकारको ( विशेष कार्यको ) पर्याय कहते हैं; (जैन सिद्धान्त प्रवेशिका प्रश्न १४८ ) ३-द्रव्यमें जो विक्रिया हो अथवा जो अवस्था बदले वह पर्याय कहलाती है।
(देखो तत्त्वार्थसार अध्याय ३ गाथा ६ पृष्ठ १३१) सूत्रकार पर्यायकी व्याख्या ४२ वे सूत्र में देंगे।
(३) पहले सूत्र २६-३० में कहे हुए लक्षणसे यह लक्षण पृथक नही है, शब्द भेद है, किन्तु भावभेद नही । पर्यायसे उत्पाद-व्यय की और गुणसे ध्रौव्यकी प्रतीति हो जाती है।
(४) गुणको अन्वय, सहवर्ती पर्याय या अक्रमवर्ती पर्याय भी कहा जाता है तथा पर्यायको व्यतिरेकी अथवा क्रमवर्ती कहा जाता है । द्रव्यका स्वभाव गुण-पर्यायरूप है, ऐसा सूत्र में कहकर द्रव्यका अनेकांतत्व सिद्ध किया ।
(५) द्रव्य, गुण और पर्याय वस्तुरूपसे अभेद-अभिन्न है । नाम,
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४४८
मोक्षशास्त्र संख्या, लक्षण और प्रयोजन की अपेक्षासे द्रव्य, गुण और पर्यायमै भेद है परन्तु प्रदेशसे अभेद है; ऐसा वस्तुका भेदाभेद स्वरूप समझना ।
(६) सूत्र में 'वत्' शब्दका प्रयोग किया है वह कथंचित् भेदाभेदरूप सूचित करता है।
(७) जो गुणके द्वारा यह बतलावे कि 'एक द्रव्य दूसरे द्रव्यसे द्रव्यान्तर है' उसे विशेष गुण कहते हैं । उसके द्वारा उस द्रव्यका विधान किया जाता है । यदि ऐसा न हो तो द्रव्योंकी संकरता-एकताका प्रसंग हो
और एक द्रव्य बदलकर दूसरा हो जाय तो व्यतिकर दोषका प्रसंग होगा। इसलिये इन दोषोंसे रहित वस्तुका स्वरूप जैसाका तैसा समझना ॥३८॥
काल भी द्रव्य है
कालश्च ।। ३६ ॥ अर्थः-[ कालः ] काल [च ] भी द्रव्य है ।
टीका
(१) 'च' का अन्वय इस अध्यायके दूसरे सूत्र 'द्रव्यारिण' के साथ
(२) काल उत्पाद-व्यय-ध्रुव तथा गुण-पर्याय सहित है, इसलिये वह द्रव्य है।
(३) काल द्रव्योंकी संख्या असंख्यात है। वे रत्नों की राशि की तरह एक दूसरेसे पृथक् लोकालोकके समस्त प्रदेशों पर स्थित हैं । वह प्रत्येक कालाणु जड़, एक प्रदेशी और प्रमूर्तिक है। उनमें स्पर्श गुण नहीं है इसलिये एक दूसरेके साथ मिलकर स्कंध रूप नहीं होता । कालमें मुख्य रूपसे या गौणरूपसे प्रदेश-समूहकी कल्पना नहीं हो सकती, इसलिये उसे अकाय भी कहते है । वह निष्क्रिय है अर्थात् एक प्रदेशसे दूसरे प्रदेशमें नही जाता।
(४) सूत्र २२ में वर्तना मुख्य कालका लक्षण कहा है और उसी सूत्र में व्यवहार कालका लक्षण परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व कहा
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अध्याय ५ सूत्र ३६-४०
४४४ है। इस व्यवहार कालके अनंत समय हैं ऐसा अब इसके बादके सूत्रमें कहते हैं ।। ३६ ।।
व्यवहार काल प्रमाण बताते हैं
सोऽनन्तसमथः॥४०॥ अर्थ-[स] वह काल द्रव्य [ अनन्त समयः ] अनन्त समय वाला है। कालका पर्याय यह समय है । यद्यपि वर्तमानकाल एक समयमात्र ही है तथापि भूत-भविष्यको अपेक्षासे उसके अनन्त समय है।
टीका (१) समय-मंदगतिसे गमन करनेवाले एक पुद्गल परमाणुको आकाशके एक प्रदेशसे दूसरे प्रदेशपर जानेमे जितना समय लगता है वह एक समय है । यह कालकी पर्याय होनेसे व्यवहारा है। आवलि, (-समयों के समूहसे ही जो हो ) घडी, घंटा आदि व्यवहारकाल है। व्यवहारकाल निश्चयकालकी पर्याय है ।
निश्चयकालद्रव्य-लोकाकाशके प्रत्येक प्रदेशपर रत्नोंकी राशि की तरह कालाणुके स्थित होनेका ३६ वें सूत्रकी टीकामे कहा है, वह प्रत्येक निश्वयकालद्रव्य है । उसका लक्षण वर्तना है। यह सूत्र २२ मे कहा जा चुका है।
(२) एक समयमें अनन्त पदार्थोकी परिणति-पर्याय-जो अनन्त संख्यामे है। उसके एक कालाणुकी पर्याय निमित्त होती है, इस अपेक्षासे एक कालाणुको उपचारसे 'अनन्त' कहा जाता है । मुख्य अर्थात् निश्चयकालाणु द्रव्यको संख्या असंख्यात है।
(३) समय यह सबसे छोटेसे छोटा काल है उसका विभाग नही हो सकता ।। ४० ।।
इस तरह छह द्रव्योंका वर्णन पूर्ण हुआ । अव दो सूत्रो द्वारा गुण का और पर्यायका लक्षण बताकर यह अधिकार पूर्ण हो जायगा।
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४५०
मोक्षशास्त्र
गुण का लक्षण द्रव्याश्रया निगुणाः गुणाः॥४१॥
अर्थ-[ द्रव्याश्रयाः ] जो द्रव्यके आश्रयसे हों और [ निर्गुणाः ] स्वयं दूसरे गुणोंसे रहित हों [ गुणाः ] वे गुण हैं ।
टीका (१) ज्ञानगुण जीवद्रव्यके आश्रित रहता है तथा ज्ञानमें और कोई दूसरा गुण नही रहता । यदि उसमें गुण रहे तो वह गुण न रहकर गुणी (द्रव्य ) हो जाय किन्तु ऐसा नही होता ! 'पाश्रयाः' शब्द भेद अभेद दोनों बतलाता है ।
(२) प्रश्न-पर्याय भी द्रव्यके आश्रित रहती है और गुण रहित है इसलिये पर्यायमें भी गुणत्व आजायगा और इसीसे इस सूत्रमें अतिव्याप्ति दोष लगेगा।
उत्तर-'द्रव्याश्रयाः' पद होनेसे जो नित्य द्रव्यके आश्रित रहता है, उसकी बात है, वह गुण है, पर्याय नही है। इसीलिये 'द्रव्याश्रयाः' पदसे पर्याय उसमें नही आती। पर्याय एक समयवर्ती ही है।
__ कोई गुण दूसरे गुणके प्राश्रित नही है और एक गुण दूसरे गुण की पर्यायका कर्ता नहीं हो सकता है।
(३) इस सूत्रका सिद्धांत प्रत्येक गुण अपने अपने द्रव्यके आश्रित रहता है इसलिये एक द्रव्यका गुण दूसरे द्रव्यका कुछ नहीं कर सकता, तथा दूसरे द्रव्यको प्रेरणा, असर या मदद नहीं कर सकता, पर द्रव्य निमित्तरूपसे होता है परन्तु एक द्रव्य पर द्रव्यमें अकिंचित्कर है ( समयसार गाथा २६७ की टीका ) प्रेरणा, सहाय, मदद, उपकार आदि का कथन उपचारमात्र है अर्थात् निमित्तका मात्र ज्ञान कराने के लिये है ।। ४१ ॥
पर्याय का लक्षण तद्भावः परिणामः॥४२॥
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अध्याय ५ सूत्र ४२
४५१ मर्य-[तभावः ] जो द्रव्यका स्वभाव (निजभाव, निजतत्त्व) है [ परिणामः ] सो परिणाम है।
___टीका
(१) द्रव्य जिस स्वरूपसे होता है तथा जिस स्वरूपसे परिणमता है वह तद्भाव परिणाम है।
(२) प्रश्न-कोई ऐसा कहते है कि द्रव्य और गुण सर्वथा भिन्न है, क्या यह ठीक है?
उत्तर-नही, गुण और द्रव्य कथंचित् भिन्न है कथंचित् अभिन्न है अर्थात् भिन्नाभिन्न है। संज्ञा-सख्या-लक्षण-विषयादि भेदसे भिन्न है वस्तुरूपसे प्रदेशरूपसे अभिन्न है, क्योकि गुण द्रव्यका ही परिणाम है।
(३) समस्त द्रव्योके अनादि श्रीद आदिमान परिणाम होता है। प्रवाहरूपसे अनादि परिणाम' है, पर्याय उत्पन्न होती है-नष्ट होती है इसलिये वह सादि है। धर्म, अधर्म, आकाश, और काल इन चार द्रव्योके अनादि तथा आदिमान परिणाम आगम गम्य हैं तथा जीव और पुद्गलके अनादि परिणाम आगम गम्य है किन्तु उसके आदिमान परिणाम कथचित् प्रत्यक्ष भी हैं।
(४) गुणको सहवर्ती अथवा अक्रमवर्ती पर्याय कहा जाता है और पर्यायको क्रमवर्ती पर्याय कहा जाता है।
(५) क्रमवर्ती पर्यायके स्वरूप नियमसार गाथा १४ की टीकामें कहा है "जो सर्व तरफसे भेदको प्राप्त हो-परिणमन करे-सो पर्याय है।"
द्रव्य-गुण और पर्याय-ये वस्तुके तीन मैद कहे है, परन्तु नय तो द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक दो ही कहे हैं, तीसरा 'गुरणार्थिक' नय नहीं कहा, इसका क्या कारण है ? तथा गुण क्या नयका विषय है ? इसका खुलासा पहले प्रथम अध्यायके सूत्र ६ की टीका पृष्ठ ३१-३२ मे दिया है ।
(५) इस सूत्रका सिद्धान्त सूत्र ४१ में जो सिद्धांत कहा है उसी प्रमाणसे वह यहां भी लागू
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४५२
मोक्षशास्त्र होता है अर्थात् प्रत्येक द्रव्य अपने भावसे परिणमता है, परके भावसे नहीं परिणमता; अतः यह सिद्ध हुआ कि प्रत्येक द्रव्य अपना काम कर सकता है किन्तु दूसरेका नहीं कर सकता ॥ ४२ ॥
उपसंहार इस पांचवें अध्यायमें मुख्यरूपसे अजीवतत्वका कथन है। अजीव तत्त्वका कथन करते हुए, उसका जीवतत्त्वके साथ संबंध बतानेकी पावश्यकता होने पर जीवका स्वरूप भी यहां बताया गया है। पुनरपि छहों द्रव्योंका सामान्य स्वरूप भी जीव और अजीवके साथ लागू होनेके कारण कहा है इस तरह इस अध्यायमें निम्न विषय आये हैं
(१) छहों द्रव्योंके एक समान रीतिसे लागू होनेवाले नियमका स्वरूप, (२) द्रव्योंकी संख्या और उनके नाम, (३) जीवका स्वरूप, (४) अजीवका स्वरूप, (५) स्याद्वाद सिद्धांत और (६) अस्तिकाय ।
(१) छहों द्रव्योंको लागू होनेवाला स्वरूप (१) द्रव्यका लक्षण अस्तित्व ( होनेरूप-विद्यमान ) सत् है (सूत्र२६ ) (२) विद्यमान-(सत्का) का लक्षण यह है कि त्रिकाल कायम रहकर प्रत्येक समयमें जूनी अवस्थाको दूर ( व्यय ) कर नई अवस्था उत्पन्न करना । ( सूत्र ३०) (३) द्रव्य अपने गुण और अवस्था वाला होता है, गुण द्रव्यके आश्रित रहता है और गुणमें गुण नहीं होता। वह निजका जो भाव है, उस भावसे परिणमता है ( सूत्र ३८, ४२) (४) द्रव्यके निज - भावका नाश नही होता इसलिये नित्य है और परिणमन करता है इस-) लिये अनित्य है । ( सूत्र ३१, ४२)
(२) द्रव्यों की संख्या और उनके नाम १-जीव अनेक है ( सूत्र ३ ), प्रत्येक जीवके असंख्यात प्रदेश हैं (सूत्र ८) वह लोकाकाशमें ही रहता है (सूत्र १२), जीवके प्रदेश संकोच और विस्तारको प्राप्त होते है इसीलिये लोकके असंख्यातवें भागसे लेकर समस्त लोकके अवगाह रूपसे है (सूत्र ५, १५), लोकाकाशके जितने प्रदेश
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ध्याय ५ उपसंहार
४५३ हैं उतने ही जीवके प्रदेश हैं । एक जीवके, धर्मद्रव्यके और अधर्मद्रव्यके प्रदेशोंकी संख्या समान है ( सूत्र ८ ); परन्तु जीवके अवगाह और धर्म द्रव्य तथा अधर्म द्रव्यके अवगाहमें अंतर है । 'धर्म-अधर्म द्रव्य समस्त लोकाकाश में व्याप्त हैं जबकि जीवके प्रदेश संकोच और विस्तारको प्राप्त होते हैं । ( सूत्र १३, १६ )
(२) जीवको विकारी अवस्था में, सुख-दुख तथा जीवन-मरणमें पुद्गल द्रव्य निमित्त है; जीव द्रव्य भी परस्पर उन कार्यों में निमित्त होता है । संसारी जीवके संयोग रूपसे कार्मणादि शरीर, वचन मन और श्वासोच्छ्वास होता है ( सूत्र १६, २०, २१ ) ।
(३) जीव क्रियावान है, उसकी क्रियावती शक्तिकी पर्याय कभी गतिरूप और कभी स्थितिरूप होती है; जब गतिरूप होती है तब धर्मद्रव्य और जब स्थितिरूप होती है; तब अधर्मद्रव्य निमित्त है । (सूत्र १७ )
(४) जीव द्रव्यसे नित्य है, उसकी संख्या एक सदृश रहनेवाली है और वह रूपी है ( सूत्र ४ )
नोटः- छहों द्रव्योंका जो स्वरूप ऊपर नं० (१) में चार पहलुसे बतलाया है वही स्वरूप प्रत्येक जीवद्रव्य के लागू होता है । प्र० सूत्र ८ में जीवका लक्षण उपयोग कहा जा चुका है ।
(४) अजीवका स्वरूप
जिनमे ज्ञान नही है ऐसे अजीव द्रव्य पाँच हैं—- १ - एक धर्म, २एक अधर्मं, ३ - एक आकाश, ४–अनेक पुद्गल तथा ५ - प्रसंख्यात काला ( सूत्र १, ३९ ) । अब पाँच उपविभागों द्वारा उन पाँचों द्रव्योका स्वरूप कहा जाता है ।
( अ ) धर्मद्रव्य
धर्मद्रव्य एक, अजीव, बहुप्रदेशी है । (सूत्र १, २, ६) वह नित्य, अवस्थित, अरूपी और हलन चलन रहित है ( सूत्र ४, ७) । इसके लोकाकाश जितने असख्य प्रदेश हैं और वह समस्त लोकाकाशमें व्याप्त है (सूत्र ८, १३) वह स्वयं हलन चलन करनेवाले जीव तथा पुद्गलोंको गति
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४५४
मोक्षशास्त्र में निमित्त है (सूत्र १७) । उसे अवकाश देने में आकाश निमित्त है और परिणमनमें काल निमित्त है (सूत्र १८, २२) अरूपी ( सूक्ष्म ) होनेसे धर्म और अधर्म द्रव्य लोकाकाशमें एक समान (एक दूसरेको व्याघात पहुँचाये बिना ) व्याप्त हो रहे हैं ( सूत्र १३)
(ब) अधर्म द्रव्य उपरोक्त समस्त बातें अधर्मद्व्यके भी लागू होती है इतनी विशेषता है कि धर्मद्रव्य जीव-पुद्गलोंको गतिमें निमित्त है तब अधर्मद्रव्य ठहरे हुये जीव-पुद्गलोंको स्थितिमें निमित्त है।
(क) आकाशद्रव्य आकाशद्रव्य एक, अजीव, अनन्त प्रदेशी है। (सूत्र १, २, ६, ६) नित्य अवस्थित, अरूपी और हलन चलन रहित है। (सूत्र ४, ७) अन्य पांचों द्रव्योंको अवकाश देनेमें निमित्त है। (सूत्र १८ ) उसके परिणमनमें कालद्रव्य निमित्त है (सूत्र २२)। आकाशका सबसे छोटा भाग प्रदेश है।
(ड) कालद्रव्य कालद्रव्य प्रत्येक अणुरूप, अरूपी, अस्तिरूपसे किन्तु कायरहित, नित्य और अवस्थित अजीव पदार्थ है ( सूत्र २, ३६, ४) वह समस्त द्रव्योके परिणमनमे निमित्त है ( सूत्र २२ ) कालद्रव्यको स्थान देने में प्राकाश द्रव्य निमित्त है ( सूत्र १८) एक आकाशके प्रदेशमें रहे हुये अनन्त द्रव्योंके परिणमनमें एक कालाणु निमित्त होता है, इस कारणसे उसे उपचारसे अनन्त समय कहा जाता है तथा भूत भविष्यकी अपेक्षासे अनन्त है । कालकी एक पर्यायको समय कहते है। ( सूत्र ४० )
(इ) पुद्गलद्रव्य (१) यह पुद्गल द्रव्य अनन्तानन्त हैं, वह प्रत्येक एक प्रदेशी है ( सूत्र १, २, १०, ११)। उसमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि विशेप गुण हैं अतः वह रूपी है ( मूत्र २३, ५) उन विशेष गुणोमें से स्पर्ग गुणकी
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अध्याय ५ उपसंहार
४५५ स्निग्ध या रूक्षकी जब अमुक प्रकारको अवस्था होती है तब बन्ध होता है ( सूत्र ३३ ) बन्ध प्राप्त पुद्गलोंको स्कंध कहा जाता है। उनमेसे जीवके संयोगरूप होनेवाले स्कंध शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छ्वासरूपसे परिणमते हैं (सूत्र २५, १६) । कितनेक स्कंध जीवके सुख, दुःख, जीवन और मरणमे निमित्त होते हैं ( सूत्र २० )।
(२) स्कन्धरूपसे परिणमे हुये परमाणु संख्यात असंख्यात और अनंत होते हैं। तथा बन्धकी ऐसी विशेषता है कि एक प्रदेशमें अनेक रहते हैं, अनेक स्कन्ध संख्यात प्रदेशोंको और असंख्यात प्रदेशोंको रोकते हैं तथा एक महास्कंघ लोक प्रमाण असंख्यात आकाशके प्रदेशोंको रोकता है ( सूत्र १०, १४, १२)
(३) जिस पुद्गलको स्निग्धता या रूक्षता जघन्यरूपसे हो वह बन्धके पात्र नहीं तथा एक समान गुणवाले पुद्गलोंका बन्ध नही होता ( सूत्र ३४, ३५)। जघन्य गुणको छोड़कर दो अंश ही अधिक हों वहाँ स्निग्धका स्निग्धके साथ, रूक्षका रूक्षके साथ, तथा स्निग्ध रूक्षका परस्परमें बन्ध होता है और जिसके अधिक गुण हों उसरूपसे समस्त स्कंध हो जाता है ( सूत्र ३६, ३७ ) स्कंधकी उत्पत्ति परमाणुओके भेद (छूट पडनेसे-अलग होनेसे ) संघात ( मिलनेसे ) अथवा एक ही समय दोनो प्रकारसे ( भेद-संघातसे ) होती है (सूत्र २६) और अणुकी उत्पत्ति भेदसे होती है ( सूत्र २७ ) भेद संघात दोनोंसे मिलकर उत्पन्न हुआ स्कंध चक्षुइन्द्रियगोचर होता है (सूत्र २८ )।
(४) शब्द, बन्ध, सूक्ष्म, स्थूल, सस्थान, भेद, तम, छाया, तप और उद्योत ये सब पुद्गलकी पर्यायें है ।
(५) पुद्गल द्रव्यके हलन चलनमें धर्मद्रव्य और स्थितिमें अधर्मद्रव्य निमित्त है ( सूत्र १७ ); अवगाहनमे आकाशद्रव्य निमित्त है और परिणमनमें कालद्रव्य निमित्त है ( सूत्र १८, २२)।
(६ ) पुद्गल स्कंधोको शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छ्वास रूपसे परिणमानेमे जीव निमित्त है ( सूत्र १९ ); वन्धरूप होने में परस्पर निमित्त है ( सूत्र ३३ ) ।
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४५६
मोक्षशाख नोट-स्निग्धता और रूक्षताके अनन्त अविभाग प्रतिच्छेद होते हैं । एक अविभागी अंशको गुण कहते है ऐसा यहाँ गुण शब्दका अर्थ है।
(५) स्याद्वाद सिद्धांत प्रत्येक द्रव्य गुण-पर्यायात्मक है, उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्त सत् है, सप्त भंगस्वरूप है । इस तरह द्रव्यमें त्रिकाली अखंड स्वरूप और प्रत्येक समयमें प्रवर्तमान अवस्था-ऐसे दो पहलू होते हैं । पुनरपि स्वयं स्व से अस्तिरूप है और परसे नास्तिरूप है । इसीलिये द्रव्य, गुण और पर्याय सब अनेकांतात्मक ( अनेक धर्मरूप ) हैं । अल्पज्ञ जीव किसी भी पदार्थका विचार क्रमपूर्वक करता है, परन्तु समस्त पदार्थको एक साथ विचार में नहीं ले सकता; विचारमें आनेवाले पदार्थके भी एक पहलूका विचार कर सकता है और फिर दूसरे पहलूका विचार कर सकता है । इसप्रकार उसके विचार और कथनमे क्रम पड़े बिना नहीं रहता। इसीलिये जिस समय त्रिकाली ध्रुव पहलूका विचार करे तब दूसरे पहलू विचारके लिये मुल्तवी रहें। अतः जिसका विचार किया जावे उसे मुख्य और जो विचार मे बाकी रहे उन्हें गौरण किया जावे । इसप्रकार वस्तुके अनेकांतस्वरूपका निर्णय करने में क्रम पड़ता है । इन अनेकांतस्वरूपका कथन करनेके लिये तथा उसे समझनेके लिये उपरोक्त पद्धति ग्रहण करना, इसीका नाम 'स्याद्वाद' है । और वह इस अध्यायके ३२ वे सूत्र में बताया है। जिससमय जिस पहलू ( अर्थात् धर्म ) को ज्ञानमे लिया जावे उसे 'अर्पित' कहा जाता है और उसी समय जो पहलू अर्थात् धर्म ज्ञानमें गौण रहे हों वह 'अनर्पित' कहलाता है । इस तरह समस्त स्वरूपकी सिद्धि-प्राप्ति-निश्चितज्ञान हो सकता है। उस निखिल पदार्थके ज्ञानको प्रमाण और एक धर्मके ज्ञानको नय कहते है, और 'स्यात् अस्ति-नास्ति' के भेदों द्वारा उसी पदार्थके ज्ञानको 'सप्तभगी' स्वरूप कहा जाता है।
(६) अस्तिकाय छह द्रव्योमें से जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये पांच र अनेरात अने+अन्त (धर्म ) = अनेक धर्म ।
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अध्याय ५ उपसंहार
४५७ अस्तिकाय हैं ( सूत्र १, २, ३ ); और काल अस्ति है (सूत्र २, ३९) किंतु काय-बहुप्रदेशी नही है ( सूत्र १)
(७) जीव और पुद्गल द्रव्यकी सिद्धि १-२
(१) 'जोव' एक पद है और इसीलिये वह जगत् की किसी वस्तु को-पदार्थको बतलाता है, इसलिये अपने को यह विचार करना है कि वह क्या है । इसके विचारनेमें अपने को एक मनुष्यका उदाहरण लेना चाहिये जिससे विचार करने मे सुगमता हो।
(२) हमने एक मनुष्यको देखा, वहाँ सर्व प्रथम हमारी दृष्टि उसके शरीर पर पड़ेगी तथा यह भी ज्ञात होगा कि वह मनुष्य ज्ञान सहित पदार्थ भी है । ऐसा जो निश्चित् किया कि शरीर है वह इन्द्रियोसे निश्चित किया किंतु उस मनुष्यके ज्ञान है ऐसा जो निश्चय किया वह इन्द्रियोंसे निश्चित नहीं किया, क्योंकि अरूपी ज्ञान इंद्रियगम्य नहीं है, किन्तु उस मनुष्य के वचन, या शरीरकी चेष्टा परसे निश्चय किया गया है। उनमें से इन्द्रियों द्वारा शरीरका निश्चय किया, इस ज्ञानको अपन इन्द्रियजन्य कहते है और उस मनुष्यमें ज्ञान होने का जो निश्चय किया सो अनुमानजन्य ज्ञान है।
(३) इसप्रकार मनुष्यमें हमें दो भेद मालूम हुए-१-इन्द्रियजन्य ज्ञानसे शरीर, २-अनुमान जन्य ज्ञानसे ज्ञान । फिर चाहे किसी मनुष्य के ज्ञान अल्पमात्रमे प्रगट हो या किसी के ज्यादा-विशेष ज्ञान प्रगट हो। हमें यह निश्चय करना चाहिये कि उन दोनों बातों के जानने पर वे दोनों एक ही पदार्थ के गुण हैं या भिन्न २ पदार्थो के वे गुण हैं ?
(४) जिस मनुष्यको हमने देखा उसके सम्बन्धमे निम्न प्रकार से दृष्टांत दिया जाता है।
(१) उस मनुष्यके हाथमे कुछ लगा और शरीरमें से खून निकलने लगा।
(२) उस मनुष्य ने रक्त निकलता हुआ जाना और वह रक्त तुरंत ही बन्द हो जाय तो ठीक, ऐसी तीन भावना भाई।
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मोक्षशास्त्र
(३) किन्तु उसी समय रक्त ज्यादा ( निकलने लगा, और कई उपाय किये, किन्तु उसके बन्द होने में बहुत समय लगा ।
(४) रक्त बन्द होने के बाद हमें जल्दी आराम हो जाय ऐसी उस मनुष्य ने निरन्तर भावना करना जारी रखी।
1
(५) किन्तु भावना के अनुसार परिणाम निकलनेके बदले में वह
४५८
भाग सड़ता गया ।
4.
F
(६) उस मनुष्यको शरीरमें ममुत्वके कारण बहुत दुःख हुआ और उसे उस दुःखका अनुभव भी हुआ ।
(७) दूसरे सगे सम्बन्धियोंने यह ज्ञाना कि उस मनुष्यको दुःख होता है, किन्तु वे उस मनुष्यके दुःख के अनुभवका कुछ भी अंश न ले सके ।
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(८) अंतमें उसने हाथके सड़े हुए भागको कटवाया ।
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(e) वह हाथ कटा तथापि उस मनुष्यका ज्ञान उतना ही रहा और विशेष अभ्याससे ज्यादा बढ़ गया और बाकी रहा. हुआ शरीर बहुत कमजोर होता गया तथा वजनमे भी घटता गया ।
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(१०) शरीर कमजोर हुआ तथापि उसके ज्ञानाभ्यास के बलसे धैर्य रहा और शांति बढ़ी ।
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५—हमे यह जानना चाहिये कि ये दश बातें क्या सिद्ध करती है | मनुष्यमें विचार शक्ति ( Reasoning Faculty ) है और वह तो प्रत्येक मनुष्यके अनुभवगम्य है । अब विचार करने पर निम्न सिद्धांत प्रगट होते हैं:
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(१) शरीर और ज्ञान धारण करनेवाली वस्तु ये दोनों पृथक २ पदार्थ है, क्योंकि उस ज्ञान धारण करनेवाली वस्तुने' 'खून तत्क्षरंग ही बंद हो जाय तो ठीक हो' ऐसी इच्छा की तथापि खून बंद नही हुआ; इतना ही नही किन्तु इच्छासे विरुद्ध शरीरकी और खूनकी अवस्था हुई'। यदि शरीर और ज्ञान धारण करनेवाली वस्तु ये दोनों एक ही हों तो ऐसा न हो । (२) यदि वह दोनों वस्तुयें एक ही होती तो जब ज्ञान करने
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४५९
अध्याय ५ उपसंहार वाले ने इच्छा की उसी समय खून बन्द हो जाता ।
(३) यदि वह दोनों एक ही वस्तु होती तो रक्त तुरंत ही बंद हो जाता, इतना ही नही किन्तु ऊपर नं० (४-५ ) में बताये गये माफिक भावना करनेके कारण शरीरका वह भाग भी नही सडता, इसके विपरीत जिस समय इच्छा की उस समय तुरन्त ही आराम हो जाता। किंतु दोनों पृथक होनेसे वैसा नही होता।
(४) ऊपर नं० (६-७) में जो हकीकत बतलाई है वह सिद्ध करती है कि जिसका हाथ सड़ा है वह और उसके सगे सम्बन्धी सब स्वतंत्र पदार्थ है। यदि वे एक ही होते तो वे उस मनुष्यका दुःख एक होकर भोगते और वह मनुष्य अपने दुःखका भाग उनको देता अथवा घनिष्ट सम्बन्धीजन उसका दुःख लेकर वे स्वयं भोगते, किन्तु ऐसा नही बन सकता, अतः यह सिद्ध हुआ कि वे भी इस मनुष्यसे भिन्न स्वतंत्र ज्ञानरूप और शरीर सहित व्यक्ति है।
(५) ऊपर नं० (८-६) में जो वृत्त बतलाया है यह सिद्ध करता है कि शरीर संयोगी पदार्थ है; इसीलिये हाथ जितना भाग उसमें से अलग हो सका। यदि वह एक अखंड पदार्थ होता तो हाथ जितना टुकड़ा काटकर अलग न किया जा सकता। पुनश्च वह यह सिद्ध करता है कि शरीरसे ज्ञान स्वतंत्र है क्योंकि शरीरका अमुक भाग कटाया तथापि उतने प्रमाणमे ज्ञान कम नही होता किन्तु उतना ही रहता है, और यद्यपि शरीर कमजोर होता जाय तथापि ज्ञान बढता जाता है अर्थात् यह सिद्ध हुआ कि शरीर और ज्ञान दोनों स्वतत्र वस्तुऐ है।।
(६) उपरोक्त न० (१०) से यह सिद्ध हुआ कि यद्यपि ज्ञान बढा तो भी वजन नही बढ़ा परन्तु ज्ञानके साथ सम्बन्ध रखनेवाले धैर्य, शाति आदिमें वृद्धि हुई, यद्यपि शरीर वजनमें घटा तथापि ज्ञानमे घटती नही हुई, इसलिये ज्ञान और शरीर ये दोनो भिन्न, स्वतत्र, विरोधी गुणवाले पदार्थ हैं। जैसे कि-(अ) शरीर वजन सहित और ज्ञान वजन रहित है (ब) शरीर घटा, ज्ञान बढ़ा, (क) शरीरका भाग कम हुआ, ज्ञान उतना ही रहा और फिर बढ़ा; ( ड ) शरीर इन्द्रिय गम्य है, संयोगी है और अलग हो
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मोक्षशास्त्र सकता है, किसी दूसरी जगह उसका भाग अलग होकर रह सकता है, ज्ञानवस्तु इन्द्रियगम्य नही किन्तु ज्ञानगम्य है उसके टुकड़े या हिस्से नहीं हो सकते क्योंकि वह असंयोगी है, और सदा अपने द्रव्य-क्षेत्र (आकार) काल और भावोंसे अपनेमें अखंडित रहता है। और इसलिये उसका कोई भाग अलग होकर अन्यत्र नहीं रह सकता तथा किसीको दे नही सकता; (इ) यह संयोगी पदार्थसे शरीर बना है, उसके टुकड़े हिस्से हो सकते है, परंतु ज्ञान नही मिलता; किसी संयोगसे कोई अपना ज्ञान दूसरेको दे नहीं सकता किन्तु अपने अभ्याससे ही ज्ञान बढ़ा सकनेवाला, असंयोगी और निजमें से आनेवाला होनेसे ज्ञान स्व के ही-आत्माके ही प्राश्रित रहने वाला है।
(७) 'ज्ञान' गुण वाचक नाम है, वह गुणी बिना नही होता इसलिये ज्ञान गुणकी धारण करनेवाली ऐसी एक वस्तु है । उसे जीव, आत्मा, सचेतन पदार्थ, चैतन्य इत्यादि नामोंसे पहिचाना जा सकता है। इस तरह जीव पदार्थ ज्ञान सहित, असंयोगी, अरूपी और अपने ही भावोंका अपने में का-भोक्ता सिद्ध हुआ और उससे विरुद्ध शरीर ज्ञान रहित, अजीव, संयोगी रूपी पदार्थ सिद्ध हुआ; वह पुद्गल नामसे पहचाना जाता है। शरीर के अतिरिक्त जो जो पदार्थ दृश्यमान होते हैं वे सभी शरीरकी तरह पुगल ही है । और वे सब पुद्गल सदा अपने ही भावोका अपने में कर्ताभोक्ता हैं जीवसे सदा भिन्न होने पर भी अपना कार्य करने में सामर्थ्यवान है।
(८) पुनश्च ज्ञानका ज्ञानत्व कायम रहकर उसमे हानि वृद्धि होती है। उस कमावेशीको ज्ञानकी तारतम्यतारूप अवस्था कहा जाता है। शास्त्रकी परिभाषामे उसे 'पर्याय' कहते हैं। जो नित्य ज्ञानत्व स्थिर रहता है सो 'ज्ञानगुण' है ।
(६) शरीर संयोगी सिद्ध हुआ इसलिये वह वियोग सहित ही होता है। पुनश्च शरीरके छोटे २ हिस्से करें तो कई हों और जलाने पर राख हो। इसीलिये यह सिद्ध हुआ कि शरीर अनेक रजकरणोंका पिंड है। जैसे जीव और ज्ञान इंद्रियगम्य नहीं किंतु विचार (Reasoning) गम्य है उसी तरह पुद्गलरूप अविभागी रजकण भी इंद्रियगम्य नही किंतु ज्ञानगम्य है।
(१०) शरीर यह मूल वस्तु नही किन्तु अनेक रजकरणोका पिंड है
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अध्याय ५ उपसंहार
४६१ और रजकण स्वतंत्र वस्तु है अर्थात् असंयोगी पदार्थ है । और स्वयं परिणमनशील है।
(११) जीव और रजकण असंयोगी हैं अतः यह सिद्ध हुआ कि वे अनादि अनन्त है; क्योकि जो पदार्थ किसी संयोगसे उत्पन्न न हुआ हो उसका कदापि नाश भी नही होता।
(१२) शरीर एक स्वतत्र पदार्थ नहीं है किन्तु अनेक पदार्थोकी संयोगी अवस्था है। अवस्था हमेशा प्रारम्भ सहित ही होती है इसलिये शरीर शुरुआत-प्रारम्भ सहित है। वह संयोगी होनेसे वियोगी भी है।
६-जीव अनेक और अनादि अनन्त है तथा रजकरण अनेक और अनादि अनन्त है । एक जीव किसी दूसरे जीवके साथ पिंडरूप नही हो सकता; परन्तु स्पर्शके कारण रजकण पिंडरूप होता है। अतः यह सिद्ध हुआ कि द्रव्यका लक्षण सत्, अनेक द्रव्य, रजकरण, उसके स्कंध, उत्पादव्यय-ध्रौव्य इत्यादि विषय इस अध्यायमें कहे गये है।
७--इस तरह जीव और पुद्गलका पृथक्त्व तथा मनादि अनन्तत्व सिद्ध होने पर निम्न लौकिक मान्यतायें असत्य ठहरती है:
(१) अनेक रजकणोके एकमेक रूप होनेपर उनमेसे नया जीव उत्पन्न होता है यह मान्यता असत्य है क्योंकि रजकरण सदा ज्ञान रहित जड़ है इसीलिये ज्ञान रहित कितने भी पदार्थोका संयोग हो तो भी जीव उत्पन्न नहीं होता । जैसे अनेक अधकारोंके एकत्रित करने पर उनमेंसे प्रकाश नहीं होता उसी तरह अजीवमेसे जीवकी उत्पत्ति नहीं होती।
(२) ऐसी मान्यता असत्य है कि जीवका स्वरूप क्या है वह अपने को मालुम नहीं होता; क्योकि ज्ञान क्या नहीं जानता ? ज्ञानको रुचि बढ़ानेपर आत्माका स्वरूप बराबर जाना जा सकता है । इसलिये यह विचारसे गम्य है ( Reasoning-दलीलगम्य ) है ऐसा ऊपर सिद्ध किया है।
(३) कोई ऐसा मानते हैं कि जीव और शरीर ईश्वरने बनाये, किन्तु यह मान्यता असत्य है, क्योकि दोनों पदार्थ अनादि अनंत है, अनादि अनन्त पदार्थोंका कोई कर्ता हो ही नही सकता।
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मोक्षशास्त्र -उपरोक्त पैरा ४ के पैरेमें जो १० उप पैरा दिया है उस परसे यह सिद्ध होता है कि यदि जीव शरीरका कुछ कर सकता है अथवा शरीर जीवका कुछ कर सकता है ऐसी मान्यता मिथ्या है । इस विषयका सिद्धांत इस अध्यायके सूत्र ४१ की टीकामें भी दिया है।
(८) उपादान-निमिच संबंधी सिद्धांत जीव, पुद्गलके अतिरिक्त दूसरे चार द्रव्योंकी सिद्धि करनेसे पहले हमें उपादान निमित्तके सिद्धांतको और उसकी सिद्धिको ससझ लेना आवश्यक है। उपादान अर्थात् वस्तुको सहज शक्ति-निजशक्ति और निमित्तका अर्थ है संयोगरूप परवस्तु ।
इसका दृष्टांत-एक मनुष्यका नाम देवदत्त है; इसका यह अर्थ है कि देवदत्त स्वयं स्व से स्व-रूप है किंतु वह यज्ञदत्त इत्यादि किसी दूसरे पदार्थ रूप नही है, ऐसा समझनेसे दो पदार्थ भिन्नरूपसे सिद्ध होते हैं, १-देवदत्त स्वयं २-यज्ञदत्त इत्यादि दूसरे पदार्थ । देवदत्तका अस्तित्व सिद्ध करने में दो कारण हुये:-(१) देवदत्त स्वयं ( २ ) यज्ञदत्त इत्यादि दूसरे पदार्थ जो जगत्में सद्भावरूप हैं किन्तु उनका देवदत्त, अभाव । इन दो कारणोंमें देवदत्तका स्वयंका अस्तित्व निजशक्ति होनेसे मूलकारण अर्थात् उपादानकारण है और जगत्के यज्ञदत्त इत्यादि दूसरे पदार्थोका अपने-अपने में सद्भाव और देवदत्तमें अभाव वह देवदत्तका अस्तित्व सिद्ध करनेमें निमित्त कारण है । यदि इस तरह न माना जाये और यज्ञदत्त आदि अन्य किसी भी पदार्थका देवदत्तमे सद्भाव माना जावे तो वह भी देवदत्त होजायगा। ऐसा होनेसे देवदत्तकी स्वतंत्रसत्ताही सिद्धनही होसकेगी।
पुनश्च यदि यज्ञदत्त इत्यादि दूसरे पदार्थोकी सत्ता ही-सद्भाव ही न मानें तो देवदत्तका अस्तित्व भी सिद्ध नही हो सकता, क्योकि एक मनुष्य को दूसरेसे भिन्न वतानेके लिये उसे देवदत्त कहा, इसलिये देवदत्तके सत्तास्पमे देवदत्त मूल उपादानकारण और जिससे उसे पृथक् वतलाया वैसे अन्य पदार्थ सो निमित्त कारण है-इससे ऐसा नियम भी सिद्ध हुआ कि निमित्तकारण उपादानके लिये अनुक्ल होता है किंतु प्रतिकूल नहीं होता । देवदत्त के देवदत्तपने में परद्रव्य उसके अनुकूल है, क्योकि वे देवदत्तरूप नही
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अध्याय ५ उपसंहार होते। यदि वे देवदत्तरूप से हो जायें तो प्रतिकूल हो जायें और ऐसा होने पर दोनोंका ( देवदत्त और परका ) नाश हो जाए।
इसतरह दो सिद्धात निश्चित हुए-(१) प्रत्येक द्रव्य-गुण-पर्याय की जो स्वसे अस्ति है सो उपादानकारण है और परद्रव्य-गुण-पर्यायको जो उसमें नास्ति है सो निमित्तकारण है, निमित्तकारण तो मात्र प्रारोपित कारण है, यथार्थ कारण नहीं है तथा वह उपादानकारणको कुछ भी नहीं करता। जीवके उपादानमें जिस जातिका भाव हो उस भावको अनुकूलरूप होनेका निमिसमे आरोप किया जाता है। सामने सत् निमित्त हो तथापि कोई जीव यदि विपरीत भाव करे तो उस जीवके विरुद्धभावमे भी उपस्थित वस्तुको अनुकूल निमित्त बनाया-ऐसा कहा जाता है। जैसे कोई जीव तीर्थङ्कर भगवानके समवशरणमें गया और दिव्यध्वनिमे वस्तुका जो यथार्थस्वरूप कहा गया वह सुना, परन्तु उस जीवके गलेमे बात नही उतरी अर्थात् स्वयं समझा नही इसलिये वह विमुख हो गया तो कहा जाता है कि उस जीवने अपने विपरीत भावके लिये भगवानकी दिव्यध्वनिको अनुकूल निमित्त बनाया।.. ' (९) उपरोक्त सिद्धांतके आधारसे जीव, पुद्गलके अतिरिक्त
. .. चार' द्रव्योंकी सिद्धि __ दृष्टिगोचर होनेवाले पदार्थो में चार बातें देखने में आती है, (१) ऐसा देखा जाता है कि वहापदार्थ ऊपर, नीचे, यहाँ, वहाँ है । (२) वही पदार्थ अभी, फिर, जब, तब, तभीसे अभीतक-इसतरह देखा जाता है (३) वही-पवार्थ स्थिर, स्तब्धा, निश्चल इस तरहसे देखा जाता है और (४) वही पदार्थ हिलता-डुलता, चंचल, अस्थिर देखा जाता है। यह चार बोतें पदार्थों को देखनेपर स्पष्ट समझमे आती है, तो भी इन विषयों द्वारा पदार्थोकी किंचित् आकृति नहीं बदलती। उन उन कार्योंका उपादान कारण तो वह प्रत्येक द्रव्य है, किंतु उन चारों प्रकारकी क्रिया भिन्न भिन्न प्रकार को होनेसे उस क्रियाके सूचक निमित्त कारण पृथक् ही होते हैं । . . इस सम्बन्धमे यह ध्यान रखना कि किसी पदार्थमे पहली, दूसरी
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मोक्षशास्त्र और तीसरी अथवा पहली, दूसरी और चौथी बातें एक साथ देखी जाती हैं। किन्तु तीसरी, चौथी और पहली अथवा तीसरी चौथी और दूसरी यह बातें कभी एक साथ नहीं होती। __अब हमें एक एक बारेमें क्रमशः देखना चाहिये।
म. आकाश की सिद्धि-३ जगतकी प्रत्येक वस्तुको अपना क्षेत्र होता है अर्थात् उसे लम्बाई. चौड़ाई होती है यानी उसे अपना अवगाहन होता है । वह अवगाहन अपना उपादान कारण हुआ और उसमें निमित्तकारणरूप दूसरी वस्तु होती है।
निमित्तकारणरूप दूसरी वस्तु ऐसी होनी चाहिये कि उसके साथ उपादान वस्तु अवगाहनमें एकरूप न हो जाय । उपादान स्वय अवगाहनरूप है तथापि अवगाहनमें जो परद्रव्य निमित्त है, उससे वह विभिन्नरूपमें कायम रहे, अर्थात् परमार्थसे प्रत्येक द्रव्य स्व-स्वके अवगाहनमें ही है।
पुनश्च, वह वस्तु जगतके समस्त पदार्थोको एक साथ निमित्त कारण चाहिये, क्योंकि जगत्के समस्त पदार्थ अनादि हैं और सभीके अपना-अपना क्षेत्र है, वह उसका अवगाहन है। अवगाहनमें निमित्त होने वाली वस्तु समस्त अवगाहन लेनेवाले द्रव्योंसे बड़ी चाहिये। जगतमें ऐसी एक वस्तु अवगाहनमे निमित्तकारणरूप है, उसे 'आकाशद्रव्य' कहा जाता है।
__और फिर जगतमें सूक्ष्म, स्थूल ऐसे दो प्रकारके तथा रूपी और अरूपी ऐसे दो प्रकारके पदार्थ हैं। उन उपादानरूप पदार्थोके निमित्तरूप से अनुकूल कोई परद्रव्य होना चाहिये और उसका उपादानसे अभाव चाहिये; और फिर अबाधित अवगाहन देनेवाला पदार्थ अरूपी ही हो सकता है । इस तरह आकाश एक, सर्व व्यापक, सबसे बड़ा, अरूपी और अनादि द्रव्यरूप सिद्ध होता है।
__ यदि आकाश द्रव्यको न माना जावे तो द्रव्यमें स्त्र क्षेत्रत्व नही रहेगा और ऊपर नीचे-यहाँ-वहाँ ऐसा निमित्तका ज्ञान करानेवाला स्थान नहीं
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अध्याय ५ उपसंहार और निमित्त दोनोंका यथार्थ ज्ञान नही कर सकता इतना ही नहीं किन्तु यदि उपादानको न माने तो निमित्तको भी नहीं मान सकेंगे और निमित्त को न मानें तो वह उपादनको नहीं मान सकेगा। दोनोंके यथार्थ रूपसे माने बिना यथार्थ ज्ञान नहीं हो सकेगा; इस तरह उपादान और निमित्त दोनोंको शून्यरूपसे अर्थात् नहीं होने रूपसे मानना पड़ेगा और इस तरह समस्त पदार्थोको शून्यत्व प्राप्त होगा, किन्तु ऐसा बन ही नही सकता।
व. कालकी सिद्धि-४ द्रव्य कायम रहकर एक अवस्था छोड़कर दूसरी अवस्था रूपसे होता है, उसे वर्तना कहते है। इस वर्तनामें उस वस्तुकी निज शक्ति उपादान कारण है, क्योकि यदि निजमें वह शक्ति न हो तो स्वयं न परिणमे । पहिले यह सिद्ध किया है कि किसी भी कार्यके लिये दो कारण स्वतंत्र रूपसे होते हैं। इसीलिये निमित्त कारण संयोगरूपसे होना चाहिये। अतः उस वर्तनामे निमित्त कारण एक वस्तु है उस वस्तुको 'काल द्रव्य' कहा जाता है और फिर निमित्त अनुक्कल होता है। सबसे छोटा द्रव्य एक रजकरण है, इसलिये उसे निमित्त कारण भी एक रजकरण बराबर चाहिये। अतः यह सिद्ध हुआ कि कालाणु एक प्रदेशी है ।
प्रश्न-~यदि काल द्रव्यको अणुप्रमाण न माने और बड़ा माने तो क्या दोष लगेगा?
उत्तर-उस अणुके परिणमन होनेमें छोटेसे छोटा समय न लगकर अधिक समय लगेगा और परिणमन शक्तिके अधिक समय लगेगा तो निज शक्ति न कहलायेगी। पुनश्च अल्पसे अल्प काल एक समय जितना न होनेसे काल द्रव्य बड़ा हो तो उसकी पर्याय बड़ी होगी। इस तरह दो समय, दो घटे, क्रमशः न होकर एक साथ होगे जो बन नही सकते। एक एक समय करके कालको बड़ा माने तो ठीक है किन्तु एक साथ लम्बा काल (अधिक समय) नही हो सकता। यदि ऐसा हो तो किसी भी समय की गिनतो न हो सके।
प्रश्न-यह सिद्ध हुआ कि कालद्रव्य एक प्रदेशी है उससे बड़ा ५६
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मोक्षशास्त्र
नहीं, परन्तु ऐसा किसलिये मानना कि कालाणु समस्त लोकमें हैं ? उत्तर—— जगत में आकाशके एक २ प्रदेश पर अनेक पुद्गल परमाणु और उतने ही क्षेत्रको रोकनेवाले सूक्ष्म अनेक पुद्गल स्कंध हैं और उनके परिणमन में निमित्त कारण प्रत्येक आकाशके प्रदेशमें एक एक काला होना सिद्ध होता है ।
प्रश्न- - एक प्रकाशके प्रदेशमें अधिक कालागु स्कंधरूप माननेमें क्या विरोध श्राता है ?
उत्तर — जिसमें स्पर्श गुरण हो उसी में स्कंधरूप बन्ध होता है और वह तो पुद्गल द्रव्य है । कालापु पुद्गल द्रव्य नहीं, अरूपी है; इसलिये उसका स्कन्ध ही नही होता ।
क. अधर्मास्तिकाय और धर्मास्तिकायकी सिद्धि ५-६
जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योंमें क्रियावती शक्ति होनेसे उनके हलन चलन होता है, किन्तु वह हलन चलन रूप क्रिया निरन्तर नहीं होती । वे किसी समय स्थिर होते और किसी समय गतिरूप होते हैं; क्योंकि स्थिरता या हलन चलनरूप क्रिया गुरण नही है किन्तु क्रियावती शक्तिकी पर्याय है । उस क्रियावती शक्तिकी स्थिरतारूप परिणमनका मूलकारण द्रव्य स्वयं है, उसका निमित्तकारण उससे अन्य चाहिये । यह पहले बताया गया है कि जगतमें निमित्तकारण होता ही है । इसीलिये जो स्थिरतारूप परिणमनका निमित्त कारण है उस द्रव्यको अधर्मंद्रव्य कहते है | क्रियावती शक्तिके हलन चलनरूप परिणमनका मूलकारण द्रव्य स्वयं है और हलन चलनमें जो निमित्त है उसे धर्मद्रव्य कहते हैं । हलन चलनका निमित्त कारण अधर्मद्रव्यसे विपरीत चाहिये और वह धर्मद्रव्य है ।
(१०) इन छह द्रव्योंके एक ही जगह होनेकी सिद्धि
हमने पहले जीव- पुद्गलकी सिद्धि करनेमे मनुष्यका दृष्टान्त लिया था उस परसे यह सिद्धि सरल होगी ।
(१) जीव ज्ञानगुण धारक पदार्थ है ।
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अध्याय ५ उपसंहार
४६७ (२) यह शरीर यह सिद्ध करता है कि शरीर संयोगी, जड़, रूपी पदार्थ है; यह भी उसी जगह है; इसका मूल अनादि-अनंत पुद्गल द्रव्य है।
(३) वह मनुष्य आकाशके किसी भागमे हमेशा होता है, इसीलिये उसी स्थान पर आकाश भी है।
(४) उस मनुष्यकी एक अवस्था दूर होकर दूसरी अवस्था होती है। इस अपेक्षासे उसी स्थानपर काल द्रव्यके अस्तित्वकी सिद्धि होती है।
(५) उस मनुष्यके जीवके असंख्यात प्रदेशमें समय समय पर एक क्षेत्रावगाह रूपसे नोकर्म वर्गणाएँ और नवीन-नवीन कर्म बंधकर वहाँ स्थिर होते हैं, इस दृष्टि से उसी स्थान पर अधर्मद्रव्यकी सिद्धि होती है।
(६) उस मनुष्यके जीवके असख्यात प्रदेशके साथ प्रतिसमय अनेक परमाणु आते जाते हैं, इस दृष्टिसे उसी स्थान पर धर्मद्रव्यकी सिद्धि होती है।
इस तरह छहों द्रव्योंका एक क्षेत्रमे अस्तित्व सिद्ध हुआ । (११) अन्य प्रकारसे कह द्रव्योंके अस्तित्वकी सिद्धि
१-२ जीवद्रव्य और पुदलद्रव्य । जो स्थूल पदार्थ दृष्टिगोचर होते हैं ऐसे शरीर, पुस्तक, पत्थर, लकड़ी इत्यादिमें ज्ञान नही है अर्थात् वे अजीव है। इन पदार्थोको तो अज्ञानी भी देखता है। उन पदार्थोमे वृद्धि-ह्रास होता रहता है अर्थात् वे मिल जाते हैं और बिछुड़ जाते हैं। ऐसे दृष्टिगोचर होनेवाले पदार्थोको पुद्गल कहा जाता है। वर्ण, गंध, रस और स्पर्श ये पुद्गल द्रव्यके गुण हैं। इसीलिये पुद्गल द्रव्य काला-सफेद, सुगन्ध-दुर्गन्ध, खट्टा-मीठा, हल्काभारी, इत्यादि रूपसे जाना जाता है; यह सब पुद्गलकी ही अवस्थायें हैं। जीव तो काला-सफेद, सुगंधित-दुर्गन्धित, इत्यादि रूपसे नही है, जीव तो ज्ञानवाला है। शब्द सुनाई देता है या बोला जाता है वह भी पुद्गलकी ही हालत है। उन पुद्गलोसे जीव अलग है। जगतमे किसी अचेत मनुष्यको देखकर कहा जाता है कि इसका चेतन कहां चला गया ? अर्थात् यह शरीर तो अजीव है, वह तो जानता नही, किन्तु जाननेवाला ज्ञान कहाँ चला गया ? अर्थात् जीव कहाँ गया ? इसमें जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योकी सिद्धि हुई।
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मोक्षशास्त्र
३ - आकाशद्रव्य
लोग श्रव्यक्तरूपसे यह तो स्वीकार करते हैं कि 'आकाश' नामका द्रव्य है । दस्तावेजोंमें ऐसा लिखते है कि "अमुक मकान इत्यादि स्थानका आकार से पाताल पर्यन्त हमारा हक है" अर्थात् यह निश्चय हुआ कि श्राकाशसे पाताल रूप कोई एक वस्तु है । यदि आकाशसे पाताल पर्यन्त कोई वस्तु ही न हो तो ऐसा क्यों लिखा जाता है कि 'आकाशसे पाताल तकका हक (-दावा ) हे ? वस्तु है इसलिये उसका हक माना जाता है । आकाशसे पाताल तक अर्थात् सर्वव्यापी रही हुई वस्तुको 'आकाश द्रव्य' कहा जाता है । यह द्रव्य ज्ञान रहित और अरूपी है, उसमे रङ्ग, रस वगैरह नहीं हैं |
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४ - कालद्रव्य
जीव, पुद्गल और आकाश द्रव्यको सिद्ध किया; अब यह सिद्ध किया जाता है कि 'काल' नामकी एक वस्तु है । लोग दस्तावेज कराते और उसमें लिखाते है कि " यावत् चन्द्रदिवाकरो जब तक सूर्य और चन्द्र रहेगे तब तक हमारा हक है ।" इसमें काल द्रव्यको स्वीकार किया । इसी समय ही हक है ऐसा नही किन्तु काल जैसा बढ़ता जाता है उस समस्त कालमें हमारा हक है; इसप्रकार कालको स्वीकार करता है | "हमारा वैभव भविष्यमे ऐसा ही बना रहो"- -- इस भावना में भी भविष्यत कालको भी स्वीकार किया, और फिर ऐसा कहते हैं कि 'हम तो सात पैढ़ीसे सुखी हैं, वहाँ भी भूतकाल स्वीकार करता है । भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यतकाल ये समस्त भेद निश्चय कालद्रव्यकी व्यवहार पर्याय के हैं । यह काल द्रव्य भी श्ररूपी है और उसमे ज्ञान नही है ।
इस तरह जीव, पुद्गल, आकाश और काल द्रव्यकी सिद्धि हुई । अब धर्म और अधर्म ये दो द्रव्य शेष रहे ।
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धर्मद्रव्य
जीव इस धर्म द्रव्यको भी श्रव्यक्तरूपसे स्वीकार करता है । छहों द्रव्योंके अस्तित्वको स्वीकार किये विना कोई भी व्यवहार नही चल सकता । श्राना, जाना, रहना इत्यादि सभीमे छहों द्रव्योंकी अस्ति सिद्ध हो जाती है ।
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अध्याय ५ उपसंहारा
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चार द्रव्य तो सिद्ध हो चुके हैं अब बाकीके दो द्रव्य सिद्ध करना है । यह कहने में धर्म द्रव्य सिद्ध हो जाता है कि 'एक ग्रामसे दूसरे ग्राम आया ।' एक ग्रामसे दूसरे ग्राम आया इसका क्या अर्थ है ? यानि जीव और शरीर के परमाणुओं की गति हुई, एक क्षेत्रसे दूसरा क्षेत्र बदला । अब इस क्षेत्र बदलनेके कार्य में किस द्रव्यको निमित्त कहेगे ? क्योंकि ऐसा नियम है कि प्रत्येक कार्य में उपादान और निमित्त कारण होता ही है । यह विचार करते है कि जीव और पुलोंको एक ग्रामसे दूसरे ग्राम आनेमें निमित्त कोनसा द्रव्य है । प्रथम तो 'जीव और पुद्गल ये उपादान हैं' उपादान स्वयं निमित्त नही कहलाता । निमित्त तो उपादानसे भिन्न ही होता है, इसलिये जीव या पुद्गल ये क्षेत्रांतरके निमित्त नही । काल द्रव्य तो परिणमनमे निमित्त है अर्थात् पर्याय बदलने में निमित्त है किंतु काल द्रव्य क्षेत्रांतरका निमित्त नही है; श्राकाश द्रव्य समस्त द्रव्योंको रहनेके लिये स्थान देता है जब ये पहले क्षेत्रमें थे तब भी जीव और पुद्गलोंको प्राकाश निमित्त था और दूसरे क्षेत्रमे भी वही निमित्त है, इसलिये आकाशको भी क्षेत्रांतरका निमित्त नही कह सकते । तो फिर यह निश्चित होता है कि क्षेत्रतिररूप जो कार्य हुआ उसका निमित्त इन चार द्रव्योंके अतिरिक्त कोई अन्य द्रव्य है । गति करनेमें कोई एक द्रव्य निमित्तरूपसे है किन्तु वह कोनसा द्रव्य है इसका जीवने कभी विचार नहीं किया, इसीलिये उसकी खबर नही है । क्षेत्रांतर होनेमें निमित्तरूप जो द्रव्य है उस द्रव्यको 'धर्मद्रव्य' कहा जाता है । यह द्रव्य भी अरूपी और ज्ञान रहित है ।
६ - अधर्मद्रव्य
जिस तरह गति करनेमें धर्म द्रव्य निमित्त है उसीतरह स्थिति में उससे विरुद्ध प्रधर्मद्रव्य निमित्तरूप है । "एक क्षेत्रसे दूसरे क्षेत्रमे श्राकर स्थिर रहा" यहाँ स्थिर रहनेमें निमित्त कौन है ? आकाश स्थिर रहनेमें निमित्त नही है; क्योकि आकाशका निमित्त तो रहनेके लिये है, गति के समय भी रहने में आकाश निमित्त था, इसीलिये स्थितिका निमित्त कोई अन्य द्रव्य चाहिये वह द्रव्य 'अधर्म द्रव्य' है । यह भी प्ररूपी और ज्ञान रहित है ।
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मोक्षशास्त्र
इसप्रकार जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों की सिद्धि की । इन छहके अतिरिक्त सातवाँ कोई द्रव्य है ही नही,
और इन छहमेंसे एक भी न्यून नही है, बरावर छह ही द्रव्य हैं और ऐसा माननेसे ही यथार्थ वस्तुकी सिद्धि होती है। यदि इन छहके अतिरिक्त सातवाँ कोई द्रव्य हो तो यह बताओ कि उसका क्या कार्य है ? ऐसा कोई कार्य नही है जो इन छह से बाहर हो, इसलिये सातवां द्रव्य नही है । हीं थदि इन छह द्रव्योंमेसे एक भी कम हो तो यह बताओ कि उसका कार्य कौन करेगा ? छह द्रव्योंमेंसे एक भी द्रव्य ऐसा नही कि जिसके बिना विश्व नियम चल सके
छह द्रव्य संबंधी कुछ जानकारी १-जीव-इस जगतमें अनन्त जीव हैं। ज्ञातृत्त्व चिह्नके (विशेष गुणके ) द्वारा जीव पहचाना जाता है । क्योंकि जीवके अतिरिक्त अन्य किसी पदार्थ में ज्ञातृत्व नही है । जीव अनन्त हैं, वे सभी एक दूसरेसे बिल्कुल भिन्न है। सदैव जाननेवाले है।
२-पुद्गल-इस जगतमे अनन्तानन्त पुद्गल हैं । वह अचेतन है। स्पर्श, रस, गंध और वर्णके द्वारा पुद्गल पहचाना जाता है, क्योंकि पुदूल के सिवाय अन्य किसी पदार्थमे स्पर्श, रस, गन्ध या वर्ण नही है । जो इन्द्रियोके द्वारा जाने जाते है वे सब पुद्गलके बने हुए स्कंध है।
३-धर्म-यहाँ धर्म कहनेसे आत्माका धर्म नहीं किन्तु 'धर्म' नामका द्रव्य समझना चाहिये । यह द्रव्य एक अखण्ड और समस्त लोकमें व्याप्त है । जीव और पुद्गलोंके गमन करते समय यह द्रव्य निमित्तरूपसे पहचाना जाता है।
४-अधर्म-यहाँ अधर्म कहनेसे आत्माका दोष नही किंतु अधर्म नामका द्रव्य समझना चाहिये । यह एक अखण्ड द्रव्य है जो समस्त लोकमें व्याप्त है । जीव और पुद्गल गकमन रके जब स्थिर होते हैं तब यह द्रव्य निमित्तरूपसे जाना जाता है।
५-आकाश-यह एक अखंड सर्वव्यापक द्रव्य है । समस्त पदार्थोको स्थान देनेमे यह द्रव्य निमित्तरूपसे पहचाना जाता है । इस द्रव्यके
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अध्याय ५ उपसंहार जितने भागमें अन्य पांचों द्रव्य रहते है उतने भागको 'लोकाकाश' कहा जाता है और जितना भाग अन्य पांचों द्रव्योंसे रिक्त है उसे 'अलोकाकाश' कहा जाता है । खाली स्थानका अर्थ होता है 'अकेला अाकाश ।'
६-काल-असंख्य काल द्रव्य हैं । इस लोकके असंख्य प्रदेश हैं; उस प्रत्येक प्रदेशपर एक एक काल द्रव्य रहा हुआ है। असंख्य कालाणु हैं वे सब एक दूसरेसे अलग हैं । वस्तुके रूपान्तर ( परिवर्तन) होने में यह द्रव्य निमित्तरूपसे जाना जाता है। [ जीवद्रव्यके अतिरिक्त यह पांचों द्रव्य सदा अचेतन है, उनमें ज्ञान, सुख-या दुःख कभी नहीं हैं।] - इन छह द्रव्योंको सर्वज्ञके अतिरिक्त अन्य कोई भी प्रत्यक्ष नहीं जान सकता । सर्वज्ञदेवने ही इन छह द्रव्योंको जाना है और उन्हीने उनका यथार्थ स्वरूप कहा है। इसीलिये सर्वज्ञके सत्यमार्गके अतिरिक्त अन्य कोई मतमें छह द्रव्योंका स्वरूप हो ही नहीं सकता; क्योकि दूसरे अपूर्ण ( अल्पज्ञ ) जीव उन द्रव्योको नहीं जान सकते; इसलिये छह द्रव्योके स्वरूपकी यथार्थ प्रतीति करना चाहिये।
टोपीके दृष्टांतसे छह द्रव्योंकी सिद्धि (१) देखो यह कपड़ेकी टोपी है, यह अनन्त परमाणुओंसे मिलकर बनी है और इसके फट जाने पर परमाणु अलग हो जाते हैं। इसतरह मिलना और बिछुड़ना पुद्गलका स्वभाव है । पुनश्च यह टोपी सफेद है, दूसरी कोई काली, लाल आदि रंगकी भी टोपी होती है; रंग पुद्गल द्रव्य का चिह्न है, इसलिये जो दृष्टिगोचर होता है वह पुद्गल द्रव्य है।
(२) 'यह टोपी है पुस्तक नहीं' ऐसा जाननेवाला ज्ञान है और ज्ञान जीवका चिह्न है, अतः जीव भी सिद्ध हुआ ।
(३) अब यह विचारना चाहिये कि टोपी कहाँ रही हुई है ? यद्यपि निश्चयसे तो टोपी टोपीमे ही है, किन्तु टोपी टोपीमें ही है यह कहनेसे टोपीका बराबर ख्याल नही आ सकता, इसलिये निमित्तरूपसे यह पहचान कराई जाती है कि "अमुक स्थानमे टोपी रही हुई है।" जो स्थान कहा जाता है वह आकाश द्रव्यका अमुक भाग है, अतः आकाशद्रव्य सिद्ध हुआ।
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मोक्षशाख (४) अब यह टोपी दुहरी मुड़ जाती है जब टोपी सीधी थी तव आकाशमें थी और जब मुड़ गई तब भी आकाश में ही है, अतः आकाशके निमित्त द्वारा टोपीका दुहरापन नहीं जाना जा सकता । तो फिर टोपीकी दुहरे होनेकी क्रिया हुई अर्थात् पहले उसका क्षेत्र लम्बा था, अब वह थोड़े क्षेत्रमें रही हुई है-इस तरह टोपी क्षेत्रांतर हुई है और क्षेत्रांतर होनेमे जो वस्तु निमित्त है वह धर्मद्रव्य है।
(५) अब टोपी टेढ़ी मेढी स्थिर पड़ी है। तो यहाँ स्थिर होनेमें उसे निमित्त कौन है ? आकाशद्रव्य तो मात्र स्थान देने में निमित्त है। टोपी चले या स्थिर रहे इसमें आकाशका निमित्त नहीं है। जब टोपीने सीधी दशामेसे टेढ़ी अवस्थारूप होनेके लिये गमन किया तब धर्मद्रव्यका निमित्त था; तो अब स्थिर रहनेकी क्रियामें उसके विरुद्ध निमित्त चाहिए । गतिमें धर्मद्रव्य निमित्त था तो अब स्थिर रहनेमे अधर्मद्रव्य निमित्तरूप है।
(६) टोपी पहले सीधी थी इस समय टेढ़ी है और वह अमुक समय तक रहेगी-ऐसा जाना, वहाँ 'काल' सिद्ध हो गया । भूत, वर्तमान, भविष्य अथवा पुराना-नया, दिवस घंटा इत्यादि जो भेद होते है वे भेद किसी एक मूल वस्तुके बिना नही हो सकते, अतः भेद-पर्यायरूप व्यवहारकालका आधार-कारण-निश्चय कालद्रव्य सिद्ध हुआ । इसतरह टोपी परसे छह द्रव्य सिद्ध हुये।
इन छह द्रव्योंमेंसे एक भी द्रव्य न हो तो जगत्का व्यवहार नही चल सकता । यदि पुद्गल न हो तो टोपी ही न हो । यदि जीव न हो तो टोपीके अस्तित्वका निश्चय कौन करे? यदि आकाश न हो तो यह पहचान नही हो सकती कि टोपी कहाँ है ? यदि धर्म और अधर्म द्रव्य न हों तो टोपीमे हुआ फेरफार (क्षेत्रांतर और स्थिरता ) मालूम नहीं हो सकता और यदि काल द्रव्य न हो तो पहले जो टोपी सीधी थी वही इस समय टेढी है, ऐसा पहले और पीछे टोपीका अस्तित्व निश्चित नही हो सकता, अतः टोपीको सिद्ध करनेके लिये छहों द्रव्योको स्वीकार करना पड़ता है। जगतकी किसी भी एक वस्तुको स्वीकार करनेसे व्यक्तरूपसे या अव्यक्तरूपसे छहो द्रव्योंका स्वीकार हो जाता है।
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अध्याय ५ उपसंहार मनुष्य शरीरके दृष्टांतसे छह द्रव्योंकी सिद्धि
(१-२ ) यह शरीर जो दृष्टिगोचर होता है; यह पुद्गलका बना हुआ है और शरीरमें जीव रहा हुआ है । यद्यपि जीव और पुद्गल एक अाकाशकी जगहमें रहते है तथापि दोनों पृथक् हैं । जीवका स्वभाव जानने का है और पुद्गलका यह शरीर कुछ जानता नहीं । शरीरका कोई भाग कट जाने पर भी जीवका ज्ञान नही कट जाता, जीव पूर्ण ही रहता है, क्योकि शरीर और जीव सदा पृथक् ही हैं। दोनों का स्वरूप पृथक् है और दोनोंका काम पृथक् ही है यह जीव और पुद्गल तो स्पष्ट हैं । (३) जीव और शरीर कहाँ रह रहे हैं ? अमुक ठिकाने, पांच फुट जगहमे, दो फुट जगहमें रह रहे है, अतः 'जगह' कहनेसे आकाश द्रव्य सिद्ध हुआ।
यह ध्यान रहे कि यह जो कहा जाता है कि जीव और शरीर आकाशमें रहे हुये है वहाँ यथार्थमें जीव, शरीर और आकाश तीनों स्वतंत्र पृथक्-पृथक् ही हैं, कोई एक दूसरेके स्वरूपमें नहीं घुस गया। जीव तो ज्ञानत्व स्वरूपसे ही रहा है, रंग, गंध इत्यादि शरीरमें ही है, वे जीव या आकाश आदि किसीमे नही हैं, अाकाशमें वर्ण, गंध इत्यादि नही है तथा ज्ञान भी नही, वह अरूपी-अचेतन है; जीवमें ज्ञान है किन्तु वर्ण गंध इत्यादि नही अर्थात् वह अरूपी-चेतन है। पुद्गलमे वर्ण-गंध इत्यादि हैं किन्तु ज्ञान नही अर्थात् वह रूपी-अचेतन है, इसतरह तीनों द्रव्य एक दूसरेसे भिन्न-स्वतन्त्र हैं। प्रत्येक वस्तु स्वतन्त्र होनेसे कोई दूसरी वस्तु किसी का कुछ कर नहीं सकती, यदि एक पदार्थमें दूसरा पदार्थ कुछ करता हो तो वस्तुको स्वतन्त्र कैसे कहा जायगा ?
(४) जीव, पुद्गल और आकाश निश्चित किये अव कालका निश्चय करते हैं । ऐसा पूछा जाता है कि "तुम्हारी आयु कितनी है ?" ( यहाँ 'तुम्हारी' अर्थात् शरीरके संयोगरूप आयुकी बात समझना) शरीर की उम्र ४०-५० वर्ष प्रादि की कही जाती है और जीव अनादि अनन्त अस्तिरूप से है । यह कहा जाता है कि यह मेरी अपेक्षा पांच वर्ष छोटा है, यह पांच वर्ष वड़ा है, यहाँ शरीरके कदसे छोटे बड़ेपनको वात
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मोक्षशास्त्र
नहीं है किन्तु कालकी अपेक्षासे छोटे बड़ेपनकी बात है, यदि काल द्रव्यकी अपेक्षा न लें तो यह नहीं कह सकते कि यह छोटा, यह बड़ा, यह बालक, यह युवा या वह वृद्ध है । पुरानी नई अवस्था बदलती रहती है इसी परसे कालद्रव्यका अस्तित्व निश्चित होता है ॥ ४ ॥
कहीं जीव और शरीर स्थिर होता है और कहीं गति करता है । स्थिर होते समय तथा गमन करते समय दोनों समय वह आकाशमें ही है, अर्थात् प्रकाश परसे उसका गमन या स्थिर रहनेरूप निश्चित नहीं हो सकता । गमनरूप दशा और स्थिर रहनेरूप दशा इन दोनोंकी पृथक् पृथक् पहचान करनेके लिये उन दोनों दशामें भिन्न २ निमित्तरूप ऐसे दो द्रव्यों को पहचानना होगा | धर्मद्रव्यके निमित्तद्वारा जीव- पुद्गलका गमन पहचाना जा सकता है और अधर्मद्रव्यके निमित्त द्वारा स्थिरता पहचानी जा सकती है । यदि ये धर्म और अधर्मद्रव्य न हों तो गमन और स्थिरताके भेदको नहीं जाना जा सकता ।
यद्यपि धर्म-अधर्मद्रव्य जीव पुद्गलको कही गति या स्थिति करनेमें मदद करते नहीं हैं, परन्तु एक द्रव्यके भावको अन्य द्रव्यकी अपेक्षाके विना पहचाना नहीं जा सकता । जीवके भावको पहचाननेके लिये अजीवको अपेक्षा की जाती है, जो जाने सो जीव- ऐसा कहनेसे ही "ज्ञानत्वसे रहित जो अन्य द्रव्य है वे जीव नही हैं" इसप्रकार अजीव की अपेक्षा आ जाती है व ऐसा बताने पर आकाशकी अपेक्षा हो जाती है कि 'जीव अमुक जगह है' । इसप्रकार छहों द्रव्योमें समझ लेना । एक आत्मद्रव्यका निर्णय करनेपर छहों द्रव्य मालूम होते हैं; यह ज्ञानको विशालता है और इससे यह सिद्ध होता है कि सर्वद्रव्योंको जान लेना ज्ञानका स्वभाव है । एक द्रव्यको सिद्ध करने से छहों द्रव्य सिद्ध हो जाते है; इसमें द्रव्यकी पराधीनता नही है; परन्तु ज्ञानकी महिमा है । जो पदार्थ होता है वह ज्ञानमे अवश्य जाना जाता है । पूर्ण ज्ञानमें जितना जाना जाता है इस जगत में उसके अतिरिक्त अन्य कुछ नही है । पूर्ण ज्ञानमें छह द्रव्य बतलाये हैं, छह द्रव्यसे अधिक अन्य कुछ नही है ।
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अध्याय ५ उपसंहार कर्मों के कथनसे छहों द्रव्योंकी सिद्धि कम यह पुद्गलकी अवस्था है, जीवके विकारी भावके निमित्तसे वह जीवके साथ रहे हुये हैं; कितनेक कर्म बंधरूपसे स्थिर हुए है उनको अधर्मास्तिकायका निमित्त है। प्रतिक्षण कर्म उदयमें आकर झड़ जाते हैं। झड़ जानेमें क्षेत्रातर भी होता है उसमें, उसे धर्मास्तिकायका निमित्त है। यह कहा जाता है कि कर्मको स्थिति ७० कोड़ा कोडि सागर और कमसे कम अन्तर्मुहूर्त की है, इसमें काल द्रव्यकी अपेक्षा हो जाती है। बहुतसे कर्म परमाणु एक क्षेत्रमें रहते हैं, इसमें आकाशद्रव्यकी अपेक्षा है। इस तरह छह द्रव्य सिद्ध हुए।
द्रव्योंकी स्वतंत्रता इससे यह भी सिद्ध होता है कि जीवद्रव्य और पुद्गलद्रव्य (-कर्म) .. दोनों एकदम पृथक् २ पदार्थ हैं और दोनों अपने अपने में स्वतंत्र हैं, कोई
एक दूसरेका कुछ ही नहीं करते। मदि जीव प्रौर कर्म एक हो जाय तो इस 'जगत्मे छहद्रव्य ही नहीं रह सकते; जीव और कर्म सदा पृथक् ही है। द्रव्योंका स्वभाव 'अपने अमर्यादित अनन्त गुरमोंमें अनादि अनन्त रहकर प्रतिसमय बदलनेका है। सभी द्रव्य अपनी शक्तिसे स्वतंत्ररूपसे अनादि अनन्त रहकर स्वयं अपनी अवस्था बदलते हैं । जीवकी अवस्था जीव बदलाता है, पुद्गलकी हालत पुद्गल बदलाता है। पुद्गलका जीव कुछ नहीं करता और न पुद्गल जीवका कुछ करता है। व्यवहारसे भी किसीका परद्रव्यमें कर्तापना नही है घीका घड़ाके समान व्यवहारसे कर्तापनेका कथन होता है जो सत्यार्थ नहीं है।
उत्पाद-व्यय-ध्रव __ द्रव्यका और द्रव्यकी अवस्थाओंका कोई कर्ता नही है । यदि कोई कर्ता हो तो उसने द्रव्योंको किस तरह बनाया ? किसमेसे बनाया ? वह कर्ता स्वयं किसका बना ? जगत्में छहो द्रव्य स्व स्वभावसे ही हैं, उनका कोई कर्ता नहीं है। किसी भी नवीन पदार्थकी उत्पत्ति ही नहीं होती। किसी भी प्रयोगसे नये जीवकी या नये परमाणुकी उत्पत्ति नही हो सकती; किन्तु जैसा पदार्थ हो वैसा ही रहकर उनमें अपनी अवस्थाओंका रूपांतर
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मोक्षशास्त्र
होता है । यदि द्रव्य हो तो उसका नाश नहीं होता, जो द्रव्य नही वह उत्पन्न नहीं होता और जो द्रव्य होता है वह स्वशक्तिसे प्रतिक्षण अपनी अवस्था बदलता ही रहता है, ऐसा नियम है । इस सिद्धांतको उत्पादव्यय-ध्रुव अर्थात् नित्य रहकर बदलना कहा जाता है ।
द्रव्य कोई बनानेवाला नहीं है इसलिये सातवां कोई नया द्रव्य नहीं हो सकता, और किसी द्रव्यका कोई नाश करनेवाला नहीं हैं इसलिये छह द्रव्योंसे कभी कमी नहीं होती । शाश्वतरूपसे छह हीं द्रव्य हैं । सर्वज्ञ भगवानने, संपूर्ण ज्ञानके द्वारा छह द्रव्य जाने और वही उपदेशमें दिव्यध्वनि द्वारा निरूपित किये । सर्वज्ञ वीतराग देव प्रणीत परम सत्यमार्गके अतिरिक्त इन छह द्रव्योंका यथार्थं स्वरूप अन्यंत्र कहीं है ही नहीं । द्रव्यकी शक्ति ( गुण ).
द्रव्यकी विशिष्ट शक्ति ( चिह्न, विशेष गुण ) पहले सक्षिप्तरूपमें कही जा चुकी है, एक द्रव्यकी जो विशिष्ट शक्ति है वह अन्य द्रव्यमें नही होती । इसीलिये विशिष्ट शक्तिके द्वारा द्रव्यको पहचाना जा सकता है । जैसे कि ज्ञान जीव द्रव्यकी विशिष्ट शक्ति है । जीवके अतिरिक्त अन्य किसी द्रव्यमें ज्ञान नहीं है, इसीलिए ज्ञान शक्तिके द्वारा जीव पहचाना जा सकता है ।
यहां अब द्रव्योंकी सामान्य शक्ति संबंधी कुछ कथन किया जाता है. 1. जो शक्ति सभी द्रव्योंमें हो उसे सामान्य शक्ति कहते हैं । मस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व. भोर प्रदेशत्व: ये मुख्य- सामान्य ६ गुण हैं, ये सभी द्रव्योंमें हैं।
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१ - अस्तित्वगुण के कारण द्रव्यके प्रस्तिरूपका कभी नाश नही होता । ऐसा नही है कि द्रव्य अमुक कालके लिये है और फिर नष्ट हो जाता है; द्रव्य: नित्य कायम रहनेवाले हैं । यदि अस्तित्व- गुण न हो तो वस्तु ही नहीं हो सकती और वस्तु ही न हो तो समझाना किसको ।
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२-- वस्तुत्व गुणके कारण द्रव्य अपना प्रयोजनभूत कार्य करता है । जैसे :- घढ़ा पानीको धारण करता है उसी तरह द्रव्य स्वयं ही अपने
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अध्याय ५ उपसंहार
४७७ गुण पर्यायोंका प्रयोजनभूत कार्य करता है। एक द्रव्य किसी प्रकार किसी दूसरे का कार्य नहीं करता और न कर सकता।
३-द्रव्यत्वगुणके कारण द्रव्य निरन्तर एक अवस्थामें से दूसरी अवस्थामें द्रवा करता है-परिणमन किया करता है । द्रव्यं त्रिकाल अस्ति रूप है तथापि वह सदा एक सदृश (कूटस्थं) नही है; परन्तु निरन्तर नित्य बदलनेवाला-परिणामी है। यदि द्रव्यमे परिणमन न हो तो जीवके संसार दशाका नाश होकर मोक्षदशाकी उत्पत्ति कैसे हो? शरीरको बाल्यदशामें से युवकदशा कैसे हो? छहों द्रव्योंमें द्रव्यत्व शक्ति होनेसे सभी स्वतत्ररूपसे अपनी अपनी पर्यायमें परिणम रहे हैं। कोई द्रव्य अपनी पर्याय परिणमानेके लिये दूसरे द्रव्यकी सहायता या अपेक्षा नहीं रखता।।
४-प्रमेयत्वगुणके कारण द्रव्य ज्ञानमें ज्ञात होते हैं। छहों द्रव्यों में इस प्रमेयशक्तिके होनेसे-ज्ञान छहों द्रव्यके स्वरूपका निर्णय कर सकता "है। यदि वस्तुमें प्रमेयत्व गुण न हो तो वह स्वयको किस तरह बतला सकता है कि 'यह वस्तु है'। जगतका कोई पदार्थ ज्ञान प्रगोचर नही है, पास्मामें प्रमेयत्व गुण होनेसे प्रात्मा स्वय निजको जान सकता है।
५-अगुरुलघुत्व गुणके कारण प्रत्येक वस्तु निज२ स्वरूपसे ही कायम रहती है । जीव बदलकर कभी परमाणुरूप नही हो जाता, परमाणु बदलकर कभी जीवरूप नहीं हो जाता, जड़ सदा जड़रूपसे और चेतन सदा चेतनरूपसे ही रहताहै जानका विकास विकार दशामें चाहे जितना स्वल्प हो तथापि जीवद्रव्य बिलकुल ज्ञान शून्य हो जाय ऐसा कभी नहीं होता। इस शक्तिक कारणे द्रव्यके एक गुरण दूसरे गुणरूपन परिणम तथा एक द्रव्यके अनेक या-अनन्त गुण अलग अलग नहीं हो जाते, ती कोई दो पदार्थ एक रूप' होकर तीसरी नई तरहका पदार्थ उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि वस्तुका स्वरूप अन्ययो कदापि नहीं होता।
६-प्रदेशत्व गुणके कारण प्रत्येक द्रव्यके अपना अपना प्राकार अवश्य होती हैं। प्रत्येक अपने अपने स्वाकारमें ही रहता है । "सिददशी होने पर एक जीव दूसरे जीवमे नहीं मिल जाता किन्तु प्रत्येक जीव अपने प्रदेशाकारमें स्वतंत्र रूपसे कायम रहता है।
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मोक्षशास्त्र ये छह सामान्यगुण मुख्य हैं इनके अतिरिक्त भी दूसरे सामान्य गुण हैं। इस तरह गुणों द्वारा द्रव्यका स्वरूप विशेष स्पष्टतासे जाना जा सकता है।
छह कारक (-कारण ) [ लघु जैन सि० प्रवेशिकासे 1
(१) कर्चा:-जो स्वतंत्रतासे (-स्वाधीनतासे ) अपने परिणामको करे सो कर्ता है। प्रत्येक द्रव्य अपने में स्वतंत्र व्यापक होनेसे अपने ही परिणामोंका कर्ता है।
(२) कर्म (-कार्य);-कर्ता जिस परिणामको प्राप्त करता है वह परिणाम उसका कर्म है। प्राप्य, विकार्य और निर्वयं ऐसा, व्याप्य लक्षणवाला प्रत्येक द्रव्यका परिणामरूप कर्म होता है। [ उस कर्म (-कार्य ) में प्रत्येक द्रव्य स्वयं अन्तर्व्यापक होकर, आदि, मध्य और अन्तमें व्याप्त होकर उसे ग्रहण करता हुआ, उस-रूप परिणमन करता हुआ, और उसं-रूप उत्पन्न होता हुआ, उस परिणामके कर्ता हैं।
(३) करणः-उस परिणामका साधकतम अर्थात् उत्कृष्ट साधनको करण कहते हैं।
(४) संप्रदान-कर्म (-परिणाम-कार्य ) जिसे दिया जाय या जिसके लिये किया जाता है उसे संप्रदान कहते हैं ।
(५) अपादान-जिसमें से कम किया जाता है वह ध्रुव वस्तुको अपादान कहते हैं।
(६) अधिकरण—जिसमे या जिसके आधारसे कर्म किया जाता है उसे अधिकरण कहते हैं।
सर्व द्रव्योंकी प्रत्येक पर्यायमें यह छहों कारक एक साथ वर्तते हैं, इसलिये आत्मा और पुद्गल शुद्धदशामें या अशुद्धदशामें स्वयं ही छहों कारकरूप परिणमन करते हैं और अन्य किसी कारकों (-कारणों ) की अपेक्षा नही रखते हैं। (पंचास्तिकाय गाथा ६२ सं० टीका )
प्रश्न-कार्य कैसे होता है ? उचर-कारणानुविधायित्वादेव कार्याणां' कारणानुविधायीनि
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अध्याय ५ उपसंहार कार्याणी'-कारण जैसे ही कार्य होनेसे कारण जैसा ही कार्य होता है। कार्यको-क्रिया, कर्म, अवस्था, पर्याय, हालत, दशा, परिणाम, परिणमन और परिणति भी कहते हैं [ यहाँ कारणको उपादान कारण समझना क्योंकि उपादान कारण वही सच्चा कारण है ]
प्रश्न-कारण किसे कहते हैं ? उत्तर-कार्यकी उत्पादक सामग्रीको कारण कहते हैं ? . प्रश्न-उत्पादक सामग्रीके कितने भेद हैं ?
उचर-दो हैं:-उपादान और निमित्त । उपादानको निजशक्ति अथवा निश्चय और निमित्तको परयोग अथवा व्यवहार कहते हैं।
प्रश्न-उपादान कारण किसे कहते हैं ?
उचर-(१) जो द्रव्य स्वयं कार्यरूप परिणमित हो, उसे उपादान कारण कहते हैं । जैसे-घटकी उत्पत्तिमें मिट्टी। (२) अनादिकालसे द्रव्यमें जो पर्यायोंका प्रवाह चला आ रहा है, उसमें अनन्तर पूर्वक्षणवति पर्याय उपादान कारण है और अनन्तर उत्तर क्षणत्ति पर्याय कार्य है । (३) उस समयकी पर्यायकी योग्यता वह उपादान कारण है और वह पर्याय कार्य है । उपादान वही सच्चा (-वास्तविक ) कारण है।
[ नं. १ ध्रुव उपादान द्रव्याथिकनयसे है, नं० २-३ क्षणिकउपादान पर्यायाथिकनयसे है। ]
प्रश्न-योग्यता किसे कहते हैं ?
उत्तर-(१) "योग्यतैव विषयप्रतिनियमकारणमिति" (न्याय दि. पृ० २७ ) योग्यता ही विषयका प्रतिनियामक कारण है [ यह कथन ज्ञान की योग्यता (-सामर्थ्य ) के लिये है परन्तु योग्यताका कारणपना सर्वमें सर्वत्र समान है ]
(२) सामर्थ्य, शक्ति, पात्रता, लियाकत, ताकत वे 'योग्यता' शब्द के अर्थ है।
प्रश्न-निमित्त कारण किसे कहते हैं ?
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मोक्षशास्त्र
उत्तर- - जो पदार्थ स्वयं कार्यरूप न परिणमे, परन्तु कार्यकी उत्पत्ति में अनुकूल होनेका जिसमें आरोप श्रा सके उस पदार्थको निमित्त कारण कहते हैं । जैसे- घटकी उत्पत्ति में कुम्भकार, दंड, चक्र आदि । ( निमित्त वह सच्चा कारण नहीं है --अकारणवत् है क्योंकि वह उपचार - मात्र अथवा व्यवहारमात्र कारण है )
उपादान कारण और निमित्तकी उपस्थितिका क्या नियम है ? ( बनारसी विलास में कथित दोहा - )
- ( १ ) गुरु उपदेश निमित्त बिन, उपादान बलहीन; ज्यों नर दूजे पांव बिन, चलवेको आधीन ॥१॥ प्रश्न – (२) हो जाने था एक ही, उपादान सों काज; थकै सहाई पौन बिन, पानीमांहि जहाज ॥२॥
-
४८५०
प्रश्न
प्रथम प्रश्नका उत्तर-
ज्ञान नैन किरिया चरन, दोऊ शिवमग धार;
उपादान निश्चय जहाँ, तहँ निमित्त व्यौहार ॥३॥ अर्थ —— सम्यग्दर्शन - ज्ञानरूप नेत्र और ज्ञानमें चरण अर्थात् लीनतारूप क्रिया दोनों मिलकर मोक्षमार्ग जानो । उपादानरूप निश्चय कारण जहाँ हो वहाँ निमित्तरूप व्यवहार कारण होता ही है ||३|| भावार्थ - ( १ ) उपादान वह निश्चय अर्थात् सच्चा कारण है, निमित्त तो मात्र व्यवहार अर्थात् उपचार कारण है, सच्चा कारण नही है, इसलिए तो उसे अकारणवत् कहा है । और उसे उपचार ( - श्रारोप ) कारण क्यों कहा कि वह उपादानका कुछ कार्य करते कराते नही, तो भी कार्यके समय उनकी उपस्थितिके कारण उसे उपचारमात्र कारण कहा है । (२) सम्यग्ज्ञान और ज्ञानमें लीनताको मोक्षमार्ग जानो ऐसा कहा उसीमे शरीराश्रित उपदेश उपवासादिक क्रिया और शुभरागरूप व्यवहारको मोक्षमार्ग न जानो वह बात आ जाती है ।
प्रथम प्रश्नका समाधान -
उपादान निज गुरण जहाँ तहँ निमित्त पर होय; भेदज्ञान प्रमाण विधि, विरला बूझे कोय ||४||
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अध्याय ५ उपसंहारा
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अर्थ — जहाँ निजशक्तिरूप उपादान तैयार हो वहाँ पर निमित्त होते ही हैं, ऐसी भेदज्ञान प्रमाणकी विधि ( - व्यवस्था ) है, यह सिद्धांत कोई विरला ही समझता है ॥ ४ ॥
भावार्थ - जहाँ उपादानकी योग्यता हो वहां नियमसे निमित्त होता है, निमित्तकी राह देखना पड़े ऐसा नही है; और निमित्तको हम जुटा सकते ऐसा भी नही है । निमित्तकी राह देखनी पड़ती है या उसे मैं ला सकता हूँ ऐसी मान्यता- परपदार्थ में श्रभेद बुद्धि अर्थात् अज्ञान सूचक है । निमित्त और उपादान दोनों असहायरूप है यह तो मर्यादा है ||४॥ उपादान बल जहँ तहीं, नहीं निमित्तको दाव;
एक चक्रसों रथ चले, रविको यहै स्वभाव ॥ ५ ॥
अर्थ - जहाँ देखो वहाँ सदा उपादानका ही बल है निमित्त होते हैं परन्तु निमित्तका कुछ भी दाव (-बल ) नही है जैसे एक चक्रसे सूर्यका रथ चलता है इस प्रकार प्रत्येक कार्यं उपादानकी योग्यता ( सामर्थ्य ) से ही होता है ॥ ५ ॥
भावार्थ — कोई ऐसा समझता है कि निमित्त उपादानके ऊपय सचमुच असर करते हैं, प्रभाव पड़ते हैं, सहाय मदद करते हैं, आधार देते हैं तो वे अभिप्राय गलत हैं ऐसा यहाँ दोहा ४-५-६-७ में स्पष्टतया कहा है । अपने हितका उपाय समभनेके लिये यह बात बड़ी प्रयोजनभूत है |
शास्त्रमें जहां परद्रव्यको ( निमित्तको ) सहायक, साधन, कारण, कारक आदि कहे हो तो वह "व्यवहार नयको मुख्यता लिये व्याख्यान है, ara ऐसें है नाहीं निमिचादि अपेक्षा उपचार किया है ऐसा जानना ।" ( देहली से प्र० मोक्षमार्ग प्र० पृ० ३६९ )
दूसरे प्रश्नका समाधान -
सधै वस्तु असहाय जहँ तहँ निमित्त है कौन;
ज्यो जहाज परवाह में, तिरै सहज विन पौन ॥ ६ ॥
अर्थ — प्रत्येक वस्तु स्वतंत्रतासे अपनी अवस्थाको ( - कार्यको ) प्राप्त करती है वहाँ निमित्त कौन ? जैसे जहाज प्रवाह में सहज ही पवन बिना ही तैरता है |
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४८२
मोक्षशाख भावार्थ-जीव और पुद्गल द्रव्य शुद्ध या अशुद्ध अवस्थामें स्वतंत्रपनेसे ही अपने परिणामको करते हैं; अज्ञानी जीव भी स्वतंत्रपनेसे निमित्ताधीन परिणमन करता है, कोई निमित्त उसे आधीन नहीं बना सकता ॥ ६ ॥
उपादान विधि निर्वचन, है निमित्त उपदेश;
बसे जु जैसे देशमें, करे सु तैसे भेद ॥ ७॥
अर्थ-उपादानका कथन एक "योग्यता" शब्द द्वारा ही होता है। उपादान अपनी योग्यतासे अनेक प्रकार परिणमन करता है तब उपस्थित निमित्त पर भिन्न २ कारणपनेका आरोप (-भेष ) आता है उपादानकी विधि निर्वचन होनेसे निमित्त द्वारा यह कार्य हुआ ऐसा व्यवहारसे कहा जाता है।
भावार्थ-उपादान जब जैसे कार्यको करता है तब वैसे कारणपने का आरोप (-मेष) निमित्तपर आता है जैसे-कोई वज्रकायवान मनुष्य नर्कगति योग्य मलिन भाव करता है तो वज्रकाय पर नर्कका कारणपनेका आरोप आता है, और यदि जीव मोक्षयोग्य निर्मलभाव करता है तो उसी निमित्तपर मोक्षकारणपनेका आरोप आता है । इस प्रकार उपादान के कार्यानुसार निमित्तमे कारणपनेका भिन्न भिन्न आरोप दिया जाता है । इससे ऐसा सिद्ध होता है कि निमित्तसे कार्य नही होता परंतु कथन होता है। अतः उपादान सच्चा कारण है, और निमित्त आरोपित कारण है।
प्रश्न-पुद्गलकर्म, योग, इन्द्रियोंके भीग, धन, घरके लोग, मकान इत्यादि इस जीवको राग-द्वेष परिणामके प्रेरक हैं ?
उत्तर-नही, छहों द्रव्य, सर्व अपने २ स्वरूपसे सदा असहाय (-स्वतंत्र ) परिणमन करते है, कोई द्रव्य किसीका प्रेरक कभी नही है, इसलिये किसी भी परद्रव्य राग-द्वेषके प्रेरक नही हैं परन्तु मिथ्यात्वमोहरूप मदिरापान है वही ( अनन्तानुबन्धी ) राग-द्वेषका कारण है।
प्रश्न-पुद्गलकर्मको जोरावरीसे जीवको राग-द्वेष करना पड़ता है; पुद्गलद्रव्य कर्मोका भेप धर धर कर ज्यों २ बल करते हैं त्यों त्यों जीव को राग-द्वेप अधिक होते है यह बात सत्य है ?
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अध्याय ५ उपसंहार
४८३ उत्तर-नहीं, क्योंकि जगतमें पुद्गलका संग तो हमेशा रहता है, यदि उनकी जोरावरीसे जीवको रागादि विकार हो तो शुद्धभावरूप होनेका कभी अवसर नहीं आसकता, इसलिये ऐसा समझना चाहिये कि शुद्ध या अशुद्ध परिणमन करनेमें चेतन स्वयं समर्थ है।
(स० सार नाटक सर्वविशुद्धद्वार काव्य ६१ से ६६ )
[निमित्तके कही प्रेरक और उदासीन ऐसे दो भेद कहे हों तो वहाँ वे गमनक्रियावान् या इच्छाआदिवान् है या नही ऐसा समझानेके लिये है, परन्तु उपादानके लिये तो सर्व प्रकारके निमित्त धर्मास्तिकायवत् उदासीन ही कहे है। [देखो श्री पूज्यपादाचार्यकृत इष्टोपदेश गा० ३५. ]
प्रश्न-निमित्तनैमित्तिक संबंध किसे कहते है ?
उत्तर-उपादान स्वतः कार्यरूप परिणमता है उस समय, भावरूप था अभावरूप कौन उचित (-योग्य)निमित्त कारणका उसके साथ सम्वन्ध है, वह बतानेके लिये उस कार्यको नैमित्तिक कहते है। इस तरहसे भिन्न भिन्न पदार्थोके स्वतंत्र संबधको निमित्तनैमित्तिक संबंध कहते हैं।
(देखो प्रश्न 'निमित्त') - [निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध परतन्त्रताका सूचक नहीं है, किन्तु नैमित्तिकके साथमे कौन निमित्तरूप पदार्थ है उसका ज्ञान कराता है। जिस कार्यको नैमित्तिक कहा है उसीको उपादानकी अपेक्षा उपादेय भी कहते हैं। ]
निमिचनैमिचिक सम्बन्धके दृष्टांत:(१) केवलज्ञान नैमित्तिक है और लोकालोकरूप सव ज्ञेय निमित्त है, (प्रवचनसार गा० २६ की टीका )
(२) सम्यग्दर्शन नैमित्तिक है और सम्यग्ज्ञानीका उपदेशादि निमित्त है, ( आत्मानुशासन गा० १० की टोका )
(३) सिद्धदशा नैमित्तिक है और पुद्गलकर्मका अभाव निमित्त है, ( समयसार गा० ८३ की टोका)
(४) "जैसे अधःकर्मसे उत्पन्न और उद्देशसे उत्पन्न हुए निमित्तभूत
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मोक्षशास्त्र
(आहारादि ) पुद्रलद्रव्यका प्रत्याख्यान न करता हुमा आत्मा (-मुनि) नैमित्तिकभूत बंधसाधक भावका प्रत्याख्यान (-त्याग ) नहीं करता, इसी प्रकार समस्त परद्रव्यका प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा उसके निमित्तसे होनेवाले भावको नहीं त्यागता" इसमें जीर्वका बंधसाधक भाव नैमित्तिक है और उस परद्रव्य निमित्त हैं । ( स० सार गाथा २८६-८७ की टीका)
पंचाध्यायी शास्त्रमें नयाभासोंके वर्णनमें 'जीव शरीरका कुछ कर सकता नहीं है-परस्पर बंध्य-बंधकभाव नहीं है। ऐसा कहकर शरीर और आत्माको निमित्तनैमित्तिक भावका प्रयोजन क्या है उसके उत्तरमें 'प्रत्येक द्रव्य स्वयं और स्वतः परिगमन करता है वहाँ निमित्तपनेका कुछ प्रयोजन ही नहीं है ऐसा समाधान श्लोक ५७१ में कहा है।
श्लोक-अथचेदवश्यमेतन्निमित्त नैमित्तिकत्वमास्ति मिथः ।
न यतः स्वयं स्वतो वा परिणममानस्य किं निमित्ततया ॥५७१
अन्वयार्थ:-[ अथ चेत् ] यदि कदाचित् यह कहा जाय कि [ मिथः ] परस्पर [ एतन्निमित्तनैमित्तिकत्वं ] इन दोनोंमें निमित्त और नैमित्तिकपना [ अवश्यंअस्ति ] अवश्य है तो इसप्रकार कहना भी [ न ] ठीक नहीं है, [ यतः ] क्योंकि [ स्वयं ] स्वयं [ वा ] अथवा [ स्वतः], स्वतः [ परिणममानस्य ] परिणमन करनेवाली वस्तुको [ निमित्ततया ] निमित्तपनेसे [किं ] क्या फायदा है अर्थात् स्वतः परिणमनशील बस्तुको निमित्त कारणसे कुछ भी प्रयोजन नही है। इस विषयमें स्पष्टताके लिये पंचाध्यायी भाग १ श्लो० ५६५ से ५८५ तक देखना चाहिये।
प्रयोजनभूत इसतरह छह द्रव्यका स्वरूप अनेक प्रकारसे वर्णन किया। इन छह द्रव्योंमें प्रतिसमय परिणमन होता है उसे, 'पर्याय' (हालत, अवस्था Condition ) कहते हैं। धर्म-अधर्म-आकाश और काल इन चार द्रव्यों की पर्याय तो सदा शुद्ध ही है, अवशिष्ट जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योमें शुद्ध पर्याय होती है अथवा अशुद्ध पर्याय भी हो सकती है।
__ जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योंमेंसे भी पुदल द्रव्यमें ज्ञान नहीं है, उसमें जानपना (ज्ञानत्व ) नही इसीसे उसमें ज्ञानको विपरीतरूप भूल
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श्रध्याय ५ उपसंहाय
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नहीं; श्रतएव पुद्गलको सुख या दुःख नहीं होता । यथार्थ ज्ञानके द्वारा सुख और विपरीतज्ञानके द्वारा दुःख होता है, परन्तु पुद्गल द्रव्यमें ज्ञान गुण ही नहीं, इसीलिये उसके सुख दुःख नही; उसमें सुख गुरण ही नही । ऐसा होनेसे तो पुद्गल द्रव्यके शुद्ध दशा हो या अशुद्धदशा, दोनों समान हैं । शरीर पुद्गल द्रव्यकी अवस्था है इसलिये शरीर में सुख दुःख नहीं होते शरीर चाहे निरोग हो या रोगी, उसके साथ सुख दुःखका सम्बन्ध नहीं है । अब शेष रहा जाननेवाला जीवद्रव्य
छहों द्रव्योमें यह एक ही द्रव्य ज्ञानशक्तिवाला है । जीवमें ज्ञानगुरण है और ज्ञानका फल सुख है, इसलिये जीवमें सुखगुरण है । यदि यथार्थ ज्ञान करे तो सुख हो, परन्तु जीव अपने ज्ञानस्वभावको नही पहचानता और ज्ञानसे भिन्न अन्य वस्तुओं में सुखकी कल्पना करता है । यह उसके ज्ञानकी भूल है और उस भूलको लेकर ही जीवके दुःख है । जो अज्ञान है सो जीव की शुद्ध पर्याय है, जीवकी अशुद्ध पर्याय दुःखरूप है अतः उस दशाको दूर कर यथार्थ ज्ञानके द्वारा शुद्ध दशा करनेका उपाय समझाया जाता है; क्योकि सभी जीव सुख चाहते है और सुख तो जीवकी शुद्धदशामे ही है, इसलिये जो छह द्रव्य जाने उनमेसे जीवके अतिरिक्त पाँच द्रव्योके गुरण पर्यायके साथ तो जीवको प्रयोजन नही है किंतु जीवके अपने गुरण पर्यायके साथ ही प्रयोजन है ।
इसप्रकार श्री उमास्वामी विरचित मोक्षशास्त्र के पाँचवें अध्यायकी गुजराती टीकाका हिन्दी अनुवाद पूर्ण हुआ ।
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मोक्षशास्त्र अध्याय छट्ठा
भूमिका
१-पहले अध्यायके चौथे सूत्रमें सात तत्त्व कहे हैं और यह भी पहले अध्यायके दूसरे सूत्र में कहा है कि उन तत्त्वोंकी जो यथार्थ श्रद्धा है सो सम्यग्दर्शन है। दूसरेसे पांचवें अध्याय पर्यंत जीव और अजीव तत्त्वका वर्णन किया है । इस छ8 अध्याय और सातवें अध्यायमें पालव तत्त्वका स्वरूप समझाया गया है। आस्रवकी व्याख्या पहले की जा चुकी है, जो यहाँ लागू होती है।
२-सात तत्वोंकी सिद्धि ( वृहद्रव्यसंग्रहके ७१-७२ वें पृष्ठके आधारसे )
इस जगतमें जीव और अजीव द्रव्य हैं और उनके परिणमनसे आस्रव, बध, संवर, निर्जरा और मोक्ष तत्त्व होते हैं। इस प्रकार जीव, अजीव, पास्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं।
अब यहाँ शिष्य प्रश्न करता है कि हे गुरुदेव ! (१) यदि जीव तथा अजीव ये दोनों द्रव्य एकांतसे (-सर्वथा ) परिणामी ही हों तो उनके संयोग पर्यायरूप एक ही पदार्थ सिद्ध होता है, और (२) यदि वे सर्वथा अपरिणामी हों तो जीव और अजीव द्रव्य ऐसे दो ही पदार्थ सिद्ध होते है। यदि ऐसा है तो आस्रवादि तत्त्व किस तरह सिद्ध होते है ?
___ श्री गुरु इसका उत्तर देते है-जीव और अजीव द्रव्य 'कथंचित् परिणामी' होनेसे अवशिष्ट पाँच तत्त्वोंका कथन न्याययुक्त सिद्ध होता है ।
(१) अब यह कहा जाता है कि 'कथंचित् परिणामित्व' का क्या मर्थ है ? जैसे स्फटिक यद्यपि स्वभावसे निर्मल है तथापि जपा-पुष्प आदि के सामीप्यसे अपनी योग्यताके कारणसे पर्यायान्तर परिणति ग्रहण करती है। यद्यपि स्फटिकमणि पर्यायमे उपाधिका ग्रहण करती है तो भी निश्चयसे
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अध्याय ६ भूमिका
४८७ अपना जो निर्मल स्वभाव है उसे वह नहीं छोड़ती। इसी प्रकार जीवका स्वभाव भी शुद्ध द्रव्यार्थिक नयसे तो सहज शुद्ध चिदानन्द एकरूप है, परंतु स्वयं अनादि कर्मबन्धरूप पर्यायके वशीभूत होनेसे वह रागादि परद्रव्य उपाधि पर्यायको ग्रहण करता है । यद्यपि जीव पर्यायमें परपर्यायरूपसे ( पर द्रव्यके आलंबनसे हुई अशुद्ध पर्यायरूपसे ) परिणमता है तथापि निश्चय नयसे शुद्ध स्वरूपको नहीं छोड़ता। ऐसा ही पुद्गल द्रव्यका भी होता है । इस कारणसे जीव-अजीवका परस्पर सापेक्ष परिणमन होना वही 'कथंचित् परिणामित्व' शब्दका अर्थ है।
(२) इसप्रकार 'कथंचित् परिणामित्व' सिद्ध होने पर जीव और पुद्गलके संयोगकी परिणति (-परिणाम) से बने हुये बाकीके प्रास्रवादि पांच तत्त्व सिद्ध होते है । जीवमे आस्रवादि पांच तत्त्वोंके परिणमनके समय पुद्गलकर्मरूप निमित्तका सद्भाव या अभाव होता है और पुद्गलमें प्रास्त्रवादि पांच तत्त्वोके परिणमनमें जीवके भावरूप निमित्तका सद्भाव या अभाव होता है । इसीसे ही सात तत्त्वोंको 'जीव और पुद्गलके संयोगकी परिणतिसे रचित' कहा जाता है। परन्तु ऐसा नही समझना चाहिये कि जीव और पुद्गलकी एकत्रित परिणति होकर बाकीके पाँच तत्त्व होते है।
पूर्वोक्त जीव और अजीव द्रव्योंको इन पाँच तत्त्वोमें मिलाने पर कुल सात तत्त्व होते हैं, और उसमें पुण्य-पापको यदि अलग गिना जावे तो नव पदार्थ होते हैं । पुण्य और पाप नामके दो पदार्थोका अंतर्भाव ( समावेश ) अभेद नयसे यदि जीव आस्रव-बंध पदार्थमें किया जावे तो सात तत्त्व कहे जाते हैं।
३-सात तत्त्वोंका प्रयोजन (वृहत् द्रव्यसग्रह पृष्ठ ७२-७३ के आधार से )
शिष्य फिर प्रश्न करता है कि हे भगवन् ! यद्यपि जीव-अजीवके कथंचित् परिणामित्व मानने पर भेद प्रधान पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे सात तत्त्व सिद्ध होगये, तथापि उनसे जीवका क्या प्रयोजन सिद्ध हुआ ? क्योंकि जैसे अभेद नयसे पुण्य-पाप इन दो पदार्थोंका पहले सात तत्त्वोंमें
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४८८
मोक्षशास्त्र
अंतर्भाव किया है उसी तरहसे विशेष प्रभेदनयकी विवक्षा से आस्रवादि पदार्थोका भी जीव और अजोव इन दो ही पदार्थों में अंतर्भाव कर लेनेसे ये दो ही पदार्थ सिद्ध हो जायगे ।
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श्री गुरु इस प्रश्नका समाधान करते है कौन तत्त्व हेय है और कौन तत्त्व उपादेय हैं इसका परिज्ञान हो, इस प्रयोजनसे आस्रवादि तत्त्वों का निरूपण किया जाता है ।
अब यह कहते हैं कि हेय और उपादेय तत्त्व कौन हैं ? जो अक्षय अनंत सुख है वह उपादेय है; उसका कारण मोक्ष है; मोक्षका कारण संव और निर्जरा है; उसका कारण विशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभावसे निजआत्मतत्त्व स्वरूपके सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान तथा आचरण लक्षण स्वरूप निश्चयरत्नत्रय है । उस निश्चय रत्नत्रयकी साधना चाहनेवाले जीवको व्यवहाररत्नत्रय क्या है यह समझकर, विपरीत श्रभिप्राय छोड़कर पर द्रव्य तथा राग परसे अपना लक्ष्य हटाकर निज आत्माके त्रैकालिक स्वरूपकी ओर अपना लक्ष्य ले जाना चाहिये अर्थात् स्वसंवेदन - स्वसन्मुख होकर स्वानुभूति प्रगट करना चाहिये | ऐसा करनेसे निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट होता है और उसके बलसे संवर, निर्जरा तथा मोक्ष प्रगट होता है; इसलिये ये तीन तत्त्व उपादेय हैं ।
अब यह बतलाते हैं कि हैय तत्त्व कौन है ? श्राकुलताको उत्पन्न करनेवाले ऐसे निगोद-नरकादि गतिके दुःख तथा इंद्रियों द्वारा उत्पन्न हुये जो कल्पित सुख हैं सो हेय ( छोड़ने योग्य ) हैं; उसका कारण स्वभावसे च्युतिरूप संसार है, संसारके कारण श्रास्रव तथा बंध ये दो तत्त्व हैं; पुण्य पाप दोनों बंध तत्त्व है; उस आस्रव तथा बंधके कारण, पहले कहे हुए निश्चय तथा व्यवहार रत्नत्रयसे विपरीत लक्षणके धारक ऐसे मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र ये तीन हैं । इसीलिये आस्रव और वंध तत्त्व हेय हैं ।
इस प्रकार हेय और उपादेय तत्त्वोंका ज्ञान होनेके लिये ज्ञानीजन सात तत्त्वोंका निरूपण करते हैं ।
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अध्याय ५ भूमिका
४६६ ४. तत्त्वकी श्रद्धा कब हुई कही जाय ? (१) जैन शास्त्रोंमें कहे हुए जीवके त्रस-स्थावर आदि भेदोंको, गुणस्थान मार्गणा इत्यादि भेदोको तथा जीव पुद्गल आदि भेदोंको तथा वर्णादि भेदोको तो जीव जानता है, किन्तु अध्यात्मशास्त्रोंमें भेदविज्ञान के कारणभूत और वीतरागदशा होनेके कारणभूत वस्तुका जैसा निरूपण किया है वैसा जो नही जानता, उसके जीव और अजीव तत्त्वको यथार्थ श्रद्धा नही है।
(२) पुनश्च, किसी प्रसंगसे भेद विज्ञानके कारणभूत और वीतरागदशाके कारणभूत वस्तुके निरूपणका जाननामात्र शास्त्रानुसार हो, परन्तु निजको निजरूप जानकर उसमे परका अंश भी ( मान्यतामे) न मिलाना तथा निजका अंश भी (मान्यतामे) परमें न मिलाना; जहांतक जीव ऐसा श्रद्धान न करे वहांतक उसके जीव और अजीव तत्त्वकी यथार्थ श्रद्धा नही ।
(३) जिस प्रकार अन्य मिथ्यादृष्टि बिना निश्चयके (निर्णय रहित) पर्याय बुद्धिसे (-देहदृष्टिसे) ज्ञानत्त्वमे तथा वर्णादिमे अहंबुद्धि धारण करता है, उसी प्रकार जो जीव आत्माश्रित ज्ञानादिमें तथा शरीराश्रित उपदेश, उपवासादि क्रियामे निजत्व मानता है तो उसके जीव-अजीव तत्त्वकी यथार्थ श्रद्धा नही है । ऐसा जीव किसी समय शास्त्रानुसार यथार्थ बात भी कहे परन्तु वहाँ उसके अतरंग निश्चयरूप श्रद्धा नही है, इसीलिये जिस तरह नशा युक्त मनुष्य माताको माता कहे तो भी वह समझदार नही है, उसी तरह यह जीव भी सम्यग्दृष्टि नही ।
(४) पुनश्च, यह जीव जैसे किसी दूसरेकी ही बात करता हो वैसे ही आत्माका कथन करता है, परन्तु 'यह आत्मा मैं ही हूँ' ऐसा भाव उसके प्रतिभासित नही होता। और फिर जैसे किसी दूसरेको दूसरेसे भिन्न बतलाता हो वैसे ही वह इस आत्मा और शरीरकी भिन्नता प्ररूपित करता है, परन्तु 'मैं इन शरीरादिकसे भिन्न हूँ' ऐसा भाव उसके नही भासता; इसीलिये उसके जीव-अजीवकी यथार्थ श्रद्धा नहीं।
(५) पर्यायमे (-वर्तमान दशामे,) जीव-पुलके परस्परके निमित्त
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४६०
मोक्षशास्त्र
से अनेक क्रियायें होती हैं, उन सबको दो द्रव्योंके मिलापसे बनी हुई मानता है, किन्तु उसके ऐसा भिन्न भिन्न भाव नही भासता कि 'यह जीवकी क्रिया है और यह पुगलकी क्रिया है ।' ऐसा भिन्न भाव भासे विना उसको जीवअजीवका यथार्थ श्रद्धानी नही कहा जा सकता; क्योंकि जीव प्रजीवके जाननेका प्रयोजन तो यही था; जो कि इसे हुआ नहीं ।
( देखो देहली सस्ती ग्रन्थमालाका मोक्षमार्ग प्रकाशक अ० ७ पृ० ३३१ ) (६) पहले अध्यायके ३२ वें सूत्रमें सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् कहा है वह समझकर विपरीत अभिप्राय रहित होकर सत् असतुका भेदज्ञान करना चाहिये जहाँतक ऐसी यथार्थ श्रद्धा न हो वहाँ तक जीव सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता । उसमें 'सत्' शब्दसे यह समझने के लिये कहा है कि जीव स्वयं त्रिकाली शुद्ध चैतन्य स्वरूप क्यों है और 'असत्' शब्दसे यह बताया है कि जीवमे होनेवाला विकार जीवमें से दूर किया जा सकता है, इसलिये वह पर है । पर पदार्थ और श्रात्मा भिन्न होनेसे कोई परका कुछ कर नहीं सकता; श्रात्माकी अपेक्षासे पर पदार्थ असत् हैं -- नास्तिरूप हैं । जब ऐसा यथार्थ समझे तभी जीवके सत् असत् के विशेषका यथार्थ ज्ञान होता है । जीवके जहाँ तक ऐसा ज्ञान न हो वहाँ तक आस्रव दूर नहीं होता; जहाँतक जीव अपना और आस्रवका भेद नहीं जानता वहाँ तक उसके विकार दूर नही होता । इसीलिये यह भेद समझानेके लिये छट्ट े और सातवे अध्यायमें श्रास्रवका स्वरूप कहा है ।
यह आस्रव अधिकार है; इसमें प्रथम योगके भेद और उसका स्वरूप कहते हैं
कायवाङ मनः कर्मयोगः ॥१॥
अर्थ:- [ कायवाङ्मनः कर्म ] शरीर, वचन और मनके अवलम्बनसे आत्मा के प्रदेशोंका सकंप होना सो [ योगः ] योग है । टीका
१-आत्माके प्रदेशोंका सकंप होना सो योग है; सूत्रमें जो योगके तीन भेद कहे हैं वे निमित्तकी अपेक्षासे है । उपादान रूप योगमें तीन
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अध्याय ६ सूत्र १-२
४६१ भेद नहीं है, किन्तु एक ही प्रकार है। दूसरी तरहसे-योगके दो भेद किये जा सकते हैं-१-भाव योग और-२-द्रव्य योग । कर्म, नोकर्मके प्रहण करने में निमित्तरूप प्रात्माकी शक्ति विशेषको भावयोग कहते हैं और उस शक्तिके कारणसे जो मात्माके प्रदेशोंका सकंप होना सो द्रव्य योग है ( यहाँ 'द्रव्य' का अर्थ 'आत्म द्रव्यके प्रदेश' होता है )
२-यह आस्रव अधिकार है। जो योग है सो आस्रव है, ऐसा दूसरे सूत्रमे कहेगे। इस योगके दो प्रकार हैं-१-सकषाययोग और २ अकषाययोग। ( देखो सूत्र ४ था )
३-यद्यपि भावयोग एक ही प्रकारका है तो भी निमित्तकी अपेक्षा से उसके १५ भेद होते है; जब यह योग मनकी ओर झुकता है तब उसमें मन निमित्त होनेसे, योग और मनका निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध दर्शानेके लिये, उस योगको मनोयोग कहा जाता है। इसी प्रकारसे जब वचनकी
ओर झुकाव होता है तव वचनयोग कहा जाता है और जब कायकी ओर झुकाव होता है तब काययोग कहा जाता है। इसमे मनोयोगके ४, वचनयोगके ४ और काययोगके ७ भेद हैं। इस तरह निमित्तकी अपेक्षासे भावयोगके कुल १५ भेद होते हैं।
(जैन सिद्धान्त प्रवेशिका प्रश्न २२०, ४३२, ४३३) ४-आत्माके अनन्तगुणोंमें एक योग गुरण है; यह अनुजीवी गुण है। इस गुरगकी पर्यायमें दो भेद होते हैं १-परिस्पंदरूप अर्थात् प्रात्म प्रदेशोका कंपनरूप और २-आत्म प्रदेशोकी निश्चलतारूप-निष्कपरूप । प्रथम प्रकार योगगुणकी अशुद्ध पर्याय है और दूसरा भेद योगगुणकी शुद्ध पर्याय है। इस सूत्रमें योगगुणको कंपनरूप अशुद्ध पर्यायको 'योग' कहा है।
अब आस्रवका स्वरूप कहते हैं
स पासवः ॥२॥ अर्थ-[ सः ] वह योग [ मानवः ] आस्रव है।
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मोक्षशास्त्र
टीका
१-आगे चीथे सूत्रमें यह कहेंगे कि सकषाययोग और प्रकषाययोग आस्रव अर्थात् आत्माका विकारभाव है ।
४६२
२- कितने ही जीव कषायका अर्थ क्रोध - मान-माया - लोभ करते हैं किन्तु यह अर्थ पर्याप्त नही है । मोहके उदयमें युक्त होने पर जीवके मिथ्यात्व क्रोधादि भाव होता है सामान्यरूपसे उस सबका नाम 'कषाय' है | ( देखो मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ४० ) सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्वभाव नही अर्थात् उसके जो क्रोधादि भाव हो सो कषाय है ।
३—— योगकी क्रिया नवीन कर्मके आस्रवका निमित्त कारण है । इस सूत्र कहे हुये 'आस्रव' शब्दमें द्रव्यास्रवका समावेश होता है । योगकी क्रिया तो निमित्त कारण है; इसमें पर द्रव्यके द्रव्यास्रव रूप कार्यका उपचार करके इस सूत्र में योगकी क्रियाको ही श्रस्रव कहा है ।
एक द्रव्यके कारणको दूसरे द्रव्यके कार्य में मिलाकर व्यवहारनयसे कथन किया जाता है । यह पद्धति यहाँ ग्रहण करके जीवके भावयोगकी क्रियारूप कारणको द्रव्यकर्मके कार्यमे मिलाकर इस सूत्रमें कथन किया है; ऐसे व्यवहार नयको इस शास्त्रमें नैगमनयसे कथन किया कहा जाता है; क्योंकि योगकी क्रियामें द्रव्यकर्मरूप कार्यका संकल्प किया गया है ।
४- प्रश्न - - आस्रवको जाननेकी आवश्यकता क्या है ?
उत्तर——दुःखका कारण क्या है यह जाने बिना दुःख दूर नहीं किया जा सकता; मिथ्यात्वादिक भाव स्वयं ही दुःखमय है, उसे जैसा है यदि वैसा न जाने तो जीव उसका अभाव भी न करेगा और इसीलिये जीवके दुःख ही रहेगा; इसलिये आस्रवको जानना आवश्यक है ।
( मो० प्र० पृ० ११२ ) ५ - प्रश्न — जीवकी आसव तत्त्वकी विपरीत श्रद्धा अनादिसे क्यों है ?
उत्तर - मिथ्यात्व और शुभाशुभ रागादिक प्रगटरूपसे दुःखके देने
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अध्याय ६ सूत्र २
१४६३ न्याले हैं तथापि उनके सेवन करने से सुख होगा ऐसा मानना सो आस्रव तत्त्व की विपरीत श्रद्धा है ।
६-प्रश्न-सूत्र १-२ में योग को आस्रव कहा है और अन्यत्र तो मिथ्यात्वादिको आस्रव कहा है, इसका क्या कारण है ?
उचर-चौथे सूत्रमे यह स्पष्ट कहा है कि योग दो प्रकारका हैसकषाययोग और अकषाययोग, इसलिये ऐसा समझना चाहिये कि सकषाय योगमे मिथ्यात्वादिका समावेश हो जाता है।
७-इन दोनों प्रकारके योगोंमेंसे जिस पदमें जो योग हो वह जीव की विकारी पर्याय है, उसके अनुसार प्रात्म' प्रदेशमें नवीन द्रव्यकर्म आते हैं, इसीलिये यह योग द्रव्यास्रवका निमित्त कारण कहा जाता है।
८-प्रश्न-पहले योग दूर होता है या मिथ्यात्वादि दूर होते है ?
उचर-सबसे पहले मिथ्यात्वभाव दूर होता है । योग तो चौदहवें अयोग-केवली गुणस्थानमे दूर होता है। यद्यपि तेरहवें गुणस्थानमें ज्ञान वीर्यादि संपूर्ण प्रगट होते है तथापि योग होता है; इसलिये पहले मिथ्यात्व दूर करना चाहिये और मिथ्यात्व दूर होनेपर उसके सम्बन्धित थोग सहज ही दूर होता है।
-सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी कषाय नहीं होनेसे उसके उस प्रकार का भाव-प्रास्रव होता ही नही। सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्व दूर हो जानेसे अनंतानुबंधी कषायका तथा अनंतानुबंधी कषायके साथ संबंध रखनेवाले अविरति और योगभावका अभाव हो जाता है (देखो समयसार • गा० १७६ का भावार्थ )। और फिर मिथ्यात्व दूर हो जानेसे उसके साथ रहनेवाली प्रकृतियोंका बंध नहीं होता और अन्य प्रकृतियां सामान्य संसारका कारण नहीं है । जड़से काटे गये वृक्षके हरे पत्तोंकी तरह वे प्रकृतियाँ शीघ्र ही सूखने योग्य है । संसारका मूल अर्थात् ससारका कारण मिथ्यात्व ही है । ( पाटनी ग्रथमाला समयसार गा० १६८ पृ० २५८)
अब योगके निमित्तसे आस्रवके भेद बतलाते हैं शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य ॥३॥
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मोक्षशास्त्र
अर्थ-[ शुभः ] शुभयोग [ पुण्यस्य ] पुण्यकर्मके आसव, कारण है और [अशुभः] अशुभ योग [पापस्य] पापकर्मके आस्रवमै कारण है।
टीका १-योगमें शुभ या अशुभ ऐसा भेद नहीं; किन्तु आचरणरूप उपयोगमें (-चारित्र गुणकी पर्यायमें ) शुभोपयोग और अशुभोपयोग ऐसा भेद होता है। इसीलिये शुभोपयोगके साथके योगको उपचारसे शुभयोग कहते हैं और अशुभोपयोगके साथके योगको उपचारसे अशुभयोग कहा जाता है।
२-पुण्यास्रव और पापासबके संबंधमें होनेवाली विपरीतता प्रश्न-मिध्यादृष्टि जीवकी आस्रव संबंधी क्या विपरीतता है ?
उत्तर-आस्रव तत्त्वमें जो हिंसादिक पापास्रव है उसे तो हेय जानता है किंतु जो अहिंसादिकरूप पुण्यास्रव है उसे उपादेय मानता है। भला मानता है, अब ये दोनों आस्रव होने से कर्म बन्धके कारण हैं, उनमें उपादेयत्व मानना ही मिथ्यादर्शन है । सो ही बात समयसार गा० २५४ से ५६ में कही है सर्व जीवों के जीवन-मरण, सुख-दुःख, अपने अपने कर्मोदयके निमित्तसे होता है तथापि जहाँ ऐसा मानना कि अन्य जीव अन्य जीवके कार्योका कर्ता होता है, यही मिथ्याध्यवसाय बंध का कारण है। अन्य जीवके जिलाने या सुखी करने का जो अध्यवसाय हो सो तो पुण्य बंधके कारण हैं और जो मारने या दुःखी करने का अध्यवसाय होता है वह पाप बन्धके कारण हैं । यह सब मिथ्या-अध्यवसाय है वह त्याज्य है। इसलिये हिंसादिक की तरह अहिंसादिकको भी बन्धके कारणरूप जानकर हेय समझना । हिंसामे जीवके मारने की बुद्धि हो किंतु उसकी आयु पूर्ण हुये विना वह नही मरता और अपनी द्वेप परिणतिसे स्वयं ही पाप बन्ध करता है, तथा अहिसामे परकी रक्षा करने की बुद्धि हो किन्तु उसकी मायुके अवशेष न होने से वह नही जीता, मात्र अपनी शुभराग परिणति से स्वयं ही पुण्य बांधता है । इस तरह ये दोनों हेय हैं । किन्तु जहाँ जीव
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अध्याय ६ सूत्र ३
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वीतराग होकर दृष्टा ज्ञाता रूप होवे वहाँ ही निबंधता है इसलिये वह उपादेय है ।
जहाँ तक ऐसी दशा न हो वहाँतक शुभरागरूप प्रवर्ते परन्तु श्रद्धान तो ऐसा रखना चाहिये कि यह भी बंधका कारण है- हेय है । यदि श्रद्धानमें उसे मोक्षका मार्ग जाने तो वह मिथ्यादृष्टि ही है ।
( मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ३३१-३३२ ) ३ - शुभयोग तथा अशुभयोगके अर्थ
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शुभयोग- - पंच परमेष्ठीको भक्ति, प्राणियोंके प्रति उपकारभाव, रक्षाभाव, सत्य बोलनेका भाव, परधन हरण न करनेका भाव, - इत्यादि शुभ परिणामसे निर्मित योगको शुभयोग कहते हैं ।
al
अशुभयोग - जीवोकी हिंसा करना, असत्य बोलना, परधन • हरण करना, ईर्ष्या करना, -- -इत्यादि भावोंरूप अशुभ परिणामसे बने हुये योगको अशुभयोग कहते है ।
४ - आस्रवमें शुभ और अशुभ भेद क्यों ?
प्रश्न:- - आत्माके पराधीन करने मे पुण्य और पाप दोनों समान कारण हैं- सोनेकी सकिल और लोहेकी सकिलकी तरह पुण्य और पाप दोनों आत्माकी स्वतंत्रताका अभाव करनेमें समान हैं, तो फिर उसमें शुभ और अशुभ ऐसे दो भेद क्यों कहे हैं ?
उत्तरः—— उनके कारणसे मिलनेवाली इष्ट- श्रनिष्ट गति, जाति इत्यादि की रचना के भेदका ज्ञान कराने के लिये उसमें भेद कहे हैं - अर्थात् संसार को अपेक्षा से भेद है, धर्म की अपेक्षा से भेद नही, अर्थात् दोनों प्रकारके भाव 'श्रधर्म' हैं । प्रवचनसार गाथा ७७ मे कहा है कि- इसप्रकार पुण्य और पापमें भेद ( - प्रतर) नही है, ऐसा जो जीव नही मानता है वह मोहाच्छादित होता हुआ घोर अपार संसार मे परिभ्रभरण करता है ।
५-- शुभ तथा अशुभ दोनों भावोंसे सात या आठ कर्म बँधते हैं तथापि यहाँ ऐसा क्यों नहीं कहा ?
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मोक्षशास्त्र प्रश्न-रागी जीवके आयुके अतिरिक्त सातों कर्मका निरंतर निव होता है तथापि इस सूत्र में शुभपरिणामको पुण्यास्रवका ही कारण और अशुभ परिणामको पापासवका ही कारण क्यों कहा?
उत्तर-यद्यपि संसारी रागी जीवके सातों कर्मका निरंतर आस्रव होता है, तथापि संक्लेश (-अशुभ ) परिणामसे देव, मनुष्य और तिथंच आयुके अतिरिक्त १४५ प्रकृतियोंको स्थिति बढ़ जाती है और मंद (शुभ) परिणामसे उन समस्त कार्योकी स्थिति घट जाती है और उपरोक्त तीन आयुकी स्थिति बढ़ जाती है।
और फिर तीन कषायसे शुभ प्रकृतिका रस तो घट जाता है और असातावेदनीयादिक अशुभ प्रकृतिका रस अधिक हो जाता है । मंद कषाय से पुण्य प्रकृतिमें रस बढ़ता है और पाप प्रकृतिमें रस घटता है; इसलिये स्थिति तथा रस (-अनुभाग ) की अपेक्षासे शुभ परिणामको पुण्यासूव और अशुभ परिणामको पापासव कहा है। ६-शुभ अशुभ कर्मों के बन्धनेके कारणसे शुभ-अशुभयोग
ऐसे भेद नहीं हैं प्रश्न-शुभ परिणामके कारणसे शुभयोग और अशुभ परिणामके कारणसे अशुभयोग है ऐसा माननेके स्थानपर यह मानने में क्या बाधा है कि शुभ अशुभ कर्मोके वन्धके निमित्तसे शुभ-अशुभ भेद होता है ?
उत्तर-यदि कर्मके बन्धके अनुसार योग माना जायगा तो शुभयोग ही न रहेगा, क्योंकि शुभयोगके निमित्तसे ज्ञानावरणादि अशुभ कर्म भी बघते हैं। इसीलिये शुभ-अशुभ कर्म वन्धनेके कारणसे शुभ-अशुभयोग ऐसे भेद नहीं हैं। परन्तु ऐसा मानना न्याय संगत है कि मंद कपायके कारणसे शुभयोग और तीव्र कपायके कारणसे अशुभयोग है।
७-शुभभावसे पापकी निर्जरा नहीं होती
प्रश्न-यह तो ठीक है कि शुभभावसे पुण्यका बन्ध होता है, कितु ऐसा मानने में क्या दोप है कि उससे पापको निर्जरा होती है ?
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अध्याय ६ सूत्र ३-४
उचर- - इस सूत्र में कही हुई तत्त्वदृष्टिसे देखने पर यह मान्यता भूल भरी है । शुभभावसे पुण्यका बन्ध होता है, बन्ध संसारका कारण है, और जो संवर पूर्वक निर्जरा है सो धर्म है । यदि शुभभावसे पापकी निर्जरा मानें तो वह ( शुभभाव ) धर्मं हुआ और धर्मसे बन्ध कैसे होगा ? इसलिये यह मान्यता ठीक नहीं कि शुभभावसे पुराने पाप कर्मकी निर्जरा होती है (- आत्म प्रदेश से पापकर्म खिर जाता है ); निर्जरा शुद्धभावसे ही होती है। अर्थात् तत्त्वदृष्टिके बिना संवर पूर्वक निर्जरा नही होती । विशेष समाधान के लिये देखो श्र० ७ सू० १ की टीकामे शाखाधार । ८- तीसरे सूत्रका सिद्धान्त
शुभभाव और अशुभभाव दोना कषाय है, इसीलिये वे संसारके ही कारण हैं । शुभभाव बढते २ उससे शुद्धभाव नही हो सकता । जव शुद्धके अभेद आलम्बनसे शुभको दूर करे तब शुद्धता हो । जितने अंशमे शुद्धता प्रगट होती है उतने श्रशमे धर्म है । ऐसा मानना ठीक है कि शुभ या अशुभ मै धर्मका अंश भी नही है । ऐसी मान्यता किये बिना सम्यग्दर्शन कभी नही होता । कितनेक ऐसा मानते हैं कि — जो शुभयोग है सो सवर है; यह यथार्थ नही है, — ऐसा बतानेके लिये इस सूत्र में स्पष्टरूपसे दोनों योगोको आस्रव कहा है ||३||
अब इसका खुलासा करते हैं कि आस्रव सर्व संसारियों के समान फलका कारण होता है या इसमें विशेषता है सकषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः ॥ ४ ॥
अर्थ.. - [ सकषायस्य साम्परायिकस्य ] कषाय सहित जीवके संसारके कारण रूप कर्मका प्रस्रव होता है और [श्रकषायस्य ईर्यापथस्य ] कषायरहित जीवके स्थितिरहित कर्मका आस्रव होता है ।
टीका
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१ - कषायका अर्थ मिथ्यादर्शन — क्रोधादि होता है । सम्यग्दृष्टि जीवोके मिथ्यादर्शनरूप वषाय नही होती अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीवोके लागू होनेवाला कषायका अर्थ 'चारित्रमें अपनी कमजोरीसे होनेवाले क्रोध-मान
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मोक्षशाख
माया - लोभ इत्यादि' ऐसा समझना । मिथ्यादर्शनका अर्थ है आत्माके स्वरूपकी मिथ्या मान्यता- विपरीत मान्यता ।
२ - साम्परायिक आस्रव - यह प्रास्रव संसारका ही कारण है । मिथ्यात्व - भावरूप आस्रव अनन्त ससारका कारण है; मिथ्यात्व का अभाव होनेके बाद होनेवाला आस्रव अल्प संसारका कारण है ।
३ - ईर्यापथ आस्रव — यह श्रास्रव स्थिति और अनुभागरहित है और यह अकषायी जीवोके ११-१२ और १३ वें गुरणस्थानमें होता है । चौदहवें गुणस्थान में रहनेवाले जीव प्रकषायी और अयोगी दोनों हैं, इसलिये वहाँ आस्रव है ही नहीं ।
४ - कर्मबन्धके चार भेद
कर्मबंधके चार भेद हैं; प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग । इनमें पहले दो प्रकारके भेदोंका कारण योग है और अंतिम दो भेदोंका कारण कषाय है । कषाय, संसारका कारण है और इसीलिये जहाँतक कषाय हो वहाँतकके आस्रवको साम्परायिक आस्रव कहते हैं; और कषाय दूर होनेके बाद अकेला योग रहता है । कषाय रहित योगसे होनेवाले आस्रवको ईर्याथ प्रस्रव कहते हैं । आत्माके उस समयका प्रगट होनेवाला जो भाव है सो भाव- ईर्यापथ है और द्रव्यकर्मका जो आस्रव है सो द्रव्य - ईर्यापथ है । इसी तरह भाव और द्रव्य ऐसे दो भेद साम्परायिक आस्रवमें भी समझ लेना । ११ से १३ वे गुणस्थान पर्यन्त ईर्यापथ ग्रास्रव होता है, उससे पहले के गुणस्थानोमे साम्परायिक आस्रव होता है ।
जिसप्रकार वड़का फल आदि वस्त्र कषायले रङ्गमे निमित्त होता है उसी तरह मिथ्यात्व, क्रोधादिक ग्रात्मा के कर्म-रङ्ग लगनेका निमित्त है, इसीलिये उन भावोको कपाय कहा जाता है । जैसे कोरे घड़ेको रज लगकर चली जाती है उसी तरह कपाय-रहित आत्माके कर्म-रज उड़कर उसी समय चली जाती है, इसीको ईयपिय प्रास्तत्र कहा जाता है ।
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अध्याय ६ सूत्र ५. '४६६
साम्परायिक आस्रवके ३९ भेद इन्द्रियकषायाव्रतक्रियाः पंचचतुःपंचपंचविंशति
संख्याः पूर्वस्य भेदाः ॥ ५॥ अर्थ:-[इन्द्रियाणि पच] स्पर्शन आदि पाँच इन्द्रियाँ, [कषाया:चतुः] क्रोधादि चार कषाय, [ अवतानि पंच ] हिंसा इत्यादि पाँच अव्रत और [ क्रियाः पंचविंशतिः ] सम्यक्त्व आदि पच्चीस प्रकारकी क्रियायें [संख्याभेदाः ] इस तरह कुल ३६ भेद [ पूर्वस्य ] पहले (साम्परायिक) आसूवके हैं, अर्थात् इन सर्व भेदोंके द्वारा साम्परायिक आसूव होता है।
टीका १-इन्द्रिय-दूसरे अध्यायके १५ से १६ वें सूत्रमे इन्द्रियका विषय आ चुका है। पुद्गल-इन्द्रियाँ परद्रव्य है, उससे आत्माको लाभ या हानि नहीं होती, मात्र भावेन्द्रियके उपयोगमे वह निमित्त होता है । इन्द्रिय का अर्थ होता है भावेन्द्रिय, द्रव्येन्द्रिय और इद्रियका विषय; ये तीनो ज्ञेय है; ज्ञायक आत्माके साथ उनके जो एकत्वकी मान्यता है सो (मिथ्यात्वभाव ) ज्ञेय-ज्ञायक संकरदोष है। (देखो श्री समयसार गाथा ३१ टीका)
कषाय-रागद्वेषरूप जो आत्माकी प्रवृत्ति है सो कषाय है। यह प्रवृत्ति तन और मदके भेदसे दो प्रकारकी होती है ।
__ अव्रत-हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह ये पांच प्रकारके अव्रत है।
२-क्रिया-आत्माके प्रदेशोका परिस्पन्दरूप जो योग है सो क्रिया है; इसमे मन, वचन और काय निमित्त होता है। यह क्रिया सकषाय योगमे दशवे गुणस्थान तक होती है। पौद्गलिक मन, वचन या कायकी कोई भी क्रिया आत्माकी नही है, और न आत्माको लाभकारक या हानिकारक है। जब आत्मा सकषाय योगरूपसे परिणमे और नवीन कर्मोका आसव हो तब प्रात्माका सकषाययोग उस पुद्गल-मासूवमे निमित्त है और पुदूल स्वयं उस आसूवका उपादान कारण है; भावासूवका उपादान कारण
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मोक्षशास्त्र
५००
आत्माकी उस २ अवस्थाकी योग्यता है और निमित्त पुराने कर्मोंका
उदय है ।
३ – पच्चीस प्रकारकी क्रियाओं के नाम और उनके अर्थ
(१) सम्यक्त्व क्रिया — चैत्य; गुरु और प्रवचन ( - शास्त्र ) को पूजा इत्यादि कार्योंसे सम्यक्त्वकी वृद्धि होती है, इसीलिये यह सम्यक्त्व क्रिया है । यहाँ मन, वचन, कायकी जो क्रिया होती है वह सम्यक्त्वी जीवके शुभभाव में निमित्त है; वे शुभभावको धर्म नही मानते, इसीलिये इस मान्यताकी दृढ़ताके द्वारा उसके सम्यक्त्वकी वृद्धि होती है; इसलिये यह मान्यता आसूव नहीं, किन्तु जो सकषाय ( शुभभाव सहित ) योग है सो भाव-आसूव है; वह सकषाय योग द्रव्यकर्मके आसूत्रमे मात्र निमित्त कारण है ।
(२) मिध्यात्वक्रिया — कुदेव, कुगुरु श्रीर कुशास्त्रके पूजा स्तवनादिरूप मिथ्यात्वकी कारणवाली क्रियायें है सो मिथ्यात्वक्रिया है । (३) प्रयोगक्रिया - हाथ, पैर इत्यादि चलानेके भावरूप इच्छारूप जो क्रिया है सो प्रयोगक्रिया है ।
(४) समादान क्रिया - संयमीका असंयमके सन्मुख होना ।
(५) ईर्यापथ क्रिया- - समादान क्रियासे विपरीत क्रिया अर्थात् संयम बढाने के लिये साधु जो क्रिया करता है वह ईर्यापथ क्रिया है । ईर्यापथ पाँच समितिरूप है, उसमें जो शुभ भाव है सो ईर्यापथ क्रिया है [ समितिका स्वरूप 8 वें अध्यायके ५ वे सूत्रमें कहा जायगा । ] इसमें पर हिंसा के भावकी
अब पाँच क्रियायें कही जाती हैं, मुख्यता है
(६) प्रादोषिक क्रिया —— क्रोध के आवेशसे द्वेषादिकरूप बुद्धि करना सो प्रादोषिक क्रिया है ।
(७) कायिकी क्रिया —— उपर्युक्त दोष उत्पन्न होने पर हाथसे मारना, मुखसे गाली देना, इत्यादि प्रवृत्तिका जो भाव है सो कायिकी क्रिया है ।
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अध्याय ६ सूत्र ५
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(८) अधिकरणिकीक्रिया — हिंसाके साधनभूत बन्दूक, छुरी इत्यादि लेना, देना, रखना सो सब अधिकरणिकी क्रिया है ।
(९) परिताप क्रिया — दूसरेको दुःख देनेमें लगना ।
(१०) प्राणातिपात क्रिया — दूसरे के शरीर, इन्द्रिय या श्वासोच्छ्वासको नष्ट करना सो प्राणातिपात क्रिया है ।
नोट: - यह व्यवहार- कथन है, इसका श्रर्थं ऐसा समझना कि जीव जब निजमें इस प्रकारके अशुभ भाव करता है, तब इस क्रियामे बताई गई पर वस्तुयें स्वय बाह्य निमित्तरूपसे होती हैं । ऐसा नही मानना कि जीव परपदार्थोका कुछ कर सकता है या परपदार्थ जीवका कुछ कर सकते हैं । अव ११ से १५ तककी ५ क्रियायें कहते हैं । इनका सम्बन्ध इन्द्रियोंके भोगोंके साथ है
(११) दर्शन क्रिया - सौदर्य देखनेकी इच्छा है सो दर्शनक्रिया है । (१२) स्पर्शन क्रिया — किसी चीजके स्पर्श करनेकी जो इच्छा है सो स्पर्शन क्रिया है ( इसमे अन्य इन्द्रियो सम्बन्धी वांछाका समावेश समझना चाहिये )।
(१३) प्रात्ययिकी क्रिया - इन्द्रिय के भोगोंकी वृद्धिके लिये नवीन नवीन सामग्री एकत्रित करना या उत्पन्न करना सो प्रात्ययिकी क्रिया है । (१४) समंतानुपात क्रिया - स्त्री, पुरुष तथा पशुओोके उठने बैठने स्थानको मलमूत्र से खराब करना सो समंतानुपात क्रिया है ।
(१५) अनाभोग क्रिया - बिना देखी या बिना शोधी जमीन पर बैठना, उठना, सोना या कुछ धरना उठाना सो श्रनाभोग क्रिया है । अब १६ से २० तककी पाँच क्रियायें कहते हैं, ये उच्च धर्माचरणमें धक्का पहुँचानेवाली हैं
(१६) स्वहस्त क्रिया — जो काम दूसरेके योग्य हो उसे स्वयं करना सो स्वहस्त क्रिया है ।
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मोक्षशास्त्र (१७) निसर्ग क्रिया--पापके साधनोंके लेने देनेमें सम्मति देना ।
(१८) विदारण क्रियां--पालस्यके वश हो अच्छे काम न करना और दूसरेके दोष प्रगट करना सो विदारण क्रिया है ।
(१९) आज्ञाव्यापादिनी क्रिया-शास्त्रकी प्राज्ञाका स्वयं पालन न करना और उसके विपरीत अर्थ करना तथा विपरीत उपदेश देना सो 'आज्ञाव्यापादिनी क्रिया है।
(२०) अनाकांक्षा क्रिया-उन्मत्तपना या आलस्यके वश हो प्रवचन ( शास्त्रों ) में कही गई आज्ञाओंके प्रति आदर या प्रेम न रखना सो अनाकांक्षा क्रिया है। अब अंतिम पाँच क्रियायें कहते हैं, इनके होनेसे धर्म धारण करने में
विमुखता रहती है (२१) आरम्भ क्रिया-हानिकारक कार्योमें रुकना, छेदना, तोड़ना, भेदना या अन्य कोई वैसा करे तो हर्षित होना सो आरंभ क्रिया है।
(२२) परिग्रह क्रिया-परिग्रहका कुछ भी नाश न हो ऐसे उपायोंमे लगे रहना सो परिग्रह क्रिया है।
(२३) माया क्रिया-मायाचारसे ज्ञानादि गुणोंको छिपाना ।
(२४) मिथ्यादर्शन क्रिया-मिथ्यादृष्टियोंकी तथा मिथ्यात्वसे परिपूर्ण कार्योकी प्रशंसा करना सो मिथ्यादर्शन क्रिया है ।
__(२५) अप्रत्याख्यान क्रिया-जो त्याग करने योग्य हो उसका त्याग न करना सो अप्रत्याख्यान क्रिया है । (प्रत्याख्यानका अर्थ त्याग है, विषयोके प्रति आसक्तिका त्याग करनेके बदले उसमें आसक्ति करना सो अप्रत्याख्यान है)
नोट:-नं. १० की क्रियाके नीचे जो नोट है वह नं० ११ से २५ तककी क्रियामे भी लागू होता है ।
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५०३
सध्याय ६ सूत्र ५-६-७ नं. ६ से २५ तककी क्रियाओंमें आत्माका अशुभभाव है । अशुभभावरूप जो सकषाय योग है सो पाप आसवका कारण है, परन्तु जड़ भन, वचन या शरीरकी क्रिया है सो किसी आस्रवका कारण नहीं। भावासवका निमित्त पाकर जड़ रजकरणरूप कर्म जीवके साथ एक क्षेत्रावगाहरूपसे बंधते हैं । इन्द्रिय, कषाय तथा अव्रत कारण है और क्रिया उसका कार्य है ॥ ५ ॥
आस्रवमें विशेषता-(हीनाधिकता ) का कारण तीद्रमन्दज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्यविशेरे
भ्यस्तद्विशेषः ॥६॥ अर्थ:-[ तीवमंदज्ञाताजातभावाधिकरण वीर्य विशेषेभ्यः] तीनभाव, मंदभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, अधिकरणविशेष और वीर्यविशेषसे तद्विशेषः ] आसूवमे विशेषता-हीनाधिकता होती है।
टीका तीव्रभाव-प्रत्यात बढे हुये क्रोधादिके द्वारा जो तीव्ररूप भाव होता है वह तीनभाव है।
मंदभाव-कषायोकी मंदतासे जो भाव होता है उसे मंदभाव कहते है।
ज्ञातभाव-जानकर इरादापूर्वक करनेमें आनेवाली प्रवृत्ति ज्ञातभाव है।
अज्ञातभाव-बिनाजानेअसावधानीसे प्रवर्तना सो अज्ञातभाव है। अधिकरण—जिस द्रव्यका आश्रय लिया जावे वह अधिकरण है। वीर्य-द्रव्यकी स्वशक्ति विशेषको वीर्य (-वल ) कहते हैं ॥६॥
अब अधिकरणके भेद बतलाते हैं अधिकरणं जीवाऽजीवाः ॥७॥
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५०४
मोक्षशास्त्र अर्थ-[प्रधिकरणं] अधिकरण [जीवाऽजीवाः] जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य ऐसे दो भेद रूप है; इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि आत्मामें जो कर्मास्रव होता है उसमें दो प्रकारका निमित्त होता है; एक जीव निमित्त और दूसरा अजीव निमित्त ।
टीका १-यहाँ अधिकरणका अर्थ निमित्त होता है। छ8 सूत्र में आस्रव की तारतम्यताके कारणमें 'अधिकरण' एक कारण कहा है। उस अधिकरणके प्रकार बतानेके लिये इस सूत्र में यह बताया है कि जीव अजीव वर्मास्रवमें निमित्त हैं।
२-जीव और अजीवके पर्याय अधिकरण है ऐसा बतानेके लिये सूत्रमें द्विवचनका प्रयोग न कर बहुवचनका प्रयोग किया है। जीव अजीव सामान्य अधिकरण नहीं किन्तु जीव-अजीवके विशेष (-पर्याय ) अधिकरण होते है । यदि जीव अजीवके सामान्यको अधिकरण कहा जाय तो सर्व जीव और सर्व अजीव अधिकरण हों। किंतु ऐसा नहीं होता, क्योंकि जीवअजीवकी विशेष-पर्याय विशेष ही अधिकरण स्वरूप होती है ॥७॥
जीव-अधिकरणके भेद आद्यं संरंभसमारंभारंभयोगकृतकारितानुमतकषायविशेषस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्चैकशः ॥८॥
अर्थः-[प्राचं ] पहला अर्थात् जीव अधिकरण-आसूव [ संरम्भ समारंभारंभ योग, कृतकारितानुमतकषाय विशेषैः च ] संरंभ-समारंभ-आरंभ, मन-वचन-कायरूप तीन योग, कृत-कारित-अनुमोदना तथा क्रोधादि चार कषायोंकी विशेषता से [ त्रिः त्रिः त्रिः चतुः] ३४३४३४४ [ एकशः ] १०८ भेदरूप है।
टीका ___ सरंभादि तीन भेद हैं, उन प्रत्येकमें मन-वचन-काय ये तीन भेद लगानेसे नव भेद हुये; इन प्रत्येक भेदमे कृत-कारित-अनुमोदना ये तीन भेद
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अध्याय ६ सूत्र ८
५०५ लगानेसे २७ भेद हुये और इन प्रत्येकमें क्रोध-मान-माया-लोभ ये चार भेद लगानेसे १०८ भेद होते है। ये सब भेद जीवाधिकरण आस्रवके हैं।
सूत्रमे च शब्द अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन कषायके चार भेद बतलाता है।
अनन्तानुबन्धी कषाय~-जिस कषायसे जीव अपने स्वरूपाचरण चारित्र प्रगट न कर सके उसे अनन्तानुबन्धो कषाय कहते हैं अर्थात् जो प्रात्माके स्वरूपाचरण चारित्रको घाते उसे अनन्तानुबन्धी कषाय कहते हैं।
अनन्त संसारका कारण होनेसे मिथ्यात्वको अनन्त कहा जाता है; उसके साथ जिस कषायका बध होता है उसे अनन्तानुबन्धी कषाय कहते हैं।
अप्रत्याख्यान कषाय-जिस कषायसे जीव एकदेशरूप संयम (-सम्यग्दृष्टि श्रावकके व्रत ) किंचित् मात्र भी प्राप्त न कर सके उसे अप्रत्याख्यान कषाय कहते है।
प्रत्याख्यान कषाय-जीव जिस कषायसे सम्यग्दर्शन पूर्वक सकल संयमको ग्रहण न कर सके उसे प्रत्याख्यान कषाय कहते है।
संज्वलन कषाय-जिस कषायसे जीवका संयम तो बना रहे परन्तु शुद्ध स्वभावमे-शुद्धोपयोगमे पूर्णरूपसे लीन न हो सके उसे सज्वलन कषाय कहते हैं।
संरंभ-विसी भी विकारी कार्यके करनेके संकल्प करनेको संरंभ कहा जाता है । ( संकल्प दो तरहका है १-मिथ्यात्वरूप संकल्प, २-अस्थिरतारूप संकल्प )
समारम्भ-उस निर्णयके अनुसार साधन मिलानेके भावको समारम्भ कहा जाता है।
आरम्भ-उस कार्यके प्रारम्भ करनेको प्रारम्भ कहा जाता है । कृत-स्वय करनेके भावको कृत कहते हैं। कारित-दूसरेसे करानेके भावको कारित कहते हैं। अनुमत-जो दूसरे करें उसे भला समझना सो अनुमत है ।।।। ६४
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मोक्षशास्त्र
अजीवाधिकरण आस्रव के भेद बतलाते हैं निर्वर्तनानिक्षेप संयोग निसर्गाः द्विचतुर्द्वित्रिभेदाः
परम् ॥ ६ ॥
अर्थ:- [ परम् ] दूसरा श्रजीवाधिकररण ग्रासूव [निर्वर्तना द्वि] दो प्रकारकी निर्वर्तना, [ निक्षेप चतुः ] चार प्रकारके निक्षेप [ संयोग द्वि ] दो प्रकारके संयोग और [ निसर्गाः त्रिभेदाः ] तीन प्रकारके निसर्ग ऐसे कुल ११ भेदरूप है ।
५०६
टीका
निर्वर्तना
— रचना करना — निपजाना सो निर्वर्तना है, उसके दो भेद हैं: - १ - शरीरसे कुचेष्टा उत्पन्न करना सो देहदुः प्रयुक्त निर्वर्तना है और २ - शस्त्र इत्यादि हिंसा के उपकरणकी रचना करना सो उपकरण निर्वर्तना है । अथवा दूसरी तरहसे दो भेद इस तरह होते हैं: - १ -पाँच प्रकारके शरीर, मन, वचन, श्वासोछ्वासका उत्पन्न करना सो मूलगुण निर्वर्तना है और २ - काष्ट, मिट्टी, इत्यादिसे चित्र आदिको रचना करना सो उत्तरगुण निर्वर्तना है ।
निक्षेप - वस्तुको रखनेको (-धरनेको ) निक्षेप कहते हैं, उसके चार भेद हैं:—१-बिना देखे वस्तुका रखना सो श्रप्रत्यवेक्षित निक्षेपाधिकरण है; २-यत्नाचार रहित होकर वस्तुको रखना सो दुःप्रमृष्टनिक्षेपाधिकरण है, ३- भयादिकसे या अन्य कार्य करने की जल्दीमे पुस्तक, कमडलु, शरीर या शरीरादिकके मैलको रखना सो सहसा निक्षेपाधिकरण है और ४- जीव है या नही ऐसा बिना देखे और बिना विचार किए शीघ्रता से पुस्तक, कमडलु, शरीर या शरीरके मैलको रखना और जहाँ वस्तु रखनी चाहिये वहाँ न रखना सो अनाभोगनिक्षेपाधिकरण है ।
संयोग — मिलाप होना सो सयोग है; उसके दो भेद है, १ -भक्तपान संयोग और २ – उपकरण संयोग । एक आहार पानीको दूसरे श्राहारा पानी के साथ मिला देना सो भक्तपान संयोग है, और ठंडी पुस्तक, कमंडलु,
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अध्याय ६ सूत्र ६-१०
५०७ शरीरादिकको धूपसे गरम हुई पीछी आदिसे पोछना तथा शोधना सो उपकरण संयोग है।
निसर्ग-प्रवर्तनको निसर्ग कहते हैं, उसके तीन भेद हैं १-मनको प्रवर्ताना सो मन निसर्ग है, २-वचनोको प्रवर्ताना सो वचन निसर्ग है और ३-शरीरको प्रवर्ताना सो काय निसर्ग है।
नोट:-जहाँ जहाँ परके करने करानेकी बात कही है वहाँ वहाँ व्यवहार कथन समझना। जीव परका कुछ कर नही सकता तथा पर पदार्थ जीवका कुछ कर नही सकते, किन्तु मात्र निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध दिखानेके लिये इस सूत्रका कथन है ॥६॥
यहाँ तक सामान्य आस्रवके कारण कहे; अब विशेष आस्रवके कारण वर्णित करते हैं, उसमें प्रत्येक कर्मके आस्रवके कारण बतलाते हैं
ज्ञानावरण और दर्शनावरणके आस्रवका कारण तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता
ज्ञानदर्शनावरणयोः ॥१०॥ अर्थः-[ तत्प्रदोष निह्नव मात्सर्यांतराया सादनोपघाताः ] ज्ञान और दर्शनके सम्बन्धमे करनेमे आये हुये प्रदोष, निह्नव, मात्सर्य, अतराय, आसादन और उपघात ये [ ज्ञानवर्शनावरणयोः ] ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण कर्मासके कारण हैं ।
टीका १. प्रदोष-मोक्षका कारण अर्थात् मोक्षका उपाय तत्त्वज्ञान है, उसका कथन करनेवाले पुरुषकी प्रशंसा न करते हुये अन्तरङ्गमे जो दुष्ट परिणाम होना सो प्रदोष है ।
निह्नव-वस्तुस्वरूपके ज्ञानादिका छुपाना-जानते हुये भी ऐसा कहना कि मैं नहीं जानता सो निह्नव है।
मात्सर्य-वस्तुस्वरूपके जानते हुये भी यह विचारकर किसीको न
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५०८
- मोक्षशास्त्र पढ़ाना कि 'यदि मैं इसे कहूँगा तो यह पंडित हो जायगा' सो मात्सर्य है।
अंतराय-यथार्थ ज्ञानकी प्राप्तिमें विघ्न करना सो अंतराय है।
आसादन-परके द्वारा प्रकाश होने योग्य ज्ञानको रोकना सो प्रासादन है।
उपघात-यथार्थ प्रशस्त ज्ञानमे दोष लगाना अथवा प्रशसा योग्य ज्ञानको दूषण लगाना सो उपघात है।
इस सूत्र में 'तत्' का अर्थ ज्ञान-दर्शन होता है।
उपरोक्त छह दोष यदि ज्ञानावरण सम्बन्धी हों तो ज्ञानावरणके निमित्त हैं और दर्शनावरण सम्बन्धी हों तो दर्शनावरणके निमित्त हैं ।।
२-इस सूत्र में जो ज्ञानावरण-दर्शनावरण कर्मके पासबके छह कारण कहे हैं उनके बाद ज्ञानावरणके लिये विशेष कारण श्री तत्त्वार्थसारके चौथे अध्यायकी १३ से १६ वी गाथामे निम्नप्रकार दिया है:
७-तत्त्वोका उत्सूत्र ६थन करना । ८-तत्त्वका उपदेश सुननेमे अनादर करना । ६-तत्त्वोपदेश सुननेमे आलस्य रखना। १०-लोभ बुद्धिसे शास्त्र बेचना ।
११-अपनेको-निजको बहुश्रुतज्ञ (-उपाध्याय) मानकर अभिमानसे मिथ्या उपदेश देना।
१२-अध्ययनके लिये जिस समयका निषेध है उस समयमें ( अकालमे ) शास्त्र पढना ।
१३-सच्चे प्राचार्य तया उपाध्यायसे विरुद्ध रहना । १४-तत्त्वोमें श्रद्धा न रखना । १५-तत्त्वोका अनुचिंतन न करना। १६-सर्वज्ञ भगवानके शासनके प्रचारमे बाधा डालना । १७-बहुश्रुत ज्ञानियोंका अपमान करना । १८-तत्त्वज्ञानका अभ्यास करनेमे शठता करना।
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अध्याय ६ सूत्र १०
५०६ ३-यहाँ यह तात्पर्य है कि जो काम करनेसे अपने तथा दूसरे के तत्त्वज्ञानमे बाधा आवे या मलिनता हो वे सब ज्ञानावरण कर्मके आसूचके कारण हैं। जैसे कि एक ग्रंथके असावधानीसे लिखने पर किसी पाठको छोड देना अथवा कुछ का कुछ लिख देना सो ज्ञानावरण कर्मके आसवका कारण होता है । ( देखो तत्त्वार्थसार पृष्ठ २००-२०१)
४-और फिर दर्शनावरणके लिये इस सूत्रमे कहे गये छह कारणो के पश्चात् अन्य विशेष कारण श्री तत्त्वार्थसारके चौथे अध्यायकी १७-१८ १६ वी गाथामे निम्नप्रकार दिये है:
सोना (१०) नास्तिकपनको भावना रखना ( ११ ) सम्यग्दर्शनमे दोष लगाना ( १२) कुतीर्थवालोको प्रशंसा करना ( १३ ) तपस्वियो (दिगम्बर मुनियों ) को देखकर ग्लानि करना-ये सब दर्शनावरण कर्मके पासूवके कारण हैं।
५. शंका-नास्तिकपनेकी वासना आदिसे दर्शनावरणका आसूव कैसे होगा, उनसे तो दर्शन मोहका पासव होना सभव है क्योकि सम्यर
उपयोग ।
समाधान-जैसे वाह्य इन्द्रियोसे मूर्तिक पदार्थोका दर्शन होता है वैसे ही विशेषज्ञानियोके अमूर्तिक आत्माका भी दर्शन होता है, जैसे सर्व ज्ञानोमे आत्मज्ञान अधिक पूज्य है वैसे ही वाह्य पदार्थों के दर्शन करने से
कारणो को दर्शनावरण कर्मके आसवका कारण मानना अनुचित नही है। इसप्रकार नास्तिकपनेकी मान्यता आदि जो कारण लिखे हैं वे दोष दर्शनावरण कर्मके आसूवके हेतु हो सकते है ? (देखो तत्वार्थसार पृष्ठ२०१-२०२)
यद्यपि आयुकर्मके अतिरिक्त अन्य सात कर्मोका पासव प्रति समय हुवा करता है तथापि प्रदोषादिभावोके द्वारा जो ज्ञानावरणादि खाम-विशेष कर्मका बध होना बताया है वह स्थितिवध और अनुभागवधको अपेक्षाखे
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मोक्षशास्त्र समझना अर्थात् प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध तो सब कर्मोंका हुआ करता है किंतु उस समय ज्ञानावरणादि खास कर्मका स्थिति और अनुभागवंध विशेष अधिक होता है ॥ १० ॥
असाता वेदनीयके आस्रवके कारण दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्म
परोभयस्थानान्यसद्व द्यस्य ॥११॥
अर्थ-[प्रात्मपरोभयस्थानानि ] अपनेमें, परमे और दोनोंके विषयमें स्थित [ दुःखशोकतापानंदनवघपरिदेवनानि ] दुःख, शोक, ताप, आक्रंदन, वध और परिदेव ये [ असदेद्यस्य ] असातावेदनीय कर्मके आसवके कारण हैं।
टीका १. दुःख-पीड़ारूप परिणाम विशेषको दुःख कहते है ।
शोक-अपनेको लाभदायक मालूम होनेवाले पदार्थका वियोग होने पर विकलता होना सो शोक है।
ताप—ससारमें अपनी निंदा आदि होने पर पश्चाताप होना । आक्रंदन-पश्चात्तापसे अश्रुपात करके रोना सो आक्रंदन है । वध-प्राणोंके वियोग करने को वध कहते हैं ।
परिदेव-संक्लेश परिणामोके कारणसे ऐसा रुदन करना कि जिससे सुननेवालेके हृदयमें दया उत्पन्न हो जाय सो परिदेवन है।
यद्यपि शोक ताप आदि दुःखके ही भेद हैं तथापि दुःखकी जातियाँ बतानेके लिये ये दो भेद बताये हैं।
२-स्वयंको, परको या दोनोंको एक साथ दुःख शोकादि उत्पन्न करना सो असातावेदनीय कर्मके पासूवका कारण होता है।
प्रश्न-यदि दुःखादिक निजमें, परमें, या दोनोंमें स्थित होने से असातावेदनीय कर्मके आसूवका कारण होता है तो अर्हन्त मतके मानने
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अध्याय ६ सूत्र ११
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वाले जीव केश- लोंच, अनशन तप, आतपस्थान इत्यादि दुःखके निमित्त स्वयं करते हैं और दूसरों को भी वैसा उपदेश देते है तो इसीलिये उनके भी असातावेदनीय कर्मका आसूव होगा ।
उत्तर— नही, यह दूषरण नहीं है । यह विशेष कथन ध्यान में रखना कि यदि अंतरंगक्रोधादिक परिणामोंके श्रावेशपूर्वक खुदको, दूसरे को या दोनोंको दुःखादि देनेका भाव हो तो ही वह असातावेदनीय कर्मके आसूवका कारण होता है । भावार्थ यह है कि अंतरंग क्रोधादिके वश होने से आत्मा जो दुःख होता है वह दुःख केशलोंच, अनशनतप या प्रतापयोग इत्यादि धारण करनेमे सम्यग्दृष्टि मुनिके नही होता, इसलिये' उनके इससे असातावेदनीयका आसूव नही होता, वह तो उनका शरीरके प्रति वैराग्यभाव है ।
यह बात दृष्टांत द्वारा समझाई जाती है:
दृष्टांत - जैसे कोई दयाके अभिप्रायवाला- दयालु और शल्यरहित वैद्य संयमी पुरुषके फोड़ेको काटने या चीरनेका काम करता है और उस पुरुषको दुःख होता है तथापि उस बाह्य निमित्तमात्रके कारण पापवध नही होता, क्योकि वैद्यके भाव उसे दुःख देने के नही है |
सिद्धांत - जैसे ही संसार सबन्धी महा दुःखसे उद्विग्न हुये मुनि संसार सम्बन्धी महादुःखका अभाव करनेके उपायके प्रति लग रहे है, उनके संक्लेश परिणामका अभाव होनेसे, शास्त्रविधान करनेमे आये हुये कार्यों स्वयं प्रवर्तनेसे या दूसरोंको प्रवर्तानेसे पापबन्ध नहीं होता, क्योकि उनका अभिप्राय दुःख देने का नहीं; इसलिये वह असातावेदनीयके श्रावके कारण नही है ।
३- इस सूत्र का सिद्धांत
बाह्य निमित्तोके अनुसार आसून या वंध नही होता, किन्तु जीव स्वयं जैसा भाव करे उस भावके अनुसार ग्रासूव और बंध होता है । यदि जीव स्वय विकारभाव करे तो बंध हो और विकारभाव न करे तो वन्ध नही होता ॥ ११ ॥
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५१२
मोक्षशास्त्र सातावेदनीयके आस्रवके कारण भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः शान्तिः
शौचमिति सद्यस्य ॥ १२॥ अर्थ-[ भूतव्रत्यनुकंपा ] प्राणियोंके प्रति और व्रतधारियोंके प्रति अनुकंपा-दया दान सराग संयमादियोगः ] दान, सराग संयमादिके योग, [ क्षांतिः शौचमिति ] क्षमा और शौच, अहंतभक्ति इत्यादि [ सवेद्यस्य ] सातावेदनीय कर्मके आसूवके कारण हैं ।
टीका १. भूत-चारों गतियोंके प्राणी ।
व्रती%3D जिन्होंने सम्यग्दर्शन पूर्वक अणुव्रत या महाव्रत धारण किये हों ऐसा जीव;
इन दोनों पर अनुकम्पा-दया करना सो भूतव्रत्यनुकम्पा है।
प्रश्न-जब कि 'भूत' कहने पर उसमें समस्त जीव आगये तो फिर 'वती' बतलाने की क्या आवश्यक्ता है ?
उत्तर-सामान्य प्राणियोसे व्रती जीवोंके प्रति अनुकंपा की विशेषता बतलानेके लिये वह कहा गया है। व्रती जीवोंके प्रति भक्ति पूर्वक भाव होना चाहिये।
दान = दुखित, भूखे आदि जीवोके उपकारके लिये धन, औषधि, आहारादिक देना तथा व्रती सम्यग्दृष्टि सुपात्र जीवोको भक्ति पूर्वक दान देना सो दान है।
सरागसंयम - सम्यग्दर्शन पूर्वक चारित्रके धारक मुनिके जो महाव्रतरूप शुभभाव है संयमके साथ वह राग होनेसे सराग संयम कहा जाता है। राग कुछ संयम नही; जितना वीतरागभाव है वह संयम है।
२. प्रश्न-चारित्र दो तरहके बताये गए हैं (१) वीतराग
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अध्याय ६ सूत्र १२
५१३ चारित्र और दूसरा सराग चारित्र; और चारित्र बन्धका कारण नहीं है तो फिर यहाँ सराग संयमको आस्रव और बन्धका कारण क्यों कहा है ?
उत्तर-जहां सराग संयमको बन्धका कारण कहा वहाँ ऐसा समझना कि वास्तवमें चारित्र ( संयम ) बन्धका कारण नहीं, किन्तु जो राग है वह बन्धका कारण है । जैसे-चावल दो तरहके है-एक तो भूसे सहित और दूसरा भूसे रहित; वहाँ भूसा चावलका स्वरूप नही है किन्तु चावलमें वह दोष है। अव यदि कोई सयाना पुरुष भूसे सहित चावलका सग्रह करता हो उसे देखकर कोई भोला मनुष्य भूसेको ही चावल मानकर उसका संग्रह करे तो वह निरर्थक खेदखिन्न ही होगा। वैसे ही चारित्र (सयम ) दो भेदरूप है-एक सराग तथा दूसरा वीतराग । यहाँ ऐसा समझना कि जो राग है . वह चारित्रका स्वरूप नही किन्तु चारित्रमें वह दोष है। अव यदि कोई सम्यग्ज्ञानी पुरुष प्रशस्त राग सहित चारित्रको धारण करे तो उसे देखकर कोई प्रज्ञानी प्रशस्त रागको ही चारित्र मानकर उसे धारण करे तो वह निरर्थक, खेदखिन्न ही होगा। । "( देखो सस्ती ग्रंथमालाका मोक्षमार्ग प्रकाशक अ०७ पृष्ठ ३६०
- तथा पाटनी ग्रन्थमाला श्री समयसार पृष्ठ ५५८ ) मुनिको चारित्रभाव मिश्ररूप है। कुछ तो वीतराग हुआ है और कुछ सराग है; वहाँ जिस अंशसे वीतराग हुआ है उसके द्वारा तो सवर है और जिस अंशसे सराग रहा है उसके द्वारा बन्ध है । सो एक भावसे तो दो कार्य वने किन्तु एक प्रशस्त राग ही से पुण्यास्रव भी मानना और संवर-निर्जरा भी मानना वह भ्रम है। अपने मिश्र भावमें ऐसी पहिचान सम्यग्दृष्टिके ही होती है कि 'यह सरागता है और यह वीतरागता है।' इसीलिये वे अवशिष्ट सराग भावको हेयरूप श्रद्धान करते हैं। मिथ्याष्टिके ऐसी परीक्षा न होनेसे सराग भावमे संवरका भ्रम द्वारा प्रशस्त-रागरूप कार्यको उपादेय मानता है। ( देखो मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ३३४-३३५ )
• इसतरह सरागसंयममे जो महाव्रतादि पालन करनेका शुभभाव है वह आस्रव होनेसे बन्धका कारण है किन्तु जितना निर्मल चारित्र प्रगट हुआ है वह बन्धका कारण नहीं है।
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मोक्षशास्त्र । ३-इस सूत्र में 'आदि' शब्द है उसमें संयमासंयम, अकामनिर्जरा, और बालतपका समावेश होता है।
संयमासंयम- सम्यग्दृष्टि श्रावकके व्रत ।
अकामनिर्जरा-पराधीनतासे-( अपनी बिना इच्छाके ) भोग उपभोगका निरोध होने पर संक्लेशता रहित होना अर्थात् कपायकी मंदता करना सो अकामनिर्जरा है।
बालतप-मिथ्यादृष्टिके मंद कषायसे होनेवाला तप ।
४- इस सूत्र में 'इति' शब्द है, उसमें अरहन्तका पूजन, बाल, वृद्ध था तपस्वी मुनियोंकी वैयावृत्य करने में उद्यमी रहना, योगको सरलता और विनयका समावेश हो जाता है।
योग-शुभ परिणाम सहित निर्दोष क्रियाविशेषको योग कहते हैं ।
शांति-शुभ परिणामकी भावनासे क्रोधादि कषायमें होनेवाली तीव्रताके अभावको क्षति (क्षमा ) कहते हैं ।
शौच-शुभ परिणाम पूर्वक जो लोभका त्याग है सो शौच है। वीतरागी निर्विकल्प क्षमा और शौचको 'उत्तम क्षमा' और 'उत्तम शौच' कहते है, वह आस्रवका कारण नहीं है। अब अनंत संसारके कारणीभूत दर्शनमोहके आश्रवके कारण कहते हैं। केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य ॥१३॥
अर्थ-[ केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादः ] केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देवका अवर्णवाद करना सो [ दर्शनमोहस्य ] दर्शन मोहनीय कर्मके आश्रवके कारण हैं।
टीका १. अवर्णवाद-जिसमें जो. दोष न हो उसमें उस दोषका आरोपण करना सो अवर्णवाद है।
केवलित्व, मुनित्व और देवत्व ये आत्माकी ही भिन्न भिन्न अवस्था
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अध्याय ६ सूत्र १३
५१५ मौके स्वरूप हैं। अरिहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और मुनि ये पांचों पद निश्वयसे.आत्मा ही हैं (देखो योगीन्द्रदेवकृत योगसार गाथा १०४, परमात्मप्रकाश-पृष्ठ ३९३, ३६४ ) इसीलिये उनका स्वरूप समझने में यदि भूल हो और वह उनमें न हो ऐसा दोष कल्पित किया जाय तो आत्माका स्वरूप न समझे और मिथ्यात्वभावका पोषण हो। धर्म आत्माका स्वभाव है इसलिये धर्म सम्बन्धी झूठी. दोष कल्पना करना सो भी महान दोष है।
...२-श्रुतका अर्थ है शास्त्र, वह जिज्ञासु जीवोंके आत्माका स्वरूप समझने में निमित्त है, इसीलिये मुमुक्षुओंको सच्चे शास्त्रोंके स्वरूपका भी निर्णय करना चाहिये।
३-केवली भगवानके अवर्णवादका स्वरूप 7 (१) भूख और प्यास यह पीड़ा है, उस पीड़ासे दुःखी हुए जीव ही आहार लेनेकी इच्छा करते हैं। भूख और प्यासके कारण दुःखका अनुभव होना सो आर्तध्यान है। केवली भगवानके सम्पूर्ण ज्ञान और अनन्त सुख होता है तथा उनके परम शुक्लध्यान रहता है। इच्छा तो वर्तमानमे रहनेवाली दशाके प्रति द्वेष और परवस्तुके प्रति रागका अस्तित्व सूचित करती है, केवली भगवानके इच्छा ही नही होती, तथापि ऐसा मानना कि केवली भगवान अन्नका आहार ( कवलाहार ) करते हैं यह न्याय विरुद्ध है। केवली भगवानके सम्पूर्ण वीर्य प्रगट हुमा होनेसे उनके भूख और प्यास की पीड़ा ही नही होती, और अनन्त सुख प्रगट होनेसे इच्छा ही नही होती। और बिना इच्छा कवल आहार कैसा? जो इच्छा है सो दुःख है-लोभ है इसलिये केवली भगवानमे आहार लेनेका दोष कल्पित करना सो केवलीका और अपने शुद्ध स्वरूपका अवर्णवाद है । यह दर्शनमोहनीयकर्मके आस्रवका कारण है अर्थात् यह अनन्त संसारका कारण है।
(२) आत्माको वीतरागता और केवलज्ञान प्रगट होनेके बाद शरीरमे शौच या दूसरा कोई दर्द (रोग) हो और उसकी दवा लेने या दवा लानेके लिये किसीको कहना यह अशक्य है दवा लेनेकी इच्छा होना और
* तीर्थङ्कर भगवानके जन्मसे ही मलमूत्र नही होता और समस्त केवली भगवानोके केवलज्ञान होनेके बाद रोग, आहार-निहारमादि नहीं होता।
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मोक्षशास्त्र दवा लानेके लिये किसी शिष्यको कहना ये सब दुःखका अस्तित्व सूचित करता है, अनन्तसुखके स्वामी केवली भगवानके प्राकुलता, विकल्प, लोभ, इच्छा या दुःख होनेकी कल्पना करना अर्थात् केवली भगवानको सामान्य छद्मस्थकी तरह मानना न्याय विरुद्ध है । यदि आत्मा अपने यथार्थ स्वरूप को समझे तो आत्माकी समस्त दशाओंका स्वरूप ध्यानमें आं जाय । भगवान छद्मस्थ मुनिदशामें करपात्र (हाथमें भोजन करनेवाले होते हैं और आहारके लिये स्वयं जाते हैं किन्तु यह अशक्य है कि केवलज्ञान होनेके बाद रोग हो, दवाकी इच्छा उत्पन्न हो और वह लानेके लिये शिष्यको आदेश दें। केवलज्ञान होने पर शरीरकी दशा उत्तम होती है और शरीर परम औदारिक रूपमे परिणमित हो जाता है। उस शरीरमें रोग होता ही नहीं। यह अबाधित सिद्धान्त है कि 'जहाँ तक राग हो वहाँ तक रोग हो, परन्तु भगवानको राग नहीं है इसी कारण उनके शरीरके रोग भी कभी होता ही नही । इसलिये इससे विरुद्ध मानना सो अपने आत्मस्वरूपका और उपचारसे अनन्त केवलीभगवन्तोंका अवर्णवाद है।
.. (३). किसी भी जीवके गृहस्थ दशामें केवलज्ञान प्रगट होता हैं ऐसा मानना सो बड़ी भूल है । गृहस्थ दशा छोड़े बिना भावसांधुत्व आ ही नहीं सकता, भावसाधुत्व हुए बिना भी केवलज्ञान कैसे प्रगट हो सकता है ? भावसाधुत्व छ? सातवें गुणस्थानमें होता है और केवलज्ञान तेरहवें गुणस्थानमें होता है इसलिये गृहस्थदशामें कभी भी किसी जीवके केवलज्ञान नहीं होता। इससे विरुद्ध जो मान्यता हैं सो अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपका और उपचारसे अनन्तं केवली भगवानोंका अवर्णवाद है।
(४) छद्मस्थ जीवोंके जो ज्ञान-दर्शन उपयोग होता है वह ज्ञेय सन्मुख होनेसे होता है, इस देशामें एक ज्ञेयसे हटकर दूसरे ज्ञेयकी तरफ प्रवृत्ति करता है, ऐसी प्रवृत्ति बिना छद्मस्थ जीवका ज्ञान प्रवृत्त नही होता; इसीसे पहले चार ज्ञान पर्यंतके कथनमे उपयोग शब्दका प्रयोग उसके अर्थ के अनुसार (-'उपयोग' के अन्वयार्थके अनुसार ) कहा जा सकता है। परंतु केवलज्ञान और केवलदर्शन तो अखण्ड अविच्छिन्न है; उसको ज्ञेय सन्मुख नही होना पड़ता अर्थात् केवलज्ञान और केवलदर्शनको एक ज्ञेयसे हटकर
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अध्याय ६ सूत्र १३
५१७. दूसरे ज्ञेयकी तरफ नहीं लगाना पड़ता, केवली. भगवानके केवलदर्शन और केवलज्ञान एक साथ ही होते हैं। फिर भी ऐसा मानना-सो-मिथ्या मान्यता है कि "केवली भगवानके तथा सिद्ध भगवानके जिस समय ज्ञानोपयोग होता तब दर्शनोपयोग नही होता और जब दर्शनोपयोग होता. है। तब ज्ञानोपयोग नहीं होता।" ऐसा मानना कि "केवली- भगवानको तथा. सिद्ध भगवानको केवलज्ञान प्रगट होनेके बाद-जो अनन्तकाल है-उसके अर्धकालमें ज्ञानके कार्य बिना और अर्द्धकालदर्शनके कार्य, बिना व्यतीत करना पड़ता है" ठीक है. क्या ? नहीं, यह मान्यता भी न्याय विरुद्ध ही है, इसलिये ऐसी खोटी (-मिथ्या) मान्यता रखना सो अपने आत्माके शुद्ध स्वरूप का और उपचार.से.अनन्त केवली भगवानोंका अवर्णवाद है।
(५) चतुर्थ गुणस्थान-(सम्यग्दर्शन ) साथ ले जाने वाला आत्मा पुरुषपर्यायमें ही जन्मता.है खो रूपमें कभी भी पैदा नहीं होता; इसीलिये खो रूपसे कोई तीर्थंकर नही हो सकता, क्योंकि तीर्थकर होने वाला आत्मा सम्यग्दर्शन सहित ही जन्मता है और इसीलिये वह पुरुष ही होता है । यदि ऐसा माने कि किसी कालमें एक षी तीर्थंकर हो तो भूत और भविष्यकी अपेक्षासे (-चाहे जितने लम्बे समयमें हो तथापि ) अनंत खियाँ तीर्थकर हों और इसी कारण यह सिद्धांत भी टूट जायगा कि सम्यग्दर्शन सहित प्रात्मा स्त्री रूपमें पैदा नही होता; इसलिये स्त्री को तीर्थंकर मानना सो मिथ्या मान्यता है और ऐसा मानने वाले ने आत्मा की शुद्ध दशाका स्वरूप नही जाना । वह यथार्थमें अपने शुद्ध स्वरूप का पौर उपचारसे अनन्त केवलो भगवानोंका अवर्णवाद है।
(६ ) किसी भी कर्मभूमिकी स्त्रीके प्रथमके तीन उत्तम संहननका उदय ही नही होता,जब जीवके केवलज्ञान हो तब पहला ही संहनन होता है ऐसा केवलज्ञान और पहले संहननके निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है । स्त्री के पांचवें गुरणस्थानसे ऊपरको अवस्था प्रगट नहीं होती, तथापि ऐसा मानना कि वीके शरीरवाच जोवको उसी भवमे केवलज्ञान होता है सो अपने शुद्ध
* देखो गोमट्टसार कर्मकाड गाथा ३२ ।
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मोक्षशास्त्र स्वरूपका अवर्णवाद है और उपचारसे अनंत केवली भगवानोंका तथा साधु संघका अवर्णवाद है।
(७) भगवानकी दिव्यध्वनि को देव, मनुप्य, तियंच-सवं जीव अपनी अपनी भाषामें अपने ज्ञानकी योग्यतानुसार समझते हैं। उस निरदार ध्वनिको ॐकार ध्वनि भी कहा है। श्रीनाओंके कणं प्रदेशतक यह ध्वनि न पहुँचे वहाँ तक वह अनक्षर ही है, और जब वह श्रोताग्रो के काम प्राप्त हो तव अक्षररूप होती है। (गो० जी० गा० २२७ टीका )
___ तालु, प्रोष्ठ आदिके द्वारा केवली भगवानको वाणी नहीं खिरती किन्तु सर्वाग निरक्षरी वाणी खिरती है। इससे विरुद्ध मानना सो मात्माके शुद्धस्वरूपका और उपचारसे केवली भगवानका अवर्णवाद है।
(5) सातवें गुणस्थानसे वंद्य वन्दकभाव नहीं होता, इसलिये वहाँ व्यवहार विनय-वैयावृत्य आदि नहीं होते। ऐसा मानना कि केवली किसी का विनय करे या कोई जीव केवलज्ञान होनेके बाद गृहस्थ-कुटुम्बियोंके साथ रहे या गृह कार्य में भाग लेता है-सो तो वीतरांगको सरागी माना, और ऐसा मानना न्याय विरुद्ध है कि किसी भी द्रव्यस्त्रीके केवलज्ञान उत्पन्न होता है । 'कर्मभूमिकी महिला के प्रथम तीन संहनन होते ही नहीं और चौथा संहनन हो तव वह जीव ज्यादासे ज्यादा सोलहवें स्वर्ग तक जा सकता है' ( देखो गोमट्टसार कर्मकाड गाथा २६-३२) इससे विरुद्ध मानना सो आत्माके शुद्ध स्वरूपका और उपचारसे अनन्तकेवली भगवान का अवर्णवाद है।
(8) कुछ लोगोंका ऐसा मानना है कि प्रात्मा सर्वज्ञ नहीं हो सकता सो यह मान्यता भूलसे भरी हुई है । आत्माका स्वरूप ही ज्ञान है, ज्ञान क्या नही जानता ? ज्ञान सबको जानता है ऐसी उसमे शक्ति है। और वीतराग विज्ञानके द्वारा वह शक्ति प्रगट कर सकता है । पुनश्च कोई ऐसा मानते है कि केवलज्ञानी आत्मा सर्वद्रव्य, उसके अनन्तगुण और उसकी अनंतपर्यायों को एक साथ जानता है तथापि उसमेसे कुछ जाननेमें नही आताजैसे कि एक बच्चा दूसरेसे कितना बड़ा, कितने हाथ लम्बा, एक घर दूसरे
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अध्याय ६ सूत्र १३
५१६ घरसे कितने हाथ दूर है इत्यादि बातें केवलज्ञानमें मालूम नहीं होती।' सो यह मान्यता सदोष है । इसमें आत्माके शुद्ध स्वरूपका और उपचारसे अनन्त केवली भगवानोंका अवर्णवाद है। भाविकालमें होनहार, सर्व द्रव्यको सर्व पर्याय भी केवलज्ञानीके वर्तमान ज्ञानमें निश्चितरूप प्रतिभासित है ऐसा न मानना वह भी केवलीको न मानना है।
(१०) ऐसा मानना कि केवली तीर्थकर भगवान ने ऐसा उपदेश किया है कि 'शुभ रागसे धर्म होता है, शुभ व्यवहार करते २ निश्चय धर्म होता है' सो यह उनका प्रवर्णवाद है । "शुभभावके द्वारा धर्म होता है इसीलिये भगवानने शुभभाव किये थे। भगवान ने तो दूसरों का भला करने में अपना जीवन अर्पण कर दिया था" इत्यादि रूपसे भगवान की जीवन कथा कहना या लिखना सो अपने शुद्ध स्वरूपका और उपचारसे अनंत केवली भगवानोंका अवर्णवाद है।
(११) प्रश्न-यदि भगवान ने परका कुछ नहीं किया तो फिर जगदुद्धारक, तरण तारण, जीवनदाता, बोधिदाता इत्यादि उपनामोसे षयों पहचाने जाते हैं ?
उबर-ये सव नाम उपचारसे हैं; जव भगवानको दर्शनविशुद्धिकी भूमिकामें अनिच्छकभावसे धर्मराग हुआ, तव तीर्थकर नामकर्म बंध गया। तत्त्वस्वरूप यों है कि भगवानको तीर्थंकर प्रकृति वैधते समय जो शुभभाव हुआ था वह उनने उपादेय नहीं माना था, किंतु उस शुभभाव और उस तीर्थंकर नामकर्म दोनोंका अभिप्रायमे निषेध ही था। इसीलिये वे रागको नष्ट करनेका प्रयत्न करते थे। अंतमें राग दूर कर वीतराग हुये फिर केवलज्ञान प्रगट हुआ और स्वयं दिव्यध्वनि प्रगट हुई; योग्य जीवोंने उसे सुनकर मिथ्यात्वको छोड़कर स्वरूप समझा और ऐसे जीवोंने उपचार विनयसे जगउद्धारक, तरणतारण, इत्यादि नाम भगवानके दिये । यदि वास्तवमें भगवान ने दूसरे जीवोंका कुछ किया हो या कर सकते हों तो जगत्के सब जीवोको मोक्षमें साथ क्यो नही लेगये ? इसलिये शाषका कथन किस नयका है यह लक्ष्यमें रखकर उसका यथार्थ अर्थ समझना चाहिये । भगवानको परका कर्ता ठहराना भी भगवानका अवर्णवाद है।
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मोक्षशास्त्र
इत्यादि प्रकारसे आत्माके शुद्ध स्वरूप में दोषोंकी कल्पना श्रात्मा केअनंत संसारका कारण है । इसप्रकार केवली भगवानके, अवर्णवादका
स्वरूप कहा ।
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४. श्रुतके अवर्णवादका स्वरूप
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११- जो शास्त्र न्याय की कसौटी चढ़ाने पर अर्थात् सम्यग्ज्ञानके द्वारा परीक्षा करने पर प्रयोजनभूत बातों में सच्चे - यथार्थ मालूम पड़े, उसे ही यथार्थ ठीक मानना चाहिये । जब लोगों की स्मरण शक्ति कमजोर हो तब ही शास्त्र लिखनेकी पद्धति होती है; इसीलिये लिखे हुए शास्त्र गगघर श्रुत केवली के गुथे हुये शब्दोंमें ही न हो, किन्तु सम्यग्ज्ञानी आचार्यों ने उनके यथार्थ भाव जानकर अपनी भाषा में शाखरूपमें गुथे हैं वह भी सत् श्रुत हैं ।
( २ ) सम्यग्ज्ञानी श्राचार्य श्रादिके बनाये हुये शास्त्रोंकी निंदा करना सो अपने सम्यग्ज्ञानकी ही निंदा करनेके सदृश है; क्योंकि जिसने सच्चे शास्त्रकी निंदा की उसका ऐसा भाव हुवा कि मुझे ऐसे सच्चे. निमित्तका संयोग न हो किन्तु खोटे निमित्तका संयोग हो अर्थात् मेरा उपादान सम्यग्ज्ञानके योग्य न हो किन्तु मिथ्याज्ञानके योग्य हो ।
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( ३ ) किसी ग्रंथ के कर्ताके रूपमें तीर्थंकर भगुवानुका, केवलीका, गणधरका या आचार्यका नाम दिया हो इसीलिये उसे - सच्चा ही शास्त्र मान लेना सो न्याय संगत नहीं । मुमुक्षु जोवोंको तत्त्व दृष्टिसे परीक्षा. करके सत्य-असत्यका निर्णय करना चाहिये । भगवानके नामसे किसीने कल्पित शास्त्र बनाया हो उसे सत्श्रुत मान लेना सो सत्श्रुतका अवर्णवाद है; जिन शास्त्रोंमें मांसभक्षण, मदिरापान, वेदनासे पीड़ित मैथुन, सेवन, रात्रिभोजन इत्यादिको निर्दोष कहा हो, भगवती सती को पाँच पति कहे हो, तीर्थंकर भगवानके दो माता, दो, पिता कहे हों, वे शास्त्र यथार्थ नही, इसलिये सत्यासत्य की परीक्षा कर असत्य की मान्यता छोड़ना ।
५. संघके अवर्णवादकां स्वरूप
प्रथम निश्चय सम्यग्दर्शनरूप धर्म प्रगट करना चाहिये ऐसा नियम है,,
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५२१ सम्यग्दर्शन - प्रगट होनेके बाद जिसे सातवां-छट्ठा गुण-स्थान प्रगट हो उसके सच्चा साधुत्व होता है, उनके शरीर परकी स्पर्शेन्द्रियका राग, लज्जा तथा रक्षादिकका राग भी दूर हो जाता है। इसीलिये उनके सर्दी, गर्मी, बरसात आदिसे रक्षा करनेका भाव नही होता; मात्र संयमके हेतु इस पदके योग्य निर्दोष शुद्ध आहारकी इच्छा होती है, इसोसे उस गुणस्थानवाले जीवोंके अर्थात् साधुके शरीर या संयमकी रक्षाके लिये भी वस्त्र नही होते । तथापि ऐसा मानना कि जब तीर्थङ्कर भगवान दीक्षा लेते हैं तब धर्म बुद्धिसे देव उन्हे वस्त्र देते हैं और भगवान उसे अपने साथ रखते हैं। सो न्याय विरुद्ध है । इसमे संघ और देव दोनोंका अवर्णवाद है । स्त्रीलिंगके साधुत्व मानना, अतिशूद्र जीवोंको साधुत्व होना मानना सो संघका अवर्णवाद है । देहके ममत्वसे रहित, निर्ग्रन्थ, वीतराग मुनियोके देहको अपवित्र कहना, निर्लज्ज कहना, बेशरम कहना, तथा ऐसा कहना कि 'जब यहाँ भी दुःख भोगते हैं तो परलोकमे कैसे सुखी होगे' सो संघका अवर्णवाद है ।
साधु-संघ चार प्रकारका है। वह इसप्रकार है:-जिनके ऋद्धि प्रगट हुई हो सो ऋषि; जिनके अवधि-मनःपर्यय ज्ञान हो सो मुनि, जो इंद्रियोंको जीते सो यति और अनगार यानि सामान्य साधु।
६.धर्मके अवर्णवादका स्वरूप जो आत्मस्वभावके स्वाश्रयसे शुद्ध परिणमन है सो धर्म है; सम्यग्दर्शन प्रगट होने पर यह धर्म प्रारम्भ होता है। शरीरकी क्रियासे धर्म नही होता, पुण्य विकार है अतः उससे धर्म नही होता तथा वह धर्ममे सहायक नही होता । ऐसा धर्मका स्वरूप है। इससे विपरीत मानना सो धर्मका अवर्णवाद है। "जिनेन्द्र भगवानके कहे हुए धर्ममे कुछ भी गुण नही है, उसके सेवन करनेवाले असुर होगे, तीर्थङ्कर भगवानने जो धर्म कहा है उसी रूपमे जगत्के अन्यमतोके प्रवर्तक भी कहते हैं, सबका ध्येय समान है।" ऐसा मानना सो धर्मका अवर्णवाद है।
_ आत्माके यथार्थ स्वरूपको समझना, और सच्ची मान्यता करना तथा खोटी मान्यता छोड़ना सो सम्यग्दर्शनकी अपेक्षासे आत्माकी अहिसा
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: ' मोक्षशास्त्र है और क्रम क्रमसे सम्यक् चारित्र बढ़ने पर जितना राग-द्वेषका अभाव होता है उतनी चारित्र अपेक्षा प्रात्माको अहिंसा है । राग द्वेष सर्वथा दूर हो जाता है यह आत्माकी सम्पूर्ण अहिंसा है। ऐसी अहिंसा जीवका धर्म है इसप्रकार अनन्त ज्ञानियोंने कहा है। इससे विरुद्ध जो मान्यता है सो धर्मका अवर्णवाद है।
७. देवके अवर्णवादका स्वरूप स्वर्गके देवके एक प्रकारका अवर्णवाद ५ वें पैराग्राफमें बतलाया है। उसके बाद ये देव मांसभक्षण करते हैं, मद्यपान करते हैं, भोजनादिक करते हैं, मनुष्यिनी-स्त्रियोंके साथ कामसेवन करते हैं या मनुष्यों, देवीसे इत्यादि मान्यता देवका अवर्णवाद है।
८-ये पांच प्रकारके अवर्णवाद दर्शनमोहनीयके आस्रवके कारण हैं और जो दर्शन मोह है सो अनन्त संसारका कारण है।
९. इस सूत्रका सिद्धान्त शुभ विकल्पसे धर्म होता है ऐसी मान्यतारूप अगृहीत मिथ्यात्व तो जीवके अनादिसे चला आया है । मनुष्य गतिमें जीव जिस कुलमें जन्म पाता है उस कुलसे अधिकतर किसी न किसी प्रकारसे धर्मकी मान्यता होती है। पुनश्च उस कुलधर्ममे किसीको देवरूंपसे, किसीको गुरुरूपसे, किसी पुस्तकको शास्त्ररूपसे और किसी क्रियाको धर्मरूपसे माना जाता है। जीवको बचपनमें इस मान्यताका पोषण मिलता है और बड़ी उम्रमें अपने कुलके धर्मस्थानमें जानेपर वहाँ भी मुख्यरूपसे उसी मान्यताका पोषण मिलता है। इस अवस्थामें जीव विवेक पूर्वक सत्य असत्यका निर्णय अधिकतर नही करता और सत्य-असत्यके विवेकसे रहित दशा होनेसे सच्चे देव, गुरु, शास्त्र और धर्म पर अनेक प्रकार झूठे आरोप करता है । यह मान्यता इस भवमें नई ग्रहण की हुई होनेसे और मिथ्या होनेसे उसे गृहीत मिथ्यात्व कहते हैं । ये अगृहीत और गृहीत मिथ्यात्व अनन्त संसारके कारण हैं। इसलिए सच्चे-देव-गुरु-शास्त्र-धर्मका और अपने आत्माका यथार्थ स्वरूप समझकर अगृहीत तथा गृहीत दोनो मिथ्यात्वका नाश करनेके लिए
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अध्याय ६ सूत्र १३-१४
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ज्ञानियोंका उपदेश है । ( अगृहीत मिथ्यात्वका विषय आठवें बन्ध अधिकारमें आवेगा ) । आत्माको न मानना, सत्य मोक्षमार्गको दूषित - कल्पित करना, असत् मार्गको सत्य मोक्षमार्ग मानना, परम सत्य वीतरागी विज्ञानमय उपदेशकी निंदा करना - इत्यादि जो जो कार्य सम्यग्दर्शनको मलिन करते हैं वे सब दर्शन मोहनीयके प्रास्रवके कारण हैं ॥१३॥
I
अब चारित्र मोहनीयके आस्रवके कारण बतलाते हैं कषायोदयाचीत्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य ॥१४॥
·
अर्थ - [ कषायोदयात् ] षायके उदयसे [ तीव्र परिणामः ] तीव्र परिणाम होना सो [ चारित्रमोहस्य ] चारित्र मोहनीयके प्रास्रवका कारण है ।
"
टीका
१. कषायकी व्याख्या इस अध्यायके पाँचवें सूत्रमें कही जा चुकी है । उदयका प्रर्थं विपाक अनुभव है । ऐसा समझना चाहिये कि जीव कषाय कर्मके उदयमे युक्त होकर जितना राग-द्वेष करता है उतना उस जीवके कषायका उदय - - विपाक ( - अनुभव ) हुआ । कषायकर्मके उदयमें युक्त होनेसे जीवको जो तीव्रभाव होता है वह चारित्रमोहनीय कर्मके आस्रवका कारण ( - निमित्त ) है ऐसा समझना ।
२ – चारित्रमोहनीयके श्रस्रवका इस सूत्र में संक्षेपसे वर्णन है; उसका विस्तृत वर्णन निम्नप्रकार है:
(१) अपने तथा परको कषाय उत्पन्न करना ।
(२) तपस्वीजनोको चारित्र दोष लगाना ।
(३) संक्लेश परिणामको उत्पन्न करानेवाला भेष, व्रत इत्यादि धारण करना इत्यादि लक्षरणवाला परिणाम
कषायकर्मके प्रसवका
कारण है ।
(१) गरीबोंका अतिहास्य करना ।
(२) बहुत ज्यादा व्यर्थ प्रलाप करना । (३) हँसीका स्वभाव रखना ।
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मोक्षशास्त्र इत्यादि लक्षणवाला परिणाम हास्यकर्मके आसवका कारण है। (१) विचित्र क्रीड़ा करनेमें तत्परता होना । (२) व्रत-शीलमें अरुचि परिणाम करना । इत्यादि लक्षणवाले परिणाम रतिकर्मके प्रास्रवके कारण हैं। (१) परको अरति उत्पन्न कराना। (२) परकी रतिका विनाश करना । (३) पाप करनेका स्वभाव होना । (४) पापका संसर्ग करना । इत्यादि लक्षणवाले परिणाम अरतिकर्मके प्रास्रवके कारण हैं ।
(१) दूसरेको शोक पैदा कराना (२) दूसरेके शोकमें हर्ष मानना । इत्यादि लक्षणवाले परिणाम शोककर्मके प्रास्रवके कारण हैं।
(१) स्वयंके भयरूप भाव रखना । (२) दूसरेको भय उत्पन्न कराना। इत्यादि लक्षणवाले परिणाम भयकर्मके प्रास्रवके कारण हैं।
भली क्रिया-प्राचारके प्रति ग्लानि आदिके परिणाम होना सो जुगुप्साकर्मके आस्रवका कारण है। (१) झूठ बोलनेका स्वभाव होना । (२) मायाचारमें तत्पर रहना। ' (३) परके छिद्रकी आकांक्षा अथवा बहुत ज्यादा राग होना इत्यादि परिणाम स्त्रीवेदकर्मके आस्रवके कारण हैं। (१) थोड़ा क्रोध होना । (२) इष्ट पदार्थो में आसक्तिका कम होना । (३) अपनी स्त्रीमें संतोष होना । इत्यादि परिणाम पुरुषवेदकर्मके आस्रवके कारण हैं। (१) कषायकी प्रबलता होना। (२), गुह्य इन्द्रियोंका छेदन करना । (३), परस्त्रीगमन करना । इत्यादि परिणाम होना सो नपुंसकवेदके आस्रवका कारण है।
३-'तीव्रता बन्धका कारण है और सर्वजघन्यता बन्धका कारण' नही है' यह सिद्धान्त आत्माके समस्त गुणोमें लागू होता है । आत्मामें होने वाला मिथ्यादर्शनका जो जघन्यसे भी जघन्य भाव होता है वह दर्शन
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मध्याय ६ सूत्र १४-१५
मोहनीय कर्मके प्रास्रवका कारण नहीं है । यदि अंतिम अंश भी बन्ध का कारण हो तो कोई भी जीव व्यवहारमें कर्म रहित नहीं, हो सकता, ( देखो अध्याय ५ सूत्र ३४ की टीका ) ॥ १४ ॥
श्रव श्रायु कर्मके आस्रवके कारण कहते हैंनरकायुके आस्रवके कारण बह्वारंभपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः ॥ १५ ॥
अर्थ - [ बह्वारंभपरिग्रहत्वं ] बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह होना ये [ नारकस्यायुषः ] नरकायुके श्रास्रवके कारण हैं ।,
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१. बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह रखनेका जो भाव है सो नरकायुके आलवका कारण है । 'बहु' शब्दसंख्यावाचक तथा परिणामवाचक है; ये दोनों अर्थ यहाँ लागू होते हैं। अधिक संख्यामे आरंभ, परिग्रह रखनेसे नरकायुका श्रास्रव होता है । आरभ परिग्रह रखनेके बहु 'परिणामसे नरकायुका श्रास्रव होता है; बहु आरंभ - परिग्रहका जो भाव है सो उपादान कारण है और जो बाह्य बहुत आरंभ - परिग्रह है सो निमित्त - कारण है ।
२. आरम्भ - हिंसादि प्रवृत्तिका नाम आरम्भ है । जितना भी आरम्भ किया जाता है उसमें स्थावरादि जीवोका नियमसे वध होता है । प्रारम्भके साथ 'बहु' शब्दका समास करके ज्यादा आरम्भ अथवा बहुत तीव्र परिणामसे जो आरम्भ किया जाता है वह बहु आरम्भ है, ऐसा अर्थ समझना ।
३. परिग्रह – 'यह वस्तु मेरी, है, में इसका स्वामी हूँ' ऐसा परमे अपनेपनका अभिमान अथवा पर वस्तुमें 'यह मेरी है' ऐसा जो संकल्प है सो परिग्रह है । केवल बाह्य धन-धान्यादि पदार्थोंके हो 'परिग्रह' नाम लागू होता है, यह बात नही है । बाह्यमे किसी भी पदार्थके न होने पर भी यदि भावमे ममत्व हो तो वहाँ भी परिग्रह कहा जा सकता है ।
४. सूत्रमें जो नरकायुके श्रास्रवके कारण बताये हैं वे सक्षेपसे हैं, उन भावोंका विस्तृत वर्णन निम्नप्रकार है:
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मोक्षशाख (१) मिथ्यादर्शन सहित हीनाचारमें तत्पर रहनी । (२) अत्यन्त मान करना। (३ ) शिलाभेदकी तरह अत्यन्त तीन क्रोध करना। (४) अत्यन्त तीव्र लोभका अनुराग रहना । ( ५ ) दया रहित परिणामोंका होना। (६) दूसरोंको दुःख देनेका विचार रखना ! , (७) जीवोंको मारने तथा बांधनेका भाव करना । (८) जीवोंके निरन्तर घात करनेका परिणाम रखना।
(६) जिसमें दूसरे प्राणीका वध हो ऐसे झूठे वचन बोलनेका स्वभाव रखना।
(१०) दूसरोंके धन हरण करनेका स्वभाव रखना। (११) दूसरोंकी सियोंके आलिंगन करनेका स्वभाव रखना। (१२) मैथुन सेवनसे विरक्ति न होना। (१३) अत्यन्त प्रारम्भमें इन्द्रियोंकी लगाये रखना। " . (१४) काम भोगोंकी अभिलाषाकी सदैव बढ़ाते रहना। (१५) शील सदाचार रहित स्वभाव रखना। (१६) अभक्ष्य भक्षणके ग्रहण करने अथवा करानेका भाव रखना। (१७) अधिक काल तक वैरं बांधे रखना। . . . (१८) महा क्रूर स्वभाव रखना ।' .. (१९) विना विचारे रोने-कूटनेका स्वभाव रखना। (२०) देव-गुरु-शास्त्रोंमें मिथ्या दोष लगाना। (२१) कृष्ण लेश्याके परिणाम रखना।
(२२) रौद्रध्यानमें मरण करना। इत्यादि लक्षणवाले परिणाम नरकायुके कारण होते हैं ॥ १५ ॥
अब तिर्यंचायुकै आस्रवके कारण बतलाते हैं ।
माया तेर्यग्योनस्य ॥ १६॥
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अध्याय ६ सूत्र.१६
५२७ मर्थ-[माया ] माया-छलकपट [ तैर्यग्योनस्य ] तियंचायुके आस्रवका कारण है।
टीका जो आत्माका कुटिल स्वभाव है सो माया है, इससे तिर्यंच योनि का प्रास्रव होता है । तिर्यंचायुके प्रास्रवके कारणका इस सूत्रमें जो वर्णन किया है वह संक्षेपमें है। उन भावोंका विस्तृत वर्णन निम्नप्रकार है:
(१) मायासे मिथ्या धर्मका उपदेश देना। (२) बहुत प्रारम्भ-परिग्रहमे कपटयुक्त परिणाम करना । (३) कपट-कुटिल कर्ममे तत्पर होना । (४) पृथ्वी भेद सहश क्रोधीपना होना। (५) शीलरहितपना होना।
(६) शब्दसे-चेष्टासे तीव्र मायाचार करना । (७) परके परिणाममे भेद उत्पन्न कराना (4) अति अनर्थ प्रगट करना। (९) गंध-रस-स्पर्शका विपरीतपना होना। (१०) जाति-कुल शीलमें दूषण लगाना । (११) विसवादमे प्रीति रखना। (१२) दूसरेके उत्तम गुणको छिपाना । (१३) अपने मे जो गुण नही हैं उन्हे भी बतलाना । (१४) नील-कपोत लेश्यारूप परिणाम करना। (१५) आर्तध्यानमें मरण करना। इत्यादि लक्षणवाले परिणाम तिर्यंचायुके आस्रवके कारण हैं ॥१६॥
अब मनुष्यायुके आस्रवके कारण बतलाते हैं अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य ॥ १७ ॥
अर्थ-[ अल्पारम्भपरिग्रहत्वं ] थोड़ा आरम्भ और थोड़ा परिग्रहपन [ मानुषस्य ] मनुष्य आयुके प्रास्रवका कारण है।
टीका नरकायुके प्रास्रवका कथन १५ वें सूत्रमें किया जा चुका है, उस
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५२८
मोक्षशास्त्र
नरकायुके आस्रवसे जो विपरीत है सो मनुष्यायुके श्रास्रवका कारण है । इस सूत्र में मनुष्यायुके कारणका संक्षेपमें कथन है, उसका विस्तृत वर्णन निम्नप्रकार है
(१) मिथ्यात्वसहित बुद्धिका होना । (२) स्वभावमें विनय होना । (३) प्रकृति में भद्रता होना ।
(४) परिणामों में कोमलता होनी और मायाचारका भाव न होना । (५) श्रेष्ठ आचरणोंमें सुख मानना ।
(६) वेणु की रेखाके समान क्रोधका होना ।
(७) विशेष गुणी पुरुषोंके साथ प्रिय व्यवहार होना ।
(८) थोड़ा आरम्भ और थोड़ा परिग्रह रखना ।
(e) संतोष रखनेमें रुचि करना । (१०) प्राणियोंके घातसे विरक्त होना । (११) बुरे कार्योंसे निवृत्त होना ।
(१२) मनमें जो बात है उसी के अनुसार सरलतासे बोलना ।
(१३) व्यर्थ बकवाद न करना । (१४) परिणामोंमें मधुरताका होना । (१५) सभी लोकोंके प्रति उपकार बुद्धि रखना ।
(१६) परिणामोंमें वैराग्यवृत्ति रखना ।
(१७) किसीके प्रति ईर्ष्याभाव न रखना ।
(१८) दान देनेका स्वभाव रखना । (१६) कपोत तथा पीत लेश्या सहित होना । (२०) धर्मध्यान में मरण होना ।
इत्यादि लक्षणवाले परिणाम मनुष्यायुके आस्रवके कारण हैं । प्रश्न- जिसकी बुद्धि मिथ्यादर्शनसहित हो उसके मनुष्यायुका आस्रव क्यों कहा ?
उचर- - मनुष्य, तियंचके सम्यक्त्व परिणाम होने पर वे कल्पवासी देवकी आयुका बंध करते हैं, वे मनुष्यायुका बंध नहीं करते, इतना बतानेके लिये उपरोक्त कथन किया है ॥ १७ ॥
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अध्याय ६ सूत्र १५-१६
५२९ मनुष्यायुके आस्रवका कारण (चालू है)
स्वभावमार्दवं च ॥१८॥ मर्थः-[ स्वभावमार्दवं ] स्वभावसे ही सरल परिणाम होना [ ] भी मनुष्यायुके आस्रवका कारण है।
टीका १-इस सूत्रको सत्रहवें सूत्रसे पृथक् लिखनेका कारण यह है कि इस सूत्र में बताई हुई बात देवायुके आस्रवका भी कारण होती है।
२-यहां 'स्वभाव' का अर्थ 'आत्माका शुद्ध स्वभाव' न समझना क्योकि निज स्वभाव बन्धका कारण नहीं होता। यहाँ 'स्वभाव' का अर्थ है 'किसीके बिना सिखाये।' मार्दव भी आत्माका एक शुद्ध स्वभाव है, परन्तु यहाँ मार्दवका अर्थ 'शुभभावरूप ( मंदकषायरूप ) सरल परिणाम' करना; क्योकि जो शुद्धभावरूप मार्दव है वह बन्धका कारण नही है किन्तु शुभभावरूप जो मार्दव है वही बन्धका कारण है ॥१८॥
अब सभी आयुयोंके आस्रवके कारण बतलाते हैं
निःशीलव्रतत्वं च सर्वेषाम् ॥१६॥
अर्थः-[ निःशीलवतत्वं च ] शील और व्रतका जो अभाव है वह भी [ सर्वेषाम् ] सभी प्रकारकी आयुके प्रास्रवका कारण है।
टीका
प्रश्न-जो शील और व्रतरहित होता है उसके देवायुका आस्रव कैसे होता है ?
उत्तर-भोगभूमिके जीवोके शील व्रतादिक नही हैं तो भी देवायुका ही आस्रव होता है।
२-यह बात विशेष ध्यानमे रहे कि मिथ्यादृष्टिके सच्चे शील या व्रत नहीं होते। मिथ्यादृष्टि जीव चाहे जितने शुभरागरूप शीलव्रत पालता हो तो भी वह सच्चे शीलव्रतसे रहित ही है । सम्यग्दृष्टि होनेके बाद यदि जीव अणुव्रत या महाव्रत धारण करे तो उतने मात्रसे वह जीव आयुके
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५३०
मोक्षशास्त्र
बन्धसे रहित नही हो जाता; सस्यग्दृष्टिके प्रणुव्रत और महाव्रत भी देवायुके आस्रवके कारण हैं, क्योंकि वह भी राग है । मात्र वीतरागभाव ही बन्धका कारण नही होता, किसी भी प्रकारका राग हो वह श्रास्रव होनेसे बन्धका ही कारण है ||१६||
अब देवायुके आवके कारण बतलाते हैं। सरागसंयम संयम संयमाकामनिर्जराबालतपांसि - दैवस्य ॥ २० ॥
अर्थः- [ सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जरावालतपांसि ] सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप [ दैवस्य ] ये देवायुके भावके कारण हैं ।
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टीका
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१ --- इस सूत्र में बताये गये - भावोंका अर्थ पहले १२ वें सूत्रकी टीकामें श्रा चुका है । परिणाम बिगड़े बिना : मंदकषाय रखकर दुःख सहन करना सो अकाम निर्जरा है ।
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२- मिथ्यादृष्टिके सरागसंयम और संयमासंयम नहीं होते किन्तु 'बालतप' होता है । इसलिये बाह्यव्रत धारण किये होने मात्रसे ऐसा नहीं मान लेना कि उस जीवके सरागसंयम या संयमासंयम है । 'सम्यग्दर्शन होने के बाद पांचवें गुणस्थानमें अणुव्रत अर्थात् संयमासंयम और छट्टो गुणस्थानमें महाव्रत अर्थात् सरागसंयम होता है । ऐसा भी होता है कि सम्यग्दर्शन होने पर भी अणुव्रत या महाव्रत नहीं होते। ऐसे जीवोंके वीतराग- देवके दर्शन-पूजा, स्वाध्याय, अनुकम्पा इत्यादि शुभभाव होते हैं, पहलेसे चौथे गुणस्थान पर्यन्त उस तरहका शुभभाव होता है; किन्तु वहाँ व्रत नहीं होते । श्रज्ञानीके माने हुये व्रत और तपको बालव्रत और बालतप कहा है । 'बालतप' शब्द तो इस सूत्रमे बतलाया है और बालव्रतका समावेश ऊपर के ( १६ वें ) सूत्रमें होता है ।
३ यहाँ भी यह जानना कि सरागसंयम और संयमासंयम में
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अध्याय ६ सूत्र २०-२१-२२
५३१ जितना वीतरागी भावरूप संयम प्रगट हुआ है वह मानवका कारण नहीं है किन्तु उसके साथ जो राग रहता है वह आसूवका कारण है ॥२०॥
देवायुके आस्रवके कारण
सम्यक्त्वं च ॥ २१ ॥ अर्थ:-[ सम्यक्त्वं च ] सम्यग्दर्शन भी देवायुके आस्रवका कारण है अर्थात् सम्यग्दर्शनके साथ रहा हुआ जो राग है वह भी देवायुके आसवका कारण है।
टीका १-यद्यपि सम्यग्दर्शन शुद्धभाव होनेसे किसी भी कर्मके आसूवका कारण नही है तथापि उस भूमिकामे जो रागांश मनुष्य और तियंचके होता है वह देवायुके आसवका कारण होता है। सराग सयम और संयमासयम के सम्बन्धमे भी यही बात है यह ऊपर कहा गया है।
२-देवायुके आसृवके कारण सम्बन्धी २० वाँ सूत्र कहनेके बाद यह सूत्र पृथक् लिखनेका यह प्रयोजन है कि सम्यग्दृष्टि मनुष्य तथा तिर्यच को जो राग होता है वह वैमानिक देवायुके ही आसूवका कारण होता है, वह राग हलके देवोंकी (भवनवासी व्यंतर और ज्योतिषी देवोकी) आयुका कारण नहीं होता।
३-सम्यग्दृष्टिके जितने अंशमें राग नही है उतने अंशमें आसूव बन्ध नही है और जितने अशमे राग है उतने अंशमे पासूव बन्ध है। (देखो श्री अमृतचन्द्राचार्य कृत पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय-गाथा २१२ से २१४) सम्यग्दर्शन स्वयं प्रबन्ध है अर्थात् वह स्वयं किसी तरहके बन्धका कारण नही है । और ऐसा होता ही नही कि मिथ्यादृष्टिको किसी भी अंशमे राग का अभाव हो इसीलिये वह सम्पूर्णरूपसे हमेशा बन्धभावमे ही होता है।
यहाँ आयुकर्मका आसूव सम्बन्धी वर्णन पूर्ण हुआ ॥२१॥ अब नामकर्मके आसूवके कारण बताते हैं .
अशुभ नामकर्मके आस्रवके कारण
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५३२
मोक्षशास्त्र योगवक्रता विसंवादनं चाशुभाय नाम्नः ॥ २२॥
अर्थ:-[ योगवक्रता ] योगमें कुटिलता [ विसंवादनं च ] और विसंवादन अर्थात् अन्यथा प्रवर्तन [ अशुभस्यनाम्नः ] अशुभ नामकर्मके आसवका कारण है।
टीका
१-प्रात्माके परिस्पंदनका नाम योग है ( देखो इस अध्यायके पहले सूत्रकी टीका ) मात्र अकेला योग सातावेदनीयके पासवका कारण है । योगमें वक्रता नही होती किन्तु उपयोगमे वक्रता (-कुटिलता ) होती है । जिस योगके साथ उपयोगकी वक्रता रही हो वह अशुभ नामकर्मके आसवका कारण है। आसूवके प्रकरणमें योगकी मुख्यता है और बन्धके प्रकरणमें बन्ध परिणामको मुख्यता है, इसीलिये इस अध्यायमें और इस सूत्रमे योग- शब्दका प्रयोग किया, है ।, परिणामोंकी वक्रता जड़-मन, वचन या कायमें नहीं होती तथा योगमे भी नही होती किन्तु उपयोगमें होती है । यहाँ आसूवका प्रकरण होने और पासवका कारण योग. होनेसे, उपयोगकी वक्रताको उपचारसे योग, कहा है । योगके विसंवादनके सम्बन्धमें भी, इसी तरह समझना।
२ प्रश्न–विसंवादनका अर्थ अन्यथा प्रवर्तन होता है और उसका समावेश वक्रतामे हो जाता है तथापि 'विसंवादन' शब्द अलग किसलिये कहा ?
उत्तर-जीवकी स्वकी अपेक्षासे योग वक्रता कही जाती है और परकी अपेक्षासे विसंवारन कहा जाता है । मोक्षमार्गमें प्रतिकूल ऐसी मन वचन काय द्वारा जो खोटी प्रयोजना करना सो योग वक्रता है और दूसरेको वैसा करनेके लिये कहना सो विसंवादन है । कोई जीव शुभ करता हो उसे अशुभ करनेकी कहना सो भी विसंवादन है, कोई जीव शुभराग करता हो
और उसमें धर्म मानता हो उसे ऐसा कहना कि, शुभरागसे धर्म नहीं होता किन्तु वन्ध होता है और यथार्थ समझ तथा वीतराग भावसे धर्म होता है ऐसा उपदेश देना सो विसंवादन नही है क्योंकि उसमे तो सम्यक् न्यायका प्रतिपादन है, इसीलिये उस-कारणसे. बन्ध नही होता।
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मध्याय ६ सूत्र २२-२३-२४
५३३
३ -- इस सूत्र के 'च' शब्दमें मिथ्यादर्शनका सेवन किसीको बुरा वचन बोलना, चित्त की अस्थिरता, कपटरूप माप-तौल, परकी निन्दा, अपनी प्रशंसा इत्यादिका समावेश हो जाता है ॥ २२ ॥
शुभ नाम कर्मके आस्रवका कारण तद्विपरीतं शुभस्य ॥ २३ ॥
अर्थ:- [ तद्विपरीतं ] उससे अर्थात् अशुभ नाम कर्मके श्रास्रवके जो कारण कहे उनसे विपरीतभाव [ शुभस्य ] शुभ नाम कर्मके प्रास्रवके कारण है ।
टीका
१ - बाईसवें सूत्रमे योगकी वक्रता और विसंवादको अशुभ कर्म के आस्रवके कारण कहे उससे विपरीत अर्थात् सरलता होना और अन्यथा प्रवृत्तिका अभाव होना सो शुभ नाम कर्मके आस्रवके कारण हैं ।
२ – यहाँ 'सरलता' शब्दका अर्थ 'अपनी शुद्धस्वभावरूप सरलता' न समझना किन्तु 'शुभभावरूप सरलता' समझना । और जो अन्यथा प्रवृत्तिका अभाव है सो भी शुभभावरूप समझता । शुद्ध भाव तो श्रास्रवबधका कारण नही होता ॥ २३ ॥
अब तीर्थंकर नाम कर्मके आस्रवके कारण बतलाते हैं दर्शन विशुद्धिर्विनयसम्पन्नताशीलत्रतेष्वनतीचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौशक्तितस्त्यागतपसीसाधु
समाधिर्वैयावृत्यकरणमर्हदाचार्य बहुश्रुतप्रवचनभक्तिरोवरः यका परिहाणिर्मार्गप्रभावनाप्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकर - त्वस्य ॥ २४ ॥
अर्थ - [ दर्शनविशुद्धिः ]- १ - दर्शन विशुद्धि, [ विनयसंपन्नता ] २ - विनयसंपन्नत्ता, [ शीलव्रतेष्वनतिचारः ] ३- शील और व्रतोमे श्रनतिचार अर्थात् अतिचारका न होना, [ अभीक्ष्णज्ञानोपयोगः ] ४ - निरतर ज्ञानोपयोग
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मोक्षशास्त्र
५३४
[संवेगः] ५-संवेग अर्थात् संसारसे भयभीत होना [ शक्तितस्त्यागतपसी ] ६-७-शक्तिके अनुसार त्याग तथा तप करना, [साधु समाधिः ] ८-साधुसमाधि [वैयावृत्यकरणम् ] - वैयावृत्य करना, [ श्रहंदाचार्य बहुश्रुतप्रवचन भक्तिः ] १०-१३ - अहंत् - आचार्य - बहुश्रुत (उपाध्याय) और प्रवचन ( शाख) के प्रति भक्ति करना, [ श्रावश्यकापरिहारिणः ] १४ - आवश्यकमें हानि न करना, [ मार्गप्रभावना ] १५ - मार्गप्रभावना और [ प्रवचनवत्सलत्वम् ] १६- प्रवचन - वात्सल्य [ इति तीर्थकरत्वस्य ] ये सोलह भावना तीर्थकर - नामकर्मके आस्रवके कारण हैं ।
टीका
इन सभी भावनाओं में दर्शनविशुद्धि मुख्य है, इसीलिये वह प्रथम ही बतलाई गई है, इसके अभाव में अन्य सभी भावनाये हों तो भी तीर्थंकर नाम कर्मका श्राश्रव नही होता ।
सोलह भावनाओं के सम्बन्ध में विशेष वर्णनः - (१) दर्शन विशुद्धि
दर्शनविशुद्धि अर्थात् सम्यग्दर्शन की विशुद्धि । सम्यग्दर्शन स्वयं आत्माकी शुद्ध पर्याय होने से बंधका कारण नही है, किन्तु सम्यग्दर्शनकी भूमिकामें एक खास प्रकारकी कषायकी विशुद्धि होती है, वह तीर्थंकर नामकर्मके बंधका कारण होती है । दृष्टांत वचन कर्मको ( अर्थात् वचनरूपी कार्यको ) योग कहा जाता है । परंतु 'वचनयोग' का अर्थ ऐसा होता है कि 'वचन द्वारा होनेवाला जो आत्मकर्म सो योग है' क्योंकि जड़ वचन किसी वंधके कारण नही हैं । आत्मामें जो प्रासूत्र होता है वह आत्माकी चंचलता से होता है, पुद्गलसे नही होता पुद्गल तो निमित्तमात्र है ।
सिद्धांतः — दर्शन विशुद्धिको तीर्थंकर नामकर्मके आसूवका कारण कहा है, वहाँ वास्तवमें दर्शनकी शुद्धि स्वयं आसूवबंधका कारण नहीं है, किंतु राग ही बंधका कारण है । इसीलिये दर्शनविशुद्धिका अर्थ ऐसा समझना योग्य है कि 'दर्शनके साथ रहा हुआ राग ।' किसी भी प्रकारके वंध का कारण कपाय ही है । सम्यग्दर्शनादि बन्धके कारण नहीं हैं । सम्य
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अध्याय ६ सूत्र २४
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ग्दर्शन जो कि आत्माको, बंधुसे छुड़ानेवाला है वह स्वयं बन्धका कारण कैसे हो सकता है ? तीर्थंकर नामकर्म भी श्रास्रव - बन्ध्र ही है, इसीलिये सम्यग्दर्शनादि भी वास्तव में उसका कारण नही है । सम्यग्दृष्टि जीवके जिनोपदिष्ट निग्रंथ मार्ग में जो दर्शन संबन्धी धर्मानुराग होता है वह दर्शनविशुद्धि है । सम्यग्दर्शनके शंकादि दोष दूर हो जानेसे वह विशुद्धि होती है । ( देखो तत्त्वार्थसार अध्याय ४ गाथा ४६ से परकी टीका पृष्ठ २२१ ) ( २) विनयसंपन्नता
१ – विनयसे परिपूर्ण रहना सो विनयसंपन्नता है । सम्यग्ज्ञानादि गुणोंका तथा ज्ञानादि गुण संयुक्त ज्ञानीका आदर उत्पन्न होना सो विनय है, इस विनयमें जो राग है वह प्रास्रव बन्धका कारण है ।
२ - विनय दो तरह की हैं- एक शुद्धभावरूप विनय है, उसे निश्चय विनय भी कहा जाता है; अपने शुद्धस्वरूपमे स्थिर रहना सो निश्चयविनय है यह विनय बन्धका कारण नही है । दूसरी शुभभावरूप विनय है, उसे व्यवहार विनय भी कहते हैं । अज्ञानीके यथार्थ विनय होता ही नही । सम्यग्दृष्टिके शुभभावरूप विनय होता है और वह तीर्थंकर नामकर्म के आस्रवका कारण है । छट्टो गुणस्थानके बाद व्यवहार विनय नही होती किन्तु निश्चय विनय होती है ।
( ३ ) शील और व्रतों में अनतिचार
'शील' शब्द के तीन अर्थ होते हैं (१) सत् स्वभाव ( २ ) स्वदार संतोष और ( ३ ) दिग्व्रत श्रादि सात व्रत, जो अहिंसादि व्रतको रक्षाके लिये होते हैं । सत् स्वभावका अर्थ क्रोधादि कषायके वश न होना है । यह शुभभाव है, जब श्रुतिमंद कषाय होती है तब यह होता है । यहाँ 'शील' का प्रथम और तृतीय अर्थ लेना, दूसरा अर्थ व्रत शब्दमे आजाता है । अहिंसा आदि व्रत हैं । अनतिचारका अर्थ है दोषोसे रहितपन ।
( ४ ) अभीक्ष्णज्ञानोपयोग
अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगका अर्थ है सदा ज्ञानोपयोग में रहना । सम्यज्ञानके द्वारा प्रत्येक कार्य मे विचार कर जो उसमे प्रवृत्ति करना सो
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मोक्षशास्त्र
ज्ञानोपयोगका अर्थ है । ज्ञानका साक्षात् तथा परंपरा फल विचारना । यथार्थ ज्ञानसे ही अज्ञानको निवृत्ति और हिताहितकी समझ होती है, इसीलिये यह भी ज्ञानोपयोगका अर्थ है । अतः यथार्थ ज्ञानको अपना हितकारी मानना चाहिये | ज्ञानोपयोगमें जो वीतरागता है वह बन्धका कारण नहीं है किन्तु जो शुभ भावरूप राग है वह बन्धका कारण है ।
( ५ ) संवेग
सदा संसारके दुःखोंसे भोरुताका जो भाव है सो संवेग है; उसमें जो वीतरागभाव है वह बंधका कारण नहीं है किन्तु जो शुभराग है वह बंधका कारण है । सम्यग्दृष्टियोंके जो व्यवहार संवेग होता है वह रागभाव है; जब निर्विकल्प दशामें नही रह सकता तब ऐसा संवेगभाव निरन्तर होता है ।
( ६-७ ) शक्त्यनुसार त्याग तथा तप
१ - त्याग दो तरह का है - शुद्धभावरूप और शुभभावरूप; उसमें जितनी शुद्धता होती है उतने अंश में वीतरागता है और वह बंधका कारण नही है । सम्यग्दृष्टिके शक्त्यनुसार शुभभावरूप त्याग होता है, शक्तिसे कम या ज्यादा नही होता, शुभरागरूप त्यागभाव बंधका कारण है | 'त्याग' का अर्थ दान देना भी होता है ।
२- निज श्रात्माका शुद्ध स्वरूपमें संयमन करनेसे, और स्वरूप विश्रान्त निस्तरंग चैतन्यप्रतपन सो तप है, इच्छाके निरोधको तप कहते है अर्थात् ऐसा होने पर शुभाशुभ भावका जो निरोध सो तप है । यह तप सम्यग्दृष्टि के हो होता है, उसके निश्चयतप कहा जाता है । सम्यग्दृष्टिके जितने अंशमें वीतराग भाव है उतने अंशमें निश्चयतप है और वह बंधका कारण नही है किन्तु जितने अंशमे शुभरागरूप व्यवहार तप है वह बंधका कारण है | मिथ्यादृष्टिक्रे यथार्थं तप नही होता; उसके शुभरागरूप तपको 'बालतप' कहा जाता है । 'बाल' का अर्थ है अज्ञान, मूढ़ । अज्ञानीका तप आदिका शुभभाव तीर्थंकर प्रकृतिके आसूवका कारण हो ही नहीं सकता ।
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अध्याय ६ सूत्र २४
५३७ (८) साधु समाधि सम्यग्दृष्टिके साधुके तपमें तथा आत्मसिद्धिमें विघ्न प्राता देखकर उसे दूर करनेका भाव और उनके समाधि बनी रहे ऐसा जो भाव है सो साधु समाधि है; यह शुभराग है। यथार्थतया ऐसा राग सम्यग्दृष्टिके ही होता है, किन्तु उनके वह रागकी भावना नहीं होती।
(९) वैयावृत्त्यकरण वैयावृत्त्यका अर्थ है सेवा । रोगी, छोटी उमरके या वृद्ध मुनियोंकी सेवा करना सो वैयावृत्त्यकरण है। 'साधु समाधि' का अर्थ है कि उसमें साधुका चित्त सतुष्ट रखना और 'वैयावृत्त्यकरण' में तपस्वियोंके योग्य साधन एकत्रित करना जो सदा उपयोगी हों-इस हेतुसे जो दान दिया जावे सो वैयावृत्य है, किन्तु साधुसमाधि नही। साधुओंके स्थानको साफ रखना, दुःखके कारण उत्पन्न हुए देखकर उनके पैर दाबना इत्यादि प्रकार से जो सेवा करना सो भी वैयावृत्त्य है। यह शुभराग है।
(१०-१३) अर्हत्-आचार्य-बहुश्रुत और प्रवचन भक्ति
भक्ति दो तरह की है-एक शुद्धभावरूप और दूसरी शुभभावरूप । सम्यग्दर्शन यह परमार्थ भक्ति अर्थात शुद्धभावरूप भक्ति है। सम्यग्दृष्टिकी निश्चय भक्ति शुद्धात्म तत्त्वकी भावनारूप है; वह शुद्धभावरूप होनेसे बन्ध का कारण नहीं है। सम्यग्दृष्टिके जो शुभभावरूप जो सराग भक्ति होती है, वह पंचपरमेष्ठीकी आराधनारूप है ( देखो श्री हिन्दी समयसार, आस्रव अधिकार गाथा १७३ से १७६ जयसेनाचार्य कृत संस्कृत टीका, पृष्ठ २५०)
१-अहंत और प्राचार्यका पंच परमेष्ठीमें समावेश हो जाता है। सर्वज्ञ केवली जिन भगवान अहंत हैं, वे सम्पूर्ण धर्मोपदेशके विधाता हैं, वे साक्षात् ज्ञानी पूर्ण वीतराग हैं । २-साधु संघमे जो मुख्य साधु हो उनको प्राचार्य कहते हैं, वे सम्यग्दर्शन ज्ञानपूर्वक चारित्रके पालक हैं और दूसरोको उसमे निमित्त होते है, और वे विशेष गुणाढ्य होते हैं। ३-बहुश्रुतका अर्थ 'बहुज्ञानी' 'उपाध्याय' या 'सर्व शास्त्र सम्पन्न होता है । ४सम्यग्दृष्टिकी जो शास्त्रकी भक्ति है सो प्रवचन भक्ति है। इस भक्तिमें
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मोक्षशास्त्र जितना रागभाव है वह पासवका कारण है ऐसा समझना ।
(१४) आवश्यक अपरिहाणि आवश्यक अपरिहाणिका अर्थ है 'पावश्यक क्रियाओंमें हानि न होने देना । जब सम्यग्दृष्टि जीव शुद्धभावमें नहीं रह सकता तब अशुभभाव दूर करनेसे शुभभाव रह जाता है; इससमय शुभरागरूप आवश्यक क्रियायें उसके होती हैं। उस आवश्यक क्रियाके भावमें हानि न होने देना उसे आवश्यक अपरिहारिण कहा जाता है। वह क्रिया आत्माके शुभभावरूप है किन्तु जड़ शरीरकी अवस्थामें आवश्यक क्रिया नही होती और न आत्मासे शरीरको क्रिया हो सकती है।
(१५) मार्गप्रभावना सम्यग्ज्ञानके माहात्म्यके द्वारा, इच्छा निरोधरूप सम्यक्तपके द्वारा तथा जिनपूजा इत्यादिके द्वारा धर्मको प्रकाशित करना सो मार्गप्रभावना है। प्रभावनामें सबसे श्रेष्ठ आत्मप्रभावना है, जो कि रत्नत्रयके तेजसे देदीप्यमान होनेसे सर्वोत्कृष्ट फल देती है। सम्यग्दृष्टिके जो शुभरागरूप प्रभावना है वह पासूव बन्धका कारण है परन्तु सम्यग्दर्शनादिरूप जो प्रभावना है वह आस्रव-बन्धका कारण नही है।
(१६) प्रवचन वात्सल्य सामियोंके प्रति प्रीति रखना सो वात्सल्य है। वात्सल्य और भक्तिमें यह अन्तर है कि वात्सल्य तो छोटे बड़े सभी साधर्मियोंके प्रति होता है और भक्ति अपनेसे जो बड़ा हो उसके प्रति होती है । श्रुत और श्रुतके वारण करनेवाले दोनोंके प्रति वात्सल्य रखना सो प्रवचन वात्सल्य है। यह शुभरागरूप भाव है, सो आस्रव-बन्धका कारण है।
तीर्थंकरों के तीन मेद तीर्थकर देव तीन तरहके हैं-(१) पंच कल्याणक (२) तीन कल्याणक और (३) दो कल्याणक । जिनके पूर्वभवमे तीर्थंकर प्रकृति यर गई हो उनके तो नियमसे गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण ये पाँच
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अध्याय ६ सूत्र २४
५३६ कल्याणक होते हैं। जिनके वर्तमान मनुष्य पर्यायके भवमें ही गृहस्थ अवस्थामें तीर्थंकर प्रकृति बँध जाती है उनके तप, ज्ञान और निर्वाण ये तीन कल्याणक होते हैं और जिनके वर्तमान मनुष्य पर्यायके भवमें मुनि दीक्षा लेकर फिर तीर्थंकर प्रकृति बँधती है उनके ज्ञान और निर्वाण ये दो ही कल्याणक होते हैं। दूसरे और तीसरे प्रकारके तीर्थंकर महा विदेह क्षेत्रमें ही होते हैं। महा विदेहमें जो पंच कल्याणक तीर्थंकर हैं, उनके अतिरिक्त दो और तीन कल्याणकवाले भी तीर्थंकर होते हैं। तथा वे महाविदेहके जिस क्षेत्रमें दूसरे तीर्थंकर न हों वहाँ ही होते है । महाविदेह क्षेत्रके अलावा भरत-ऐरावत क्षेत्रोंमें जो तीर्थकर होते हैं उन सभीको नियमसे पंच कल्याणिक ही होते हैं।
अरिहन्तोंके सात भेद ऊपर जो तीर्थंकरोके तीन भेद कहे वे तीनों भेद अरिहन्तोंके समझना और उनके अनन्तर दूसरे भेद निम्नप्रकार हैं:
(४) सातिशय केवली-जिन अरिहन्तोंके तीर्थंकर प्रकृतिका उदय नहीं होता परन्तु गंधकुटी इत्यादि विशेषता होती है उन्हें सातिशय केवली कहते हैं।
(५) सामान्य केवली-जिन अरिहन्तोंके गंधकुटी इत्यादि विशेषता न हो उन्हें सामान्य केवली कहते हैं।
(६) अंतकृत केवली-जो अरिहन्त केवलज्ञान प्रगट होनेपर लघु अंतर्मुहूर्तकालमें ही निरिणको प्राप्त होते हैं उन्हें अंतकृत केवली कहा जाता है।
(७) उपसर्ग केवली-जिनके उपसर्ग अवस्थामें ही केवलज्ञान हुआ हो उन अरिहन्तोको उपसर्ग केवली कहा जाता है ( देखो सत्तास्वरूप गुजराती पृष्ठ ३८-३९ ) केवलज्ञान होनेके बाद उपसर्ग हो ही नहीं सकता।
अरिहन्तोंके ये भेद पुण्य और संयोगकी अपेक्षा से समझना; केवलज्ञानादि गुणोंमें तो सभी अरिहन्त समान ही हैं ।
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मोक्षशास्त्र
इस सूत्रका सिद्धान्त (१) जिस भावसे तीर्थंकर नामकर्म बंधता है उस भावको अथवा उस प्रकृतिको जो जीव धर्म माने' या उपादेय माने तो वह मिथ्यादृष्टि है, क्योंकि वह रागको-विकारको धर्म मानता है । जिस शुभभावसे तीर्थंकर नामकर्मका आस्रव-बन्ध हो उस भाव या उस प्रकृतिको सम्यग्दृष्टि उपादेय नही मानते । सम्यग्दृष्टिके जिस भावसे तीर्थंकर प्रकृति बँधती है वह पुण्यभाव है, उसे वे आदरणीय नही मानते। (देखो परमात्म प्रकाश अध्याय २, गाथा ५४ की टीका, पृष्ठ १६५)
(२) जिसे आत्माके स्वरूपकी प्रतीति नहीं उसके शुद्धभावरूप भक्ति अर्थात् भावभक्ति तो होती ही नहीं किन्तु इस सूत्र में कही हुई सत्के प्रति शुभरागवाली व्यवहार भक्ति अर्थात् द्रव्यभक्ति भी वास्तवमें नहीं होती, लौकिक भक्ति भले हो ( देखो परमात्म प्रकाश अध्याय २, गाथा १४३ की टीका, पृष्ठ २०३, २८८ )
(३) सम्यग्दृष्टिके सिवाय अन्य जीवोंके तीर्थंकर प्रकृति होती ही नहीं । इससे सम्यग्दर्शनका परम माहात्म्य जानकर जीवोंको उसे प्राप्त करनेके लिये मंथन करना चाहिये । सम्यग्दर्शनके अतिरिक्त धर्मका प्रारम्भ अन्य किसीसे नही अर्थात् सम्यग्दर्शन ही 'धर्मकी शुरूआत-इकाई है और सिद्धदशा उस धर्मकी पूर्णता है ॥२४॥
अव गोत्रकर्मके आसूर्वके कारण कहते हैं:
नीच गोत्रंके आलवके कारण परात्मनिंदाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च
नीचैर्गोत्रस्य ॥२५॥ अर्थ-[ परामनिदाप्रशंसे ] दूसरेकी निंदा और अपनी प्रशंसा करना [ सदसद्गुणोच्छादनोभावने च ] तथा प्रगट गुणोंको छिपाना और अप्रगट गुणोको प्रसिद्ध करना सो [ नीचैर्गोत्रस्य ] नीचगोत्र-कर्मके मानवके कारण हैं।
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अध्याय ६ सूत्र २५-२६-२७
टीका एकेन्द्रियसे संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यंत तक सभी तिर्यंच, नारकी तथा लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य इन सबके नीच गोत्र है। देवोंके उच्च-गोत्र है गर्भज मनुष्योंके दोनों प्रकारके गोत्रकर्म होते है ॥ २५ ॥
___ उच्च गोत्रकर्मके आस्रवके कारण तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सेको चोत्तरस्य ॥२६॥
अर्थ-[ तद्विपर्ययः ] उस नीच गोत्रकर्मके आसूवके कारणोंसे विपरीत अर्थात् परप्रशंसा, प्रात्मनिंदा इत्यादि [ ] तथा नीचैर्वृत्त्यनत्सेको ] नम्र वृत्ति होना तथा मद्का अभाव-सो [ उत्तरस्य ] दूसरे गोत्रकर्मके अर्थात् उच्च गोत्रकर्म के आस्रवके कारण हैं।
टीका
यहाँ नम्रवृत्ति होना और मदका अभाव होना -सो अशुभभावका अभाव समझना; उसमें जो शुभभाव है सो उच्च गोत्रकर्मके आस्वका कारण है। 'अनुत्सेक' का अर्थ है अभिमानका न होना ॥ २६ ॥
यहाँ तक ‘सात कर्मों के आसूवके कारणोंका वर्णन किया। अब अंतिम अंतरायकर्मके पासूवके कारण बताकर यह अध्याय पूर्ण करते हैं।
अंतराय कर्मके आस्रवके कारण विघ्नकरणमन्तरायस्य ॥ २७॥ 'मयं-[विघ्नकरणम् ] दान, लाभ, भोग, उपभोग तथा वीर्यमें विघ्न करना सो [ अंतरायस्य ] अंतराय कर्मके पासूवके कारण हैं।
टीका
इस अध्यायके १० से २७ तकके सूत्रोंमें कर्मके पासवका जो कथन किया है वह अनुभाग सबंधो नियम बतलाता है। जैसे किसी पुरुषके दान देनेके भाव, किसी ने अंतराय किया तो उस समय उसके जिन कर्मों का भासूव हुआ, यद्यपि वह सातों कर्मोमें पहुँच गया तथापि उस समय दाना
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मोक्षशास्त्र तराय कर्ममें अधिक अनुभाग पड़ा और अन्य प्रकृतियोंमें मंदअनुभाग पड़ा। प्रकृति और प्रदेश वन्धमें योग निमित्त है तथा स्थिति और अनुभागवंधमें कषायभाव निमित्त है ॥ २७ ॥
उपसंहार (१) यह आसव अधिकार है जो कपाय सहित योग होता है वह आसवका कारण है, उसे सांपरायिक आसव कहते हैं । कपाय शब्दमें मिथ्यात्व, अविरति और कषाय इन तीनोंका समावेश हो जाता है; इसीलिये अध्यात्म शास्त्रोमें मिथ्यात्व अविरति, कषाय तथा योगको आसवका भेद गिना जाता है। यदि उन भेदोंको वाह्यरूपसे स्वीकार करे और अंतरंगमै उन भावोंकी जातिकी यथार्थ पहचान न करे तो वह मिथ्यादृष्टि है और उसके पासूव होता है ।
(२) योगको आसवका कारण कहकर योगके उपविभाग करके सवषाय योग और अकषाय योगको आसूवका कारण कहा है। और २५ प्रकार की विकारी क्रिया और उसका परके साथ निमित्त नैमित्तिक संबंध कैसा है यह भी बताया गया है।
(३) अज्ञानी जीवोके जो रागद्वेष, मोहरूप पासूवभाव है उसके नाश करनेकी तो उसे चिंता नही और बाह्य क्रिया तथा बाह्य निमित्तोंको दूर करनेका यह जीव उपाय करता है। परन्तु इसके मिटने से कही आसव नही मिटते । दृष्टांत:-द्रव्यलिंगी मुनि अन्य कुदेवादिकी सेवा नहीं करता, हिसा तथा विषयमें प्रवृत्ति नहीं करता, क्रोधादि नही करता तथा मन वचन कायको रोकनेका भाव करता है तो भी उसके मिथ्यात्वादि चार आसूव होते हैं, पुनश्च ये कार्य वे कपटसे भी नहीं करते, क्योंकि यदि कपट से करे तो वह गैवेयक तक कैसे पहुँचे ? सिद्धांत-इससे यह सिद्ध होता है कि जो बाह्य शरीरादिक की क्रिया है वह आसव नही है किन्तु अन्तरंग अभिप्रायमें जो मिथ्यात्वादि रागादिकभाव है वही आसव है, जो जीव उसे नही पहचानता उस जीवके आसूव तत्त्वका यथार्थ श्रद्धान नहीं।
(४) सम्यग्दर्शन हुये बिना आसूव तत्त्व किचित् मात्र भी दूर नहीं
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श्रध्याय ६ उपसंहार
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होता, इसलिये जीवोंको सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेका यथार्थ उपाय प्रथम करना चाहिये । सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञानके बिना किसी भो जीवके श्रासूव दूर नहीं होता और न धर्म होता है ।
(५) मिथ्यादर्शन संसारका मूल कारण है और आत्माके यथार्थ स्वरूपका जो अवर्णवाद है सो मिथ्यात्वके आस्रवका कारण है इसलिये अपने स्वरूपका तथा श्रात्माको शुद्ध पर्यायोंका अवर्णवाद न करना अर्थात् जैसा स्वरूप है वैसा यथार्थ समझकर प्रतीति करना (देखो सूत्र १३ तथा उसकी टीका )
(६) इस अध्यायमें बताया है कि सम्यग्दृष्टि जीवोंके समिति, अनुकंपा, व्रत, सरागसंयम, भक्ति, तप, त्याग, वैयावृत्त्य, प्रभावना, आवश्यक क्रिया इत्यादि जो शुभभाव हैं वे सब आस्रव है बंधके ही कारण हैं; मिथ्यादृष्टिके तो वास्तवमें ऐसे शुभभाव होते नहीं, उसके व्रत-तपके शुभभावको 'बालव्रत' और 'बालतप' कहा जाता है ।
(७) मृदुता, परकी प्रशंसा, श्रात्मनिन्दा, नम्रता, अनुत्सेकता ये शुभराग होनेसे बन्धके कारण हैं; तथा राग कषायका अंश है अतः इससे घाति तथा श्रघाति दोनों प्रकारके कर्म बंधते हैं तथा यह शुभभाव है अतः अघाति कर्मो में शुभप्रायु शुभगोत्र, सातावेदनीय तथा शुभनामकर्म बँधते हैं; और इससे विपरीत प्रशुभभावोंके द्वारा अशुभ श्रघातिकर्म भी बँधते हैं । इस तरह शुभ और अशुभ दोनों भाव बन्धके ही कारण हैं अर्थात् यह सिद्धान्त निश्चित है कि शुभ या अशुभ भाव करते करते उससे कभी शुद्धता प्रगट ही नही होती । व्यवहार करते करते सच्चा धर्म हो जायेंगे ऐसी धारणा गलत ही है ।
(८) सम्यग्दर्शन आत्माका पवित्र भाव है, यह स्वयं बंधका कारण नहीं; किंतु यहाँ यह बताया है कि जब सम्यग्दर्शनकी भूमिकामे शुभराग हो तब उस रागके निमित्तसे किस तरहके कर्मका आस्रव होता है । वीतरागता प्रगट होने पर मात्र ईर्यापथ आस्रव होता है । यह मास्रव एक ही समयका होता है (अर्थात् इसमे लम्बी स्थिति नही होती तथा अनुभाग भी नहीं
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मोक्षशास्त्र होता)। इस पर से यह सिद्ध हुआ कि सम्यग्दर्शन प्रगट होनेके बाद जितने जितने अंशमें वीतरागता होती है उतने २ अंशमें आस्रव और वन्ध नहीं होते तथा जितने अंशमें राग-द्वेष होता है उतने अंगमें प्रास्रव और बन्ध होता है। अतः ज्ञानीके तो अमुक अंशमें आस्रव-बन्धका निरन्तर प्रभाव रहता है । मिथ्यादृष्टिके उस शुभाशुभ रागका स्वामित्व है अत: उसके किसी भी अंश में राग-द्वेषका अभाव नहीं होता और इसीलिये उसके प्रास्रव-बन्ध दूर नही होते । सम्यग्दर्शनकी भूमिकामें आगे बढ़ने पर जीवके किस तरहके शुभभाव पाते हैं इसका वर्णन अव सातवें अध्यायमें करके आस्रवका वर्णन पूर्ण करेंगे उसके बाद पाठवें अध्यायमै वन्य तत्त्वका और नवमे अध्यायमें संवर तथा निर्जरा तत्त्वका स्वरूप कहा जायगा। धर्मका प्रारम्भ निश्चय सम्यग्दर्शन से ही होता है । सम्यग्दर्शन होने पर संवर होता है, संवरपूर्वक निर्जरा होती है और निर्जरा होने पर मोक्ष होता है, इसीलिये मोक्ष तत्त्वका स्वरूप अंतिम अध्यायमें बतलाया गया है।
और इस अध्यायमे यह भी बताया है कि जीवके विकारी भावों का पर द्रव्यके साथ कैसा निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है।
इस तरह श्री उमास्वामी विरचित मोक्षशास्त्र की गुजराती टीका के हिन्दी अनुवाद में छट्ठा
अध्याय समाप्त हुआ
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मोक्षशास्त्र अध्याय सातवाँ
भूमिका
प्राचार्य भगवानने इस शास्त्रका प्रारम्भ करते हुये पहले ही सूत्रमें यह कहा है कि 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही मोक्षमार्ग है। उसमें गभितरूपसे यह भी आगया कि इससे विरुद्ध भाव अर्थात् शुभाशुभ भाव मोक्षमार्ग नही है, किन्तु संसारमार्ग है । इसप्रकार इस सूत्र में जो विषय गभित रखा था वह विषय आचार्यदेवने इन छ?-सातवें अध्यायोंमें स्पष्ट किया है । छ8 अध्यायमें कहा है कि शुभाशुभ दोनों भाव आसूव है और इस विषयको अधिक स्पष्ट करनेके लिये इस सातवे अध्यायमे मुख्यरूपसे शुभासूवका अलग वर्णन किया है।
पहले अध्यायके चौथे सूत्र में जो सात तत्त्व कहे हैं उनमें से जगतके जीव आसव तत्त्वकी अजानकारीके कारण ऐसा मानते हैं कि 'पुण्यसे धर्म होता है। कितने ही लोग शुभयोगको संवर मानते हैं तथा कितने ही ऐसा मानते है कि अणुव्रत महाव्रत-मैत्रो इत्यादि भावना, तथा करुणाबुद्धि इत्यादिसे धर्म होता है अथवा वह धर्मका ( संवरका ) कारण होता है किन्तु यह मान्यता अज्ञानसे भरी हुई है । ये अज्ञान दूर करनेके लिये खास रूपसे यह एक अध्याय अलग बनाया है और उसमे इस विषयको स्पष्ट किया है।
धर्मकी अपेक्षासे पुण्य और पापका एकत्व गिना जाता है। श्री समयसारमे यह सिद्धान्त १४५ से लेकर १६३ वी गाथा तकमें समझाया है । उसमे पहले ही १४५ वी गाथामें कहा है कि लोग ऐसा मानते हैं कि अशुभकर्म कुशोल है और शुभकर्म सुशील है, परन्तु जो संसार में प्रवेश कराये वह सुशील कैसे होगा ? नही हो सकता। इसके बाद १५४ वीं गाथामे कहा है कि जो जीव परमार्थसे बाह्य हैं वे मोक्षके कारणको नहीं जानते हुये ( यद्यपि पुण्य ससारका कारण है तथापि ) अज्ञानसे पुण्यको
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मोक्षशास्त्र
चाहते हैं । इस तरह धर्मकी अपेक्षासे पुण्य पापका एकत्व बतलाया है । पुनश्च - श्री प्रवचनसार गाथा ७७ में भी कहा है कि-पुण्य पापमे विशेष नहीं ( अर्थात् समानता है ) जो ऐसा नही मानता वह मोहसे प्राच्छन्न है और घोर अपार संसार में भ्रमण करता है !
उपरोक्त कारणोंसे आचार्यदेवने इस शास्त्रमें पुण्य और पापका एकत्व स्थापन करनेके लिये उन दोनोंको ही श्रास्रवमे समावेश करके उसे लगातार छट्ट और सातवें इन दो अध्यायोंमें कहा है; उसमे छट्टा अध्याय पूर्ण होनेके बाद इस सातवें अध्यायमें आस्रव अधिकार चालू रखा है और उसमें शुभास्रवका वर्णन किया है ।
इस अध्याय में बतलाया है कि सम्यग्दृष्टि जीवके होनेवाले व्रत, दया, दान, करुणा, मैत्री इत्यादि भाव भी शुभ आस्रव हैं और इसीलिये वे बन्धके कारण है; तो फिर मिथ्यादृष्टि जीवके (-जिसके यथार्थं व्रत हो ही नही सकते ) उसके शुभभाव धर्म, संवर, निर्जरा या उसका कारण किस तरह हो सकता है ? कभी हो ही नही सकता ।
प्रश्न- — शाखमें कई जगह कहा जाता है कि शुभभाव परम्परासे धर्मका कारण है, इसका क्या अर्थ है ?
उत्तर - सम्यग्दृष्टि जीव जब अपने चारित्र स्वभावमें स्थिर नहीं रह सकते तब भी रागद्वेष तोड़नेका पुरुषार्थ करते हैं, किन्तु पुरुषार्थ कमजोर होनेसे अशुभभाव दूर होता है और शुभभाव रह जाता है । वे उस शुभभावको धर्म या धर्मका कारण नही मानते, किन्तु उसे आस्रव जानकर दूर करना चाहते हैं । इसीलिये जब वह शुभभाव दूर हो जाय तब जो शुभभाव दूर हुआ उसे शुद्धभाव ( - धर्म ) का परम्परासे कारण कहा जाता है । साक्षात् रूपसे वह भाव शुभास्रव होनेसे बन्धका कारण है और
जो बन्धका कारण होता है वह संवरका कारण कभी नही हो सकता । परम्परा अनर्थका कारण कहा है अज्ञानी तो शुभभावको धर्म या धर्मका कारण मानता है और उसे वह भला जानता है; उसे थोड़े समयमे दूर करके स्वयं अशुभ रूपसे परिणमेगा । इस
अज्ञानीके शुभभावको
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अध्याय ७ सूत्र १ तरह अज्ञानीका शुभभाव तो अशुभभावका (-पापका ) परम्परा कारण कहा जाता है अर्थात् वह शुभको दूर कर जव अशुभरूपसे परिणमता है तव पूर्वका जो शुभभाव दूर हुआ उसे अशुभभावका परम्परासे कारण हुआ कहा जाता है।
___ इतनी भूमिका लक्षमें रखकर इस अध्यायके सूत्रों में रहे हुये भाव बराबर समझनेसे वस्तु स्वरूपको भूल दूर हो जाती है ।
व्रतका लक्षण हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतितम् ॥१॥
अर्थ-[ हिंसाऽनृतस्तेया ब्रह्मपरिग्रहेम्यो विरतिः ] हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह अर्थात् पदार्थोके प्रति ममत्वल्प परिणाम-इन पांच पापोसे ( बुद्धिपूर्वक ) निवृत्त होना सो [ व्रतम् ] व्रत है ।
टीका १. इस अध्यायमें पासव तत्त्वका निरूपण किया है। छ अध्याय के १२ वें सूत्रमे कहा था कि व्रतीके प्रति जो अनुकम्पा है सो सातावेदनीयके प्रास्रवका कारण है, किन्तु वहां मूल सूत्रमें व्रतीकी व्याख्या नहीं की गई थी, इसीलिये यहाँ इस सूत्रमे व्रतका लक्षण दिया गया है। इस अध्यायके १८ वें सूत्रमे कहा है कि "निःशल्यो व्रती"-मिथ्यादर्शन आदि शल्यरहित ही जीव व्रती होता है, अर्थात् मिथ्यादृष्टिके कभी व्रत होते ही नहीं, सम्यग्दृष्टि जीवके ही व्रत हो सकते हैं। भगवानने मिथ्यादृष्टिके शुभरागरूप व्रतको वालव्रत कहा है । ( देखो श्री समयसार गाथा १५२ तथा उसकी टीका 'वाल' का अर्थ मज्ञान है।
इस अध्यायमे महाव्रत और अणुव्रत भी आस्रवरूप कहे हैं, इसलिये वे उपादेय कैसे हो सकते हैं ? आस्रव तो बन्धका ही साधक है अतः महाव्रत और अणुव्रत भी बन्धके साधक हैं और वीतराग भावरूप जो चारित्र है सो मोक्षका साधक है। इससे महाव्रतादिरूप प्रास्रव भावोको चारित्रपना संभव नही । “सर्व कषाय रहित जो उदासीन भाव है उसोका नाम चारित्र
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: मोक्षशास्त्र है । जो चारित्र मोहके उदयमें युक्त होनेसे महामंद प्रशस्त राग होता है वह चारित्रका मल है उसे छुटता न जानकर उनका त्याग नहीं करता, सावध योगका ही त्याग करता है। जैसे कोई पुरुप कंदमूलादि अधिक दोषवाली हरित्कायका त्याग करता है तथा दूसरे हरित्कायका आहार करता है, किन्तु उसे धर्म नहीं मानता, उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि मुनि श्रावक हिंसादि तीन कषायरूप भावोंका त्याग करता है तथा कोई मदकषायरूप महाव्रत-अणुव्रतादि पालता है, परन्तु उसे मोक्षमार्ग नही मानता।"
(मो० मा० प्र० पृ० ३३७ ) ३. प्रश्न-यदि यह बात है तो महाव्रत और देशव्रतको चारित्रके भेदोंमें किसलिये कहा है ?
उत्तर-वहाँ उस महानतादिकको व्यवहार चारित्र कहा गया है और व्यवहार नाम उपचारका है । निश्चयसे तो जो निष्कषाय भाव है वही यथार्थ चारित्र है । सम्यग्दृष्टिका भाव मिश्ररूप है अर्थात् कुछ वीतरागरूप हुआ है और कुछ सराग है, अतः जहाँ अशमें वीतराग चारित्र प्रगट हुआ है वहाँ जिस अंशमें सरागता है वह महाव्रतादिरूप होता है, ऐसा सम्बन्ध जानकर उस महाव्रतादिकमे चारित्रका उपचार किया है, किन्तु वह स्वयं यथार्थ चारित्र नही, परन्तु शुभभाव है-आस्रवभाव है अत: बन्धका कारण है इसीलिये शुभभावमे धर्म माननेका अभिप्राय आस्रवतत्त्वको सवरतत्त्व माननेरूप है इसीलिये यह मान्यता मिथ्या है।
( मो० मा० प्र० पृ० ३३४-३३७ ) चारित्रका विषय इस शास्त्रके ६ वें अध्यायके १८ वें सूत्रमें लिया है, वहाँ इस सम्बन्धी टीका लिखी है, वह यहाँ भी लागू होती है।
४-व्रत दो प्रकारके हैं-निश्चय और व्यवहार । राग-द्वेषादि विकल्पसे रहित होना सो निश्चयव्रत है (देखो द्रव्यसंग्रह गाथा ३५ टीका) सम्यग्दृष्टि जीवके स्थिरताकी वृद्धिरूप जो निर्विकल्पदशा है सो निश्चयव्रत है, उसमें जितने अंशमे वीतरागता है उतने अंशमे यथार्थ चारित्र है, और सम्यग्दर्शन-ज्ञान होनेके बाद परद्रव्यके आलम्बन छोड़नेरूप जो शुभभाव है'
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अध्याय ७ सूत्र १
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सो अरणुव्रत- महाव्रत है, उसे व्यवहारव्रत कहते हैं । इस सूत्र में व्यवहारव्रतका लक्षण दिया है; इसमें अशुभभाव दूर होता है । किंतु शुभभाव रहता है, वह पुण्यास्रवका कारण है ।
५- श्री परमात्मप्रकाश अध्याय २, गाथा ५२ की टीकामें व्रत पुण्यबन्धका कारण है और व्रत पापबन्धका कारण है यह बताकर इस सूत्र का अर्थ निम्नप्रकार किया है—
"इसका अर्थ है कि - प्राणियोंको पीड़ा देना, झूठा वचन बोलना, परधन हरण करना, कुशीलका सेवन और परिग्रह इनसे विरक्त होना सो व्रत है; ये अहिंसादि व्रत प्रसिद्ध हैं, यह व्यवहारनयसे एकदेशत्रत हैं ऐसा कहा है ।
जीवघातमें निवृत्ति - जीवदया में प्रवृत्ति, असत्य वचनमें निवृत्ति और सत्य वचनमे प्रवृत्ति, प्रदत्तादान (चोरी) से निवृत्ति - अचौर्य में प्रवृत्ति इत्यादि रूपसे वह एकदेशव्रत है ।" ( परमात्मप्रकाश पृष्ठ १६१-१९२ ). यहाँ अणुव्रत और महाव्रत दोनोंको एकदेशव्रत कहा है ।
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उसके बाद वही निश्चयव्रतका स्वरूप निम्नप्रकार कहा है ( निश्चयव्रत अर्थात् स्वरूपस्थिरता अथवा सम्यक्चारित्र ) -
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"और रागद्वेषरूप सकल्प विकल्पोंकी तरंगोंसे रहित तीन गुप्तियों से गुप्त समाधिमें शुभाशुभके त्यागसे परिपूर्ण व्रत होता है । "
( परमात्मप्रकाश पृष्ठ १६२ )
सम्यग्दृष्टिके जो शुभाशुभका त्याग और शुद्धका ग्रहरण है सो निश्रचयव्रत है और उनके अशुभका त्याग और शुभका जो ग्रहण है सो व्यवहारव्रत है - ऐसा समझना । मिथ्यादृष्टिके निश्चय या व्यवहार दोनोंमें से किसी भी तरहके व्रत नही होते । तत्त्वज्ञानके बिना महाव्रतादिकका आचरण मिथ्याचारित्र ही है । सम्यग्दर्शनरूपी भूमिके बिना व्रतरूपी वृक्ष ही नही होता ।
१- व्रतादि शुभोपयोग वास्तवमे बंधका कारण है पंचाध्यायी भा० २ गा० ७५६ से ६२ में कहा है कि - 'यद्यपि रूढिसे शुभोपयोग
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मोक्षशास्त्र
भी ' चारित्र' इस नामसे प्रसिद्ध है परन्तु अपनी अर्थ क्रियाको करने में असमर्थ है, इसलिये वह निश्चयसे सार्थक नामवाला नहीं है ।। ७५६ ।। किंतु वह भोपयोगके समान बंधका कारण है इसलिये यह श्रेष्ठ नही है । श्रेष्ठ तो वह है जो न तो उपकार ही करता है और न अपकार ही करता है ||७६०|| शुभोपयोग विरुद्ध कार्यकारी है यह बात विचार करनेपर प्रसिद्ध भी नहीं प्रतीत होती, क्योंकि शुभोपयोग एकान्त से बन्धका कारण होनेसे वह शुद्धोपयोगके अभाव में ही पाया जाता है ||७६१|| बुद्धिके दोषसे ऐसी तर्कणा भी नहीं करनी चाहिये कि शुभोपयोग एकदेश निर्जराका कारण है, क्योंकि न तो शुभोपयोग ही बन्धके प्रभावका कारण है और न अशुभोपयोग ही बन्धके अभावका कारण है ॥ ७६२ ॥
( श्री वर्णी ग्रंथमालासे प्र० पंचाध्यायी पृष्ठ २७२-७३ ) २ - सम्यग्दृष्टि को शुभोपयोग से भी बन्धकी प्राप्ति होती है ऐसा श्री कुन्दकुन्दाचार्यकृत प्रवचनसार गा० ११ में कहा है उसमे श्री अमृतचन्द्राचार्य उस गाथाकी सूचनिकामें कहते हैं कि 'अब जिनका चारित्र परिणामके साथ संपर्क है ऐसे जो शुद्ध और शुभ ( दो प्रकार ) परिणाम है, उनके ग्रहण तथा त्यागके लिये (-शुद्ध परिणामके ग्रहरण और शुभ परिणाम के त्यागके लिये ) उनका फल विचारते है:
धर्मेण परिणतात्मा यदि शुद्ध संप्रयोग युतः ।
प्राप्नोति निर्वाण सुखं शुभोपयुक्तो वा स्वर्ग सुखम् ॥११॥ अन्वयार्थ --- धर्म से परिणमित स्वरूपवाला आत्मा यदि शुद्धोपयोग में युक्त हो तो मोक्षसुखको प्राप्त करता है और यदि शुभउपयोगवाला हो तो स्वर्गके सुखको (-बन्धको ) प्राप्त करता है ।
टीका–जब यह आत्मा धर्म परिणत स्वभाववाला वर्तता हुआ शुद्धोपयोग परिणतिको धारण करता है-बनाये रखता है तब विरोधी शक्तिसे रहित होनेके कारण अपना कार्य करनेके लिये समर्थ है ऐसा चारित्रवान होनेसे साक्षात् मोक्षको प्राप्त करता है और जब वह धर्म परिरगत स्वभाववाला होनेपर भी शुभोपयोग परिणति के साथ युक्त होता है तव जो विरोधी शक्ति सहित होनेसे स्वकार्य करनेमें असमर्थ और कथं
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मध्याय ७ सूत्र १
५-५१ चित विरुद्ध कार्य करनेवाला है ऐसे चारित्रसे युक्त होनेमे, जैसे अग्निसे गर्म किया गया घी किसी मनुष्यपर डाल दिया जाये तो वह उसकी जलनसे दुखी होता है, उसीप्रकार वह स्वर्गके सुखके बन्धको प्राप्त होता है, इसलिये शुद्धोपयोग उपादेय है और शुभोपयोग हेय है ।
( प्र० सार गाथा ११ की टीका ) मिध्यादृष्टि को या सम्यग्दृष्टि को भी, राग तो बन्धका ही कारण है; शुद्धस्वरूप परिणमन मात्र से ही मोक्ष है ।
३ - समयसार के पुण्य-पाप अधिकारके ११० वे कलश में श्री प्राचार्य देव कहते हैं कि:
यावत्पाकमुपैति कर्मविरतिर्ज्ञानस्य सम्यड् न सा कर्मज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्तावन्न काचित्क्षतिः । किंत्वत्रापि समुल्लसत्यवशतो यत्कर्मवंधाय तन् मोक्षायस्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्त स्वतः ॥ ११०॥
अर्थ- - जब तक ज्ञानकी कर्म विरति बराबर परिपूर्णताको प्राप्त नहीं होती तब तक कर्म और ज्ञानका एकत्वपना शास्त्र मे कहा है; उनके एक साथ रहनेमे कोई भी क्षति श्रर्थात् विरोध नहीं है । परन्तु यहाँ इतना विशेष जानना कि आत्मा मे अवशरूपसे जो कर्म प्रगट होते हैं अर्थात् उदय होता है वह तो बंधका कारण होता है, और मोक्षका कारण तो, जो एक परम ज्ञान ही है वह एक ही होता है कि जो ज्ञान स्वतः विमुक्त है ( अर्थात् त्रिकाल परद्रव्यभावों से भिन्न है । )
भावार्थ:: --- जब तक यथाख्यात चारित्र नही होता, तब तक सम्यग्दृष्टि को दो धाराएं रहती हैं- शुभाशुभ कर्मधारा और ज्ञानधारा । वे दोनो साथ रहनेमें कुछ भी विरोध नही है । ( जिस प्रकार मिथ्याज्ञान को और सम्यग्ज्ञानको परस्पर विरोध है, उसी प्रकार कर्म सामान्य को और ज्ञानको विरोध नही है । ) उस स्थिति में कर्म अपना कार्य करता है और ज्ञान अपना कार्य करता है । जितने अंश में शुभाशुभ कर्म
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मोक्षशास्त्र धारा है उतने अंशमें कर्म बन्ध होता है; और जितने अंश में ज्ञानधारा है उतने अंश में कर्म का नाश होता जाता है । विषय-कपाय के विकल्प अथवा व्रत-नियम के विकल्प-शुद्ध स्वरूप का विकल्प तक कर्म बन्धका कारण है। शुद्ध परिणतिरूप ज्ञानधारा ही मोक्ष का कारण है।
(-समयसार नई गुजराती आवृत्ति; पृष्ठ २६३-६४) पुनश्च, इस कलशके अर्थ में श्री राजमलजी भी साफ स्पष्टीकरण करते हैं कि:
'यहाँ कोई भ्रान्ति करेगा--'मिथ्यादृष्टिको यतिपना क्रियारूप है वह तो बंधका कारण है; किन्तु सम्यग्दृष्टिको जो यतिपना शुभ क्रियारूप है वह मोक्षका कारण है; क्योंकि अनुभव ज्ञान तथा दया, व्रत, तप संयमरूपी क्रिया-यह दोनों मिलकर ज्ञानावरणादि कर्मोंका क्षय करते हैं।'
-ऐसी प्रतीति कोई अज्ञानी जीव करता है, उसका समाधान इस प्रकार है
___ जो कोई भी शुभ-अशुभ क्रिया-बहिर्जल्परूप विकल्प अथवा अंतर्जल्परूप अथवा द्रव्यके विचाररूप अथवा शुद्धस्वरूपके विचार इत्यादि -है वह सब कर्म बन्धका कारण है। ऐसी क्रियाका ऐसा ही स्वभाव है । सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि का ऐसा तो कोई भेद नहीं है ( अर्थात् अज्ञानीके उपरोक्त कथनानुसार शुभक्रिया मिथ्यादृष्टिको तो बन्धका कारण हो और वही क्रिया सम्यग्दृष्टिको मोक्षका कारण हो-ऐसा तो उनका भेद नही है ) ऐसी क्रिया से तो उसे (सम्यक्त्त्वी को भी ) वन्ध है
और शुद्धस्वरूप परिणमन मात्रसे मोक्ष है। यद्यपि एक ही काल में सम्यग्दृष्टि जीवको शुद्धज्ञान भी है और क्रियारूप परिणाम भी है, किन्तु उसमे जो विक्रियारूप परिणाम है उससे तो मात्र बन्ध होता है। उससे कर्मका क्षय एक अंश भी नहीं होता-ऐसा वस्तुका स्वरूप है, तो फिर इलाज क्या ?-उस काल ज्ञानी को शुद्ध स्वरूपका अनुभवज्ञान भी
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अध्याय ७ सूत्र १
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है, उस ज्ञान द्वारा उस समय कर्मका क्षय होता है, उससे एक अंश मात्र भी बन्धन नहीं होता; ― ऐसा ही वस्तुका स्वरूप है; वह जैसा है वैसा कहते हैं ।"
'( देखो, समयसार कलश टीका हिन्दी पुस्तक पृष्ठ ११२ सूरतसे प्रकाशित ) उपरोक्तानुसार स्पष्टीकरण करके फिर उस कलशका अर्थ विस्तार पूर्वक लिखा है; उसमें तत्संबंधी भी स्पष्टता है उसमें अन्तमें लिखते हैं कि"शुभक्रिया कदापि मोक्षका साधन नहीं हो सकती, वह मात्र बन्धन ही करनेवाली है ऐसी श्रद्धा करनेसे ही मिथ्या बुद्धिका नाश होकर सम्यग्ज्ञानका लाभ होगा। मोक्षका उपाय तो एकमात्र निश्चय रत्नत्रय - मय आत्माकी शुद्ध वीतराग परिणति है ।"
४- श्री राजमलजी कृत स० सार कलश टीका ( सूरतसे प्रकाशित ) पृ० ११४ ला० १७ से ऐसा लिखा है कि-"यहाँ पर इस बातको हृढ़ किया है कि कर्म निर्जराका साधन मात्र शुद्ध ज्ञानभाव है जितने अंश कालिमा है उतने अंश तो बन्ध ही है, शुभ क्रिया कभी भी मोक्षका साधन नही हो सकती । वह केवल बन्धको ही करनेवाली है, ऐसा श्रद्धान करनेसे ही मिथ्याबुद्धिका नाश होकर सम्यग्ज्ञानका लाभ होता है |
मोक्षका उपाय तो एकमात्र निश्चय रत्नत्रयमयी आत्माकी शुद्ध - वीतराग परिणति है । जैसे पु० सिद्धि उपायमें कहा है “असमग्रं भावयतो गा० २११ ॥ ये नांशेन सुदृष्टि ॥ २१२ ॥ बाद भावार्थमे लिखा है कि- जहाँ शुद्ध भावकी पूर्णता नही हुई वहाँ भी रत्नत्रय है परन्तु जो जहाँ कर्मोंका बन्ध है सो रत्नत्रय से नही है, किन्तु अशुद्धतासे - रागभावसे है । क्योकि जितनी वहाँ अपूर्णता है या शुद्धता में कमी है वह मोक्षका उपाय नही है वह तो कर्म बन्ध ही करनेवाली है । जितने प्रशमे शुद्धदृष्टि है या सम्यग्दर्शन सहित शुद्ध भावकी परिणति है उतने अंश नवीन कर्म बन्घ नही करती किन्तु संवर निर्जरा करती है और उसी समय जितने अश रागभाव है उतने अंशसे कर्म बन्ध भी होता है ।
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: मोक्षशाख ५-श्री राजमलजीने 'वृत्तं कर्म स्वभावेन ज्ञानस्य भवनं नहि' पुण्य पाप अ. की इस कलशकी टीकामें लिखा है कि 'जितनी शुभ या अशुभ क्रियारूप आचरण है-चारित्र है उससे स्वभावरूप चारित्र-ज्ञानका (शुद्ध चैतन्य वस्तुका।) शुद्ध परिणमन न होइ इसौ निहचो छ (-ऐसा निश्चय है। ) भावार्थ-जितनी शुभाशुभ क्रिया-आचरण है अथवा बाह्य वक्तव्य या सूक्ष्म अन्तरंगरूप चितवन अभिलाष, स्मरण इत्यादि समस्त अशुद्ध परिणमन है वह शुद्ध परिणमन नहीं है इससे वह बन्धका कारण है-मोक्षका कारण नहीं है । जैसे-कम्बलका नाहर-( कपडे पर चित्रित शिकारी पशु ) कहनेका नाहर है वैसे-शुभक्रिया आचरणरूप चारित्र कथनमात्र चारित्र है परन्तु चारित्र नहीं है निःसंदेहपने ऐसा जानो।
( देखो रा० कलश टीका हिन्दी पृ० १०८) ६-राजमल्लजीकृत स० सार कलश टीका पृ० ११३ में सम्यग्दृष्टिके भी शुभभावकी क्रियाको-बन्धक कहा है-'बन्धायसमुल्लसति' कहते जितनी क्रिया है उतनी ज्ञानावरणादि कर्म बन्ध करती है, संवर-निर्जरा अंशमात्र भी नही करती; 'तत् एकं ज्ञानं मोक्षाय स्थितं' परन्तु वह एक शुद्ध चैतन्य प्रकाशज्ञानावरणादि कर्मक्षयका निमित्त है। भावार्थ ऐसा है जो एक जीवमे शुद्धत्व, अशुद्धत्व एक ही समय ( एक ही साथमें ) होते हैं परन्तु जितना अंश शुद्धत्व है, उतना अंश कर्म क्षपन है और जितने अंश अशुद्धत्व है, उतने अंश कर्मबन्ध होते हैं, एक ही समय दोनों कार्य होते हैं, ऐसे ही है उनमें संदेह करना नही। (कलश टीका पृष्ठ ११३ )
कविवर बनारसीदासजीने कहा है कि xxxपुण्यपॉपकी दोउ क्रिया मोक्षपंथकी कतरणी; बन्धकी करैया दोउ, दुहूमे न भली कोउ, बाधक विचारमें निषिद्ध कीनी कुरनी ॥१२॥
जोलों अष्टकर्मको विनाश नांहि सरवथा, तोलों अन्तरातमामें धारा दोई वरनी ॥ एक ज्ञानधारा एक शुभाशुभ कर्म धारा, दुहूकी प्रकृति न्यारी न्यारी न्यारी धरनी ॥ इतनो विशेष ज्यूं करमधारा बन्धरूप, पराधीन
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श्रध्याय ७ सूत्र १ -५५५ शकति विविध बन्ध करनी ॥ ज्ञानधारा मोक्षरूप मोक्षकी करनहार, दोषकी हरनहार भी समुद्र तरनी ॥ १४ ॥
७—श्री अमृतचन्द्राचार्यकृत पु० सि० उपाय गाथा २१२ से १४ में सम्यग्दृष्टिके संबंधमे कहा है कि जिन अशोंसे यह आत्मा अपने स्वभावरूप परिणमता है वे अंश सर्वथा बन्धके हेतु नही हैं; किन्तु जिन अंशोंसे यह रागादिक विभावरूप परिणमन करता है वे ही अंश बन्धके हेतु है । श्री रायचन्द्र जैन शास्त्रमालासे प्रकाशित पु० सि० मे गा० १११ का अर्थ भाषा टीकाकारने प्रसंगत कर दिया है जो अब निम्न लेखानुसार दिखाते है । [ - अनगार धर्मामृत में भी फुटनोटमें गलत अर्थ है ]
असमग्रं भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्म बन्धोयः ।
स विपक्ष कृतोऽवस्यं मोक्षोपायो न बन्धनोपायः ॥ २११ ॥
अन्वयार्थ --- असम्पूर्ण रत्नत्रयको भावन कर्मका बन्ध है स्रो बन्ध विपक्षकृत या बन्ध मोक्षका उपाय है, बन्धका उपाय नही । अब देखो श्री टोडरमलजीकृत टीकावाला पु० सि० प्रचारक कार्यालय कलकत्ता पृ० ११५ गा० १११ ।
करनेवाले पुरुषके जो शुभ रागकृत होनेसे अवश्य ही सुसंगत - सच्चा अर्थके लिये ग्रन्थ, प्रकाशक जिनवारणी
श्रन्वयार्थ——असमग्रं रत्नत्रय भावयतः यः कर्मबन्धः अस्ति सः विपक्षकृत रत्नत्रय तु मोक्षोपाय अस्ति, न बन्धनोपायः ।
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अर्थ — एकदेशरूप रत्नत्रयको पानेवाले पुरुषके जो कर्मबन्ध होता है वह रत्नत्रयसे नही होता । किन्तु रत्नत्रयके विपक्षी जो रागद्वेष है उनसे होता है, वह रत्नत्रय तो वास्तवमे मोक्षका उपाय है बन्धका उपाय नही होता ।
भावार्थ — सम्यग्दृष्टि जीव जो एकदेश रत्नत्रयको धारण करता है, उनमें जो कर्म बन्ध होता है वह रत्नत्रयसे नही होता किन्तु उसकी जो शुभ कषाये है उन्ही से होता है । इससे सिद्ध हुआ कि कर्मवन्ध करनेवाली शुभ कषाये हैं किन्तु रत्नत्रय नही है ।
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- मोक्षशास्त्र अब रत्नत्रय और रागका फल दिखाते हैं वहाँ पर गा० २१२ से २१४ में गुणस्थानानुसार सम्यग्दृष्टिके रागको बन्धका ही कारण कहा है और वीतराग भावरूप सम्यक् रत्नत्रयको मोक्षका ही कारण कहा है फिर गा० २२० में कहा कि-'रत्नत्रयरूप धर्म मोक्षका ही कारण है और दूसरी गतिका कारण नहीं है और फिर जो रत्नत्रयके सद्भावमें जो शुभप्रकृतियोंका आस्रव होता है वह सब शुभ कषाय-शुभोपयोगसे ही होता है अर्थात् वह शुभोपयोगका ही अपराध है किन्तु रत्नत्रयका नहीं है कोई ऐसा मानता है कि सम्यग्दृष्टिके शुभोपयोगमें (-शुभभावमें) आंशिक शुद्धता है किन्तु ऐसा मानना विपरीत है, कारण कि निश्चय सम्यक्त्व होनेके बाद चारित्रकी प्रांशिक शुद्धता सम्यग्दृष्टिके होती है वह तो चारित्रगुरणकी शुद्ध परिणति है और जो शुभोपयोग है वह तो अशुद्धता है।
कोई ऐसा मानता है कि, सम्यग्दृष्टिका शुभोपयोग मोक्षका सच्चा कारण है अर्थात् उनसे संवर-निर्जरा है अतः वे बन्धका कारण नहीं हैं तो यह दोनों मान्यता अयथार्थ ही है ऐसा उपरोक्त शाखाधारोंसे सिद्ध होता है।
६.इस सूत्रका सिद्धान्त जीवोंको सबसे पहले तत्त्वज्ञानका उपाय करके सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्रगट करना चाहिये, उसे प्रगट करनेके बाद निजस्वरूपमें स्थिर रहनेका प्रयत्न करना और जब स्थिर न रह सके तब अशुभभावको दूर कर देशवतमहाव्रतादि शुभभावमे लगे किन्तु उस शुभको धर्म न माने तथा उसे धर्मका अंश या धर्मका सच्चा साधन न माने । पश्चात् उस शुभभावको भी दूर कर निश्चय चारित्र प्रगट करना अर्थात् निर्विकल्प दशा प्रगट करना चाहिये ।
व्रतके भेद देशसर्वतोऽणुमहती ॥२॥ अर्थ-व्रतके दो भेद है-[ देशतः अणु ] उपरोक्त हिंसादि पापोंका एकदेश त्याग करना सो अणुव्रत और [ सर्वतः महती ] सर्वदेश त्याग करना सो महाव्रत है।
टीका १-शुभभावरूप व्यवहारततके ये दो भेद है । पांचवें गुणस्थानमें
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अध्याय -सूत्र २ देशवत होता है और छ? गुणस्थानमें महाव्रत होता है। 8 अध्यायके २० वें सूत्रमें कहा गया है कि यह व्यवहारक्त बास्रव है । निश्चयव्रतको अपेक्षा से ये दोनों प्रकारके व्रत एकदेश व्रत हैं ( देखो सूत्र १ की टीका, पैरा ५) सातवें गुणस्थानमें निर्विकल्प दशा होने पर यह व्यवहार महावत भी छूट जाता है और आगे की अवस्थामें निर्विकल्प दशा विशेष २ हड़ होती है इसीलिये वहाँ भी ये महाव्रत नहीं होते।
२-सम्यग्दृष्टि देशव्रती श्रावक होता है वह संकल्प पूर्वक प्रस जीव की हिंसा न करे, न करावे तथा यदि दूसरा कोई करे तो उसे भला नही समझता । उसके स्थावर जीवोंको हिंसाका त्याग नहीं तथापि बिना प्रयोजन स्थावर जीवोंकी विराधना नही करता और प्रयोजनवश पृथ्वी, जल इत्यादि जीवोंकी विराधना होती है, उसे भली-अच्छी नहीं जानता।
३. प्रश्न-इस शाखके अध्याय के सूत्र १८ में व्रतको संवर कहा है और अध्याय ९ के सूत्र २ में उसे संवरके कारणमें गभित किया है वहाँ दश प्रकारके धर्ममें अथवा संयममें उसका समावेश है अर्थात् उत्तम क्षमा, अहिंसा, उत्तम सत्यमें सत्य वचन, उत्तम शोचमें प्रचौर्य, उत्तम ब्रह्मचर्यमें ब्रह्मचर्य और उत्तम प्राचिन्यमे परिग्रह त्याग-इस तरह व्रतोंका समावेश उसमें हो जाता है, तथापि यहाँ व्रतको आसवका कारण क्यों कहा है ?
उचर-इसमें दोष नहीं; नवमां संवर अधिकार है वहां निवृत्ति स्वरूप वीतराग भावरूप.व्रतको संवर कहा है और यहां आस्रव अधिकार है इसमें प्रवृत्ति दिखाई जाती है। क्योंकि हिंसा, असत्य, चोरी इत्यादि छोड़ देने पर अहिंसा, सत्य, अचौर्य वस्तुका ग्रहण वगैरह क्रिया होती है इसीलिये ये व्रत शुभ कर्मोके प्रास्रवके कारण हैं । इन व्रतोंमे भी अव्रतों की तरह कर्मोंका प्रवाह होता है, इससे कर्मोंको निवृत्ति नहीं होती इसीलिये प्रास्रव अधिकारमे व्रतोका समावेश किया है ( देखो सर्वार्थसिद्धि अध्याय ७ सूत्र १ की टीका, पृष्ठ ५-६ )
४-मिथ्यात्व सदृश महापापको मुख्यरूपसे छुड़ाने की प्रवृत्ति न
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मोक्षशास्त्र करना और कुछ बातोंमें हिंसा बताकर उसे छुड़ानेकी मुख्यता करना सो क्रम भंग उपदेश है ( देहलीसे प्र० मो० प्रकाशक अ० ५ पृष्ठ २३६)
५-एकदेश वीतराग और श्रावककी व्रतरूप दशाके निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है, अर्थात् एकदेश वीतरागता होने पर श्रावकके व्रत होते ही हैं, इस तरह वीतरागताके और महाव्रतके भी निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है, धर्मकी परीक्षा अन्तरंग वीतरागभावसे होती है, शुभभाव और बाह्य संयोगसे नहीं होती।
(मो० प्रकाशक ) ६. इस सूत्र में कहे हुये त्यागका स्वरूप यहाँ छद्मस्थके बुद्धिगोचर स्थूलत्वकी अपेक्षासे लोक प्रवृत्तिको मुख्यता सहित कथन किया है किन्तु केवल ज्ञानगोचर सूक्ष्मत्वकी दृष्टिसे नही कहा, क्योंकि इसका आचरण हो नहीं सकता। इसका उदाहरण:
(१) अहिंसा व्रत सम्बन्धी अणुव्रतीके त्रसहिंसाका त्याग कहा है; उसके स्त्रीसेवनादि कार्यो में तो त्रसहिंसा होती है, पुनश्च यह भी जानता है कि जिनवाणीमें यहाँ त्रसजीव कहे हैं परन्तु उसके त्रसजीव मारनेका अभिप्राय नहीं तथा लोकमें जिसका नाम त्रसघात है उसे वह नहीं करता, इस अपेक्षासे उसके त्रसहिंसा का त्याग है।
महाव्रतधारी मुनिके स्थावर हिंसाका भी त्याग कहा । अब मुनि पृथ्वी, जलादिकमें गमन करता है; वहाँ उसका भी सर्वथा अभाव नही है क्योकि त्रस जीवोंकी भी ऐसी सूक्ष्म अवगाहना है कि जो दृष्टिगोचर भी नही होती, तथा उसकी स्थिति भी पृथ्वी जलादिकमे है । पुनश्च मुनि जिनवाणीसे यह जानते हैं और किसी समय अवधिज्ञानादिके द्वारा भी जानते हैं; परन्तु मुनिके प्रमादसे स्थावर त्रसहिंसाका अभिप्राय नही होता, लोकमें पृथ्वी खोदना, अप्रासुक जलसे क्रिया करना इत्यादि प्रवृत्तिका नाम स्थावर हिंसा है और स्थूल त्रस जीवोको पीड़ा पहुँचानेका नाम असहिंसा है । उसे मुनि नही करते इसीलिये उनके हिसाका सर्वथा त्याग कहा जाता है।
( मो० प्र०)
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मध्याय ७ सूत्र २-३
(५५९ - (२) सत्यादि चार व्रत सम्बन्धी
मुनिके असत्यं, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रहका त्याग है, परन्तु केवलज्ञानमें जाननेकी अपेक्षासे असत्यवचनयोग बारहवें गुणस्थान पर्यंत कहा है, अदत्त कर्म परमाणु आदि परद्रव्योंका ग्रहण तेरहवें गुणस्थान तक है, वेदका उदय नवमें गुणस्थान तक है, अंतरंग परिग्रह दसवें गुणस्थान तक है, तथा समवशरणादि बाह्य परिग्रह केवली भगवानके भी होता है, परन्तु वहां प्रमादपूर्वक पापरूप अभिप्राय नहीं है । लोकप्रवृत्तिमें जिन क्रियाओंसे ऐसा नाम प्राप्त करता है कि 'यह झूठ बोलता है, चोरी करता है, कुशील सेवन करता है तथा परिग्रह रखता है' वे क्रियाये उनके नहीं हैं इसीलिये उनके असत्यादिकका त्याग कहा गया है।
(३ ) मुनिके मूलगुणोंमे पांच इंद्रियोंके विषयोंका त्याग कहा है किन्तु इंद्रियोंका जानना तो नही मिटता; तथा यदि विषयोंमें राग-द्वेष सर्वथा दूर हुआ हो तो वहाँ यथाख्यातचारित्र हो जाय वह तो यहां हुआ नही; परन्तु स्थूलरूपसे विषय इच्छाका अभाव हुआ है तथा बाह्य विषय सामग्री मिलाने की प्रवृत्ति दूर हुई है इसीलिये उनके इन्द्रियके विषयोंका त्याग कहा है । ( मो० प्र०)
(४) त्रसहिंसाके त्याग सम्बन्धी यदि किसीने त्रसहिंसाका त्याग किया तो वहाँ उसे चरणानुयोग में अथवा लोकमे जिसे त्रसहिंसा कहते हैं उसका त्याग किया है। किन्तु केवलज्ञानके द्वारा जो त्रसजीव देखे जाते हैं उसकी हिंसाका त्याग नही बनता। यहीं जिस त्रसहिंसाका त्याग किया उसमे तो उस हिंसारूप मनका विकल्प न करना सो मनसे त्याग है, वचन न बोलना सो वचनसे त्याग है और शरीरसे न प्रवर्तना सो कायसे त्याग है ॥२॥ ( मोक्षमार्ग प्रकाशकसे)
___अब व्रतोंमें स्थिरताके कारण बतलाते हैं
तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पंच पंच ॥३॥
अर्थ-[ तत्स्थैर्याय ] उन व्रतोकी स्थिरताके लिये [भावनाः पंच पंच ] प्रत्येक व्रतकी पांच पांच भावनाएं हैं।
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मोक्षशास्त्र किसी वस्तुका बारबार विचार करना सो भावना है ॥ ३ ॥
अहिंसा व्रतकी पाँच भावनायें वाङमनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपान
भोजनानि पंच ॥४॥ अर्थ-[वाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि] वचनगुप्ति-वचनको रोकना, मनगुप्ति-मनकी प्रवृत्तिको रोकना, ईर्यासमिति चार हाथ जमीन देखकर चलना, प्रादाननिक्षेपणसमिति जीवरहित भूमि देखकर सावधानीसे किसी वस्तुको उठाना धरना और आलोकितपानभोजन-देखकर-शोधकर भोजन पानी ग्रहण करना [पंच ] ये पांच अहिंसा व्रतकी भावनायें हैं।
टीका १-जीव परद्रव्यका कुछ कर नहीं सकता, इसीलिये वचन, मन इत्यादिकी प्रवृत्तिको जीव रोक नहीं सकता किन्तु बोलनेके भावको तथा मनकी तरफ लक्ष करनेके भावको रोक सकता है, उसे वचनगुप्ति तथा मनगुप्ति कहते हैं । ईर्यासमिति आदिमें भी इसी प्रमाणसे अर्थ होता है। जीव शरीरको चला नहीं सकता किन्तु स्वयं एक क्षेत्रसे दूसरे क्षेत्र में जाने का भाव करता है और शरीर अपनी उस समयकी क्रियावती शक्तिको योग्यताके कारण चलने लायक हो तो स्वयं चलता है । जब जीव चलने का भाव करता है तब प्रायः शरीर उसकी अपनी योग्यतासे स्वयं चलता है-ऐसा निमित्तनैमित्तिकसम्बन्ध होता है इसीलिये व्यवहारनयकी अपेक्षासे 'वचनको रोकना, मनको रोकना, देखकर चलना, विचारकर बोलना' ऐसा कहा जाता है । इस कथनका यथार्थ अर्थ शब्दानुसार नहीं किन्तु भाव अनुसार होता है।
२. प्रश्न- यहाँ गुप्ति और समितिको पुण्यास्रवमें बताया और अध्याय ६ के सूत्र २ में उसे संवरके कारणमें बताया है-इसतरहसे तो कथनमे परस्पर विरोध होगा ?
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अध्याय ७ सूत्र ४-५
५६१ उत्तर-यह विरोध नहीं, क्योंकि यहाँ गुप्ति तथा समितिका अर्थ अशुभवचनका निरोध तथा अशुभ विचारका निरोध होता है, तथा नवमें अध्यायके दूसरे सूत्रमे शुभाशुभ दोनों भावोंका निरोध अर्थ होता है। (देखो तत्वार्थसार अध्याय ४ गाथा ६३ हिन्दी टीका ( पृष्ठ २१६ )
३. प्रश्न-यहां कायगुप्तिको क्यों नही लिया ?
उत्तर-ईर्यासमिति और आदाननिक्षेपणसमिति इन दोनोमें कायगुप्तिका अन्तर्भाव हो जाता है ।
४. आलोकितपान भोजनमें रात्रिभोजन त्यागका समावेश हो जाता है।
सत्यव्रतकी पाँच भावनायें क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुतीचिभाषणं च
पंच ॥ ५॥ प्रर्थ-[ क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानानि ] क्रोधप्रत्याख्यान, लोभप्रत्याख्यान, भीरुत्वप्रत्याख्यान, हास्यप्रत्याख्यान अर्थात् क्रोधका त्याग करना, लोभका त्याग करना, भयका त्याग करना, हास्यका त्याग करना, [ अनुवीचिभाषणं च ] और शास्त्रकी आज्ञानुसार निर्दोष वचन बोलना [ पंच ] ये पांच सत्यव्रतकी भावनायें हैं।
टीका १.प्रश्न-सम्यग्दृष्टि निर्भय है इसीलिये निःशंक है और ऐसी अवस्था चौथे गुणस्थानमे होती है तो फिर यहाँ सम्यग्दृष्टि श्रावकको और मुनिको भयका त्याग करनेको क्यो कहा ?
उचर-चतुर्थ गुरणस्थानमे सम्यग्दृष्टि अभिप्रायकी अपेक्षासे निर्भय है अनंतानुबंधी कषाय होती है तब जिसप्रकारका भय होता है उसप्रकारका भय उनके नहीं होता इसलिये उनको निर्भय कहा है किन्तु वहाँ ऐसा कहनेका आशय नही है कि वे चारित्रकी अपेक्षासे सर्वथा निर्भय हुये हैं।
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मोक्षशास्त्र चारित्र अपेक्षा आठवें गुणस्थान पर्यंत भय होता है इसीलिये यहाँ श्रावकको तथा मुनिको भय छोड़नेकी भावना करनेको कहा है।
२. प्रत्याख्यान दो प्रकारका होता है-(१) निश्चयप्रत्याख्यान और (२) व्यवहार प्रत्याख्यान । निश्चयप्रत्याख्यान निर्विकल्पदशारूप है, इसमें बुद्धिपूर्वक होनेवाले शुभाशुभ भाव छूटते हैं, व्यवहारप्रत्याख्यान शुभभावरूप है; इसमें सम्यग्दृष्टिके अशुभ भाव छूटकर-दूर होकर शुभभाव रह जाते हैं । आत्मस्वरूपके अज्ञानीको-( वर्तमानमें प्रात्मस्वरूपका निश्चय ज्ञान करनेकी मना करनेवालेको )-अर्थात् आत्मस्वरूपके ज्ञानका उपदेश वर्तमानमें मिलानेके प्रति जिसे अरुचि हो उसे शुभभावरूप व्यवहारप्रत्याख्यान भी नही होता; मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगो मुनि पाँच महाव्रत निरतिचार पालते हैं उनके भी इस भावनामे बताये हुये प्रत्याख्यान नही होते । क्योंकि ये भावनायें पांचवें और छ8 गुणस्थानमे सम्यग्दृष्टिके ही होती हैं, मिथ्यादृष्टिके नही होती।
३. अनुवीचिभाषण-यह भावना भी सम्यग्दृष्टि हो कर सकता है, क्योकि उसे ही शास्त्रके मर्मकी खबर है इसीलिये वह सत् शास्त्रके अनुसार निर्दोष वचन बोलनेका भाव करता है । इस भावनाका रहस्य यह है कि सच्चे सुखकी खोज करनेवालेको जो सत् शास्त्रोंके रहस्यका ज्ञाता हो और अध्यात्म रस द्वारा अपने स्वरूपका अनुभव जिसे भया हो ऐसे आत्मज्ञानीकी संगतिपूर्वक शास्रका अभ्यास करके उसका मर्म समझना चाहिये। शास्त्रोंके भिन्न भिन्न स्थानों पर प्रयोजन साधनेके लिये अनेक प्रकारका उपदेश दिया है, उसे यदि सम्यग्ज्ञानके द्वारा यथार्थ प्रयोजन पूर्वक पहिचाने तो जीवके हित-अहितका निश्चय हो। इसलिये 'स्यात्' पदकी सापेक्षता सहित जो जीव सम्यग्ज्ञान द्वारा ही प्रीति सहित जिन वचनमें रमता है वह जीव थोड़े ही समयमें स्वानुभूतिसे शुद्धआत्मस्वरूपको प्राप्त करता है । मोक्षमार्गका प्रथम उपाय आगम ज्ञान कहा है, इसलिये सच्चा आगम क्या है इसकी परीक्षा करके आगमज्ञान प्राप्त करना चाहिये । आगमज्ञानके विना धर्मका यथार्थ साधन नहीं हो सकता । इसलिये प्रत्येक मुमुक्षु जीव
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अध्याय ७ सूत्र ५-६-७ को यथार्थ बुद्धिके द्वारा सत्य आगमका अभ्यास करना और सम्यग्दर्शन प्रगट करना चाहिये । इसीसे ही जीवका कल्याण होता है ॥५॥
अचौर्यव्रतकी पाँच भावनायें शून्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरणभक्ष्य
शुद्धिसधर्माऽविसंवादाः पंच ॥ ६॥
अर्थ-[ शून्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरणभक्ष्यशुद्धिसधर्माऽविसंवादाः ] शून्यागारवास-पर्वतोंकी गुफा, वृक्षकी पोल इत्यादि निर्जन स्थानों में रहना, विमोचितावास-दूसरोंके द्वारा छोडे गये स्थानमें निवास करना, किसी स्थान पर रहते हुये दूसरोको न हटाना तथा यदि कोई अपने स्थानमे आवे तो उसे न रोकना, शास्त्रानुसार भिक्षाकी शुद्धि रखना और साधर्मियोके साथ यह मेरा है-यह तेरा है ऐसा क्लेश न करना [पंच ] ये पांच अचौर्यव्रतकी भावनाये है।
टीका समान धर्मके धारक जैन साधु-श्रावकोंको परस्परमे विसंवाद नहीं करना चाहिये, क्योकि विसंवादसे यह मेरा यह तेरा ऐसा पक्ष ग्रहण होता है और इसीसे अग्राह्यके ग्रहण करनेकी संभावना हो जाती है ॥६॥
ब्रह्मचर्यव्रतकी पाँच भावनायें स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहराङ्गनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरण, वृष्येष्टरसस्वशरीरसंस्कारत्यागाः पंच ॥७॥
अर्थः-[खीरागकथाश्रवणत्यागः ] स्त्रियोमे राग बढ़ानेवाली कथा सुननेका त्याग, [तन्मनोहरांगनिरीक्षणत्यागः] उनके मनोहर अंगोंको निरख कर देखनेका त्याग [ पूर्वरतानुस्मरणत्यागः] अन्नत अवस्थामे भोगे हुए विषयोके स्मरणका त्याग, [वृष्येष्टरसत्यागः] कामवर्धक गरिष्ठ रसों का त्याग और [ स्वशरीरसंस्कारत्यागः ] अपने शरीरके सस्कारोका त्याग [पंच ] ये पांच ब्रह्मचर्यव्रतकी भावनायें हैं ।
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मोक्षशास्त्र
टीका
प्रश्न- परवस्तु आत्माको कुछ तथा आत्मासे परवस्तुका त्याग हो नही कथा सुनने आदिका त्याग क्यों कहा है ?
૧૬૪
लाभ - नुकसान नही करा सकती सकता तो फिर यहाँ स्त्रीरागकी
उत्तर—श्रात्माने परवस्तुनोंको कभी ग्रहण नहीं किया और ग्रहण कर भी नही सकता इसीलिये इसका त्याग हो किस तरह बन सकता है ? इसलिये वास्तवमे परका त्याग ज्ञानियोंने कहा है ऐसा मान लेना योग्य नहीं है | ब्रह्मचर्यं पालन करनेवालोंको स्त्रियों और शरीरके प्रति राग दूर करना चाहिये अतः इस सूत्रमे उनके प्रति रागका त्याग करनेका कहा है । - व्यवहारके कथनोंको ही निश्चयके कथन की तरह नही मानना, परन्तु इस कथनका जो परमार्थरूप अर्थ हो वही समझना चाहिये ।
यदि जीवके स्त्री प्रादिके प्रति राग दूर होगया हो तो उस संबंधी रागवाली बात सुननेकी तरफ इसकी रुचिका झुकाव क्यों हो ? इस तरहकी रुचिका विकल्प इस ओरका राग बतलाता है इसलिये इस रागके त्याग करनेकी भावना इस सूत्र मे बतलाई है ॥ ६ ॥
परिग्रहत्यागत्रतको पाँच भावनायें मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेष वर्जनानि पंच ॥ ८ ॥
अर्थ - [ मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषय रागद्वेषवर्जनानि ] स्पर्शन आदि पाँचों इन्द्रियोके इष्ट अनिष्ट विषयोके प्रति रागद्वेषका त्याग करना [पंच ] सो पाँच परिग्रहत्यागवतकी भावनाये है ।
टीका
इन्द्रियाँ दो प्रकारकी हैं- द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय; इसकी व्याख्या दूसरे अध्यायके १७-१८ सूत्रकी टीकामें दी है । भावेन्द्रिय यह ज्ञानका विकास है वह जिन पदार्थोको जानती है वे पदार्थ ज्ञानके विषय होनेसे ज्ञेय हैं, किन्तु यदि उनके प्रति राग द्वेष किया जावे तो उसे उपचारसे इंद्रि
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अध्याय ७ सूत्र ८-९-१०
-~-५६५ ' थोंका विषय कहा जाता है। वास्तवमें वह विषय ( ज्ञेय पदार्थ.) स्वयं
इष्ट या अनिष्ट नही किन्तु जिस समय जीव राग-द्वेष करता है तब उपचारसे उन पदार्थोंको इष्टानिष्ट कहा जाता है । इस सूत्रमें उन पदार्थोंकी ओर राग-द्वेष छोड़नेकी भावना करना बताया है।
रागका अर्थ प्रीति, लोलुपता और द्वेषका अर्थ नाराजो, तिरस्कार है ॥८॥
हिंसा आदिसे विरक्त होने की भावना हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् ॥६॥
- अर्थ-[ हिंसादिषु ] हिंसा प्रादि पांच पापोंसे [इह अमुत्र] इस लोकमें तथा परलोकमे [ अपायावद्यदर्शनम् ] नाशकी ( दुःख, आपत्ति, भय तथा निंद्यगतिकी ) प्राप्ति होती है-ऐसा बारम्बार चिन्तवन करना चाहिये।
: टीका अपाय-अभ्युदय और मोक्षमार्गको जीवकी क्रियाको नाश करने ~ वाला जो उपाय है सो अपाय है । अवद्य-निंद्य, निंदाके योग्य । . हिसा आदि पापों की व्याख्या सूत्र १३ से १७ तक में की जायगी ।।
दुःखमेव वा ॥१०॥ अर्थ-[वा ] अथवा ये हिंसादिक पांच पाप [ दुःखमेव ] .. -दुःखरूप ही हैं -ऐसा विचारना ।
टीका
१. यहाँ कारणमे कार्यका उपचार समझना, क्योकि हिंसादि तो दुःखके कारण हैं किन्तु उसे ही कार्य अर्थात् दुःखरूप बतलाया है।
२. प्रश्न-हम ऐसा देखते हैं कि विषय रमणतासे तथा भोग- विलाससे रति सुख उत्पन्न होता है तथापि उसे दुःखरूप क्यों कहा ?
उत्तर-इन विषयादिमे सुख नही, अज्ञानी लोग भ्रांतिसे उसे
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मोक्षशास्त्र
सुखरूप मानते हैं, ऐसा मानना कि परसे सुख होता है सो बड़ी भूल है भ्रांति है। जैसे, चर्म-मांस-रुधिरमें जब विकार होता है तब नख ( नाखून ) पत्थर आदिसे शरीरको खुजाता है। वहाँ यद्यपि खुजलानेसे अधिक दुःख होता है तथापि भ्रांतिसे सुख मानता है, उसीप्रकार अज्ञानी जीव परसे सुख दुःख मानता है यह बड़ी भ्रांति-भूल है ।
___जीव स्वयं इंद्रियोंके वश हो यही स्वाभाविक दुःख है; यदि उन्हें दुःख न हो तो जीव इंद्रियविषयों में प्रवृत्ति क्यों करता है ? निराकुलता ही सच्चा सुख है। विना सम्यग्दर्शन-ज्ञानके वह सुख नही हो सकता अपने स्वरूपकी भ्रांतिरूप मिथ्यात्व और उसपूर्वक होनेवाला मिथ्याचारित्र ही सर्व दुःखोंका कारण है । दुःख कम हो अज्ञानी उसे सुख मानता है, किन्तु वह सुख नहीं है । सुख दुःखका वेदनका पैदा न होना ही सुख है अथवा जो अनाकुलता है सो सुख है-अन्य नहीं; और यह सुख सम्यग्ज्ञान का अविनाभावी है।
३. प्रश्न-धन संचयसे तो सुख दिखाई देता है तथापि वहाँ भी दुःख क्यो कहते हो ?
उत्तर-धनसंचय आदिसे सुख नहीं । एक पक्षीके पास मांसका टुकड़ा पड़ा हो तब दूसरे पक्षी उसे चूटते हैं और उस पक्षीको भी चोंचें मारते हैं, उस समय उस पक्षीको जैसी हालत होती है वैसी हालत धनधान्य आदि परिग्रहधारी मनुष्योंकी होती है। लोग संपत्तिशाली पुरुषको उसी तरह चूटते हैं । धनकी संभाल करनेमे आकुलतासे दुःखी होना पड़ता है, अर्थात् यह मान्यता भ्रमरूप है कि धनसंचयसे सुख होता है। ऐसा मानना कि 'पर वस्तुसे सुख दुःख या लाभ-हानि होती है' यही बड़ी भूल है । परवस्तुमे इस जीवके सुख दुःखका संग्रह किया हुआ नही है कि जिससे वह परवस्तु जीवको सुख दुःख दे।।
४. प्रश्न-हिंसादि पांच पापोंसे विरक्त होनेकी भावना करनेको कहा परंतु मिथ्यात्व तो महापाप है तथापि छोड़नेके लिये क्यों नहीं कहा ?
उत्तर-यह अध्याय इसका प्ररूपण करता है कि सम्यग्दृष्टि जीव
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अध्याय ७ सूत्र १०-११
५६७ के कैसा शुभास्रव होता है । सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्वरूप महापाप तो होता ही नहीं इसीलिये इस संबंधी वर्णन इस अध्यायमें नहीं, इस अध्यायमै सम्यग्दर्शनके बाद होनेवाले व्रत संबंधी वर्णन हैं। जिसने मिथ्यात्व छोडा हो वही असंयत सम्यग्दृष्टि देशविरति और सर्वविरति हो सकता है-यह सिद्धांत इस अध्यायके १८ वे सूत्रमे कहा है ।
मिथ्यादर्शन महापाप है उसे छोड़नेको पहले छ8 अध्यायके १३ वें सूत्र में कहा है तथा अब फिर आठवें अध्यायके पहले सूत्र में कहेगे ॥१०॥
व्रतधारी सम्यग्दृष्टिकी भावना मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यांनि च सत्वगुणाधिक
क्लिश्यमाना विनयेषु ॥ ११ ॥
अर्थ-[सत्त्वेषु मैत्री] प्राणीमात्रके प्रति निर्वैर बुद्धि [ गुणाधिकेषु प्रमोदं ] अधिक गुणवालोके प्रति प्रमोद (हर्ष) [ क्लिश्यमानेषुकारण्यं ] दुःखी रोगी जीवोंके प्रति करुणा और [ अविनयेषु माध्यस्थं ] हठाग्रही मिथ्यादृष्टि जीवोके प्रति माध्यस्थ भावना-ये चार भावना अहिंसादि पाच व्रतोंकी स्थिरताके लिये बारबार चितवन करना योग्य है।
टीका सम्यग्दृष्टि जीवोंके यह चार भावनायें शुभभावरूपसे होती हैं। ये भावना मिथ्यादृष्टिके नहीं होती क्योंकि उसे वस्तुस्वरूपका विवेक नहीं।
मैत्री-जो दूसरेको दुःख न देनेकी भावना है सो मैत्री है।
प्रमोद-अधिक गुणोके धारक जीवोके प्रति प्रसन्नता आदिसे अतरंग भक्ति प्रगट होना सो प्रमोद है।
कारुण्य-दुखी जीवोंको देखकर उनके प्रति करुणाभाव होना सो कारुण्य है।
माध्यस्थ--जो जीव तत्त्वार्थ श्रद्धासे रहित और तत्त्वका उपदेश देनेसे उलटा चिढ़ता है, उसके प्रति उपेक्षा रखना सो माध्यस्थपन है।
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मोक्षशास्त्र
२. इस सूत्र के अर्थकी पूर्णता करनेके लिये निम्न तीन वाक्योंमेंसे कोई एक वाक्य लगाना -
५६८
(१) 'तत्स्थैर्यार्थ भावयितव्यामि' इन अहिंसादिक पांच व्रतों की स्थिरताके लिये भावना करनी योग्य है ।
(२) 'भावयतः पूर्णान्य हिंसादीनि व्रतानि भवन्ति' इस भावनाके भानेसे अहिंसादिक पाँच व्रतोंकी पूर्णता होती है ।
(३) 'तत्स्थैर्यार्थम् भावयेत्' इन पाँच व्रतोंकी दृढ़ता के लिये भावना करे ।
[ देखो सर्वार्थसिद्धि श्रध्याय ७ पृष्ठ २९ ]
३. ज्ञानी पुरुषोंको अज्ञानी जीवोंके प्रति द्वेष नहीं होता, किन्तु करुणा होती है इस बारेमें श्री श्रात्मसिद्धि शास्त्रकी तीसरी गाथा में कहा है कि
कोई क्रिया जड़ हो रहा शुष्क ज्ञानमें कोई ।
माने मारग मोक्षका करुणा उपजे जोई ॥ ३ ॥
अर्थ — कोई क्रियामें ही जड़ हो रहा है, कोई ज्ञानमें शुष्क होरहा है और वे इनमें मोक्षमार्ग मान रहे है उन्हें देखकर करुणा पैदा होती है । गुणाधिक — जो सम्यग्ज्ञानादि गुरणोमें प्रधान — मान्य --- बड़ा हो वह गुणाधिक है ।
क्लिश्यमान - जो महामोहरूप मिथ्यात्वसे ग्रस्त है, कुमति कुश्रुतादिसे परिपूर्ण है जो विषय सेवन करनेकी तीव्र तृष्णारूप अग्निसे अत्यन्त दग्ध हो रहे हैं और वास्तविक हितकी प्राप्ति और अहित का परिहार करनेमे जो विपरीत हैं- - इस काररणसे वे दुःख से पीड़ित हैं, वे जीव क्लिश्यमान हैं ।
अविनयी — जो जीव मिट्टीके पिंड लकड़ी या दीवालकी तरह जड़अज्ञानी हैं वे वस्तुस्वरूपको ग्रहण करना ( समझना और धारण करना ) नही चाहते, तर्क शक्तिसे ज्ञान नही करना चाहते तथा दृढ़रूपसे विपरीत
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अध्याय ७ सूत्र ११-१२
५६६
श्रद्धावाले हैं और जिनने द्वेषादिकके वश हो वस्तु स्वरूपको अन्यथा ग्रहण कर रखा है, ऐसे जीव श्रविनयी है, ऐसे जीवोको अपहृष्टि- मूढदृष्टि भी कहते हैं ॥ ११ ॥
व्रतोंकी रक्षा के लिये सम्यग्दृष्टिकी विशेष भावना जगत्कायस्वभाव वा संवेगवैराग्यार्थम् ॥ १२ ॥
अर्थ - [ संवेगवैराग्यार्थम् ] सवेग अर्थात् संसारका भय और वैराग्य अर्थात् रागद्वेषका अभाव करनेके लिये क्रमसे संसार और शरीर के स्वभावका चितवन करना चाहिये ।
टीका
१. जगत्का स्वभाव
छह द्रव्योके समूहका नाम जगत् है । प्रत्येक द्रव्य अनादि अनन्त हैं । इनमे जीवके अतिरिक्त पाँच द्रव्य जड़ है और जीवद्रव्य चेतन है | जीवोंकी सख्या अनन्त है, पाँच अचेतन द्रव्योके सुख दुःख नही, जीव द्रव्य के सुख दुःख है । अनन्त जीवोमें कुछ सुखी हैं और बहुभागके जीव दुःखी हैं । जो जीव सुखी हैं वे सम्यग्ज्ञानी ही हैं, बिना सम्यग्ज्ञानके कोई जीव सुखी नही हो सकता; सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानका कारण है; इस तरह सुखका प्रारम्भ सम्यग्दर्शनसे ही होता है और सुखकी पूर्णता सिद्धदशामें होती है । स्वस्वरूपको नही समझनेवाले मिथ्यादृष्टि जीव दुःखी हैं । इन जीवोके अनादिसे दो बड़ी भूले लगी हुई है, वे भूलें निम्नप्रकार हैं
(१) ऐसी मान्यता मिथ्यादृष्टिकी है कि शरीरादि परद्रव्यका में कर सकता है और परद्रव्य मेरा कर सकते हैं, इसप्रकार परवस्तुसे मुझे लाभ-हानि होती है और जीवको पुण्यसे लाभ होता है । यह मिथ्या मान्यता है | शरीरादिकके प्रत्येक परमाणु स्वतंत्र द्रव्य है, जगत्का प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है । परमाणु द्रव्य स्वतंत्र है तथापि जीव उसे हला चला सकता है, इसकी व्यवस्था संभाल सकता है, ऐसी मान्यता द्रव्योंकी स्वतंत्रता छीन लेनेके बराबर है और इसमे प्रत्येक रजकरण पर जीवके स्वामित्व होनेकी
७२
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५७०
मोक्षशास्त्र मान्यता आती है। यह अज्ञानरूप मान्यता अनन्त संसारका कारण है। प्रत्येक जीव भी स्वतंत्र है, यदि यह जीव पर जीवोंका कुछ कर सकता और यदि पर जीव इसका कुछ कर सकते तो एक जीव पर दूसरे जीवका स्वामित्व हो जायगा और स्वतंत्र वस्तुका नाश हो जायगा । पुण्य भाव विकार है, स्वद्रव्यका आश्रय भूलकर अनन्त परद्रव्योंके आश्रयसे यह भाव होता है इससे जीवको लाभ होता है यदि ऐसा मानें तो यह सिद्धान्त निश्चित होता है कि पर द्रव्यका पालम्बनसे (-पराश्रय-पराधीनतासे) लाभ है-सुख है, किन्तु यह मान्यता अपसिद्धान्त है-मिथ्या है।
(२) मिथ्यादृष्टि जीवकी अनादिकालसे दूसरी भूल यह है कि जीव विकारी अवस्था जितना ही है अथवा जन्मसे मरण पर्यन्त ही है ऐसा मानकर कोई समयमें भी ध्रुवरूप त्रिकाल शुद्ध चैतन्य चमत्कार स्वरूपको नही पहचानता और न उसका आश्रय करता है।
इन दो भूलों रूप ही संसार है, यही दुःख है, इसे दूर किये बिना कोई जीव सम्यग्ज्ञानी-धर्मी-सुखी नही हो सकता । जहाँ तक यह मान्यता हो वहाँ तक जीव दुःखी ही है।
श्री समयसार शास्त्र गाथा ३०८ से ३११ मेसे इस सम्बन्धी कुछ प्रमाण दिये जाते हैं.
"समस्त द्रव्योंके परिणाम जुदे जुदे हैं, सभी द्रव्य अपने अपने परिणामोंके कर्ता हैं; वे इन परिणामोके कर्ता हैं, वे परिणाम उनके कर्म हैं। निश्वयसे वास्तव में किसीका किसीके साथ कर्ताकर्म सम्बन्ध नही है, इसलिए जीव अपने परिणामोंका कर्ता है, अपने परिणाम कर्म हैं। इसीतरह अजीव अपने परिणामका ही कर्ता है, अपना परिणाम कर्म है। इसप्रकार जीव दूसरेके परिणामोंका अकर्ता है।"
( स० सार कलश १९६ ) "जो अज्ञान-अन्धकारसे आच्छादित होकर आत्माको ( परका ) कर्ता मानते हैं वे चाहे मोक्षके इच्छुक हों तो भी सामान्य ( लौकिक ) जनोंकी तरह उनको भी मोक्ष नही होता।"
'जो जीव व्यवहारसे मोहित होकर परद्रव्यका कर्तापन मानता है
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अध्याय ७ सूत्र १२ वह लौकिकजन हो या मुनिजन हो-मिथ्यादृष्टि ही है।' ( कलश, २०१)
"क्योकि इस लोकमे एक वस्तुका अन्य वस्तुके साथ सारा सम्बन्ध ही निषेध किया गया है, इसीलिये जहाँ वस्तुभेद है अर्थात् भिन्न वस्तुयें हैं वहीं कर्ताकर्मकी घटना नही होती-इसप्रकार मुनिजन और लौकिकजनों तत्त्वको ( वस्तुके यथार्थ स्वरूपको ) अकर्ता देखो (-ऐसा श्रद्धान करना कि कोई किसीका कर्ता नही, परद्रव्य परका अकर्ता ही है )"
ऐसी सत्य-यथार्थ बुद्धिको शिवबुद्धि अथवा कल्याणकारी बुद्धि कहते हैं।
-शरीर, स्त्री, पुत्र, धन इत्यादि पर वस्तुप्रोमें जीवका ससार नही है, किन्तु मैं उन परद्रव्योंका कुछ कर सकता हूँ अथवा मुझे उनसे सुख दुःख होता है ऐसी विपरीत मान्यता ( मिथ्यात्व ) ही संसार है । संसार यानी (सं+स ) अच्छी तरह खिसक जाना । जीव अपने स्वरूपकी यथार्थ मान्यतामेसे अनादिसे - अच्छी तरह खिसक जानेका कार्य ( विपरीत मान्यतारूपी कार्य करता है इसीलिए यह संसार अवस्थाको प्राप्त हुआ है। अतः जीवकी विकारी अवस्था ही संसार है, किन्तु जीवका संसारा जीवसे बाहर नही है। प्रत्येक जीव स्वय अपने गुण पर्यायोमें है, जो अपने गुण पर्याय हैं सो जीवका जगत् है । न तो जीवमे जगत्के अन्य द्रव्य हैं और न यह जीव जगत्के अन्य द्रव्योमें है। सम्यग्दृष्टि जीव जगत्के स्वरूपका इसप्रकार चितवन करता है।
२. शरीरका स्वभाव शरीर अनन्त रजकणोका पिण्ड है। जीवका कार्माण शरीर और तैजस शरीरके साथ अनादिसे सयोग सम्बन्ध है, सूक्ष्म होनेसे यह शरीर इंद्रियगम्य नही। इसके अलावा जीवके एक स्थूल शरीर होता है; परन्तु जब जीव एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर धारण करता है तब बीचमें जितना समय लगता है उतने समय तक ( अर्थात् विग्रहगतिमे) जीवके यह स्थूल शरीर नही होता । मनुष्य तथा एकेन्द्रियसे पचेन्द्रिय तकके तिर्यंचोंके जो स्थूल शरीर होता है वह औदारिक शरीर है और देव तथा नारकियोंके वैक्रियिक शरीर होता है । इसके सिवाय एक आहारक शरीर होता है,
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मोक्षशास और वह विशुद्ध संयमके धारक मुनिराजके ही होता है। वास्तव में ये पांचों प्रकारके शरीर जड़ हैं-अचेतन हैं अर्थात् यथार्थमें ये शरीर जीवके नहीं । कार्माण शरीर तो इंद्रियसे दिखाई नहीं देता तथापि ऐसा व्यवहार कथन सुनकर कि 'संसारी जीवोके कार्माण शरीर होता है इसका यथार्थ आशय समझनेके बदले उसे निश्चय कथन मानकर अज्ञानी ऐसा मान लेते हैं कि वास्तवमें जीवका ही शरीर होता है।
शरीर अनन्त रजकरणोंका पिण्ड है और प्रत्येक रजकरण स्वतंत्र द्रव्य है। यह हलन चलनादिरूप अपनी अवस्था अपने कारणसे स्वतंत्ररूपसे धारण करता है। प्रत्येक परमाणुद्रव्य अपनी नवीन पर्याय प्रतिसमय उत्पन्न करता है और पुरानी पर्यायका अभाव करता है। इसतरह पर्यायके उत्पाद व्ययरूप कार्य करते हुए ये प्रत्येक परमाणु ध्रुवरूपसे हमेशा बने रहते हैं । अतएव जगत्के समस्त द्रव्य स्थिर रहकर बदलनेवाले हैं। ऐसा होने पर भी अज्ञानी जीव ऐसा भ्रम सेवन करता है कि जीव शरीरके अनन्त परमाणुद्रव्योंकी पर्याय कर सकता है और जगत्के अज्ञानियोंकी ओरसे जीवको अपनी इस विपरीत मान्यताकी बलवानपनेसे-विशेषरूपसे पुष्टि मिला करती है। शरीरके साथ जो एकत्वबुद्धि है सो इस अज्ञानका कारण है अतः इसके फलरूपसे जीवके अपने विकारभावके अनुसार नये २ शरीरका संयोग हुआ करता है । इस भूलको दूर करनेके लिये चेतन और जड़ वस्तुके स्वभावकी स्वतंत्रता समझनेकी आवश्यकता है।
सम्यग्दृष्टि जीव इस वस्तुस्वभावको सम्यग्ज्ञानसे जानता है । यहाँ इस सम्यग्ज्ञान और यथार्थ मान्यताको विशेष स्थिर-निश्चल करनेके लिये इसका बारम्बार विचार-चितवन करना कहा है।
३. संवेग सम्यग्दर्शनादि धर्ममें तथा उसके फलमें उत्साह होना और संसार का भय होना सो संवेग है । परवस्तु संसार नहीं किन्तु अपना विकारीभाव संसार है, इस विकारीभावका भय रखना अर्थात् इस विकारीभावके न होनेकी भावना रखना और वीतराग दशाकी भावना बढ़ानी चाहिये ।
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अध्याय ७ सूत्र १२
५७३ सम्यग्दृष्टि जीवोंके जहाँतक पूर्ण वीतरागता प्रगट न हो वहाँ तक अनित्य राग-द्वेष रहता है, इसीलिये उससे भय रखनेको कहा है। जिस किसी भी तरह विकारभाव नही होने देना और अशुभराग दूर होने पर जो शुभ राग रह जाय उससे भी धर्म न मानना, किन्तु उसके दूर करनेकी भावना करना।
४. वैराग्य रागद्वेषके प्रभावको वैराग्य कहते है। यह शब्द 'नास्ति' वाचक है, किन्तु कही भी अस्तिके बिना नास्ति नही होती। जब जीवमे रागद्वेषका अभाव होता है तब किसका सद्भाव होता है ? जीवमे जितने अंशमे रागद्वेषका अभाव होता है उतने अंशमे वीतरागता-ज्ञान-आनन्द-सुखका सद्भाव होता है। यहाँ सम्यग्दृष्टि जीवोको संवेग और वैराग्यके लिये जगत् और शरीरके स्वभावका बारम्बार चितवन करनेको कहा है।
५. विशेष स्पष्टीकरण प्रश्न-यदि जीव शरीरका कुछ नही करता और शरीरकी क्रिया उससे स्वयं ही होती है तो शरीरमेसे जोव निकल जानेके बाद शरीर क्यों नही चलता?
उचर-परिणाम ( पर्यायका परिवर्तन ) अपने अपने द्रव्यके आश्रयसे होता है, एक द्रव्यके परिणामको अन्य द्रव्यका आश्रय नहीं होता। पुनश्च कोई भी कार्य बिना कर्ताके नही होता; तथा वस्तुकी एक रूपसे स्थिति नही होती । इस सिद्धान्तके अनुसार जब मृतक शरीरके पुद्गलोकी योग्यता लम्बाई रूपमें स्थिर पड़े रहनेकी होती है तब वे वैसी दशामे पड़े रहते हैं और जब उस मृतक शरीरके पुद्गलोके पिंडकी योग्यता घरके बाहर अन्य क्षेत्रांतरकी होती है तब वे अपनी क्रियावती शक्तिके कारणसे क्षेत्रांतर होते है और उस समय रागी जीव वगैरह निमित्तरूप उपस्थित होते हैं, परन्तु वे रागी जीव आदि पदार्थ मुरदेको कोई अवस्था नहीं करते। मुरदेके पुद्गल स्वतंत्र वस्तु हैं, उस प्रत्येक रजकरणका परिणमन उसके अपने कारणसे होता है; उन रजकणोंकी जिस समय जैसी हालत होने योग्य हो
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मोक्षशास्त्र
वैसी ही हालत उसके स्वाधीनरूपसे होती है । परद्रव्योंकी अवस्था में जीवका कुछ भी कर्तृत्व नही है । इतनी बात जरूर है कि उस समय रागी जीवके अपनेमें जो कषायवाला उपयोग और योग होता है उसका कर्ता स्वयं वह जीव है ।
सम्यग्दृष्टि जीव ही जगत् ( अर्थात् संसार ) और शरीर के स्वभाव का यथार्थ विचार कर सकता है । जिनके जगत् और शरीर के स्वभावकी यथार्थ प्रतीति नही ऐसे जीव ( मिथ्यादृष्टि जीव ) 'यह शरीर अनित्य है, संयोगी है, जिसका सयोग होता है उसका वियोग होता है' इसप्रकार शरीराश्रित मान्यतासे ऊपरी वैराग्य ( अर्थात् मोहगर्भित या द्वेषगर्भित वैराग्य ) प्रगट करते है, किन्तु यह सच्चा वैराग्य नही है । सच्चा ज्ञानपूर्वक वैराग्य ही सच्चा वैराग्य है । आत्माके स्वभावको जाने विना यथार्थ वैराग्य नही होता । आत्मज्ञानके बिना मात्र जगत और शरीरकी क्षणिकताके श्राश्रयसे हुआ वैराग्य अनित्य जाग्रिका है, इस भावमें धर्म नही है । सम्यग्दृष्टि अपने असंयोगी नित्य ज्ञायक स्वभावके आलम्बन पूर्वक अनित्य भावना होती है, यही सच्चा वैराग्य है ॥ १२ ॥
हिसा- पापका लक्षण
प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपण हिंसा ॥ १३ ॥
अर्थ - [ प्रमत्तयोगात् ] कषाय-राग- - द्वेष अर्थात् अयत्नाचार ( असावधानीप्रमाद ) के सम्बन्धसे अथवा प्रमादी जीवके मन-वचन-काय योगसे [ प्रारणव्यपरोपरणं ] जीवके भाव प्रारणका, द्रव्यप्रारणका अथवा इन दोनोंका वियोग करना सो [ हिंसा ] हिंसा है ।
टीका
१. जैनशासनका यह एक महासूत्र है इसे ठीक ठीक -- समभनेकी जरूरत है ।
इस सूत्र में 'प्रमत्तयोगात्' शब्द भाव वाचक है वह यह बतलाता है कि प्रारणोंके वियोग होने मात्रसे हिंसाका पाप नहीं किन्तु प्रमादभाव हिसा
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अध्याय ७ सूत्र १३
५७५ है और उससे पाप है । शाखोंमें कहा है कि-प्राणियोंका प्राणोंके अलग होने मात्रसे हिंसाका बंध नही होता; जैसे कि ईर्यासमितिवाले मुनिके उनके निकलनेके स्थानमे यदि कोई जीव आजाय और परके संयोगसे वह जीव मर जाय तो वहाँ उस मुनिके उस जीवकी मृत्युके निमित्तसे जरा भी वन्ध नहीं होता, क्योंकि उनके भावमे प्रमाद योग नहीं है।
२. आत्माके शुद्धोपयोगरूप परिणामको घातनेवाला भाव ही संपूर्ण हिसा है। असत्य वचनादि भेद मात्र शिष्योको समझानेके लिये उदाहरण रूप कहे हैं । वास्तवमे जैन शास्त्रका यह थोड़ेमे रहस्य है कि 'रागादिभावों की उत्पत्ति न होना सो अहिसा है और रागादि भावोकी उत्पत्ति होना सो हिंसा है'। (पुरुषार्थ सिद्धय पाय गाथा ४२-४४)
३. प्रश्न-चाहे जीव मरे या न मरे तो भी प्रमादके योगसे ( प्रयत्नाचारसे ) निश्चय हिसा होती है तो फिर यहाँ सूत्रमे 'प्राणव्यपरोपणं' इस शब्दका किसलिये प्रयोग किया है ?
उत्तर--प्रमाद योगसे जीवके अपने भाव प्राणोका घात (मरण) अवश्य होता है। प्रमादमें प्रवर्तनेसे प्रथम तो जीव अपने ही शुद्ध भावप्राणोका वियोग करता है, फिर वहाँ अन्य जीवके प्राणोंका वियोग ( व्यपरोपण ) हो या न हो, तथापि अपने भावप्राणोका वियोग तो अवश्य होता है-यह बतानेके लिये 'प्राणव्यपरोपणं' शब्दका प्रयोग किया है।
४. जिस पुरुषके क्रोधादि कषाय प्रगट होती है उसके अपने शुद्धोपयोगरूप भावप्राणोंका घात होता है। कषायके प्रगट होनेसे जीवके भावप्राणोंका जो व्यपरोपण होता है सो भाव हिंसा है और इस हिसाके समय यदि प्रस्तुत जीवके प्राणका वियोग हो तो वह द्रव्य हिंसा है।
५. यह जैन सिद्धान्तका रहस्य है कि आत्मामे रागादि भावोकी उत्पत्ति होनेका नाम ही भावहिंसा है । जहाँ धर्मका लक्षण अहिंसा कहा है वहाँ ऐसा समझना कि 'रागादि भावोका जो अभाव है सो अहिंसा है'। इसलिये विभाव रहित अपना स्वभाव है ऐसे भावपूर्वक जिसतरह जितना बने उतना अपने रागादि भावोंका नाश करना सो धर्म है। मिथ्याष्टि
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मोक्षशास्त्र
जीवके रागादि भावोंका नाश नहीं होता; उसके प्रत्येक समय में भाव मरण हुआ ही करता है; जो भावमरण है वही हिंसा है इसीलिये उसके धर्मका अंश भी नहीं है ।
६. इन्द्रियोंकी प्रवृत्ति पापमें हो या पुण्यमें हो किन्तु उस प्रवृत्तिके दूर करनेका विचार न करना सो प्रमाद है | ( तत्त्वार्थसार पृष्ठ २२३ ) ७. इस हिंसा पापमें असत्य आदि दूसरे चार पाप गर्भित हो जाते है | सत्य इत्यादि भेद तो शिष्यको समझानेके लिये मात्र दृष्टान्तंरूपसे पृथक् बतलाये हैं ।
८. यदि कोई जीव दूसरेको मारना चाहता हो किन्तु ऐसा प्रसंग न मिलनेसे नही मार सका, तो भी उस जीवके हिंसाका पाप लगा, क्योकि वह जीव प्रमादभावसहित है और प्रमादभाव ही भावप्रारणोंकी हिसा है । ६. जो ऐसा मानता है कि 'मैं पर जीवोंको मारता हूँ और पर जीव मुझे मारते हैं' वह मूढ़ है-अज्ञानी है और इससे विपरीत अर्थात् जो ऐसा नही मानता वह ज्ञानी है ( देखो समयसार गाथा २४७ )
जीवोंको मारो या न मारो - श्रध्यवसानसे ही कर्मवन्ध होता है । प्रस्तुत जीव मरे या न मरे, इस कारण से बन्ध नही है ।
( देखो समयसार गाथा २६२ ) १. यहाँ योगका अर्थ सम्बन्ध होता है । 'प्रमत्त योगात्' का अर्थ है प्रमादके सम्बन्धसे । यहाँ ऐसा अर्थ भी हो सकता है कि मन-वचन-कायके आलम्बनसे आत्मा के प्रदेशोंका हलन चलन होना सो योग है । प्रमादरूप परिणामके सम्बन्धसे होनेवाला योग 'प्रमत्त योग' है ।
११. प्रमादके १५ भेद हे ४ विकथा ( स्त्रीकथा, भोजनकथा • राजकथा, चोरकथा ), ५ इद्रियोके विषय, ४ कषाय ( क्रोध, मान, माया, लोभ ), १ निद्रा और १ प्रणय । इद्रियाँ वगैरह तो निमित्त हैं और जीवका जो असावधान भाव है सो उपादान कारण है । प्रमादका अर्थ अपने स्वरूपकी असावधानी भी होता है ।
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मध्याय ७ सूत्र.१३-१४
५७७ १२. तेरहवें सूत्रका सिद्धान्त. जीवका प्रमत्तभाव शुद्धोपयोगका घात करता है इसलिये वही हिंसा है, और स्वरूपके उत्साहसे जितने अंशमें शुद्धोपयोगका घात न हो-जागृति हो उतने अंशमें अहिंसा है मिथ्यादृष्टिके सच्ची अहिंसा कभी नहीं है ॥१३॥
___ असत्यका स्वरूप
असदभिधानमनृतम् ॥१४॥ अर्थ-प्रमादके योगसे [ असदभिधानं ] जीवोंको दुःखदायक, अथवा मिथ्यारूप वचन बोलना सो,[ अनुतम् ] असत्य है। - .
टीका । १. प्रमादके संबंधसे झूठ बोलना सो असत्य है। जो शब्द निकलता है वह तो पुद्गल, द्रव्यकी अवस्था है उसे- जीव नही परिणमाता, इसीसे मात्र शब्दोका उच्चारणका पाप नही किन्तु जीवका असत्य बोलनेका-जो प्रमादभाव है वही पाप है।
२. सत्यका परमार्थ स्वरूप (१) आत्माके अतिरिक्त अन्य कोई पदार्थ आत्माका नही हो सकता और दूसरे किसीका कार्य आत्मा कर सकता नही ऐसा वस्तुस्वरूपका निश्चय करना चाहिये; और देह, स्त्री, पुत्र, मित्र, धन, धान्य, गृह इत्यादि पर वस्तुओके संवधमे भाषा बोलनेके विकल्पके समय यह उपयोग (-अभिप्राय) रखना चाहिये कि 'मैं आत्मा हूँ; एक आत्माके अलावा अन्य "कोई मेरा नही, मेरे आधीन नही और मैं किसीका कुछ भी कर नही सकता' अन्य प्रात्माके सम्बन्धमे बोलने पर भी यह अभिप्राय, यह उपयोग (-विवेक ) जाग्रत रखना चाहिये कि वास्तवमे 'जाति, लिंग, इन्द्रियादिक उपचरित भेदवाला यह आत्मा कभी नही है, परन्तु स्थूल व्यवहारसे ऐसा कहा जाता है। यदि इस तरहकी पहचानके उपयोग पूर्वक सत्य बोलनेका भाव हो तो वह पारमार्थिक सत्य है । वस्तु स्वरूपकी प्रतीति विना परमार्थ सत्य नहीं होता। इस सम्बन्धमे और स्पष्ट समझाते हैं:
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मोक्षशास्त्र (अ) यदि कोई जीव आरोपित वातं करें कि 'मेरा देह, मेरा घर, मेरी स्त्री, मेरा पुत्र' इत्यादि प्रकारसे भाषा बोलता है, (-बोलनेका भाव करता है ) उस समय मैं इन अन्य द्रव्योंसे भिन्न हूँ, वास्तवमें वे कोई मेरे नही, मैं उनका कुछ कर नहीं सकता' मैं भापा बोल सकता नहीं, ऐसी स्पष्टरूपसे यदि उस जीवके प्रतीति हो तो वह परमार्थ सत्य कहा जाता है।
(ब) कोई ग्रन्थकार राजा श्रेणिक और चेलना रानीका वर्णन करता हो उस समय वे दोनों ज्ञानस्वरूप आत्मा थे और मात्र थेणिक और चेलनाके मनुष्य भवमें उनका संबंध था' यदि यह बात उनके लक्षमें हो और ग्रंथ रचनेकी प्रवृत्ति हो तो वह परमार्थ सत्य है।
(देखो श्रमद् राजचद्र आवृत्ति २ पृष्ठ ६१३ ) (२) जीवने लौकिक सत्य बोलनेका अनेकवार भाव किया है, किन्तु परमार्थ सत्यका स्वरूप नहीं समझा, इसीलिये जोवका भवभ्रमण नहीं मिटता। सम्यग्दर्शनपूर्वक अभ्याससे परमार्थ सत्यकथनकी पहचान हो सकती है और उसके विशेष अभ्याससे सहज उपयोग रहा करता है। मिथ्यादृष्टिके कथनमे कारण विपरीतता, स्वरूप विपरीतता और भेदाभेद विपरीतता होती है इसीलिये लौकिक अपेक्षासे यदि वह कथन सत्य हो, तो भी परमार्थसे उसका सर्व कथन असत्य है ।
(३) जो वचन प्राणियोंको पीड़ा देनेके भाव सहित हो वह भी अप्रशस्त है और बादमें चाहे वचनोके अनुसार वस्तुस्थिति विद्यमान हो तो भी वह असत्य है।
(४) स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावसे अस्तित्वरूप वस्तुको अन्यथा कहना सो असत्य है । वस्तुके द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावका स्वरूप निम्नप्रकार है
द्रव्य-गुणोके समूह अथवा अपनी अपनी कालिक सर्व पर्यायोंका समूह सो द्रव्य है । द्रव्यका लक्षण सत् है, वह उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य सहित है । गुणपर्यायकेसमुदायका नाम द्रव्य है।
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अध्याय ७ सूत्र १४
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क्षेत्र -स्वके जिस प्रदेशमें द्रव्य स्थित हो वह उसका क्षेत्र है । काल- जिस पर्यायरूपसे द्रव्य परिरणमे वह उसका काल है । भाव - द्रव्यकी जो निजशक्ति-गुरण है सो उसका भाव है । इन चार प्रकारसे द्रव्य जिस तरह है उस तरह न मानकर श्रन्यथा मानना अर्थात् जीव स्वयं शरीर इत्यादि परद्रव्यरूप हो जाता है, अपनी अवस्था कर्म या शरीर इत्यादि परद्रव्य कराता है कर सकता है और अपने गुरण दूसरेसे हो सकते हैं, अथवा वे देव - गुरु-शास्त्र अवलम्बनसे प्रगट हो सकते हैं; इत्यादि प्रकारसे मानना तथा उस मान्यताके अनुसार बोलना सो असत्य वचन है । स्वके द्रव्य - क्षेत्र - काल - भावमे परवस्तुयें नास्तिरूप हैं; यह भूलकर उनका स्वयं कुछ कर सकता है ऐसी मान्यता पूर्वक बोलना सो भी असत्य है ।
( ५ ) ऐसा कहना कि श्रात्मा कोई स्वतंत्र पदार्थ नही है अथवा परलोक नही है सो असत्य है; ये दोनों पदार्थ आगमसे, युक्तिसे तथा अनुभवसे सिद्ध हो सकते हैं तथापि उनका अस्तित्व न मानना सो असत्य है; और आत्माका स्वरूप जैसा न हो उसे वैसा कहना सो भी असत्य वचन है । ३. प्रश्न — वचन तो पुद्गल द्रव्यकी पर्याय है, उसे जीव नही कर सकता तथापि असत्य वचनसे जीवको पाप क्यों लगता है ?
उचर- - वास्तव में पाप या बन्धन असत्य वचनसे नही होता किन्तु 'प्रमत्त योगात्' अर्थात् प्रमादभावसे ही पाप लगता है और बन्धन होता है । असत्यवचन जड़ है वह तो मात्र निमित्त है । जब जीव असत्य बोलनेका भाव करता है तब यदि पुद्गल परमाणु वचनरूपसे परिरणमनेके योग्य हों तो ही असत्य वचनरूपसे परिणमते हैं । जीव तो मात्र असत्य बोलनेका भाव करता है तथापि वहाँ भाषा वर्गणा वचनरूप नही भी परिणमती; ऐसा होनेपर भी जीवका विकारीभाव ही पाप है और वह बंघका कारण है । आठवें अध्यायके पहले सूत्र में यह कहेंगे कि प्रमाद बन्धका कारण है ।
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मोक्षशानः ४-अंकषाय स्वरूपमें जाग्रत-सावधान रहनेसे ही प्रमाद दूर होता है । सर्म्यग्दृष्टि जीवोंके चौथे गुणस्थानमें अनन्तानुबन्धी कपाय पूर्वक होनेवाला प्रमाद दूर हो जाता है, पांचवें गुणस्थानमें अनन्तानुबन्धी तथा अप्रत्याख्यान कषायपूर्वक होनेवाला प्रमाद दूर हो जाता है, छट्ठ गुणस्थानमें अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान कषाय पूर्वक होनेवाला प्रमाद दूर हो जाता है किन्तु तीन संज्वलन कषाय पूर्वक होनेवाला प्रमाद होता', है । इसप्रकार उत्तरोत्तर प्रमाद दूर होता जाता है और बारहवें गुणस्थानमें सर्व कषायका नाश हो जाता है।
५-उज्ज्वल वचन, विनय वचन और प्रियवचनरूप भाषा वर्गणा समस्त लोकमें भरी हुई है, उसकी कुछ न्यूनता नही कुछ कीमत देनी नहीं पड़ती, पुनश्च मीठे कोमलरूप वचन बोलनेसे जीभ नही दुखती, शरीरमें कष्ट नहीं होता, ऐसा समझकर असत्यवचनको दु.खका मूल जानकर शीघ्र उस प्रमादका भी त्याग करना चाहिये और सत्य तथा प्रियवचनकी ही प्रवृत्ति करनी चाहिये ऐसा व्यवहारका उपदेश है ॥१४॥
स्तेय (-चोरी ) का स्वरूप.
अदत्तादानं स्तेयम् ॥१५॥ प्रर्थ-प्रमादके योगसे [ प्रदत्तादानं] बिना दी हुई किसी भी, वस्तुको ग्रहण करना सो [ स्तेयम् ] चोरी है ।
टीकाप्रश्न-कर्मवर्गणा और नोकर्मवर्गणाओंका ग्रहण चोरी कहलाथगा या नही ?
उचर-वह चोरी नही कहा जायगा; जहाँ लेना-देना सम्भव हो वहाँ चोरीका व्यवहार होता है-इस कारणसें 'अदत्त' शब्द दिया है।
प्रश्न-मुनिराजके ग्राम-नगर इत्यादिमें भ्रमण करने पर शेरी दरवाजा आदिमें प्रवेश करनेसे क्या अदत्तादान होता है ?
उत्तर-यह अदत्तादान नहीं कहलाता क्योंकि यह स्थान सभीके
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मध्याय ७ सूत्र १५-१६ आने जानेके लिए खुला है । पुनश्च ,शेरी आदिमें प्रवेश करनेसे मुनिके प्रमत्तयोग नही होता ।
चाहे बाह्य वस्तुका ग्रहण हो या न भी हो तथापि चोरी करनेका जो भाव होता है वही चोरी है और वही बंधका कारण है । वास्तवमें परवस्तुको कोई ग्रहण कर ही नहीं सकता, किन्तु परवस्तुके ग्रहण करनेका जो प्रमादयुक्त भाव है वही दोष है ॥ १५ ॥
कुशील (अब्रह्मचर्य ) का स्वरूप
मैथुनमब्रह्म ॥ १६ ॥ अर्थ-[ मैथुनमब्रह्म जो मैथुन है सो अब्रह्म अर्थात् कुशील है।
टीका १. मैथुन-चारित्र मोहनीयके उदयमे युक्त होनेसे राग-परिणाम सहित स्त्री-पुरुषोंकी जो परस्परमे स्पर्श करनेकी इच्छा है सो मैथुन है।' ( यह व्याख्या व्यवहार मैथुनकी है)
मैथुन दो प्रकारका है-निश्चय और व्यवहार । आत्मा स्वयं ब्रह्म. स्वरूप है। आत्माको अपने ब्रह्मस्वरूपमें जो लीनता है सो वास्तवमे ब्रह्म
चर्य है और पर निमित्तसे-रागसे लाभ माननेरूप सयोगबुद्धि या कषायके साथ एकत्वकी बुद्धि होना सो अब्रह्मचर्य है यही निश्चय मैथुन है। व्यवहार मैथुन की व्याख्या ऊपर दी गई है।
२-तेरहवे सूत्रमे, कहे हुए 'प्रमत्त योगात्' शब्दकी अनुवृत्ति इस सूत्रमे भी आती है, इसीलिये ऐसा समझना कि स्त्री पुरुषके युगल संबंधसे रतिसुखके लिये जो चेष्टा (-प्रमाद परिणति) की जाती है वह मैथुन है।
३-जिसके पालनसे अहिंसादिक गुण वृद्धिको प्राप्त हों वह ब्रह्म है और जो ब्रह्मसे विरुद्ध है सो अब्रह्म है । अब्रह्म (-मैथुन ) मे हिंसादिक दोष पुष्ट होते हैं, पुनश्च उसमें त्रस-स्थावर जीव भी नष्ट होते हैं, मिथ्यावचन बोले जाते हैं, विना दी हुई वस्तुका ग्रहण किया जाता है और चेतन तथा अचेतन परिग्रहका भी ग्रहण होता है-इसलिये यह अब्रह्म छोड़ने लायक है ॥ १६ ॥
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मोक्षशास्त्र
परिग्रहका स्वरूप मूर्छा परिग्रहः ॥ १७॥ अर्थ-[भूर्छा परिग्रहः ] जो मूर्छा है सो परिग्रह है।
टीका १-अंतरंगपरिग्रह चौदह प्रकारके हैं-एक मिथ्यात्व, चार कषाय और नी नोकषाय।
बाह्यपरिग्रह दस प्रकारके हैं-क्षेत्र, मकान, चांदी, सोना, धन, धान्य, दासी, दास, कपड़े और बर्तन ।
२-परद्रव्यमें ममत्वबुद्धिका नाम मूर्छा है। जो जीव बाह्य संयोग विद्यमान न होने पर भी ऐसा संकल्प करता है कि 'यह मेरा है' वह परिग्रह सहित है, बाह्य द्रव्य तो निमित्तमात्र है ।
३. प्रश्न-यदि तुम 'यह मेरा है' ऐसी बुद्धिको परिग्रह कहोगे तो सम्यग्ज्ञान आदि भी परिग्रह ठहरेंगे, क्योंकि ये मेरे हैं ऐसी बुद्धि ज्ञानी के भी होती है ?
उत्तर-परद्रव्यमें ममत्वबुद्धि परिग्रह है। स्व द्रव्यको अपना मानना सो परिग्रह नही है । सम्यग्ज्ञानादि तो आत्माका स्वभाव है अतः इसका त्याग नही हो सकता इसलिये उसे अपना मानना सो अपरिग्रहत्व है।
रागादिमे ऐसा संकल्प करना कि 'यह मेरा है' सो परिग्रह है, क्योंकि रागादिसे ही सर्व दोष उत्पन्न होते हैं ।
४-तेरहवे सूत्रके 'प्रमत्त योगात्' शब्दको अनुवृत्ति इस सूत्र में भी है, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रवान जीवके जितने अंशमे प्रमादभाव न हो उतने अंशमे अपरिग्रहीपन है ॥ १७ ॥
व्रती की विशेषता निःशल्यो व्रती ॥१८॥ मर्थ-[वती] व्रती जीव [निःशल्यः] शल्य रहित ही होता है।
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मध्याय ७ सूत्र १९
टीका १. शल्य-शरीरमें भोंका गया बाण, काटा इत्यादि शस्त्रकी तरह जो मनमें बाधा करे सो शल्य है अथवा जो आत्माको कांटे की तरह दुःख दे सो शल्य है।
शल्यके तीन भेद हैं-मिथ्यात्वशल्य, मायाशल्य और निदानशल्य ।
मिथ्यादर्शनशल्य-प्रात्माके स्वरूपकी श्रद्धाका जो अभाव है सो मिथ्यादर्शनशल्य है।
मायाशल्य-छल, कपट, ठगाईका नाम मायाशल्य है ।
निदानशल्य-आगामी विषय भोगोंको वांछाका नाम निदानशल्य है।
२-मिथ्यादृष्टि जीव शल्य सहित ही है इसीलिये उसके सच्चे व्रत नहीं होते, बाह्य व्रत होते हैं । द्रव्यलिंगो मिथ्यादृष्टि है इसीलिये वह भी यथार्थ व्रती नही । मायावी कपटीके सभी व्रत भूठे हैं । इन्द्रियजनित विषयभोगोंकी जो वांछा है सो तो आत्मज्ञानरहित राग है, उस राग सहित जो व्रत हैं वे भी अज्ञानीके व्रत हैं, वह धर्मके लिए निष्फल है, संसार के लिए सफल है, इसलिए परमार्थसे शल्य रहित हो व्रती हो सकता है।
३-द्रव्यलिंगी का अन्यथापन प्रश्न-द्रव्यलिंगी मुनि जिनप्रणीत तत्त्वोंको मानता है तथापि उसे मिथ्यादृष्टि क्यों कहते हो?
उचर-उसके विपरीत अभिनिवेश है अतः शरीराश्रित क्रियाकांड को वह अपना मानता है ( यह अजीवतत्त्वमे जीवतत्त्वकी श्रद्धा हुई) आस्रव बन्धरूप शील-संयमादि परिणामोंको वह संवर निर्जरारूप मानता है । यद्यपि वह पापसे विरक्त होता है परन्तु पुण्यमे उपादेय बुद्धि रखता है, इसीलिये उसे तत्त्वार्थको यथार्थ श्रद्धा नहीं; अतः वह मिथ्यादृष्टि है।
प्रश्न-द्रयलिंगी धर्मसाधनमें अन्यथापन क्यों है ?
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५६४
मोक्षशास्त्र उचर-(१) संसारमें नरकांदिकके दुःख जानकर तथा स्वर्गादिकमें भी जन्म मरणादिके दुःख जानकर संसारसे उदास हो वह मोक्ष को चाहता है। अब इन दुःखोंको तो सभी दुःख जानते हैं। किन्तु इन्द्र अहमिन्द्रादिक विषयानुरागसे इन्द्रियजनित सुख भोगता है उसे भी दुःख जानकर निराकुल अवस्था की पहचान कर जो उसे मोक्ष जानता है वह सम्यग्दृष्टि है।
(२) विषय सुखादिकका फल नरकादिक है। शरीर अशुचिमयऔर विनाशीक है, वह पोषण करने योग्य नहीं, तथा कुटुम्बादिक स्वार्थ के सगे है-इत्यादि परद्रव्योंका दोष विचार कर उसका त्याग करता है। पर द्रव्योंमें इष्ट अनिष्टरूप श्रद्धा करना-वह मिथ्यात्व है ।' ' ' '
( ३ ) व्रतादिक का फल स्वर्ग मोक्ष है । तपश्चरणादिक पवित्र फल देने वाले हैं, इनके द्वारा शरीर शोषण करने योग्य है तथा देव गुरु शास्त्रादि हितकारी हैं-इत्यादि पर द्रव्योंके गुण विचार कर उसे अंगीकार करता है। परद्रव्यको हितकारी या अहितकारी मानना सो मिथ्यात्वसहित राग है।
(४) इत्यादि प्रकारसे कोई पर द्रव्योंको बुरा जानकर अनिष्टरूप. श्रद्धान करता है तथा कोई परद्रव्योंको भले जानकर इष्टरूप श्रद्धान करता है; पर द्रव्यमें इष्ट अनिष्टरूप-श्रद्धाव करना सो मिथ्यात्व है । पुनश्च इसीः श्रद्धानसे उसकी उदासीनता भी द्वेषरूप होती है क्योंकि किन्ही परद्रव्योंको बुरा जानना सो द्वेष है।
( मो० प्र.) (५) पुनश्च जैसे वह पहले शरीराश्रित पापकार्यो में कर्तुत्व मानता था उसी तरह अब शरीराश्रित पुण्य कार्योमें अपना कर्तृत्व मानता है। इसप्रकार पर्यायाश्रित ( शरीराश्रित ) कार्योमें अहंबुद्धि माननेकी समानता हुई । जैसे पहले-मैं जीवको मारता हूँ, परिग्रहधारी हूँ इत्यादि मान्यता थी, उसी तरह अव मैं जीवोकी रक्षा करता हूँ मैं परिग्रह रहित नग्न हूँ ऐसी मान्यता हुई सो 'शरीर आश्रित कार्यमें अहंबुद्धि है सो ही मिथ्यादृष्टि है।
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अध्याय ७ सूत्र १८
५८५ (४) अठारहवें सूत्रका सिद्धान्त (१) अज्ञान अंधकारसे आच्छादित हुये जो जीव आत्माको (परका) कर्ता मानते हैं वे यद्यपि मोक्षके इच्छुक हो तो भी लौकिक जनोंकी तरह उनको भी मोक्ष नहीं होता; ऐसे जीव चाहे मुनि हुये हों तथापि वे लौकिक जनकी तरह ही हैं । लोक ( संसार ) ईश्वरको कर्ता मानता है और उन मुनियोने आत्माको परद्रव्यका कर्ता (पर्यायाश्रित क्रियाका-शरीरका और उसकी क्रियाका कर्ता ) माना, इसप्रकार दोनोंको मान्यता समान हुई। तत्त्वको जाननेवाला पुरुष ऐसा जानता है कि 'सर्वलोकके कोई भी परद्रव्य मेरे नहीं है' और यह भी सुनिश्चितरूपसे जानते हैं कि लोक और श्रमण (द्रयलिंगी मुनि) इन दोनोंके जो इस परद्रव्यमे कर्तृत्वका व्यवसाय है वह उनके सम्यग्दर्शनज्ञान रहितपनेके कारण ही है। जो परद्रव्यका कर्तृत्व मानता है वह चाहे लौकिकजन हो या मुनिजन-मिथ्यादृष्टि ही है।
(देखो श्री समयसार गा० ३२१ से ३२७ मे टीका ) (२) प्रश्न-क्या सम्यग्दृष्टि भी परद्रव्योंको बुरा जानकर त्याग करता है?
उत्तर-सम्यग्दृष्टि परद्रव्योको बुरा नहीं जानता; वे ऐसा जानते हैं कि परद्रव्यका अहण-त्याग हो ही नहीं सकता। वह अपने रागभावको बुरा जानता है इसीलिये सरागभावको छोड़ता है और उसके निमित्तरूप परद्रव्योंका भी सहजमें त्याग होता है । पदार्थका विचार करने पर जो कोई परद्रव्यका भला या बुरा है ही नही । मिथ्यात्वभाव ही सबसे बुरा है, सम्यग्दृष्टिने वह मिथ्याभाव तो पहले ही छोड़ा हुआ है।
(३) प्रश्न-जिसके व्रत हो उसे ही व्रती कहना चाहिये, उसके बदले ऐसा क्यों कहते हो कि 'जो निःशल्य हो वह व्रती होता है।'
उत्तर-शल्यका अभाव हुये बिना कोई जीव हिंसादिक पापभावोंके दूर होने मात्रसे व्रती नही हो सकता। शल्यका अभाव होनेपर व्रतके संबंधसे व्रतीत्व होता है इसीलिये सूत्र में निशल्य शब्दका प्रयोग किया है ॥१८॥
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मोक्षशास्त्र
व्रतीके भेद
अगार्यनगारश्च ॥१६॥ अर्थ-[प्रगारी] अगारी अर्थात् सागार (गृहस्थ) [अनगारः च] और अनगारा (गृहत्यागी भावमुनि) इसप्रकार व्रतीके दो भेद हैं ।
नोट-निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक महाव्रतोंको पालनेवाले मुनि अनगारी कहलाते हैं और देशव्रतको पालनेवाले श्रावक सागारी कहलाते हैं ॥१९॥
सागारका लक्षण
अणुव्रतोऽगारी ॥२०॥ अर्थ-[ अणुव्रतः ] अणुव्रत अर्थात् एकदेशवत पालनेवाले सम्यग्दृष्टि जीव [ अगारी ] सागार कहे जाते हैं ।
टीका
यहाँसे अणुव्रतधारियोंका विशेष वर्णन प्रारम्भ होता है और इस अध्यायके समाप्त होने तक यही वर्णन है । अणुनतके पांच भेद हैं-(१) अहिंसाणुव्रत (२) सत्याणुव्रत (३) अचौर्याणुव्रत (४) ब्रह्मचर्याणुव्रत और (५) परिग्रहपरिमाणअणुव्रत ॥२०॥
अब अणुव्रतके सहायक सात शीलवत कहते हैं दिग्देशानर्थदंडविरतिसामायिकपोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणातिथिसंविभागवतसंपन्नश्च ॥२१॥
अर्थ-[च ] और फिर वे व्रत [ दिग्देशानर्थदंडविरति सामायिक प्रोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणातिथिसंविभागवतसम्पन्नः] दिग्वत, देशव्रत तथा अनर्थदंडवत ये तीन गुणव्रत और सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोगपरिभोग परिमाण ( मर्यादा ) तथा अतिथिसंविभागवत ये चार शिक्षाप्रत सहित होते हैं अर्थात् व्रतधारी श्रावक पांच अणुव्रत, तीन गुणमत और चार शिक्षाबूत इन वारह व्रतों सहित होता है।
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अध्याय ७ सूत्र २१
टीका १-पहले १३ से १७ तकके सूत्रोमें हिंसादि पांच पापोंका जो वर्णन किया है उनका एकदेश त्याग करना सो पांच अणुव्रत हैं । जो अणुव्रतोंको पुष्ट करे सो गुणवत है और जिससे मुनिव्रत पालन करनेका अभ्यास हो वह शिक्षाव्रत है।
२-तीन गुणनत और चार शिक्षानतोंका स्वरूप निम्नप्रकार है
दिग्व्रत-मरण पर्यंत सूक्ष्म पापोंकी भी निवृत्तिके लिए दशो दिशानोंमें माने जानेकी मर्यादा करना सो दिग्वत है।
देशव्रत-जीवन पर्यन्तको ली गई दिग्वतकी मर्यादामेंसे भी घडी घण्टा, मास, वर्ष आदि समय तक अमुक गली आदि जाने आनेकी मर्यादा करना सो देशवत है।
अनर्थदंडवत--प्रयोजन रहित पापकी बढानेवाली क्रियानोका परित्याग करना सो अनर्थदंडविरतिव्रत है । अनर्थदडके पांच भेद हैं(१) पापोपदेश ( हिंसादि पापारम्भका उपदेश करना ), (२) हिंसादान (तलवार प्रादि हिसाके उपकरण देना ); (३) अपध्यान ( दूसरेका बुरा विचारना ), (४) दुःश्रुति ( राग-द्वेषके बढानेवाले खोटे शास्त्रोका सुनना ) और (५) प्रमादचर्या (विना प्रयोजन जहाँ तहाँ जाना, वृक्षादिकका छेदना, पृथ्वी खोदना, जल बखेरना, अग्नि जलाना वगैरह पाप कार्य)
शिकार, जय, पराजय, युद्ध, परस्त्रीगमन, चोरी इत्यादिका किसी भी समय चितवन नही करना, क्योकि इन बुरे ध्यानोका फल पाप ही है।
-ये तीन गुणवत हैं।
सामायिक-मन, वचन, कायके द्वारा कृत, कारित, अनुमोदनासे हिंसादि पांच पापोका त्याग करना सो सामायिक है। यह सामायिक शुभभावरूप है । (सामायिक चारित्रका स्वरूप नवमें अध्यायमे दिया जायगा)
प्रोषधोपवास-अष्टमी और चतुर्दशीके पहले और पीछेके दिनों में एकाशनपूर्वक अष्टमी और चतुर्दशीको उपवास आदि करके, एकान्तवासमें
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५८८
मोक्षशास्त्र
रहकर, सम्पूर्ण सावद्ययोगको छोड़, सर्व इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त होकर धर्म ध्यान में रहना सो प्रोपधोपवास है ।
उपभोगपरिभोगपरिमाणत्रतश्रावकों को भोगके निमित्तसे हिंसा होती है । भोग श्रीर उपभोगकी वस्तुओंका परिमारण करके ( मर्यादा बांध कर अपनी शक्तिके अनुसार भोग उपभोगको छोड़ना सो उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत है |
अतिथिसंविभागवत - अतिथि अर्थात् मुनि आदिके लिये ग्राहार, कमंडलु, पीछी, वसतिका ग्रादिका दान देना सो अतिथिसंविभागवत है । - ये चार शिक्षाव्रत हैं ।
३. ध्यान में रखने योग्य सिद्धान्त
अनर्थदण्डनामक आठवें व्रतमें दुःश्रुतिका त्याग कहा है वह यह बतलाता है कि- जीवोंको दुःश्रुतिरूप शास्त्र कोन है और सुश्रुतिरूप शास्त्र कौन है इस बातका विवेक करना चाहिये । जिस जीवके धर्मके निमित्तरूपसे दुःश्रुति हो उसके सम्यग्दर्शन प्रगट ही नही होता और जिसके घर्मके निमित्त सुश्रुति ( सत् शास्त्र) हो उसको भी इसका मर्म जानना चाहिये । यदि उसका मर्म समझे तो ही सम्यग्दर्शन प्रगट कर सकता है और यदि सम्यग्दर्शन प्रगट करले तो ही श्रणुव्रतधारी श्रावक या महाव्रतधारी मुनि हो सकता है । जो जीव सुशास्त्रका मर्म जानता है वही जीव इस अध्यायके पाँचवें सूत्रमें कही गई सत्यव्रत संबंधी अनुवीचिभाषरण अर्थात् शास्त्रकी आज्ञानुसार निर्दोष वचन बोलनेकी भावना कर सकता है । प्रत्येक मनुष्य सुशास्त्र और कुशास्त्रका विवेक करनेके लिये योग्य है इसलिये मुमुक्षु जीवों को तत्त्व विचारकी योग्यता प्रगट करके वह विवेक अवश्य करना चाहिये । यदि जीव सत् असत्का विवेक न समझे- -न करे तो वह सच्चा व्रतधारी नहीं हो सकेगा ॥२१॥
व्रतीको सल्लेखना धारण करनेका उपदेश मारणांतिकीं सल्लेखनां जोषिता ॥२२॥
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अध्याय ७ सूत्र २२३२
५८६
अर्थ- व्रतधारी श्रावक [ मारणांतिक ] मरणके समय होनेवाली [ सल्लेखनां ] सल्लेखनाको [ जोषिता ] प्रीतिपूर्वक सेवन करे । टीका
१- इस लोक या परलोक सम्बन्धी किसी भी प्रयोजनकी अपेक्षा किये बिना शरीर और कषायको सम्यक् प्रकार कृश करना सो सल्लेखना है । २. प्रश्न - शरीर तो परवस्तु है, जीव उसे कृश नही कर सकता, तथापि यहाँ शरीरको कृश करनेके लिये क्यों कहा ?
उत्तर--- - कषायको कृश करने पर शरीर उसके अपने कारणसे कृश होने योग्य हो तो कृश होता है ऐसा निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध बताने के लिये उपचारसे ऐसा कहा है । वात, पित्त, कफ इत्यादिके प्रकोपसे मरणके समय परिणाममें आकुलता न करना और स्वसन्मुख आराधनासे चलायमान-न होना ही यथार्थं काय सल्लेखना है; मोहरागद्वेषादिसे मरणके समय अपने सम्यग्दर्शन - ज्ञान परिणाम मलिन न होने देना सो कषाय सल्लेखना है । ३. प्रश्न --- समाधिपूर्वक देहका त्याग होनेमे आत्मघात है या नही ?
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उत्तर-राग-द्वेष- मोहसे लिप्त हुये जीव यदि जहर, शस्त्र प्रादिसे घात करे सो आत्मघात है किंतु यदि समाधिपूर्वक सल्लेखना मरण करे तो उसमें रागादिक नही और आराधना है इसीलिये उसके आत्मघात नही है । प्रमत्तयोग रहित और आत्मज्ञान सहित जो जीव-यह जानकर कि 'शरीर अवश्य विनाशीक है' उसके प्रति राग कम करता है उसे हिंसा नही ॥२२॥ सम्यग्दर्शनके पांच अतिचार
शंकाकांक्षाविचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतीचाराः ॥ २३ ॥
अर्थ- [ शंकाकांक्षा विचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः ] शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिकी प्रशंसा और अन्यहष्टिका संस्तव ये पांच
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मोक्षशास्त्र
[ सम्यग्हृष्टेः प्रतिचाराः ] सम्यग्दर्शनके अतिचार हैं ।
टीका
१.
- जिस जीवका सम्यग्दर्शन निर्दोष हो वह बराबर व्रत पाल सकता है इसीलिये यहाँ पहले सम्यग्दर्शनके प्रतिचार बतलाये गये है, जिससे वह अतिचार दूर किया जा सकता है । श्रपशमिक सम्यक्त्व ओर क्षायिक सम्यक्त्व तो निर्मल होते हैं, इनमें अतिचार नहीं होते । क्षायोपशमिक सम्यक्त्व चल, मल और प्रगाढ़ दोष सहिन होता है अर्थात् इसमें अतिचार लगता है ।
२- सम्यग्दृष्टि आठ गुण ( अंग, लक्षण अर्थात् प्रचार ) होते हैं उनके नाम इसप्रकार हैं-निःशंका, निकांक्षा, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण वात्सल्य और प्रभावना ।
३- सम्यग्दर्शनके जो पांच प्रतिचार कहे हैं उनमें से पहले तीनतो निःशंकितादि पहले तीन गुणोमें आनेवाले दोष हैं और बाकी के दोअतिचारों का समावेश अतिम पांच गुणोंके दोष में होता है । चौथे से सातवें गुरणस्थान वाले क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के ये अतिचार होते हैं अर्थात् क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनवाले मुनि, श्रावक या सम्यग्दृष्टि-इन तीनोंके ये अतिचार हो सकते हैं । जो अशरूपसे भंग हो ( अर्थात् दोष लगे ) उसे प्रतीचार कहते हैं, और उससे सम्यग्दर्शन निर्मूल नही होता, मात्र मलिन होता है ।
४— शुद्धात्म स्वभावकी प्रतीतिरूप निश्चय सम्यग्दर्शन के सद्भाव में सम्यग्दर्शन सम्बन्धी व्यवहार दोष होते हैं तथापि वहां मिथ्यात्व-प्रकृतियों का वंध नही होता । पुनश्च दूसरे गुणस्थानमें भी सम्यग्दर्शनसंबन्धी व्यवहार दोष होते हैं तथापि वहाँ भी मिथ्यात्वप्रकृतिका बन्धन नही है । ५- सम्यग्दर्शन धर्मरूपी वृक्षकी जड़ है, मोक्षमहलकी पहली सीढ़ी है; इसके विना ज्ञान और चारित्र सम्यक्पनेको प्राप्त नही होते । अतः योग्य जीवोको यह उचित है कि जैसे भी बने वैसे आत्माके वास्तविक स्वरूपको समझकर सम्यग्दर्शनरूपो रत्नसे अपनी आत्माको भूषित करे और
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अध्याय ७ सूत्र २३
५९१ सम्यग्दर्शनको निरतिचार बनावे । धर्मरूपी कमलके मध्यमें सम्यग्दर्शनरूपी नाल शोभायमान है, निश्चयवत, शील इत्यादि उसकी पंखुड़िया हैं । इसलिये गृहस्थों और मुनियोंको इस सम्यग्दर्शनरूपी नालमें अतीचार न आने देना चाहिये।
६. पंच अतीचारके स्वरूप शंका-निज आत्माको ज्ञाता-दृष्टा, अखंड, अविनाशी और पुद्गलसे भिन्न जानकर भी इस लोक, परलोक, मरण, वेदना, अरक्षा, अगुप्ति और अकस्मात् इन सात भयको प्राप्त होना अथवा अहंत सर्वज्ञ वीतरागदेवके कहे हुये तत्त्वके स्वरूपमें सन्देह होना सो शंका नामक अतिचार है।
कांक्षा-इस लोक या परलोक सम्बन्धी भोगोंमे तथा मिथ्यादृष्टियों के ज्ञान या आचरणादिमे वांछा हो आना सो वाला अतिचार है। यह राग है।
विचिकित्सा-रत्नत्रयके द्वारा पवित्र किंतु बाह्यमे मलिन शरीर वाले मुनियोको देखकर उनके प्रति अथवा धर्मात्माके गुणोके प्रति या दुःखी दरिद्री जीवोंको देखकर उनके प्रति ग्लानि हो जाना सो विचिकित्सा अतिचार है । यह द्वेष है।
अन्यदृष्टिप्रशंसा--प्रात्मस्वरूपके अजानकार जीवोके ज्ञान, तप, शील, चारित्र, दान आदिको निजमें प्रगट करनेका मनमे विचार होना अथवा उसे भला जानना सो अन्यहष्टिप्रशंसा अतिचार है। ( अन्यदृष्टिका अर्थ मिथ्यादृष्टि है )
अन्यदृष्टि संस्तव-प्रात्म स्वरूपके अनजान जीवोंके ज्ञान, तप, शील, चारित्र, दानादिकके फलको भला जानकर वचनद्वारा उसकी स्तुति करना सो अन्यदृष्टि संस्तव अतिचार है।
७-ये समस्त दोष होने पर सम्यग्दृष्टि जीव उन्हे दोषरूपसे जानता है और इन दोषोंका उसे खेद है, इसलिये ये अतिचार हैं । किन्तु जो जीव इन दोषोंको दोषरूप न माने और उपादेय माने उसके तो ये
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अनाचार हैं अर्थात् वह तो मिथ्यादृष्टि ही है ।
८--श्रात्माका स्वरूप समझने के लिये शंका करके जो प्रश्न किया जावे वह शंका नहीं किन्तु आशंका है; प्रतिचारोंमें जो शंका दोष कहा है उसमें इसका समावेश नहीं होता ।
प्रशंसा और संस्तवमें इतना भेद है कि प्रशंसा मनके द्वारा होती है और संस्तव वचन द्वारा होता है ॥ २३ ॥
अब पांच व्रत और सात शीलों के अतिचार कहते हैं व्रतशीलेषु पंच पंच यथाक्रमम् ॥ २४ ॥
अर्थ - [ व्रतशीलेषु ] व्रत और शीलोंमें भी [ यथाक्रमं ] अनुक्रमसे प्रत्येक में [ पंच पंच ] पाँच पाँच अतिचार हैं ।
नोट- व्रत कहनेसे अहिंसादि पाँच अणुव्रत समझना और शील कहने से तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये सात शोल समझना । इन प्रत्येकके पांच प्रतिचारोंका वर्णन अब आगेके सूत्रोंमें कहते हैं ॥ २४ ॥ अहिंसा व्रत के पाँच अतिचार बंधवधच्छेदातिभारारोपणान्नपाननिरोधाः ||२५||
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श्रथं - [ बंधवधच्छेदातिभारारोपणाम्न्नपाननिंरोधाः ] बन्ध, वध, छेद, अधिक भार लादना और अन्नपानका निरोध करना-ये पाँच अहिंसाव्रतके अतिचार हैं ।
टीका
बंध - प्राणियोंको इच्छित स्थानमें जाने से रोकने के लिये रस्सी इत्यादिसे बांधना ।
वध प्राणियोंको लकड़ी इत्यादिसे मारना ।
छेद - प्राणियोंके नाक, कान आदि अंग छेदना । अतिभारारोपण— प्राणीको शक्तिसे अधिक भार लादना ।
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अध्याय ७ सूत्र २५-२६ अन्नपाननिरोध-प्राणियोंको ठीक समयपर खाना पीना न देना।
यहाँ अहिंसाणुनतके अतिचार 'प्राण व्यपरोपण' को नही गिनना, क्योंकि प्राणव्यपरोपण हिंसाका लक्षण है अर्थात् यह अतिचार नही किन्तु अनाचार है । इसके सम्बन्धमें पहले १३ वें सूत्रमे कहा जा चुका है ॥२५॥
__ सत्याणुव्रतके पांच अतिचार मिथ्योपदेशरहोभ्याख्यानकूटलेखक्रियान्यासापहार
साकारमन्त्रभेदाः ॥२६॥ अर्थ-[ मिथ्योपदेशरहोभ्याख्यानकूटलेखक्रियान्यासापहारसाकारसन्नभेवाः ] मिथ्या उपदेश, रहोभ्याख्यान, कूटलेखक्रिया, न्यासापहार, और साकारमन्त्रभेद-ये पांच सत्याणुव्रतके अतिचार है।
टीका मिथ्याउपदेश-किसी जीवके अभ्युदय या मोक्षके साथ सम्बन्ध रखनेवाली क्रियामें सन्देह उत्पन्न हुआ और उसने आकर पूछा कि इस विषयमे मुझे क्या करना ? इसका उत्तर देते हुये सम्यग्दृष्टि व्रतधारीने अपनी भूलसे विपरीत मार्गका उपदेश दिया तो वह मिथ्या उपदेश कहा जाता है; और यह सत्यागुव्रतका अतिचार है और यदि जानते हुये भी मिथ्या उपदेश करे तो वह अनाचार है। विवाद उपस्थित होनेपर संबंधको छोड़कर असंबंधरूप उपदेश देना सो भी अतिचाररूप मिथ्या उपदेश है।
रहोभ्याख्यान-किसीकी गुप्त बात प्रगट करना।
कूटलेखक्रिया-परके प्रयोगके वंशसे (अनजानपनेसे ) कोई खोटा लेख लिखना।
न्यासापहार-कोई मनुष्य कुछ वस्तु देगया और फिर वापस मांगते समय उसने कम मांगी तब ऐसा कहकर कि 'तुम्हारा जितना हो उतना ले जामो' तथा बादमे कम देना सो ज्यासापहार है।
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मोक्षशास्त्र साकार मन्त्रभेद-हाथ आदिकी चेष्टा परसे दूसरेके अभिप्रायको जानकर उसे प्रगट कर देना सो साकार मन्त्रभेद है।
व्रतधारीके इन दोषोंके प्रति खेद होता है इसीलिये ये अतिचार हैं, किन्तु यदि जीवको उनके प्रति खेद न हो तो वह अनाचार है अर्थात् वहाँ व्रतका प्रभाव ही है ऐसा समझना ॥२६॥
अचौर्याणुव्रतके पाँच अतीचार स्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिक
मानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहाराः ॥२७॥
अर्थ-चोरीके लिये चोरको प्रेरणा करना या उसका उपाय बताना, चोरसे चुराई हुई वस्तुको खरीदना, राज्यकी आज्ञाके विरुद्ध चलना, देने, लेनेके बाट तराजू आदि कम ज्यादा रखना, और कीमती वस्तुमें कम कीमतकी वस्तु मिलाकर असली भावसे बेचना ये पाँच अचीर्थाणुव्रतके अतिचार हैं।
टीका इन अतिचारोंरूप विकल्प पुरुषार्थको कमजोरी (-निर्बलता ) से कभी आयें तो भी धर्मीजीव उनका स्वामी नहीं होता, दोषको जानता है परन्तु उसे भला नहीं मानता इसलिये वह दोष अतिचाररूप है अनाचार नही है।
ब्रह्मचर्याणुव्रतके पाँच अतिचार परविवाहकरणेत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमना
नंगक्रीड़ाकामतीव्राभिनिवेशाः॥२८॥
अर्थ-दूसरेके पुत्र पुत्रियोंका विवाह करना-कराना, पतिसहित व्यभिचारिणी स्त्रियोके पास आना जाना, लेन देन रखना, रागभाव पूर्वक वात चीत करना, पतिरहित व्यभिचारिणी स्त्री (वेश्यादि ) के यहाँ जाना
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अध्याय ७ सूत्र २५-२६-३०-३१ आना, लेन देन आदिका व्यवहार रखना, अनंगक्रीड़ा अर्थात् कामसेवनके लिये निश्चित अंगोंको छोडकर अन्य अगोंसे कामसेवन करना और कामसेवनकी तीन अभिलाषा-ये पाँच ब्रह्मचर्याणुव्रतके अतिचार है ॥२८॥
परिग्रह परिमाण अणुव्रतके पाँच अतिचार क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणा
तिक्रमाः ॥ २६ ॥ अर्थ-[ क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिक्रमाः] क्षेत्र और रहनेके स्थानके परिमाणका उल्लंघन करना, [ हिरण्यसुवर्णप्रमाणातिक्रमाः ] चाँदी और सोनेके परिमाणका उल्लंघन करना [ धनधान्यप्रमाणातिकमाः ] धन ( पशु आदि ) तथा धान्यके परिमाणका उल्लंघन करना [ दासीदासप्रमाणातिकमाः ] दासी और दासके परिमाणका उल्लघन करना तथा [ कुप्यप्रमाणातिक्रमाः ] वस बर्तन आदिके परिमाणका उल्लंघन करनाये पाँच अपरिग्रह अणुव्रतके अतिचार है ॥२६॥
___ इस तरह पांच अणुव्रतोंके अतिचारोका वर्णन किया, अब तीन गुणवतोके अतिचारोंका वर्णन करते है।
दिखतके पांच अतिचार ऊधिस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिस्मृत्यन्तराधानानि ॥३०॥
अर्थ-[ऊर्ध्वव्यतिक्रमः ] मापसे अधिक ऊँचाईवाले स्थलोमे जाना, [ अधः व्यतिक्रमः ] मापसे नीचे ( कुप्रा खान आदि ) स्थानोमे उतरना [ तिर्यक् व्यतिक्रमः ] समान स्थानके मापसे बहुत दूर जाना [ क्षेत्रवृद्धिः ] की हुई मर्यादामे क्षेत्रको बढ़ा लेना और [स्मृत्यंतराधानं] क्षेत्रकी की हुई मर्यादाको भूल जाना ये पाच दिग्वतके अतिचार हैं ॥३०॥
देशव्रतके पांच अतिचार आनयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलक्षेपाः ॥३१॥
अर्थ-[ मानयनं ] मर्यादासे बाहरकी चीजको मंगाना, [प्रेष्यप्रयोगः ] मर्यादासे बाहर नौकर आदिको भेजना [ शब्दानुपातः ] खांसी
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मोक्षशास्त्र
शब्द श्रादिसे मर्यादाके बाहर जीवोंको अपना अभिप्राय समझा देना, [ रूपानुपात: ] अपना रूप श्रादि दिखाकर मर्यादाके बाहरके जीवोंको इशारा करना और [ पुद्गलक्षेपाः ] मर्यादाके बाहर कंकर, पत्थर आदि फेंककर अपने कार्यका निर्वाह कर लेना ये पांच देशव्रतके अतिचार हैं ॥३१॥ अनर्थदंडवत पांच अतिचार कन्दर्प कौत्कुच्यमौखर्या ऽसमीक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि ॥३२॥
अर्थ - [ कंदर्प ] रागसे हास्य सहित अशिष्ट वचन बोलना, [ कौत्कुच्यं ] शरीरकी कुचेष्टा करके अशिष्टवचन बोलना, [ मौखयं ] घृष्टतापूर्वक जरूरतसे ज्यादा बोलना, [ असमीक्ष्याधिकरणं ] बिना प्रयोजन मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति करना और [ उपभोगपरिभोगानर्थक्यं ] भोग उपभोगके पदार्थोंका जरूरतसे ज्यादा संग्रह करना - ये पांच अनर्थदंडव्रतके प्रतिचार हैं ||३२||
इस तरह तीन गुणव्रतके अतिचारोंका वर्णन किया, अब चार शिक्षावृत के प्रतिचारोंका वर्णन करते हैं ।
सामायिक शिक्षाव्रत के पांच अतिचार
योगदुष्प्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ॥३३॥
अर्थ - [ योगदुष्प्रणिधानं ] मन सम्बन्धी परिणामोंकी श्रन्यथा प्रवृत्ति करना, वचन संबंधी परिणामोंकी अन्यथा प्रवृत्ति करना, काम संबंधी परिणामोंकी अन्यथा प्रवृत्ति करना [ अनादरं ] सामायिकके प्रति उत्साह रहित होना और [ स्मृत्यनुपस्थानं ] एकाग्रताके अभावको लेकर सामायिक के पाठ आदि भूल जाना - ये पाँच सामायिक शिक्षावृतके अतिचार हैं ||३३||
नोट — सूत्रमें 'योग दुष्प्रणिधानं शब्द है उसे मन वचन श्रीर काय इन तीनोंमे लागू करके ये तीन प्रकारके तीन प्रतिचार गिने गये हैं ।
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पध्याय ७ सूत्र ३४-३५-३६
प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत के पांच अतिचार अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणाना
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दरस्मृत्यनुपस्थानानि ॥ ३४ ॥
अर्थ - [ श्रप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमरगानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ] बिना देखी बिना शोघी जमीनमें मलमूत्रादिका क्षेपण करना, बिना देखे बिना शोघे पूजनके उपकरण ग्रहण करना, विना देखे विना शोघे, जमीनपर चटाई, वस्त्र आदि बिछाना, भूख आदि से व्याकुल हो आवश्यक धर्म कार्य उत्साहरहित होकर करना और आवश्यक धर्मकार्यों को भूल जाना - ये पांच प्रोषघोपवास शिक्षाव्रतके अतिचार हैं ॥ ३४ ॥ उपभोग परिभोग परिमाण शिक्षाव्रतके पाँच अतिचार सचित्तसंबंध मिश्राभिषवदुः पक्वाहाराः ॥ ३५ ॥
पर्थ - १ - सचित्त - जीववाले (कच्चे फल आदि) पदार्थ, २ - सचित्त पदार्थ के साथ सम्बन्धवाले पदार्थ, ३ -- सचित्त पदार्थसे मिले हुए पदार्थ, ४- श्रभिषव-गरिष्ठ पदार्थ, और ५ – दुःपक्व अर्थात् श्राघे पके या अधिक पके हुये या बुरी तरहसे पके पदार्थ - इनका श्राहार करना ये पाँच उपभोग परिभोग शिक्षाव्रतके प्रतिचार हैं ।
टीका
भोग — जो वस्तु एक ही बार उपभोगमें लाई जाय सो भोग है, जैसे अन्न, इसे परिभोग भी कहा जाता है ।
उपभोग - जो वस्तु बारबार भोगी जाय उसे उपभोग कहते हैं जैसे वस्त्र आदि ।
अतिथिसंविभाग व्रतके पाँच अतिचार
सचित्त निक्षेपापिधानपरव्यपदेशमात्सर्यकालातिक्रमाः ॥ ३६ ॥
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५४८
मोक्षशास्त्र अर्थ-[सचित्त निक्षेपः] सचित्त पत्र आदिमें रखकर भोजन देना, [ सचित्तापिधानं ] सचित्त पत्र आदि से ढके हुये भोजन ग्रादिको देना [ परव्यपदेशः ] दूसरे दातारको वस्तुको देना [ मात्सर्य ] अनादरपूर्वक देना अथवा दूसरे दातारको ईपर्यापूर्वक देना और [ कालातिक्रमः ] योग्य कालका उल्लंघन करके देना-ये पांच अतिथिसविभाग शिक्षाव्रतके अतिचार है । इस तरह चार शिक्षाबतके अतिचार कहे ॥ ३६॥
अब सल्लेखनाके पांच अतिचार कहते हैं जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुवन्धनिदा
नानि ॥३७॥ अर्थ-[ जीविताशंसा ] सल्लेखना धारण करनेके वाद जीनेकी इच्छा करना, [ मरणाशंसा ] वेदनासे व्याकुल होकर शीघ्र मरनेकी इच्छा करना, [ मित्रानुरागः ] अनुरागके द्वारा मित्रोंका स्मरण करना [ सुखानुबंध ] पहले भोगे हुये सुखोंका स्मरण करना और [ निदानं ] निदान करना अर्थात् आगामी विषयभोगोंकी वांछा करना—ये पांच सल्लेखना व्रतके अतिचार हैं।
__इस तरह श्रावकके अतिचारोंका वर्णन पूर्ण हुआ । ऊपर कहे अनुसार सम्यग्दर्शनके ५, बारह व्रतके ६०, और सल्लेखनाके ५ इस तरह कुल ७० प्रतीचारोंका त्याग करता है वही निर्दोष व्रती है ॥३७॥
दानका स्वरूप अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम् ॥ ३८॥
अर्थ-[ अनुग्रहार्थं ] अनुग्रह-उपकारके हेतुसे [ स्वस्यातिसर्गः] धन आदि अपनी वस्तुका त्याग करना सो [दानं ] दान है।
टीका १-अनुग्रहका अर्थ है अपनी आत्माके अनुसार होनेवाला उपकार का लाभ है । अपनी आत्माको लाभ हो इस भावसे किया गया कोई कार्य
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मज्याय ७ सूत्र ३८
५९६ यदि दूसरेके लाभमें निमित्त हो तब यों कहा जाता है कि परका उपकार हुआ, वास्तवमें अनुग्रह स्व का है, पर तो निमित्तमात्र है।
धन इत्यादिके त्यागसे यथार्थरीत्या स्व के शुभभावका अनुग्रह है, क्योंकि इससे अशुभभाव रुकता है और स्व के लोभ कषायका आशिक त्याग होता है । यदि वह वस्तु (धन आदि ) दूसरेके लाभका निमित्त हो तो उपचारसे ऐसा कहा जाता है कि दूसरे का उपकार हुमा, किंतु वास्तव में दूसरे का जो उपकार हुआ है वह उसके भावका है। उसने अपनी आकुलता मंद की इसीलिये उसके उपकार हुआ, किंतु यदि माकुलता मंद न करे नाराजी क्रोध करे अथवा लोलुपता करके आकुलता बढावे तो उस के उपकार नही होता । प्रत्येक जीवके अपनेमे ही स्वकीय भावका उपकार होता है। परद्रव्यसे या पर मनुष्यसे किसी जीवके सचमुच तो उपकार नहीं होता।
२-श्रीमुनिराजको दान देने के प्रकरणमे यह सूत्र कहा गया है । मुनिको आहारका और धर्मके उपकरणोंका दान भक्तिभावपूर्वक दिया जाता है । दान देनेमें स्व का अनुग्रह तो यह है कि निजके अशुभ राग दूर होकर शुभ होता है और धर्मानुराग बढ़ता है, और परका अनुग्रह यह है कि दान लेनेवाले मुनिके सम्यग्ज्ञान आदि गुणोंकी वृद्धिका निमित्त होता है । ऐसा कहना कि किसी जीवके द्वारा परका उपकार हुआ सो कथनमात्र है । व्यवहारसे भी मैं परको कुछ दे सकता हूँ ऐसा मानना मिथ्या अभिप्राय है।
३-यह बात ध्यानमें रहे कि यह दान शुभरागरूप है, इससे पुण्य का बंधन होता है इसीलिये वह सच्चा धर्म नहीं है। अपनेसे अपनेमे अपने लिये शुद्ध स्वभावका दान ही सच्चा धर्म है । जैसा शुद्ध स्वभाव है वैसी शुद्धता पर्यायमें प्रगट करना इसीका नाम शुद्धस्वभावका निश्चय दान है।
दूसरोके द्वारा अपनी ख्याति, लाभ या पूजा हो इस हेतुसे जो कुछ दिया जावे सो दान नही कितु अपने आत्मकल्याणके लिये तथा पात्र जीवों को रत्नत्रयकी प्राप्तिके लिये, रक्षाके लिये या पुष्टिके लिये शुभभावपूर्वक जो कुछ दिया जावे सो दान है, इसमें जो शुभभाव है सो व्यवहार दान है,
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६००
मोक्षशास्त्र वस्तु लेने देने की जो क्रिया है वह तो परसे स्वतः होने योग्य परद्रव्यकी क्रिया है, और परद्रव्यकी क्रिया (-पर्याय ) में जीवका व्यवहार नही है।
४-जिससे स्व के तथा परके प्रात्मधर्मको वृद्धि हो ऐसा दान गृहस्थोंका एक मुख्य व्रत है। इस व्रतको अतिथिसंविभाग व्रत कहते है । श्रावकोंके प्रतिदिन करने योग्य छह कर्तव्योमें भी दानका समावेश होता है।
५-इस अधिकारमें शुभास्रवका वर्णन है। सम्यग्दृष्टि-जीवोंको शुद्धताके लक्षसे शुभभावरूप दान कैसे हो यह इस सूत्र में बताया है । सम्यग्दृष्टि ऐसा कभी नही मानते कि शुभभावसे धर्म होता है, किन्तु निज स्वरूपमें स्थिर नहीं रह सकते तब शुद्धताके लक्ष्यसे अशुभभाव दूर होकर शुभभाव रह जाता है अर्थात् स्वरूप सन्मुख जागृतिका मंद प्रयत्न करने से-अशुभराग न होकर शुभराग होता है। वहाँ ऐसा समझता है कि जितना अशुभराग दूर हुआ उतना लाभ है और जो शुभराग रहा वह आस्रव है, बन्ध मार्ग है ऐसा समझकर उसे भी दूर करने की भावना रहती है, इसीलिये उनके आंशिक शुद्धताका लाभ होता है। मिथ्यादृष्टि जीव इस प्रकारका दान नही कर सकते । यद्यपि वे सम्यग्दृष्टिकी तरह दानकी बाह्य क्रिया करते है किन्तु इस सूत्रमें कहा हुआ दानका लक्षण उनके लागू नहीं होता क्योंकि उसे शुद्धताकी प्रतीति नही है और वह शुभको धर्म और अपना स्वरूप मानता है । इस सूत्रमें कहा हुआ दान सम्यग्दृष्टिके ही लागू होता है।
यदि इस सूत्रका सामान्य अर्थ किया जावे तो वह सब जीवोंके लागू हो; आहार आदि तथा धर्म-उपकरण या धन आदि देनेकी जो बाह्य क्रिया है सो दान नही परन्तु उस समय जीवका जो शुभभाव है सो दान है। श्रीपूज्यपाद स्वामी सर्वार्थसिद्धि में इस सूत्रकी सूचनिकामें दानको व्याख्या निम्नप्रकार करते है।
_ 'शीलविधानमें अर्थात् शिक्षावतोंके वर्णनमें अतिथिसंविभागवत कहा गया किन्तु उसमें दानका लक्षण नहीं बताया इसलिये वह कहना चाहिये अतएव आचार्य दानके लक्षणका सूत्र कहते हैं।।
उपरोक्त कथनसे मालूम होता है कि इस सूत्र में कहा हुआ दान सम्यग्दृष्टि जीवके शुभभावरूप है।
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मध्याय ७ सूत्र ३८-३६
६०१ ७-इस सूत्र में प्रयोग किया गया स्व शब्दका अर्थ धन होता है और धनका अर्थ होता है 'अपने स्वामित्व-अधिकारको वस्तु ।'
८. करुणादान करुणादानका भाव सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनोंको होते हैं किन्तु उनके भावमें महान् अन्तर है। यह दानके चार भेद हैं-१. आहारदान २. औषधिदान ३. अभयदान और ४. ज्ञानदान । आवश्यकतावाले जैन, अजैन, मनुष्य या तिर्यंच आदि किसी भी प्राणीके प्रति अनुकम्पा बुद्धिसे यह दान हो सकता है । मुनिको जो आहारदान दिया जाता है वह करुणादान नही किन्तु भक्तिदान है । जो अपनेसे महान गुण धारण करनेवाले हों उनके प्रति भक्तिदान होता है। इस सम्बन्धी विशेष वर्णन इसके वादके सूत्रकी टीकामें किया है ॥३८॥
दानमें विशेषता विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेषः ॥३॥
अर्थ-[ विधिद्रव्यदापात्रविशेषात् ] विधि, द्रव्य, दातृ और पात्रकी विशेषतासे [ तद्विशेषः । दान में विशेषता होती है।
टीका १. विधिविशेष-नवधाभक्तिके क्रमको विधिविशेष कहते हैं।
द्रव्य विशेष-तप, स्वाध्याय आदिकी वृद्धिमे कारण ऐसे आहारादिकको द्रव्यविशेष कहते है।
'दावृविशेष-जो दातार श्रद्धा आदि सात गुणोंसहित हो उसे दाविशेष कहते हैं।
पात्रविशेष-जो सम्यक् चारित्र आदि गुणोंसहित हो ऐसे मुनि आदिको पात्रविशेष कहते हैं।
२. नवधाभक्तिका स्वरूप (१) संग्रह-(प्रतिग्रहण ) 'पधारो, पधारो, यहां पुद्ध नाहार जल है' इत्यादि शब्दोंके द्वारा भक्ति सत्कार पूर्वक विनयसे मुनिका आह्वान करना।
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मोक्षशाख (२) उच्चस्थान-उनको ऊँचे आसन पर विठाना । (३) पादोदक-गरम किए हुए शुद्ध जलसे उनके चरण धोना । (४) अर्चन-उनकी भक्ति पूजा करना। (५) प्रणाम-उन्हें नमस्कार करना । (६-७-८) मनशुद्धि, वचनशुद्धि, और कायशुद्धि । (९) ऐषणाशुद्धि-आहारको शुद्धि ।
ये नव क्रियाएं क्रमसे होनी चाहिए, यदि ऐसा क्रम न हो तो मुनि पाहार नहीं ले सकते।
प्रश्न-इसप्रकार नवधाभक्ति पूर्वक स्त्री मुनिको आहार दे या नहीं?
उत्तर-हाँ, स्त्रीका किया हुआ और स्त्रीके हाथसे भी साधु आहार लेते है। यह बात प्रसिद्ध है कि जब भगवान महावीर छद्मस्थ मुनि थे तब चंदनबालाने नवधाभक्तिपूर्वक उनको आहार दिया था।
मुनिको 'तिष्ठ ! तिष्ठ ! तिष्ठ !' ( यहाँ विराजो ) इसप्रकार अति पूज्यभावसे कहना तथा अन्य श्रावकादिक योग्य पात्र जीवोंको उनके पदके अनुसार प्रादरके वचन कहना सो संग्रह है। जिसके हृदयमें नवधाभक्ति नही उसके यहां मुनि आहार करते ही नहीं, और अन्य धर्मात्मा पात्र जीव भी बिना आदरके, लोभी होकर धर्मका निरादर कराकर कभी भोजनादिक ग्रहण नही करते। वीतरागधर्मकी दृढ़तासहित, दीनतारहित परम सन्तोष धारण करना सो जैनत्व है।
____३.द्रव्यविशेष पात्रदानकी अपेक्षासे देने योग्य पदार्थ चार तरहके हैं-(१) आहार (२) औषध (३) उपकरण ( पीछी, कमण्डल, शास्त्र आदि ) और (४) आवास । ये पदार्थ ऐसे होने चाहिये कि तप, स्वाध्यायादि धर्मकार्यमे वृद्धि के कारण हों।
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अध्याय ७ सूत्र ३६
४. दातृविशेष दातारमें निम्नलिखित सात गुण होने चाहिये(१) ऐहिक फल अनपेक्षा-सासारिक लाभकी इच्छा न होना । (२) शांति-दान देते समय क्रोधरहित शान्त परिणाम होना। (३) मुदित-दान देते समय प्रसन्नता होनी । (४) निष्कपटता-मायाचार छल कपटसे रहित होना। (५) अनुसूयत्व-ईर्ष्यारहित होना।। (६) अविषादित्व-विषाद ( खेद ) रहित होना । (७) निरहंकारित्व-अभिमान रहित होना ।
दातारमें रहे हुये इन गुणोंकी हीनाधिकताके अनुसार उसके दान का फल होता है।
५. पात्रविशेष सत्पात्र तीन तरहके हैं(२) उत्तमपात्र-सम्यक्चारित्रवान् मुनि । (२) मध्यम पात्र-व्रतधारी सम्यक्दृष्टि । (३) जघन्य पात्र-अविरति सम्यग्दृष्टि ।
ये तीनों सम्यग्दृष्टि होनेसे सुपात्र हैं। जो जीव बिना सम्यग्दर्शनके बाह्य व्रत सहित हो वह कुपात्र है और जो सम्यग्दर्शनसे रहित तथा वाह्यव्रत चारित्रसे भी रहित हों वे जीव अपात्र हैं।
६. दान सम्बन्धी जानने योग्य विशेष बातें (१) अपात्र जीवोंको दुःखसे पीड़ित देखकर उनपर दयाभावके द्वारा उनके दुःख दूर करनेकी भावना गृहस्थ अवश्य करे, किन्तु उनके प्रति भक्तिभाव न करे; क्योंकि ऐसोके प्रति भक्तिभाव करना सो उनके पापकी
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मोक्षशास्त्र
अनुमोदना है । कुपात्रको योग्य रीतिसे आहारादिकका दान देना चाहिये ।
२. प्रश्न - अज्ञानी के अपात्रको दान देते समय यदि शुभभाव हो तो उसका क्या फल है ? जो कोई यों कहते हैं कि पात्रको दान देनेका फल नरक निगोद है सो क्या यह ठीक है ?
उत्तर—प्रपात्रको दान देते समय जो शुभभाव है उसका फल नरक निगोद नही हो सकता । जो आत्माके ज्ञान और आचरणसे रहित परमार्थं शून्य हैं ऐसे अज्ञानी छद्मस्थ विपरीत गुरुके प्रति सेवा भक्तिसे, वैयावृत्य, तथा आहारादिक दान देनेकी क्रियासे जो पुण्य होता है उसका फल नीच देव और नीच मनुष्यत्व है |
[ प्रवचनसार गा० २५७; चर्चा-समाधान पृष्ठ ४८ ]
(३) आहार, औषध, अभय और ज्ञानदान ऐसे भी दानके चार भेद है । केवली भगवानके दानांतरायका सर्वथा नाश होनेसे क्षायिक दान शक्ति प्रगट हुई है । इसका मुख्य कार्य संसारके शरणागत जीवोंको अभय प्रदान करना है । इस अभयदानकी पूर्णता केवलज्ञानियोंके होती है । तथा दिव्यध्वनिके द्वारा तत्त्वोपदेश देनेसे भव्य जीवोंके ज्ञानदानकी प्राप्ति भी होती है । बाकीके दो दान रहे ( आहार और श्रोषध ) सो गृहस्थके कार्य हैं । इन दो के अलावा पहले के दो दान भी गृहस्थोके यथाशक्ति होते हैं । केवली भगवान वीतरागी है उनके दानकी इच्छा नही होती ॥३६॥
[ तत्त्वार्थसार पृ० २५७ ]
उपसंहार
१ - इस अधिकारमें पुण्यास्रवका वर्णन है, व्रत पुण्यास्रवका कारण है । अठारहवे सूत्रमें व्रतीको व्याख्या दी है । उसमे बतलाया है कि जो जीव मिथ्यात्व, माया और निदान इन तीन शल्योंसे रहित हो वही व्रती हो सकता है । ऐसी व्याख्या नही की कि 'जिसके व्रत हो सो वृती है' इसलिये यह खास ध्यान में रहे कि वूती होनेके लिये निश्चय सम्यग्दर्शन और व्रत दोनों होने चाहिये ।
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अध्याय ७ उपसंहार
६०५ २-सम्यग्दृष्टि जीवके आंशिक वीतराग चारित्रपूर्वक महाव्रतादिरूप शुभोपयोग हो उसे सराग चारित्र कहते हैं यह सराग चारित्र अनिष्ट फलवाला होनेसे छोडने योग्य है। जिसमें कषायकरण विद्यमान है अत: जो जीवको पुण्यबन्धकी प्राप्तिका कारण है ऐसा सराग चारित्र बीचमे पागया हो तथापि सम्यग्दृष्टिके उसके दूर हो जानेका प्रयत्न चालू होता है।
(देखो प्रवचनसार गाथा १-५-६ टीका ) ३-महाव्रतादि शुभोपयोगके उपादेयरूप ग्रहणरूप मानना सो मिथ्यादृष्टित्व है। इस अध्यायमे उन व्रतोको आस्रवरूपसे वरिणत किया है तो वे उपादेय कैसे हो सकते हैं ? प्रास्रव तो बन्धका ही साधक है और चारित्र मोक्षका साधक है, इसीलिये इन महाव्रतादिरूप आस्रवभावोमें चारित्रका सभव नही होता। चारित्र मोहके देशघाती स्पर्द्धकोके उदयमें युक्त होनेसे जो महामंद प्रशस्त राग होता है वह तो चारित्रका दोष है। उसे अमुक दशातक न छूटनेवाला जानकर ज्ञानी उसका त्याग नही करते और सावध योगका ही त्याग करते हैं। किन्तु जैसे कोई पुरुष कंदमूलादि अधिक दोषवाली हरितकायका त्याग करता है और कोई हरितकायका आहार करता है किन्तु उसे धर्म नही मानता उसीप्रकार मुनि हिंसादि तीव्र कषायरूप भावोका त्याग करते हैं तथा कोई मद कषायरूप महाव्रतादिको पालते हैं परन्तु उसे मोक्षमार्ग नही मानते। (मो० प्र० पू० ३३७ )
४-इस प्रानव अधिकारमें अहिंसादि व्रतोंका वर्णन किया है इससे ऐसा समझना कि किसी जीवको न मारना ऐसा शुभभावरूप अहिंसा, सत्य, प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहभाव ये सब पुण्यास्रव हैं । इस अधिकारमें सवर निर्जराका वर्णन नही है। यदि ये अहिंसादि सवर निर्जराका कारण होते तो इस प्रास्रव अधिकारमे प्राचार्यदेव उनका वर्णन न करते।
५-व्रतादिके समय भी चार घातिया कर्म बंधते है और घातिकर्म तो पाप है। सम्यग्दृष्टि जीवके सच्ची-यथार्थ श्रद्धा होनेसे दर्शनमोहअनन्तानुबंधी क्रोध मान-माया-लोभ तथा नरकगति इत्यादि४१कर्मप्रकृतियों
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मोक्षशाखा का बंध नहीं होता; यह तो चौथे गुणस्थानमें सम्यग्दर्शनका फल है और ऊपरकी अवस्थामें जितने अंशमें चारित्रकी शुद्धता प्रगट होती है वह वीतराग चारित्रका फल है, परन्तु महाव्रत या देशवतका फल शुद्धता नहीं। महावत या देशवतका फल बन्धन है।
६-साधारण जीव लोकिकरूढ़दृष्टिसे यह तो मानते हैं कि अशुभभावमें धर्म नही है अर्थात् इस सम्बन्धी विशेष कहने की जरूरत नहीं। परंतु निजको धर्मी और समझदार माननेवाला जीव भी बड़े भागमें शुभभावको धर्म या धर्मका सहायक मानता है-यह मान्यता यथार्थ नहीं है। यह बात छ? और सातवें अध्यायमें की गई है कि शुभभाव धर्मका कारण नहीं किन्तु कर्मबन्धका कारण है । उसके कुछ नोट निम्नप्रकार हैं१-शुभभाव पुण्यका आस्रव है
अध्याय ६ सूत्र ३ २-सम्यक्त्व क्रिया, ईयापथ समिति
अध्याय ६ सूत्र ५ ३-जो मन्दकषाय है सो आस्रव है
अध्याय ६ सूत्र ६ ४-सर्वप्राणी और व्रतधारीके प्रति अनुकम्पा अध्याय ६ सूत्र १८ ५-मार्दव
अध्याय ६ सूत्र १५ ६-सरागसंयम, संयमासंयम
अध्याय ६ सूत्र २० ७-योगोकी सरलता
अध्याय ६ सूत्र २३ ८-तीर्थंकरनामकर्मबन्धके कारणरूप सोलह भावना अध्याय ६ सूत्र २४ ६-परप्रशंसा, आत्मनिंदा, नम्रवृत्ति, मदका अभाव, अध्याय ६ सूत्र २६ १०-महाव्रत, अणुव्रत
अध्याय ७ सूत्र १ से ८ तथा २१ ११-मैत्री आदि चार भावनायें
अध्याय ७ सूत्र ११ १२-जगत् और कायके स्वभावका विचार
अध्याय ७ सूत्र १२ १३-सल्लेखना
अध्याय ७ सूत्र २२ १४-दान
अध्याय ७ सूत्र ३८-३६ उपरोक्त सभी भावोंको आस्रवकी रीतिसे वर्णन किया है । इसतरह छ? और सातवें अध्यायमें आस्रवका वर्णन पूर्ण करके अब आठवें अध्यायमे बन्ध तत्त्वका वर्णन किया जायगा ।
७-हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रहका त्याग करना सो
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अध्याय ७ उपसंहार व्रत है-ऐसा श्री अमृतचन्द्राचार्यने तत्त्वार्थसारके चौथे अध्यायकी १०१ वीं गाथामें कहा है अर्थात् यों बतलाया है कि यह व्रत पुण्यास्रव ही है । गाथा १०३ में कहा है कि संसारमार्गमे पुण्य और पापके बीच भेद है किन्तु उस के बाद पृ० २५६ गाथा १०४ में स्पष्टरूपसे कहा है कि-मोक्षमार्गमें पुण्य और पापके बीच भेद (विशेष. पृथक्त्व ) नहीं है । क्योंकि ये दोनों संसारके कारण हैं-इस तरह बतलाकर आस्रव अधिकार पूर्ण किया है।
८. प्रश्न-व्रत तो त्याग है, यदि त्यागको पुण्यास्रव कहोगे किंतु धर्म न कहोगे तो फिर त्यागका त्याग धर्म कैसे हो सकता है ?
उत्तर-(१) व्रत यह शुभभाव है; शुभभावका त्याग दो प्रकारसे होता है-एक प्रकारका त्याग तो यह कि 'शुभको छोड़कर अशुभमे जाना' सो यह तो जीव अनादिसे करता आया है, लेकिन यह त्याग धर्म नही किंतु पाप है । दूसरा प्रकार यह है कि-सम्यग्ज्ञान पूर्वक शुद्धता प्रगट करने पर शुभका त्याग होता है, यह त्याग धर्म है । इसीलिये सम्यग्दृष्टि जीव स्वद्रव्य के आलंबन द्वारा व्रतरूप शुभभावका भी त्याग करके ज्ञानमे स्थिरता करते हैं, यह स्थिरता ही चारित्र धर्म है । इसप्रकार जितने अशमे वीतराग चारित्र बढ़ता है उतने अंशमें व्रत और अवतरूप शुभाशुभभावका त्याग होता है।
(२) यह ध्यान रहे कि व्रतमें शुभ अशुभ दोनोका त्याग नहीं है, परन्तु व्रतमे अशुभभावका त्याग और शुभभावका ग्रहण है अर्थात् व्रत राग है, और अव्रत तथा व्रत (अशुभ तथा शुभ ) दोनोका जो त्याग है सो वीतरागता है। शुभ-अशुभ दोनोंका त्याग तो सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्र पूर्वक ही हो सकता है।
(३) 'त्याग' तो नास्ति वाचक है; यदि वह अस्ति सहित हो तब यथार्थ नास्ति कही जाती है । अब यदि व्रतको त्याग कहे तो वह त्यागरूप नास्ति होने पर आत्मामे अस्तिरूपसे क्या हुआ ? इस अधिकारमे यह बतलाया है कि वीतरागता तो सम्यक् चारित्रके द्वारा प्रगट होती है और व्रत
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मोक्षशास्त्र
तो श्रस्रव है, इसीलिये व्रत सच्चा त्याग नहीं, किन्तु जितने अंशमें वीतरागता प्रगट हुई उतना सच्चा त्याग है । क्योंकि जहाँ जितने अंशमें वीतरागता हो वहाँ उतने अंशमें सम्यक् चारित्र प्रगट हो जाता है प्रोर उसमें शुभ-अशुभ दोनोंका ( अर्थात् व्रत-अव्रत दोनों ) त्याग होता है ।
इसप्रकार श्री उमास्वामी विरचित मोक्षशास्त्रकी गुजराती टीका के हिन्दी अनुवाद में यह सातवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ।
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मोक्षशास्त्र अध्याय आठवाँ
भूमिका
पहले अध्यायके प्रथम सूत्र में कहा है कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की एकता मोक्षका मार्ग है। दूसरे सूत्र में कहा है कि तत्त्वार्थका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, उसके बाद चौथे सूत्रमे सात तत्त्वोके नाम बतलाये; इनमेसे जीव, अजीव और प्रास्रव इन तीन तत्त्वोंका वर्णन सातवें अध्याय तक किया। आस्रवके बाद बन्ध तत्त्वका नंबर है। इसीलिये आचार्य देव इस अध्यायमे बन्ध तत्त्वका वर्णन करते है।
बन्धके दो भेद हैं-भावबंध और द्रव्यबंध । इस अध्यायके पहले दो सूत्रोंमे जीवके भावबंधका और उस भावबंधका निमित्त पाकर होनेवाले द्रव्यकर्मके बंधका वर्णन किया है । इसके बाद के सूत्रोमे द्रव्यबधके भेद, उनकी स्थिति और कब छूटते हैं इत्यादि का वर्णन किया है।
बन्धके कारण बतलाते हैं मिथ्यादर्शनाऽविरतिप्रमादकषाययोगा बंधहेतवः॥१॥
अर्थ-[ मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगाः ] मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पाच [बंघहेतवः] बंधके कारण हैं।
टीका १-यह सूत्र बहुत उपयोगी है, यह सूत्र बतलाता है कि संसार किस कारणसे है। धर्ममे प्रवेश करनेकी इच्छा करनेवाले जीव तथा उपदेशक जबतक इस सूत्रका मर्म नहीं समझते तबतक एक बड़ी भूल करते हैं । वह इसप्रकार है-बधके ५ कारणोमेसे सबसे पहले मिथ्यादर्शन दूर होता है और फिर अविरति प्रादि दूर होते हैं, तथापि वे पहले मिथ्यादर्शन को दूर किये बिना अविरतिको दूर करना चाहते हैं और इस हेतुसे उनके माने हुये बालवत आदि ग्रहण करते हैं तथा दूसरोंको भी वैसा उपदेश देते हैं । पुनश्च ऐसा मानते हैं कि ये बालवत प्रादि ग्रहण करनेसे और
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मोक्षशास्त्र उनका पालन करनेसे मिथ्यादर्शन दूर होगा। उन जीवोंकी यह मान्यता पूर्णरूपेण मिथ्या है इसलिये इस सूत्रमें 'मिथ्यादर्शन' पहले बताकर सूचित किया है।
२-इस सूत्र में बंधके कारण जिस क्रमसे दिये हैं उसी क्रमसे वे नष्ट दूर होते हैं, परन्तु यह क्रम भंग नही होता कि पहला कारण विद्यमान हो और उसके वादके कारण दूर हो जाय । उनके दूर करनेका क्रम इसप्रकार है-(१) मिथ्यादर्शन चौथे गुणस्थानमें दूर होता है (२) अविरति पांचवें-छ8 गुणस्थानमे दूर होती है ( ३ ) प्रमाद सातवें गुणस्थानमें दूर होता है ( ४ ) कपाय वारहवेंगुणस्थानमे नष्ट होती है, और (५) योग चौदहवें गुरणस्थानमे नष्ट होता है । वरतुस्थितिके इस नियमको न समझनेसे अज्ञानी पहले बालवत अंगीकार करते हैं और उसे धर्म मानते है; इसप्रकार अधर्मको धर्म माननेके कारण उनके मिथ्यादर्शन और अनतानुबंधी कषायका पोषण होता है । इसलिये जिज्ञासुमोको वस्तुस्थिति के इस नियमको समझना खास-विशेप पावश्यक है । इस नियमको समझकर असत् उपाय छोड़कर पहले मिथ्यादर्शन दूर करने के लिये सम्यग्दर्शन प्रगट करनेका पुरुषार्थ करना योग्य है।
३-मिथ्यात्वादि या जो बंधके कारण हैं वे जीव और अजीवके भेद से दो प्रकारके हैं । जो मिथ्यात्वादि परिणाम जीवमें होते हैं वे जीव हैं, उसे भावबंध कहते हैं और जो मिथ्यात्वादि परिणाम पुद्गलमे होते हैं वे अजीव है, उसे द्रव्यबंध कहते हैं। ( देखो समयसार गाथा ८७-८८) ४. बन्धके पांच कारण कहे उनमें अंतरंग भावोंकी पहचान
करना चाहिये यदि जीव मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगके भेदोंको बाह्यरूपसे जाने किन्तु अंतरंगमें इन भावोंकी किस्म (जाति) की पहचान न करे तो मिथ्यात्व दूर नही होता । अन्य कुदेवादिकके सेवनरूप गृहीत मिथ्यात्वको तो मिथ्यात्वरूपसे जाने किन्तु जो अनादि अगृहीत मिथ्यात्व है उसे न पहिचाने, तथा बाह्य त्रस स्थावरकी हिंसाके तथा इन्द्रियमनके
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अध्याय ८ सूत्र १
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विषयोंमें प्रवृत्ति हो उसे अविरति समझे किंतु हिंसामें मूल जो प्रमाद परिगति है तथा विषय सेवनमें अभिलाषा मूल है उसे न देखे तो खोटी मिथ्या मान्यता दूर नही होती । यदि बाह्य क्रोध करने को कषाय समझे किन्तु अभिप्रायमें जो राग द्वेष रहता है वही मूल क्रोध है उसे न पहिचाने तो मिथ्या मान्यता दूर नहीं होती। जो बाह्य चेष्टा हो उसे योग समझे किंतु शक्तिभूत (आत्मप्रदेशों के परिस्पंदनरूप) योगको न जाने तो मिथ्या मान्यता दूर नही होती । इसलिये उनके अन्तरग भावको पहिचानकर उस संबंधी अन्यथा मान्यता दूर करनी चाहिये । ( मोक्षमार्ग प्रकाशक )
५. मिथ्यादर्शनका स्वरूप
(१) अनादिसे जीवके मिथ्यादर्शनरूप अवस्था है । समस्त दुःखों का मूल मिथ्यादर्शन है । जीवके जैसा श्रद्धान है वैसा पदार्थ स्वरूप न हो और जैसा पदार्थस्वरूप न हो वैसा ये माने, उसे मिथ्यादर्शन कहते हैं । जीव स्व को और शरीरको एक मानता है; किसी समय शरीर दुबला हो, किसी समय मोटा हो, किसी समय नष्ट हो जाय और किसी समय नवीन पैदा हो तव ये सब क्रियायें शरीराधीन होती हैं तथापि जीव उसे अपने आधीन मानकर खेदखिन्न होता है ।
दृष्टांत - जैसे किसी जगह एक पागल बैठा था । वहाँ अन्य स्थान से आकर मनुष्य, घोड़ा और घनादिक उतरे, उन सबको वह पागल अपना मानने लगा, किंतु, वे सभी अपने २ आधीन हैं, अतः इसमें कोई आवे, कोई जाय और कोई अनेक अवस्थारूपसे परिणमन करता है, इसप्रकार सबकी क्रिया अपने अपने आधीन है तथापि यह पागल उसे अपने आधीन मानकर खेदखिन्न होता है ।
सिद्धान्त - उसीप्रकार यह जीव जहां शरीर धारण करता है वहां किसी अन्य स्थानसे आकर पुत्र, घोड़ा, घनादिक स्वयं प्राप्त होता है यह जीव उन सबको अपना जानता है; परन्तु ये सभी अपने २ आधीन होने से कोई आते कोई जाते और कोई अनेक अवस्थारूपसे परिणमते हैं, क्या -यह उनके आधीन है ? ये जीवके श्लाघीन नही हैं, तो भी यह जीव उसे अपने श्राधीन मानकर खेदखिन्न होता है ।
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मोक्षशास्त्र (२) यह जीव स्वयं जिसप्रकार है उसीप्रकार अपने को नहीं मानता किन्तु जैसा नही है वैसा मानता है सो मिथ्यादर्शन है । जीव स्वयं अमूर्तिक प्रदेशोंका पुज, प्रसिद्ध ज्ञानादि गुरगोंका धारक, अनादिनिधन वस्तुरूप है, तथा शरीर मूर्तिक पुल द्रव्योंका पिंड प्रसिद्ध ज्ञानादि गुणोंसे रहित, नवीन ही जिसका संयोग हुमा है ऐसा यह शरीरादि पुद्गल जो कि स्व से पर है-इन दोनोंके संयोगरूप मनुष्य तियंचादि अनेक प्रकार की अवस्थायें होती हैं, इसमे यह मूढ़ जीव निजत्व धारण कर रहा है, स्व-पर का भेद नही कर सकता; जिस पर्यायको प्राप्त हुमा है उसे ही निजरूपसे मानता है । इस पर्यायमें (१) जो ज्ञानादि गुण हैं वे तो निजके गुण हैं (२) जो रागादिकभाव होते है वे विकारीभाव हैं, तथा (३) जो वर्णादिक है वे निजके गुण नही किंतु शरीरादि पुलके गुण हैं और (४) शरीरादिमें भी वर्णादिका तथा परमाणुरोका परिवर्तन प्रथक् २ रूपसे होता है, ये सब पुद्गलकी अवस्थायें है; यह जीव इन सभी को निजरूपऔर निजाधीन मानता है; स्वभाव और परभावका विवेक नहीं करता; पुनश्च स्व से प्रत्यक्ष भित्र धन कुटुम्बादिकका संयोग होता है वे अपने अपने प्राधीन परिणमते हैं इस जीवके आधीन होकर नही परिणमते तथापि यह जीव उसमें ममत्व करता है कि ये सब मेरे हैं परन्तु ये किसी भी प्रकारसे इसके नहीं होते, यह जीव मात्र अपनी भूलसे ( मिथ्या मान्यतासे ) उसे अपना मानते हैं।
(३) मनुष्यादि अवस्था में किसी समय देव-गुरु-शाख अथवा धर्म का जो अन्यथा कल्पित स्वरूप है उसकी तो प्रतीति करता है किन्तु उनका जो यथार्थ स्वरूप है उसका ज्ञान नहीं करता।
(४) जगत्की प्रत्येक वस्तु अर्थात् प्रत्येक द्रव्य अपने अपने आधीन परिणमते हैं, किन्तु यह जीव ऐसा नही मानता और यों- मानता है कि स्वयं उसे परिणमा सकता है अथवा किसी समय आंशिक परिणमन करा सकता है।
ऊपर कही गई सब मान्यता मिथ्याष्टिकी है। स्वका और परद्रव्योंका जैसा स्वरूप नहीं है वैसा मानना तथा जैसा है वैसा न मानना सो
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अध्याय ८ सूत्र १
विपरीत अभिप्राय होनेके कारण मिथ्यादर्शन है ।
(५) जीव अनादिकालसे अनेक शरीर धारण करता है, पूर्वका छोड़कर नवीन धारण करता है; वहाँ एक तो स्वय आत्मा (जीव ) तथा अनंत पुल परमाणुमय शरीर-इन दोनोके एक पिंडबवनरूप यह श्रवस्या होती है, उन सबमे यह ऐसी अहंबुद्धि करता है कि 'यह मैं हूँ ।' जीव तो ज्ञानस्वरूप है और पुद्गल परमाणुओका स्वभाव वर्ण-गध-रस- स्पर्शादि है— इन सबको अपना स्वरूप मानकर ऐसी बुद्धि करता है कि 'ये मेरे हैं ।' हलन चलन आदि क्रिया शरीर करता है उसे जीव ऐसा मानता है कि 'मैं करता हूँ ।' अनादिसे इंद्रियज्ञान है - बाह्यकी ओर दृष्टि है इसीलिये स्वयं अमूर्तिक तो अपने को नही मालूम होता और मूर्तिक शरीर ही मालूम होता है, इसी कारण जीव अन्यको अपना स्वरूप जानकर उसमे
हंबुद्धि धारण करता है । निजका स्वरूप निजको परसे भिन्न नही मालूम हुआ अर्थात् शरीर, ज्ञानादिगुण, क्रोधादिविकार तथा सगे संबंधियोंका समुदाय इन सबमें स्वय अहंबुद्धि धारण करता है, इससे और स्व के और शरीरके स्वतंत्र निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध क्या है वह नहीं जानने से यथार्थ - रूपसे शरीर से स्व की भिन्नता नहीं मालूम होती ।
(६) स्व का स्वभाव तो ज्ञाता दृष्टा है तथापि स्वयं केवल देखनेवाला तो नहीं रहता किंतु जिन २ पदार्थों को देखता जानता है, उसमें इष्ट निष्टरूप मानता है, यह इष्टानिष्टरूप मानना सो मिथ्या है क्योकि कोईभी पदार्थ इष्टानिष्टरूप नही है । यदि पदार्थोंमे इष्टअनिष्टपन हो तो जो पदार्थ इष्टरूप हो वह सभोको इष्टरूप ही हो तथा जो पदार्थ अनिष्टरूप हो वह सवको अनिष्टरूप ही हो, किंतु ऐसा तो नही होता । जीवमात्र स्वयं कल्पना करके उसे इष्ट-अनिष्टरूप मानता है । यह मान्यता मिथ्या है -कल्पित है । (७) जीव किसी पदार्थका सद्भाव तथा किसीके अभावको चाहता है किंतु उसका सद्भाव या अभाव जीवका किया हुआ नही होता क्योंकि कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्यका या उसकी पर्यायका कर्त्ता है ही नहीं, किन्तु समस्त द्रव्य स्व से ही अपने अपने स्वरूपमें निरंतर परिणमते हैं ।
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मोक्षशास्त्र
( ८ ) मिथ्यादृष्टि जीव तो रागादि भावोंके द्वारा सर्व द्रव्यों को अन्य प्रकारसे परिणमाने की इच्छा करता है किन्तु ये सर्व द्रव्य जीवकी इच्छा के आधीन नही परिणमते । इसीलिये उसे आकुलता होती है । यदि जीवकी इच्छानुसार ही सब कार्य हों, अन्यथा न हो तो ही निराकुलता रहे, किंतु ऐसा तो हो ही नहीं सकता । क्योंकि किसी द्रव्यका परिणमन किसी द्रव्यके आधीन नहीं है । इसलिये सम्यक् अभिप्राय द्वारा स्व1 सन्मुख होनेसे ही जीवके रागादिभाव दूर होकर निराकुलता होती हैऐसा न मानकर मिथ्या अभिप्रायवश यों मानता है कि मैं स्वयं परद्रव्यका कर्ता, भोक्ता, दाता, हर्ता, आदि हूँ और परद्रव्यसे अपने को लाभ-हानि होती है ।
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( ९ ) मिथ्यादर्शनकी कुछ मान्यतायें
१
१ - स्वपर एकत्वदर्शन, २- परकी कर्तृत्वबुद्धि, ३- पर्यायबुद्धि, ४व्यवहार-विमूढ़, ५ - प्रतत्त्व श्रद्धान, ६-स्व स्वरूपकी भ्राति, ७ - रागसे शुभभावसे आत्मलाभ हो ऐसी बुद्धि, ८- बहिरदृष्टि, 8- विपरीत रुचि, ० - जैसा वस्तु स्वरूप हो वैसा न मानना मोर जैसा न हो वैसा मानना, ११- अविद्या, १२ - परसे लाभ-हानि होती है ऐसी मान्यता, १३ – अनादि अनंत चैतन्यमात्र त्रिकाली आत्माको न मानना किंतु विकार जितनी ही आत्मा मानना, १४ - विपरीत अभिप्राय, १५ - परसमय, १६ - पर्यायमूढ, १७- ऐसी मान्यता कि जीव शरीरकी क्रिया कर सकता है, १५ - जीवको परद्रव्योकी व्यवस्था करनेवाला तथा उसका कर्ता, भोक्ता, दाता, हर्ता मानना, १६ - जीवको ही न मानना, २० - निमित्ताधीन दृष्टि, २१ - ऐसी मान्यता कि पराश्रयसे लाभ होता है, २२ - शरीराश्रित क्रियासे लाभ होता है ऐसी मान्यता, २३ - सर्वज्ञकी वाणी में जैसा आत्माका पूर्ण स्वरूप कहा है वैसे स्वरूपकी अश्रद्धा, २४ - व्यवहारनय सचमुच आदरणीय होने की मान्यता, २५ - शुभाशुभ भावका स्वामित्व, २६- शुभ विकल्पसे आत्माको लाभ होता है ऐसी मान्यता, २७ - ऐसी मान्यता कि व्यवहार रत्नत्रय करते करते निश्चयरत्नत्रय प्रगट होता है, २८ - शुभ अशुभ में सदृशता न मानना अर्थात् ऐसा मानना कि शुभ अच्छा है और अशुभ खराब है, २६ममत्वबुद्धि से मनुष्य और तियंचके प्रति करुणा होना ।
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अध्याय ८ सूत्र १
६. मिथ्यादर्शनके दो भेद
(१) मिथ्यात्व के दो भेद है - प्रगृहीत मिथ्यात्व और गृहीत मिथ्यात्व । अगृहीत मिथ्यात्व अनादिकालीन है । जो ऐसी मान्यता है कि जीव परद्रव्यका कुछ कर सकता है या शुभ विकल्पसे आत्माको लाभ होता है सो यह अनादिका अगृहीत मिथ्यात्व है । संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यायमे जन्म होनेके बाद परोपदेशके निमित्तसे जो प्रतत्त्व श्रद्धान करता है सो गृहीत मिथ्यात्व है अगृहीत मिथ्यात्वको निसर्गज मिथ्यात्व और गृहीत मिथ्यात्व को बाह्य प्राप्त मिथ्यात्व भी कहते है । जिसके गृहीत मिथ्यात्व हो उसके श्रगृहीत. मिथ्यात्व तो होता ही है ।
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अगृहीत मिथ्यात्व - शुभ विकल्पसे आत्माको लाभ होता है ऐसी अनादिसे चलो माई जो जीवकी मान्यता है सो मिथ्यात्व है; यह किसीके सिखानेसे नही हुआ इसलिये अगृहीत है ।
गृहीत मिथ्यात्व — खोटे देव - शास्त्र - गुरुकी जो श्रद्धा है सो गृहीत मिथ्यात्व है ।
(२) प्रश्न - जिस कुलमें जीव जन्मा हो उस कुलमें माने हुए देव, गुरु, शास्त्र सच्चे हों और यदि जीव लौकिकरूढ़ दृष्टिसे सच्चा मानता हो तो उसके गृहीत मिथ्यात्व दूर हुआ या नही ?
उत्तर———–नहीं, उसके भी गृहीतमिथ्यात्व है क्योंकि सच्चे देव, सच्चे गुरु और सच्चे शास्त्रका स्वरूप क्या है तथा कुदेव, कुगुरु और कुशास्त्रमें क्या दोष हैं इसका सूक्ष्म दृष्टिसे विचार करके सभी पहलुप्रोसे उसके गुण ( Merits ) और दोष ( demerits ) यथार्थ निर्णय न किया हो वहाँ तक जीवके गृहीत मिथ्यात्व है और यह सर्वज्ञ वीतरागदेवका सच्चा अनुयायी नही है |
(३) प्रश्न- - इस जीवने पहले कई बार गृहीत मिथ्यात्व छोड़ा होगा या नही ?
उत्तर- -हीं, जीवने पहले अनन्तवार गृहीत मिथ्यात्व छोड़ा और
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द्रव्यलिंगी मुनि हो निरतिचार महाव्रत पाले परन्तु अगृहीत मिथ्यात्व नहीं छोड़ा इसीलिये संसार बना रहा; श्रौर फिर गृहीत मिथ्यात्व स्वीकार किया । निग्रंथदशापूर्वक पंच महाव्रत तथा अट्ठाईस मूल गुणादिकका जो शुभविकल्प है सो द्रव्यलिंग है; गृहीत मिथ्यात्व छोड़े बिना जीव द्रव्यलिंगी नहीं हो सकता और द्रव्यलिंगके बिना निरतिचार महाव्रत नहीं हो सकते । वीतराग भगवानने द्रव्यलिंगी के निरतिचार महाव्रतको भी बालव्रत ओर असंयम कहा है क्योकि उसने श्रगृहीत मिथ्यात्व नही छोड़ा | ७ - गृहीतमिथ्यात्व के भेद
गृहीतमिथ्यात्वके पांच भेद है - ( १ ) एकान्तमिथ्यात्व, (२) संशय मिथ्यात्व, (३) विनयमिथ्यात्व, (४) अज्ञानमिथ्यात्व, प्रर ( ५ ) विपरीत मिथ्यात्व । इन प्रत्येककी व्याख्या निम्न प्रकार है:
(१) एकान्त मिध्यात्व — आत्मा परमाणु आदि सर्व पदार्थका स्वरूप अपने अपने अनेकान्तमय ( अनेक धर्मवाला ) होने पर भी उसे सर्वथा एक ही धर्मवाला मानना सो एकान्त मिथ्यात्व है । जैसे— जीवको सर्वथा क्षणिक अथवा नित्य ही मानना, गुण-गुणीको सर्वथा भेद या प्रभेद ही मानना सो एकान्त मिथ्यात्व है ।
(२) संशय मिथ्यात्व - 'धर्मका स्वरूप यों है या यों है' ऐसे परस्पर विरुद्ध दो रूपका श्रद्धान —— जैसे—– आत्मा अपने कार्यका कर्त्ता होता होगा या परवस्तुके कार्यका कर्त्ता होता होगा ? निमित्त और व्यवहारके श्रालम्बनसे धर्म होगा या अपना शुद्धात्माके आलम्बनसे धर्म होगा ? इत्यादिरूपसे संशय रहना सो संशय मिथ्यात्व है ।
(३) विपरीत मिथ्यात्व - आत्माके स्वरूपको अन्यथा माननेकी रुचिको विपरीत मिथ्यात्व कहते हैं; जैसे- सग्रन्थको निग्रंथ मानना, मिथ्यादृष्टि साधुको सच्चे गुरु मानना, केवलीके स्वरूपको विपरीतरूपसे मानना इत्यादि रूपसे जो विपरीत रुचि है सो विपरीत मिथ्यात्व है ।
(४) अज्ञान मिथ्यात्व - जहाँ हित-अहितका कुछ भी विवेक
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६१७ न हो या कुछ भी परीक्षा किये विना-धर्म की श्रद्धा करना सो अज्ञान मिथ्यात्व है । जैसे-पशुवधमें अथवा पाप में धर्म मानना सो अज्ञान मिथ्यात्व है।
(५) विनय मिथ्यात्व-समस्त देवको तथा समस्त धर्ममतोंको समान मानना सो विनय मिथ्यात्व है।
८-गृहीतमिथ्यात्वके ५ भेदोंका विशेष स्पष्टीकरण
(१) एकांत मिथ्यात्व-प्रात्मा, परमाणु आदि सर्व पदार्थका स्वरूप अपने-अपने अनेक धर्मोसे परिपूर्ण है ऐसा नही मानकर वस्तुको सर्वथा अस्तिरूप, सर्वथा नास्तिरूप, सर्वथा एकरूप, सर्वथा अनेकरूप, सर्वथा नित्य, सर्वथा अनित्य, गुरण पर्यायोसे सर्वथा अभिन्न, गुरण पर्यायोंसे सर्वथा भिन्न इत्यादि रूपसे मानना सो एकांत मिथ्यात्व है। पुनश्च काल ही सब करता है, काल ही सबका नाश करता है, काल ही फल फूल मादि उत्पन्न करता है, काल ही संयोग वियोग करता है, काल ही धर्मको प्राप्त कराता है, इत्यादि मान्यता मिथ्या है, यह एकात मिथ्या है।
निरन्तर प्रत्येक वस्तु स्वयं अपने कारणसे अपनी पर्यायको धारण करती है, यही उस वस्तुका स्वकाल है और उस समय वर्तनेवाली जो कालद्रव्यकी पर्याय ( समय ) है सो निमित्त है, ऐसा समझना सो यथार्थ समझ है और इसके द्वारा एकांत मिथ्यात्वका नाश होता है।
___ कोई कहता है कि-प्रात्मा तो अज्ञानी है, प्रात्मा अनाथ है, आत्मा के सुख-दुःख, जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, ज्ञानित्व, पापीपन, धमित्व, स्वर्गगमन, नरकगमन इत्यादि सब ईश्वर करता है, ईश्वर संसार का कर्ता है, हर्ता भी ईश्वर है, ईश्वरसे ही संसारकी उत्पत्ति स्थिति और प्रलय होती है, इत्यादि प्रकारसे ईश्वर कर्तृत्वकी कल्पना करता है सो मिथ्या है। ईश्वरत्व तो आत्मा की सम्पूर्ण शुद्ध (सिद्ध ) दशा है । आत्मा निज स्वभावसे ज्ञानी है किन्तु अनादिसे अपने स्वरूपको विपरीत मान्यताके कारण स्वयं अपनी पर्यायमे अज्ञानीपन, दुःख, जीवन, मरण, लाभ, अलाभ, पापीपन आदि प्राप्त करता है, और जब स्वयं अपने स्वरूपकी विपरीत मान्यता
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दूर करे तब स्वयं ही ज्ञानो, धर्मी होता है, ईश्वर ( सिद्ध ) तो उसका ज्ञाता दृष्टा है ।
( २ ) विपरीत मिथ्यात्व- -१. आत्माका स्वरूपको तथा देव गुरु धर्मके स्वरूपको अन्यथा माननेकी रुचिको विपरीत मिथ्यात्व कहते हैं । जैसे - १. शरीरको आत्मा मानना; सर्वज्ञ वीतराग भगवानको ग्रासाहार, रोग, उपसर्ग, वस्त्र, पात्र, पाटादि सहित और क्रमिक उपयोग सहित मानना, अर्थात् रोटी आदि खानेवाला, पानी श्रादि पीनेवाला, बीमार होना, दवाई लेना, निहारका होना इत्यादि दोप सहित जीवको परमात्मा, अर्हतदेव, केवलज्ञानी मानना । २. वस्त्र पात्रादि सहितको निर्ग्रन्थ गुरु मानना, स्त्री का शरीर होनेपर भी उसे मुनिदशा और उसो भवसे मोक्ष मानना, सती स्त्री को पांच पतिवाली मानना । ३ - गृहस्थदशा में केवलज्ञानकी उ पत्ति मानना । ४ - सर्वज्ञ- वीतराग दशा प्रगट होनेपर भी वह छद्मस्यगुरुकी वैयावृत्य करे ऐसा मानना, ५. छट्टो गुणस्थानके ऊपर भी वंद्यवंदक भाव होता है और केवली भगवान को छद्मस्थ गुरुके प्रति, चतुर्विव संघ अर्थात् तीर्थं प्रति या अन्य केवलीके प्रति वंद्यवंदकभाव मानना, ६. मुनिदशा में वस्त्रोंको परिग्रहके रूपमें न मानना अर्थात् वस्त्र सहित होनेपर भी मुनिपद और अपरिग्रहित्व मानना, ७. वस्त्रके द्वारा संयम और चारित्रका अच्छा साधन हो सकता है ऐसी जो मान्यताएँ हैं सो विपरीत मिथ्यात्व है ।
८. सम्यग्दर्शन प्राप्त होनेसे पहले और बादमें छट्टो गुणस्थान तक जो शुभभाव होता है, उस शुभभावमे भिन्न-भिन्न समय में भिन्न-भिन्न व्यक्तियोके भिन्न २ पदार्थ निमित्त होते है, क्योंकि जो शुभभाव है सो विकार है और वह परालंबनसे होता है । कितने ही जीवोंके शुभरागके समय वीतरागदेवकी तदाकार प्रतिमाके दर्शन पूजनादि निमित्तरूपसे होते हैं । वीतरागी प्रतिमाका जो दर्शन पूजन है सो भी राग है, परन्तु किसी भी जीवके शुभरागके समय वीतरागी प्रतिमाके दर्शन पूजनादिका निमित्त ही न हो ऐसा मानना सो शुभभावके स्वरूपकी विपरीत मान्यता होनेसे विपरीत मिथ्यात्व है ।
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६१६ ६-वीतरागदेवकी प्रतिमाके दर्शन-पूजनादिके शुभरागको धर्मानुराग कहते है, परन्तु वह धर्म नही है, धर्म तो निरावलम्बी है, जब देवशास्त्र-गुरुके अवलम्बनसे छूटकर शुद्ध श्रद्धा द्वारा स्वभावका आश्रय करता है तब धर्म प्रगट होता है । यदि उस शुभरागको धर्म माने तो उस शुभ भावके स्वरूपकी विपरीत मान्यता होनेसे विपरीत मिथ्यात्व है।
छ? अध्यायके १३ वें सूत्रकी टोकामें अवर्णवादके स्वरूपका वर्णन किया है उसका समावेश विपरीत मिथ्यात्वमे होता है।
(३) संशय मिथ्यात्व-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रको मोक्षमार्ग कहा है, यही सच्चा मोक्षमार्ग होगा या अन्य समस्त मतोंमें भिन्न २ मार्ग बतलाया है, वह सच्चा मार्ग होगा? उनके वचनमे परस्पर विरुद्धता है और कोई प्रत्यक्ष जाननेवाला सर्वज्ञ नही है; परस्पर एक दूसरेके शास्त्र नही मिलते, इसीलिये कोई निश्चय (-निर्णय) नही हो सकता, इत्यादि प्रकारका जो अभिप्राय है सो सशय मिथ्यात्व है।
(४) विनय मिथ्यात्व-१-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप-संयम ध्यानादिके विना मात्र गुरु पूजनादिक विनयसे ही मुक्ति होगी ऐसा मानना सो विनयमिथ्यात्व है, २-सर्व देव, सर्व शास्त्र, समस्त मत तथा समस्त भेष धारण करनेवालोंको समान मानकर उन सभोका विनय करना सो विनय मिथ्यात्व है और ३-ऐसा मानना कि विनय मात्रसे हो अपना कल्याण हो जायगा सो विनय मिथ्यात्व है । ४-संसारमे जितने देव पूजे जाते हैं और जितने शास्त्र या दर्शन प्रचलित हैं वे सब सुखदाई हैं, उनमें भेद नही है, उन सबसे मुक्ति ( अर्थात् आत्मकल्याणकी प्राप्ति ) हो सकती है ऐसी जो मान्यता है सो विनय मिथ्यात्व है और इस मान्यतावाला जीव वैनयिक मिथ्यादृष्टि है।
गुरण ग्रहणकी अपेक्षासे अनेक धर्ममे प्रवृत्ति करना अर्थात् सत्असत्का विवेक किये बिना सच्चे तथा खोटे सभी धर्मोको समान रूपसे जानकर उनके सेवन करनेमे अज्ञानकी मुख्यता नहीं है किन्तु विनयके अतिरेककी मुख्यता है इसीलिये उसे विनय मिथ्यात्व कहते है।
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मोक्षशास्त्र (५) अज्ञान मिथ्यात्व-१-स्वर्ग, नरक और मुक्ति किसने देखी ? २-स्वर्गके समाचार किसके आये ? सभी धर्म शास्त्र झूठे हैं, कोई यथार्थ ज्ञान बतला ही नहीं सकता, ३-पुण्य-पाप कहाँ लगते हैं अथवा पुण्य-पाप कुछ हैं ही नहीं, ४-परलोकको किसने जाना? क्या किसीके परलोकके समाचार-पत्र या तार आये ?, ५-स्वर्ग नरक आदि सव कथनमात्र है, स्वर्ग-नरक तो यहीं है, यहाँ सुख भोगना तो स्वर्ग है और दुःख भोगना है सो नरक है, ६-हिंसा को पाप कहा है और दयाको पुण्य कहा है सो यह कथनमात्र है, कोई स्थान हिंसा रहित नहीं है, सबमें हिंसा है, कहीं पैर रखनेको स्थान नहीं, जमीन पवित्र है यह पैर रखने देती है, ७ऐसा विचार भी निरर्थक है कि यह भक्ष्य और यह अभक्ष्य है, एकेन्द्रिय वृक्ष तथा अन्न इत्यादि खानेमे और मांस भक्षण करने में अन्तर नहीं है, इन दोनों में जीवहिंसा समान है, ८-भगवानने जीवको जीवका ही आहार बताया है अथवा जगत की सभी वस्तुएं खाने भोगने के लिये ही हैं, सांपबिच्छू, शेर-बन्दर, तिड़ी मच्छर-खटमल आदिक मार डालना चाहिये । इत्यादि यह सभी अभिप्राय अज्ञान मिथ्यात्व है।।
६. ऊपर कहे गये अनुसार मिथ्यात्वका स्वरूप जानकर सब जीवों को गृहीत तथा अगृहीत मिथ्यात्व छोड़ना चाहिये । सब प्रकारके बंधका मूल कारण मिथ्यात्व है। मिथ्यात्वको नष्ट किये बिना-दूर किये बिना अन्य बंधके कारण ( अविरति आदि ) कभी दूर नही होते, इसलिये सबसे पहले मिथ्यात्व दूर करना चाहिये।
१० अविरति का स्वरूप पांच इन्द्रिय और मनके विषय एवं पांच स्थावर और एक त्रसकी हिंसा इन बारह प्रकारके त्यागरूप भाव न होना सो बारह प्रकारकी अविरति है।
जिसके मिथ्यात्व होता है उसके अविरति तो होती ही है, परन्तु मिथ्यात्व छूट जानेपरभी वह कितनेक समय तक रहती है । अविरतिको असंयम भी कहते है। सम्यग्दर्शनप्रगट होनेके बाद देशचारित्रके बलकेद्वारा एकदेशविरति होती है उसे अणुव्रत कहते हैं । मिथ्यात्व छूटनेके बाद तुरंत
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अध्याय ८ सूत्र १ ही अविरतिका पूर्ण अभाव हो जाय और यथार्थ महाव्रत तथा मुनिदशा प्रगट करे ऐसे जीव तो अल्प और विरले ही होते हैं।
११. प्रमादका स्वरूप उत्तम क्षमादि दश धर्मोमे उत्साह न रखना, इसे सर्वज्ञ देवने प्रमाद कहा है । जिसके मिथ्यात्व और अविरति हो उसके प्रमाद तो होता ही है। परन्तु मिथ्यात्व और अविरति दूर होनेके बाद प्रमाद तत्क्षण ही दूर होजाय ऐसा नियम नही है, इसीलिये सूत्रमें अविरतिके बाद प्रमाद कहा है, यह अविरतिसे भिन्न है। सम्यग्दर्शन प्रगट होते ही प्रमाद दूर करके अप्रमत्तदशा प्रगट करनेवाला जीव कोई विरला ही होता है।
१२. कषायका स्वरूप कषायके २५ भेद हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ, इन प्रत्येकके अनंतानुबंधी प्रादि चार भेद, इस तरह १६ तथा हास्यादिक ९ नोकषाय, ये सब कषाय है और इन सबमे आत्महिंसा करनेकी सामर्थ्य है । मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद ये तीन अथवा अविरति और प्रमाद ये दो अथवा जहां प्रमाद हो वहां कषाय तो अवश्य ही होती है, किन्तु ये तीनों दूर हो जाने पर भी कषाय हो सकती है।।
१३. योग का स्वरूप योगका स्वरूप छट्टो अध्यायके पहले सूत्रकी टीकामें आगया है। ( देखो पृष्ठ ५०२ ) मिथ्यादृष्टि से लेकर तेरहवे गुणस्थान पर्यंत योग रहता है। ११-१२ और १३ वें गुणस्थानमे मिथ्यात्वादि चारका अभाव हो जाता है तथापि योगका सद्भाव रहता है।
__ केवलज्ञानी गमनादि क्रिया रहित हुए हो तो भी उनके अधिक योग है और दो इन्द्रियादि जीव गमनादि क्रिया करते हैं तो भी उनके अल्प योग होता है, इससे सिद्ध होता है कि योग यह वन्धका गौण कारण है, यह तो प्रकृति और प्रदेशबन्धका कारण है । वन्धका मुख्य कारण तो मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय है और इन चारमे भी सर्वोत्कृष्ट कारण तो मिथ्यात्व ही है मिथ्यात्वको दूर किये विना अविरति आदि
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मोक्षशास्त्र बन्धके कारण दूर ही नहीं होते-यह अबाधित सिद्धान्त है ।
१४. किस गुणस्थानमें क्या वन्ध होता है ? मिथ्यादृष्टि ( गुणस्थान १ ) के पाँचों बंध होते हैं, सासादन सम्यग्दृष्टि सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि (गुणस्थान २-३-४ ) के मिथ्यात्वके सिवाय अविरति आदि चार बन्ध होते हैं, देश संयमी (गुणस्थान ५) के प्रांशिक अविरति तथा प्रमादादि तीनों बंध होते है, प्रमत्त संयमी (गुणस्थान ६ ) के मिथ्यात्व और अविरतिके अलावा प्रमादादि तीन बन्ध होते हैं। अप्रमत्तसंयमीके ( ७ से १० वें गुणस्थान तकके ) कषाय और योग ये दो ही बन्ध होते हैं । ११-१२ और १३ वें गुणस्थानमें सिर्फ एक योगका ही सद्भाव है और चौदहवें गुणस्थानमें किसी प्रकारका बन्ध नहीं है यह प्रबन्ध है और वहां सम्पूर्ण संवर है ।
१५. महापाप प्रश्न-जीवके सबसे बड़ा पाप कौन है ?
उत्तर-एक मिथ्यात्व ही है। जहाँ मिथ्यात्व है वहाँ अन्य सब पापोंका सद्भाव है । मिथ्यात्वके समान दूसरा कोई पाप नहीं ।
१६. इस सूत्रका सिद्धान्त आत्मस्वरूपकी पहिचानके द्वारा मिथ्यात्वके दूर होनेसे उसके साथ अनंतानुबंधी कषायका तथा ४१ प्रकृतियोंके बंधका प्रभाव होता है, तथा वाकीके कर्मोकी स्थिति अंतः कोडाकोड़ी सागरकी रह जाती है, और जीव थोड़े ही कालमें मोक्षपदको प्राप्त कर लेता है । संसारका मूल मिथ्यात्व है और मिथ्यात्वका अभाव किये बिना अन्य अनेक उपाय करनेपर भी मोक्ष या मोक्षमार्ग नही होता । इसलिये सबसे पहले यथार्थ उपायोंके द्वारा सर्व प्रकारसे उद्यम करके इस मिथ्यात्वका सनथा नाश करना योग्य है ॥१॥
बन्धका स्वरूप सकपायवाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते
स बंधः ॥२॥
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अध्याय ८ सूत्र २ अर्थ-[जीवः सकषायत्वात ] जीव कषाय सहित होनेसे [ कर्मणः योग्यपुदगलान् ] कर्मके योग्य पुद्गल परमाणुओंको [प्रादत्ते ] ग्रहण करता है [ स बन्धः ] वह बन्ध है।
टीका १-समस्त लोकमें कार्माण वर्गणीरूप पुद्गल भरे हैं । जव जीव कषाय करता है तब उस कषायका निमित्त पाकर कार्माणवर्गणा स्वयं कर्मरूपसे परिणमती है और जीवके साथ संबंध प्राप्त करती है, इसे बन्ध कहा जाता है। यहाँ जीव और पुद्गलके एक क्षेत्रावगाहरूप सम्बन्धको बन्ध कहा है । बन्ध होनेसे जीव और कर्म एक पदार्थ नहीं हो जाते, तथा वे दोनो एकत्रित होकर कोई कार्य नही करते अर्थात् जीव और कर्म ये दोनों मिलकर पुद्गल कर्ममें विकार नहीं करते। कर्मोंका उदय जीवमें विकार नहीं करता, जीव कर्मोंमें विकार नहीं करता, किन्तु दोनों स्वतंत्ररूपसे अपनी अपनी पर्यायके कर्ता हैं । जब जीव अपनी विकारी अवस्था करता है तब पुराने कोके विपाकको 'उदय' कहा जाता है और यदि जीव विकारी अवस्था न करे तो उसके मोहकर्मकी निर्जरा हुई—ऐसा कहा जाता है। परके आश्रय किये बिना जीवमे विकार नही होता, जीव जब पराश्रय द्वारा अपनी अवस्थामें विकार भाव करता है तब उस भावके अनुसार नवीन कर्म बँधते हैं-ऐसा जीव और पुद्गलका निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है, ऐसा यह सूत्र बतलाता है।
२-जीव और पुद्गलका जो निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है वह त्रिकाली द्रव्यमे नही है किन्तु सिर्फ एक समयकी उत्पादरूप पर्यायमें है अर्थात् एक समयकी अवस्था जितना है । जीवमे कभी दो समयका विकार एकत्रित नहीं होता इसीलिये कर्म के साथ इसका सम्बन्ध भी दो समयका
नही ।
प्रश्न-यदि यह सम्बन्ध एक ही समय मात्रका है तो जीवके साथ लम्बी स्थितिवाले कर्मका सम्बन्ध क्यो बताया है ?
उचर-वहाँ भी यह बतलाया है कि सम्बन्ध तो वर्तमान एक समयमात्र ही है; परन्तु जीव यदि विभावके प्रति ही पुरुषार्थ चालू रखेगा
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मोक्षशास्त्र
और यदि सम्यग्दर्शनादिरूप सत्य पुरुषार्थं न करे तो उसका कर्मके साथ
कहाँ तक सम्बन्ध रहेगा ।
३
- इस सूत्र में सकषायत्वात् शब्द है वह जीव और कर्म दोनों को ( अर्थात् कषायरूपभाव और कषायरूपकर्म इन दोनोंको ) लागू हो सकता है, और ऐसा होनेपर उनमें से निम्न मुद्दे निकलते हैं ।
(१) जीव अनादिसे अपनी प्रगट अवस्थामें कभी शुद्ध नहीं हुआ किंतु कषायसहित ही है और इसीलिये जीवकर्मका सम्बन्ध अनादिकालीन है । (२) कषायभाववाला जीव कर्मके निमित्तसे नवीन बंध करता है । (३) कषाय कर्मको मोहकर्म कहते हैं, आठ कर्मोमेसे वह एक ही कर्मबन्धका निमित्त होता है ।
(४) पहले सूत्रमे जो बंधके पांच कारण बताये हैं उनमेंसे पहले चारका यहाँ कहे हुये कषाय शब्दमे समावेश हो जाता है ।
(५) यहाँ जीवके साथ कर्मका बन्ध होना कहा है; यह कर्म पुद्गल है ऐसा बतानेके लिये सूत्र में पुद्गल शब्द कहा है । इसीसे कितनेक जीवोंकी जो ऐसी मान्यता है कि 'कर्म आत्माका अदृष्ट गुण है' वह दूर हो जाती है । ४- 'सकषायत्वात्' - यहाँ पाँचवी विभक्ति लगानेका ऐसा हेतु है कि जीव जैसी तीव्र, मध्यम या मन्द कषाय करे उसके अनुसार कर्मोमें स्वयं स्थिति और अनुभागबन्ध होता है ऐसा निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है । ५ — जीवकी सकषाय अवस्था में द्रव्य कर्म निमित्त है । यह ध्यान रहे कि प्रस्तुत कर्मका उदय हो इसलिये जीवको कषाय करना ही पड़े, ऐसा नही है । यदि कर्म उपस्थित है तथापि स्वयं यदि जीव स्वाश्रयमें स्थिर रह कर कषायरूपसे न परिणमे तो उन कर्मो को बन्धका निमित्त नहीं कहलाता, परन्तु उन कर्मोकी निर्जरा हुई ऐसा कहा जाता है |
६—जीवके कर्मके साथ जो संयोग सम्बन्ध है वह प्रवाह अनादिसे चला आता है किन्तु वह एक ही समय मात्रका है । प्रत्येक समय अपनी योग्यतासे जीव नये नये विकार करता है इसीलिये यह सम्बन्ध चालू रहता है । किन्तु जड़कर्म जीवको विकार नही कराते । यदि जीव अपनी योग्यता
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अध्याय ८ सूत्र २
६२५ से विकार करे तो होता है और न करे तो नहीं होता। जैसे अधिक समयसे गरम किया हुआ पानी क्षण में ठण्डा हो जाता है उसीप्रकार अनादिसे विकार (-अशुद्धता) करता पाया तो भी वह योग्यता एक ही समय मात्रकी होनेसे शुद्ध स्वभावके आलम्बनके बल द्वारा वह दूर हो सकता है । रागादि विकार दूर होनेसे कर्मके साथका सम्बन्ध भी दूर हो जाता है।
७-प्रश्न-आत्मा तो अमूर्तिक है, हाथ, पैरसे रहित है और कर्म तो मूर्तिक है तो वह कर्मोको किस तरह ग्रहण करता है ?
उत्तर-वास्तवमें एक द्रव्य दूसरे द्रव्यको ग्रहण नहीं कर सकता इसीलिये यहाँ ऐसा समझना कि जो 'ग्रहण' करना बतलाया है वह मात्र उपचारसे कहा है। जीवके अनादिसे कर्म पुद्गलके साथ सम्बन्ध है और जीवके विकारका निमित्त पाकर प्रति समय पुराने कर्मोके साथ नवीन कर्म स्कन्धरूप होता है-इतना सम्बन्ध बतानेके लिये यह उपचार किया है। वास्तवमे जोवके साथ कर्मपुद्गल नही बँधते किन्तु पुराने कर्म पुगलोके साथ नवीन कर्म पुगलोंका वन्ध होता है; परन्तु जोवमे विकारको योग्यता है
और उस विकारका निमित्त पाकर नवीन कर्मपुद्गल स्वयं स्वतः बंधते है इसलिए उपचारसे जीवके कर्म पुद्गलोंका ग्रहण कहा है।
-जगतमे अनेक प्रकारके बन्ध होते हैं, जैसे गुणगुणोका बन्ध इत्यादि । इन सब प्रकारके बधसे यह बंध भिन्न है, ऐसा बतानेके लिये इस सूत्रमे बंधसे पहले 'सः' शब्दका प्रयोग किया है।
"सः' शब्दसे यह बतलाया है कि जीव और पुद्गलके गुणगुणी संबंध या कर्ताकर्म सम्बन्ध नही है, इसीलिये यहां उनका एक क्षेत्रावगाहरूप सम्बन्ध अथवा निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध समझना । कर्मका बन्ध जीवके समस्त प्रदेशोंसे होता है और बन्धमें अनन्तानन्त परमाणु होते हैं।
(अ० ८-सू० २४) ६-यहाँ बन्ध शब्दका अर्थ व्याकरणकी दृष्टि से नीचे बतलाये हुये चार प्रकारसे समझना:
(१) आत्मा बंधा सो बंध; यह कर्मसाधन है।
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मोक्षशास
(२) आत्मा स्वयं ही बंधरूप परिणमती है, इसीलिये बंधको कर्त्ता कहा जाता है, यह कर्तृ साधन है ।
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(३) पहले बंधकी अपेक्षासे आत्मा बन्धके द्वारा नवीन बंध करता है इसीलिये बन्ध करणसाधन है ।
(४) बंधनरूप जो क्रिया है सो ही भाव है, ऐसी क्रियारूप भी बंध है यह भावसाधन है ||२||
बन्धके भेद प्रकृतिस्थित्यनुभाग प्रदेशास्तद्विधयः ||३||
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अर्थं—–[तत्] उस बन्धके [ प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशाः ] प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबध और प्रदेशबंध [ विधयः ] ये चार भेद हैं ।
टीका
१. प्रकृतिबंध - कर्मोके स्वभावको प्रकृतिबंध कहते हैं । स्थितिबंध —— ज्ञानावरणादि कर्म अपने स्वभावरूपसे जितने समय रहे सो स्थितिबंध है ।
अनुभागबंध — ज्ञानावरणादि कर्मोके रसविशेषको अनुभागबन्ध कहते हैं ।
प्रदेश बंध — ज्ञानावरणादि कर्मरूपसे होनेवाले पुद्गलस्कन्धों के परमाणुत्रोंकी जो संख्या है सो प्रदेशबंध है । बंधके उपरोक्त चार प्रकारमेंसे प्रकृतिबंध और प्रदेशवंघमे योग निमित्त है और स्थितिबंध तथा अनुभागवंध में कपाय निमित्त है ।
२ – यहाँ जो वन्धके भेद वर्णन किये है वे पुद्गल कर्मबन्धके हैं; अव उन प्रत्येक प्रकारके भेद-उपभेद अनुक्रमसे कहते हैं ॥३॥
प्रकृतिबन्धके मूल भेद
याद्यो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायाः ॥४॥
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अध्याय ८ सूत्र ४
अर्थ - [प्रायो] पहला प्रर्थात् प्रकृतिबन्ध [ ज्ञानदर्शनावरणवेदनमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायाः ] ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, और अन्तराय इन आठ प्रकारका है । टीका
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१ - ज्ञानावरण- - जब मात्मा स्वयं अपने ज्ञानभावका घात करता है अर्थात् ज्ञान शक्तिको व्यक्त नहीं करता तब श्रात्माके ज्ञान गुरणके घात में जिस कर्मका उदय निमित्त हो उसे ज्ञानावरण कहते हैं ।
दर्शनावरण - जब आत्मा स्वयं अपने दर्शनभावका घात करता है तब आत्मा के दर्शनगुरणके घात मे जिस कर्मके उदयका निमित्त हो उसे दर्शनावरण कहते हैं ।
वेदनीय — जब आत्मा स्वयं मोहभावके द्वारा आकुलता करता है तव अनुकूलता - प्रतिकूलतारूप संयोग प्राप्त होनेमे जिस कर्मका उदय निमित्त हो उसे वेदनीय कहते हैं ।
मोहनीय - जीव अपने स्वरूपको भूलकर अन्यको अपना समझे अथवा स्वरूपाचरणमे असावधानी करता है तब जिस कर्मका उदय निमित्त हो उसे मोहनीय कहते हैं ।
आयु — जीव अपनी योग्यतासे जब नारकी, तियंच, मनुष्य या देवके शरीरमे रुका रहे तब जिस कर्मका उदय निमित्त हो उसे आयुकर्म कहते हैं ।
नाम- -जिस शरीरमे जीव हो उस शरीरादिककी रचनामे जिस कर्मका उदय निमित्त हो उसे गोत्रकर्म कहते हैं ।
गोत्र – जीवको उच्च या नीच आचरणवाले कुलमे पैदा होनेमे जिस कर्मका उदय निमित्त हो उसे नामकर्म कहते हैं ।
अंतराय - जीवके दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्यके विघ्नमें जिस कर्मका उदय निमित्त हो उसे अंतरायकर्म कहते है ।
२ -- प्रकृतिबन्धके इन आठ भेदोंमेसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण,
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६२८
मोक्षशास्त्र
मोहनीय और अंतराय ये चार घातिया कर्म कहलाते हैं, क्योंकि वे जीवके अनुजीवी गुणों की पर्यायके घातमें निमित्त हैं; श्रीर वाकीके वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चारको अघातिया कर्म कहते हैं क्योंकि ये जीवके अनुजीवी गुणों की पर्यायके घातमें निमित्त नहीं किन्तु प्रतिजीवी गुणों की पर्यायके घात में निमित्त हैं ।
वस्तु में भावस्वरूप गुरण अनुजीवी गुण और अभावस्वरूप गुण प्रतिजीवी गुण कहे जाते हैं ।
३ - जैसे एक ही समयमें खाया हुआ आहार उदराग्निके संयोगसे रस लोहू आदि भिन्न २ प्रकारसे हो जाता है, उसीप्रकार एक ही समय में ग्रहण किये हुए कर्म जीवके परिणामानुसार ज्ञानावरण इत्यादि अनेक भेदरूप हो जाता । यहाँ उदाहरणसे इतना अन्तर है कि आहार तो रस रुधिर आदि रूपसे क्रम - क्रमसे होता है परन्तु कर्म तो ज्ञानावरणादिरूपसे एक साथ हो जाते हैं ॥४॥
प्रकृतिबंध के उत्तर भेद पंचनवद्व्यष्टाविंशतिचतुर्द्विचत्वारिंशत् द्विपंचभेदा
यथाक्रमम् ||५||
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अर्थ – [ यथाक्रमम् ] उपरोक्त ज्ञानावरणादि आठ कर्मोके अनुक्रमसे [ पंचनवद्वचष्टाविंशतिचतुद्विचत्वारिंशत् द्वि पंचभेदाः ] पाँच, नव, दो, अट्ठाईस, चार, व्यालीस, दो और पाँच भेद हैं ।
नोट- उन भेदोंके नाम अब आगेके सूत्रोंमें अनुक्रमसे बतलाते हैं ॥५॥ ज्ञानावरणकर्मके ५ भेद
मत्तिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानाम् ॥६॥
अर्थ - [ मतिभृतावधिमनः पर्यय केवलानाम् ] मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मन:पर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण ये ज्ञानावरणकर्मके पाँच भेद हैं ।
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अध्याय ८ सूत्र ६-७
घर टीका प्रश्न-अभव्यजीवके मनःपर्ययज्ञान तथा केवलज्ञानकी प्राप्ति करनेकी सामर्थ्य नहीं है, यदि यह सामर्थ्य हो तो अभव्यत्व नही कहा जा सकता; इसलिये इन दो ज्ञानकी सामर्थ्य से रहित उसके इन दो ज्ञानका आवरण कहना सो क्या निरर्थक नही है ?
उचर-द्रव्याथिकनयसे अभव्यजीवके भी इन दोनों ज्ञानको शक्ति विद्यमान है और पर्यायाथिकनयसे अभव्यजीव ये दोनों ज्ञानरूप अपने अपराधसे परिणमता नही है, इससे उसके किसी समय भी उसकी व्यक्ति नही होती; शक्तिमात्र है किंतु प्रगटरूपसे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र अभव्यके नहीं होते। इसलिये शक्तिमेसे व्यक्ति न होनेके निमित्तरूप आवरण कर्म होना ही चाहिये, इसीलिये अभव्य जीवके भी मनःपर्ययज्ञानावरण तथा केवलज्ञानावरण विद्यमान है।
दर्शनावरण कर्म के ९ भेद चतुरचतुरखधिकेवलानां निद्रानिद्रानिद्राप्रचला
प्रचलाप्रचलास्त्यानगृद्धयश्च ॥ ७ ॥
अर्थ-[चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां] चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण [निद्रानिद्रानिद्राप्रचलाप्रचलाप्रचलास्त्यानगृद्धयश्च ] निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि ये नव भेद दर्शनावरण कर्मके हैं।
टीका १-छमस्थ जीवोंके दर्शन और ज्ञान क्रमसे होते हैं अर्थात् पहले दर्शन और पीछे ज्ञान होता है; परन्तु केवली भगवानके दर्शन और ज्ञान दोनों एक साथ होते हैं क्योंकि दर्शन और ज्ञान दोनोंके बाधक कर्मोका क्षय एक साथ होता है।
२-मनःपर्ययदर्शन नहीं होता, क्योंकि मनःपर्ययज्ञान मतिज्ञानपूर्वक ही होता है। इसीलिये मनःपर्ययदर्शनावरण कर्म नहीं है।
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मोक्षशास्त्र ३-इस सूत्रमें आये हुए शब्दोंका अर्थ श्री जैन सिद्धान्त प्रवेशिका मेंसे देख लेना ॥७॥
वेदनीय कर्मके दो भेद
सदसद्ध छ॥८॥ अर्थ-[ सदसधे ] सातावेदनीय और असातावेदनीय ये दो वेदनीयकर्म के भेद हैं।
टीका
वेदनीयकर्मकी दो ही प्रकृतियाँ हैं सातावेदनीय और असातावेदनीय ।
साता नाम सुखका है । इस सुखका जो वेदन अर्थात् अनुभव करावे सो साता वेदनीय है । असाता नाम दुःखका है, इसका जो वेदन अर्थात् अनुभव करावे सो असाता वेदनीयकर्म है ।
शंका-यदि सुख और दुःख कर्मोसे होता है तो कर्मोके नष्ट हो जानेके बाद जीव सुख और दुःखसे रहित हो जाना चाहिये? क्योंकि उसके सुख और दुःखके कारणीभूत कर्मोका अभाव होगया है । यदि यों कहा जावे कि कर्म नष्ट हो जानेसे जीव सुख और दुःख रहित ही हो जाता है तो ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि जीव द्रव्यके निःस्वभाव हो जानेसे अभावका प्रसंग प्राप्त होता है; अथवा यदि दुःखको ही कर्मजनित. माना जावे तो सातावेदनीय कर्मका अभाव हो जायगा, क्योंकि फिर इसका कोई फल नहीं रहता।
समाधान-दुःख नाम की कोई भी वस्तु है वह मोह और असातावेदनीय कर्मके उदयमें युक्त होनेसे होती है, और वह सुख गुणकी विपरीत दशा है किन्तु वह जोवका असली स्वरूप नही है । यदि जीवका स्वरूप माना जावे तो क्षीणकर्मा अर्थात् कर्म रहित जीवोंके भी दुःख होना चाहिये, क्योकि ज्ञान और दर्शनकी तरह कर्मका विनाश होनेपर दुःखका विनाश नही होता। किंतु सुख कर्मसे उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि यह जीवका स्वभाव है और इसीलिये यह कर्मका फल नहीं है । सुखको जीवका स्व.
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अध्याय ८ सूत्र ८
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भाव माननेसे साता वेदनीय कर्मका अभाव भी नहीं होता, क्योंकि दुःखके उपशमनके कारणीभूत सुद्रव्योंके सम्पादनमें सातावेदनीय कर्मका व्यापार होता है ।
* घन, स्त्री, पुत्र इत्यादि बाह्य पदार्थोके संयोग वियोग में पूर्वकर्मका उदय ( निमित्त ) कारण है । इसका आधारः -
समयसार-गाथा ८४ की टीका, प्रवचनसार - गाथा १४ की टीका, पंचास्तिकाय - गाथा २७,६७ की टीका, परमात्मप्रकाश-प्र. २ गाथा ५७, ६० तथा पृष्ठ २०१६८, नियमसार - गाथा १५७ को टीका, पचाध्यायी अध्याय १ गाथा १८१, पंचाध्यायी श्र. १ गाथा ५८१, अध्याय २ गाथा ५०, ४४०, ४४१, रयणसार गा० २६, स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा १०, १६, ५६, ५७, ३१६, ३२०, ४२७, ४३२ पद्मनंदि पंचविशति पृष्ठ १०१, १०२, १०४, १०६, १०९, ११०, ११६, १२८, १३१, १३८, १४०, १५५, मोक्षमागं प्रकाशक गु० अनुवाद पृष्ठ ८, २८, ३०, ४५, ६१, ६२, ६४, ६५, ७०, ७१, ७२, ७३, ३०८ इत्यादि अनेक स्थल में, गोमट्टसार-कर्मकाड पृष्ठ ९०३, श्लोकवार्तिक अध्याय ८ सूत्र ११ की टोका, अध्याय ६ सूत्र १६, राजवार्तिक अध्याय ८ सूत्र ११ की टीका प्रध्याय εसूत्र १६ । राजवातिक अध्याय ८ सूत्र ११ की टीका प्रध्याय ६ सूत्र १६
श्रीमद्राजचन्द्र ( गुजराती द्वितीयावृत्ति ) पृष्ठ २३५, ४४३ तथा मोक्षमाला पाठ ३, सत्तास्वरूप पृष्ठ २६, अनगार धर्मामृत - पृष्ठ ६०, ७६ ॥
श्रीषट्खडागम पुस्तक १ पृ० १०५, गोमट्टसार जी. पीठिका पृ० १४, १५, ३७५, गो० क० गा० २ पृ० ३ पृ० ६०२-६०३; गा० ३८०, समयसार गा. १३२ से १३६ की तथा २२४, २२७, २७५, ३२४ से ३२७, जयसेनाचार्यकृत टीका; स० सार गा० २२५ मूल । पं० राजमल्लजी स० सार कलश टीका पृ० १६३ से १६६, १७१, १२, १७५, १७८, १९५ । प्रवचनसार गा० ७२ की जयसेनाचार्य कृत टीका | नियमसार शास्त्रमें कलश २६ । रयणसार गा० २६ | भगवती आराधना पृ० ५४७-८, तथा गाथा १७३१, १७३३, १७३४-५, १७४२, १७४३, १७४८, १७५२ | पद्मनदि पचविंशति प्रथम प्र० गा० १८१ १८४ से १६१, १६५-६६, पद्मनदी दान श्र० श्लोक २०, ३८, ४४, अनित्य प्र० श्लो० ६, ६, १०, ४२ । श्रात्मानुशासन गा० २१, ३१, ३७, १४८ । सुभाषित रत्नसंदोह गा० ३५६-५७५ε-६०-६६-३७०, ३७२ | महापुराण सर्ग ० ५ श्लोक १४ से १५; । सर्ग ६ में श्लोक १९५, २०२-३ सर्ग २८ में श्लोक २१३ से २२०; पर्व ३७ श्लोक १६० से २००; | सत्तास्वरूप पू० १७ जैन सि० प्रवेशिका पू० ३३६-३७ पुण्यकर्म, पापकर्म ।
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मोक्षशास्त्र ऐसी व्यवस्था माननेसे सातावेदनीय प्रकृतिको पुलविपाकित्व प्राप्त हो जायगा । ऐसी आशंका नहीं करना; क्योंकि दुःखके उपशमसे उत्पन्न हुये दुःखके अविनाभावी, उपचारसे ही सुख संज्ञाको प्राप्त और जीवसे अभिन्न ऐसे स्वास्थ्यके कणका हेतु होनेसे सूत्र में सातावेदनीय कर्मको जीवविपाकित्व और सुख हेतुत्वका उपदेश दिया गया है। यदि ऐसा कहा जावे कि उपरोक्त व्यवस्थानुसार तो सातावेदनीय कर्मको जीवविपाकित्व और पुद्गलविपाकित्व प्राप्त होता है, तो यह भी कोई दोष नहीं है, क्योकि जीवका अस्तित्व अन्यथा नही बन सकता, इसीसे इसप्रकारके उपदेशके अस्तित्वकी सिद्धि हो जाती है । सुख और दु.खके कारणभूत द्रव्योंका संपादन करनेवाला दूसरा कोई कर्म नहीं है, क्योंकि ऐसा कोई कर्म मिलता नहीं । (धवला-टीका पुस्तक ६ पृष्ठ ३५-३६)
मोहनीय कर्मके अट्ठाईस भेद बतलाते हैं दर्शनचारित्रमोहनीयाकषायकषायवेदनीयाख्यास्त्रिद्विनवषोडशभेदाः सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयान्यकषायकषायौ हास्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्सास्त्रीपुनपुंसकवेदा अनंतानुबंध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यान संज्वलनविकल्पाश्चैकशः क्रोधमानमायालोमाः॥६॥
अर्थ-[दर्शन चारित्रमोहनीयाकषायकषायवेदनीयाख्याः] दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय, अकपायवेदनीय और कषायवेदनीय इन चार भेदरूप मोहनीयकर्म है और इसके भी अनुक्रमसे [ त्रिद्विनवषोडशभेदाः ] तीन, दो, नव और सोलह भेद है । वे इसप्रकार से हैं--[ सम्यक्त्व मिथ्यात्वतदुभयानि ] सम्यक्त्व मोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय, और सम्यग्मिथ्यात्वमोहनीय ये दर्शन मोहनीयके तीन भेद हैं; [अकषाय कषायो ] अकषायवेदनीय और कपायवेदनीय ये दो भेद चारित्र मोहनीयके है; [ हास्यरत्यरतिशोक भय जुगुप्सा खी पुनपुसकवेदाः] हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुपवेद और नपुंसकवेद ये अकषायवेदनीयके नव
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मध्याय ८ सूत्र भेद हैं, और [अनन्तानुवंध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यान संज्वलनविकल्पाः च ] प्रनन्तानुवन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान तथा संज्वलनके भेदसे तथा [ एफशः क्रोध मान माया लोभाः ] इन प्रत्येकके क्रोध, मान, माया, और लोभ ये चार प्रकार-ये सोलह भेद कषायवेदनीयके हैं। इस तरह मोहनीयके कुल अट्ठाईस भेद हैं।
नोट-अकपायवेदनीय और कषायवेदनीयका चारित्रमोहनीयमे समावेश हो जाता है इसीलिये इनको अलग नही गिना गया है।
टीका १-मोहनीयकर्मके मुख्य दो भेद हैं-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । जीवका मिथ्यात्वभाव ही ससारका मूल है इसमे मिथ्यात्व मोहनीयकम निमित्त है; यह दर्शन मोहनीयका एक भेद है । दर्शनमोहनीयके तीन भेद हैं-मिथ्यात्वप्रकृति, सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यक्मिथ्यात्वप्रकृति । इन तीनमेसे एक मिथ्यात्व प्रकृतिका ही बन्ध होता है। जीवका ऐसा कोई भाव नहीं है कि जिसका निमित्त पाकर सम्यक्त्वमोहनीयप्रकृति या सम्यग्मिथ्यात्वमोहनीय प्रकृति बँधे; जीवके प्रथम' सम्यग्दर्शन प्रगट होने के कालमे ( उपशम कालमे ) मिथ्यात्वप्रकृतिके तीन टुकडे हो जाते हैं, इनमेसे एक मिथ्यात्वरूपमे रहता है, एक सम्यक्त्वप्रकृतिरूपसे होता है और एक सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिरूपसे होता है । चारित्र मोहनीयके पच्चीस भेद हैं उनके नाम सूत्रमे ही बतलाये है । इसप्रकार सब मिलकर मोहनीयकर्मके अट्ठाईस भेद हैं।
२-इस सूत्र में आये हुये शब्दोका अर्थ जैनसिद्धान्त प्रवेशिकामेसे देख लेना।
३-यहाँ हास्यादिक नवको अकषायवेदनीय कहा है, इसे नोकषायवेदनीय भी कहते हैं।
४-अनन्तानुबंधीका अर्थ-अनन्त-मिथ्यात्व, संसार; अनुबंधीजो इनको अनुसरण कर वन्धको प्राप्त हो । मिथ्यात्वको अनुसरण कर जो कपाय बंधती है उसे अनन्तानुबन्धी कषाय कहते हैं। अनन्तानुबन्धी क्रोधमान-माया-लोभकी व्याख्या निम्नप्रकार है
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• मोक्षशास्त्र (१) जो आत्माके शुद्धस्वरूपकी अरुचि है सो अनन्तानुवन्धी क्रोध है।
(२) 'मैं परका कर सकता हूँ' ऐसी मान्यता पूर्वक जो अहङ्कार है सो अनन्तानुबन्धी मान-अभिमान है।
(३) अपना स्वाधीन सत्य स्वरूप समझमें नहीं आता ऐसी वक्रतामें समझ शक्तिको छुपाकर आत्माको ठगना सो अनन्तानुवन्धी माया है ।
(४) पुण्यादि विकारसे और परसे लाभ मानकर अपनी विकारी दशाकी वृद्धि करना सो अनन्तानुबन्धी लोभ है।
अनंतानुबंधी कषाय आत्माके स्वरूपाचरण चारित्रको रोकती है। शुद्धात्माके अनुभवको स्वरूपाचरण चारित्र कहते हैं। इसका प्रारम्भ चौथे गुरणस्थानसे होता है और चौदहवें गुणस्थानमें इसकी पूर्णता होकर सिद्धदशा प्रगट होती है ॥६॥
__ यब आयुकर्मके चार भेद बतलाते हैं
नारकतैर्यग्योनमानुषदैवानि ॥१०॥
अर्थ-[ नारक तैर्यग्योनमानुषदेवानि ] नरकायु, तिर्यंचायु, मनुप्यायु और देवायु ये चार भेद आयुकर्मके है ॥१०॥
.. नामकर्मके ४२ भेद बतलाते हैं गतिजातिशरीरांगोपांगनिर्माणबंधनसंघातसंस्थान
संहननस्पर्शरसगंधवर्णानुपूर्व्यागुरुलघूपघातपरघाता
तपोद्योतोच्छवासविहायोगतयः प्रत्येक शरीरत्रससुभगसुस्वरशुभसूक्ष्मपर्याप्तिस्थिरादेययशःकीर्तिसेतराणि तीर्थकरत्वं च ॥११॥
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अध्याय ८ सूत्र ११-१२-१३
६३५ अर्थ-[ गतिजातिशरीरांगोपांगनिर्माणबंधनसंघातसंस्थानसंहननस्पर्शरसगंधवर्णानुपूागुरुलघूपधातपरघातातपोद्योतोच्छ्वासविहायोगतयः] गति, जाति, शरीर, अगोपाग, निर्माण, बन्धन, सघात, संस्थान, संहनन, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, आनुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास और विहायोगति ये इक्कीस तथा [ प्रत्येकशरीरत्रससुभगसुस्वरशुभसूक्ष्मपर्याप्तिस्थिरादेययशःकोतिसेतराणि ] प्रत्येक शरीर, त्रस, शुभग, सुस्वर, शुभ, सूक्ष्म, पर्याप्ति, स्थिर, आदेय और यश-कीर्ति, ये दश तथा इनसे उलटे दस अर्थात् साधारण शरीर, स्थावर, दुर्भग, दुस्वर, अशुभ, बादर (-स्थूल ) अपर्याप्ति, अस्थिर, अनादेय, और अयशःकीर्ति ये दस [तीर्थकरत्व च] और तीर्थकरत्व, इस तरह नाम कर्मके कुल ब्यालीस भेद हैं।
टीका
सूत्रके जिस शब्द पर जितने अङ्क लिखे हैं वे यह बतलाते है कि उस शब्दके उतने उपभेद हैं, उदाहरणार्थ:-गति शब्द पर चारका अङ्क लिखा है वह यह बतलाता है कि गतिके चार उपभेद हैं । गति आदि उपभेद सहित गिना जाय तो नाम कर्मके कुल ६३ भेद होते है।
इस सूत्र में आये हुए शब्दोंका अर्थ श्री जैनसिद्धान्त प्रवेशिकामेसे देख लेना ॥११॥
गोत्रकर्मके दो भेद
उच्चैर्नीचैश्च ॥१२॥ अर्थ-[ उच्चर्नीचैश्च ] उच्चगोत्र और नीचगोत्र ये दो भेद गोत्र कर्मके हैं ॥१२॥
_ अंतरायकर्मके ५ भेद बतलाते हैं दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम् ॥१३॥
अर्थ-[ दानलाभभोगोपभोग वीर्याणाम् ] दानांतराय, लाभातराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय और वीर्यान्तराय ये पांच भेद अन्तराय कर्मके हैं। प्रकृतिबन्धके उपभेदोंका वर्णन यहां पूर्ण हुआ ॥१३॥
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मोक्षशास्त्र अब स्थितिबंधके भेदोंमें ज्ञानावरण दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति बतलाते हैंआदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपम
कोटीकोटयः परा स्थितिः॥१४॥ अर्थ-[प्राक्तिस्तिसृणाम् ] आदिसे तीन अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण, तथा वेदनीय [ अन्तरायस्य च ] चौर अन्तराय इन चार कर्मोकी [परा स्थितिः] उत्कृष्ट स्थिति [ त्रिशत्सागरोपमकोटी कोट्यः ] तीस कोडाकोड़ी सागरकी है ।
नोट.-(१) इस उत्कृष्ट स्थितिका बंध मिथ्यादृष्टि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवके ही होता है। (२) एक करोडको करोड़से गुणनेसे जो गुणनफल हो वह कोडाकोड़ी कहलाता है ॥१४॥
मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति बतलाते हैं
सतिर्मोहनीयस्य ॥१५॥ अर्थ- मोहनीयस्य ] मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति [सप्ततिः] सत्तर कोडाकोड़ी सागरकी है।
नोट-यह स्थिति भी मिथ्यादृष्टि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवके ही बंधती है ॥१५॥
नाम और गोत्रकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति बतलाते हैं
विंशतिर्नामगोत्रयोः ॥१६॥ अर्थ-[ नामगोत्रयोः ] नाम और गोत्र कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति [विंशतिः ] बीस कोडाकोड़ी सागरको है ॥१६॥
__ आयु कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका वर्णन ' त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुषः ॥१७॥
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अध्याय ८ सूत्र १७-१८-१९-२०-२१ अर्थ-[मायुषः] आयु कर्मको उत्कृष्ट स्थिति [त्रविशत्सागरोपमाणि] तेतीस सागरकी है ॥१७॥
वेदनीय कर्मकी जघन्य स्थिति बतलाते हैं अपरा द्वादशमुहूर्ता वेदनीयस्य ॥१८॥
अर्थ-[ वेदनीयस्य अपरा] वेदनीय कर्मकी जघन्य स्थिति [ द्वादशमुहूर्ताः ] बारह मुहूर्तकी है ॥१८॥
नाम और गोत्र कर्मकी जघन्य स्थिति
नामगोत्रयोरष्टौ ॥१६॥ अर्थ-[ नामगोत्रयोः ] नाम' और गोत्र कर्मकी जघन्य स्थिति [मष्टो ] आठ मुहूर्तकी है ॥१९॥ अब शेष ज्ञानावरणादि पाँच कर्मोकी जघन्य स्थिति बतलाते हैं
शेषाणामंतमुहूर्ता ॥२०॥ अर्थ-[ शेषारणां] बाकीके अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय और आयु इन पांच कर्मोकी जघन्य स्थिति [अन्तर्मुहूर्ता] अंतर्मुहूर्त की है।
यहां स्थितिबन्धके उपभेदोंका वर्णन पूर्ण हुआ ॥२०॥
अब अनुभागबन्धका वर्णन करते हैं, ( अनुभागबन्धको अनुभवबन्ध भी कहते हैं)
अनुभवबन्धका लक्षण
विपाकोऽनुभवः ॥२१॥ अर्थ-[ विपाक: ] विविध प्रकारका जो पाक है । अनुभवा ] सो अनुभव है।
टीका (१) मोहकर्मका विपाक होने पर जीव जिसप्रकारका विकार करे उसीरूपसे जीवन फल भोगा कहा जाता है। इसका इतना ही अर्थ है कि
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मोक्षशास्त्र जीवको विकार करने में मोहकर्मका विपाक निमित्त है। कर्मका विपाक कर्म में होता, जीवमे नहीं होता। जीवको अपने विभावभावका जो मनुभव होता है सो जीवका विपाक-अनुभव है ।
(२) यह सूत्र पुद्गल कर्मके विपाक-अनुभवको बतलानेवाला है। बंध होते समय जीवका जैसा विकारोभाव हो उसके अनुसार पुद्गलकम में अनुभाग बन्ध होता है और जब यह उदयमे श्रावे तब यह कहा जाता है कि कर्मका विपाक, अनुभाग या अनुभव हुप्रा ॥२१॥
अनुभागवन्ध कमेके नामानुसार होता है
स यथानाम ॥२२॥ अर्थ-[ सः ] यह अनुभाग बन्ध [ यथानाम ] कर्मोके नामके अनुसार ही होता है।
टीका जिस कर्मका जो नाम है उस कर्ममें वैसा ही अनुभागवन्य पड़ता है । जैसे कि ज्ञानावरण कर्ममें ऐसा अनुभाग होता है कि 'जव ज्ञान रुके तब निमित्त हो' दर्शनावरण कर्ममे 'जव दर्शन रुके तव निमित्त हो' ऐसा अनुभाग होता है ॥२२॥ अब यह बतलाते हैं कि फल देनेके बाद कर्मोका क्या होता है
ततश्च निर्जरा ॥२३॥ ___ अर्थ-[ततः च] तीन, मध्यम या मंद फल देनेके बाद [निर्जरा] उन कर्मोकी निर्जरा हो जाती है अर्थात् उदयमें आनेके बाद कर्म आत्मासे जुदे हो जाते हैं।
१-आठों कर्म उदय होनेके बाद झड़ जाते हैं इनमें कर्मकी निर्जराके दो भेद हैं-सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा।
(१) सविपाक निर्जरा-आत्माके साथ एक क्षेत्रमें रहे हुए कर्म अपनी स्थिति पूरी होनेपर अलग होगये यह सविपाक निर्जरा है।
(२) अविपाक निर्जरा-उदयकाल प्राप्त होनेसे पहले जो कर्म आत्माके पुरुषार्थके कारण आत्मासे पृथक् होगये यह अविपाक निर्जरा है । इसे सकामनिर्जरा भी कहते हैं ।
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२३ २४
अध्याय ८ सूत्र २३६३६ २-निर्जराके दूसरी तरहसे भी दो भेद होते हैं उनका वर्णन-(१) अकाम निर्जरा- इसमें बाह्यनिमित्तं तो यह है कि इच्छा रहित भूख-प्यास सहन करना और वहां यदि मंदकषायरूप भाव हो तो व्यवहारसे पाप की निर्जरा और देवादि पुण्यका बंध हो —— इसे प्रकाम निर्जरा कहते है | जिस अकाम निर्जरासे जीवकी गति कुछ ऊँची होती है यह प्रतिकूल संयोगके समय जीव मंद कषाय करता है उससे होती है किन्तु कर्म जीवको ऊंची गतिमें नही ले जाते ।
(२) सकाम निर्जरा - इसकी व्याख्या ऊपर अविपाक निर्जरा अनुसार समझना, तथा यहाँ विशेष बात यह है कि जीवके उपादानको अस्ति प्रथम दिखाकर यह निर्जरामें भी पुरुषार्थका कारणपना दिखाना है । ३ - इस सूत्र में जो 'च' शब्द है वह नवमे श्रध्यायके तीसरे सूत्र (तपसा निर्जरा च ) के साथ सम्बन्ध कराता है ।
यहाँ अनुभागवंधका वर्णन पूर्ण हुआ ॥ २३ ॥ अब प्रदेशका वर्णन करते हैं प्रदेशबंधका स्वरूप
नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात्सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनं तानं तप्रदेशाः ॥ २४ ॥
अर्थ -- [ नाम प्रत्ययाः ] ज्ञानावरणादि कर्म प्रकृतियोका कारण, [ सर्वतः ] सर्वं तरफसे अर्थात् समस्त भावोमें [ योग विशेषात् ] योग विशेषसे [ सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः ] सूक्ष्म, एक क्षेत्रावगाह रूप स्थित [ सर्वात्मप्रदेशेषु ] और सर्व आत्मप्रदेशोमे [ अनंतानंतप्रदेशाः ] जो कर्मपुद्गलके अनन्तानन्त प्रदेश है सो प्रदेशबध है ।
निम्न छह बाते इस सूत्र बतलाई हैं:
(१) सर्व कर्मके ज्ञानावरणादि मूलप्रकृतिरूप, उत्तर प्रकृतिरूप और उत्तरोत्तरप्रकृतिरूप होनेका कारण कार्मारणवर्गरणा है ।
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मोक्षशास्त्र (२) त्रिकालवर्ती समस्त भवोंमें (जन्मोमें) मन-वचन-कायके थोगके निमित्तसे यह कर्म पाते है । (३) ये कर्म सूक्ष्म है-इन्द्रियगोचर नहीं हैं।
(४) आत्माके सर्व प्रदेशोंके साथ दूध पानीकी तरह एक क्षेत्रमैं ये कर्म व्याप्त हैं।
(५) आत्माके सर्व प्रदेशोंमें अनंतानंत पुद्गल स्थित होते हैं ।
(६) एक एक आत्माके असंख्य प्रदेश हैं, इस प्रत्येक प्रदेशमें संसारी जीवोके अनन्तानन्त पुद्गलस्कंध विद्यमान हैं।
यहाँ प्रदेशबंधका वर्णन पूर्ण हुआ ॥ २४ ॥
इस तरह चार प्रकारके बंधका वर्णन किया। अव कर्मप्रकृत्तियोंमेंसे पुण्यप्रकृतियां कितनी हैं और पाप प्रकृति कितनी हैं यह बतलाकर इस अध्यायको पूर्ण करते हैं।
पुण्य प्रकृतियां बतलाते हैं सद्व घशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् ॥ २५ ॥
अर्थ-[ सघशुभायु मगोत्राणि ] सातावेदनीय, शुभआयु, शुभनाम और शुभगोत्र [ पुण्यम् ] ये पुण्य प्रकृतियां हैं।
टीका १-घातिया कर्मोकी ४७ प्रकृतियां हैं, ये सब पापरूप हैं; अधातिया कर्मोकी १०१ प्रकृतियाँ हैं, उनमें पुण्य और पाप दोनों प्रकार हैं। उनमेसे निम्न ६८ प्रकृतियाँ पुण्यरूप हैं
(१)सातावेदनीय(२)तिर्यंचायु(३)मनुष्यायु(४)देवायु(५) उच्चगोत्र (६)मनुष्यगति (७)मनुष्यगत्यानुपूर्वी(८)देवगति (९) देवगत्यानुपूर्वी (१०) पंचेन्द्रिय जाति (११-१५) पाँच प्रकारका शरीर (१६-२०) शरीरके पाँच प्रकारके बन्धन, (२१-२५) पाँच प्रकारका संघात (२६-२८) तीन प्रकार - का अंगोपांग (२६-४८) स्पर्श, वर्णादिककी बीस प्रकृति (४९) समचतुरसंस्थान (५०) वज्रर्षभनाराचसंहनन, (५१) अगुरुलघु (५२) परघात,
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अध्याय ८ सूत्र २५-२६
६४१ (५३) उच्छवास (५४) आतप (५५) उद्योत (५६) प्रशस्त विहायोगति (५७) त्रस (५८) बादर, (५६) पर्याप्ति (६०) प्रत्येक शरीर (६१)स्थिर (६२) शुभ (६३) सुभग (६४) सुस्वर (६५) आदेय (६६) यशःकीर्ति (६७) निर्माण और (६८) तीर्थंकरत्व । भेद विवक्षासे ये ६८ पुण्यप्रकृति है और अभेद विवक्षासे ४२ पुण्यप्रकृति हैं, क्योंकि वर्णादिकके १६ भेद, शरीर में अन्तर्गत ५ बंधन और ५ सघात इस प्रकार कुल २६ प्रकृतियां घटानेसे ४२ प्रकृतियां रहती है।
२-पहले ११ वें सूत्र में नामकर्मकी ४२ प्रकृति बतलाई हैं उनमें गति, जाति, शरीरादिकके उपभेद नही बतलाये; परन्तु पुण्य प्रकृति और पापप्रकृति ऐसे भेद करनेसे उनके उपभेद आये बिना नहीं रहते ॥ २५ ॥
अब पाप प्रकृतियां बतलाते हैं:
अतोऽन्यत्पापम् ॥ २६ ॥ अर्थ-[प्रतः अन्यत्] इन पुण्य प्रकृतियोसे अन्य अर्थात्-असातावेदनीय, अशुभ प्रायु, अशुभ नाम और अशुभ गोत्र | पापम् ] ये पाप प्रकृतियां है।
टीका
१-पाप प्रकृतियाँ १०० हैं जो निम्नप्रकार हैं:
४७-घातिया कर्मोकी सर्व प्रकृतियां, ४८-नीच गोत्र, ४६-असातावेदनीय, ५०-नरकायु, [ नामकर्मको ५० ] १-नरकगति, २-नरकगत्यानुपूर्वी, ३-तिर्यंचगति, ४-तियंचगत्यानुपूर्वी, ५-८-एकेन्द्रियसे चतुरिन्द्रिय तक चार जाति, ६ से १३-पाच संस्थान, (१४-१८) पांच संहनन, १९३८-वर्णादिक २० प्रकार ३६-उपघात, (४०) अप्रशस्त विहायोगति, ४१-स्थावर, ४२-सूक्ष्म, ४३-अपर्याप्ति, ४४-साधारण, ४५-अस्थिर ४६-अशुभ, ४७-दुर्भग, ४८-दुःस्वर, ४६-अनादेय और ५०-अयश.कीर्ति । भेद विवक्षासे ये सब १०० पापप्रकृतियां हैं और अभेद विवक्षा से ८४ हैं। क्योंकि वर्णादिकके १६ उपभेद घटानेसे ८४ रहते हैं। इनमेसे भी सम्यक
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६४२
मोक्षशास्त्र मिथ्यात्वप्रकृति तथा सम्यक्त्व मोहनीयप्रकृति इन दो प्रकृतियोंका वन्ध नहीं होता अतः इन दो को कम करनेसे भेदविवक्षासे १८ और अभेद विवक्षासे ८२ पापप्रकृतियोंका बन्ध होता है, परन्तु इन दोनों प्रकृतियोंकी सत्ता तथा उदय होता है इसीलिये सत्ता और उदय तो भेद विवक्षासे १०० तथा अभेद विवक्षासे ८४ प्रकृतियोंका होता है।
२-वर्णादिक चार अथवा उनके भेद गिने जावे तो २० प्रकृतियां हैं, ये पुण्यरूप भी हैं और पापरूप भी है इसीलिये ये पुण्य और पाप दोनोंमें गिनी जाती हैं।
३-इस सूत्रमें आये हुये शब्दोंका अर्थ श्री जैनसिद्धान्त प्रवेशिकामें से देख लेना।
उपसंहार ___इस अध्यायमें बन्धतत्त्वका वर्णन है। पहले सूत्र में मिथ्यात्वादि पांच विकारी परिणामोंको बन्धके कारणरूपसे बताया है, इनमें पहला मिथ्यादर्शन बतलाया है क्योंकि इन पांच कारणोंमें संसारका मूल मिथ्यादर्शन है । ये पांचों प्रकारके जीवके विकारी परिणामोंका निमित्त पाकर मात्माके एक एक प्रदेशमें अनन्तानन्त कार्माणवर्गणारूप पुद्गल परमाणु एक क्षेत्रावगाहरूपसे बन्धते हैं, यह द्रव्यबन्ध है। - २-बन्धके चार प्रकार वर्णन किये हैं। इनमें ऐसा भी बतलाया है कि कर्मबन्ध जीवके साथ कितने समय तक रहकर फिर उसका वियोग होता है । प्रकृतिबन्ध में मुख्य पाठ भेद होते हैं, इनमेंसे एक मोहनीय प्रकृति ही नवीन कर्म बन्धमें निमित्त है।
३-वर्तमान गोचर जो देश हैं, उनमें कोई भी स्थानमें ऐसा स्पष्ट और वैज्ञानिक ढंगसे या न्याय पद्धतिसे जीवके विकारी भावोंका तथा उसके निमित्तसे होनेवाले पुद्गलबन्धके प्रकारोंका स्वरूप, और जीवके शुद्धभावोंका स्वरूप जैनदर्शनके सिवाय दूसरे किसी दर्शनमें नही कहा गया और इसप्रकारका नवतत्त्वके स्वरूपका सत्य कथन सर्वज्ञ वीतरागके बिना
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अध्याय ८ उपसंहारा
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हो ही नही सकता । इसलिये जैनदर्शनकी अन्य किसी भी दर्शनके साथ समानता मानना सो विनय मिध्यात्व है ।
४——– मिथ्यात्वके सम्बन्धमे पहले सूत्रमें जो विवेचन किया गया है वह यथार्थ समझना ।
५- वंधतत्त्व सम्वन्धी ये खास सिद्धान्त ध्यान में रखने योग्य है कि शुभ तथा अशुभ दोनों ही भाव बधके कारण है इसलिये उनमें फर्क नही है अर्थात् दोनों बुरे हैं । जिस अशुभ भावके द्वारा नरकादिरूप पापबध हो उसे तो जीव बुरा जानता है, किन्तु जिस शुभभावके द्वारा देवादिरूप पुण्यवन्ध हो उसे यह भला जानता है, इस तरह दुःखसामग्रीमें ( पापबन्धके फलमे ) द्वेप और सुख सामग्री में ( पुण्यबन्धके फलमें ) राग हुआ; इसलिये पुण्य अच्छा और पाप खराब है, यदि ऐसा मानें तो ऐसी श्रद्धा हुई कि राग द्वेष करने योग्य है, और जैसे इस पर्याय सम्बन्धी राग द्वेष करनेकी श्रद्धा हुई वैसी भावी पर्याय सम्बन्धी भी सुख दुःख सामग्रीमें राग द्वेष करने योग्य है ऐसी श्रद्धा हुई । अशुद्ध ( शुभ - अशुभ ) भावोके द्वारा जो कर्म वन्ध हो उसमे अमुक अच्छा श्रोर अमुक बुरा ऐसा भेद मानना ही मिथ्या श्रद्धा है, ऐसी श्रद्धासे बन्धतत्त्वका सत्य श्रद्धान नही होता । शुभ या अशुभ दोनों वन्धभाव है, इन दोनोंसे घातिकर्मोका बन्ध तो निरन्तर होता है; सव घातिया कर्म पापरूप ही है और यही श्रात्मगुरगके घातनेमें निमित्त है । तो फिर शुभभावसे जो बन्ध हो उसे अच्छा क्यो कहा है ? ( मो० प्र० ) ६ -- यहाँ यह बतलाते है कि जीवके एक समयके विकारीभावमेंसात कर्म के बन्ध में और किसी समय आठों प्रकारके कर्मके बन्धमे निमित्त होनेकी योग्यता किस तरह होती है—
(१) जीव अपने स्वरूपकी असावधानी रखता है, यह मोह कर्मके वन्धका निमित्त होता है ।
(२) स्वरूपकी असावधानी होनेसे जीव उस समय अपना ज्ञान अपनी ओर न मोड़कर परकी तरफ मोड़ता है, यह भाव - ज्ञानावरण कर्मके वन्धका निमित्त होता है ।
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मोक्षशास्त्र
(३) उसी समय स्वरूपकी सावधानीको लेकर अपना (निजका ) दर्शन अपनी तरफ न मोड़कर परकी तरफ मोड़ता है, यह भाव दर्शनावरण कर्मके बन्धका निमित्त होता है । (४) उसी समय मे स्वरूपको
सावधानी होनेसे अपना वीर्यं ग्रपनी तरफ नही मोड़कर परकी तरफ मोड़ता है, यह भाव - ग्रन्तरायकर्मके वन्ध का निमित्त होता है |
(५) परकी ओरके झुकावसे परका संयोग होता है, इसीलिये इस समयका ( स्वरूपकी असावधानी के समयका ) भाव - शरीर इत्यादि नामकर्मके बन्धका निमित्त होता है ।
(६) जहाँ शरीर हो वहाँ ऊँच-नीच श्राचारवाले कुलमें उत्पत्ति होती है, इसीलिये इसीसमयका रागभाव - गोत्रकर्मके वंवका निमित्त होता है । (७) जहाँ शरीर होता है वहाँ वाहरकी अनुकूलता प्रतिकूलता, रोगनिरोग आदि होते है, इसीलिये इस समयका रागभाव - वेदनीयकर्मके बन्धका निमित्त होता है ।
अज्ञान दशा में ये सात कर्म तो प्रति समय वँधा ही करते हैं, सम्यक्दर्शन होनेके बाद क्रम क्रमसे जिस जिस प्रकार स्वसन्मुखता के बलसे चारित्र की असावधानी दूर होती है उसी उसी प्रकार जीवमें शुद्धदशा-अविकारीदशा बढ़ती जाती है और यह अविकारी (निर्मल ) भाव पुद्गल कर्मके बन्ध में निमित्त नही होता इसीलिये उतने अंशमें बन्धन दूर होता है ।
(८) शरीर यह संयोगी वस्तु है, इसीलिये जहाँ यह संयोग हो वहां वियोग भी होता ही है, अर्थात् शरीरकी स्थिति अमुक कालकी होतो है | वर्तमान भवमें जिस भवके योग्य भाव जीवने किये हों वैसी आयुका बन्ध नवीन शरीरके लिये होता है ।
७- द्रव्यबन्धके जो पांच कारण हैं इनमें मिथ्यात्व मुख्य है और इस कर्मबन्धका प्रभाव करनेके लिये सबसे पहला कारण सम्यग्दर्शन ही है । सम्यग्दर्शन होनेसे ही मिथ्यादर्शनका अभाव होता है और उसके बाद ही स्वरूपके आलम्बनके अनुसार क्रम क्रमसे अविरति श्रादिका अभाव होता है । इस प्रकार श्री उमास्वामी विरचित मोक्षशास्त्रके आठवें अध्यायकी गुजराती टीकाका हिन्दी अनुवाद पूर्ण हुआ ।
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मोक्षशास्त्र अध्याय नवमाँ भूमिका
१ --- इस अध्यायमें संवर और निर्जरातत्त्वका वर्णन है । यह मोक्षशास्त्र है इसलिये सबसे पहले मोक्षका उपाय बतलाया है कि जो समयग्दर्शन - ज्ञान - चारित्रकी एकता है सो मोक्षमार्ग है । फिर सम्यग्दर्शनका लक्षरण तत्त्वार्थं श्रद्धान कहा और सात तत्त्वोके नाम बतलाये; इसके बाद अनुक्रमसे इन तत्त्वोका वर्णन किया है; इनमेसे जीव, प्रजीव, आस्रव श्रोर बंध इन चार तत्त्वों का वर्णन इस आठवें अध्याय तक किया । अब इस नवमे श्रध्यायमे संवर और निर्जरातत्त्व इन दोनों तत्त्वों का वर्णन है और इसके बाद अन्तिम अध्यायमे मोक्षतत्त्वका वर्णन करके प्राचार्यदेवने यह शास्त्र पूर्ण किया है ।
२- अनादि मिथ्यादृष्टि जीवके यथार्थं संवर और निर्जरातत्त्व कभी प्रगट नही हुए; इसीलिये उसके यह संसाररूप विकारी भाव वना रहा है और प्रति समय अनन्त दुःख पाता है । इसका मूल कारण मिथ्यात्व ही है । धर्मका प्रारम्भ सवरसे होता है और सम्यग्दर्शन ही प्रथम संवर है; इसीलिये धर्मका मूल सम्यग्दर्शन है । सवरका अर्थ जीवके विकारीभावको रोकना है । सम्यक् दर्शन प्रगट करने पर मिथ्यात्व श्रादि भाव रुकता है इसीलिये सबसे पहले मिथ्यात्व भावका संवर होता है ।
३ – संवरका स्वरूप
(१) 'संवर' अध्यायमे बतलाये हुये भावको रोके तब जीवमे
शब्दका अर्थ 'रोकना' होता है । छट्ट - सातवें आस्रवको रोकना सो संवर है । जव जीव श्रास्रव किसी भावकी उत्पत्ति तो होनी ही चाहिये ।
जिस भावका उत्पाद होने पर श्रास्रव भाव रुके वह संवरभाव है । संवरका अर्थ विचारनेसे इसमे निम्न भाव मालूम होते हैं:
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मोक्षशास्त्र १-आस्रवके रोकनेपर आत्मामें जिस पर्यायको उत्पत्ति होती है वह शुद्धोपयोग है। इसीलिये उत्पादकी अपेक्षासे संवरका अर्थ शुद्धोपयोग होता है । उपयोग स्वरूप शुद्धात्मामें उपयोगका रहना-स्थिर होना सो संवर है। ( देखो समयसार गाथा १८१)
२-उपयोग स्वरूप शुद्धात्मामें जब जीवका उपयोग रहता है तव नवीन विकारी पर्याय (-पास्रव ) रुकता है अर्थात् पुण्य-पापके भाव रुकते है । इस अपेक्षासे संवरका अर्थ 'जीवके नवीन पुण्य-पापके भावको रोकना होता है।
३-ऊपर बतलाये हुये निर्मल भाव प्रगट होनेसे आत्माकी साथ एक क्षेत्रावगाहरूपमें आनेवाले नवीन कर्म रुकते है इसीलिये कर्मकी अपेक्षासे संवरका अर्थ होता है 'नवीन कर्मके आस्रवका रुकना।'
(२) उपरोक्त तीनों अर्थ नयकी अपेक्षासे किये गये हैं वे इसप्रकार हैं-१-प्रथम अर्थ आत्माकी शुद्ध पर्याय प्रगट करना बतलाता है, इसीलिये पर्यायकी अपेक्षासे यह कथन शुद्ध निश्चयनयका है। २ दूसरा अर्थ यह बतलाता है कि आत्मामें कौन पर्याय रुकी, इसीलिये यह कथन व्यवहारनय का है और ३-अर्थ इसका ज्ञान कराता है कि जीवकी इस पर्यायके समय परवस्तुकी कैसी स्थिति होती है, इसीलिये यह कथन असद्भूतव्यवहार नयका है । इसे असद्भुत कहनेका कारण यह है कि आत्मा जड़ कर्मका कुछ कर नहीं सकता किन्तु आत्माके इसप्रकारके शुद्ध भावको और नवीन कर्मके आस्रवके रुकजानेको मात्र निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है।
(३) ये तीनों व्याख्यायें नयकी अपेक्षासे है, अतः इस प्रत्येक व्याख्यामें बाकीकी दो व्याख्याये गभितरूपसे अन्तर्भूत होती हैं, क्योंकि नयापेक्षाके कथनमें एककी मुख्यता और दूसरेकी गौरणता होती है । जो कथन मुख्यतासे किया हो उसे इस शास्त्रके पांचवें अध्यायके ३२ वें सूत्र में 'अर्पित' कहा गया है। और जिस कथनको गौण रखा गया हो उसे 'अनर्पित' कहा गया है। अपित्त और अनर्पित इन दोनों कथनोंको एकत्रित करनेसे जो अर्थ हो वह पूर्ण ( प्रमाण ) अर्थ है, इसीलिये यह व्याख्या सर्वांग है । अर्पित कथनमें यदि अर्पितकी गौणता रखी गई हो तो यह
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अध्याय ९ उपसंहार
६४७ नय कथन है । सर्वांग व्याख्या रूप कथन किसी पहलूको गौण न रख सभी पहलुओंको एक साथ बतलाता है। शास्त्रमे नयदृष्टिसे व्याख्या की हो या प्रमाण दृष्टिसे व्याख्या की हो किन्तु वहाँ सम्यक् अनेकान्तके स्वरूपको समझकर अनेकान्त स्वरूपसे जो व्याख्या हो उसके अनुसार समझना।
(४) संवरकी सर्वांग व्याख्या श्री समयसारजी गाथा १८७ से १८९ तक निम्न प्रकार दी गई है:
"मात्माको आत्माके द्वारा दो पुण्य-पापरूप शुभाशुभ योगोंसे रोककर दर्शनज्ञानमे स्थित होता हुवा और अन्य वस्तुकी इच्छासे विरक्त (-निवृत्त ) हुआ जो आत्मा, सर्व सगसे रहित होता हुआ निजात्माको आत्माके द्वारा ध्याता है, कर्म और नोकर्मको नही ध्याता । चेतयिता होने से एकत्वका ही चितवन करता है, विचारता है-अनुभव करता है। यह आत्मा, आत्माका ध्याता, दर्शनज्ञानमय और अनन्यमय हुवा संता अल्पकाल मे ही कर्मसे रहित आत्माको प्राप्त करता है।"
इस व्याख्या में सम्पूर्ण कथन है अतः यह कथन अनेकान्तदृष्टिसे है। इसलिये किसी शास्त्रमे नयकी अपेक्षासे व्याख्या की हो या किसी शास्त्र में अनेकान्तकी अपेक्षासे सर्वाग व्याख्या की हो तो वहाँ विरोध न समझकर ऐसा समझना कि दोनोमें समान रूपसे व्याख्या की है।
(५) श्री समयसार कलश १२५ में संवरका स्वरूप निम्न प्रकार कहा है:
१-आस्रवका तिरस्कार करनेसे जिसको सदा विजय मिली है ऐसे संवरको उत्पन्न करनेवाली ज्योति ।
२-पररूपसे भिन्न अपने सम्यक् स्वरूप में निचलरूपसे प्रकाशमान, चिन्मय, उज्ज्वल और निजरसके भारवाली ज्योतिका प्रगट होना।
(इस वर्णनमें आत्माकी शुद्ध पर्याय और प्रास्रवका निरोध इस तरह आत्माके दोनों पहलू श्वाजाते हैं ।)
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मोक्षशास्त्र (६) श्री पुरुपार्थ सिद्धयुपायकी गाथा २०५ में बारह अनुप्रेक्षाग्रोके नाम कहे है उनमें एक संवर अनुप्रेक्षा है। यहाँ पण्डित उग्रसेन कृत टीका पृष्ठ २१८ में "संवर' का अर्थ निम्न प्रकार किया है
जिन पुण्य पाप नहिं कीना, मातम अनुभव चित टोना; तिन ही विधि आवत रोके, संवर लहि सुरु अवलोके ।
अर्थ-जिन जीवोंने अपने भावको पुण्य-पापस्प नहीं किया और आत्म अनुभवमें अपने ज्ञानको लगाया है उन जीवोंने माते हुए फर्मोको रोका है और वे संवरकी प्राप्तिरूप सुखको देखते हैं।
( इस व्याख्यामे ऊपर कहे हुए तीनो पहलू आ जाते हैं, इसीलिये अनेकान्तकी अपेक्षासे यह सर्वांग व्याख्या है।
(७) श्री जयसेनाचार्यने पंचास्तिकाय गाथा १४२ की टीका संवरकी व्याख्या निम्न प्रकार की है:
अत्र शुभाशुभसंवर समर्थः शुद्धोपयोगी भाव संवरः, भावसंवराधारेण नवतरकर्मनिरोधो द्रव्यसंवर इति तात्पर्यार्थः॥
अर्थ-यहाँ शुभाशुभभावको रोकने में समर्थ जो शुद्धोपयोग है सो भावसंवर है; भावसंवरके आधारसे नवीन कर्मका निरोध होना सो द्रव्यसंवर है । यह तात्पर्यअर्थ है। (रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला पंचास्तिकाय पृष्ठ २०७)
(संवरकी यह व्याख्या अनेकान्तकी अपेक्षासे है, इसमें पहले तीनों अर्थ आ जाते है।)
(८) श्री अमृतचन्द्राचार्यने पंचास्तिकाय गाथा १४४ की टीकामें संवरकी व्याख्या निम्न प्रकार की है:
'शुभाशुभपरिणामनिरोधः संवरः शुद्धोपयोगः अर्थात् शुभाशुभ परिणामके निरोधरूप संवर है सो शुद्धोपयोग है।' (पृष्ठ २०८ )
(संवरकी यह व्याख्या अनेकान्तकी अपेक्षासे है, इसमें पहले दोनों अर्थ आ जाते हैं।)
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अध्याय ९ भूमिका
६४६ (९) प्रश्न-इस अध्यायके पहले सूत्र में संवरकी व्याख्या 'आस्रव निरोधः संवर.' की है, किन्तु सर्वांग व्याख्या नही की, इसका क्या कारण है?
उत्तर-इस शास्त्रमे वस्तुस्वरूपका वर्णन नयकी अपेक्षासे बहुत ही थोडेमे दिया गया है । पुनश्च इस अध्यायका वर्णन मुख्यरूपसे पर्यायाथिक नयसे होनेसे 'पासव निरोधः संवरः' ऐसी व्याख्या पर्यायकी अपेक्षासे की है और इसमे द्रव्याथिक नयका कथन गौण है।।
(१०) पांचवे अध्यायके ३२ वे सूत्रको टीकामें जैन शास्त्रोंके अर्थ करनेकी पद्धति बतलाई है। इसी पद्धतिके अनुसार इस अध्यायके पहले सूत्रका अर्थ करनेसे श्री समयसार, श्री पंचास्तिकाय आदि शास्त्रोमे संवरका जो अर्थ किया है वही अर्थ यहाँ भी किया है ऐसा समझना।
४-ध्यानमें रखने योग्य बातें (१) पहले अध्यायके चौथे सूत्रमे जो सात तत्त्व कहे हैं उनमें संवर और निर्जरा ये दो तत्त्व मोक्षमार्गरूप है। पहले अध्यायके प्रथम सूत्रमे मोक्षमार्गको व्याख्या 'सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इस तरह की है, यह व्याख्या जीवमे मोक्षमार्ग प्रगट होने पर आत्माकी शुद्ध पर्याय कैसी होती है यह बतलाती है। और इस अध्यायके पहले सूत्र में 'पासव निरोधः सवरः' ऐसा कहकर मोक्षमार्गरूप शुद्ध पर्याय होनेसे यह वतलाया है कि शुद्ध पर्याय होनेसे अशुद्ध पर्याय तथा नवीन कर्म रुकते है।
(२) इस तरह इन दोनो सूत्रोमे ( अध्याय १ सूत्र १ तथा अध्याय ६ सूत्र १ मे ) वतलाई हुई मोक्षमार्गकी व्याख्या साथ लेनेसे इस शास्त्रमें सर्वांग कथन आ जाता है। श्री समयसार, पंचास्तिकाय आदि शास्त्रोमें मुख्यरूपसे द्रव्याथिकनयकी अपेक्षासे कथन है, इसमे संवरकी जो व्याख्या दी गई है वही व्याख्या पर्यायाथिकनयसे इस शास्त्रमे पृथक् शब्दोमे दी है।
(३) शुद्धोपयोगका अर्थ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र होता है ।
(४) सवर होनेसे जो अशुद्धि दूर हुई और शुद्धि बढ़ी वही निर्जरा है इसीलिये 'शुद्धोपयोग' या सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र' कहनेसे ही इसमें निर्जरा आ जाती है।
८२
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६५०
मोक्षशास्त्र (५) संवर तथा निर्जरा दोनों एक ही समयमें होते हैं, क्योंकि जिस समय शुद्धपर्याय (-शुद्ध परिणति ) प्रगट हो उसी समय नवीन अशुद्धपर्याय ( शुभाशुभ परिणति ) रुकती है सो संवर है और इसी समय आंशिक अशुद्धि दूर हो शुद्धता बढ़े सो निर्जरा है।
(६) इस अध्यायके पहले सूत्रमे संवरकी व्याख्या करनेके वाद दूसरे सूत्र में इसके छह भेद कहे हैं । इन भेदोमे समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र ये पाँच भेद भाववाचक ( अस्तिसूचक ) हैं और छट्ठा भेद गुप्ति है सो अभाववाचक ( नास्तिसूचक ) है। पहले सूत्र में संवरकी व्याख्या नयकी अपेक्षासे निरोधवाचक की है, इसीलिये यह व्याख्या गौणरूपसे यह बतलाती है कि 'सवर होनेसे कैसा भाव हुआ' और मुख्यरूपसे यह बतलाती है कि-'कैसा भाव रुका।'
(७) 'पास्रव निरोधः संवरः' इस सूत्र में निरोध शब्द यद्यपि अभाववाचक है तथापि यह शून्यवाचक नही है; अन्य प्रकारके स्वभावपने का इसमें सामर्थ्य होनेसे, यद्यपि आस्रवका निरोध होता है तथापि आत्मा संवृत स्वभावरूप होता है, यह एक तरहकी आत्माकी शुद्धपर्याय है। संवरसे आस्रवका निरोध होता है इस कारण आस्रव बन्धका कारण होनेसे संवर होनेपर बन्धका भी निरोध होता है । ( देखो श्लोकवार्तिक संस्कृत टीका, इस सूत्रके नीचेकी कारिका २ पृष्ठ ४८६)
(८) श्री समयसारजीकी १८६ वी गाथामें कहा है कि-'शुद्ध आत्माको जानता-अनुभव करनेवाला जीव शुद्ध आत्माको ही प्राप्त होता है और अशुद्ध आत्माको जानने अनुभव करनेवाला जीव अशुद्ध आत्माको ही प्राप्त होता है।'
__इसमे शुद्ध प्रात्माको प्राप्त होना सो संवर है और अशुद्ध आत्माको प्राप्त होना सो आस्रव-बन्ध है ।
() समयसार नाटकको उत्थानिकामें २३ वें पृष्टमें संवरकी . व्याख्या निम्नप्रकार की है:
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६५१
अध्याय ९ भूमिका जो उपयोग स्वरूप धरि, वरते जोग विरत्त,
रोके आवत करमको, सो है सवर तत्त ॥३१॥ अर्थ-आत्माका जो भाव ज्ञानदर्शनरूप उपयोगको प्राप्त कर (शुभाशुभ ) योगोकी क्रियासे विरक्त होता है और नवीन कर्मके आस्रवको रोकता है सो संवर तत्त्व है।
५-निर्जराका स्वरूप उपरोक्त 8 बातोमें निर्जरा सम्बन्धी कुछ विवरण आगया है। संवर पूर्वक जो निर्जरा है सो मोक्षमार्ग है; इसीलिये इस निर्जराकी व्याख्या जानना आवश्यक है।
(१) श्री पंचास्तिकायकी १४४ गाथामे निर्जराकी व्याख्या निम्न प्रकार है:
संवरजोगेहि जुदो तवेहिं जो चिट्ठदेबहुविहेहिं ।
कम्मारणं रिगज्जरणं बहुगारण कुरणदि सो रिणयदं ॥
अर्थ-शुभाशुभ परिणाम निरोधरूप सवर और शुद्धोपयोगरूप योगोंसे संयुक्त ऐसा जो भेदविज्ञानी जीव अनेक प्रकारके अन्तरंग-बहिरंग तपो द्वारा उपाय करता है सो निश्चयसे अनेक प्रकारके कर्मोकी निर्जरा करता है।'
। इस व्याख्यामे ऐसा कहा है कि 'कर्मोकी निर्जरा होती है और इसमे यह गभित रखा है कि इस समय आत्माकी शुद्ध पर्याय कैसी होती है, इस गाथाकी टीका करते हुये श्री अमृतचन्द्राचार्यने कहा है कि.
... स खलु बहूनां कर्मणां निर्जरणं करोति । तदत्रकर्मवीर्य शातनसमर्थो बहिरंगांतरग तपोभिर्वृहितः शुद्धोपयोगो भावनिर्जरा।'
अर्थ-यह जीव वास्तवमे अनेक कर्मोकी निर्जरा करता है इसीलिये यह सिद्धान्त हुआ कि अनेक कर्मोकी शक्तियोको नष्ट करनेमे समर्थ वहिरंगअन्तरंग तपोंसे वृद्धिको प्राप्त हुआ जो शुद्धोपयोग है सो भाव-निर्जरा है।
(देखो पंचास्तिकाय पृष्ठ २०६)
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६५२
मोक्षशास्त्र
(२) श्री समयसार गाथा २०६ में निर्जराका स्वरूप निम्न प्रकार
बताया है |
'एदरिदो रिच्चं संतुट्ठो होहि रिपच्चमेदह्नि । एदे होहिं तित्तो होहदि तुह उत्तमं सोक्खं ॥ २०६ ॥
अर्थ - हे भव्य प्राणी ! तू इसमें ( ज्ञानमें ) नित्य रत अर्थात् प्रीतिवाला हो, इसी में नित्य सन्तुष्ट हो और इससे तृप्त हो, ऐसा करने से तुझे उत्तम सुख होगा ।
इस गाथा में यह बतलाया है कि निर्जरा होने पर आत्माकी शुद्ध पर्याय कैसी होती है |
(३) संवरके साथ अविनाभावरूपसे निर्जरा होती है । निर्जराके आठ आचार ( अङ्ग, लक्षरण ) है; इसमें उपबृंहण और प्रभावना ये दो आचार शुद्धिकी वृद्धि बतलाते है । इस सम्बन्ध में श्री समयसार गाथा २३३ की टीकामें निम्नप्रकार बतलाया है ।
"क्योंकि सम्यग्दृष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक स्वभावमयपनेके कारण समस्त श्रात्मशक्तियोंकी वृद्धि करनेवाला होनेके कारण, उपवृ हक अर्थात् मात्मशक्तिका बढ़ानेवाला है, इसीलिये उसके जीवकी शक्तिकी दुर्बलतासे ( अर्थात् मंदतासे ) होनेवाला बन्ध नही होता परन्तु निर्जरा ही है ।" ( ४ ) और फिर गाथा २३६ की टीका तथा भावार्थ में कहा हैटीका क्योंकि सम्यग्दृष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक स्वभावमयपनेको लेकर ज्ञानकी समस्त शक्तिको प्रगट करनेसे - विकसित करनेसे, फैलानेसे प्रभाव उत्पन्न करता है अतः प्रभावना करनेवाला है इसीलिये इसके ज्ञानकी प्रभावनाके अप्रकर्षसे ( अर्थात् ज्ञानकी प्रभावनाको वृद्धि न होनेसे ) होनेवाला बन्ध नही होता परन्तु निर्जरा ही है ।
भावार्थ- प्रभावनाका अर्थ है प्रगट करना, उद्योत करना आदि; इसलिए जो निरन्तर अभ्याससे अपने ज्ञानको प्रगट करता है— बढ़ाता है उसके प्रभावना अङ्ग होता है । और उसके अप्रभावना कृत कर्मोंका बंधन नही है, कर्म रस देकर खिर जाता है-झड़ जाता है इसीलिये निर्जरा ही है ।
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अध्याय ६ भूमिका
१६५३ (५) इस प्रकार अनेकान्त दृष्टिमें स्पष्टरूपसे सर्वांग व्याख्या कही जाती है । जहाँ व्यवहारनयसे व्याख्या की जाय वहां निर्जराका ऐसा अर्थ होता है:-'आशिकरूपसे विकारकी हानि और पुराने कर्मोका खिर जाना, किन्तु इसमें 'जो शुद्धिकी वृद्धि है सो निर्जरा है' ऐसा गभितरूपसे अर्थ कहा है।
(६) अष्टपाहुडमें भावप्राभृतकी ११४ वी गाथाके भावार्थमें संवर, निर्जरा तथा मोक्षकी व्याख्या निम्न प्रकार की है
'पांचवां सवर तत्त्व है। राग-द्वेष-मोहरूप जीवके विभावका न होना और दर्शन ज्ञानरूप चेतना भावका स्थिर होना सो संवर है, यह जीवका निज भाव है और इससे पुल कर्म जनित भ्रमण दूर होता है । इस तरह इन तत्त्वोकी भावनामे आत्मतत्त्वकी भावना प्रधान है। इससे कर्मकी निर्जरा होकर मोक्ष होता है । अनुक्रमसे आत्माके भाव शुद्ध होना सो निर्जरा तत्त्व है और सर्वकर्मका अभाव होना सो मोक्ष तत्त्व है।'
६-इस तरह संवर तत्त्वमे आत्माकी शुद्ध पर्याय प्रगट होती है और निर्जरा तत्त्वमे आत्माकी शुद्ध पर्यायकी वृद्धि होती है । इस शुद्ध पर्याय को एक शब्दसे 'शुद्धोपयोग' कहते हैं, दो शब्दोसे कहना हो तो संवर और निर्जरा कहते हैं और तीन शब्दोसे कहना हो तो 'सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र' कहते हैं । सवर और निर्जरामे आशिक शुद्ध पर्याय होती है ऐसा समझना।
इस शास्त्रमे जहाँ जहाँ संवर और निर्जराका कथन हो वहाँ वहीं ऐसा समझना कि आत्माकी पर्याय जिस अशमे शुद्ध होती है वह संवरनिर्जरा है। जो विकल्प राग या शुभभाव है वह सवर-निर्जरा नही। परन्तु इसका निरोध होना और आशिक अशुद्धिका खिर जाना-झड़ जाना सो संवर-निर्जरा है।
७-अज्ञानी जीवने अनादिसे मोक्षका बीजरूप सवर-निर्जराभाव कभी प्रगट नही किया और इसका यथार्थ स्वरूप भी नही समझा । सवरनिर्जरा स्वयं धर्म है, इनका स्वरूप समझे बिना धर्म कैसे हो सकता है ?
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मोक्षशास्त्र इसलिये मुमुक्षु जीवोंको इसका स्वरूप समझना आवश्यक है; आचार्यदेव इस अध्यायमें इसका वर्णन थोड़ेमें करते हैं इसमें पहले संवरका स्वरूप वर्णन करते है।
संवरका लक्षण श्रास्त्रव निरोधः संवरः ॥१॥ अर्थ-[प्रास्रव निरोधः ] आस्रवका रोकना सो [ संवरः ] संवर है अर्थात् आत्मामें जिन कारणोंसे कर्मोका आस्रव होता है उन कारणोंको दूर करनेसे कर्मोका आना रुक जाता है उसे संवर कहते है।
टीका १-संवरके दो भेद हैं-भावसंवर और द्रव्यसंवर। इन दोनोंकी व्याख्या भूमिकाके तीसरे फिकरेके (७) उपभेदमें दी है।
२-संवर धर्म है; जीव जब सम्यग्दर्शन प्रगट करता है तब संवर का प्रारम्भ होता है; सम्यग्दर्शनके बिना कभी भी यथार्थ संवर नहीं होता। सम्यग्दर्शन प्रगट करनेके लिये जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंका स्वरूप यथार्थरूपसे और विपरीत अभिप्राय रहित जानना चाहिये।
३-सम्यग्दर्शन प्रगट होनेके बाद जीवके आंशिक वीतरागभाव और आंशिक सरागभाव होता है। वहाँ ऐसा समझना कि वीतरागभावके द्वारा संवर होता है और सरागभावके द्वारा बन्ध होता है।
४-बहुतसे जीव अहिंसा आदि शुभास्रवको संवर मानते हैं किन्तु यह भूल है । शुभास्रवसे तो पुण्यबन्ध होता है । जिस भाव द्वारा बन्ध हो उसी भावके द्वारा संवर नहीं होता।
५-आत्माके जितने अंशमें सम्यग्दर्शन है उतने अंशमें संवर है और बंध नहीं, किन्तु जितने अंशमें राग है उतने अंशमें बंध है; जितने अंशमे सम्यग्ज्ञान है उतने अंशमें संवर है, बंध नही किन्तु जितने अंशमें राग है उतने अंशमें बंध है तथा जितने अंशमें सम्यक्चारित्र है उतने अंशमें
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अध्याय ६ सूत्र १
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संवर है बन्ध नहीं; किन्तु जितने अंशमे राग है उतने अंश में बन्ध है - ( देखो पुरुषार्थ सिद्धच पाय गाथा २१२ से २१४ )
६ - प्रश्न — सम्यग्दर्शन संवर है और बन्धका कारण नही तो फिर अध्याय ६ सूत्र २१ मे सम्यक्त्वको भी देवायुकर्मके आस्रवका कारण क्यों कहा ? तथा अध्याय ६ सूत्र २४ मे दर्शन विशुद्धिसे तीर्थकर कर्मका श्रस्रव होता है ऐसा क्यों कहा ?
उत्तर - तीर्थंकर नाम कर्मका बन्ध चौथे गुणस्थानसे आठवें गुणस्थानके छुट्ट े भाग पर्यंत होता है और तीन प्रकारके सम्यक्त्वको भूमिकामे यह बन्ध होता है । वास्तवमे ( भूतार्थनय से -- निश्चयनयसे ) सम्यग्दर्शन स्वयं कभी भी बन्धका कारण नही है, किन्तु इस भूमिकामे रहे हुए रागसे ही बन्ध होता है । तीर्थंकर नामकर्मके बन्धका कारण भी समयग्दर्शन स्वयं नही, परन्तु सम्यग्दर्शनकी भूमिकामे रहा हुआ राग वन्धका कारण है । जहाँ सम्यग्दर्शनको आस्रव या बन्धका कारण कहा हो वहाँ मात्र उपचारसे ( व्यवहार ) कथन है ऐसा समझना, इसे अभूतार्थनयका कथन भी कहते हैं । सम्यग्ज्ञानके द्वारा नयविभागके स्वरूपको यथार्थ जाननेवाला ही इस कथन के प्राशयको अविरुद्धरूपसे समझता है ।
प्रश्नमे जिस सूत्रका आधार दिया गया है उन सूत्रोको टीकामे भी खुलासा किया है कि सम्यग्दर्शन स्वयं बन्धका कारण नही है ।
७9- निश्चय सम्यग्दृष्टि जीवके चारित्र अपेक्षा दो प्रकार हैंसरागी और वीतरागी । उनमेसे सराग- सम्यग्दृष्टि जीव राग सहित हैं अतः रागके कारण उनके कर्म प्रकृतियोका प्रस्रव होता है और ऐसा भी कहा जाता है कि इन जीवोके सरागसम्यक्त्व है, परन्तु यहाँ ऐसा समझना कि जो राग है वह सम्यक्त्वका दोष नही किन्तु चारित्रका दोष है । जिन सम्यग्दृष्टि जीवोके निर्दोष चारित्र है उनके वीतराग सम्यक्त्व कहा जाता है वास्तवमे ये दो जीवोके सम्यग्दर्शनमे भेद नही किन्तु चारित्रके भेदको अपेक्षासे ये दो भेद हैं । जो सम्यग्दृष्टि जीव चारित्र के दोष सहित हैं उनके सराग सम्यक्त्व है ऐसा कहा जाता है और जिस जीवके निर्दोष चारित्र है उनके वीतराग सम्यक्त्व है ऐसा कहा जाता है । इस तरह चारित्रको
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मोक्षशास्त्र सदोषता या निर्दोषताकी अपेक्षासे ये भेद हैं । सम्यग्दर्शन स्वयं संवर है और यह तो शुद्ध भाव ही है, इसीलिये यह आस्रव या बन्धका कारण नही है।
संवरके कारण स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापराषहजयचारित्रैः ॥२॥
अर्थ-[ गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः ] तीन गुप्ति, पांच समिति, दश धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बावोस परीषहजय और पाँच चारित्र इन छह कारणोसे [ सः ] संवर होता है ।
टीका १-जिस जीवके सम्यग्दर्शन होता है उसके ही संवरके ये छह कारण होते हैं; मिथ्यादृष्टिके इन छह कारणोंमेंसे एक भी यथार्थ नहीं होता । सम्यग्दृष्टि गृहस्थके तथा साधुके ये छहों कारण यथासम्भव होते हैं (देखो पुरुषार्थ सिद्धय पाय गाथा २०३ की टीका ) संवरके इन छह कारणोका यथार्थ स्वरूप समझे बिना संवरका स्वरूप समझने में भी जीवकी भूल हुये विना नहीं रहती। इसलिये इन छह कारणोंका यथार्थ स्वरूप समझना चाहिये।।
२-गुप्तिका स्वरूप (१) कुछ लोग मन-वचन-कायकी चेष्टा दूर करने, पापका चितवन न करने, मीन धारण करने तथा गमनादि न करनेको गुप्ति मानते हैं किन्तु यह गुप्ति नहीं है। क्योंकि जीवके मनमें भक्ति आदि प्रशस्त रागादिकके अनेक प्रकारके विकल्प होते हैं और वचन-कायकी चेष्टा रोकनेका जो भाव है सो तो शुभ प्रवृत्ति है, प्रवृत्तिमें गुप्तिपना नहीं बनता । इसलिये वीतराग भाव होने पर जहाँ मन-वचन-कायकी चेष्टा नही होती वहाँ यथार्थ गुप्ति है । यथार्थरीत्या गुप्तिका एक ही प्रकार है और यह वीतराग भावरूप है। निमित्तकी अपेक्षासे गुप्तिके ३ भेद कहे हैं। मन-वचन-काय ये तो पर द्रव्य है, इसकी कोई क्रिया वन्ध या अवन्धत्वका कारण नहीं है।
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अध्याय ६ सूत्र २ वीतराग भाव होनेपर जीव जितने अंशमे मन-वचन-कायकी तरफ नही लगता उतने अशमे निश्चय गुप्ति है और यही संवरका कारण है। ( मोक्षमार्ग प्रकाशक से )
(२) जो जीव नयोके रागको छोडकर निज स्वरूप में गुप्त होता है उस जीवके गुप्ति होती है। उनका चित्त विकल्प जालसे रहित शांत होता है और वह साक्षात् अमृत रसका पान करते हैं । यह स्वरूप गुप्तिकी शुद्ध क्रिया है । जितने अशमे वीतराग दशा होकर स्वरूपमे प्रवृत्ति होती है उतने अंशमे गुप्ति है। इस दशामे क्षोभ मिटता है और अतीन्द्रिय सुख अनुभवमे आता है। (देखो श्री समयसार कलश ६६ पृष्ठ १७५)
(३) सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक लौकिक वांछा रहित होकर योगोंका यथार्थ निग्रह करना सो गुप्ति है । योगोके निमित्तसे आने वाले कर्मोका आना बंध पड जाना सो संवर है । (तत्त्वार्थसार अ० ६ गा० ५)
(४) इस अध्यायके चौथे सूत्रमे गुप्तिका लक्षण कहा है इसमे बतलाया है कि जो 'सम्यक् योग निग्रह' है सो गुप्ति है । इसमे सम्यक् शब्द अधिक उपयोगी है, वह यह बतलाता है कि विना सम्यग्दर्शनके योगोका यथार्थ निग्रह नही होता अर्थात् सम्यग्दर्शन पूर्वक ही योगोंका यथार्थ निग्रह हो सकता है। . (५) प्रश्न-योग चौदहवें गुणस्थानमे रुकता है, तेरहवें गुणस्थान तक तो वह होता है, तो फिर नीचेकी भूमिकावालेके 'योगका निग्रह' (गुप्ति ) कहासे हो सकती है ?
उत्तर--प्रात्माका उपयोग मन, वचन, कायकी तरफ जितना न लगे उतना योगका निग्रह हुमा कहलाता है । यहा योग शब्दका अर्थ 'प्रदेशोंका कंपन' न समझना । प्रदेशोके कपनके निग्रहको गुप्ति नहीं कहा जाता किन्तु, इसे तो अकपता या अयोगता कहा जाता है; यह अयोग अवस्था चौदहवे गुणस्थानमे प्रगट होती है और गुप्ति तो चौथे गुणस्थानमें भी होती है। ८३
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मोक्षशास्त्र
(६) वास्तव में आत्माका स्वरूप ( निजरूप ) हो परम गुप्ति है, इसीलिये आत्मा जितने अंशमें अपने शुद्धस्वरूप में स्थिर रहे उतने श्रंश में गुप्ति है [ देखो, श्री समयसार कलश १५८ ]
३- आत्माका वीतराग भाव एकरूप है और निमित्तकी अपेक्षासे गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय प्रोर चारित्र ऐसे प्रथक् प्रथक् भेद करके समझाया जाता है; इन भेदोंके द्वारा भी अभेदता बतलाई है । स्वरूपकी श्रभेदता संवर निर्जराका कारण है ।
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४ - गुप्ति, समिति आदिके स्वरूपका वर्णन चोथे सूत्रसे प्रारम्भ करके अनुक्रमसे कहेगे ॥ २ ॥
निर्जरा और संवरका कारण तपसा निर्जरा च ॥ ३ ॥
अर्थ - [ तपसा ] तप से [ निर्जरा व ] निर्जरा होती है ओर संवर भी होता है |
टीका
१- दश प्रकारके धर्ममें तपका समावेश होजाता है तो भी उसे यहाँ प्रथक् कहनेका कारण यह है कि यह संवर और निर्जरा दोनोंका कारण है और उसमें संवरका यह प्रधान कारण है ।
२- यहाँ जो तप कहा है सो सम्यक् तप है, क्योंकि यह तप ही संवर निर्जराका कारण है । सम्यग्दृष्टि जीवके ही सम्यक् तप होता है मिथ्यादृष्टिके तपको बालतप कहते हैं और यह श्रास्रव है, ऐसा छट्ट अध्याय के १२ वें सूत्रकी टीकामें कहा है । इस सूत्र में दिये गये 'च' शब्दमें वालतप का समावेश होता है जो सम्यग्दर्शन और आत्मज्ञानसे रहित हैं ऐसे जीव चाहे जितना तप करें तो भी उनका समस्त तप बालतप ( अर्थात् अज्ञानतप, मूर्खतावाला तप ) कहलाता है ( देखो समयसार गाथा १५२ ) सम्यग्दर्शन पूर्वक होने वाले तपको उत्तम तपके रूपमें इस अध्यायके छट्ट सूत्रमें वर्णन किया है ।
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अध्याय ६ सूत्र ३
६५६ (२) तपका अर्थ श्री प्रवचनसारकी गाथा १४ मे तपका अर्थ इस तरह दिया है'स्वरूपविश्रांत निस्तरंग चैतन्यप्रतपनाच्च तपः अर्थात् स्वरूपमे विश्रात, तरंगोसे रहित जो चैतन्यका प्रतपन है सो तप है।'
४-तपका स्वरूप और उस सम्बन्धी होनेवाली भूल
(१) बहुतसे अनशनादिको तप मानते हैं और उस तपसे निर्जरा मानते हैं, किंतु बाह्य तपसे निर्जरा नही होती, निर्जराका कारण तो शुद्धोपयोग है । शुद्धोपयोगमें जीवको रमणता होने पर अनशनके विना 'जो शुभ अशुभ इच्छा का निरोध होता है' सो सवर है । यदि वाह्य दुःख सहन करनेसे निर्जरा हो तो तिर्यंचादिक भी भूख प्यासादिकके दुःख सहन करते हैं इसीलिये उनके भी निर्जरा होनी चाहिये। (मो० प्र०)
(२) प्रश्न-तियंचादिक तो पराधीनरूपसे भूख प्यासादिक सहन करते हैं किंतु जो स्वाधीनतासे धर्मकी बुद्धिसे उपवासादिरूप तप करे उस के तो निर्जरा होगी न ?
उत्तर-धर्मकी बुद्धिसे बाह्य उपवासादिक करे किन्तु वहाँ शुभ, अशुभ या शुद्ध रूप जैसा उपयोग परिणमता है उसीके अनुसार बंध या निर्जरा होती है । यदि अशुभ या शुभरूप उपयोग हो तो वध होता है और सम्यग्दर्शन पूर्वक शुद्धोपयोग हो तो धर्म होता है। यदि वाह्य उपवाससे निर्जरा होती हो तो ज्यादा उपवासादि करनेसे ज्यादा निर्जरा हो और थोड़े उपवासादि करनेसे थोड़ी निर्जरा होगी ऐसा नियम हो जायगा तथा निर्जराका मुख्य कारण उपवासादि ही हो जायगा किंतु ऐसा नहीं होता, क्योकि बाह्य उपवासादि करने पर भी यदि दुष्ट परिणाम करे तो उसके निर्जरा कैसे होगी ? इससे यह सिद्ध होता है कि अशुभ, शुभ या शुद्धरूपसे जैसा उपयोगका परिणमन होता है उसीके अनुसार बंध या निर्जरा होती है इसीलिये उपवासादि तप निर्जराके मुख्य कारण नहीं हैं, किन्तु अशुभ तथा शुभ परिणाम तो वन्धके कारण हैं और शुद्ध परिणाम निर्जराका कारण है।
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मोक्षशास्त्र (३) प्रश्न-यदि ऐसा है तो सूत्र में ऐसा क्यों कहा कि 'तपसे भी निर्जरा होती है।'
उत्तर-बाह्य उपवासादि तप नही किन्तु तपकी व्याख्या इसप्रकार है कि 'इच्छा निरोधस्तपः' अर्थात् इच्छाको रोकना सो तप है । जो शुभ अशुभ इच्छा है सो तप नही है किन्तु शुभ-अशुभ इच्छाके दूर होनेपर जो शुद्ध उपयोग होता है सो सम्यक् तप है और इस तपसे ही निर्जरा होती है।
(४) प्रश्न-पाहारादि लेनेरूप अशुभ भावकी इच्छा दूर होनेपर तप होता है किन्तु उपवासादि या प्रायश्चित्तादि शुभ कार्य है इसकी इच्छा तो रहती है न ?
उत्तर--ज्ञानी पुरुषके उपवासादिकी इच्छा नहीं किंतु एक शुद्धोपयोगकी ही भावना है। ज्ञानी पुरुष उपवासादिके कालमें शुद्धोपयोग बढ़ाता है, किंतु जहाँ उपवासादिसे शरीरको या परिणामोंकी शिथिलताके द्वारा शुद्धोपयोग शिथिल होता जानता है वहाँ आहारादिक ग्रहण करता है । यदि उपवासादिसे ही सिद्धि होती हो तो श्री अजितनाथ आदि तेईस तीर्थकर दीक्षा लेकर दो उपवास ही क्यों धारण करते ? उनकी तो शक्ति भी बहुत थी, परन्तु जैसा परिणाम हुवा वैसे ही साधनके द्वारा एक चीतराग शुद्धोपयोगका अभ्यास किया ।
(मो० प्र० पृ० ३३६ ) (५) प्रश्न-यदि ऐसा है तो अनशनादिककी तप संज्ञा क्यों कही है।
उत्तर-अनशनादिकको बाह्य तप कहा है। बाह्य अर्थात् बाहरमें दूसरोंको दिखाई देता है कि वह तपस्वी है। तथापि वहाँ भी स्वयं जैसा अंतरंग परिणाम करेगा वैसा ही फल प्राप्त करेगा । शरीरको क्रिया जीवको कुछ फल देनेवाली नही है। सम्यग्दृष्टि जीवके वीतरागता बढ़तो है वही सच्चा ( यथार्थ ) तप है । अनशनादिकको मात्र निमित्तको अपेक्षा से 'तप' सज्ञा दी गई है।
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अध्याय ६ सूत्र ३-४ ५-तपके फलके बारेमें स्पष्टीकरण सम्यग्दृष्टिके तप करनेसे निर्जरा होती है और साथमें पुण्यकर्मका बन्ध भी होता है परन्तु ज्ञानी पुरुषोके तपका प्रधान फल निर्जरा है इसी. लिये इस सूत्रमे ऐसा कहा है कि तपसे निर्जरा होती है। जितनी तपमे न्यूनता होती है उतना पुण्यकर्मका बन्ध भी हो जाता है। इस अपेक्षासे पुण्यका बन्ध होना यह तपका गौण फल कहलाता है। जैसे खेती करनेका प्रधान फल तो धान्य उत्पन्न करना है, किन्तु भूसा आदि उत्पन्न होना यह उसका गौणफल है उसीप्रकार यहाँ ऐसा समझना कि सम्यग्हष्टिके तपका जो विकल्प आता है वह रागरूप होता है अतः उसके फलमे पुण्य बन्ध हो जाता है और जितना राग टूटकर ( दूर होकर ) वीतरागभाव-शुद्धोपयोग बढ़ता है वह निर्जराका कारण है। आहार पेटमे जाय या न जाय वह बन्ध या निर्जराका कारण नहीं है क्योकि यह परद्रव्य है और परद्रव्य का परिणमन आत्माके आधोन नही है इसीलिये उसके परिणमनसे आत्मा को लाभ नुकसान नहीं होता। जीवके अपने परिणामसे ही लाभ या नुकसान होता है।
६-अध्याय ८ सूत्र २३ मे भी निर्जरा सम्बन्धी वर्णन है अतः उस सूत्रकी टीका यहाँ भी बाँचना । तपके १२ भेद बतलाये हैं इस संवधी विशेष स्पष्टीकरण इसी अध्यायके १९-२० वें सूत्रमे किया गया है अता वहाँसे देख लेना ॥३॥
गुप्तिका लक्षण और भेद सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः ॥४॥ अर्थ-[सम्यक् योगनिग्रहो ] भले प्रकार योगका निग्रह करना सो [ गुतिः ] गुप्ति है।
टीका १-इस सूत्र में सम्यक् शब्द बहुत उपयोगी है, वह यह बतलाता है कि सम्यग्दर्शनपूर्वक ही गुप्ति होती है; अज्ञानीके गुप्ति नही होती । तथा
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मोक्षशाख सम्यक् शब्द यह भी बतलाता है कि जिस जीवके गुप्ति होती है उस जीवके विषय सुखकी अभिलाषा नही होती। यदि जीवके संक्लेशता ( आकुलता) हो तो उसके गुप्ति नहीं होती। दूसरे सूत्रकी टीकामें गुप्तिका स्वरूप बतलाया है वह यहाँ भी लागू होता है ।
२. गुप्तिकी व्याख्या (१) जीवके उपयोगका मनके साथ युक्त होना सो मनोयोग है, वचनके साथ युक्त होना सो वचनयोग है और कायके साथ युक्त होना सो काययोग है तथा उसका अभाव सो अनुक्रमसे मनगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति है इस तरह निमित्तके अभावकी अपेक्षासे गुप्तिके तीन भेद है ।
पर्यायमें शुद्धोपयोगकी हीनाधिकता होती है तथापि उसमें शुद्धता तो एक ही प्रकारको है; निमित्तकी अपेक्षासे उसके अनेक भेद कहे जाते हैं ।
जब जीव वीतरागभावके द्वारा अपनी स्वरूप गुप्तिमें रहता है तब मन, वचन और कायकी ओरका आश्रय छूट जाता है, इसीलिये उसकी नास्तिकी अपेक्षासे तीन भेद होते हैं, ये सब भेद निमित्तके हैं ऐसा जानना ।
(२) सर्व-मोह-रागद्वेषको दूर करके खंडरहित अद्वैत परम चैतन्यमें भलीभांति स्थित होना सो निश्चयमनोगुप्ति है; सम्पूर्ण असत्यभाषाको इस तरह त्यागना कि (अथवा इस तरह मौनव्रत रखना कि ) मूर्तिक द्रव्यमें, प्रमूर्तिक द्रव्यमें या दोनोंमें वचनकी प्रवृत्ति रुके और जीव परमचैतन्यमें स्थिर हो सो निश्चयवचनगुप्ति है । संयमधारी मुनि जब अपने चैतन्यस्वरूप चैतन्यशरीरसे जड़ शरीरका भेदज्ञान करता है (अर्थात् शुद्धात्माके अनुभवमे लोन होता है ) तब अंतरंगमें स्वात्माको उत्कृष्ट मूर्तिकी निश्चलता होना सो कायगुप्ति है । ( नियमसार गाथा ६९-७० और टीका )
(३) अनादि अज्ञानी जीवोंने कभी सम्यग्गुप्ति धारण नही की । अनेकबार द्रव्यलिंगी मुनि होकर जीवने शुभोपयोगरूप गुप्ति-समिति आदि निरतिचार पालन की किन्तु वह सम्यक् न थी। किसी भी जीवको सम्यग्दर्शन प्राप्त किये बिना सम्यग्गुप्ति नही हो सकती और उसका भव
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अध्याय ६ सूत्र ४-५
६६३ भ्रमण दूर नहीं हो सकता। इसलिये पहले सम्यग्दर्शन प्रगट करके क्रमक्रमसे आगे बढ़कर सम्यग्गुप्ति प्रगट करनी चाहिये।।
(४) छठे गुणस्थानवर्ती साधुके शुभभावरूप गुप्ति भी होती है इसे व्यवहार गुप्ति कहते हैं, किन्तु वह प्रात्माका स्वरूप नहीं है, वह शुभ विकल्प है इसीलिये ज्ञानी उसे हेयरूप समझते हैं, क्योंकि इससे वन्ध होता है, इसे दूर कर साधु निर्विकल्पदशामे स्थिर होता है। इस स्थिरताको निश्चयगुप्ति कहते हैं; यह निश्चयगुप्ति सवरका सच्चा कारण है ॥४॥
दूसरे सूत्रमें संवरके ६ कारण बतलाये हैं, उनमेसे गुप्तिका वर्णन पूर्ण हुआ अब समितिका वर्णन करते है।
समितिके ५ भेद ईाभाषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः ॥५॥
अर्थ-[ ईर्याभाषषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः ] सम्यक् ईर्या, सम्यक् भाषा, सम्यक् ऐषरणा, सम्यक् प्रादाननिक्षेप और सम्यक् उत्सर्ग-ये पाँच [ समितयः ] समिति हैं (चौथे सूत्रका 'सम्यक्' शब्द इस सूत्रमे भी लागू होता है )
टीका १-समितिका स्वरूप और उस सम्बन्धी होनेवाली भूल
(१) अनेकों लोग परजीवोंकी रक्षाके लिये यत्नाचार प्रवृत्तिको समिति मानते है, किन्तु यह ठीक नही है, क्योकि हिंसाके परिणामोसे तो पाप होता है, और यदि ऐसा माना जावे कि रक्षाके परिणामोसे संवर होता है तो फिर पुण्यबन्धका कारण कौन होगा ? पुनश्च एषणा समितिमे भी यह अर्थ घटित नहीं होता क्योकि वहाँ तो दोष दूर होता है किन्तु किसी पर जीवकी रक्षाका प्रयोजन नहीं है।
(२) प्रश्न-तो फिर समितिका यथार्थ स्वरूप क्या है ?
उचर-मुनिके किंचित् राग होने पर गमनादि क्रिया होती है, वहां उस क्रियामें अति आसक्तिके अभावसे उनके प्रमादरूप प्रवृत्ति नहीं
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मोक्षशास्त्र होती, तथा दूसरे जीवोंको दुःखी करके अपना गमनादिरूप प्रयोजन नहीं साधते, इसीलिये उनसे स्वयं दया पलती है, इसी रूपमें यथार्थ समिति है।
(देखो मोक्षमार्ग प्रकाशक देहली पृष्ठ ३३५) अ-अभेद उपचाररहित जो रत्नत्रयका मार्ग है, उस मार्गरूप परम धर्म द्वारा अपने प्रात्म स्वरूपमें 'सम' अर्थात् सम्यक् प्रकारसे 'इता' गमन तथा परिणमन है सो समिति है । अथवा
ब-स्व आत्माके परम तत्त्वमें लीन स्वाभाविक परमज्ञानादि परम धर्मोकी जो एकता है सो समिति है। यह समिति संवर-निर्जरारूप
(देखो श्री नियमसार गाथा ६१) (३) सम्यग्दृष्टि जीव जानता है कि आत्मा परजीवका घात नहीं कर सकता, परद्रव्योंका कुछ नहीं कर सकता, भाषा बोल नहीं सकता, शरीरकी हलन-चलनादिरूप क्रिया नहीं कर सकता, शरीर चलने योग्य हो तव स्वयं उसकी क्रियावती शक्तिसे चलता है, परमाणु भाषारूपसे परिणमनेके योग्य हो तब स्वयं परिणमता है, पर जीव उसके आयुकी योग्यताके अनुसार जीता या मरता है, लेकिन उस कार्यके समय अपनी योग्यतानुसार किसी जीवके राग होता है, इतना निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है, इसीलिये निमित्तकी अपेक्षासे समितिके पाँच भेद होते हैं, उपादान अपेक्षा तो भेद नही पड़ता।
(४) गुप्ति निवृत्ति स्वरूप है और समिति प्रवृत्ति स्वरूप है। सम्यग्दृष्टिको समितिमें जितने अंशमें वीतरागभाव है उतने अंशमें संवर है और जितने अंशमें राग है उतने अंशमें वन्ध है।
(५) मिथ्यादृष्टि जीव तो ऐसा मानता है कि मैं पर जीवोंको बचा सकता हूँ तथा मैं पर द्रव्योंका कुछ कर सकता हूँ, इसीलिये उसके समिति होती ही नहीं। द्रव्यलिंगी मुनिके शुभोपयोगरूप समिति होती है किन्तु वह सम्यक् समिति नही है और संवरका कारण भी नहीं है। पुनश्च वह तो गुभोपयोगको धर्म मानता है, इसीलिये वह मिथ्यात्वी है।
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अध्याय ६ सूत्र ५
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२- पहले समितिको आस्रवरूप कहा था और यहाँ संवररूप कहा है, इसका कारण बतलाते है
छट्ठ े अध्यायके ५ वे सूत्रमे पच्चीस प्रकारकी क्रियाओको आस्रव का कारण कहा है; वहाँ गमन आदिमे होनेवाली जो शुभरागरूप क्रिया है सो ईर्यापथ क्रिया है और वह पांच समितिरूप है ऐसा बतलाया है और उसे बंधके कारणोमे गिना है । परन्तु यहाँ समितिको संवरके कारणमें गिना है, इसका कारण यह है कि, जैसे सम्यग्दृष्टिक्रे वीतरागताके अनुसार पाँच समिति सवरका कारण होती है वैसे उसके जितने श्रशमे राग है उतने अंश में वह श्रास्रवका भी कारण होती है । यहाँ सवर अधिकारमे संवरकी मुख्यता होनेसे समितिको संवरके कारणरूपसे वर्णन किया है और छट्ट अध्यायमे आस्रवकी मुख्यता है अतः वहाँ समितिमें जो राग है उसे आसव के कारणरूपसे वर्णन किया है ।
३--उपरोक्त प्रमाणानुसार समिति वह चारित्रका मिश्रभावरूप है ऐसा भाव सम्यग्दृष्टिके होता है, उसमे आंशिक वीतरागता है ओर आंशिक राग है । जिस अंशमे वीतरागता है उस प्रशके द्वारा तो सवर ही होता है और जिस श्रंशमें सरागता है । उस अंशके द्वारा बघ हो होता है । सम्यग्दृष्टिके ऐसे मिश्ररूप भावसे तो सवर और बघ ये दोनों कार्य होते हैं किंतु अकेले रागके द्वारा ये दो कार्य नही हो सकते; इसीलिये 'अकेले प्रशस्त राग' से पुण्याश्रव भी मानना और संवर निर्जरा भो मानना सो भ्रम है । मिश्ररूप भावमें भी यह सरागता है और यह वीतरागता है ऐसी यथार्थ पहिचान सम्यग्दृष्टिके ही होती है, इसीलिये वे अवशिष्ट सरागभावको हेयरूपसे श्रद्धान करते हैं । मिथ्यादृष्टि के सरागभाव और वीतरागभावकी यथार्थ पहिचान नही है, इसीलिये वह सरागभावमे संवरका भ्रम करके प्रशस्त रागरूप कार्योको उपादेयरूप श्रद्धान करता है । ( मो० प्रकाशक - पृष्ठ ३३४-३५ ) ४ – समितिके पांच भेद
जब साधु गुप्तिरूप प्रवर्तनमे स्थिर नही रह सकते तव वे ईर्ष्या, भाषा, एषरणा, श्रादान निक्षेप और उत्सर्ग इन पाँच समितिमे प्रवर्तते है
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मोक्षशास्त्र उस समय असंयमके निमित्तसे बन्धनेवाला कर्म नहीं बन्यता सो उतना संवर होता है। यह समिति मुनि और श्रावक दोनों यथायोग्य पालते हैं।
(देखो पुरुषार्थ सिद्धय पाय गाथा २०३ का भावार्थ ) पांच समितिकी व्याख्या निम्नप्रकार है:ईर्यासमिति--चार हाथ आगे भूमि देखकर शुद्धमार्गमें चलना। भाषासमिति-हित, मित और प्रिय वचन बोलना।
एषणासमिति-श्रावकके घर; विधिपूर्वक दिनमें एक ही बार निर्दोष आहार लेना सो एषणासमिति है।
आदाननिक्षेपसमिति-सावधानी पूर्वक निर्जंतु स्थानको देखकर वस्तुको रखना, देना तथा उठाना ।
उत्सर्गसमिति- जीव रहित स्थानमें मल-मूत्रादिका क्षेपण करना।
यह व्यवहारा व्याख्या है। यह मात्र निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध बतलाती है, परन्तु ऐसा नही समझना कि जीव पर द्रव्यका कर्ता है और पर द्रव्यकी अवस्था जीवका कर्म है ।। ५ ॥
__ दूसरे सूत्र में संवरके ६ कारण बतलाये है, उनमें से समिति और गुप्तिका वर्णन पूर्ण हुमा । अब दश धर्मका वर्णन करते है।
दश धर्म उत्तमक्षमामार्दवाणवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाम्चिन्य
ब्रह्मचर्याणि धर्मः॥६॥ अर्थ-[ उत्तमक्षमामार्दवावशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्याणि ] उत्तम' क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम प्रार्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम सयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम प्राचिन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य ये दश [ धर्माः ] धर्म हैं।
टीका १. प्रश्न-ये दश प्रकारके धर्म किसलिये कहे ? उत्तर-प्रवृत्तिको रोकनेके लिये प्रथम गुप्ति बतलाई; उस गुप्तिमें
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अध्याय ६ सूत्र ६
६६७ प्रवृत्ति करने में जव जीव असमर्थ होता है तब प्रवृत्तिका उपाय करनेके लिये समिति कही। इस समितिमे प्रवर्तनेवाले मुनिको प्रमाद दूर करनेके लिये ये दश प्रकारके धर्म बतलाये हैं।
२-इस सूत्र में बतलाया गया 'उत्तम' शब्द क्षमा आदि दशों धर्मों को लागू होता है, यह गुणवाचक शब्द है । उत्तम क्षमादि कहनेसे यहाँ रागरूप क्षमा न लेना किन्तु स्वरूपकी प्रतीति सहित क्रोधादि कषायके अभावरूप क्षमा समझना । उत्तम क्षमादि गुण प्रगट होनेपर क्रोधादि कषायका अभाव होता है, उसीसे आस्रवकी निवृत्ति होती है अर्थात् संवर होता है।
३-धर्मका स्वरूप और उस सम्वन्धी होनेवाली भूल
जिसमे न राग द्वेष है, न पुण्य है, न कषाय है, न न्यून-अपूर्ण है और न विकारित्व है ऐसे पूर्ण वीतराग ज्ञायकमात्र एकरूप स्वभावकी जो प्रतीति लक्ष-ज्ञान और उसमें स्थिर होना सो सच्चा धर्म है, यह वीतरागकी आज्ञा है।
बहुतसे जीव ऐसा मानते हैं कि बंधादिकके भयसे अथवा स्वर्ग मोक्ष की इच्छासे क्रोधादि न करना सो धर्म है। परन्तु उनकी यह मान्यता मिथ्या है-असत् है क्योकि उनके क्रोधादि करनेका अभिप्राय तो दूर नही हया । जैसे कोई मनुष्य राजादिकके भयसे या महन्तपनके लोभसे परस्त्री सेवन नही करता तो इस कारणसे उसे त्यागी नहीं कहा जा सकता; इसी प्रमाणसे उपरोक्त मान्यता वाले जीव भी क्रोधादिकके त्यागी नहीं हैं, और न उनके धर्म होता है।
(मो० प्र०) प्रश्न-तो क्रोधादिकका त्याग किस तरह होता है ?
उचर-पदार्थ इष्ट-अनिष्ट मालूम होनेपर क्रोधादिक होते हैं। तत्त्वज्ञानके अभ्याससे जब कोई पदार्थ इष्ट-अनिष्ट मालूम न हो तव क्रोधादिक स्वयं उत्पन्न नही होते और तभी यथार्थ धर्म होता है।
४-क्षमादिककी व्याख्या निम्नप्रकार है:
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मोक्षशास्त्र (१) क्षमा-निंदा, गाली, हास्य, अनादर, मारना, शरीरका घात करने आदि होनेपर अथवा ऐसे प्रसंगोंको निकट पाते देखकर भावोंमें मलिनता न होना सो क्षमा है।
(२) मार्दव-जाति आदि आठ प्रकारके मदके आवेशसे होनेवाले अभिमानका अभाव सो मार्दव है अथवा मैं परद्रव्यका कुछ भी कर सकता हूँ ऐसी मान्यतारूप अहंकारभावको जड़मूलसे उखाड़ देना सो मार्दव है ।
(३) आर्जव-माया-कपटसे रहितपन, सरलता-सीधापन को आर्जव कहते हैं।
(४) शौच-लोभसे उत्कृष्टरूपसे उपराम पाना-निवृत्त होना सो शौच-पवित्रता है।
(५) सत्य-सत् जीवोंमें-प्रशंसनीय जीवोंमें साधु वचन ( सरल वचन ) बोलनेका जो भाव है सो सत्य है।
[प्रश्न-उत्तम सत्य और भाषा समिति में क्या अन्तर है ?
उत्तर-समितिरूपमें प्रवर्तने वाले मुनिके साधु और असाधु पुरुषोंके प्रति वचन व्यवहार होता है और वह हित, परिमित वचन है । उस मुनिको शिष्य तथा उनके भक्त ( श्रावकों ) में उत्तम सत्य ज्ञान, चारित्रके लक्षणादिक सीखने-सिखानेमे अधिक भाषा व्यवहार करना पड़ता है उसे उत्तम सत्य धर्म कहा जाता है ।]
(६) संयम--समितिमें प्रवर्तनेवाले मुनिके प्राणियोंको पीड़ा न पहुँचाने-करनेका जो भाव है सो संयम है ।
(७) तप-भावकर्मका नाश करनेके लिये स्व की शुद्धताके प्रतपन को तप कहते हैं।
(C) त्याग-संयमी जीवोंको योग्य-ज्ञानादिक देना सो त्याग है।
(९) आकिंचन्य--विद्यमान शरीरादिकमें भी संस्कारके त्यागके लिये 'यह मेरा है' ऐसे अनुरागको निवृत्तिको आकिंचन्य कहते हैं । आत्मा
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अध्याय ६ सूत्र ६
६६६ स्वरूपसे भिन्न ऐसे शरीरादिक में या रागादिकमें ममत्वरूप परिणामोंके अभावको आकिंचन्य कहते है ।
(१) ब्रह्मचर्य-स्त्री मात्रका त्यागकर अपने मात्म स्वरूपमें लीन रहना सो ब्रह्मचर्य है। पूर्वमे भोगे हुये स्त्रियोंके भोगका स्मरण तथा उसकी कथा सुननेके त्यागसे तथा स्त्रियोंके पास बैठनेके छोड़नेसे और स्वच्छंद प्रवृत्ति रोकनेके लिये गुरुकुलमे रहनेसे पूर्णरूपेण ब्रह्मचर्य पलता है। इन दशों शब्दोमें 'उत्तम' शब्द जोड़नेसे 'उत्तम' क्षमा आदि दश धर्म होते है । उत्तम क्षमा आदि कहनेसे उसे शुभ रागरूप न समझना किन्तु कषाय रहित शुभभावरूप समझना । ( स० सि० )
५-दश प्रकारके धर्मोका वर्णन क्षमाके निम्न प्रकार ५ भेद हैं:
(१) जैसे स्वयं निर्बल होनेपर सबलका विरोध नहीं करता, उसी प्रकार 'यदि मैं क्षमा करूं तो मुझे कोई परेशान न करेगा' ऐसे भावसे क्षमा रखना । इस क्षमामे ऐसी प्रतीति न हुई कि मैं क्रोध रहित ज्ञायक ऐसा त्रिकाल स्वभावसे शुद्ध हूँ' किन्तु प्रतिकूलताके भयवश सहन करनेका राग हुआ इसीलिये वह यथार्थ क्षमा नही है, धर्म नही है ।
(२) यदि मैं क्षमा करूं तो दूसरी तरफसे मुझे नुकसान न हो किंतु लाभ हो-ऐसे भावसे सेठ आदिके उलाहनेको सहन करे, प्रत्यक्षमे क्रोध न करे, किन्तु यह यथार्थ क्षमा नही है, धर्म नही है।
(३) यदि मैं क्षमा करू तो कर्मबंधन रुक जायगा, क्रोध करनेसे नीच गतिमें जाना पड़ेगा इसलिये क्रोध न करू-ऐसे भावसे क्षमा करे किन्तु यह भी सच्ची क्षमा नही है, यह धर्म नहीं है, क्योकि उसमे भय है, किन्तु नित्य ज्ञातास्वरूप की निर्भयता-निःसंदेहता नही है।
(४) ऐसी वीतरागकी आज्ञा है कि क्रोधादि नही करना, इसी प्रकार शास्त्रमे कहा है, इसलिये मुझे क्षमा रखना चाहिये, जिससे मुझे पाप नही लगेगा और लाभ होगा-ऐसे भावसे शुभ परिणाम रखे और उसे
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मोक्षशास्त्र वीतरागकी आज्ञा माने किन्तु यह यथार्थ क्षमा नहीं है; क्योंकि यह पराधीन क्षमा है, यह धर्म नही है।
(५) 'सच्ची क्षमा' अर्थात् 'उत्तम क्षमा' का स्वरूप यह है कि आत्मा अविनाशी, अबध, निर्मल ज्ञायक ही है, इसके स्वभावमें शुभाशुभ परिणाम का कर्तृत्व भी नही है। स्वयं जैसा है वैसा स्व को जानकर, मानकर उसमें ज्ञाता रहना-स्थिर होना सो वीतरागकी आज्ञा है और यह धर्म है। यह पांचवी क्षमा क्रोधमें युक्त न होना, क्रोधका भी ज्ञाता ऐसा सहज अकषाय क्षमा स्वरूप निज स्वभाव है । इसप्रकार निर्मल विवेककी जागृति द्वारा शुद्धस्वरूपमें सावधान रहना सो उत्तम क्षमा है।
नोट-जैसे क्षमाके पांच भेद बतलाये तथा उसके पाचवें प्रकारको उत्तम क्षमाधर्म बतलाया, उसी प्रकार मार्दव, आर्जव, आदि सभी धर्मोमें ये पांचों प्रकार समझना और उन प्रत्येकमें पांचवां भेद ही धर्म है ऐसा समझना।
६-क्षमाके शुभ विकल्पका मै कर्ता नहीं हूँ ऐसा समझकर रागद्वेषसे छूटकर स्वरूपकी सावधानी करना सो स्व की क्षमा है स्व सन्मुखता के अनुसार रागादिकी उत्पत्ति न हो वही क्षमा है । 'क्षमा करना, सरलता रखना' ऐसा निमित्तकी भाषामें बोला तथा लिखा जाता है, परन्तु इसका अर्थ ऐसा समझना कि शुभ या शुद्ध परिणाम करनेका विकल्प करना सो भी सहज स्वभावरूप क्षमा नही है । 'मैं सरलता रखू, क्षमा करू' ऐसा भंगरूप विकल्प राग है, क्षमा धर्म नही है, क्योंकि यह पुण्य परिणाम भी बंधभाव है, इससे प्रबंध अरागी मोक्षमार्गरूप धर्म नहीं होता और पुण्यसे मोक्षमार्ग में लाभ-या पुष्टि हो ऐसा भी नही है ॥६॥
दूसरे सूत्र में कहे गये संवर के छह कारणोंमेसे पहले तीन कारणों का वर्णन पूर्ण हुआ । अब चौथा कारण बारह अनुप्रेक्षा हैं, उनका वर्णन करते हैं।
बारह अनुप्रेक्षा अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुच्यावसंवरनिर्जरा
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अध्याय ६ सूत्र ७
लोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्यातत्त्वानुचिंतनमनुप्रेक्षाः॥७॥
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अर्थ – [ अनित्याशरणसंसारकत्वान्यत्वाशुंच्या लवसंवर निर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्यातत्त्वानुचितनं ] अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, "अन्यत्व, अशुचि, श्रास्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म इन बारहके स्वरूपका बारंबार चितवन करना सो [ अनुप्रेक्षाः ] अनुप्रेक्षा है । टीका
१- कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि अनित्यादि चितवन से शरीरादिको बुरा जान - हितकारी न जान उससे उदास होना सो अनुप्रेक्षा है, किंतु यह ठीक नही है; यह तो जैसे पहले कोई मित्र था तब उसके प्रति राग था और बादमे उसके अवगुण देखकर उदासीन हुआ उसी प्रकार पहले शरीरादिकसे राग था किन्तु बादमे उसके अनित्यत्व आदि अवगुण देखकर उदासीन हुआ, इसकी यह उदासीनता द्वेषरूप है, यह यथार्थ अनुप्रेक्षा नही है | ( मो० प्र० )
प्रश्न- - तो यथार्थ अनुप्रेक्षाका स्वरूप क्या है ?
उत्तर- जैसा स्व का - आत्माका और शरीरादिकका स्वभाव है वैसा पहचान कर भ्रम छोड़ना और इस शरीरादिकको भला जानकर राग न करना तथा बुरा जानकर द्वेष न करना; ऐसी यथार्थ उदासीनता के लिये अनित्यत्व आदिका यथार्थ चितवन करना सो ही वास्तविक अनुप्रेक्षा है । उसमे जितनी वीतरागता बढती है उतना संवर है और जो राग रहता है वह बंधका कारण है । यह अनुप्रेक्षा सम्यग्दृष्टिके ही होती है क्योंकि यहीं सम्यक् अनुप्रेक्षा बतलाई है । अनुप्रेक्षाका अर्थ है कि आत्माको अनुसरण कर इसे देखना ।
२- जैसे अग्निसे तपाया गया लोहेका पिंड तन्मय ( अग्निमय ) हो जाता है उसी प्रकार जब ग्रात्मा क्षमादिकमें तन्मय हो जाता है तब क्रोधादिक उत्पन्न नही होते । उस स्वरूपको प्राप्त करनेके लिये स्व सन्मुखतापूर्वक अनित्य आदि बारह भावनाप्रोका वारम्बार चितवन करना जरूरी है । वे बारह भावनाये आचार्यदेवने इस सूत्रमे वतलाई हैं ।
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मोक्षशास्त्र ३-बारह भावनाओंका स्वरूप (१) अनित्यानुप्रेक्षा-दृश्यमान, संयोगी ऐसे शरीरादि समस्त पदार्थ इन्द्रधनुष, बिजली अथवा पानीके बुदबुदेके समान शीघ्र नाश हो जाते हैं, ऐसा विचार करना सो अनित्य अनुप्रेक्षा है।
शुद्ध निश्चयसे आत्माका स्वरूप देव, असुर और मनुष्यके वैभवादिकसे रहित है, आत्मा ज्ञानस्वरूपी सदा शाश्वत है और संयोगी भाव अनित्य है-ऐसा चितवन करना सो अनित्य भावना है।
(२) अशरणानुप्रेक्षा--जैसे निर्जन वनमे भूखे सिहके द्वारा पकड़े हुये हिरणके बच्चेको कोई शरण नही है, उसी प्रकार संसारमें जीवको कोई शरणभूत नही है। यदि जीव स्वयं स्व के शरणरूप स्वभावको पहिचानकर शुद्धभावसे धर्मका सेवन करे तो वह सभी प्रकारके दुःखसे बच सकता है, अन्यथा वह प्रतिसमय भावमरणसे दु:खी है-ऐसा चितवन करना सो अशरण अनुप्रेक्षा है।
आत्मामे ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र और सम्यकतप-रहते हैं इससे आत्मा ही शरणभूत है और इनसे पर ऐसे सब अशरण हैं-ऐसा चितवन करना वह अशरण भावना है ।
(३) संसारानुप्रेक्षा-इस चतुर्गतिरूप संसारमें भ्रमण करता हुआ जीव जिसका पिता था उसीका पुत्र, जिसका पुत्र था उसीका पिता, जिसका स्वामी था उसीका दास, जिसका दास था उसीका स्वामी हो जाता है अथवा वह स्वयं स्व का ही पुत्र हो जाता है, खी, धन, देहादिकको अपना संसार मानना भूल है, जड़ कर्म जीवको संसारमें रुलानेवाला नहीं है। इत्यादि प्रकार से ससारके स्वरूपका और उसके कारणरूप विकारी भावों के स्वरूपका विचार करना सो संसार अनुप्रेक्षा है।
यद्यपि आत्मा अपनी भूलसे अपने में राग-द्वेष-अज्ञानरूप मलिन भावोंको उत्पन्न करके संसाररूप घोर वनमे भटका करती है-तथापि निश्चय नयसे आत्मा-विकारी भावोसे और कर्मोसे रहित है-ऐसा चितवन करना सो संसार भावना है।
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मध्याय ६ सूत्र ७
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(४) एकत्वानुप्रेक्षा — जीवन, भरण-संसार और मोक्ष आदि दशाओं मे जीव स्वयं प्रकेला ही है, स्वयं स्वसे ही विकार करता है, स्वयं स्वसे ही धर्म करता है, स्वयं स्वसे ही सुखी दुःखी होता है । जीवमें पर द्रव्योंका अभाव है इसलिये कर्म या पर द्रव्य पर क्षेत्र, पर कालादि जीवको कुछ भी लाभ या हानि नही कर सकते - ऐसा चितवन करना सो एकत्व अनुप्रेक्षा है ।
मैं एक हैं, ममता रहित है, शुद्ध हूँ, ज्ञान दर्शन लक्षणवाला हूँ, कोई अन्य परमाणुमात्र भी मेरा नही है, शुद्ध एकत्व ही उपादेय है ऐसा चितवन करना सो एकत्व भावना है ।
(५) अन्यत्वानुप्रेक्षा - प्रत्येक श्रात्मा और सर्व पदार्थ सदा भिन्नभिन्न है, वे प्रत्येक अपना-अपना कार्य करते है । जीव पर पदार्थोका कुछ कर नही सकते और पर पदार्थ जीवका कुछ कर नही सकते । जीवके विकारी भाव भी जीवके त्रिकालिक स्वभावसे भिन्न हैं, क्योकि वे जीवसे अलग हो जाते है | विकारी भाव चाहे तीव्र हो या मन्द तथापि उससे आत्माको लाभ नही होता । श्रात्माको परद्रव्योसे और विकारसे पृथकत्व है ऐसे तत्त्वज्ञानकी भावना पूर्वक वैराग्यकी वृद्धि होनेसे अन्तमे मोक्ष होता है - इसप्रकार चितवन करना सो अन्यत्व अनुप्रेक्षा है ।
आत्मा ज्ञान दर्शन स्वरूप है और जो शरीरादिक बाह्य द्रव्य हैं वे सब श्रात्मा से भिन्न है । परद्रव्य छेदा जाय या भेदा जाय, या कोई ले जाय अथवा नष्ट हो जाय अथवा चाहे वैसा ही रहे किन्तु परद्रव्यका परिग्रह मेरा नही है - ऐसा चितवन करना सो अन्यत्व भावना है ।
(६) अशुचित्व अनुप्रेक्षा - शरीर स्वभावसे हो अशुचिमय है श्रीर जीव ( आत्मा ) स्वभावसे ही शुचिमय ( शुद्ध स्वरूप ) है; शरीर रुधिर, मांस, मल आदिसे भरा हुआ है, वह कभी पवित्र नही हो सकता; इत्यादि प्रकारसे आत्माको शुद्धताका ओर शरीरकी अशुद्धताका ज्ञान करके शरीरका ममत्व तथा राग छोड़ना और निज प्रात्मा के लक्षसे शुद्धिको वढ़ाना ।
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मोक्षशास्त्र शरीरके प्रति द्वेष करना अनुप्रेक्षा नहीं है किन्तु शरीरके प्रति इष्ट अनिष्टपने की मान्यता और राग द्वेष दूर करना और प्रात्माके पवित्र स्वभावकी तरफ लक्ष करनेसे तथा सम्यग्दर्शनादिककी भावनाके द्वारा प्रात्मा अत्यन्त पवित्र होता है-ऐसा बारम्बार चितवन करना सो अशुचित्व अनुप्रेक्षा है।
___ आत्मा देहसे भिन्न, कर्म रहित, अनन्त सुखका पवित्र स्थान है। इसकी नित्य भावना करना और विकारी भाव अनित्य, दुःखरूप; अशुचिमय है ऐसा जानकर उससे विमुख हो जानेकी भावना करना सो अशुचिभावना है।
(७) आस्रव अनुप्रेक्षा-मिथ्यात्व और रागद्वेषरूप अपने अपराधसे प्रति समय नवीन विकारीभाव उत्पन्न होता है । मिथ्यात्व मुख्य आस्रव है क्योंकि यह संसारकी जड़ है, इसलिये इसका स्वरूप जानकर उसे छोड़नेका चितवन करना सो आस्रव भावना है।
मिथ्यात्व, अविरति आदि प्रास्रवके भेद कहे हैं वे आस्रव निश्चय नयसे जीवके नही हैं। द्रव्य और भाव दोनों प्रकारके प्रास्रवरहित शुद्ध आत्माका चितवन करना सो आस्रव भावना है।
(८) संवर अनुप्रेक्षा-मिथ्यात्व और रागद्वेषरूप भावोंका रुकना सो भावसंवर है, उससे नवीन कर्मका आना रुक जाय सो द्रव्यसंवर है। प्रथम तो आत्माके शुद्ध स्वरूपके लक्षसे मिथ्यात्व और उसके सहचारी अनन्तानुबन्धी कषायका संवर होता है, सम्यग्दर्शनादि शुद्ध भाव संवर है और इससे आत्माका कल्याण होता है ऐसा चितवन करना सो संवर अनुप्रेक्षा है।
परमार्थ नयसे आत्मामें सवर ही नही है; इसीलिये संवर भाव विमुक्त शुद्ध आत्माका नित्य चितवन करना सो संवर भावना है।
निर्जरा अनुप्रेक्षा-अज्ञानीके सविपाक निर्जरासे प्रात्माका कुछ भी भला नही होता; किन्तु आत्माका स्वरूप जानकर उसके त्रिकाली स्वभावके पालम्बनके द्वारा शुद्धता प्रगट करनेसे जो निर्जरा होती है उससे
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अध्याय ६ सूत्र ७
६७५ आत्माका कल्याण होता है-इत्यादि प्रकारसे निर्जराके स्वरूपका विचार करना सो निर्जरा अनुप्रेक्षा है।
स्वकाल पक निर्जरा ( सविपाक निर्जरा ) चारों गतिवालोंके होती है किन्तु तपकृत निर्जरा ( अविपाक निर्जरा ) सम्यग्दर्शन पूर्वक व्रत धारियोंके ही होती है ऐसा चितवन करना सो निर्जरा भावना है।
(१०) लोक अनुप्रेक्षा-लोकालोकरूप अनन्त आकाशके मध्यमें चौदह राजू प्रमाण लोक है । इसके आकार तथा उसके साथ जीवका निमित्त नैमित्तिक संबंध विचारना और परमार्थकी अपेक्षासे आत्मा स्वयं ही स्वका लोक है इसलिये स्वयं स्वको ही देखना लाभदायक है, आत्माकी अपेक्षासे परवस्तु उसका अलोक है, इसलिये आत्माको उसकी तरफ लक्ष करनेकी आवश्यकता नही है। स्वके आत्म स्वरूप लोकमे ( देखने जाननेरूप स्वभावमे) स्थिर होनेसे परवस्तुएं ज्ञानमे सहजरूपसे जानी जाती है-ऐसा चितवन करना सो लोकानुप्रेक्षा है, इससे तत्त्वज्ञानकी शुद्धि होती है।
___ मात्मा निजके अशुभभावसे नरक तथा तिर्यंच गति प्राप्त करता है, शुभभावसे देव तथा मनुष्यगति पाता है और शुद्ध भावसे मोक्ष प्राप्त करता है-ऐसा चितवन करना सो लोक भावना है।
(११) बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा-रत्नत्रयरूप बोधि प्राप्त करनेमें महान् पुरुषार्थकी जरूरत है, इसलिये इसका पुरुषार्थ बढाना और उसका चितवन करना सो बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा है।
निश्चयनयसे ज्ञानमे हेय और उपादेयपनका भी विकल्प नहीं है इसलिये मुनिजनोके द्वारा ससारसे विरक्त होनेके लिये चितवन करना सो बोधिदुर्लभ भावना है।
(१२) धर्मानुप्रेक्षा-सम्यक् धर्मके यथार्थ तत्त्वोका वारम्बार चितवन करना; धर्म वस्तुका स्वभाव है; आत्माका शुद्ध स्वभाव ही स्वकाआत्माका धर्म है तथा प्रात्माके सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप धर्म अथवा दश लक्षणरूप धर्म अथवा स्वरूपकी हिंसा नही करनेरूप अहिंसाधर्म, वही
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मोक्षशास्त्र
धर्मं श्रात्माको इष्ट स्थान में ( सम्पूर्ण पवित्र दशा में ) पहुँचाता है, धर्म ही परम रसायन है । धर्म ही चिंतामणि रत्न है, धर्म ही कल्पवृक्ष - कामवेनु है और धर्म ही मित्र है, धर्म ही स्वामी है, धर्म ही वन्धु, हितु, रक्षक और साथ रहनेवाला है, धर्म ही शरण है, धर्म ही धन है, धर्म ही ग्रविनाशी है, धर्म ही सहायक है, और यही धर्मका जिनेश्वर भगवानने उपदेश किया है - इसप्रकार चितवन करना सो धर्म अनुप्रेक्षा है ।
निश्चयनयसे श्रात्मा श्रावकधर्म या मुनिधर्मसे भिन्न है, इसलिये माध्यस्थभाव अर्थात् रागद्वेष रहित निर्मल भावद्वारा शुद्धात्माका चितवन करना सो घर्म भावना है । ( श्री कुन्दकुन्दाचार्य कृत द्वादशानुप्रेक्षा ) ये बारह भेद निमित्तकी अपेक्षासे हैं । धर्म तो वीतरागभावरूप एक ही है, इसमे भेद नही होता । जहाँ राग हो वहाँ भेद होता है ।
४ – ये बारह भावना ही प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण, आलोचना और समाधि है, इसलिये निरन्तर अनुप्रेक्षाका चितवन करना चाहिये । ( भावना और अनुप्रेक्षा ये दोनों एकार्थ वाचक हैं )
५- इन अनुप्रेक्षानोंका चितवन करनेवाले जीव उत्तम क्षमादि धर्म पालते हैं और परीषहोंको जीतते हैं इसीलिये इनका कथन दोनोंके बीचमे किया गया है ||७||
दूसरे सूत्र मे कहे हुए संवरके छह कारणों में से पहले चार कारणोंका वर्णन पूर्ण हुआ । अव पाँचवे कारण परीषह जयका वर्णन करते हैं ।
परीषह सहन करनेका उपदेश
मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिसोढव्याः परीषहाः ॥८॥
अर्थ- [ मार्गाच्यवननिर्जरार्थं ] संवरके मार्गसे और कर्मोकी निर्जराके लिये [ परीषहाः परिसोढव्याः ] सहन करने योग्य हैं ( यह संवरका प्रकरण चल रहा है, कहे गये 'मार्ग' शब्दका अर्थ 'संवरका मार्ग' समझना । )
च्युत न होने बावीस परीषद अतः इस सूत्र में
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अध्याय ६ सूत्र ८
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टीका १-यहाँसे लेकर सत्रहवें सूत्र तक परीषहका वर्णन है। इस विषयमे जीवोकी बडी भूल होती है, इसलिये यह भूल दूर करनेके लिये यहाँ परीषह जयका यथार्थ स्वरूप बतलाया है। इस सूत्रमें प्रथम 'मार्गाच्यवन' शब्दका प्रयोग किया है इसका अर्थ है मार्गसे च्युत न होना । जो जीव मार्गसे ( सम्यग्दर्शनादिसे ) च्युत हो जाय उसके संवर नही होता किन्तु वन्ध होता है, क्योकि उसने परीषह जय नहीं किया किन्तु स्वयं विकारसे घाता गया। अब इसके बादके सूत्र ६-१०-११ के साथ सम्बन्ध बतानेको खास आवश्यकता है।
२~-दसवे सूत्रमे कहा गया है कि-दशवे, ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानमे बाईस परीषहोमेसे आठ तो होती ही नही अर्थात् उनको जीतना नही है, और वाकीकी चौदह परीषह होती हैं उन्हे वह जीतता है अर्थात् क्षुधा, तृषा आदि परीषहोसे उस गुणस्थानवर्ती जीव घाता नही जाता किन्तु उनपर जय प्राप्त करता है अर्थात् उन गुणस्थानोमें भूख, प्यास आदि उत्पन्न होनेका निमित्त कारणरूप कर्मका उदय होने पर भी वे निर्मोही जीव उनमे मुक्त नहीं होते, इसीलिये उनके क्षुधा तृषा आदि सम्बन्धी विकल्प भी नहीं उठता, इसप्रकार वे जीव उन परीषहो पर सम्पूर्ण विजय प्राप्त करते हैं। इसीसे उन गुणस्थानवर्ती जीवोके रोटो आदिका आहार औषधादिका ग्रहण तथा पानी आदि ग्रहण नही होता ऐसा नियम है।
३-परीषहके बारेमे यह बात विशेषरूपसे ध्यान रखनी चाहिये कि संक्लेश रहित भावोसे परीषहोको जीत लेनेसे ही संवर होता है । यदि दसमे ग्यारहवे तथा बारहवें गुणस्थानमें खाने पीने आदिका विकल्प आये तो सवर कैसे हो? और परीषह जय हुमा कैसे कहलाये ? दसमे सूत्रमे कहा है कि चौदह परीषहो पर जय प्राप्त करनेसे ही संवर होता है। सातवें गुणस्थानमे ही जीवके खाने पीनेका विकल्प नही उठता क्योकि वहाँ निर्विकल्प दशा है, वहाँ बुद्धिगम्य नही ऐसे अबुद्धिपूर्वक विकल्प होता है किन्तु वहाँ खाने पीनेके विकल्प नहीं होते इसलिये उन विकल्पोंके साथ
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मोक्षशास्त्र
निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध रखनेवाली ग्राहार पानीकी क्रिया भी नहीं होती । तो फिर दशमें गुरणस्थान में तो कषाय बिल्कुल सूक्ष्म होगई है और ग्यारहवें तथा बारहवें गुणस्थान में तो कषायका प्रभाव होनेसे निर्विकल्प दशा जम जाती है; वहाँ खाने पीनेका विकल्प ही कहाँसे हो सकता है ? खाने पीनेका विकल्प और उसके साथ निमित्तरूपसे सम्बन्ध रखनेवाली खाने पीनेकी क्रिया तो बुद्धिपूर्वक विकल्प दशामें ही होती है; इसीलिये वह विकल्प और क्रिया तो छट्टो गुणस्थान तक ही हो सकती है किन्तु उससे ऊपर नही होती अर्थात् सातवें आदि गुरणस्थान में नही होती । अतएव दसवें, ग्यारहवें और बारहवे गुरंगस्थानमे तो उसप्रकारका विकल्प तथा बाह्य क्रिया अशक्य है |
४—दसवे सूत्रमें कहा है कि दस - ग्यारह और बारहवें गुणस्थानमें अज्ञान परीषहका जय होता है सो अब इसके तात्पर्यका विचार करते हैं । अज्ञानपरीषहका जय यह बतलाता है कि वहाँ अभी केवलज्ञान उत्पन्न नही हुआ, किन्तु अपूर्ण ज्ञान है और उसके निमित्तरूप ज्ञानावरणी कर्मका उदय है । उपरोक्त गुणस्थानोंमें ज्ञानावरणीका उदय होने पर भी जीवके उस सम्बन्धी रंचमात्र आकुलता नही है । दशवें गुरणस्थान में सूक्ष्म कषाय है किन्तु वहाँ भी ऐसा विकल्प नही उठता कि 'मेरा ज्ञान न्यून है' और ग्यारहवे तथा बारहवे गुणस्थानमें तो अकषाय भाव रहता है इसीलिये वहाँ भी ज्ञानकी अपूर्णताका विकल्प नहीं हो सकता । इस तरह उनके अज्ञान ( ज्ञान अपूर्णता ) है तथापि उनका परीषह जय वर्तता है । इसी प्रमाणसे उन गुणस्थानोंमें भोजन पानका परीषह जय सम्बन्धी सिद्धान्त भी समझना ।
५- इस श्रध्यायके सोलहवें सूत्रमें वेदनीयके उदयसे ११ परीषह वतलाई हैं । उनके नाम-क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वघ, रोग, तृणस्पर्श और मल हैं ।
दसवें ग्यारहवे और बारहवें गुणस्थान में जीवके निज स्वभावसे ही इन ग्यारह परीपहोंका जय होता है ।
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श्रध्याय ६ सूत्र ८
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६ -- कर्मका उदय दो तरहसे होता है: - प्रदेशउदय और विपाकउदय | जब जीव विकार करता है तव उस उदयको विपाकउदय कहते हैं और यदि जीव विकार न करे तो उसे प्रदेशउदय कहते हैं । इस अध्याय में संवर निर्जराका वर्णन | यदि जीव विकार करे तो उसके न परीषह जय हो और न संवर निर्जरा हो । परीषह जयसे संवर निर्जरा होती है । दसवे - ग्यारहवे और बारहवे गुणस्थानमे भोजन-पानका परीषह जय कहा है; इसीलिये वहाँ उस सम्बन्धी विकल्प या बाह्य क्रिया नही होती ।
७- - परीषह जयका यह स्वरूप तेरहवे गुणस्थानमे विराजमान तीर्थंकर भगवान श्रीर सामान्य केवलियोके भी लागू होता है । इसीलिये उनके भी क्षुधा, तृषा आदि भाव उत्पन्न ही नही होते और भोजन - पानकी वाह्य क्रिया भी नही होती । यदि भोजन पानकी बाह्य क्रिया हो तो वह परीषह जय नही कहा जा सकता, परीषहजय तो सवर - निर्जराका कारण है | यदि भूख प्यास श्रादिके विकल्प होने पर भी क्षुधा परोषहजय तृषा परीषहजय आदि माना जावे तो परीषहजय संवर- निर्जराका कारण न ठहरेगा ।
८
- श्री नियमसारकी छुट्टी गाथामें भगवान श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने कहा है कि- १ क्षुधा, २ तृषा, ३ भय, ४ रोष, ५ राग, ६ मोह, ७ चिंता, ८ जरा, ह रोग, १० मरण, ११ स्वेद - पसीना, १२ खेद, १३ मदघमण्ड, १४ रति, १५ विस्मय, १६ निद्रा, १७ जन्म और १५ उद्वेग ये अठारह महादोष आप्त श्रहंत वीतराग भगवानके नही होते ।
६- भगवानके उपदिष्ट मागंसे न डिगने और उस मार्ग में लगातार प्रवर्तन करनेसे कर्मका द्वार रुक जाता है और इसीसे संवर होता है, तथा पुरुषार्थ के कारणसे निर्जरा होती है और उससे मोक्ष होता है, इसलिये परीषह सहना योग्य है ।
१०- परीषह जयका स्वरूप और उस सम्बन्धी होनेवाली भूल
परीषह जयका स्वरूप ऊपर कहा गया है कि क्षुघादि लगने पर
उस सम्बन्धी विकल्प भी न होने-न उठनेका नाम परीषह जय है । कितने
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मोक्षशास्त्र
ही जीव भूख आदि लगने पर उसके नाशके उपाय न करनेको परीपह सहना मानते हैं किन्तु यह मिथ्या मान्यता है । भूख प्यास श्रादिके दूर करने का उपाय न किया परन्तु अन्तरंगमें क्षुधादि श्रनिष्ट सामग्री मिलनेसे दुखी हुआ तथा रति आदिका कारण ( इष्ट सामग्री ) मिलनेसे सुखी हुआ ऐसा जो सुखदुखरूप परिणाम है वही आर्त रौद्र ध्यान है, ऐसे भावोसे संवर कैसे हो और उसे परीषहजय कैसे कहा जाय ? यदि दुःखके कारण मिलने पर दुःखी न हो तथा सुखके कारण मिलनेसे सुखी न हो, किन्तु ज्ञेयरूपसे उसका जाननेवाला ही रहे तभी वह परीषह जय है । ( मो० प्र० )
परीषह बाईस भेद चुत्पिपाशाशीतोष्ण दंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिपद्याशय्याको शवधयाचनाऽलाभरोगतृणस्पर्श मलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाऽज्ञानाऽदर्शनानि ॥६॥
अर्थ - [ क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनान्या रतिस्त्रीचर्या निषद्याशय्याक्रोशवघयाचनाऽलाभ रोग तृणस्पर्शमलसत्कार पुरस्कारप्रज्ञाऽज्ञानाऽदर्शनानि ] क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नाग्न्य, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, नृणस्पर्श, मल, सत्कारपुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन ये बाईस परीषह हैं ।
टीका
१- आठवें सूत्रमें आये हुये 'परिसोढव्याः' शब्दका अध्याहार इस सूत्र में समझना; इसीलिये प्रत्येक शब्द के साथ 'परिसोढव्याः' शब्द लागू करके अर्थ करना अर्थात् इस सूत्रमें कही गई २२ परीषह सहन करने योग्य हैं । जहाँ सम्यग्दर्शन - ज्ञानपूर्वक चारित्रदशा हो वहीं परीषहका सहन होता है अर्थात् परीषह सही जाती है । मुख्यरूपसे मुनि अवस्थामें परीषहं जय होती है । अज्ञानीके परीषह जय होती ही नहीं क्योंकि परीषह - सम्यग्दर्शन पूर्वक वीतराग भाव है ।
-जय तो
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अध्याय ६ सूत्र
६८१ २-अज्ञानी ऐसा मानते हैं कि परीषह सहन करना दुःख है किंतु ऐसा नही है; 'परीपह सहन करने का अर्थ दुःख भोगना नही होता। क्योकि जिस भावसे जीवके दुख होता है वह तो प्रार्तध्यान है और वह पाप है, उसीसे अशुभवंधन है और यहाँ तो सवरके कारणोका वर्णन चलरहा है । लोगोको अपेक्षासे वाह्य सयोग चाहे प्रतिकूल हो या अनुकूल हो तथापि राग या द्वेप न होने देना अर्थात् वीतराग भाव प्रगट करनेका नाम ही परीपह जय है अर्थात् उसे ही परोपह सहन किया कहा जाता है। यदि अच्छे बुरेका विकल्प उठे तो परीषह सहन करना नही कहलाता, किन्तु रागद्वेष करना कहलाता है। राग द्वेषसे कभी संवर होता ही नही किन्तु बंध ही होता है । इसलिये ऐसा समझना कि जितने अशमे वीतरागता है उतने अंशमे परीपद् जय है और यह परीषहजय सुख शातिरूप है। लोग परीपहजयको दुख कहते हैं सो असत् मान्यता है। पुनश्च अज्ञानी ऐसा मानते हैं कि पार्श्वनाथ भगवान और महावीर भगवानने परीषहके बहुत दुःख भोगे; परन्तु भगवान तो स्व के शुद्धोपयोग द्वारा आत्मानुभवमे स्थिर थे और स्वात्मानुभवके शांत रसमे झूलते थे-लीन थे इसीका नाम परीषह जय है। यदि उस समय भगवानके दुख हुमा हो तो वह द्वेष है और द्वेपसे वध होता किंतु सवर-निर्जरा नहीं होती। लोग जिसे प्रतिकूल मानते हैं ऐसे संयोगोमें भी भगवान निज स्वरूपसे च्युत नही हुये थे इसो. लिये उन्हे दुःख नही हुआ किन्तु सुख हुमा और इसोसे उसके सवर-निर्जरा हुई थी। यह ध्यान रहे कि वास्तवमें कोई भी संयोग अनुकूल या प्रतिकूलरूप नहीं है, किन्तु जीव स्वय जिस प्रकारके भाव करता है उसमें वैसा आरोप किया जाता है और इसीलिये लोग उसे अनुकूल संयोग या प्रतिक्कल सयोग कहते हैं।
३-बावीस परीपह जयका स्वरूप (१) क्षुधा-क्षुधा परीषह सहन करना योग्य है, साघुरोका भोजन तो गृहस्थ पर ही निर्भर है, भोजनके लिये कोई वस्तु उनके पास नहीं होती, वे किसी पात्रमे भोजन नहीं करते किंतु अपने हाथमे ही भोजन करते
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मोक्षशास्त्र है। उनके शरीरपर वनादिक भी नहीं होते, मात्र एक शरीर उपकरण है । पुनश्च अनशन, अवमौदर्य (भूखसे कम खाना) वृत्तिपरिसंख्यान (आहारको जाते हुए घर वगैरहका नियम करना) आदि तप करते हुए दो दिन, चार दिन, आठ दिन, पक्ष महीना आदि व्यतीत होजाते हैं, और यदि योग्य कालमें, योग्य क्षेत्रमें अंतराय रहित शुद्ध निर्दोष आहार न मिले तो वे भोजन ( भिक्षा ) ग्रहण नहीं करते और चित्तमें कोई भी विषाद-दुःख या खेद नहीं करते किंतु धैर्य धारण करते है। इस तरह क्षुधारूपी अग्नि प्रज्वलित होती है तथापि धैर्यरूपी जलसे उसे शांत कर देते हैं और राग- - द्वेष नही करते ऐसे मुनियोंको क्षुधा-परीषह सहनी योग्य है।
असाता वेदनीय कर्मकी उदीरणा हो तभी क्षुधा-भूख उत्पन्न होती है और उस वेदनीय कर्मकी उदीरणा छ8 गुणस्थान पर्यंत ही होती है उससे ऊपरके गुणस्थानों में नहीं होती। छठे गुणस्थानमें रहनेवाले मुनिके क्षुधा उत्पन्न होती है तथापि वे माकुलता नही करते और आहारा नही लेते किंतु धैर्यरूपो जलसे उस क्षुधाको शांत करते है तव उनके परीषह जय करना कहलाता है । छ8 गुणस्थानमें रहनेवाले मुनिके भी इतना पुरुषार्थ होता है कि यदि योग्य समय निर्दोष भोजनका योग न बने तो आहारका विकल्प तोड़कर निर्विकल्प दशामें लोन हो जाते है तब उनके परीषह जय कहा जाता है।
(२) तृषा-प्यासको धैर्यरूपी जलसे शांत करना सो तृषा परीषह जय है।
(३) शीत-ठंडको शांतभावसे अर्थात् वीतरागभावसे सहन करना सो शीत परीषह जय है ।
(४) उष्ण-गर्मीको शांतभावसे सहन करना अर्थात् ज्ञानमें ज्ञेयरूप करना सो उष्ण परीषह जय है ।
(५) दंशमशक-डांस, मच्छर, चीटी, बिच्छू इत्यादिके काटनेपर शांत भाव रखना सो दंशमशक परीषह जय है।
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अध्याय ६ सूत्र
६८३ (६) नाग्न्य-नग्न रहनेपर भी स्व मे किसी प्रकारका विकार न होने देना सो नाग्न्य परीषह जय है । प्रतिकूल प्रसंग आनेपर वस्त्रादि पहिन लेना नाग्न्य परीषह नहीं है किंतु यह तो मार्ग से ही च्युत होना है और परीषह तो मार्गसे च्युत न होना है।
(७) अरति-अरतिका कारण उपस्थित होनेपर भी संयममें परति न करनी सो अरतिपरोषहजय है।
(C) स्त्री-स्त्रियोके हावभाव प्रदर्शन आदि चेष्टाको शांत भावसे सहन करना अर्थात् उसे देखकर मोहित न होना सो खी परीषह जय है।
(९) चर्या-गमन करते हुए खेद खिन्न न होना सो चर्यापरीषह जय है।
(१०) निषद्या-नियमित काल तक ध्यानके लिये आसनसे च्युत न होना सो निषद्यापरीषह जय है ।
(११) शय्या-विपम, कठोर, कंकरीले स्थानोमे एक करवटसे निद्रा लेना और अनेक उपसर्ग आने पर भी शरीरको चलायमान न करना सो शय्यापरीषहजय है।
(१२) आक्रोश-दुष्ट जीवो द्वारा कहे गये कठोर शब्दोंको शांतभाव से सह लेना सो आक्रोशपरीषहजय है।
(१३) वध-तलवार आदिसे शरीर पर प्रहार करने वालेके प्रति भी क्रोध न करना सो वधपरीषहजय है ।
(१४) याचना-अपने प्राणोंका वियोग होना भी संभव हो तथापि आहारादिकी याचना न करना सो याचनापरीषहजय है।
नोटः-याचना करनेका नाम याचना परीषह जय नहीं है किन्तु याचना न करनेका नाम याचना परीषह जय है। जैसे अरति-द्वेष करनेका नाम अरति परीषह नही, कितु अरति न करना सो अरति परीपहजय है, उसी तरह याचनामे भी समझना । यदि याचना करना परीषह जय हो
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मोक्षशास्त्र तो गरीब लोग प्रादि बहुत याचना करते हैं इसलिये उन्हें अधिक धर्म हो किंतु ऐसा नहीं है। कोई कहता है कि 'याचना की, इसमें मान की कमीन्यूनता से परीषह जय कहना चाहिये' यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि किसी तरहका तीन कषायी कार्यके लिये यदि किसी प्रकारको कपाय छोड़े तो भी वह पापी ही है, जैसे कोई लोभके लिये अपने अपमानको न समझे तो उसके लोभकी अतितीव्रता ही है, इसीलिये इस अपमान करानेसे भी महापाप होता है, तथा यदि स्वयंके किसी तरहकी इच्छा नही है और कोई स्वयं अपमान करे तो उसे सहन करने वालेके महान धर्म होता है। भोजन के लोभसे याचना करके अपमान कराना सो तो पापही है, धर्म नहीं। पुनश्च वस्त्रादिकके लिये याचना करना सो पाप है, धर्म नहीं, (मुनिके तो वस्त्र होते ही नही) क्योकि वस्त्रादि धर्मके अंग नही हैं, वे तो शरीर सुखके कारण है, इसीलिये उनकी याचना करना याचना परीपह जय नही किन्तु याचना दोष है अतएव याचना का निषेध है ऐसा समझना ।
याचना तो धर्मरूप उच्चपदको नीचा करती है और याचना करने से धर्मकी हीनता होती है।
(१५) अलाभ-आहारादि प्राप्त न होने पर भी अपने ज्ञानानन्दके अनुभव द्वारा विशेष सन्तोष धारण करना सो अलाभपरीषहजय है ।
(१६) रोग-शरीरमें अनेक रोग हैं तथापि शांतभावसे उसे सहन कर लेना सो रोगपरीषहजय है ।
(१७) तृणस्पर्श-चलते समय पैरमे तिनका, कांटा, कंकर आदि लगने या स्पर्श होनेपर आकुलता न करना सो तृणस्पर्शपरीषहजय है।
(१८) मल-मलिन शरीर देखकर ग्लानि न करनासो मलपरीपह जय है।
(१९) सत्कारपुरस्कार--जिनमें गुरणोंकी अधिकता है तथापि यदि कोई सत्कारपुरस्कार न करे तो चित्तमे कलुषता न करना सो सत्कारपुरस्कार परीषह जय है। (प्रशंसाका नाम सत्कार है और किसी अच्छे
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अध्याय ६ सूत्र ६
६८५ कार्यमें मुखिया बनाना सो पुरस्कार है)।
(२०) प्रज्ञा-ज्ञानकी अधिकता होने पर भी मान न करना सो प्रज्ञा परीषहजय है।
(२१) अज्ञान-ज्ञानादिकको हीनता होनेपर लोगो द्वारा किये गये तिरस्कारको शांतभावसे सहन कर लेना और स्वयं भी अपने ज्ञानको न्यूनता का खेद न करना सो अज्ञानपरीपहजय है।
(२२)अदर्शन-अधिक समय तक कठोर तपश्चरण करने पर भी मुझे अवधिज्ञान तथा चारण ऋद्धि आदिको प्राप्ति न हुई इमलिये तपश्चर्या आदि धारण करना व्यर्थ है-ऐमा अश्रद्धाका भाव न होने देना सो अदर्शन परीषह जय है।
इन बावीस परोषहोको अाकुलता रहित जीतनेसे संवर, निर्जरा होती है।
४-इस सूत्रका सिद्धान्त इन सूत्रमे यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया है कि परद्रव्य प्रति जड कर्मका उदय अथवा शरीरादि नोकर्म का सयोग-वियोग जीवके कुछ विकार नहीं कर सकते। उसका प्रतिपादन कई तरहसे होता है सो कहते हैं--
(१) भूख और प्यास ये नोकर्मरूप शरीरको अवस्या है, यह अवस्था चाहे जैसी हो तो भी जीवके कुछ नही कर सकती। यदि जीव शरीरकी उस अवस्थाको ज्ञेयरूपसे जाने-उसमे रागादि न करे तो उसके शुद्धता प्रगट होती है और यदि उस समय राग, द्वेप करे तो नमुना प्रगट होती है । यदि जीव शुद्ध अवस्था प्रगट करे तो परोपहजय महलावे तथा संवर-निर्जरा हो और यदि अशुद्ध अवस्था प्रगट करे नो रोग है । सम्यग्दृष्टि जीव ही शुद्ध अवस्था प्रगट कर सकता है। मिष्याति शुद्ध अवस्था नहीं होती, इसलिये उसके परीपहजय भी नही होगा।
(२) सम्यग्दृष्टियोके नीची अवस्थामै चारिय मित्रमावती अर्थात् आशिक शुद्धता और पाशिक अशुद्धता होनी है। म शुद्धता होती है उतने अशमै संवर-निर्जरा है और यह पयार्य नाभि-:
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मोक्षशास्त्र
और जितने अंशमें अशुद्धता है उतने अंश में बंध है । साता वेदनीयका उदय जीवके कोई विक्रिया - विकार उत्पन्न नही करते । किसी भी कर्मका उदय शरीर तथा शब्दादि नोकर्मका प्रतिकूल संयोग जीवको विकार नहीं कराते । ( देखो समयसार गाथा ३७२ से ३८२ )
(३) शीत और उष्ण ये दोनों शरीर के साथ सम्बन्ध रखनेवाले बाह्य जड़ द्रव्योंकी अवस्था हैं और दशमशक शरीर के साथ सम्बन्ध रखने वाले जीव- पुद्गल संयोगरूप तियंचादि जीवोके निमित्तसे हुई शरीरकी अवस्था है; यह संयोग या शरीरको अवस्था जीवके दोष का कारण नहीं किंतु शरीरके प्रति स्व का ममत्व भाव ही दोषका कारण है । शरीर आदि तो परद्रव्य है और जीवको विकार पैदा नही कर सकते अर्थात् ये परद्रव्य जीवको लाभ या नुकसान [- गुरण या दोप ] उत्पन्न नही कर सकते । यदि वे परद्रव्य जीवको कुछ करते हों तो जीव कभी मुक्त हो ही नहीं
सकता ।
( ४ ) नाग्न्य अर्थात् नग्नत्व शरीरकी अवस्था है । शरीर अनन्त जब परद्रव्यका स्कंध है। एक रजकरण दूसरे रजकणका कुछ कर नहीं सकते तथा रजकण जीवको कुछ कर नहीं सकते, तथापि यदि जीव विकार करे तो वह उसकी अपनी असावधानी है । यह असावधानी न होने देना सो परीषहजय है । चारित्र मोहका उदय जीवको विकार नही करा सकता क्योकि वह भी परद्रव्य है ।
(५) अरति यानि द्वेष, उनमें जीवकृत दोष चारित्र गुणकी अशुद्ध अवस्था है और द्रव्यकर्म पुद्गल की अवस्था है । अरतिके निमित्तरूप माने गये सयोगरूप कार्य यदि उपस्थित हों तो वे उस जीवके अरति पैदा नही करा सकते, क्योकि वह तो परद्रव्य है, किन्तु जब जोव स्वयं अरति करे तव चारित्र मोहनीय कर्मको विपाक उदयरूप निमित्त कहा जाता है ।
(६) यही नियम स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना और सत्कारपुरस्कार इन पाँच परीषहोमे भी लागू होता है ।
(७) जहाँ प्रज्ञा परीषह कही है वहा ऐसा समझना कि प्रज्ञा तो ज्ञानकी दशा है, वह कोई दोष का कारण नही है किंतु जब जीवके ज्ञान
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अध्याय ६ सूत्र ६
६८७ का अपूर्ण विकास हो तब ज्ञानावरणीयका उदय भी होता है और उस समय यदि जीव मोहमें युक्त हो तो जीवमे स्व के कारणसे विकार होता है; इसलिये यहाँ 'प्रज्ञा' का अर्थ मात्र 'ज्ञान' न करके 'ज्ञानमे होनेवाला मद' ऐसा करना । यहाँ प्रज्ञा शब्दका उपचारसे प्रयोग किया है किन्तु निश्चयार्थमें वह प्रयोग नही है ऐसा समझना । दूसरी परीषहके सम्बन्धमें कही गई समस्त बातें यहां भी लागू होती है ।
(८) ज्ञानकी अनुपस्थिति ( गैरमौजूदगी ) का नाम अज्ञान है, यह ज्ञानकी अनुपस्थिति किसी बंधका कारण नही है किन्तु यदि जीव उस अनुपस्थितिको निमित्त बनाकर मोह करे तो जीवमे विकार होता है। अज्ञान तो ज्ञानावरणीकर्मके उदयको उपस्थिति बतलाता है । परद्रव्य बध के कारण नही कितु स्वके दोष-अपराध बधका कारण है । जीव जितना राग द्वेष करता है, उतना बंध होता है। सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्व मोह नही होता किन्तु चारित्रकी अस्थिरतासे राग द्वेष होता है। जितने अंशमें राग-दूर करे उतने अंशमें परीषह जय कहलाता है।
(8) अलाभ और अदर्शन परीषहमें भी उपरोक्त प्रमाणानुसार अर्थ समझना, फर्क मात्र इतना है कि अदर्शन यह दर्शनमोहनीयकी मौजूदगी बतलाती है और अलाभ अन्तराय कर्मकी उपस्थिति बतलाता है। कर्मका उदय, प्रदर्शन या अलाभ यह कोई बधका कारण नही है। जो अलाभ है सो परद्रव्यका वियोग ( अभाव ) बतलाता है, परतु यह जीवके कोई विकार नहीं करा सकता, इसलिये यह बधका कारण नहीं है।
(१०) चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल ये छहों शरीर और उसके साथ सम्बन्ध रखनेवाले परद्रव्योंकी अवस्था हैं। वह मात्र वेदनीयका उदय बतलाता है, किन्तु यह किसी भी जीवके विक्रिया-विकार उत्पन्न नही कर सकता ॥ ६ ॥
__ बावीस परीषहोंका वर्णन किया, उनमेंसे किस गुणस्थानमें कितनी परीषह होती हैं, यह वर्णन करते हैं:
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मोक्षशास्त्र दशमेंसे बारहवें गुणस्थान तक की परीषहें सूक्ष्मसांपरायछद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश ॥१०॥
अर्थ-[ सूक्ष्मसापरायछद्मस्थवीतरागयोः ] सूक्ष्मसांपराय वाले जीवोंके और छद्मस्थ वीतरागोंके [ चतुर्दश ] १४ परीषह होती हैं ।
टीका मोह और योगके निमित्तसे होनेवाले आत्म परिणामोंकी तारतम्यताको गुणस्थान कहते हैं, वे चौदह हैं। सूक्ष्मसांपराय यह दसमां गुणस्थान है और छद्मस्थ वीतरागता ग्यारहवे तथा बारहवें गुणस्थानमें होती है। इन तीन गुणस्थानों अर्थात् दसमें, ग्यारहवे और बारहवें गुणस्थानमें चौदह परीषह होती है, वे इस प्रकार हैं:
१ क्षुधा, २ तृषा, ३ शीत, ४ उष्ण, ५ दशमशक, ६ चर्या, ७ शय्या, ८ वध, ६ अलाभ, १० रोग, ११ तृणस्पर्श, १२ मल, १३ प्रज्ञा और १४ अज्ञान । इनके अतिरिक्त १ नग्नता, २ संयममे अप्रीति (अरति) ३-खी अवलोकन-स्पर्श, ४~-आसन (निषद्या ) ५-दुर्वचन ( आक्रोश ) ६-याचना ७-सत्कार-पुरस्कार और ८-अदर्शन, मोहनीय कर्म जनित ये आठ परीपहे वहाँ नहीं होती।
२ प्रश्न-दसमे सूक्ष्म सापराय गुणस्थानमें तो लोभ कषायका उदय है तो फिर वहां ये आठ परीपहे क्यों नही होती।
उचर-सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानमे मोहका उदय अत्यन्त सूक्ष्म हैअल्प है अर्थात् नाममात्र है, इसीलिये वहाँ उपरोक्त १४ परीषहोंका सद्भाव और वाकीकी ८ परीषहोंका अभाव कहा सो ठीक है; क्योकि इस गुणस्थानमै एक संज्वलन लोभ कपायका उदय है और वह भी बहुत थोड़ा है, कथनमात्रको है; इसलिये सूक्ष्मसांपराय और वीतराग छद्मस्थकी समानता मानकर चौदह परीपह कही है, यह नियम युक्ति युक्त है।
३ प्रश्न-ग्यारहवे और वारवें गुणस्थानमे मोहकर्मके उदयका अभाव है तथा दसमें गुणस्थानमे वह अति सूक्ष्म है, इसीलिये उन जीवोंके
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अध्याय ६ सूत्र १०-११
६८६ क्षुधा, तृषादि चौदह प्रकारकी वेदना नही होती, तो फिर ऐसा क्यों कहा कि इन गुणस्थानोमे परीषह विद्यमान है ?
उत्तर-यह तो ठीक ही है कि वहाँ वेदना नहीं है किन्तु सामर्थ्य (शक्ति) की अपेक्षासे वहाँ चौदह परीषहोकी उपस्थिति कहना ठीक है। जैसे सर्वार्थसिद्धि विमानके देवोंके सातवें नरकमे जानेकी सामर्थ्य है किन्तु उन देवोके वहां जानेका प्रयोजन नही है तथा वैसा राग भाव नही इसीलिये गमन नहीं है, उसी प्रकार दशवें, ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानमे चौदह परीषहोका कथन उपचारसे कहा है।
प्रश्न-इस सूत्रमे नय विभाग किस तरह लागू होता है ?
उत्तर-निश्चयनयसे दस, ग्यारह या बारहवें गुरणस्थानमें कोई भी परीषह नही हैं, किन्तु व्यवहारनयसे वहाँ चौदह परीषह है; व्यवहारनयसे हैं का अर्थ यह है कि यथार्थमे ऐसा नहीं है किन्तु निमित्तादिककी अपेक्षासे उनका उपचार किया है-ऐसा समझना । इस प्रकार जाननेका नाम ही दोनो नयोका ग्रहण है, किन्तु दोनों नयोके व्याख्यानको समान सत्यार्थ जानकर 'इस रूप भी है और इस रूप भी है' अर्थात् वहाँ परीषह हैं यह भी ठीक है और नहीं भी है यह भी ठीक ऐसे भ्रमरूप प्रवर्तनसे तो दोनो नयोंका ग्रहण नहीं होता।
(देखो मोक्षमार्ग प्रकाशक देहली पृ० ३६६) साराश यह है कि वास्तवमे उन गुणस्थानोंमे कोई भी परीपह नही होती, सिर्फ उस चौदह प्रकारके वेदनीय कर्मका मंद उदय है, इतना बतानेके लिये उपचारसे वहाँ परीषह कही हैं किन्तु यह मानना मिथ्या है कि वहाँ जीव उस उदयमें युक्त होकर दुःखी होता है अथवा उसके वेदना होती है।
अब तेरहवें गुणस्थानमें परीषह बतलाते हैं:
एकादशजिने ॥११॥ अर्थ-[ जिने ] तेरहवें गुणस्थानमे जिनेन्द्रदेवके [ एकादश ] ऊपर बतलाई गईं चौदहमेसे अलाभ, प्रज्ञा और अज्ञान इन तीनको छोड़कर बाकीकी ग्यारह परीषह होती हैं ।
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मोक्षशास्त्र
टीका १-~यद्यपि मोहनीयकर्मका उदय न होनेसे भगवानके क्षुधादिककी वेदना नही होती, इसीलिये उनके परीषह भी नहीं होती; तथापि उन परीषहोंके निमित्तकारणरूप वेदनीय कर्मका उदय विद्यमान है अतः वहाँ भी उपचारसे ग्यारह परीषह कही हैं। वास्तवमें उनके एक भी परीपह नही है।
२ प्रश्न-यद्यपि मोहकर्मके उदयकी सहायताके अभावमें भगवान के क्षुधा आदिकी वेदना नही है तथापि यहाँ वह परीषह क्यों कही है ?
उत्तर-यह तो ठीक है कि भगवानके क्षुधादिकी वेदना नही है किन्तु मोहकर्म जनित वेदनाके न होने पर भी द्रव्यकर्मकी विद्यमानता बतानेके लिये वहाँ उपचारसे परीषह कही गई हैं। जिस प्रकार समस्त ज्ञानावरण कर्मके नष्ट होनेसे युगपत् समस्त वस्तुओंके जाननेवाले केवलज्ञानके प्रभावसे उनके चिताका निरोधरूप ध्यान सम्भव नहीं है तथापि ध्यानका फल जो अवशिष्ट कर्मोको निर्जरा है उसकी सत्ता बतानेके लिये वहाँ उपचारसे ध्यान बतलाया है उसी प्रकार यहाँ ये परीषह भी उपचार से बतलाई हैं। प्रवचनसार गाथा १९८ मे कहा है कि भगवान परमसुख को ध्याते हैं।
३ प्रश्न-इस सूत्रमे नय विभाग किस तरहसे लागू होता है ?
उत्तर-तेरहवें गुणस्थानमे ग्यारह परीषह कहना सो व्यवहारनय है । व्यवहारनयका अर्थ करनेका तरीका यो है कि 'वास्तव में ऐसा नही है किन्तु निमित्तादिकी अपेक्षासे वह उपचार किया है, निश्चयनयसे केवलज्ञानीके तेरहवें गुणस्थानमे परीषह नहीं होती।
प्रश्न-व्यवहारनयका क्या दृष्टान्त है और वह यहाँ कैसे लागू होता है।
उचर-'धीका घड़ा' यह व्यवहार नयका कथन है, इसका ऐसा अर्थ है कि 'जो घड़ा है सो मिट्टीरूप है, घोरूप नहीं है' ( देखो श्री समय
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अध्याय ६ सूत्र ११
६६१ सार गाथा ६७ टीका तथा कलश ४०); उसी प्रकार 'जिनेन्द्रदेवके ग्यारह परीषह हैं। यह व्यवहार-नय कथन है, इसका अर्थ इस प्रकार है कि 'जिन अनन्त पुरुषार्थ रूप है, परीषहके दुःखरूप नही; मात्र निमित्तरूप परद्रव्यकी उपस्थितिका ज्ञान करानेके लिये ऐसा कथन किया है कि 'परीषह हैं परंतु इस कथनसे ऐसा नही समझना कि वीतरागके दुःख या वेदना है। यदि उस कथनका ऐसा अर्थ माना जावे कि वीतरागके दुःख या वेदना है तो व्यवहार नयके कथनका अर्थ निश्चय नयके कथनके अनुसार ही किया, और ऐसा अर्थ करना बड़ी भूल है-अज्ञान है।
(देखो समयसार गाथा ३२४ से ३२७ टीका) प्रश्न-इस शास्त्रमे, इस सूत्रमे जो ऐसा कथन किया कि जिन भगवानके ग्यारह परीषह हैं, सो व्यवहार नयके कथन निमित्त बतानेके लिये है, ऐसा कहा, तो इस सम्बन्धी निश्चय नयका कथन किस शास्त्रमे है ?
उत्तर--श्री नियमसारजी गाथा ६ मे कहा है कि वीतराग भगवान तेरहवे गुणस्थानमे हो तब उनके अठारह महादोष नहीं होते। वे दोष इस प्रकार हैं-१ क्षुधा, २-तृषा, ३-भय, ४-क्रोध, ५-राग, ६-मोह, ७चिता, ८-जरा, ६-रोग, १०-मृत्यु, ११-पसीना, १२-खेद, १३-मद, १४-रति, १५-आश्चर्य, १६-निद्रा, १७-जन्म, और १८-आकुलता।
यह निश्चयनयका कथन है और यह यथार्थ स्वरूप है । ४. केवली भगवानके आहार नहीं होता, इस सम्बन्धी कुछ स्पष्टीकरण
(१) यदि ऐसा माना जाय कि इस सूत्रमे कही गई परीषहोकी वेदना वास्तवमें भगवानके होती है तो बहुत दोष आते हैं। यदि क्षुधादिक दोष हों तो आकुलता हो और यदि आकुलता हो तो फिर भगवानके अनत सुख कैसे हो सकता है ? हाँ यदि कोई ऐसा कहे कि शरीरमे भूख लगती है इसीलिये आहार लेता है किन्तु आत्मा तदुरूप नही होता। इसका स्पष्टीकररण इस प्रकार है-यदि मात्मा तद्रूप नहीं होता तो फिर ऐसा क्यों कहते हो कि क्षुधादिक दूर करनेके उपायरूप आहारादिकका ग्रहण किया? क्षुधादिकके द्वारा पीड़ित होनेवाला ही आहार ग्रहण करता है। पुनश्च
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मोक्षशाख
यदि ऐसा माना जाय कि जैसे कर्मोदयसे विहार होता है वैसे ही श्राहार ग्रहण भी होता है सो यह भी यथार्थ नही है क्योकि बिहार तो विहायोगति नामक नामकर्मके उदयसे होता है, तथा वह पीढ़ाका कारण नहीं है और बिना इच्छाके भी किसी जीवके विहार होता देखा जाता है परन्तु आहार ग्रहण तो प्रकृतिके उदयसे नहीं किन्तु जब क्षुधादिकके द्वारा पीड़ित हो तभी जीव आहार ग्रहण करता है । पुनश्च आत्मा पवन आदिकको प्रेरित करनेका भाव करे तभी आहारका निगलना होता है, इसीलिये विहारके समान आहार सम्भव नही होता । अर्थात् केवली भगवानके विहार तो सम्भव है किन्तु आहार सम्भव नही है ।
(२) यदि यों कहा जाय कि केवली भगवानके सातावेदनीय कर्मके उदयसे आहारका ग्रहण होता है सो भी नहीं बनता, क्योंकि जो जीव क्षुघादिकके द्वारा पीड़ित हो और आहारा दिकके ग्रहणसे सुख माने उसके श्राहारादि साताके उदयसे हुये कहे जा सकते है, साता वेदनीयके उदयसे आहारादिकका ग्रहण स्वयं तो होता नही, क्योकि यदि ऐसा हो तो देवोंके तो साता वेदनीयका उदय मुख्यरूपसे रहता है तथापि वे निरन्तर श्राहार क्यों नही करते ? पुनश्च महामुनि उपवासादि करते हैं उनके साताका भी उदय होता है तथापि आहारका ग्रहरण नही और निरन्तर भोजन करने वालेके भी असाताका उदय सम्भव है । इसलिये केवली भगवानके बिना इच्छा भी जैसे विहायोगतिके उदयसे विहार सम्भव है वैसे ही बिना इच्छाके केवल सातावेदनीय कर्मके उदयसे ही आहार ग्रहण सम्भव नहीं होता ।
( ४ ) पुनश्च कोई यह कहे कि - सिद्धान्तमें केवलोके क्षुधादिक ग्यारह परीषह कही है इसीलिये उनके क्षुधाका सद्भाव सम्भव है और वह क्षुधा आहारके बिना कैसे शांत हो सकती है इसलिये उनके श्राहारादिक भी मानना चाहिये - इसका समाधान --- कर्म प्रकृतियों का उदय मंद- तीव्र भेद सहित होता है । वह प्रति मन्द होने पर उसके उदय जनित कार्यकी व्यक्तता मालूम नही होती इसीलिये मुख्यरूपसे उसका अभाव कहा जाता है, किन्तु तारतम्यरूपसे उसका सद्भाव कहा जाता है । जैसे नवमें गुरण
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अध्याय ६ सूत्र ११
६६३ स्थानमे वेदादिकका मंद उदय है वहाँ मैथुनादिक क्रिया व्यक्त नहीं है, इसीलिये वहाँ ब्रह्मचर्य ही कहा है तथापि वहाँ तारतम्यतासे मैथुनादिकका सद्भाव कहा जाता है। उसीप्रकार केवली भगवानके असाताका अति मंद उदय है, उसके उदयमें ऐसी भूख नहीं होती कि जो शरीरको क्षीण करे; पुनश्च मोहके अभावसे क्षुधाजनित दुख भी नहीं है और इसीलिये आहार ग्रहण करना भी नहीं है । अतः केवली भगवानके क्षुधादिकका अभाव ही है किन्तु मात्र उदयकी अपेक्षासे तारतम्यतासे उसका सद्भाव कहा जाता है।
(४) शंका-केवली भगवानके आहारादिकके बिना भूख (-क्षुधा) की शांति कैसे होती है ?
उत्तर--केवलीके असाताका उदय अत्यन्त मन्द है, यदि ऐसी भूख लगे कि आहारादिकके द्वारा ही शांत हो तो मद उदय कहाँ रहा ? देव, भोगभूमिया आदिके असाताका किंचित् मंद उदय है तथापि उनके बहुत समयके बाद किंचित् ही आहार ग्रहण होता है तो फिर केवलीके तो असाता का उदय अत्यंतही मंद है इसीलिये उनके आहारका अभाव ही है। असाताका तीन उदय हो और मोहके द्वारा उसमें युक्त हो तो ही आहार हो सकता है।
(५) शंका-देवों तथा भोगभूमियोंका शरीर ही ऐसा है कि उसके अधिक समयके बाद थोड़ी भूख लगती है, किन्तु केवली भगवानका शरीर तो कर्मभूमिका औदारिक शरीर है, इसीलिये उनका शरीर बिना आहारके उत्कृष्ट रूपसे कुछ कम एक कोटी पूर्व तक कैसे रह सकता है ?
समाधान-देवादिकोंका शरीर भी कर्मके ही निमित्तसे है । यहाँ केवली भगवानके शरीरमें पहले केश-नख बढ़ते थे, छाया होती थी और निगोदिया जीव रहते थे, किन्तु केवलज्ञान होने पर अब केश-नख नहीं बढ़ते, छाया नहीं होती और निगोदिया जीव नही होते। इसतरह अनेक प्रकारसे शरीरकी अवस्था अन्यथा हुई, उसीप्रकार बिना आहारके भी शरीर जैसाका तैसा बना रहे-ऐसी अवस्था भी हुई।
प्रत्यक्षमे देखो ! अन्य जीवोंके वृद्धत्व आने पर शरीर शिथिल हो जाता है, परन्तु केवली भगवानके तो आयुके अन्त तक भी शरीर शिथिल
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नहीं होता | इसीलिये अन्य मनुष्योंके शरीरके ओर केवली भगवानके शरीरके समानता सम्भव नहीं ।
(६) शंका- देव आदिके तो आहार ही ऐसा है कि अधिक समय भूख मिट जाय, किन्तु केवली भगवान के बिना आहारके शरीर कैसे पुष्ट रह सकता है ?
समाधान- - भगवानके असाताका उदय प्रति मंद होता है तथा प्रति समय परम औदारिक शरीर वर्गणात्रोंका ग्रहण होता है । इसीलिये ऐसी नोकर्म वर्गणाओंका ग्रहण होता है कि जिससे उनके क्षुधादिककी उत्पत्ति हो नही होती और न शरीर शिथिल होता है ।
(७) पुनश्च न श्रादिका श्राहार ही शरीरकी पुष्टताका कारण नही है । प्रत्यक्षमें देखो कि कोई थोड़ा प्रहार करता है तथापि शरीर अधिक पुष्ट होता है और कोई अधिक श्राहार करता है तथापि शरीर क्षीण रहता है ।
पवनादिकका साधन करनेवाले अर्थात् प्राणायाम करनेवाले अधिक कालतक आहार नही लेते तथापि उनका शरीर पुष्ट रहता है और ऋद्धिधारी मुनि बहुत उपवास करते हैं तथापि उनका शरीर पुष्ट रहता है। तो फिर केवली भगवानके तो सर्वोत्कृष्टता है अर्थात् उनके अन्नादिकके बिना भी शरीर पुष्ट बना रहता है इसमे आश्चर्य ही क्या है ?
(८) पुनश्च केवली भगवान श्राहारके लिये कैसे जाँय तथा किस तरह याचना करे ? वे जब आहारके लिये जाँय तब समवशरण खाली क्यों रहे ? अथवा यदि ऐसा मानें कि कोई अन्य उनको आहार लाकर दे तो उनके अभिप्रायकी बातको कौन जानेगा ? ओर पहले उपवासादिककी प्रतिज्ञा की थी उसका निर्वाह किसतरह होगा, पुनश्च प्राणियोंका घातादि जीव-ग्रन्तराय सर्वत्र मालूम होता है वहीं आहार किस तरह करें ? इसलिये केवलीके श्राहार मानना सो विरुद्धता है ।
(e) पुना कोई यों कहे कि 'वे आहार ग्रहण करते हैं परन्तु किसीको दिखाई नही देता ऐसा अतिशय है' सो यह भी असत् है, क्योंकि
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अध्याय है सूत्र ११
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आहार ग्रहण तो निंद्य हुआ; यदि ऐसा श्रतिशय भी मानें कि उन्हें कोई नही देखता तो भी ग्राहार ग्रहरणका निद्यपन रहता है । पुनश्च भगवान के पुण्यके कारण से दूसरेके ज्ञानका क्षयोपशम ( - विकास ) किस तरह आवृत हो जाता है ? इसलिये भगवानके आहार मानना और दूसरा न देखे ऐसा अतिशय मानना ये दोनो वातें न्याय विरुद्ध है ।
५. कर्म सिद्धांत के अनुसार केवलीके अन्नाहार होता ही नहीं
(१) जव असाता वेदनीयकी उदीरणा हो तब क्षुधा - भूख उत्पन्न होती है-लगती है, इस वेदनीयको उदीरणा छट्टो गुणस्थान तक ही है, इससे ऊपर नही । अतएव वेदनीयकी उदीरणा के बिना केवलीके क्षुधादिकी वाघा कहाँसे हो ?
(२) जैसे निद्रा और प्रचला इन दो दर्शनावरणी प्रकृतिका उदय वारहवें गुरणस्थान पर्यंत हे परन्तु उदीरणा बिना निद्रा नही व्यापती - अर्थात् निद्रा नही आती । पुनश्च यदि निद्रा कर्मके उदयसे हो ऊपरके गुणस्थानों में निद्रा आजाय तो वहाँ प्रमाद हो मोर ध्यानका प्रभाव हो जाय । यद्यपि निद्रा, प्रचलाका उदय बारहवें गुरणस्थान तक है तथापि अप्रमत्तदशा में मंदउदय होनेसे निद्रा नही व्यापती (-नही रहती ) । पुनश्च संज्वलनका मंद उदय होनेसे अप्रमत्त गुणस्थानोमे प्रमादका प्रभाव है, क्योकि प्रमाद तो संज्वलनके तीव्र उदयमे ही होता है । ससारी जीवके वेदके तीव्र उदय मे युक्त होनेसे मैथुन सज्ञा होती है और वेदका उदय नवमे गुणस्थान तक है; परन्तु श्रेणी चढे हुए संयमी मुनिके वेद नोकषायका मंद उदय होनेसे मैथुन सज्ञाका अभाव है; उदयमात्रसे मैथुनको वांच्छा उत्पन्न नही होती । (३) केवली भगवानके वेदनीयका प्रति मद उदय है; इसीसे क्षुधादिक उत्पन्न नही होते; शक्तिरहित असाता वेदनीय केवलीके क्षुधादिकके लिये निमित्तता के योग्य नही है । जैसे स्वयभूरमरण समुद्रके समस्त जलमें अनन्तवे भाग जहरकी करणी उस पानीको विषरूप होनेके लिये योग्य निमित्त नही है; उसीप्रकार अनन्तगुण अनुभागवाले सातावेदनीयके उदयसहित केवली भगवानके अनन्तवे भागमे जिसका असंख्यातवार खंड होगया है ऐसा असातावेदनीय कर्म क्षुधादिककी वेदना उत्पन्न नही कर सकता ।
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(४) अशुभ कर्म प्रकृतियोंकी विप, हलाहलरूप जो शक्ति है उसका श्रधःप्रवृत्तकररणमें अभाव हो जाता है मोर निम्ब ( नीम ) कांजीरूप रस रह जाता है । अपूर्वकररण गुणस्थान में गुरणश्रेणी निर्जरा, गुरण संक्रमण, स्थितिकांडोत्किर्ण और अनुभाग कांडोत्किर्ण ये चार आवश्यक होते हैं; इसीलिये केवली भगवानके असातावेदनीय आदि श्रप्रशस्त प्रकृतियोंका रस श्रसंख्यातवार घटकर अनन्तानन्तवे भाग रह गया है, इसी कारण असाता में सामर्थ्य कहाँ रही है जिससे केवली भगवानके क्षुवादिक उत्पन्न करने में निमित्त होता ? ( अर्थ प्रकाशिका पृष्ठ ४४६ द्वितीयावृत्ति )
६. सू० १०-११ का सिद्धान्त और ८ वें सूत्रके साथ
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उसका संबंध
यदि वेदनीय कर्मका उदय हो किन्तु मोहनीय कर्मका उदय न हो तो जीवके विकार नही होता ( सूत्र ११ ) क्योकि जीवके अनन्तवीर्य प्रगट हो चुका है ।
वेदनीय कर्मका उदय हो और यदि मोहनीय कर्मका मंद उदय हो तो वह भी विकारका निमित्त नही होता ( सूत्र १० ) क्योकि वहाँ जीवके अधिक पुरुषार्थ प्रगट होगया है ।
दशवे गुणस्थानसे लेकर १३ वे गुणस्थान तकके जीवोंके पूर्णपरीपहजय होता है और इसीलिये उनके विकार नही होता । यदि उत्तम गुणस्थानवाले परीषहजय नही कर सकते तो फिर आठवे सूत्रका यह उपदेश व्यर्थ हो जायगा कि 'संवरके मार्ग से च्युत न होने श्रौर निर्जराके लिये परीषह सहन करना योग्य है ।' दशवें तथा ग्यारहवे सूत्रमें उत्तम गुरणस्थानोंमें जो परीषह कही हैं वे उपचारसे हैं निश्चयसे नही, ऐसा
समझना ॥११॥
छट्ठेसे नवमें गुणस्थान तककी परीषह बादरसाम्पराये सर्वे ॥१२॥
अर्थ – [ बादरसांपराये ] बादरसांपराय अर्थात् स्थूलकषायवाले जीवोंके [ सर्वे ] सर्व परीषह होती हैं ।
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अध्याय ६ सूत्र १२-१३-१४
६९७ ".... :
टीका छ8से नवमे गुणस्थानको बादरसांपंराय कहते हैं। इन गुणस्थानोंमे परीषहके कारणभूत सभी कर्मोका उदय है, किन्तु जीव जितने अंशमे उनमें युक्त नही होता उतने अंशमें (आठवें सूत्रके अनुसार ) परीषहजय करता है। - २. सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहार विशुद्धि इन तीन संयमोमेसे किसी एकमे समस्त परीषहें सम्भव हैं ॥१२॥
इस तरह यह वर्णन किया कि किस गुरणस्थानमे कितनी परीषह जय होती हैं । अब किस किस कर्मके उदयसे कौन कौन परोषह होती है सो बतलाते हैं
ज्ञानावरण कर्मके उदयसे होनेवाली परीषह
ज्ञानावरणे प्रज्ञाऽज्ञाने ॥१३॥ अर्थ- ज्ञानावरणे ] ज्ञानावरणीयके उदयसे [प्रज्ञाञ्ज्ञाने ] प्रज्ञा और अज्ञान ये दो परीषहें होती हैं।
टीका प्रज्ञा आत्माका गुण है, वह परीषहका कारण नहीं होता; किन्तु ज्ञानका विकास हो और उसके मदजनित परीषह हो तो उस समय ज्ञानावरण कर्मका उदय होता है। यदि ज्ञानी जीव मोहनीय कर्मके उदयमे लगे जुड़े तो उसके. अनित्य मद आ जाता है, किन्तु ज्ञानी जीव पुरुषार्थ पूर्वक जितने अंशमे उसमें युक्त न हो उतने अंशमे उनके परीषह जय होता
( देखो सूत्र ८) दर्शनमोहनीय तथा अन्तराय कर्मके उदयसे होनेवाली परीषह .', दर्शनमोहांतराययोरदर्शनाऽलाभौ ॥१४॥ .. -अर्थ-[दर्शनमोहतिराययोः ] दर्शनमोह और अन्तराय कर्मके उदयसे [प्रदर्शनालाभौ ] क्रमसे अदर्शन और अलाभ परीषह होती हैं।
८८
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मोक्षशास्त्र यहाँ तेरहवें सूत्रकी टीकाके अनुसार समझना ॥१४॥ अव चारित्रमोहनीयके उदयसे होनेवाली परीपह बतलाते हैं चारित्रमोहेनाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचना
सत्कारपुरस्काराः ॥१५॥ अर्थ-[चारित्रमोहे] चारित्रमोहनीयके उदयसे [ नाग्न्यारतिलीनिषद्याक्रोशयाचना सत्कारपुरस्काराः ] नग्नता, अरति, खी, निपद्या, आक्रोश, याचना और सत्कार पुरस्कार ये सात परीषह होती हैं ।
यहाँ तेरहवे सूत्रकी टीकाके अनुसार समझना ॥१५॥ वेदनीय कर्मके उदयसे होनेवाली परीपहें
वेदनीये शेषाः ॥१६॥ अर्थ-[ वेदनीये ] वेदनीय कर्मके उदयसे [ शेषाः ] बाकीकी ग्यारह परीषह अर्थात् क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल ये परीषह होती हैं।
यहाँ भी तेरहवे सूत्रकी टीकाके अनुसार समझना ॥१६॥ अब एक जीवके एक साथ होनेवाली परीपहोंकी
संख्या बतलाते हैं एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नैकोनविंशतेः ॥१७॥
अर्थ-[ एकस्मिन् युगपत् ] एक जीवके एक साथ [ एकादयो ] एकसे लेकर [श्रा एकोनविंशतेः ] उन्नीस परीषह तक [ भाज्याः ] जानना चाहिये।
१-एक जीवके एक समयमे अधिकसे अधिक १६ परीषह हो सकती हैं, क्योंकि शीत और उष्ण इन दो मेसे एक समयमें एक ही होती है और शय्या, चर्या तथा निषद्या ( सोना, चलना तथा आसनमें रहना )
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६६६
अध्याय ६ सूत्र १७
६६६ इन तीनमेंसे एक समयमें एक ही होती है; इसतरह इन तीन परीषहोके कम करनेसे बाकोको उन्नीस परीषह हो सकती हैं।
२-प्रश्न-प्रज्ञा और अज्ञान ये दोनों भी एक साथ नही हो सकते, इसलिये एक परीषह इन सबमेंसे कम करना चाहिये ।
उत्तर-प्रज्ञा और अज्ञान इन दोनोके साथ रहनेमे कोई बाधा नही है एक ही कालमे एक जीवके श्रुतज्ञानादिकी अपेक्षासे प्रज्ञा और अवधिज्ञानादिकी अपेक्षासे अज्ञान ये दोनो साथ रह सकते हैं।
३-प्रश्न-औदारिक शरीरकी स्थिति कवलाहार (अन्न पानी) के बिना देशोनकोटी पूर्व ( कुछ कम एक करोड पूर्व ) कैसे रहती है ?
उत्तर-आहारके ६ भेद हैं-१ नोकर्म आहार, २ कर्माहार, ३ कवलाहार, ४ लेपाहार, ५ ओजाहार, और ६ मनसाहार । ये छह प्रकार यथायोग्य देहकी स्थितिके कारण हैं । जैसे (१) केवलीके नोकर्म आहार बताया है। उनके लाभान्तराय कर्मके क्षयसे अनन्त लाभ प्रगट हुआ है, अतः उनके शरीरके साथ अपूर्व असाधारण पुद्गलोका प्रतिसमय सम्बन्ध होता है, यह नोकर्म-केवलीके देहकी स्थितिका कारण है, दूसरा नही, इसी कारण केवलीके नोकर्मका आहार कहा है। (२) नारकियोके नरकायु नाम कर्मका उदय है वह उनके देहकी स्थितिका कारण है इसलिये उनके कर्माहार कहा जाता है। (३) मनुष्यो और तिर्यंचोके कवलाहार प्रसिद्ध है। (४) वृक्ष जातिके लेपाहार है (५) पक्षीके अण्डेके ओजाहार है । शुक नामकी धातुकी उपधातुको अोज कहते है । जो अण्डोंको पक्षी (-पंखी ) सेवे उसे ओजाहार नही समझना । (६) देव मनसे तृप्त होते हैं, उनके मनसाहार कहा जाता होता है ।
यह छह प्रकारका आहार देहकी स्थितिका कारण है, इस सम्बन्धी गाथा निम्नप्रकार है:
णोकम्मकम्महारोकवलाहारो य लेप्पाहारो य । . उञ्जमणोविय कमसो आहारा छन्त्रिहो भणिमओ ।।
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मोक्षशास्त्र
णोकम्मतित्थयरे कम्मं च णयरे मानसो अमरे । रपसु कवलाहारो पंखी उज्जो इगि लेऊ ॥
अर्थ - १ नौकर्म आहार, २ कर्माहार, ३ कवलाहार, ४ लेपाहार, ५ प्रजाहार, और ६ मनोआहार, इसप्रकार क्रमसे ६ प्रकारका प्रहार है, उनमें नोकर्म आहार तीर्थंकरके, कर्माहार नारकीके, मनोनाहार देवके, कवलाहार मनुष्य तथा पशुके, भोजाहार पक्षीके अण्डोंके और वृक्षके लेपाहार होता है ।
इससे सिद्ध होता है कि केवलीके कवलाहार नहीं होता ।
प्रश्न - मुनिकी अपेक्षासे घट्ट गुणस्थानसे लेकर तेरहवे गुणस्थान तककी परीषहोका कथन इस अध्यायके १३ से १६ तकके सूत्रों में किया है यह व्यवहारनयकी अपेक्षासे या निश्चयनयकी अपेक्षासे ?
उत्तर——यह कथन व्यवहारनयकी अपेक्षासे है, क्योंकि यह जीव परवस्तु के साथका सम्बन्ध बतलाता है, यह कथन निश्चयकी अपेक्षासे नहीं है ।
प्रश्न -- यदि व्यवहारनयकी मुख्यता सहित कथन हो उसे मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ३६६ मे योंजाननेके लिए कहा है कि 'ऐसा नही किन्तु निमित्तादिककी अपेक्षासे यह उपचार किया है' तो ऊपर कहे गये १३ से १६ तकके कथनमें कैसे लागू होता है ?
उतर - उन सूत्रोंमे जीवके जिन परीषहोंका वर्णन किया है वह व्यवहारसे है, इसका सत्यार्थ ऐसा है कि जीव जीवमय है परोषहमय नही । जितने दरजेमे जीवमे परीषह वेदन हो उतने अंशमे सूत्र १३ से १६ में कहे गये कर्मका उदय निमित्त कहलाता है किन्तु निमित्तने जीवको कुछ नहीं किया ।
प्रश्न- -१३ से १६ तकके सूत्रोंमें परीषहों के वारे में जिस कर्मका उदय कहा है उसके और सूत्र १७ में परीपहोंकी जो एक साथ संख्या कही
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अध्याय ६ सूत्र १७-१८
७०१ उसके इस अध्यायके ८ वें सूत्रमें कहे गये निर्जराका व्यवहार कैसे लागू होता है ?
उचर-जीव अपने पुरुषार्थके द्वारा जितने अंशमे परीषह वेदन न करे उतने अंशमे उसने परीषह जय किया और इसीलिये उतने अंशमें सूत्र १३ से १६ तकमें कहे गये कर्मोकी निर्जरा की, ऐसा आठवें सूत्रके अनुसार कहा जा सकता है, इसे व्यवहार कथन कहा जाता है क्योंकि परवस्तु (कर्म) की साथके सम्बन्धका कितना अभाव हुआ, यह इसमें बताया गया है।
इसप्रकार परीषहजयका कथन पूर्ण हुधा ॥१७॥
दूसरे सूत्रमे कहे गये संवरके ६ कारणोंमेसे यहाँ पांच कारणोंका वर्णन पूर्ण हुआ; अब अन्तिम कारण चारित्रका वर्णन करते है
चारित्रके पाँच भेद सामायिकछेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसांपराय
यथाख्यातमिति चारित्रम् ॥१८॥ अर्थ--[ सामायिकछेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसापराय यथाख्यातं ] सामायिक छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसापराय और यथाख्यात [ इति चारित्रम् ] इस प्रकार चारित्रके ५ भेद हैं ।
टीका १. सूत्रमें कहे गये शब्दोंकी व्याख्या . .(१) सामायिक-निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञानकी एकाग्रता द्वारा समस्त सावध योगका त्याग करके शुद्धात्मस्वरूपमे अभेद होने पर शुभाशुभ भावोंका त्याग होना सो सामायिक चारित्र है । यह चारित्र छ8 से नवमें गुणस्थान तक होता है।
(२) छेदोपस्थापना-कोई जीव सामायिक चारित्ररूप हुआ हो और उससे हटकर सावध व्यापाररूप होजाय, पश्चात् प्रायश्चित द्वारा उस सावध व्यापारसे उन्नत हुये दोषोको छेदकर आत्माको संयममे स्थिर करे सो
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मोक्षशास्त्र छेदोपस्थापना चारित्र है। यह चारित्र छ8 से नवमें गुणस्थान तक होता है।
(३) परिहार विशुद्धि-जो जीव जन्मसे ३० वर्ष तक सुखी रहकर फिर दीक्षा ग्रहण करे और श्री तीर्थंकर भगवानके पादमूलमें आठ वर्ष तक प्रत्याख्यान नामक नवमें पूर्वका अध्ययन करे, उसके यह संयम होता है । जो जीवोंकी उत्पत्ति-मरणके स्थान, कालकी मर्यादा, जन्म योनिके भेद, द्रव्य-क्षेत्रका स्वभाव, विधान तथा विधि इन सभीका जाननेवाला हो और प्रमाद रहित महावीर्यवान हो, उनके शुद्धताके बलसे कर्मकी बहुत (-प्रचुर ) निर्जरा होती है । अत्यन्त कठिन आचरण करनेवाले मुनियोके यह सयम होता है। जिनके यह संयम होता है उनके शरीरसे जीवोंकी विराधना नहीं होती। यह चारित्र ऊपर बतलाये गये साधुके छठे और सातवे गुणस्थानमें होता है।
(४) सूक्ष्मसांपराय-जब अति सूक्ष्म लोभकषायका उदय हो तब जो चारित्र होता है वह सूक्ष्म सांपराय है । यह चारित्र दशवें गुरणस्थानमें होता है।
(५) यथाख्यात-सम्पूर्ण मोहनीय कर्मके क्षय अथवा उपशमसे आत्माके शुद्धस्वरूपमें स्थिर होना सो यथाख्यात चारित्र है। यह चारित्र ग्यारहवेंसे चौदहवे गुणस्थान तक होता है।
२. शुद्धभावसे सवर होता है किन्तु शुभभावसे नही होता, इसलिये इन पांचों प्रकारमें जितना शुद्धभाव है उतना चारित्र है ऐसा समझना ।
३. छठे गुणस्थानकी दशा सातवे गुणस्थानसे तो निर्विकल्प दशा होती है। छ8 गुणस्थानमें मुनिके जव आहार विहारादिका विकल्प होता है तभी भी उनके [ तीन जातिके कषाय न होनेसे ] संवरपूर्वक निर्जरा होती है और शुभभावका अल्प वध होता है; जो विकल्प उठता है उस विकल्पके स्वामित्वका उनके नकार वर्तता है, अकपायदृष्टि और चारित्रसे जितने दरजेमें राग दूर होता है उतने दरजेमे संवर-निर्जरा है, तथा जितना शुभभाव है उतना बंधन है । विशेष यह है कि पंचम गुणस्थानवाला उपवासादि वा प्रायश्चित्तादि तप करे उसी कालमें भी उसे निर्जरा अल्प और छ? गुणस्थानवाला आहार
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अध्याय ६ सूत्र १८ विहार आदि क्रिया करे उस कालमें भी उसके निर्जरा अधिक है इससे ऐसा समझना कि-बाह्य प्रवृत्तिके अनुसार निर्जरा नही है।
(देखो मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ३४१ )
४. चारित्र का स्वरूप कितनेक जीव मात्र हिंसादिक पापके त्यागको चारित्र मानते है और महाव्रतादिरूप शुभोपयोगको उपादेयरूपसे ग्रहण करते है, किन्तु यह यथार्थ नहीं है। इस शास्त्रके सातवें अध्यायमें आस्रव पदार्थका निरूपण किया गया है, वहाँ महावत और अणुव्रतको प्रास्रवरूप माना है, तो वह उपादेय कैसे हो सकता है ? आस्रव तो बन्धका कारण है और चारित्र मोक्षका कारण है, इसलिये उन महाव्रतादिरूप आस्रवभावोंके चारित्रता सम्भव नही होती, किन्तु जो सर्व कषाय रहित उदासीन भाव है उसीका नाम चारित्र है। सम्यग्दर्शन होनेके बाद जीवके कुछ भाव वीतराग हुए होते हैं और कुछ भाव सराग होते हैं। उनमे जो अश वीतरागरूप है वही चारित्र है और वह सवरका कारण है । ( देखो मोक्ष. प्रकाशक पृष्ठ ३३७)
५. चारित्रमें भेद किसलिये वताये ? प्रश्न-जो वीतराग भाव है सो चारित्र है और वीतरागभाव तो एक ही तरहका है, तो फिर चारित्रके भेद क्यों बतलाये ?
उत्तर-वीतरागभाव एक तरहका है परन्तु वह एक साथ पूर्ण प्रगट नही होता, किन्तु क्रम क्रमसे प्रगट होता है इसीलिये उसमें भेद होते हैं। जितने अंशमें वीतरागभाव प्रगट होता है उतने अंशमे चारित्र प्रगट होता है, इसलिये चारित्रके भेद कहे है ।
प्रश्न-यदि ऐसा है तो छ? गुणस्थानमें जो शुभभाव है उसे भी चारित्र क्यों कहते हो? । उत्तर-वहाँ शुभभावको यथार्थमें चारित्र नहीं कहा जाता, किंतु उस शुभभावके समय जिस अंशमे वीतरागभाव है, वास्तवमें उसे चारित्र कहा जाता है।
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मोक्षशास5 · प्रश्न-कितनेक जगह शुभभावरूप समिति, गुप्ति, महाव्रतादिको भी चारित्र कहते हैं, इसका क्या कारण है ?
उचर-वहाँ शुभभावरूप समिति आदिको व्यवहार चारित्र कहा है । व्यवहारका अर्थ है उपचार; छ? गुणस्थानमें जो वीतराग चारित्र होता है, उसके साथ महावतादि होते है ऐसा संबंध जानकर यह उपचार किया है। अर्थात् वह निमित्तकी अपेक्षासे यानि विकल्पके भेद बतानेके लिये कहा है, किन्तु यथार्थरीत्या तो निष्कषाय भाव ही चारित्र है, शुभराग चारित्र नहीं।
प्रश्न-निश्चय मोक्षमार्ग तो निर्विकल्प है, उस समय सविकल्प (-सराग व्यवहार ) मोक्षमार्ग नही होता, तो फिर सविकल्प मोक्षमार्गको साधक कैसे कहा जा सकता है ?
उचर-भूतनैगमनयकी अपेक्षासे उस सविकल्परूपको मोक्षमार्ग कहा है, अर्थात् भूतकालमें वे विकल्प (-रागमिश्रित विचार ) हुये थे, यद्यपि वे वर्तमानमे नहीं हैं तथापि 'यह वर्तमान है' ऐसा भूत नैगमनयकी अपेक्षासे गिना जा सकता है-कहा जा सकता है। इसीलिये उस नयकी अपेक्षासे सविकल्प मोक्षमार्गको साधक कहा है ऐसा समझना। (देखो परमात्म' प्रकाश पृष्ठ १४२ अध्याय २ गाथा १४ की संस्कृत टीका तथा इस ग्रन्थमें अन्तमें परिशिष्ट १)
६. सामायिकका स्वरूप प्रश्न-मोक्षके कारणभूत सामायिकका स्वरूप क्या है ? .
उचर-जो सामायिक सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वभाववाला परमार्थ ज्ञानका भवनमात्र ( परिणमन मात्र ) है एकाग्रता लक्षणवाली है वह सामायिक मोक्षके कारणभूत है।
( देखो समयसार गाथा १५४ टीका ) श्री नियमसार गाथा १२५ से १३३ मे यथार्थ सामायिकका स्वरूप दिया है वह इसप्रकार है
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अध्याय ६ सूत्र १८
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जो कोई मुनि एकेन्द्रियादि प्राणियोंके समूहको दुःख देनेके कारणरूप जो संपूर्ण पापभाव सहित व्यापार है, उससे अलग हो मन, वचन और शरीरके शुभ अशुभ सर्व व्यापारोंको त्यागकर तीन गुप्तिरूप रहते है तथा जितेन्द्रिय रहते हैं ऐसे संयमीके वास्तवमे सामायिक व्रत होता है । ( गाथा १२५ )
जो समस्त त्रस स्थावर प्राणियों में समताभाव रखता है, माध्यस्थ भाव में आरूढ़ है, उसीके यथार्थ सामायिक होती है । ( गाथा १२६ ) संयम पालते हुये, नियम करते तथा तप धारण करते हुये जिसके एक आत्मा ही निकटवर्ती रहा है उसीके यथार्थं सामायिक होती है । ( गाथा १२७ )
जिसे राग-द्वेष विकार प्रगट नहीं होते उसके यथार्थ सामायिक होती है । ( गाथा १२८ )
जो श्रार्त और रौद्र ध्यानको दूर करता है, उसके वास्तवमें सामायिक व्रत होता है । ( गाथा १२९ )
जो हमेशा पुण्य और पाप इन दोनों भावोंको छोड़ता है, उसके यथार्थं सामायिक होती है । ( गाथा १३० )
जो जीव सदा धर्मध्यान तथा शुक्लध्यानको ध्याता है उसके यथार्थ सामायिक होती है । ( गाथा १३३ )
सामायिक चारित्रको परम समाधि भी कहते हैं ।
७. प्रश्न-- इस अध्यायके छट्ट सूत्रमें सवरके कारणरूपसे जो १० प्रकारका धर्मं कहा है उसमे सयम मा हो जाता है और संयम ही चारित्र है तथापि यहाँ फिरसे चारित्रको संवरके कारणरूपमे क्यों कहा ? उत्तर- - यद्यपि संयमधर्ममे चारित्र आ जाता है तथापि इस सूत्रमे चारित्रका कथन निरर्थक नही है । चारित्र मोक्ष प्राप्तिका साक्षात् कारण है यह बतलानेके लिये यहाँ अन्तमें चारित्रका कथन किया है । चीदहमें गुणस्थानके अन्तमें चारित्रको पूर्णता होनेपर ही मोक्ष होता है श्रतएव
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मोक्षशास्त्र मोक्ष प्राप्तिके लिये चारित्र साक्षात् हेतु है-ऐसा ज्ञान करानेके लिये इस सूत्र में वह अलग बताया है।
८. व्रत और चारित्रमें अन्तर मानव अधिकारमें ( सातवें अध्यायके प्रथम सूत्र में ) हिसा, झूठ, चोरी आदिके त्यागसे अहिंसा, सत्य, अचौर्य आदि क्रियामें शुभप्रवृत्ति है इसीलिये वहाँ अवतोंकी तरह व्रतोंमें भी कर्मका प्रवाह चलता है, किन्तु उन व्रतोंसे कर्मोकी निवृत्ति नही होती। इसी अपेक्षाको लक्ष्यमें रखकर, गुप्ति आदिको संवरका परिवार कहा है । आत्माके स्वरूपमें जितनी अमेदता होती है उतना संवर है शुभाशुभ भावका त्याग निश्चय व्रत अथवा वीतराग चारित्र है । जो शुभभावरूप व्रत है वह व्यवहार चारित्ररूप राग है और वह संवरका कारण नहीं है। (देखो सर्वार्थसिद्धि अध्याय ७ पृष्ठ ५ से ७) ॥१८॥
दूसरे सूत्रमें कहे गये संवरके ६ कारणोंका वर्णन पूर्ण हुआ । इस तरह संवर तत्त्वका वर्णन पूर्ण हुआ। अब निर्जरा तत्त्वका वर्णन करते हैं
निर्जरा तत्त्वका वर्णन
भूमिका १-पहले अठारह सूत्रोंमें संवरतत्त्वका वर्णन किया । अब उन्नी सर्वे सूत्रसे निर्जरा तत्त्वका वर्णन प्रारम्भ होता है। जिसके संवर हो उसके निर्जरा हो । प्रथम संवर तो सम्यग्दर्शन है, इसीलिये जो जीव सम्यग्दर्शन प्रगट करे उसीके ही सवर-निर्जरा हो सकती है। मिथ्यादृष्टिके संवर निर्जरा नहीं होती।
२-यहां निर्जरा तत्त्वका वर्णन करना है और निर्जराका कारण तप है ( देखो अध्याय ६ सूत्र ३ ) इसीलिये तपका और उसके भेदोंका वर्णन किया है। तपको व्याख्या १६ वे सूत्रको टीका में दी है और ध्यानको व्याख्या २७ वें सूत्र में दी गई है।
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अध्याय ६ सूत्र १८-१९ ३. निर्जराके कारणों सम्बन्धी होनेवाली भूलें और उनका निराकरण
(१) कितने ही जीव अनशनादि तपसे निर्जरा मानते हैं किन्तु वह तो बाह्य तप है । अब बाद के १९-२० वें सूत्र में बारह प्रकारके तप कहे हैं वे सब बाह्य तप है, किंतु वे एक दूसरेकी अपेक्षासे बाह्य अभ्यंतर हैं, इसीलिये उनके बाह्य और अभ्यंतर ऐसे दो भेद कहे है। अकेले बाह्य तप करनेसे निर्जरा नही होती। यदि ऐसा हो कि अधिक उपवासादि करनेसे अधिक निर्जरा हो और थोड़े करनेसे थोड़ी हो तो निर्जराका कारण उपवासादिक ही ठहरें किन्तु ऐसा नियम नही है । जो इच्छाका निरोध है सो तप है; इसीलिये स्वानुभव' की एकाग्रता बढ़नेसे शुभाशुभ इच्छा दूर होनी है, उसे तप कहते हैं।
(२) यहाँ अनशनादिकको तथा प्रायश्चित्तादिकको तप कहा है इसका कारण यह है कि-यदि जीव अनशनादि तथा प्रायश्चित्तादिरूप प्रवर्ते और रागको दूर करे तो वीतरागभावरूप सत्य तप पुष्ट किया जा सकता है, इसीलिये उन अनशनादि तथा प्रायश्चित्तादिको उपचारसे तप कहा है। यदि कोई जीव वीतराग भावरूप सत्य तपको तो न जाने और उन अनशनादिकको ही तप जानकर संग्रह करे तो वह संसारमे ही भ्रमण करता है।
(३) इतना खास समझ लेना कि-निश्चय धर्म तो वीतराग भाव है, अन्य अनेक प्रकारके जो भेद कहे जाते है वे भेद बाह्य निमित्तको अपेक्षासे उपचारसे कहे हैं, इसके व्यवहार मात्र धर्म संज्ञा जाननी। जो जीव इस रहस्यको नही जानता उसके निर्जरातत्त्वकी यथार्थ श्रद्धा नही है। ( मो० प्र०)
तप निर्जराके कारण हैं, इसीलिये उनका वर्णन करते है। उनमें पहले तपके भेद कहते है
वाह्य तपके ६ भेद अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्त
शय्यासनकायक्लेशाः बाह्य तपः ॥ १६ ॥
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मोक्षशास्त्र अर्थ-[ अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशाः ] सम्यक् प्रकारसे अनशन, सम्यक् अवमौदर्य, सम्यक् वृत्तिपरिसंख्यान, सम्यक् रसपरित्याग, सम्यक् विविक्त शय्यासन और सम्यक् कायक्लेश ये [ बाह्य तपः ] छह प्रकारके बाह्य तप हैं।
___ नोट-इस सूत्रमें 'सम्यक्' शब्दका अनुसन्धान इस अध्यायके चौथे सूत्रसे आता है-किया जाता है । अनशनादि छहों प्रकारमें 'सम्यक्' शब्द लागू होता है।
टीका १. सूत्रमें कहे गये शब्दोंकी व्याख्या (१) सम्यक अनशन-सम्यग्दृष्टि जीवके आहारके त्यागका भाव होनेपर विषय कषायका भाव दूर होकर अंतरंग परिणामोंकी शुद्धता होती वह सम्यक् अनशन है ।
(२) सम्यक अवमौदर्य-सम्यग्दृष्टि जीवके रागभाव दूर करनेके लिये जितनी भूख हो उससे कम भोजन करनेका भाव होने पर जो अंतरंग परिणामोंकी शुद्धता होती है उसे सम्यक् अवमौदर्य कहते हैं ।
(३) सम्यक वृचिपरिसंख्यान-सम्यग्दृष्टि जीवके संयमके हेतुसे निर्दोप आहारकी भिक्षाके लिये जाते समय, भोजनकी वृत्ति तोड़ने वाले नियम करने पर अंतरंग परिणामोंकी जो शुद्धता होती है उसे सम्यक् वृत्तिपरिसंख्यान कहते हैं ।
(४) सम्यक रसपरित्याग-सम्यग्दृष्टि जीवके इन्द्रियों सम्बन्धी राग का दमन करनेके लिये घी, दूध, दही, तेल, मिठाई नमक आदि रसों का यथाशक्ति त्याग करनेका भाव होनेसे अंतरंग परिणामोंकी जो शुद्धता होती है उसे सम्यक् रसपरित्याग कहते हैं।
(५) सम्यक् विविक्तशय्यासन-सम्यग्दृष्टि जीवके स्वाध्याय, ध्यान आदिकी प्राप्तिके लिये किसी एकांत निर्दोष स्थानमें प्रमाद रहित सोने, वैठने की वृत्ति होने पर अंतरंग परिणामोंकी जो शुद्धता होती है
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मध्याय है सूत्र १६
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उसे सम्यक् विविक्त शय्यासन कहते हैं ।
(६) सम्यक् कायक्लेश- सम्यग्दृष्टि जीवके शारीरिक श्रासक्ति घटानेके लिये प्रतापन आदि योग धारण करते समय जो अन्तरंग परिगामों की शुद्धता होती है उसे सम्यक् कायक्लेश कहते हैं ।
२– 'सम्यक्' शब्द यह बतलाता है कि सम्यग्दृष्टिके ही ये तप होते हैं मिथ्यादृष्टि के तप नही होता ।
३- जब सम्यग्दृष्टि जीव अनशनकी प्रतिज्ञा करता है उस समय निम्न लिखित बातें जानता है । -
( १ ) आहार न लेने का राग मिश्रित विचार होता है वह शुभभाव है और इसका फल पुण्यबंधन है, में इसका स्वामी नही हूँ ।
(२) अन्न, जल आदि पर वस्तुऐं हैं, आत्मा उसे किसी प्रकार न तो ग्रहण कर सकता और न छोड़ सकता है किन्तु जब सम्यग्दृष्टि जीव पर वस्तु सम्बन्धी उस प्रकारका राग छोड़ता है तब पुद्गल परावर्तनके नियम अनुसार ऐसा निमित्त नैमित्तिक संबंध होता है कि उतने समय उसके अन्न पानी आदिका संयोग नही होता ।
(३) अन्न जल ग्रादिका संयोग न हुआ यह परद्रव्यकी क्रिया है, उससे आत्मा के धर्म या अधर्म नही होता ।
(४) सम्यग्दृष्टि जीवके राग का स्वामित्व न होने की जो सम्यक् मान्यता है वह दृढ़ होती है, और इसीलिये यथार्थ अभिप्रायपूर्वक जो अन्न, जल आदि लेनेका राग दूर हुआ वह सम्यक् अनशन तप है, यह वीतरागता का अश है इसीलिये वह धर्मका अंश है । उसमें जितने अंशमे अंतरंग परिणामों को शुद्धता हुई और शुभाशुभ इच्छाका निरोध हुआ उतने अंशमे सम्यक् तप है और यही निर्जराका कारण है ।
छह प्रकारके वाह्य और छह प्रकारके अंतरंग इन वारह प्रकारके तप के सम्वन्धमे ऊपर लिखे अनुसार समझ लेना ।
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मोक्षशास्त्र
सम्यक् तप की व्याख्या (१) स्वरूपविश्रांत निस्तरंग चैतन्य प्रतपनात् तपः अर्थात् स्वरूप की स्थिरतारूप,-तरंगोंके विना-लहरोंके विना (निर्विकल्प ) चैतन्य का प्रतपन होना ( देदीप्यमान होना सो तप है)।
(प्रवचनसार अ० १ गा० १४ की टीका ) (२) सहजनिश्चयनयात्मकपरमस्वभावात्मपरमात्मनि प्रतपनं तपः अर्थात् सहज निश्चयनय रूप परमस्वभावमय परमात्माका प्रतपन होना अर्थात् दृढ़तासे तन्मय होना सो तप है । (नियमसार गा० ५५ को टोका)
(३) प्रसिद्धशुद्ध कारणपरमात्मतत्त्वे सदान्तर्मुखतया प्रतपनं यत्तत्तपः अर्थात् प्रसिद्ध शुद्ध कारण परमात्म तत्त्वमें सदा अतर्मुखरूपसे जो प्रतपन अर्थात् लीनता है सो तप है । (नियमसार टोका गाथा ११८ का शीर्षक)
(४) आत्मानमात्मना संधत्त इत्यध्यात्मं तपन अर्थात् आत्माको प्रात्माके द्वारा धरना सो अध्यात्म तप है। (नियमसार गा० १२३की टीका)
(५) इच्छानिरोधः तपः अर्थात् शुभाशुभ इच्छाका निरोध करना (-अर्थात् स्वरूपमें विश्रांत होना ) सो तप है।
५. तप के भेद किसलिये हैं ? प्रश्न-यदि तपकी व्याख्या उपरोक्त प्रमाण है तो उस तपके भेद नही हो सकते, तथापि यहाँ तपके बारह भेद क्यों कहे है ?
उत्तर-शास्त्रोंका कथन किसी समय उपादान (निश्चय ) की अपेक्षा से और किसी समय निमित्त ( व्यवहार ) की अपेक्षासे होता है। भिन्न-भिन्न निमित्त होनेसे उसमें भेद होते हैं किन्तु उपादान तो आत्माका शुद्ध स्वभाव है अत: उसमे भेद नही होता । यहाँ तपके जो बारह भेद बतलाये हैं वे भेद निमित्तको अपेक्षासे हैं।
६-जिस जीवके सम्यग्दर्शन न हो वह जीव बनमें रहे, चातुर्मास में वृक्षके नीचे रहे ग्रीष्म ऋतुमें अत्यन्त प्रखर किरणोंसे संतप्त पर्वतके शिखर पर शासन लगावे, शीतकालमें खुले मैदानमें ध्यान करे, अन्य
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अध्याय ६ सूत्र १९-२० अनेक प्रकारके काय क्लेश करे, अधिक उपवास करे, शास्त्रोंके पढ़नेमें बहुत चतुर हो, मौनव्रत धारण करे इत्यादि सब कुछ करे, किंतु उसका यह सब वृथा है-संसारका कारण है, इनसे धर्मका अंश भी नहीं होता । जो जीव सम्यग्दर्शनसे रहित हो यदि वह जीव अनशनादि बारह तप करे तथापि उसके कार्यकी सिद्धि नहीं होती । इसलिये हे जीव ! आकुलता रहित समतादेवीका कुल मंदिर जो कि स्व का आत्मतत्त्व है, उसका ही भजन कर ॥ १६॥
(देखो नियमसार गाथा १२४ ) अब आभ्यंतर तपके ६ भेद बताते हैं प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्याना
न्युत्तरम् ॥ २०॥ अर्थ-[ प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानानि ] सम्यक्पसे प्रायश्चित्त, सम्यक् विनय, सम्यक् वैयावृत्य, सम्यक् स्वाध्याय, सम्यक् व्युत्सर्ग और सम्यक् ध्यान [ उत्तरम् ] ये छह प्रकार का आभ्यन्तर तप है।
नोट-इस सूत्र में 'सम्यक्' शब्दका अनुसन्धान इस अध्यायके चौथे सूत्रसे किया जाता है, यह प्रायश्चित्तादि छहों प्रकारमें लागू होता है। यदि 'सम्यक्' शब्दका अनुसन्धान न किया जावे तो नाटक इत्यादि सम्बन्धी अभ्यास करना भी स्वाध्याय तप ठहरेगा । परन्तु 'सम्यक्' शब्द के द्वारा उसका निषेध हो जाता है।
टीका १-ऊपरके सूत्रकी जो टीका है वह यहां भी लागू होती है। २-सूत्रोमें कहे गये शब्दोंकी व्याख्या करते हैं
(१) सम्यक् प्रायश्चित-प्रमाद अथवा अज्ञानसे लगे हुये दोषों की शुद्धता करनेसे वीतराग स्वरूपके पालंबनके द्वारा जो अंतरंग परिरणामोंकी शुद्धता होती है उसे सम्यक् प्रायश्चित्त कहते हैं।
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मोक्षशास्त्र
(२) सम्यक विनय - पूज्य पुरुषोंका आदर करने पर वीतराग स्वरूपके लक्षके द्वारा अंतरंग परिणामोंकी जो शुद्धता होती है, उसे सम्यक् विनय कहते हैं ।
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(३) सम्यक् वैयावृत्य — शरीर तथा अन्य वस्तुनोंसे मुनियोंकी सेवा करने पर वीतराग स्वरूपके लक्षके द्वारा अंतरंग परिणामों की जो शुद्धता होती है सो सम्यक् वैयावृत्य कहते है ।
(४) सम्यक् स्वाध्याय - सम्यग्ज्ञानकी भावनायें आलस्य न करना- इसमें वीतराग स्वरूपके लक्षके द्वारा अंतरंग परिणामों की जो शुद्धता होती है सो सम्यक् स्वाध्याय है ।
(५) सम्यक् व्युत्सर्ग- बाह्य और आभ्यंतर परिग्रहके त्यागकी भावनामें वीतराग स्वरूपके लक्षके द्वारा अंतरंग परिणामों की जो शुद्धता होती है सो सम्यक् व्युत्सर्ग है ।
(६) सम्यक् ध्यान —— चित्तको चंचलताको रोककर तत्त्वके चितवन में लगना, इसमें वीतराग स्वरूपके लक्षके द्वारा अंतरंग परिणामोंकी जो शुद्धता होती है सो सम्यक् ध्यान है ।
३ - सम्यग्दृष्टि ही ये छहो प्रकारके तप होते हैं । इन छहों प्रकार में सम्यग्दृष्टिके निज स्वरूपकी एकाग्रता से जितनी अंतरंग परिणामों की शुद्धता हो उतना ही तप है । [ जो शुभ विकल्प है उसे उपचारसे तप कहा जाता है, किन्तु यथार्थमें तो वह राग है; तप नहीं । ]
अव अभ्यन्तर तपके उपभेद बताते हैं
नवचतुर्दशपंचद्विभेदा यथाक्रमं प्राग्ध्यानात् ॥२१॥
प्रयं - [प्राक ध्यानात् ] ध्यानसे पहले के पाँच तपके [ यथाक्रमं ] अनुक्रमसे [ नवचतुर्दश पंचद्विभेदाः ] नव, चार, दश, पाँच श्रौर दो भेद हैं अर्थात् सम्यक् प्रायश्चितके नव, सम्यक् विनयके चार, सम्यक् वैयावृत्य के दग, सम्यक् स्वाध्यायके पाँच और सम्यक् व्युत्सर्गके दो भेद हैं ।
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अध्याय ६ सूत्र २१-२२
७१३॥ नोट-आभ्यंतर तपका छट्ठा मेद ध्यान है उसके भेदोंका वर्णन २८ वें सूत्रमे किया जायगा।
___ अब सम्यक् प्रायश्चितके नव भेद बतलाते हैं। आलोचनाप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेद
परिहारोपस्थापनाः ॥ २२॥ अर्थ-[ आलोचना प्रतिक्रमण तदुभय विवेक व्युत्सर्ग तपश्छेदपरिहारोपस्थापनाः ] पालोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार, उपस्थापना ये प्रायश्चित तपके नव भेद हैं।
टीका १-सूत्रमे आये हुये शब्दोकी व्याख्या करते हैं ।
प्रायश्चिच-प्रायः अपराध, चित्त-शुद्धि; अर्थात् अपराधकी शुद्धि करना सो प्रायश्चित्त है।
(१) आलोचना-प्रमादसे लगे हुये दोषोंको गुरुके पास जाकर निष्कपट रीतिसे कहना सो आलोचना है।
(२) प्रतिक्रमण-अपने किये हुए अपराध मिथ्या होवे-ऐसी भावना करना सो प्रतिक्रमण है।
(३) तदुभय-वे दोनों अर्थात् आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों करना सो तदुभय है।
(४) विवेक-पाहार-पानीका नियमित समयतक त्याग करना। (५) व्युत्सर्ग-कायोत्सर्ग करनेको व्युत्सर्ग कहते हैं । (६) तप-उपवासादि करना सो तप है।
(७) छेद-एक दिन, पन्द्रह दिन, एक मास आदि समय पर्यन्त दीक्षाका छेद करना सो छेद कहलाता है।
(८) परिहार-एक दिन, एक पक्ष, एक मास आदि नियमित
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मोक्षशास्त्र समय तक संघसे अलग करना सो परिहार है।
(९) उपस्थापन-पुरानी दीक्षाका सम्पूर्ण छेद करके फिरसे नई दीक्षा देना सो उपस्थापन है।
२-ये सब भेद व्यवहार प्रायश्चित्तके हैं। जिस जीवके निश्चय प्रायश्चित्त प्रगट हुआ हो उस जीवके इस नवप्रकारके प्रायश्चित्तको व्यवहारप्रायश्चित्त कहा जाता है किन्तु यदि निश्चय-प्रायश्चित्त प्रगट न हुआ हो तो वह व्यवहाराभास है।
३-निश्चय प्रायश्चित्तका स्वरूप निजात्माका ही जो उत्कृष्ट बोध, ज्ञान तथा चित्त है जो जीव उसे नित्य धारण करते है उसके ही प्रायश्चित्त होता है ( बोध, ज्ञान और चित्तका एक ही अर्थ है ) प्रायः-प्रकृष्टरूपसे और चित्त-ज्ञान, अर्थात् प्रकृष्टरूपसे जो ज्ञान है वही प्रायश्चित्त है। क्रोधादि विभावभावोंका क्षय करनेकी भावनामें प्रवर्तना तथा आत्मिक गुणोंका चिंतन करना सो यथार्थ प्रायश्चित्त है। निज आत्मिक तत्त्वमें रमणरूप जो तपश्चरण है वही शुद्ध निश्चय प्रायश्चित्त है। (देखो नियमसार गाथा ११३ से १२१ )
४-निश्चय प्रतिक्रमणका स्वरूप जो कोई वचनकी रचनाको छोड़कर तथा राग द्वेषादि भावोंका निवारण करके स्वात्माको ध्याता है उसके प्रतिक्रमण होता है। जो मोक्षार्थी जीव सम्पूर्ण विराधना अर्थात् अपराधको छोड़कर स्वरूपकी आराधनामें वर्तन करता है उसके यथार्थ प्रतिक्रमण है।
(श्री नियमसार गाथा ८३-८४)
५-निश्चय आलोचनाका स्वरूप जो जीव स्वात्माको-नोकर्म, द्रव्यकर्म तथा विभाव गुण पर्यायसे रहित ध्यान करते हैं उसके यथार्थ आलोचना होती है। समताभावमें स्वकीय परिणामको धरकर स्वात्माको देखना सो यथार्थ आलोचना है । ( देखो श्री नियमसार गाथा १०७ से ११२ ) ॥२२॥
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अध्याय ६ सूत्र २३-२४ अब सम्यक् विनयतपके चार भेद बतलाते हैं
ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः ॥२३॥ अर्थ-[ ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः] ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, और उपचारविनय ये विनयतपके चार भेद हैं।
टीका (१) ज्ञानविनय-आदरपूर्वक योग्यकालमे सत्शास्त्रका अभ्यास करना, मोक्षके लिए, ज्ञानका ग्रहण-अभ्यास-संस्मरण आदि करना सो ज्ञानविनय है।
(२) दर्शनविनय-शंका, कांक्षा, आदि दोष रहित सम्यग्दर्शनको धारण करना सो दर्शनविनय है।
(३) चारित्रविनय-निर्दोष रीतिसे चारित्रको पालना ।
(४) उपचारविनय--आचार्य आदि पूज्य पुरुषोंको देखकर खड़े होना, नमस्कार करना इत्यादि उपचार विनय है । ये सब व्यवहारविनयके भेद हैं।
निश्चयविनयका स्वरूप जो शुद्ध भाव है सो निश्चयविनय है। स्वके अकषायभावमें अभेद परिणमनसे, शुद्धतारूपसे स्थिर होना सो निश्चयविनय है, इसीलिये कहा जाता है कि "विनयवंत भगवान कहावे, नही किसीको शीष नमा" अर्थात् भगवान विनयवन्त कहे जाते है किन्तु किसीको मस्तक नही नवाते ॥२३॥
अब सम्यक् वैयावृत्य तपके १० भेद बतलाते हैं श्राचार्योपाध्यायतपस्विशैक्ष्यग्लानगणवुलसंघसाधु
मनोज्ञानाम् ॥ २४ ॥ . अर्थ-[प्राचार्योपाध्यायतपस्विशैक्ष्यग्लानगणकुलसंघसाघमनो
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मोक्षशाख
ज्ञानाम् ] आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य ग्लान, गरण, कुल, संघ, साधु ओर मनोज्ञ इन दश प्रकारके मुनियोंकी सेवा करना सो वैयावृत्य तपके दश भेद हैं ।
टीका
१ - सूत्रमें आये हुये शब्दोंका अर्थ
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(१) आचार्य - जो मुनि स्वयं पाँच प्रकारके आचारको आचरण करें और दूसरोंको आचरण करावें उन्हें प्राचार्यं कहते हैं ।
(२) उपाध्याय - जिनके पाससे शास्त्रोंका अध्ययन किया जाय उन्हें उपाध्याय कहते हैं ।
(३) तपस्वी - महान उपवास करनेवाले साधुको तपस्वी कहते हैं ! (४) शैक्ष्य - शास्त्र अध्ययनमें तत्पर मुनिको शैक्ष्य कहते है । (५) ग्लान -- रोग से पीड़ित मुनिको ग्लान कहते हैं ।
(६) गण - वृद्ध मुनियोंके अनुसार चलनेवाले मुनियोंके समुदायको गर कहते हैं । (७) कुल
(८) संघ ऋषि, यति मुनि और अनगार इन चार प्रकारके मुनियोंका समूह संघ कहलाता है । ( संघके दूसरी तरहसे मुनि, आर्यिका श्रावक और श्राविका ये भी चार भेद हैं )
- दीक्षा देनेवाले आचार्यके शिष्य कुल कहलाते है ।
-
(९) साधु - जिनने बहुत समयसे दीक्षा ली हो वे साधु कहलाते हैं अथवा जो रत्नत्रय भावनासे अपनी आत्माको साधते हैं उन्हें साधु कहते हैं ।
(१०) मनोज्ञ -- मोक्षमागं प्रभावक, वक्तादि गुणोसे शोभायुक्त जिसकी लोकमें अधिक ख्याति हो रही हो ऐसे विद्वान मुनिको मनोज्ञ कहते हैं, अथवा उसके समान असंयत सम्यग्दृष्टिको भी मनोज्ञ कहते हैं ।
( सर्वार्थ सि० टीका )
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अध्याय ६ सूत्र २४-२५
७१७ २-इन प्रत्येककी सेवा सुश्रूषा करना सो वैयावृत्य है । यह वैयावृत्य शुभभावरूप है, इसीलिये व्यवहार है। वैयावृत्यका अर्थ सेवा है। स्वके अकषाय भावकी जो सेवा है सो निश्चय वैयावृत्य है।
३-संघके चार भेद बतलाये, अब उनका अर्थ लिखते हैंऋषि-ऋद्धिधारी साधुको ऋषि कहते हैं ।
यति-इन्द्रियोंको वशमें करनेवाले साधु अथवा उपशम या क्षपकश्रेणी मांडनेवाले साधु यति कहलाते है।
मुनि-अवधिज्ञानी या मनःपर्ययज्ञानी साधु मुनि कहे जाते है । अनगार-सामान्य साधु अनगार कहलाते हैं।
पुनश्च ऋषिके भी चार भेद हैं--(१) राजर्षि विक्रिया, अक्षीण ऋद्धि प्राप्त मुनि राजर्षि कहलाते हैं। (२) ब्रह्मर्षि बुद्धि, सर्वोषधि आदि ऋद्धि प्राप्त साधु ब्रह्मर्षि कहलाते है । (३) देवर्षि आकाशगमन ऋद्धि प्राप्त साधु देवर्षि कहे जाते हैं। (४) परमर्षि-केवलज्ञानीको परमर्षि कहते हैं।
सम्यक् स्वाध्याय तपके ५ भेद वाचनापृच्छनानुप्रेक्षाऽऽम्नायधर्मोपदेशाः ॥२५॥
अर्थ-[वाचनापुच्छनानुप्रेक्षाम्नाय धर्मोपदेशाः] वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश ये स्वाध्यायके ५ भेद है।
टीका वाचना-निर्दोष ग्रन्थ, उसका अर्थ तथा दोनोका भव्य जीवोंको श्रवण कराना सो वाचना है।
पृच्छना-संशयको दूर करनेके लिये अथवा निश्चयको दृढ़ करनेके लिए प्रश्न पूछना सो पृच्छना है ।
अपना उच्चपन प्रगट करनेके लिये, किसीको ठगनेके लिये, किसीको
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मोक्षशास्त्र हरानेके लिये, दूसरेका हास्य करनेके लिये आदि खोटे परिणामोंसे प्रश्न करना सो पृच्छना स्वाध्यायतप नहीं है।
___अनुप्रेक्षा-जाने हुए पदार्थोंका बारम्बार चितवन करना सो अनुप्रेक्षा है।
आम्नाय-निर्दोष उच्चारण करके पाठको घोखना सो आम्नाय है। धर्मोपदेश-धर्मका उपदेश करना सो धर्मोपदेश है। प्रश्न-ये पाँच प्रकारके स्वाध्याय किसलिये कहे हैं ।
उत्तर--प्रज्ञाकी अधिकता,प्रशंसनीय अभिप्राय, उत्कृष्ट उदासीनता, तपकी वृद्धि, मतिचारकी विशुद्धि इत्यादिके कारण पांच प्रकारके स्वाध्याय कहे गये हैं ॥२५॥
सम्यक् व्युत्सर्गतपके दो भेद बतलाते हैं
बाह्याभ्यंतरोपध्योः ॥२६॥ अर्थ-[बाह्याभ्यंतरोपध्योः] बाह्य उपधि व्युत्सर्ग और अभ्यंतर उपधिव्युत्सर्ग ये दो व्युत्सर्ग तपके भेद हैं ।
टीका १-बाह्य उपधिका अर्थ है बाह्य परिग्रह और आभ्यन्तर उपधि का अर्थ आभ्यन्तर परिग्रह है। दस प्रकारके बाह्य और चौदह प्रकारके अन्तरंग परिग्रहका त्याग करना सो व्युत्सर्ग तप है । जो आत्माका विकारी परिणाम है सो अन्तरंग परिग्रह है, इसका बाह्य परिग्रहके साथ निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है।
२-प्रश्न-यह व्युत्सर्गतप क्यों कहा ?
उचर-निःसंगत्व, निर्भयता, जीनेकी आशाका अभाव करने आदिके लिये यह तप है।
३-जो चौदह अंतरंग परिग्रह हैं, उनमें सबसे प्रथम मिथ्यात्व दूर
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अध्याय ६ सूत्र २६-२७
७१६
होता है इसके दूर किये बिना अन्य कोई भी परिग्रह दूर ही नहीं होता । यह सिद्धान्त बतानेके लिये इस शास्त्रके पहले ही सूत्रमे मोक्षमार्ग के रूप में जो श्रात्मा के तीन शुद्धभावोंकी एकताकी आवश्यकता बतलाई है उसमें भी प्रथम सम्यग्दर्शन ही बतलाया है । सम्यग्दर्शनके बिना ज्ञान या चारित्र भी सम्यक् नही होते । चारित्र के लिए जो 'सम्यक्' विशेषरण दिया जाता है वह अज्ञानपूर्वक आचरणकी निवृत्ति बतलाता है । पहले सम्यक् श्रद्धा ज्ञान होनेके बाद जो यथार्थ चारित्र होता है वही सम्यक् चारित्र है । इसलिये मिथ्यात्वको दूर किये बिना किसी प्रकारका तप या धर्म नहीं होता ॥२६॥
यह निर्जरातत्त्वका वर्णन चल रहा है । निर्जराका कारण तप है । तपके भेदोका वर्णन चालू है, उसमें श्राभ्यंतर तपके प्रारंभके पांच भेदोंका वर्णन पूर्ण हुआ । अब छठा भेद जो ध्यान है, उसका वर्णन करते हैं । सम्यकू ध्यानतपका लक्षण
उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिंतानिरोधो ध्यानमान्तमुहूर्तात् ॥२७॥
अर्थ -[उत्तमसंहननस्य ] उत्तम संहननवालेके [श्रा अंतर्मुहूर्तात् ] अन्तर्मुहूर्त तक [ एकाग्र चितानिरोधो ध्यानम् ] एकाग्रतापूर्वक चिंताका निरोध सो ध्यान है ।
टीका
१ - उत्तमसंहनन ——— वज्रर्षभनाराच, वज्रनाराच और नाराच ये तीन उत्तमसंहनन हैं । इनमें मोक्ष प्राप्त करनेवाले जीवके पहला वज्रर्षभनाराच संहनन होता है ।
एकाग्र — एकाग्र का अर्थ मुख्य, सहारा, अवलम्बन, श्राश्रय, प्रधान अथवा सन्मुख होता है । वृत्तिको अन्य क्रियासे हटाकर एक ही विषयमें रोकना सो एकाग्रचितानिरोध है और वही ध्यान है । जहाँ एकाग्रता नही वहाँ भावना है ।
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मोक्षशास्त्र
२ - इस सूत्र में ध्याता ध्यान, ध्येय और ध्यानका समय ये चार बातें निम्नरूपसे आ जाती हैं
७२०
(१) जो उत्तमसंहननधारी पुरुष है वह ध्याता है । (२) एकाग्रचिंताका निरोध सो ध्यान है ।
(३) जिस एक विषयको प्रधान किया सो ध्येय है ।
(४) अन्तर्मुहूर्त यह ध्यानका उत्कृष्ट काल है ।
मुहूर्त का अर्थ है ४८ मिनिट और अन्तः मुहूर्त का अर्थ है ४८ मिनटके भीतरका समय । ४८ मिनिटमें एक समय कम सो उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है ।
३- यहाँ ऐसा कहा है कि उत्तमसंहननवालेके अन्तर्मुहूर्त तक ध्यान रह सकता है, इसका यह अर्थ हुवा कि अनुत्तम संहननवालेके सामान्य ध्यान होता है अर्थात् जितना समय उत्तमसंहननवालेके रहता है उतना समय उसके ( ग्रनुत्तम संहननवालेके ) नही रहता । इस सूत्र कालका कथन किया है जिसमें यह सम्बन्ध गर्भितरूपसे आ जाता है ।
४- अष्टप्राभृतके मोक्षप्राभृतमें कहा है कि जीव आज भी तीन रत्न (रत्नत्रय) के द्वारा शुद्धात्माको ध्याकर स्वर्गलोकमें अथवा लोकांतिक मे देवत्व प्राप्त करता है और वहाँसे चयकर मनुष्य होकर मोक्ष प्राप्त करता है ( गाथा ७७ ), इसलिये पंचमकालके अनुत्तम संहननवाले जीवोंके भी धर्मध्यान हो सकता है ।
प्रश्न- ध्यान में चिंताका निरोध है, और जो चिंताका निरोध है सो प्रभाव है, अतएव उस अभावके कारण ध्यान भी गधेके सीगकी तरह असत् हुआ ?
उत्तर- - ध्यान श्रसत्रूप नहीं । दूसरे विचारोंसे निवृत्तिकी अपेक्षासे प्रभाव है, परन्तु स्व विषयके प्राकारकी अपेक्षासे सद्भाव है अर्थात् उसमें स्वरूपको प्रवृत्तिका सद्भाव है, ऐसा 'एकाग्र' शब्दसे निश्चय किया जा रायना है । स्वरुपकी अपेक्षासे ध्यान विद्यमान सतरूप है ।
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अध्याय ६ सूत्र २७-२८-२६
७२१ ६-इस सूत्रका ऐसा भी अर्थ हो सकता है कि जो ज्ञान चंचलता रहित अचल प्रकाशवाला अथवा दैदीप्यमान होता है वह ध्यान है।
ध्यानके भेदआरौद्रधर्म्यशुक्लानि ॥२८॥ अर्थ-[ प्रातरौद्रधय॑शुक्लानि ] आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल ये ध्यान के चार भेद है।
टीका प्रश्न-यह संवर-निर्जराका अधिकार है और यहाँ निर्जराके कारणोका वर्णन चल रहा है। आर्त और रौद्रध्यान तो बंधके कारण हैं तो उन्हे यहाँ क्यों लिया ? |
उचर-निर्जराका कारणरूप जो ध्यान है उससे इस ध्यानको अलग दिखानेके लिये ध्यानके सब भेद समझाये है।
मार्तध्यान-दुख पीड़ारूप चितवन का नाम आर्तध्यान है। रौद्रध्यान-निर्दय-क्रूर आशयका विचार करना । धर्मध्यान-धर्म सहित ध्यान को धर्मध्यान कहते है ।
शुक्लध्यान-शुद्ध पवित्र उज्ज्वल परिणामवाला चितवन शुक्लध्यान कहलाता है।
इन चार ध्यानोमें पहले दो अशुभ हैं और दूसरे दो धर्मरूप हैं ।। २८ ॥
अब मोक्षके कारणरूप ध्यान बताते हैं
परे मोक्षहेतू ॥ २६ ॥ अर्थ-[ परे ] जो चार प्रकारके ध्यान कहे उनमेसे अन्तके दो अर्थात् धर्म और शुक्लध्यान [ मोक्षहेतू ] मोक्षके कारण हैं।
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७२२
मोक्षशाखा
टीका पहले दो ध्यान अर्थात् आर्तध्यान और रौद्रध्यान संसारके कारण हैं और निश्वय धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान मोक्षके कारण हैं।
प्रश्न-यह तो सूत्रमें कहा है कि अन्तिम दो ध्यान मोक्षके कारण है, कितु ऐसा अर्थ सूत्रमेंसे किसतरह निकाला कि पहले दो ध्यान संसार के कारण है ?
उत्तर-मोक्ष और संसार इन दो के अतिरिक्त और कोई साधने योग्य पदार्थ नहीं । इस जगतमें दो ही मार्ग हैं-मोक्षमार्ग और संसारमागं । इन दो के अतिरिक्त तीसरा कोई साधनीय पदार्थ नही है, अतएव यह सूत्र यह भी बतलाता है कि धर्मध्यान और शुक्लध्यानके अलावा आर्त और रौद्रध्यान संसारके कारण हैं ॥ २६ ॥ ____ आर्चध्यानके चार भेद हैं, अब उनका वर्णन अनुक्रम से
चार सूत्रों द्वारा करते हैं प्रार्तममनोज्ञस्य संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वा
हारः॥३०॥ अर्थ-[अमनोजस्य संप्रयोगे ] अनिष्ट पदार्थका संयोग होने पर [ तद्विप्रयोगाय ] उसके दूर करनेके लिये [ स्मृति समन्वाहारः ] बारंवार विचार करना सो [पार्तम् ] अनिष्ट संयोगज नामका आर्तध्यान है ॥ ३० ॥
विपरीतं मनोज्ञस्य ॥ ३१॥ __ अर्थ-[ मनोजस्य ] मनोज्ञ पदार्थ संबंधी [ विपरीत ] उपरोक्त सूत्रमे कहे हुयेसे विपरीत अर्थात् इष्ट पदार्थका वियोग होनेपर उसके संयोगके लिये वारंवार विचार करना सो 'इष्ट वियोगज' नामका आत्तध्यान है ॥ ३१॥
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अध्याय ६ सूत्र ३२-३३-३४
७२३ वेदनायाश्च ॥ ३२॥ अर्थ-[ वेदनायाः च ] रोगजनित पीड़ा होनेपर उसे दूर करनेके लिये बारंबार चितवन करना सो वेदना जन्य प्रात्तध्यान है ॥३२॥
निदानं च ॥ ३३॥ अर्थ-[ निदानं च] भविष्यकाल संबंधी विषयोकी प्राप्तिमें चित्तको तल्लीन कर देना सो निदानज आर्तध्यान है ॥ ३३ ॥
अब गुणस्थानकी अपेक्षासे आध्यानके स्वामी वतलाते हैं तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् ॥ ३४॥
अर्थ-[तत्] वह आर्तध्यान [अविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम्] अविरत-पहले चार गुणस्थान, देशविरत-पांचवाँ गुणस्थान और प्रमत संयत-छट्ठ गुणस्थानमें होता है।
नोट-निदान नामका आर्तध्यान छट्ठ गुणस्थानमें नहीं होता।
टीका
मिथ्यावृष्टि जीव तो अविरत है और सम्यग्दृष्टि जीव भी अविरत होता है इसीलिये ( १ ) मिथ्यादृष्टि ( २ ) सम्यग्दृष्टि अविरति (३) देशविरत और ( ४ ) प्रमत्तसंयत इन चार प्रकारके जीवोंके आर्तध्यान होता है । मिथ्याष्टिके सबसे खराब प्रार्तध्यान होता है और उसके बाद प्रमत्तसंयत तक वह क्रमक्रम से मद होता जाता है। छठे गुणस्यान के बाद आर्तध्यान नहीं होता।
मिथ्यादृष्टि जीव पर वस्तुके संयोग-वियोगको आतंव्यानका कारण मानता है, इसीलिये उसके यथार्थमे आर्तध्यान मंद भी नही होता। सम्यग्दृष्टि जीवोंके प्रार्तध्यान क्वचित् होता है और इसका कारण उनके पुरुषार्थकी कमजोरी है ऐसा जानते है, इसीलिये वे स्व का-पुरुषार्थ बढ़ा कर धीरे धीरे आर्तध्यानका अभाव करके अंतमे उसका सर्वथा नाश करते हैं । मिथ्यादृष्टि जीवके स्वीय ज्ञानस्वभावकी अरुचि है इसीलिये उसके सर्वत्र, निरतर दुःखमय आर्तध्यान वर्तता है; सम्यग्दृष्टि जीवके स्व
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७२४
- मोक्षशास्त्र के ज्ञान स्वभावकी अखण्ड रुचिश्रद्धा वर्तती है। इसीलिये उसके हमेशा धर्मध्यान रहता है, मात्र पुरुषार्थकी कमजोरीसे किसी समय अशुभभावरूप प्रार्तध्यान भी होता है, किन्तु वह मंद होता है ॥ ३४ ॥
अब रौद्रध्यानके भेद और स्वामी बतलाते हैं हिंसाऽनृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेश
विरतयोः॥३५॥ अर्थ-[ हिंसानतस्तेय विषय संरक्षणेभ्यः] हिंसा, असत्य, चोरो, और विषय संरक्षणके भावसे उत्पन्न हुआ ध्यान [ रौद्रम् ] रौद्रध्यान है; यह ध्यान [ अविरतदेशविरतयोः ] अविरत और देशविरत ( पहलेसे पाँच ) गुणस्थानोंमें होता है।
टीका
जो ध्यान क्रूर परिणामोंसे होता है वह रौद्रध्यान है । निमित्तके भेदकी अपेक्षासे रौद्रध्यानके ४ भेद होते हैं वे निम्नप्रकार हैं:
१-हिंसानंदी-हिसामें आनन्द मानकर उसके साधन मिलानेमें तल्लीन रहना सो हिंसानंदी है।
२-मृपानंदी-झूठ बोलनेमे आनन्द मान उसका चितवन करना। ३-चौर्यानंदी-चोरीमें आनन्द मानकर उसका विचार करना। ४-परिग्रहानंदी-परिग्रहकी रक्षाकी चिंतामें तल्लीन हो जाना।
अव धर्मध्यानके भेद बताते हैं आज्ञाऽपायविपाकसंस्थानविचयाय धर्म्यम् ॥३६॥
अर्थ-[मातापायविपाकसंस्थानविचयाय] आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचयके लिये चितवन करना सो [ धर्म्यम् ] धर्मध्यान है।
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७२५
अध्याय ६ सूत्र ३६
टीका १-धर्मध्यानके चार भेद निम्नप्रकार है। (१) आज्ञाविचय-प्रागमकी प्रमाणतासे अर्थका विचार करना।
(२) अपायविचय-संसारी जीवोंके दुःखका और उसमेसे छूटने के उपायका विचार करना सो अपायविचय है।
(३) विपाकविचय-कर्मके फलका ( उदयका ) विचार करना।
(४) संस्थानविचय-लोकके श्राकारका विचार करना । इत्यादि विचारोंके समय स्वसन्मुखताके बलसे जितनी आत्म परिणामोकी शुद्धता हो, उसे धर्मध्यान कहते हैं।
२-उपरोक्त चार प्रकारके सम्बन्धमे विचार ।
(१) वीतराग आज्ञा विचार, साधकदशाका विचार, मैं वर्तमानमे आत्मशुद्धिकी कितनी भूमिका-(कक्षा) मे वर्तता हूँ उसीका स्वसन्मुखतापूर्वक विचार करना वह प्राज्ञाविचय धर्मध्यान है।
(२) बाधकताका विचार,-कितने अंशमें सरागता-कषायकरण विद्यमान हैं ? मेरी कमजोरी ही विघ्नरूप है, रागादि ही दुःखके कारण हैं ऐसे भावकर्मरूप बाधक भावोका विचार, अपायविचय है।
(३) द्रव्यकर्मके विपाकका विचार, जीवकी भूलरूप मलिनभावोंमें कर्मोंका निमित्तमात्ररूप सम्बन्धको जानकर स्वसन्मुखताके वलको संभालना, जड़कर्म किसीको लाभ हानि करनेवाला नही है, ऐसा विचार विपाकविचय है।
(४) संस्थानविचय-मेरे शुद्धात्मद्रव्यका प्रगट निरावरण सस्थान आकार कैसे पुरुषार्थसे प्रगट हो, शुद्धोपयोगकी पूर्णता सहित, स्वभाव व्यंजन पर्यायका स्वयं, स्थिर, शुद्ध आकार कब प्रगट होगा, ऐसा विचार करना सो संस्थानविचय है।
३-प्रश्न-छ8 गुणस्थानमें तो निर्विकल्पदशा नही होती तो वहीं उस धर्मध्यान कैसे संभव हो सकता है।
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७२६
मोक्षशास्त्र उत्तर-यह ठीक है कि छ8 गुणस्थानमें विकल्प होता है, परन्तु वहाँ उस विकल्पका स्वामित्व नहीं और सम्यग्दर्शनको दृढ़ता होकर अशुभ राग दूर होता जाता है, और तीन प्रकारके कषाय रहित वीतरागदशा है अतएव उतने दरजेमें वहाँ धर्मध्यान है और उससे संवर-निर्जरा होती है। चौथे और पांचवें गुणस्थानमें भी धर्मध्यान होता है और उससे उस गुणस्थानके योग्य संवर-निर्जरा होती है। जो शुभभाव होता है वह तो बंधका कारण होता है, वह यथार्थ धर्मध्यान नहीं। अतः किसीको शुभराग द्वारा धर्म हो ऐसा नहीं है।
४-धर्मध्यान-(धर्मका अर्थ है स्वभाव और ध्यानका अर्थ है एकाग्रता ) अपने शुद्धस्वभावमें जो एकाग्रता है सो निश्चय धर्मध्यान है; जिसमें क्रियाकाण्डके सर्व माडंबरोंका त्याग है, ऐसी अंतरंग क्रियाके आधाररूप जो आत्मा है उसे, मर्यादा रहित तीनों कालके कर्मोको उपाधि रहित निजस्वरूपसे जानता है, वह ज्ञानकी विशेष परिणति या जिसमें आत्मा स्वाश्रयमें स्थिर होता है सो निश्चय धर्मध्यान है और यहो सवर निर्जराका कारण है।
जो व्यवहार धर्मध्यान है वह शुभभाव है; कर्मके चितवनमें मन लगा रहे, यह तो शुभपरिणामरूप धर्मध्यान है । जो केवल शुभपरिणामसे मोक्ष मानते है उन्हे समझाया है कि शुभपरिणामसे अर्थात् व्यवहार धर्मध्यानसे मोक्ष नहीं होता। [ देखो समयसार गाथा २६१ की टीका तथा भावार्थ ] आगम (-शास्त्र) की आज्ञा क्या है-जो यह ज्ञानस्वरूप प्रात्मा ध्रुव-अचल-ज्ञानस्वरूपसे परिणमित प्रतिभासते हैं, वही मोक्षका हेतु है कारण कि वह स्वयं भी मोक्षस्वरूप है; उसके अलावा जो कुछ है वह बन्धके हेतु है, कारण कि वह स्वयं भी बन्धस्वरूप है इसलिये ज्ञानस्वरूप होनेका अर्थात् अनुभूति करनेकी ही आगममें आज्ञा (-फरमान ) है। ( समयसार गाथा १५३ कलश १०५) ॥ ३६ ॥
अव शुक्लध्यानके स्वामी बताते हैं शुक्ले चाद्यपूर्वविदः ॥३७॥
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अध्याय ६ सूत्र ३७-३८
७२७ अर्थ- शुक्ले चाधे ] पहले दो प्रकारके शुक्लध्यान अर्थात् पृथक्त्ववितर्क और एकत्ववितर्क ये दो ध्यान भी [ पूर्वविदः ] पूर्वज्ञानधारी श्रुतकेवलीके होता है ।
नोट-इस सूत्रमें च शब्द है वह यह बतलाता है कि श्रुत केवली के धर्मध्यान भी होता है।
टीका शुक्लध्यानके ४ भेद ३६ वें सूत्रमे कहेगे। शुक्लध्यानका प्रथम भेद आठवे गुणस्थानमे प्रारंभ होकर क्षपकमे-दशवें और उपशमकमें ११ वें गुरणस्थान तक रहता है, उनके निमित्तसे मोहनीय कर्मका क्षय या उपशम होता है। दूसरा भेद बारहवें गुणस्थानमें होता है, इसके निमित्तसे बाकीके धाति कर्म-यानी ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय कर्मका क्षय होता है । ग्यारहवे गुणस्थानमे पहला भेद होता है।
२-इस सूत्रमे पूर्वधारी श्रुत केवलीके शुक्लध्यान होना बताया है सो उत्सर्ग कथन है, इसमें अपवाद कथनका गौरणरूपसे समावेश हो जाता है । अपवाद कथन यह है कि किसी जीवके निश्चय स्वरूपाश्रितमात्र आठ प्रवचनमाताका सम्यग्ज्ञान हो तो वह पुरुषार्थ बढाकर निजस्वरूपमें स्थिर होकर शुक्लध्यान प्रगट करता है, शिवभूति मुनि इसके दृष्टात हैं, उनके विशेष शाख ज्ञान न था तथापि ( हेय और उपादेयका निर्मल ज्ञान था,) निश्चयस्वरूपाश्रित सम्यग्ज्ञान था, और इसीसे पुरुषार्थ बढाकर शुक्लध्यान प्रगट करके केवलज्ञान प्राप्त किया था।
( तत्त्वार्थसार अध्याय ६ गाथा ४६ की टीका ) ॥ ३७॥
शुक्लध्यानके चार भेदोंमेंसे पहले दो भेद किसके होते हैं यह बतलाया; अब यह बतलाते हैं कि बाकीके दो भेद किसके होते हैं।
परे केवलिनः ॥ ३८॥ अर्थ- परे ] शुक्लध्यानके अन्तिम दो भेद अर्थात सूक्ष्म क्रिया
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७२८
मोक्षशास्त्र प्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवर्ति ये दो ध्यान [ केवलिनः ] केवली भगवान्के होते हैं।
टीका तेरहवें गुणस्थानके अंतिम भागमें शुक्लध्यानका तोसरा भेद होता है, उसके बाद चौथा भेद चौदहवें गुणस्थानमें प्रगट होता है ॥ ३८ ॥
शुक्लध्यानके चार भेद पृथक्त्वैकत्ववितर्कसूक्ष्म क्रियाप्रतिपातिव्युपरतक्रिया
निवर्तीनि ॥३६॥ अर्थ~[ पृथक्त्वैकत्व वितर्क सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति व्युपरतक्रियानिवर्तीनि] पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरत क्रियानिवर्ति ये शुक्लध्यानके चार भेद हैं ॥ ३९ ॥
अब योगकी अपेक्षासे शुक्लध्यानके स्वामी बतलाते हैं।
त्र्येकयोगकाययोगायोगानाम् ॥ ४०॥
अर्थ-[व्येकयोगकाययोगायोगानाम् ] ऊपर कहे गये चार प्रकारके शुक्लध्यान अनुक्रमसे तीनयोगवाले, एकयोगवाले, मात्र काययोगवाले और अयोगी जीवोके होता है।
टीका १-पहला पृथक्त्ववितध्यान मन, वचन और काय इन तीन योगोंके धारण करनेवाले जीवोंके होता है ( गुणस्थान ८ से ११)
दूसरा एकत्ववितर्कध्यान तीनमेंसे किसी एक योगके धारकके होता है ( १२ वे गुणस्थानमें होता है )
तीसरा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यान मात्र काययोगके धारण करने वालेके होता है ( १३ वें गुणस्थानके अतिम भाग)
चौथा व्युपरतक्रियानिवर्तिध्यान योग रहित-अयोगी जीवोंके होता
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७२६
अध्याय ६ सूत्र ४० है ( चौदहवें गुणस्थानमें होता है )
२-केवलीके मनोयोग संबंधी स्पष्टीकरण (१) केवली भगवानके अतीन्द्रिय ज्ञान होता है, इसका यह मतलब नहीं है कि उनके द्रव्यमन नहीं है । उनके द्रव्यमनका सद्भाव है किंतु उनके मन निमित्तक ज्ञान नहीं है क्योकि मानसिकज्ञान तो क्षायोपशमरूप है और केवलो भगवानके क्षायिकज्ञान है अतः इसका अभाव है।
२. मनोयोग चार प्रकारका है (१) सत्य मनोयोग ( २ ) असत्य मनोयोग ( ३ ) उभय मनोयोग और ( ४ ) अनुभय मनोयोग, इस चौथे अनुभय मनोयोगमें सत्य और असत्य दोनों नही होते । केवली भगवानके इन चारमेंसे पहला और चौथा मनोयोग वचनके निमित्तसे उपचारसे कहा जाता है।
३. प्रश्न-यह तो ठीक है कि केवलीके सत्यमनोयोगका सद्भाव है, किन्तु उनके पदार्थोका यथार्थ ज्ञान है और संशय तथा अध्यवसायरूप ज्ञानका अभाव है इसीलिये उनके अनुभय अर्थात् असत्यमृषामनोयोग कैसे संभव होता है ?
उत्तर--संशय और अनध्यवसायका कारणरूप जो वचन है उसका निमित्त कारण मन होता है, इसीलिये उसमे श्रोताके उपचारसे अनुभय धर्म रह सकता है अतः सयोगी जिनके अनुभय मनोयोगका उपचारसे सद्भाव कहा जाता है । इसप्रकार सयोगी जिनके अनुभयमनोयोग स्वीकार करने में कोई विरोध नही है । केवलीके ज्ञानके विषयभूत पदार्थ अनंत होनेसे, और श्रोताके प्रावरण कर्मका क्षयोपशम अतिशयरहित होनेसे केवलीके वचनोंके निमित्तसे संशय और अनध्यवसाय की उत्पत्ति हो सकती है, इसीलिए उपचारसे अनुभय मनोयोगका सद्भाव कहा जाता है। (श्री धवला पु. १ पृष्ठ २८२ से २८४ तथा ३०८)
३-केवलीके दो प्रकारका वचन योग केवली भगवानके क्षायोपशमिकज्ञान ( भावमन ) नही है तथापि
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मोक्षशास्त्र उनके सत्य और अनुभय दो प्रकारके मनोयोगको उत्पत्ति कही जाती है वह उपचारसे कही जाती है। उपचारसे मन द्वारा इन दोनों प्रकारके वचनोंकी उत्पत्तिका विधान किया गया है। जिस तरह दो प्रकारका मनोयोग कहा गया है उसीप्रकार दो प्रकारका वचन योग भी कहा गया है, यह भी उपचारसे है क्योंकि केवली भगवानके बोलनेकी इच्छा नहीं है, सहजरूपसे दिव्यध्वनि है।
(श्री घवला पुस्तक १ पृष्ठ २८३ तथा ३०८ ) ४-क्षपक तथा उपशमक जीवोंके चार मनोयोग किस तरह हैं ?
शंका-क्षपक (-क्षपक श्रेणीवाले ) और उपशमक ( उपशम श्रेणीवाले ) जीवोके भले ही सत्यमनोयोग और अनुभय मनोयोगका सद्भाव हो किन्तु बाकीके दो-असत्यमनोयोग और उभयमनोयोगका सद्भाव किस तरह है ? क्योंकि उन दोनोंमें रहनेवाला जो अप्रमाद है सो असत्य और उभयमनोयोगके कारणभूत प्रमादका विरोधी है अर्थात् क्षपक और उपशमक प्रमाद रहित होता है, इसीलिये उसके असत्य मनोयोग और उभयमनोयोग किस तरह होते है ?
समाधान-आवरणकर्मयुक्त जीवोके विपर्यय और अनध्यवसायरूप अज्ञानके कारणभूत मनका सद्भाव माननेमे और उससे असत्य तथा उभयमनोयोग मानने में कोई विरोध नही; परन्तु इस कारणसे क्षपक और उपशमक जीव प्रमत्त नहीं माने जा सकते, क्योकि प्रमाद मोहकी पर्याय है।
(श्री धवला पु० १ पृष्ठ २८५-२८६) नोट-ऐसा माननेमे दोष है-कि समनस्क (-मनसहिल )जीवोंके ज्ञानकी उत्पत्ति मनोयोगसे होती है। क्योकि ऐसा मानने में केवलज्ञानसे व्यभिचार पाता है। किन्तु यह बात सत्य है कि समनस्क जोवोंके क्षायोपगमिक ज्ञान होता है और उसमें मनोयोग निमित्त है। और यह मानने में भी दोप है कि-समस्त वचन होनेमें मन निमित्त है, क्योकि ऐसा
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अध्याय 8 सूत्र ४०-४१-४२
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माननेसे केवली भगवानके मनके निमित्तका प्रभाव होनेसे उनके वचनका अभाव हो जायगा । ( श्री धवला पु० १ पृष्ठ २८७-२८८ ) ५ - क्षपक और उपशमक जीवोंके वचनयोग सम्बन्धी स्पष्टीकरण
शंका- जिनके कषाय क्षीण होगई है ऐसे जीवोके श्रसत्य वचन - योग कैसे हो सकता है ?
समाधान-असत्यवचनका कारण अज्ञान है और वह बारहवे गुणस्थान तक होता है, इस अपेक्षासे बारहवे गुणस्थान तक असत्यचञ्चनका सद्भाव होता है; और इसीलिये इसमे भी कोई विरोध नही है कि उभयसंयोगज सत्यमृषावचन भी बारहवें गुणस्थान तक होता है ।
शंका - वचनगुप्तिका पूर्णरीत्या पालन करनेवाले कषाय रहित जीवोंके वचनयोग कैसे संभव होता है ?
समाधान - कषाय रहित जीवों में अंतर्जल्प होनेमे कोई विरोध नहीं है ( श्री धवला पु० १ पृष्ठ २५६ ) ॥ ४० ॥
शुक्लध्यानके पहले दो भेदोंकी विशेषता बतलाते हैं एकाश्रये सवितर्कवीचारे पूर्वे ॥ ४१ ॥
अर्थ - [ एकाश्रये ] एक ( - परिपूर्ण ) श्रुतज्ञानीके आश्रयसे रहनेवितर्क वाले [ पूर्वे ] शुक्लध्यानके पहले दो भेद [ सवितर्क वीचारे और वीचार सहित हैं परन्तु -
अवीचारं द्वितीयम् ॥ ४२ ॥
अर्थ – [ द्वितीयम् ] ऊपर कहे गये शुक्लध्यानो में से दूसरा शुक्लध्यान [ श्रवीचारं ] वीचारसे रहित है, किन्तु सवितर्क होता है । टीका
१–४२ वां सूत्र ४१ वें सूत्रका अपवादरूप है, अर्थात् शुक्लव्यान का दूसरा भेद वीचार रहित है । जिसमें वितर्क और वीचार दोनो हों वह
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मोक्षशास्त्र
पहला पृथक्त्व वितर्क शुक्लध्यान है और जो वीचार रहित तथा वितर्क सहित मणिके दीपककी तरह अचल है सो दूसरा एकत्ववितकं शुक्लव्यान है; इसमें अर्थ, वचन और योगका पलटना दूर हुआ होता है अर्थात् वह संक्रांति रहित है । वितर्ककी व्याख्या ४३ वें और वीचारकी व्याख्या ४४ वें सूत्रमे आवेगी ॥
२- जो ध्यान सूक्ष्म काययोगके अवलंबनसे होता है उसे सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति ( तृतीय ) शुक्लध्यान कहते हैं; और जिसमे आत्मप्रदेशों में परिस्पंद और श्वासोच्छ्वासादि समस्त क्रियायें निवृत्त हो जाती हैं उसे व्युपरत क्रिया निर्वात ( चोथा ) शुक्लध्यान कहते हैं ।। ४१-४२ ॥ वितर्क का लक्षण वितर्कः श्रुतम् ॥ ४३ ॥
अर्थ – [ श्रुतम् ] श्रुतज्ञानको [ वितर्कः ] वितर्क कहते हैं ! नोट- 'श्रुतज्ञान' शब्द श्रवरणपूर्वक ज्ञानका ग्रहण बतलाता है | मतिज्ञानके भेदरूप चिताको भी तर्क कहते हैं वह यहाँ ग्रहण नहीं करना ॥ ४३ ॥
वीचार का लक्षण
वीचारो ऽर्थ व्यंजनयोगसंक्रान्तिः ॥ ४४ ॥
अर्थ - [ श्रर्थ व्यंजन योगसंक्रान्तिः ] अर्थ, व्यंजन और योगका बदलना सो [ वीचारः ] वीचार है ।
टीका
अर्थसंक्रान्ति —अर्थका तात्पर्य है ध्यान करने योग्य पदार्थ और संक्रान्तिका अर्थ बदलना है । ध्यान करने योग्य पदार्थ में द्रव्यको छोड़कर उसकी पर्यायका ध्यान करे अथवा पर्यायको छोड़कर द्रव्यका ध्यान करे सो अर्थ संक्रान्ति है |
व्यंजनसंक्रान्ति - व्यंजनका अर्थ वचन और संक्रांतिका अर्थ बदलना है ।
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अध्याय ६ सूत्र ४४ श्रुतके किसी एक वचनको छोड़कर अन्यका अवलम्बन करना तथा उसे छोड़कर किसी अन्यका अवलम्बन करना तथा उसे छोड़कर किसी अन्यका अवलम्बन करना सो व्यजनसंक्रान्ति है ।
योगसंक्रान्ति-काययोगको छोड़कर मनोयोग या वचनयोगको ग्रहण करना और उसे छोड़कर अन्य योगको ग्रहण करना सो योग संक्रान्ति है।
यह ध्यान रहे कि जिस जीवके शुक्लध्यान होता है वह जीव निर्विकल्प दशामे हो है, इसीलिये उसे इस संक्रान्तिकी खबर नहीं है, किन्तु उस दशामें ऐसी पलटना होती है अर्थात् संक्रान्ति होती है वह केवलज्ञानी जानता है।
ऊपर कही गई संक्रान्ति--परिवर्तनको वीचार कहते हैं। जहां तक यह वीचार रहता है वहाँ तक इस ध्यानको सवीचार (अर्थात् पहला प्रथक्त्ववितर्क ) कहते हैं । पश्चात् ध्यानमे दृढता होती है तब वह परिवर्तन रुक जाता है इस ध्यानको अवीचार ( अर्थात् दूसरा एकत्ववितर्क) कहते हैं।
प्रश्न-क्या केवली भगवानके ध्यान होता है ?
उत्तर--'एकाग्रचिता निरोध' यह ध्यानका लक्षण है। एक एक पदार्थका चितवन तो क्षायोपशमिक ज्ञानीके होता है और केवली भगवानके तो एक साथ सम्पूर्ण पदार्थो का ज्ञान प्रत्यक्ष रहता है। ऐसा कोई पदार्थ अवशिष्ट नही रहा कि जिसका वे ध्यान करें। केवली भगवान कृतकृत्य हैं, उन्हे कुछ करना बाकी नहीं रहा, अतएव उनके वास्तवमै ध्यान नहीं है । तथापि आयु पूर्ण होने पर तथा अन्य तीन कर्मोकी स्थिति पूर्ण होने पर योगका निरोध और कर्मोकी निर्जरा स्वयमेव होती है और ध्यानका कार्य भी योगका निरोध और कर्मोको निर्जरा होना है, इसीलिये केवली भगवानके ध्यानकी सदृश कार्य देखकर-उपचारसे उनके शुक्लध्यान कहा जाता है, यथार्थ में उनके ध्यान नही है [ "भगवान परम सुखको
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मोक्षशास्त्र ध्याते है" ऐसा प्र० सार गा० १६८ में कहा है वहाँ उनको पूर्ण अनुभवदशा दिखाना है ] ॥४४॥
यहाँ ध्यान तपका वर्णन पूर्ण हुआ। __ इस नवमें अध्यायके पहले अठारह सूत्रोंमें संवर और उसके कारणों का वर्णन किया। उसके बाद निर्जरा और उसके कारणोंका वर्णन प्रारंभ किया। वीतरागभावरूप तपसे निर्जरा होती है ( तपसा निर्जरा च सूत्र-३ ) उसे भेद द्वारा समझानेके लिये तपके बारह भेद बतलाये, इसके वाद छह प्रकारके अन्तरंग तपके उपभेदोंका यहाँ तक वर्णन किया। व्रत, गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीपहजय, बारह प्रकारके तप आदि सम्बन्धी खास ध्यानमें रखने योग्य स्पष्टीकरण
१-कितने ही जीव सिर्फ व्यवहारनयका अवलम्बन करते हैं उनके परद्रव्यरूप भिन्न साधनसाध्यभावकी दृष्टि है, इसीलिये वे व्यवहारमें ही खेद खिन्न रहते है । वे निम्नलिखित अनुसार होते हैं
श्रद्धाके सम्बन्धमें-धर्मद्रव्यादि परद्रव्योंकी श्रद्धा करते हैं ।
ज्ञानके सम्बन्धमें-द्रव्यश्रुतके पठन पाठनादि संस्कारोसे अनेक प्रकारके विकल्पजालसे कलंकित चैतन्य वृत्तिको धारण करते है।
चारित्रके संबंधों-यतिके समस्त व्रत समुदायरूप तपादि-प्रवृत्तिरूप कर्मकांडोंको अचलितरूपसे आचरते हैं, इसमे किसी समय पुण्यकी रुचि करते हैं, कभी दयावन्त होते हैं।
दर्शनाचारके संबंध—किसी समय प्रशमता, किसी समय वैराग्य, किसी समय अनुकम्पा-दया और किसी समय आस्तिक्यमें वर्तता है; तथा शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढ़दृष्टि आदि भाव उत्पन्न न हों ऐसी शुभोपयोगरूप सावधानी रखते हैं; मात्र व्यवहारनयरूप उपगृहन, स्थितिकरण, वात्सल्य, प्रभावना इन अंगोंकी भावना विचारते हैं और इस सम्बन्धी उत्साह वार वार बढ़ाते है।
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अध्याय ६ कुछ स्पष्टीकरण
७३५ ज्ञानाचारके सम्बन्धमें-स्वाध्यायका काल विचारते है, अनेक प्रकारकी विनयमे प्रवृत्ति करते है, शास्त्रको भक्तिके लिये दुर्धर उपधान करते है-प्रारम्भ करते हैं, शास्त्रका भले प्रकारसे बहुमान करते है, गुरु आदिमें उपकार प्रवृत्तिको नही भूलते; अर्थ-व्यंजन और इन दोनोंकी शुद्धतामें सावधान रहते हैं।
चारित्राचारके सम्बन्धमें-हिंसा, झूठ, चोरी स्त्री सेवन और परिग्रह इन सबसे विरतिरूप पंचमहाव्रतमें स्थिर वृत्ति धारण करते हैं; योग ( मन-वचन-काय ) के निग्रहरूप गुप्तियोके अवलम्बनका उद्योग करते है। ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपरण और उत्सर्ग इन पाँच समितियोमे सर्वथा प्रयत्नवन्त रहते हैं।
तपाचारके सम्बन्धमें-अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेशमे निरन्तर उत्साह रखता है; प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, व्युत्सर्ग, स्वाध्याय, और ध्यानके लिये चित्तको वशमें करता है ।
वीर्याचारके सम्बन्धमें-कर्मकाडमे सर्वशक्तिपूर्वक वर्तता है ।
ये जीव उपरोक्त प्रमाणसे कर्मचेतनाकी प्रधानता पूर्वक अशुभभावकी प्रवृत्ति छोडते है, किन्तु शुभभावकी प्रवृत्तिको आदरने योग्य मानकर अगीकार करते है, इसीलिये सम्पूर्ण कियाकाडके आडम्बरसे अतिक्रांत दर्शनज्ञान-चारित्रकी ऐक्यपरिणतिरूप ज्ञान चेतनाको वे किसी भी समय प्राप्त नहीं होते।
_ वे बहुत पुण्यके भारसे मथर (-मंद, सुस्त ) हुई चित्तवृत्तिवाले वर्तते है इसीलिये स्वर्गलोकादि क्लेश प्राप्त करके परम्परासे दीर्घकाल तक ससार सागरमें परिभ्रमण करते है ( देखो पंचास्तिकाय गाथा १७२ की टीका )
वास्तवमें तो शुद्धभाव ही-संवर-निर्जरारूप है। यदि शुभभाव 'यथार्थमे संवर-निर्जराका कारण हो तो केवल व्यवहारावलम्बीके समस्त प्रकारका निरतिचार व्यवहार है इसीलिये उसके शुद्धता प्रगट होनी
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मोक्षशास्त्र चाहिये । परन्तु राग संवर-निर्जराका कारण ही नहीं है। अज्ञानी शुभभावको धर्म मानता है इस वजहसे तथा शुभ करते करते धर्म होगा ऐसा माननेसे और शुभ-अशुभ दोनो दूर करने पर धर्म होगा ऐसा नहीं माननेसे उसका तमाम व्यवहार निरर्थक है, इसीलिये उसे व्यवहाराभासी मिथ्याष्टि कहा जाता है।
भव्य तथा अभव्य जीवोंने ऐसा व्यवहार (जो वास्तवमें व्यवहाराभास है) अनन्तबार किया है और इसके फलसे अनन्तबार नवमें गैवेयक स्वर्ग तक गया है, किन्तु इससे धर्म नहीं हुआ। धर्म तो शुद्ध निश्चयस्वभावके आश्रयसे होनेवाले सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रसे ही होता है।
श्री समयसारमें कहा है किबदसमिदीगुतीओ सीलतवं जिणवरेहिं पण्णचं ।
कुव्वंतो वि अभन्यो अण्णाणी मिच्छदिट्ठी दु॥
अर्थ-जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहे गये व्रत, समिति, गुप्ति, शील, तप करने पर भी अभव्य जीव अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि है ।
टीका-यद्यपि अभव्य जीव भी शील और तपसे परिपूर्ण तीन गुप्ति और पांच समितियोंके प्रति सावधानीसे वर्तता हुआ अहिंसादि पांच महाव्रतरूप व्यवहार चारित्र करता है तथापि वह निश्चारित्र (चारित्र रहित ) अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि ही है क्योकि निश्चयचारित्रके कारणरूप ज्ञान श्रद्धानसे शून्य है-रहित है।
__ भावार्थ-अभव्य जीव यद्यपि महाव्रत, समिति, गुप्तिरूप चारित्रका पालन करता है तथापि निश्चय सम्यग्ज्ञान-श्रद्धाके बिना वह चारित्र सम्यक् चारित्र नाम नही पाता; इसलिये वह अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और निश्चारित्र ही है।
नोट-यहाँ अभव्य जीवका उदाहरण दिया है किन्तु यह सिद्धान्त व्यवहारका आश्रयसे हित माननेवाले समस्त जीवोंके एक सरीखा लागू होता है।
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अध्याय ६ सूत्र ४४-४५
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३- जो शुद्धात्माका अनुभव है सो यथार्थ मोक्षमार्ग । इसीलिये उसके निश्चय कहा है । व्रत, तपादि कोई सच्चे मोक्षमार्ग नही, किन्तु निमित्तादिककी अपेक्षासे उपचारसे उसे मोक्षमार्ग कहा है, इसीलिये इसे व्यवहार कहते हैं । इसप्रकार यह जानना कि भूतार्थ मोक्षमार्गके द्वारा निश्चयनय और अभूतार्थ मोक्षमार्गके द्वारा व्यवहारनय कहा है । किन्तु इन दोनोंको ही यथार्थं मोक्षमार्ग जानकर उसे उपादेय मानना सो तो मिथ्याबुद्धि ही है | ( देखो देहली० मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ३६७ ) ४ - किसी भी जीवके निश्चय व्यवहारका स्वरूप समझे विना धर्म या संवर - निर्जरा नही होती । शुद्ध ग्रात्माका यथार्थ स्वरूप समझे विना निश्चय व्यवहारका यथार्थ स्वरूप समझमे नही आता, इसलिये पहले आत्माका यथार्थं स्वरूप समझने की आवश्यकता है ।
अब पात्रकी अपेक्षासे निर्जरामें होनेवाली न्यूनाधिकता बतलाते हैं । सम्यग्दृष्टिश्रावक विरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपकक्षीण मोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः || ४५ ॥
अर्थ -- [ सम्यग्दृष्टि भावक विरतानंत वियोजक दर्शनमोहक्षपकोपशमकोशांतमोह क्षपक क्षीणमोह जिना: ] सम्यग्दृष्टि, पचमगुणस्थानवर्ती श्रावक, विरतमुनि, अनन्तानुबधीका विसंयोजन करनेवाला, दर्शनमोहका क्षय करनेवाला, उपशम श्रेणी मांडनेवाला, उपशांतमोह, क्षपक श्रेणी मांडनेवाला, क्षीणमोह और जिन इन सबके ( अंतर्मुहूर्त पर्यंत परिणामोकी विशुद्धताकी अधिकता से आयुकर्मको छोड़कर ) प्रति समय [क्रमशः असंख्येयगुण निर्जराः ] क्रमसे असख्यात गुणी निर्जरा होती है ।
टीका
(१) यहाँ पहले सम्यग्दृष्टिकी— चौथे गुणस्थान की दशा बतलाई
३
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मोक्षशास
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है । जो असंख्यात गुणी निर्जरा कही है वह निर्जरा सम्यग्दर्शन प्राप्त होने से पहलेकी एकदम समीप की ( अत्यंत निकटकी ) आत्माकी दशामें होनेवाली निर्जरासे असंख्यात गुणी जानना । प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके पहले तीन कररण होते हैं, उनमें प्रनिवृत्ति करके अंत समय में वर्तनेवाली विशुद्धतासे विशुद्ध, जो सम्यक्त्वके सन्मुख मिथ्यादृष्टि है उसके श्रायुको छोड़कर सात कर्मोकी जो निर्जरा होती है उससे असंख्यात गुणी निर्जरा असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान प्राप्त करने पर अंतर्मुहूर्त पर्यंत प्रतिसमय (निर्जरा) होती है अर्थात् सम्यक्त्वके सन्मुख मिथ्यादृष्टिकी निर्जरा से सम्यग्दृष्टिके गुणश्रेणी निर्जरा में असंख्यगुरणा द्रव्य है । यह चौथे गुणस्थानवाले अविरत - सम्यग्दृष्टि की निर्जरा है ।
(२) जब यह जीव पाँचवाँ गुणस्थान- श्रावकदशा प्रगट करता है तब अन्तर्मुहूर्त पर्यंत निर्जरा होने योग्य कर्मपुद्गलरूप गुणश्रेणी निर्जराद्रव्य चौथे गुणस्थानसे असंख्यात गुणा है ।
(३) पांचवें से जब सकलसंयमरूप अप्रमत्तसंयत (-सातवीं ) गुणस्थान प्रगट करे तब पंचमगुणस्थानसे असंख्यातगुणी निर्जरा होती है । पाँचवेके बाद पहले सातवाँ गुणस्थान प्रगट होता है और फिर विकल्प उठने पर छट्टा प्रमत्त गुणस्थान होता है । सूत्रमें 'विरत' शब्द कहा है इसमें सातवे और छट्टो दोनो गुणस्थानवाले जीवोंका समावेश होता है ।
(४) तीन करणके प्रभावसे चार अनन्तानुबन्धो कषायको, बारह कपाय तथा नव नोकषायरूप परिरणमा दे, उन जीवोंके अन्तर्मुहूर्त पर्यंत प्रतिसमय असख्यात गुणी द्रव्य निर्जरा होती है । अनंतानुबंधीका यह विसंयोजन चौथे, पांचवे, घट्ट े और सातवें, इन चार गुणस्थानों में होता है ।
(५) अनन्त वियोजकसे असंख्यात गुणी निर्जरा दर्शनमोहके क्षपकके (उस जीवके) होती है । पहले मनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करने के वाद दर्शनमोहके त्रिकका क्षय करे ऐसा क्रम है ।
(६) दर्शनमोहका क्षपण करनेवालेसे 'उपशमक' के असंख्यात गुणी निर्जरा होती है
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अध्याय ६ सूत्र ४५
७३६ प्रश्न-उपशमंकी बात दर्शनमोहके क्षपण करनेवालेके बाद क्यों कही ?
उत्तर-क्षपक का अर्थ क्षायिक होता है, यहां क्षायिक सम्यक्त्वकी बात है; और 'उपशमक' कहनेसे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व युक्त उपशम श्रेणी वाले जीव समझना । क्षायिक सम्यग्दृष्टिसे उपशमश्रेणी वालेके असंख्यात गुरणी निर्जरा होती है, इसीलिये पहले क्षपककी बात की है और उसके बाद उपशमककी बात की है क्षायिक सम्यग्दर्शन चौथे, पाँचवें, छ8 और सातवे गुणस्थानमें प्रगट होता है और जो जीव चारित्रमोहका उपशम करने को उद्यमी हुये हैं उनके आठवाँ, नवमां और दशमा गुणस्थान होता है ।
(७) उपशमक जीवकी निर्जरासे ग्यारहवें उपशांतमोह गुणस्थान मे असंख्यात गुणी निर्जरा होती है।
(4) उपशांतमोहवाले जीवकी अपेक्षा क्षपक श्रेणीवालेके असंख्यात गुणी निर्जरा होती है । इस जीवके आठवां नवमां और दसमां गुणस्थान होता है।
(E) क्षपकश्रेणीवाले जीवकी अपेक्षा बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान मे असंख्यात गुणी निर्जरा होती है।
(१०) बारहवे गुणस्थानकी अपेक्षा 'जिन' के ( तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानमें ) असंख्यातगुणी निर्जरा होती है । जिनके तीन भेद हैं (१) स्वस्थान केवली (२) समुद्घात केवली और (३) अयोग केवली। इन तीनोमे भी विशुद्धताके कारण उत्तरोत्तर असख्यात गुणी निर्जरा है। अत्यन्त विशुद्धताके कारण समुद्घात केवलीके नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मकी स्थिति प्रायुकर्म के समान हो जाती है।
इस सूत्रका सिद्धान्त इस सूत्रमे निर्जराके लिये प्रथम पात्र सम्यग्दृष्टि बतलाया गया है इसीसे यह सिद्ध होता है कि सम्यग्दर्शनसे ही धर्मका प्रारभ होता है ॥४॥
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मोक्षशास्त्र
अब निर्ग्रथ साधुके भेद बतलाते हैं पुलाकवकुश कुशील निर्बंथस्नातकाः निर्ग्रथाः ॥ ४६ ॥
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अर्थ - [ पुलाकबकुशकुशीलनिग्रंथ स्नातकाः ] पुलाक, वकुश, कुशील, निग्रंथ और स्नातक- ये पाँच प्रकारके [ निग्रंथाः ] निग्रंथ हैं । टीका
१ - सूत्र में आये हुये शब्दोंकी व्याख्या
(१) पुलाक- जो उत्तर गुणोंकी भावनासे रहित हो और किसी क्षेत्र तथा काल में किसी मूलगुरणमें भी अतीचार लगावे तथा जिसके अल्प विशुद्धता हो उसे पुलाक कहते हैं । विशेष कथन सूत्र ४७ प्रति सेवनाका अर्थ |
(२) बकुश - जो मूल गुणोंका निर्दोष पालन करता है किन्तु धर्मानुरागके कारण शरीर तथा उपकरणोंकी शोभा बढ़ानेके लिये कुछ इच्छा रखता है उसे बकुश कहते हैं ।
(३) कुशील - इसके दो भेद हैं १ - प्रतिसेवना कुशील और ( २ ) कषाय कुशील । जिसके शरीरादि तथा उपकरणादिसे पूर्ण विरक्तता न हो और मूलगुरण तथा उत्तर गुणोंकी परिपूर्णता हो परन्तु उत्तरगुणमें क्व'चित् कदाचित् विराधना होती हो उसे प्रतिसेवना कुशील कहते हैं । और जिसने संज्वलन के सिवाय अन्य कषायोंको जीत लिया हो उसे कषायकुशील कहते है ।
(४) निग्रंथ - जिनके मोहकर्म क्षीण होगया है तथा जिनके मोह कर्मके उदयका अभाव है ऐसे ग्यारहवें तथा बारहवे गुणस्थानवर्ती मुनिको निग्रंथ कहते हैं ।
(५) स्नातक - समस्त घातिया कर्मोके नाश करने वाले केवली भगवानको स्नातक कहते हैं । ( इसमें तेरहवाँ तथा चौदहवां दोनों गुरणस्थान समझना )
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अध्याय ६ सूत्र ४६
२ परमार्थनिर्ग्रन्थ और व्यवहार निर्ग्रथ
बारहवे, तेरहवें और चौदहवे गुणस्थानमे विराजनेवाले जीव परमार्थ निर्ग्रन्थ हैं, क्योकि उनके समस्त मोहका नाश हो गया है, इन्हें निश्चयनिग्रंथ कहते हैं । अन्य साधु यद्यपि सम्यग्दर्शन और निष्परिग्रहत्व को लेकर निग्रंथ है अर्थात् वे मिथ्यादर्शन और अविरति रहित है तथा वस्त्र, आभरण, हथियार, कटक, धन, धान्य आदि परिग्रहसे रहित होनेसे निग्रंथ है तथापि उनके मोहनीय कर्मका श्राशिक सद्भाव है, इसीलिये वे व्यवहार निग्रंथ हैं |
१७४१
कुछ स्पष्टीकरण
(१) प्रश्न - यद्यपि पुलाक मुनिके क्षेत्र कालके वश किसी समय किसी एक व्रतका भंग होता है तथापि उसे निग्रंथ कहा, तो क्या श्रावक के भी निर्ग्रथत्व कहने का प्रसंग प्रावेगा ?
उत्तर - पुलाक मुनि सम्यग्दृष्टि है और परवशसे या जबरदस्तीसे व्रत में क्षणिक दोष हो जाता है, किन्तु यथाजातरूप है, इसीलिये नैगमनयसे वह निग्रंथ है; श्रावकके यथाजातरूप ( नग्नता ) नही है, इसीलिये उसके निग्रंथत्व नही कहलाता । [ उद्दे शिक और अधःकर्मके आहार जल को जानते हुए भी लेते हैं उसकी गणना पुलाकादि कोई मेद मे नही है |],
(२) प्रश्न -- पुलाक मुनिको यदि यथाजात रूपको लेकर ही निग्रंथ कहोगे तो अनेक मिथ्यादृष्टि भी नग्न रहते है उनको भी निग्रंथ कहने का प्रसंग आवेगा ।
उत्तर—— उनके सम्यग्दर्शन नही है । मात्र नग्नत्व तो पागलके, बालक के साथ तिर्यंचोके भी होता है, परन्तु इसीलिये उन्हे निग्रंथ नही कहते । किन्तु जो निश्चय सम्यग्दर्शन -ज्ञानपूर्वक संसार और देह, भोगसे विरक्त होकर नग्नत्व धारण करता है चारित्र मोहकी तीन जातिके कषायका अभाव किये है उसे निग्रंथ कहा जाता है, दूसरेको नही ॥४६॥
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मोक्षशास्त्र
पुलाकादि मुनियों में विशेषता संयमश्रुतप्रति सेवनात्तीर्थ लिंगलेश्योपपादस्थानविकल्पतः साध्याः ॥ ४७ ॥
अर्थ - उपरोक्त मुनि [ संयमश्रुतप्रतिसेवनातोर्थलिगलेश्योपपादस्थानविकल्पतः ] संयम, श्रुत, प्रतिसेवना, तीर्थ, लिङ्ग, लेश्या, उपपाद और स्थान इन आठ अनुयोगों द्वारा [ साध्याः ] भेदरूपसे साध्य हैं, अर्थात् इन आठ प्रकारसे इन पुलाकादि मुनियोंमें विशेष भेद होते हैं ।
टीका
७४२
(१) संयम - पुलाक, बकुश, और प्रतिसेवना कुशील साधुके सामायिक और छेदोपस्थापन ये दो संयम होते हैं । कषाय कुशील साधुके सामायिक, छेदोपस्थापन, परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसांपराय, ये चार संयम होते है; निग्रंथ और स्नातकके यथाख्यात चारित्र होता है ।
(२) श्रुत- पुलाक, बकुश और प्रतिसेवना कुशील साधु ज्यादासे ज्यादा सम्पूर्ण दश पूर्वधारी होते है, पुलाक के जघन्य आचारांग में आचारा वस्तुका ज्ञान होता है और बकुश तथा प्रतिसेवना कुशील के जघन्य अष्टप्रवचन माताका ज्ञान होता है अर्थात् आचारांगके १८००० पदोंमेंसे पांच समिति और तीन गुप्तिका परमार्थं व्याख्यान तक इन साधुओंका ज्ञान होता है; कषायकुशील और निर्ग्रथके उत्कृष्ट ज्ञान चौदह पूर्वका होता है और जघन्यज्ञान आठ प्रवचन माता का होता है । स्नातक तो केवल ज्ञानी है, इसीलिये वे श्रुतज्ञान से दूर हैं । [ अष्ट प्रवचन माता- तीन गुप्ति - पाँच समिति ]
(३) प्रतिसेवना - ( - विराधना) पुलाकमुनिके परवशसे या जबर्दस्ती से पाँच महाव्रत और रात्रिभोजनका त्याग इन छहमें से किसी एक को विराधना हो जाती है । महाव्रतोंमें तथा रात्रिभोजन त्यागमें कृत, कारित, धनुमोदनासे पाँचों पापोंका त्याग है उनमे से किसी प्रकार में सामर्थ्य की
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अध्याय ६ सूत्र ४७ हीनतासे दूषण लगता है; उपकरण-बकुश मुनिके कमंडल, पीछी, पुस्तकादि उपकरणकी शोभाकी अभिलाषाके संस्कारका सेवन होता है, सो विराधना जानना । तथा बकुशमुनिके शरीरके संस्काररूप विराधना होती है। प्रतिसेवनाकुशील मुनि पाँच महानतको विराधना नही करता किन्तु उत्तरगुरणमे किसी एककी विराधना करता है । कषायकुशील, निम्रन्थ और स्नातकके विराधना नही होती।
(४) तीर्थ-ये पुलाकादि पांचों प्रकारके निम्रन्थ समस्त तीर्थङ्करोंके धर्मशासनमें होते हैं।
(५) लिंग-इसके दो भेद हैं १-द्रव्यलिंग और २-भावलिंग। पांचों प्रकारके निम्रन्थ भावलिगी होते हैं। वे सम्यग्दर्शन सहित संयम पालने में सावधान है। भावलिंग का द्रव्यलिगके साथ निमित्त नैमित्तिक संबंध है। यथाजातरूप लिंगमे किसीके भेद नही है किन्तु प्रवृत्तिरूप लिंग में अंतर होता है, जैसे कोई आहार करता है, कोई अनशनादि तप करता है, कोई उपदेश करता है, कोई अध्ययन करता है, कोई तीर्थमे विहार करता है, कोई अनेक आसनरूप ध्यान करता है, कोई दूषण लगा हो तो उसका प्रायश्चित्त लेता है, कोई दूषण नही लगाता, कोई प्राचार्य है, कोई उपाध्याय है, कोई प्रवर्तक है, कोई निर्यापक है, कोई वैयावृत्य करता है, कोई ध्यानमें श्रेणीका प्रारम्भ करता है; इत्यादि राग (-विकल्प ) रूप द्रव्यलिंगमे मुनिगणोंके भेद होता है। मुनिके शुभभावको द्रव्यलिंग कहते हैं । इसके अनेक भेद हैं। इन प्रकारोको द्रव्यलिंग कहा जाता है ।
(६) लेश्या-पुलाक मुनिके तीन शुभ लेश्यायें होती हैं । बकुश तथा प्रतिसेवनाकुशोल मुनिके छहो लेश्या भी होती हैं । कषाय से अनुरंजित योग परिणतिको लेश्या कहते है ।
प्रश्न-बकुश तथा प्रतिसेवनाकुशील मुनिके कृष्णादि तीन अशुभ लेश्याये किस तरह होती हैं ?
उचर-उन दोनों प्रकारके मुनिके उपकरणकी कुछ आसक्तिके
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मोक्षशास्त्र
कारण किसी समय आर्तध्यान भी हो जाता है और इसीलिये उनके कृष्णादि अशुभ लेश्या भी हो सकती हैं ।
कषायकुशील मुनिके कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल ये चार लेश्यायें होती हैं । सूक्ष्म सांपराय गुणस्थानवर्तीके तथा निग्रंथके शुक्ल लेश्या होती है । स्नातकके उपचारसे शुक्ल लेश्या है, अयोग केवलोके लेश्या नहीं होती ।
(७) उपपाद - पुलाक मुनिका - उत्कृष्ट अठारह सागरकी आयुके - साथ-बारहवें सहस्रार स्वर्गमें जन्म होता है । वकुश और प्रतिसेवना कुशीलका - उत्कृष्ट जन्म बाईस सागरको आयुके साथ पन्द्रहवें आरण और सोलहवें अच्युत स्वर्ग में जन्म होता है । कषायकुशील और निग्रंथकाउत्कृष्ट जन्म तेतीस सागरकी आयुके साथ सर्वार्थसिद्धिमें होता है । इन सबका जघन्य सौधर्मं स्वर्गमे दो सागरकी आयुके साथ जन्म होता है । स्नातक केवली भगवान हैं उनका उपपाद निर्वाण - मोक्षरूपसे होता है ।
(८) स्थान- - तीव्र या मंद कषाय होनेके कारण असंख्यात संयमलब्धिस्थान होते है; उनमेंसे सबसे छोटा संयमलब्धिस्थान पुलाक मुनिके और कषायकुशीलके होता है । ये दोनों एक साथ असंख्यात लब्धिस्थान प्राप्त करते हैं; पुलाक मुनि इन असंख्यात लब्धिस्थानोंके बाद आगे के लब्धिस्थान प्राप्त नही कर सकते । कषायकुशील मुनि उनसे आगेके असख्यात लब्धिस्थान प्राप्त करते है ।
यहाँ दूसरी बार कहे गये असंख्यात लब्धिस्थानसे कषायकुशील, प्रतिसेवनाकुशील और बकुश मुनि ये तीनो एकसाथ असंख्यात लब्धि - स्थान प्राप्त करते है ।
वकुशमुनि इन तीसरी बार कहे गये असंख्यात लब्धि स्थानमें रुक जाता है श्रागेके स्थान प्राप्त नहीं कर सकता; प्रतिसेवनाकुशील वहाँ से आगे असंख्यात लव्धिस्थान प्राप्त कर सकते हैं ।
कपायकुशील मुनि ये चौथी बार कहे गये असंख्यात लब्धिस्थानमेंसे
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अध्याय & उपसंहार
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आगे असंख्यात लब्धिस्थान प्राप्त कर सकते हैं, इससे आागेके स्थान प्राप्त नहीं कर सकते ।
निर्ग्रथ मुनि इन पाँचवीवार कहे गये लब्धिस्थानोंसे आगे कषायरहित संयमलब्धिस्थानों को प्राप्त कर सकता है । ये निर्ग्रन्थ मुनि भी आगेके असंख्यात लब्धिस्थानोंकी प्राप्ति कर सकते है, पश्चात् रुक जाता है । उसके बाद एक संयमलब्धिस्थानको प्राप्त करके स्नातक निर्वाणको प्राप्त करता है ।
इसप्रकार संयमलब्धिके स्थान हैं, उनमे अविभाग प्रतिच्छेदों की अपेक्षासे संयमकी प्राप्ति अनन्तगुणी होती है ॥४७॥
उपसंहार
१ - इस अध्याय में श्रात्माकी धर्मपरिणतिका स्वरूप कहा है; इस परिणतिको 'जिन' कहते है ।
२- अपूर्वकरण परिणामको प्राप्त हुये प्रथमोपशम सम्यक्त्वके सम्मुख जीवोंको 'जिन' कहा जाता है । ( गोमट्टसार जीवकांड गाथा १ टीका, पृष्ठ १६ ) यहाँसे लेकर पूर्णशुद्धि प्राप्त करनेवाले सब जीव सामान्यतया 'जिन' कहलाते है । श्री प्रवचनसारके तीसरे श्रध्यायकी पहली गाथा में श्री जयसेनाचार्य कहते है कि - " दूसरे गुरणस्थानसे लेकर बारहवे गुणस्थान तकके जीव 'एकदेशजिन' है, केवली भगवान 'जिनवर' हैं और तीर्थंकर भगवान 'जिनवर वृषभ हैं ।" मिथ्यात्व रागादिको जीतनेसे असयत सम्यग्दृष्टि, श्रावक तथा मुनिको जिन' कहते है, उनमे गणधरादि श्रेष्ठ हैं इसलिये उन्हे 'श्रेष्ठ जिन' अथवा 'जिनवर' कहा जाता है और तीर्थंकरदेव उनसे भी प्रधान श्रेष्ठ हैं इसीलिये उन्हे 'जिनवर वृषभ' कहते हैं । ( देखो द्रव्यसंग्रह गाथा १ टीका ) श्री समयसारजीको ३१ वी गाथामें भी सम्यग्ष्टिको 'जितेन्द्रिय जिन' कहा है ।
सम्यक्त्वके सन्मुख मिथ्यादृष्टि और अघःकरण, अपूर्वकररण तथा अनिवृत्तिकरणका स्वरूप श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक अ० ७ मे दिया है |
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मोक्षशास्त्र गुणस्थानोंका स्वरूप श्री जैन सिद्धान्त प्रवेशिका अन्तिम अध्यायमें दिया है, सो वहाँसे समझ लेना।
३-चतुर्थ गुणस्थानसे निश्चय सम्यग्दर्शन होता है और निश्चय सम्यग्दर्शनसे ही धर्मका प्रारम्भ होता है यह बतानेके लिये इस शास्त्रमें पहले अध्यायका पहला ही सूत्र 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' दिया है। धर्ममें पहले निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट होता है और निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट होनेके कालमें अपूर्वकरणसे संवर-निर्जराका प्रारम्भ होता है। इस अधिकारके दूसरे सूत्रमे सम्यग्दर्शनको संवर-निर्जराके कारणरूपमें प्रथा नहीं कहा। इसका कारण यह है कि इस अध्यायके ४५ वें मूत्र में उसका समावेश हो जाता है।
४-जिनधर्मका अर्थ है वस्तुस्वभाव । जितने अंगमें आत्माको स्वभावदशा (-शुद्ध दशा ) प्रगट होती है उतने अंशमें जीवके 'जिनधर्म' प्रगट हुा कहलाता है। जिनधर्म कोई संप्रदाय, बाड़ा, या संघ नहीं किन्तु आत्माकी शुद्धदशा है; और आत्माकी शुद्धतामें तारतम्यता होने पर शुद्धरूप तो एक ही तरहका है अत. जिनधर्म में प्रभेद नहीं हो सकते । जैनधर्मके नामसे जो वाडावंदी देखी जाती है उसे यथार्थ में जिन धर्म नही कह सकते। भरतक्षेत्र में जिनधर्म पांचवें कालके अन्त तक रहनेवाला है अर्थात् वहाँ तक अपनी शुद्धता प्रगट करनेवाले मनुष्य इस क्षेत्रमें ही होते हैं और उनके शुद्धताके उपादान कारणकी तैयारी होनेसे आत्मज्ञानी गुरु और सत् शाखोंका निमित्त भी होता ही है। जैनधर्मके नामसे कहे जानेवाले शास्त्रोंमेसे कौनसे शास्त्र परम सत्यके उपदेशक हैं इसका निर्णय धर्म करनेके इच्छुक जीवोंको अवश्य करना चाहिये। जवतक जीव स्वयं यथार्थ परीक्षा करके कोन सच्चा देव शास्त्र और गुरु है इसका निर्णय नहीं करता, तथा आत्मज्ञानी गुरु कौन है उसका निर्णय नहीं करता तबतक गृहीतमिथ्यात्व दूर नही होता, गृहीत मिथ्यात्व दूर हुये विना अगृहीत मिथ्यात्व दूर होकर सम्यग्दर्शन तो हो ही कैसे सकता है ? इसीलिये जीवोको स्वमें जिनधर्म प्रगट करनेके लिये अर्थात् यथार्थ संवर निर्जरा प्रगट करनेके लिये सम्यग्दर्शन प्रगट करना ही चाहिए।
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अध्याय ९ उपसंहार ५-सम्यग्दृष्टि जीवने आत्मस्वभावकी प्रतीति करके अज्ञान और दर्शनमोहको जीत लिया है इसलिये वह रागद्वेषका कर्ता और स्वामी नहीं होता; वह कभी हजारो रानियोके संयोगके बीच में है तथापि 'जिन' है। चौथे, पांचवे गुणस्थानमें रहनेवाले जीवोका ऐसा स्वरूप है । सम्यग्दर्शनका माहात्म्य कैसा है यह बतानेके लिये अनन्त ज्ञानियोंने यह स्वरूप कहा है। सम्यग्दृष्टि जीवोके अपनी शुद्धपर्यायके अनुसार (-शुद्धताके प्रमाणमे) सवर-निर्जरा होती है।
६-सम्यग्दर्शनके माहात्म्यको नहीं समझनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवों की वाह्य सयोगों और वाह्य त्याग पर दृष्टि होती है, इसीलिये वे उपरोक्त कथनका आशय नही समझ सकते और सम्यग्दृष्टिके अतरंग परिणमनको वे नही समझ सकते। इसलिये धर्म करनेके इच्छुक जीवोको संयोगदृष्टि छोड़कर वस्तु स्वरूप समझनेकी और यथार्थ तत्त्वज्ञान प्रगट करनेकी आवश्यकता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और उनपूर्वक सम्यक्चारित्रके विना संवर-निर्जरा प्रगट करनेका अन्य कोई उपाय नही है। इस नवमें अध्यायके २६ वे सूत्रकी टीकासे मालूम पडेगा कि मोक्ष और ससार इन दो के अलावा और कोई साधने योग्य पदार्थ नहीं है। इस जगतमें दो ही मार्ग हैं-मोक्षमार्ग और संसारमार्ग।
७-सम्यक्त्व मोक्षमार्गका मूल है और मिथ्यात्व संसारका मूल है। जो जीव संसार मार्गसे विमुख हों वे ही जीव मोक्षमार्ग (अर्थात् सच्चे सुखके उपायरूप धर्म ) प्राप्त कर सकते हैं। बिना सम्यग्दर्शनके जीवके सवर-निर्जरा नही होती, इसीलिए दूसरे सूत्रमे सवरके कारण बतलाते हुए उनमे प्रथम गुप्ति वतलाई, उसके बाद दूसरे कारण कहे है ।।
__ -यह ध्यान रहे कि इस शास्त्रमे प्राचार्य महाराजने महाव्रतों या देशव्रतोंको सवरके कारणरूपसे नही बतलाया, क्योकि सातवे अध्यायके पहले सूत्रमे बताये गये प्रमाणसे वह शुभास्रव है ।
६-यह समझानेके लिये चौथे सूत्रमे 'सम्यक्' शब्दका प्रयोग किया है कि गुप्ति, समिति, अनुप्रेक्षा, दशप्रकारका धर्म, परीषहजय और चारित्र ये सभी सम्यग्दर्शनके बिना नहीं होते।
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मोक्षशास्त्र १०-छ8 सूत्र में धर्मके दश भेद बतलाये है। उसमें दिया गया उत्तम विशेषरण यह बतलाता है कि धर्मके भेद सम्यग्दर्शनपूर्वक ही हो सकते है। इसके बाद सातवें सूत्र में अनुप्रेक्षाका स्वरूप और ८ वें सूत्रसे १७ वें सूत्र तक परीपहजयका स्वरूप कहा है। शरीर और दूसरी बाह्य वस्तुओंकी जिस अवस्थाको लोग प्रतिकूल मानते है उसे यहाँ परीपह कहा गया है । आठवे सूत्र में 'परिषोढव्या' शब्दका प्रयोग करके उन परोपहोंको सहन करनेका उपदेश दिया है। निश्चयसे परीपह क्या है और उपचारसे परीषह किसे कहते है-यह नही समझनेवाले जीव १०-११ सूत्रका प्राश्रय लेकर ( कुतर्क द्वारा ) ऐसा मानते हैं कि- केवली भगवानके क्षुधा और तृषा ( भूख और प्यास ) की व्याधिरूप परीपह होती है, और छद्मस्थ रागी जीवोंकी तरह केवली भगवान भी भूख और प्यासकी व्याधिको दूर करनेके लिए खान-पान ग्रहण करते हैं और रागी जीवोंकी तरह भगवान भी अतृप्त रहते हैं परन्तु उनकी यह मान्यता मिथ्या है। सातवें गुणस्थानसे ही आहारसंज्ञा नहीं होती ( गोमट्टसार जीव कांड गाथा १३६ की बड़ी टीका पृष्ठ ३५१-३५२ ) तथापि जो लोग केवली भगवानके खान-पान मानते है वे भगवानको आहार संज्ञासे भी दूर हुये नही मानते ( देखो सूत्र १०-११ की टीका)।
११-जब भगवान मुनि अवस्थामे थे तव तो करपात्री होनेसे स्वयं ही आहारके लिये निकलते और जो दाता श्रावक भक्तिपूर्वक पडगाहन करते हैं तो वे खडे रहकर करपात्रमे आहार लेते । परन्तु जो ऐसा मानते है कि वीतरागी होनेके बाद भी असह्य वेदनाके कारण भगवान आहार लेते हैं, उन्हे ऐसा मानना पडता है या पड़ेगा कि 'भगवानके कोई गणधर या मुनि आहार लाकर देते है, वे स्वयं नही जाते ।' अब देखो कि छमस्थ अवस्थामे तो भगवान आहारके लिये किसीसे याचना नही करते और अब वीतराग होनेके बाद आहार लानेके लिये शिष्योसे याचना करें, यह बड़े आश्चर्य की बात है। पुनश्च भगवानको माहार-पानीका दाता तो वह आहार लानेवाला मुनि ही हुआ। भगवान कितना आहार लेगे, क्या क्या लेगे, अपन जो कुछ ले जायेगे वह सब भगवान लेंगे, उनमेसे कुछ
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अध्याय ६ उपसंहार
७४६ बचेगा या नही ? इत्यादि बातें भगवान स्वयं पहलेसे निश्चय करके मुनि को कहते हैं या आहार लाने वाले मुनि स्वय निश्चय करते है ? ये भी विचारणीय प्रश्न है । पुनश्च नग्न मुनिके पास पात्र तो होता नहीं इसी कारण वह आहार लानेके लिये निरुपयोगी हैं, और इसीलिये भगवान स्वयं मुनि दशामे नग्न थे तथापि उनके वीतराग होनेके बाद उनके गणधरादिकको पात्र रखने वाले अर्थात् परिग्रहधारी मानना पडेगा और यह भी मानना पडेगा कि भगवानने उस पात्रधारी मुनिको आहार लानेकी आज्ञा की। किन्तु यह सब असंगत है-ठीक नहीं है।
१२-पुनश्च यदि भगवान स्वयं अशन-पान करते हों तो भगवान को ध्यान मुद्रा दूर हो जायगी क्योकि अध्यान मुद्राके अलावा पात्रमे रहे हुये आहारको देखनेका, उसके टुकडे करने, कोर लेने, दांतसे चाबने, गले में उतारने आदिकी क्रियाये नही हो सकती। अब यदि भगवानके अध्यानमुद्रा या उपरोक्त क्रियायें स्वीकार करें तो वह प्रमाददशा होती है । पुनश्च पाठवें सूत्रमे ऐसा उपदेश देते हैं कि परीषहें सहन करनी चाहिये और भगवान स्वयं ही वैसा नही कर सकते अर्थात भगवान अशक्य कार्योका उपदेश देते है, ऐसा अर्थ करने पर भगवानको मिथ्या उपदेशी कहना पड़ेगा।
१३-४६ वें सूत्रमे निग्रंथोंके भेद बताये हैं उनमे 'बकुश' नामक एक भेद बतलाया है। उनके धर्म प्रभावनाके रागसे शरीर तथा शास्त्र, कमंडल, पीछी पर लगे हुये मैलको दूर करनेका राग हो जाता है । इस परसे कोई यह कहना चाहते है कि-उस 'बकुश' मुनिके वस्त्र होनेमे बाधा नही, परन्तु उनका यह कथन न्याय विरुद्ध है, ऐसा छ8 अव्यायके तेरहवें सूत्रकी टीकामें बतलाया है । पुनश्च मुनिका स्वरूप नहीं समझनेवाले ऐसा भी कहना चाहते हैं कि यदि मुनिको शरीरकी रक्षाके लिये अथवा सयमकी रक्षाके लिये वस्त्र हो तो भी वे क्षपक श्रेणी माडकर केवलज्ञान प्रगट कर सकते हैं । यह बात भी मिथ्या है। इस अध्यायके ४७ वे सूत्रकी टोकामे संयमके लब्धिस्थानोका स्वरूप दिया है इस परसे मालूम होगा कि वकुश मुनि तीसरी बारके संयमलब्धिस्थानमे रुक जाता है और कषाय-रहित
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मोक्षशास्त्र ७५० दशा प्राप्त नहीं कर सकता; तो फिर ऋतु इत्यादिकी विषमतासे शरीरको रक्षाके लिये वस्त्र रखे तो ऐसे रागवाला सम्यग्दृष्टि हो तो भी मुनिपद प्राप्त नही कर सकता और सर्वथा अकषाय दशाकी प्राप्ति तो वे कर ही नही सकते, यही देखा भी जाता है।
१४~-गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीपहजय और चारित्रके स्वरूपके सम्बन्धमें होनेवाली भूल और उसका निराकरण उन उन विपयोंसे सम्बन्धित सूत्रोकी टीकामें दिया है, वहाँसे समझ लेना । कुछ लोग आहार न लेनेको तप मानते है किन्तु यह मान्यता यथार्थ नहीं। तपकी इस व्याख्यामे होनेवाली भूल दूर करनेके लिये सम्यक् तपका स्वरूप १६ वें सूत्रकी भूमिकामें तथा टीका फिकरा ५ में दिया है, उसे समझना चाहिये ।
१५-मुमुक्षु जीवोंको मोक्षमार्ग प्रगट करनेके लिये उपरोक्त वारेमें यथार्थ विचार करके संवर-निर्जरा तत्त्वका स्वरूप वरावर समझना चाहिये । जो जीव अन्य पांच तत्त्वों सहित इस संवर तथा निजरातत्त्वकी श्रद्धा करता है, जानता है उस अपने चैतन्यस्वरूप स्वभाव भावकी ओर झुक कर सम्यग्दर्शन प्रगट करता है तथा संसार चक्रको तोडकर अल्पकालमे - वीतराग चारित्रको प्रगट कर निरिण-मोक्षको प्राप्त करता है।
१६-इस अध्यायमें सम्यक्चारित्रका स्वरूप कहते हुए उसके अनुसधानमें धर्मध्यान और शुक्लध्यानका स्वरूप भी बतलाया है । ( देखो सूत्र ३६ से ३६ ) चारित्रके विभागमें यथाख्यात चारित्र भी समाविष्ट हो जाता है, चौदहवे गुणस्थानके अन्तिम समयमें परम यथाख्यात चारित्र प्रगट होने पर सर्वगुणोके चारित्रकी पूर्णता होती है और उसी समय जीव निर्वाणदशा प्राप्त करता है-मोक्ष प्राप्त करता है । ४७ वें सूत्र में संयमलब्धिस्थानका कथन करते हुये उसमे निर्वाण पद प्राप्त होने तककी दशाका वर्णन किया गया है । इसतरह इस अध्यायमें सब तरहकी 'जिन' दशाका स्वरूप आचार्य भगवानने बहुत थोडे सूत्रों द्वारा बताया है। इसप्रकार श्री उमास्वामी विरचित मोक्षशास्त्रकी गुजराती टीकाके
नवमें अध्यायका हिन्दी अनुवाद पूर्ण हुआ।
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मोक्षशास्त्र अध्याय दशवाँ
भूमिका
१-आचार्यदेवने इस शास्त्रके शुरूआतमे पहले अध्यायके पहले ही सूत्रमे कहा था कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी एकता मोक्षका मार्ग हैकल्याणमार्ग है। उसके बाद सात तत्त्वोकी जो यथार्थ श्रद्धा है सो सम्यग्दर्शन है, इसप्रकार बतलाकर सात तत्त्वोंके नाम बतलाये और दस अध्याय में उन सात तत्त्वोका वर्णन किया। उनमे इस अन्तिम अध्यायमे मोक्षतत्त्वका वर्णन करके यह शास्त्र पूर्ण किया है।
२-मोक्ष संवर-निर्जरापूर्वक होती है। इसीलिये नवमें अध्यायमे संवर-निर्जराका स्वरूप कहा, और अपूर्वकरण प्रगट करनेवाले सम्यक्त्वके सन्मुख जीवोसे लेकर चौदहवें गुरणस्थानमें विराजनेवाले केवलीभगवान तकके समस्त जीवोंके संवर-निर्जरा होती है ऐसा उसमें बतलाया। इस निर्जराकी पूर्णता होने पर जीव परमसमाधानरूप निर्वाणपदमे विराजता है; इस दशाको मोक्ष कहा जाता है । मोक्षदशा प्रगट करनेवाले जीवोने सर्व कार्य सिद्ध किया अतः "सिद्ध भगवान' कहे जाते है।
३-केवली भगवानके (तेरहवे और चौदहवें गुरणस्थानमें ) संवर-निर्जरा होती है अतः उनका उल्लेख नवमें अध्यायमे किया गया है किन्तु वहाँ केवलज्ञानका स्वरूप नही बतलाया । केवलज्ञान भावमोक्ष है
और उस भावमोक्षके बलसे द्रव्यमोक्ष ( सिद्धदशा ) होता है। ( देखो प्रवचनसार अध्याय १ गाथा ८४ जयसेनाचार्यकी टीका ) इसीलिये इस अध्यायमे प्रथम भावमोक्षरूप केवलज्ञानका स्वरूप बताकर फिर द्रव्यमोक्षका स्वरूप बतलाया है।
___अब केवलज्ञानकी उत्पत्तिका कारण बतलाते हैं मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच केवलम् ॥१॥
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मोक्षशास्त्र अर्थ-[मोहक्षयात्] मोहका क्षय होनेसे ( अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त क्षोणकषाय नामक गुणस्थान प्राप्त करनेके वाद ) [ ज्ञानदर्शनावरणांतराय क्षयात् च ] और ज्ञानावरण, दर्शनावरण, और अन्तराय इन तीन कर्मोका एक साथ क्षय होनेसे [ केवलम् ] केवलज्ञान उत्पन्न होता है।
टीका १-प्रत्येक जीव द्रव्य एक पूर्ण अखण्ड है अतः उसका ज्ञान सामर्थ्य संपूर्ण है। संपूर्ण वीतराग होनेपर संपूर्ण सर्वज्ञता प्रगट होती है । जब जीव सपूर्ण वीतराग होता है तव कर्मके साथ ऐसा निमित्त नैमित्तिक संबंध होता है कि-मोहकर्म जीवके प्रदेशमे संयोगरूपसे रहता ही नहीं, उसे मोहकर्मका क्षय हुआ कहा जाता है । जीवकी सम्पूर्ण वीतरागता प्रगट होनेके बाद अल्पकालमे तत्काल ही संपूर्णज्ञान प्रगट होता है उसे केवलज्ञान कहते है, क्योकि वह ज्ञान शुद्ध, अखण्ड, राग रहित है । इस दशामें जीवको 'केवली भगवान' कहते हैं। भगवान समस्त पदार्थों को जानते हैं इसीलिये वे केवली नहीं कहलाते, परन्तु 'केवल' अर्थात् शुद्ध आत्माको जानते अनुभवते है अतः वे 'केवली' कहलाते हैं । भगवान एकसाथ परिणमनेवाले समस्त चैतन्य-विशेषवाले केवलज्ञानके द्वारा अनादि निधन, निष्कारण असाधारण स्वसंवेद्यमान् चैतन्यसामान्य जिसकी महिमा है तथा चेतक स्वभावके द्वारा एकरूप होनेसे जो केवल ( अकेला, शुद्ध, अखण्ड ) है ऐसे श्रात्माको आत्मासे आत्मामे अनुभव करनेके कारण केवली है।
( देखो श्री प्रवचनसार गाथा ३३ ) यह व्यवहार कथन है कि भगवान परको जानते हैं। ऐसा कहा जाता है कि व्यवहारसे केवलज्ञान लोकालोकको युगपत् जानता है, क्योंकि स्व-पर प्रकाशक निज शक्तिके कारण भगवान सम्पूर्ण ज्ञानरूपसे परिणमते हैं अतः कोई भी द्रव्य, गुण या पर्याय उनके ज्ञानके बाहर नही है । निश्चयसे तो केवलज्ञान अपने शुद्ध स्वभावको ही अखण्डरूपसे जानता है।
२-केवलज्ञान स्वरूपसे उत्पन्न हुआ है, स्वतंत्र है तथा क्रम रहित है । यह ज्ञान जब प्रगट हो तब ज्ञानावरण कर्मका सदाके लिये क्षय होता
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अध्याय १० सूत्र १
७५३ है, इसीलिये इस ज्ञानको भायिकज्ञान कहते हैं। जब केवलज्ञान प्रगट होता है उसीसमय केवलदर्शन और संपूर्ण वीर्य भी प्रगट होता है और दर्शनावरण तथा अंतरायकर्मका सर्वथा अभाव (नाश) हो जाता है।
४-केवलज्ञान होनेपर भावमोक्ष हुवा कहलाता है (यह अरिहंत दशा है ) और आयुष्यकी स्थिति पूरी होनेपर चार अघातिया कर्मोका अभाव होकर द्रव्यमोक्ष होता है, यही सिद्धदशा है, मोक्ष केवलज्ञान पूर्वक ही होता है इसलिये मोक्षका वर्णन करने पर उसमे पहले केवलज्ञानको उत्पत्तिका सूत्र बतलाया है।
५-प्रश्न-क्या यह मान्यता ठीक है कि जीवके तेरहवे गुणस्थान में अनन्तवीर्य प्रगट हुआ है तथापि योग आदि गुणका विकार रहता है और संसारित्व रहता है इसका कारण अघातिकर्मका उदय है ?
उत्तर-यह मान्यता यथार्थ नही है। तेरहवें गुणस्थानमें संसारित्व रहनेका यथार्थ कारण यह है कि वहाँ जीवके योग गुणका विकार है तथा जीवके प्रदेशोको वर्तमान योग्यता उस क्षेत्रमे (-शरीरके साथ ) रहने की है, तथा जीवके अव्याबाध, * निर्नामो, निर्गोत्रो और अनायु आदिगुग अभी पूर्ण प्रगट नही हुआ इस प्रकार जीव अपने ही कारणसे ससारमे रहता है। वास्तवमे जड़ अघातिकर्मके उदयके कारणसे या किसी परके कारणसे जीव संसारमे रहता है, यह मान्यता बिल्कुल असत् है । यह तो मात्र निमित्तका उपचार करनेवाला व्यवहार कथन है कि 'तेरहवे गुणस्थानमे चार अघातिकर्मोका उदय है इसीलिये जीव सिद्धत्वको प्राप्त नहीं होता' जीवके अपने विकारी भावके कारण ससार दशा होनेसे तेरहवे और चौदहवें गुणस्थानमे भी जड़कर्मके साथ निमित्त-नैमित्तिक संबंध कैसा होता है वह बंतानेके लिये कर्म शालोमे ऊपर बताये अनुसार व्यवहार कथन किया जाता है । वास्तवमे कर्मके उदय, सत्ता इत्यादिके कारण कोई जोव संसारमे रहता है यह मानना सो, जीव और जड़कर्मको एकमेक माननेरूप मिथ्या-मान्यता है। शास्त्रोका अर्थ करनेमे अज्ञानियोकी मूलभूत भूल
* यह गुणोके नाम वृ० द्रव्यसग्रह गा० १३-१४ की टीका में हैं।
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मोक्षशाख ७५४ यह है कि व्यवहारनयके कथनको वह निश्चयनयके कथन मानकर व्यवहार को ही परमार्थ मान लेता है। यह भूल दूर करनेके लिये आचार्य भगवानने इस शास्त्रके प्रथम अध्यायके छ8 सूत्र में प्रमाण तथा नयका यथार्थ ज्ञान करने की आज्ञा की है (प्रमाण नयैरधिगमः ) जो व्यवहारके कथनों को ही निश्चयके कथन मानकर शास्त्रोंका वैसा अर्थ करते हैं उनके उस अज्ञानको दूर करनेके लिये श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवने समयसारजी में ३२४ से ३२६ वी गाथा कहों हैं । इसलिए जिज्ञासुओंको शास्त्रोंका कथन किस नयसे है और इसका परमार्थ (-भूतार्थ सत्यार्थ ) अर्थ क्या होता है यह यथार्थ समझकर शास्त्रकारके कथनके मर्मको जान लेना चाहिये, परन्तु भाषाके शब्दोंको नही पकड़ना चाहिये।
६. केवलज्ञान उत्पन्न होते ही मोक्ष क्यों नहीं होता ?
(१) प्रश्न केवलज्ञानकी उत्पत्तिके समय मोक्षके कारणभूत रत्नत्रयकी पूर्णता हो जाती है तो फिर उसीसमय मोक्ष होना चाहिये; इसप्रकार जो सयोगी तथा अयोगी ये केवलियोंके दो गुणस्थान कहे हैं उनके रहने का कोई समय ही नहीं रहता ?
उत्तर-यद्यपि केवलज्ञानकी उत्पत्तिके समय यथाख्यातचारित्र हो गया है तथापि अभी परमयथाख्यातचारित्र नही हुआ । कषाय और योग अनादिसे अनुसंगी-(साथी) हैं तथापि प्रथम कषायका नाश होता है, इसी
* वै गाथायें इस प्रकार हैं.व्यवहार भापितेन तु परद्रव्यं मम भणंत्यविदितार्थाः । जानंति निश्चयेन तु न च मम परमाणुमात्रमपि किंचित् ॥३२४॥ यथा कोऽपि नरो जल्पति अस्माकं ग्रामविषयनगरराष्ट्रम् । न च भवंति तस्य तानि तु भणति च मोहेन स आत्मा ॥३२॥ एवमेव मिथ्याटिानी नि:संशयं भवत्येपः । यः परद्रव्यं ममेति जानन्नात्मानं करोति ।। ३२६ ॥
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अध्याय १० सूत्र १
७५५ 'लिये केवली भगवानकै यद्यपि वीतरागतारूप यथाख्यातचारित्र प्रगट हुआ है तथापि योगके व्यापारका नाश नहीं हुआ । योगका परिस्पंदनरूप व्यापार परमयथाख्यातचारित्रके दूषण उत्पन्न करनेवाला है । इस योगके विकार की क्रम क्रमसे भावनिर्जरा होती है । इस योगके व्यापारकी संपूर्ण भावनिर्जरा होजाने तक तेरहवाँ गुणस्थान रहता है । योगका अशुद्धतारूपचंचलतारूप व्यापार बंध पड़नेके बाद भी कितनेक समय तक अव्यावाघ, निर्नाम ( नाम रहितत्व ), श्रनायुष्य ( आयुष्यरहितत्व ) और निर्गोत्र आदि गुण प्रगट नही होते; इसीलिये चारित्रमे दूषण रहता है । चौदहवें गुणस्थानके अंतिम समयका व्यय होनेपर उस दोषका अभाव हो जाता है श्रीर उसीसमय परमयथाख्यात चारित्र प्रगट होनेसे अयोगी जिन मोक्षरूप अवस्था धारण करता है; इस रीतिसे मोक्ष अवस्था प्रगट होने पहले सयोगकेवली और अयोगकेवली ऐसे दो गुणस्थान प्रत्येक केवली भगवानके होते है । [ देखो - बृ० द्रव्यसंग्रह गा० १३-१४ की टीका ] (२) प्रश्न- यदि ऐसा मानें कि जब केवलज्ञान प्रगट हो उसी समय मोक्ष अवस्था प्रगट होजाय तो क्या दूषण लगेगा ?
उत्तर -- ऐसा मानने पर निम्न दोष आते है
१ - जीवमें योग गुरणका विकार होनेपर, तथा अन्य ( अव्याबाघ आदि ) गुणों में विकार होनेपर और परमयथाख्यातचारित्र प्रगट हुये बिना, जीवकी सिद्धदशा प्रगट हो जायगी जो कि अशक्य है |
२- यदि जब केवलज्ञान प्रगट हो उसी समय सिद्ध दशा प्रगट हो जाय तो धर्म तीर्थ ही न रहे; यदि अरिहंत दशा ही न रहे तो कोई सर्वज्ञ उपदेशक - प्राप्त पुरुष ही न हो। इसका परिणाम यह होगा कि भव्य जीव अपने पुरुषार्थंसे धर्म प्राप्त करने योग्य - दशा प्रगट करनेके लिये तैयार हो तथापि उसे निमित्तरूप सत्य धर्मके उपदेशका ( दिव्यध्वनिका ) संयोग न होगा अर्थात् उपादान निमित्तका मेल टूट जायगा । इसप्रकार बन ही नहीं सकता, क्योकि ऐसा नियम है कि जिस समय जो जीव अपने उपादानको जागृति से धर्म प्राप्त करनेकी योग्यता प्राप्त करता है उससमय उस जीवके
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" मोक्षशास्त्र इतना पुण्यका संयोग होता ही है कि जिससे उसे उपदेशादिक योग्य निमित्त (सामग्री) स्वयं मिलती ही है । उपादानकी पर्यायका और निमित्त की पर्यायका ऐसा ही सहज निमित्त नैमित्तिक संबंध है । यदि ऐसा न हो तो जगतमें कोई जीव धर्म प्राप्त कर ही न सकेगे। अर्थात् समस्त जीव द्रव्यदृष्टि से पूर्ण हैं तथापि अपनी शुद्ध पर्याय कभी प्रगट कर नहीं सकते। ऐसा होनेपर जीवोंका दुःख कभी दूर नहीं होगा और वे सुखस्वरूप कभी नहीं हो सकेंगे।
३-जगतमें यदि कोई जीव धर्म प्राप्त नहीं कर सकता तो तीर्थकर, सिद्ध, अरिहंत, आचार्य, उपाध्याय, साधु, श्रावक, सम्यग्दृष्टि और सम्यग्दृष्टि की भूमिकामें रहनेवाले उपदेशक इत्यादि पद भी जगत्में न रहेगे, जीवकी साधक और सिद्धदशा भी न रहेगी, सम्यग्दृष्टिकी भूमिका ही प्रगट न होगी, तथा उस भूमिकामें होनेवाला धर्मप्रभावनादिका रागपुण्यानुबंधी पुण्य, सम्यग्दृष्टिके योग्य देवगति-देवक्षेत्र इत्यादि व्यवस्थाका भी नाश हो जायगा।
(३) इस परसे यह समझना कि जीवके उपादानके प्रत्येक समय की पर्यायको जिसप्रकारकी योग्यता हो तदनुसार उस जीवके उस समयके योग्य निमित्त का संयोग स्वयं मिलता ही है-ऐसा निमित्त नैमित्तिक संबंध तेरहवें गुणस्थानका अस्तित्व सिद्ध करता है; एक दूसरेके कर्तारूप में कोई है ही नहीं। तथा ऐसा भी नहीं कि उपादानकी पर्यायमें जिस समय योग्यता हो उस समय उसे निमित्तकी ही राह देखनी पड़े; दोनोंका सहजरूपसे ऐसा ही मेल होता ही है और यही निमित्त नैमित्तिक भाव है। तथापि दोनों द्रव्य स्वतत्र हैं । निमित्त परद्रव्य है उसे जीव मिला नहीं सकता । उसीप्रकार वह निमित्त जीवमें कुछ कर नही सकता; क्योंकि कोई द्रव्य परद्रव्यकी पर्यायका कर्ता, हर्ता नही है ॥ १॥
___ अव मोक्षके कारण और उसका लक्षण कहते हैंवंधहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः ॥२॥
अर्थ-[ बंघहेत्वभाव निर्जराभ्यां ] बंधके कारणों ( मिथ्यात्व,
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अध्याय १० सूत्र २
७५७ अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ) का अभाव तथा निर्जराके द्वारा कृत्स्न कर्म विप्रमोक्षो मोक्षः ] समस्त कर्मोंका अत्यन्त नाश होजाना सो मोक्ष है।
टीका १-कर्म तीन प्रकारके है-(१) भावकर्म (२) द्रव्यकर्म और (३) नो कर्म । भावकर्म जीवका विकार है और द्रव्यकर्म तथा नोकर्म जड़ है। भाव कर्मका अभाव होनेपर द्रव्यकर्मका अभाव होता है और द्रव्यकर्मका अभाव होनेपर नोकर्म (-शरीर) का अभाव होता है । यदि मस्ति की अपेक्षासे कहें तो जो जीवकी संपूर्ण शुद्धता है सो मोक्ष है और यदि नास्तिकी अपेक्षासे कहें तो जीवकी संपूर्ण विकारसे जो मुक्तदशा है सो मोक्ष है। इस दशामें जीव कर्म तथा शरीर रहित होता है और इसका आकार अतिम शरीरसे कुछ न्यून पुरुषाकार होता है।
२. मोक्ष यत्नसे साध्य है (१) प्रश्न-मोक्ष यत्नसाध्य है या प्रयत्नसाध्य है ?
उत्तर-मोक्ष यत्नसाध्य है । जीव अपने यत्नसे (-पुरुषार्थसे ) प्रथम मिथ्यात्वको दूर करके सम्यग्दर्शन प्रगट करता है और फिर विशेष पुरुषार्थसे कम क्रमसे विकारको दूर करके मुक्त होता है । पुरुषार्थके विकल्पसे मोक्ष साध्य नही है ।
(२) मोक्षका प्रथम' कारण सम्यग्दर्शन है और वह पुरुषार्थसे ही प्रगट होता है। श्री समयसार कलश ३४ में अमृतचंद्र सूरि कहते है कि
हे भव्य ! तुझे व्यर्थ ही कोलाहल करनेसे क्या लाभ है ? इस कोलाहलसे तू विरक्त हो और एक चैतन्यमात्र वस्तुको स्वयं निश्चल होकर देख; इसप्रकार छह महीना अभ्यास कर और देख कि ऐसा करनेसे अपने हृदय सरोवरमें आत्माकी प्राप्ति होती है या नही । अर्थात् ऐसा प्रयत्न करनेसे अवश्य आत्माको प्राप्ति होती है।
पुनश्च कलश २३ में कहते हैं किहे भाई ! तू किसी भी तरह महाकष्टसे अथवा मरकरके भी (अर्थात्
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मोक्षशास्त्र
कई प्रयत्नोंके द्वारा) तत्त्वोंका कौतूहली होकर इस शरीरादि मूर्त्त द्रव्योंका एक मुहूर्त्त (दो घड़ी) पड़ौसी होकर श्रात्माका अनुभव कर कि जिससे निज आत्माको विलासरूप, सर्व परद्रव्योंसे भिन्न देखकर इस शरीरादि मूर्तिक पुद्गलद्रव्य के साथ एकत्वके मोहको तू तत्क्षरग ही छोड़ देगा ।
भावार्थ -- यदि यह आत्मा दो घड़ी, पुद्गलद्रव्यसे भिन्न अपने शुद्ध स्वरूपका अनुभव करे ( उसमें लीन हो), परोषह ग्राने पर भी न डिगे, तो घातिकर्मका नाश करके, केवलज्ञान उत्पन्न करके मोक्षको प्राप्त हो । श्रात्मानुभव का ऐसा माहात्म्य है ।
इसमे श्रात्मानुभव करनेके लिये पुरुषार्थ करना बताया है ।
(३) सम्यक् पुरुषार्थ के द्वारा मोक्षको प्राप्ति होती है । सम्यक् पुरुषार्थ कारण है और मोक्ष कार्य है । बिना कारणके कार्य सिद्ध नही होता । पुरुषार्थसे मोक्ष होता है ऐसा सूत्रकारने स्वयं, इस अध्यायके छट्ट सूत्र में 'पूर्वप्रयोगात्' शब्दका प्रयोग कर बतलाया है ।
(४) समाधिशतक श्री पूज्यपाद आचार्य बतलाते हैं कि
अयत्नसाध्यं निर्वाणं चिचत्वं भूतजं यदि । अन्यथा योंगतस्तस्मान्न दुःखं योगिनां क्वचित् ॥ १०० ॥
अर्थ --- यदि पृथ्वी आदि पंचभूतसे जीवतत्त्वकी उत्पत्ति हो तो निर्वाण अयत्नसाध्य है, किन्तु यदि ऐसा न हो तो योगसे अर्थात् स्वरूप संवेदना अभ्यास करनेसे निर्वारणको प्राप्ति हो; इस कारण निर्वारणमोक्षके लिये पुरुषार्थं करनेवाले योगियोंको चाहे जैसा उपसर्ग उपस्थित होनेपर भी दुःख नही होता ।
(५) श्री श्रष्टप्राभृतमे दर्शनप्राभृत गाथा ६, सूत्रप्राभृत १६ श्रीर भाव प्राभृत गाथा ८७ से ६० में स्पष्ट रीत्या बतलाया है कि धर्म-संवर, निर्जरा, गोदा वे आत्माके वीर्य-बल-प्रयत्नके द्वारा ही होता है; उस शास्त्र पृष्ठ १५-१६ तथा २४२ में भी ऐसा ही कहा है ।
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अध्याय १० सूत्र २-३
(६) प्रश्न- इसमें अनेकांत स्वरूप कहाँ प्राया ?
उत्तर- आत्माके सत्य पुरुषार्थसे ही धर्म-मोक्ष होता है और अन्य किसी प्रकारसे नही होता, यही सम्यक् अनेकांत हुआ ।
(७) प्रश्न- आप्तमीर्मासा की ८ वी गाथामे अनेकांतका ज्ञान करानेके लिये कहा है कि पुरुषार्थ और दैव दोनों होते हैं, इसका क्या स्पष्टी करण है ?
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उचर- - जब जीव मोक्षका पुरुषार्थं करता है तब परम-पुण्य कर्म का उदय होता है इतना बतानेके लिये यह कथन है । पुण्योदयसे धर्म या मोक्ष नही, परन्तु ऐसा निमित्त - नैमित्तिक संबंध है कि मोक्षका पुरुषार्थ करनेवाले जीवके उससमय उत्तमसंहनन आदि बाह्य संयोग होता है । यथार्थ पुरुषार्थ और पुण्य इन दोनोंसे मोक्ष होता है - इसप्रकार कथन करने के लिये यह कथन नही है । किन्तु उससमय पुण्यका उदय नही होता ऐसा कहनेवालेकी भूल है - यह बतानेके लिये इस गाथाका कथन है ।
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इस परसे सिद्ध होता है कि मोक्षकी सिद्धि पुरुषार्थके द्वारा ही होती है इसके बिना मोक्ष नही हो सकती ॥ २ ॥
मोक्षमें समस्त कर्मोंका अत्यन्त अभाव होता है यह उपरोक्त सूत्रमें बतलाया; अब यह बतलाते हैं कि कर्मोंके अलावा और किसका अभाव होता है
पशमिकादि भव्यत्वानां च ॥ ३ ॥
अर्थ- [ च ] और [ श्रपशमिकादि भव्यत्वानां ] श्रोपशमिकादि भावोंका तथा पारिणामिक भावोमेसे भव्यत्व भावका मुक्त जीवके श्रभाव होता हो जाता है ।
-
"
टीका
'पशमिकादि' कहनेसे ओपशमिक, मदयिक और क्षायोपशमिक ये तीन भाव समझना, क्षायिकभाव इसमें नही गिनना - जानना ।
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मोक्षशास्त्र
जिन जीवों के सम्यग्दर्शनादि प्राप्त करने की योग्यता हो वे भव्य जीव कहलाते हैं । जब जीवके सम्यग्दर्शनादि पूर्णरूपमें प्रगट हो जाते हैं तब उस आत्मामें 'भव्यत्व' का व्यवहार मिट जाता है । इस सम्बन्ध में यह विशेष ध्यान रहे कि यद्यपि 'भव्यत्व' पारिणामिक भाव है तथापि, जिस प्रकार पर्यायार्थिकनयसे जीवके सम्यग्दर्शनादि पर्यायका निमित्तरूपसे घातक देशघाति तथा सर्वधाति नामका मोहादिक कर्म सामान्य है उसीप्रकार, जीवके भव्यत्वगुरणको भी कर्मसामान्य निमित्तरूपमें प्रच्छादक कहा जा सकता है । (देखो, हिन्दी समयसार, श्री जयसेनाचार्यकी संस्कृत टोका पृष्ठ ४२३) सिद्धत्व प्रगट होनेपर भव्यत्त्व गुरगकी विकारी पर्यायका नाश हो जाता है, यह अपेक्षा लक्ष्य मे रखकर भव्यत्वभावका नाश वतलाया है । दूसरे अध्यायके ७ वें सूत्रकी टीका में ऐसा कहा है कि भव्यत्त्व भावकी पर्यायकी अशुद्धताका नाश होता है, इसलिये वह टीका यहाँ भी
बाँचना ॥ ३ ॥
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अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शन सिद्धत्वेभ्यः ॥४॥
अर्थ - [ केवलसम्यक्त्व ज्ञान दर्शन सिद्धत्वेभ्यः अन्यत्र ] केवलसम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और सिद्धत्व इन भावोके अतिरिक्त अन्य भावोके अभावसे मोक्ष होता है ।
टीका
मुक्त अवस्थामें केवलज्ञानादि गुरणोंके साथ जिन गुणोंका सहभावी संबंध है ऐसे अनन्तवीर्यं, अनन्तसुख, अनन्तदान, अनन्तलाभ, अनन्तभोग, अनन्तउपभोग इत्यादि गुण भी होते हैं ॥ ४ ॥
अब मुक्त जीवोंका स्थान बतलाते हैं।
तदनंतरमूर्ध्वं गच्छत्या लोकांतात् ॥ ५ ॥
अर्थ - [ तदनन्तरम् ] तुरन्त हो [ऊध्वं प्रालोकांतात् गच्छति ] ऊर्ध्वगमन करके लोकके अग्रभाग तक जाता है ।
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अध्याय १० सूत्र ५-६-७
७६१ टीका चौथे सूत्र में कहा हुआ सिद्धत्व जब प्रगट होता है तब तीसरे सूत्रमें कहे हुये भाव नहीं होते, तथा कर्मोका भी अभाव हो जाता है। उसी समय जीव ऊर्ध्वगमन करके सीधे लोकके अग्रभाग तक जाता है और वहाँ शाश्वत स्थित रहता है । छ8 और सातवें सूत्रमे ऊर्ध्वगमन होनेका कारण बतलाया है और लोकके अन्तभागसे आगे नही जानेका कारण आठवें सूत्र में बतलाया है ॥५॥
___ अब मुक्त जीवके ऊर्ध्वगमनका कारण बतलाते हैं पूर्वप्रयोगादसंगत्वाद्वन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच ।।
___ अर्थ-[ पूर्व प्रयोगात् ] १-पूर्वप्रयोगसे, [ असंगत्वात् ] २संगरहित होनेसे, [बंधच्छेदात् ] ३-बन्धका नाश होनेसे [ तथा गतिपरिणामात् च ] और ४-तथा गतिपरिणाम अर्थात् ऊर्ध्वगमन स्वभाव होनेसे-मुक्त जीवके ऊर्ध्वगमन होता है।
नोट-पूर्व प्रयोगका अर्थ है पूर्वमें किया हुआ पुरुषार्थ, प्रयत्न, उद्यम; इस संबंधमें इस अध्यायके दूसरे सूत्रकी टीका तथा सातवें सूत्रके पहले दृष्टांत परकी टीका बांचकर समझना ॥६॥
ऊपरके सूत्रमें कहे गये चारों कारणोंके दृष्टांत बतलाते हैं आविद्धकुलालचक्रवद्वयपगतलेपालाबुवदेरण्डबीज
वदग्निशिखावच्च ॥७॥ अर्थ-मुक्त जीव [ प्राविद्धकुलाल चक्रवत् ] १-कुम्हार द्वारा घुमाये हुए चाककी तरह पूर्व प्रयोगसे, [ व्यपगतलेपालाबुवत् ] २-लेप दूर हो चुका है जिसका ऐसी तूम्बेकी तरह संगरहित होनेसे, [ एरंडबीजवत् ] ३-एरंडके बीजकी तरह बन्धन रहित होनेसे [ 1 ] और [अग्निशिखावत् ] ४-अग्निकी शिखा-(लो) की तरह ऊर्ध्वगमनस्वभावसे ऊर्ध्वगमन ( ऊपरको गमन ) करता है।
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मोक्षशास्त्र
टीका १-पूर्व प्रयोगका उदाहरण-जैसे कुम्हार चाकको घुमाकर हाथ रोक लेता है तथापि वह चाक पूर्वके वेगसे घूमता रहता है, उसीप्रकार जीव भी संसार अवस्थामें मोक्ष प्राप्तिके लिये बारम्बार अभ्यास ( उद्यम, प्रयत्न, पुरुषार्थ ) करता था, वह अभ्यास छूट जाता है तथापि पूर्वके अभ्यासके संस्कारसे मुक्त जीवके ऊर्ध्वगमन होता है।
२-असंगका उदाहरण-जिसप्रकार तूम्बेको जबतक लेपका संयोग रहता है तबतक वह स्व के क्षणिक उपादानकी योग्यताके कारण पानी में डूबा हुआ रहता है, किन्तु जब लेप (मिट्टी ) गलकर दूर हो जाती है तब वह पानीके ऊपर-स्वयं अपनी योग्यतासे आ जाता है; उसीप्रकार जबतक जीव संगवाला होता है तबतक अपनी योग्यतासे संसार समुद्र में डूबा रहता है और संग रहित होने पर ऊर्ध्वगमन करके लोकके अग्रभागमें चला जाता है।
३-बन्ध छेदका उदाहरण-जैसे एरंड वृक्षका सूखा फल-जब चटकता है तब वह बन्धनसे छूट जानेसे उसका बीज ऊपर जाता है, उसीप्रकार जब जीवकी पकदशा ( मुक्तअवस्था ) होने पर कर्म बन्धके छेद पूर्वक वह मुक्त जीव ऊर्ध्वगमन करता है।
४-ऊर्ध्वगमन स्वभावका उदाहरण-जिसप्रकार अग्निकी शिखा (लो) का स्वभाव ऊर्ध्वगमन करना है अर्थात् हवाके अभावमें जैसे अग्नि (दीपकादि) की लौ ऊपरको जाती है उसीप्रकार जीवका स्वभाव ऊध्वंगमन करना है। इसीलिये मुक्तदशा होने पर जीव भी ऊर्ध्वगमन करता है ॥ ७॥
लोकाग्रसे आगे नहीं जानेका कारण बतलाते हैं
धर्मास्तिकायाभावात् ॥८॥ अर्थ-[ धर्मास्तिकायाभावात् ] आगे ( अलोकमें ) धर्मास्तिकाय का अभाव है अतः मुक्त जीव लोकके अंततक ही जाता है। .
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अध्याय १० सूत्र ८-६
टीका
१-इस सूत्रका कथन निमित्तकी मुख्यतासे है। गमन करते हुये द्रव्योंको धर्मास्तिकाय द्रव्य निमित्तरूप है, यह द्रव्य लोकाकाशके बराबर है। वह यह बतलाता है कि जीव और पुलकी गति ही स्वभावसे इतनी है कि वह लोकके अंततक ही गमन करता है। यदि ऐसा न हो तो अकेले आकाशमे 'लोकाकाश' और 'अलोकाकाश' ऐसे दो भेद ही न रहे। लोक छह द्रव्योंका समुदाय है और अलोकाकाशमें एकाकी आकाशद्रव्य ही है। जीव और पुद्गल इन दो ही द्रव्योमें गमन शक्ति है; उनकी गति शक्ति ही स्वभावसे ऐसी है कि वह लोकमें ही रहते है। गमनका कारण जो धर्मास्तिकाय द्रव्य है उसका अलोकाकाशमे अभाव है, वह यह बतलाता है कि गमन करनेवाले द्रव्योंकी उपादान शक्ति ही लोकके अग्रभाग तक गमन करनेकी है। अर्थात् वास्तवमें जीवकी अपनी योग्यता ही अलोकमें जानेकी नहीं है, अतएव वह अलोकमे नही जाता, धर्मास्तिकायका अभाव तो इसमें निमित्तमात्र है।
२-वृहद्रव्यसंग्रहमें सिद्धके अगुरुलघु गुणका वर्णन करते हुये बतलाते हैं कि-यदि सिद्धस्वरूप सर्वथा गुरु हो (भारी हो) तो लोहेके गोलेकी तरह उसका सदा अधःपतन होता रहेगा अर्थात् वह नीचे ही पड़ा रहेगा । और यदि वह सर्वथा लघु (-हलका ) हो तो जैसे वायुके झकोरेसे आकके वृक्षकी रूई उड़ जाया करती है उसीप्रकार सिद्धस्वरूपका भी निरतर भ्रमण होता ही रहेगा, परन्तु सिद्धस्वरूप ऐसा नहीं है, इसीलिये उसमें अगुरुलघुगुण कहा गया है।
(बृहद्रव्यसंग्रह पृष्ठ ३८ ) ___ इस अगुरुलघुगुणके कारण सिद्ध जीव सदा लोकाग्रमें स्थित रहते हैं, वहांसे न तो आगे जाते और न नीचे आते ॥८॥
मुक्त जीवों में व्यवहारनयकी अपेक्षासे भेद बतलाते हैं क्षेत्रकालगतिलिंगतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधितज्ञानावगाहनान्तरसंख्याल्पबहुत्वतः साध्याः ॥६॥
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मोक्षशासा
अर्थ-[ क्षेत्रकालगतिलिंगतीर्थ चारित्र प्रत्येकबुद्धबोधित ज्ञानावगाहनांतर संख्याल्प बहुत्वतः साध्याः1 क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येक बुद्ध बोधित, ज्ञान, अवगाहना, अन्तर, संख्या और अल्पबहुत्व इन बारह अनुयोगोंसे [ साध्याः ] मुक्त जीवों ( सिद्धों) में भी भेद सिद्ध किये जा सकते हैं ।
टीका
१-क्षेत्र-ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षासे (वर्तमानकी अपेक्षासे) प्रात्मप्रदेशोंमें सिद्ध होता है, आकाशप्रदेशोंमें सिद्ध होता है, सिद्धक्षेत्रमें सिद्ध होता है । भूत नैगमनयकी अपेक्षासे पन्द्रह कर्म भूमियोंमें उत्पन्न हुए पुरुष ही सिद्ध होते हैं। पन्द्रह कर्मभूमियोमें उत्पन्न हुये पुरुषका यदि कोई देवादि अन्य क्षेत्रमें उठाकर ले जाय तो अढ़ाई द्वीप प्रमाण समस्त मनुष्य क्षेत्रसे सिद्ध होता है।
२-काल-ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षासे एक समयमें सिद्ध होता है। भूत नैगमनयको अपेक्षासे उत्सपिणी तथा अवपिणी दोनों कालमें सिद्ध होता है; उसमें अवसर्पिणी कालके तीसरे कालके अन्त भागमें, चौथे कालमें और पांचवें कालके प्रारम्भमें ( जिसने चौथे कालमें जन्म लिया है ऐसा जीव ) सिद्ध होता है। उत्सपिणी कालके 'दुषमसुषम' कालमें चौवीस तीर्थंकर होते हैं और उस कालमें जीव सिद्ध होते हैं ( त्रिलोक प्रज्ञप्ति पृष्ठ ३५०); विदेहक्षेत्रमें उत्सपिणी और अवसर्पिणी ऐसे कालके मेद नहीं है। पंचमकालमे जन्मे हुये जीव सम्यग्दर्शनादि धर्म प्राप्त करते है किन्तु वे उसी भवसे मोक्ष प्राप्त नहीं करते। विदेहक्षेत्रमें उत्पन्न हुये जीव अढ़ाई द्वीपके किसी भी भागमें सर्वकालमें मोक्ष प्राप्त करते हैं।
३-गति-ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षासे सिद्धगतिसे मोक्ष प्राप्त होती है; भूत नैगमनयकी अपेक्षासे मनुष्यगतिमें ही मोक्ष प्राप्त होती है।
४-लिंग-ऋजुसूत्रनयसे लिग ( वेद ) रहित ही मोक्ष पाता है; भूतनैगमनयसे तीनों प्रकारके भाववेदमें क्षपक श्रेणी मांडकर मोक्ष प्राप्त
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अध्याय १० सूत्र ६
७६५ करते हैं; और द्रव्यवेदमें तो पुरुषलिंग और यथाजातरूप लिंगसे ही मुक्ति प्राप्त होती है।
५-तीर्थ-कोई जीव तीर्थंकर होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं और कोई सामान्य केवली होकर मोक्ष पाते है। सामान्य केवलीमें भी कोई तो तीर्थकरकी मौजूदगीमें मोक्ष प्राप्त करते है और कोई तीर्थंकरोके बाद उनके तीर्थ में मोक्ष प्राप्त करते है।
६-चरित्र-ऋजुसूत्रनयसे चारित्रके भेदका अभाव करके मोक्ष पाते हैं, भूतनंगमनयसे-निकटकी अपेक्षासे यथाख्यात चारित्रसे ही मोक्ष प्राप्त होती है, दूरकी अपेक्षासे सामायिक, छेदोपस्थापन, सूक्ष्मसांपराय, तथा यथाख्यातसे और किसीके परिहार विशुद्धि हो तो उससे-इन पाँच प्रकारके चारित्रसे मोक्ष प्राप्त होती है।
७-प्रत्येक बुद्ध बोधित-प्रत्येक बुद्ध जीव वर्तमानमें निमित्तकी उपस्थितिके बिना अपनी शक्तिसे बोध प्राप्त करते हैं, किन्तु भूतकालमें या तो सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ हो तब या उससे पहले सम्यग्ज्ञानोके उपदेशका निमित्त हो; और बोधित बुद्ध जीव वर्तमानमें सम्यग्ज्ञानीके उपदेशके निमित्तसे धर्म पाते हैं । ये दोनो प्रकारके जीव मोक्ष प्राप्त करते हैं।
८-ज्ञान-ऋजुसूत्रनयसे केवलज्ञानसे ही सिद्ध होता है, भूतनगमनयसे कोई मति, श्रुत इन दो ज्ञानसे, कोई मति, श्रुत, अवधि इन तीनसे, अथवा मति, श्रुत, मन पर्ययसे और कोई मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय इन चार ज्ञानसे ( केवलज्ञानपूर्वक ) सिद्ध होता है।
ह-अवगाहना-किसीके उत्कृष्ट अवगाहना कुछ कम' पाँचसी पच्चीस धनुषकी, किसीके जघन्य साढे तीन हाथमें कुछ कम' और किसीके मध्यम अवगाहना होती है । मध्यम अवगाहनाके अनेक भेद हैं ।
१०-अन्तर-एक सिद्ध होनेके बाद दूसरा सिद्ध होनेका जघन्य अन्तर एक समयका और उत्कृष्ट अन्तर छह मासका है।
११-संख्या-जघन्यरूपसे एक समयमें एक जीव सिद्ध होता है,
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मोक्षशास्त्र उत्कृष्टरूपसे एक समयमें १०८ जीव सिद्ध होते हैं।
१२-अल्पबहुत्व-अर्थात् संख्यामें हीनाधिकता । उपरोक्त ग्यारह भेदोंमें अल्पबहुत्व होता है वह निम्न प्रकार है
(१) क्षेत्र-संहरण सिद्धसे जन्म सिद्ध संख्यात गुरो हैं। समुद्र आदि जल क्षेत्रोंसे अल्प सिद्ध होते हैं और महाविदेहादि क्षेत्रोंसे अधिक सिद्ध होते हैं।
(२) काल-उत्सर्पिणी कालमें हुये सिद्धोंकी अपेक्षा अवसर्पिणी कालमें हुये सिद्धोंकी संख्या ज्यादा है और इन दोनों कालके विना सिद्ध हुये जीवोंकी संख्या उनसे संख्यात गुनी है, क्योंकि विदेह क्षेत्रोंमें अवसर्पिणी या उत्सर्पिणीका भेद नही है।
(३) गति-सभी जीव मनुष्यगतिसे ही सिद्ध होते हैं इसलिये इस अपेक्षासे गति में अल्पबहुत्व नही है, परन्तु एक गतिके अन्तरकी अपेक्षासे (अर्थात् मनुष्यभवसे पहिलेकी गतिकी अपेक्षासे) तिर्यंचगतिसे आकर मनुष्य होकर सिद्ध हुए ऐसे जीव थोड़े है-कम हैं, इनकी अपेक्षासे संख्यात गुने जीव मनुष्यगतिसे आकर मनुष्य होकर सिद्ध होते है, उससे संख्यातगुने जीव नरकगतिसे पाकर मनुष्य हो सिद्ध होते हैं, और उससे संख्यातगुणे जीव देवगतिसे पाकर मनुष्य होकर सिद्ध होते हैं।
(४) लिंग-भावनपुंसक वेदवाले पुरुष क्षपकश्रेणी मांडकर सिद्ध हों ऐसे जीव कम हैं-थोड़े है। उनसे संख्यातगुने भावस्त्री वेदवाले पुरुष क्षपक श्रेणी मांडकर सिद्ध होते है और उससे संख्यातगुरणे भावपुरुषवेदवाले पुरुष क्षपक श्रेणी मांडकर सिद्ध होते हैं।
(५) तीर्थ-तीर्थकर होकर सिद्ध होनेवाले जीव अल्प है, और उनसे संख्यातगुने सामान्यकेवली होकर सिद्ध होते हैं।
(६) चारित्र-पांचों चारित्रसे सिद्ध होनेवाले जीव थोड़े हैं, उनसे संख्यात गुने जीव परिहार विशुद्धिके अलावा चार चारित्रसे सिद्ध होने वाले है।
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अध्याय १० सूत्र ९ व उपसंहार
७६७ (७) प्रत्येक बुद्ध पोधित-प्रत्येक बुद्ध सिद्ध होनेवाले जीव अल्प हैं उससे संख्यातगुने जीव बोधितबुद्ध होते है।
(८) ज्ञान-मति, श्रुत इन दो ज्ञानसे केवलज्ञान प्राप्त कर सिद्ध होनेवाले जीव अल्प है, उनसे संख्यात गुने चार ज्ञानसे केवलज्ञान प्राप्त कर सिद्ध होते है और उनसे संख्यातगुने तीन ज्ञानसे केवलज्ञान उत्पन्न कर सिद्ध होते है।
(९) अवगाहना-जघन्य अवगाहनासे सिद्ध होनेवाले जीव थोड़े है, उनसे संख्यातगुने उत्कृष्ट अवगाहनासे और उनसे संख्यातगुने मध्यम अवगाहनासे सिद्ध होते है।
(१०) अन्तर-छहमासके अन्तरवाले सिद्ध सबसे थोड़े हैं और उनसे सख्यातगुने एक समयके अन्तरवाले सिद्ध होते है।
(११) संख्या-उत्कृष्टरूपमें एक समयमे एकसौ आठ जीव सिद्ध होते हैं, उनसे अनन्तगुने एक समयमे १०७ से लगाकर ५० तक सिद्ध होते हैं, उनसे प्रसंख्यात गुने जीव एक समयमें ४६ से २५ तक सिद्ध होनेवाले है और उनसे सख्यातगुने एक समयमें २४ से लेकर १ तक सिद्ध होनेवाले जीव हैं।
इसतरह बाह्य निमित्तोंकी अपेक्षासे सिद्धोंमें भेदकी कल्पना की जाती है। वास्तवमें अवगाहना गुणके अतिरिक्त अन्य आत्मीय गुणोंकी अपेक्षासे उनमे कोई भेद नहीं है। यहाँ यह न समझना कि 'एक सिद्धी दूसरा सिद्ध मिल जाता है-इसलिये भेद नहीं है।' सिद्धदशामे भी प्रत्येक जीव अलग अलग ही रहते है, कोई जीव एक दूसरेमें मिल नही जाते |
- उपसंहार १-मोलतत्त्वकी मान्यता सम्बन्धी होनेवाली भूल
और उसका निराकरण कितने ही जीव ऐसा मानते हैं कि स्वर्गके सुखको अपेक्षासे अनन्तगुना सुख मोक्षमे है । किन्तु यह मान्यता मिथ्या है, क्योकि इस गुणाकारमें
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मोक्षशास्त्र वह स्वर्ग और मोक्षके सुखकी जाति एक गिनता है; स्वर्गमें तो विषयादि सामग्री जनित इन्द्रिय-सुख होता है। उनकी जाति उसे मालूम होती है, किन्तु मोक्षमें विषयादि सामग्री नही है अर्थात् वहाँके अतीन्द्रिय सुखकी जाति उसे नहीं प्रतिभासती-मालूम होती। परन्तु महापुरुष मोक्षको स्वर्गसे उत्तम कहते है इसीलिये वे अज्ञानी भी विना समझे बोलते हैं। जैसे कोई गायनके स्वरूपको तो नही समझता किन्तु समस्त सभा गायनकी प्रशंसा करती है इसीलिये वह भी प्रशंसा करता है, उसीप्रकार ज्ञानी जीव तो मोक्षका स्वरूप जानकर उसे उत्तम कहते हैं, इसीलिये अज्ञानी जीव भी बिना समझे ऊपर बताये अनुसार कहता है।
प्रश्न-यह किस परसे कहा जा सकता है कि अज्ञानी जीव सिद्ध के सुखकी ओर स्वर्गके सुखकी जाति एक जानता है--समझता है ।
उत्तर-जिस साधनका फल वह स्वर्ग मानता है उसी जातिके साधनका फल वह मोक्ष मानता है। वह यह मानता है कि इस किस्मके अल्प साधन हों तो उससे इन्द्रादि पद मिलते हैं और जिसके वह साधन सम्पूर्ण हो तो मोक्ष प्राप्त करता है। इस प्रमाणसे दोनोंके साधनकी एक जाति मानता है, इसीसे यह निश्चय होता है कि उनके कार्यकी (स्वर्ग तथा मोक्षकी ) भी एक जाति होनेका उसे श्रद्धान है। इन्द्र प्रादिको जो सुख है वह तो कषायभावोसे पाकुलतारूप है, अतएव परमार्थतः वह दुःखी है और सिद्धके तो कषायरहित अनाकुल सुख है। इसलिये दोनोंकी जाति एक नही है ऐसा समझना चाहिये । स्वर्गका कारण तो प्रशस्त राग है और मोक्षका कारण वीतराग भाव है । इसप्रकार उन दोनोके कारणमें अन्तर है । जिन जीवोके ऐसा भाव नही भासता उनके मोक्षतत्त्वका यथार्थ श्रद्धान नहीं है।
(मो० प्र०)
२. अनादि कर्मबन्धन नष्ट होनेकी सिद्धि श्री तत्त्वार्थसार म० ८ में कहा है कि
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अध्याय १० उपसंहार
भावान्न भावस्य कर्मबन्धन संततेः ।
अन्ताभावः प्रसज्येत दृष्टत्वादन्तबीजवत् ॥ ६ ॥
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भावार्थ - जिस वस्तुकी उत्पत्तिका आद्य समय न हो वह अनादि कहा जाता है, जो अनादि हो उसका कभी अंत नही होता । यदि श्रनादि पदार्थका अंत हो जाय तो सत्का विनाश मानना पडेगा; परन्तु सत्का विनाश होना यह सिद्धान्त और युक्तिसे विरुद्ध है ।
इस सिद्धान्तसे, इस प्रकरणमे ऐसी शंका उपस्थित हो सकती है कि- तो फिर अनादि कर्मबन्धनकी संततिका नाश कैसे हो सकता है ? क्योंकि कर्मबन्धनका कोई आद्य समय नही है इससे वह अनादि है, और जो अनादि हो उसका अंत भी नही होना चाहिए, कर्मबन्धन जीवके साथ अनादि से चला आया है अतः अनन्तकाल तक सदा उसके साथ रहना चाहिए - फलतः कर्मबन्धनसे जीव कभी मुक्त नही हो सकेगा ।
यह शंकाके दो रूप हो जाते हैं- (१) जीवके कर्मबन्धन कभी नही छूटना चाहिए, और ( २ ) कर्मत्वरूप जो पुद्गल है उनमें कर्मत्व सदा चलता ही रहना चाहिए; क्योकि कर्मत्व भी एक जाति है और वह सामान्य होनेसे ध्रुव है । इसलिए उसकी चाहे जितनी पर्यायें बदलती रहे तो भी वे सभी कर्मरूप ही रहनी चाहिए । सिद्धान्त है कि "जो द्रव्य जिस स्त्रभावका हो वह उसी स्वभावका हमेशा रहता है" । जोव अपने चैतन्य स्वभावको कभी छोड़ता नही है और पुद्गल भी अपने रस रूपादिक स्वभावको कभी छोड़ते नही हैं इसीप्रकार अन्य द्रव्य भी अपने अपने स्वभावको छोड़ते नहीं हैं फिर कर्म ही अपने कर्मत्व स्वभावको कैसे छोड़ दे ?
उपरोक्त शंकाका समाधान इसप्रकार है— जीवके साथ कर्मका संबंध संतति प्रवाहकी अपेक्षा अनादिसे है किन्तु कोई एकके एक हो परमाणुका संबंध श्रनादिसे नहीं है, जीवके साथ प्रत्येक परमाणुका संबंध नियत कालतक ही रहता है । कर्मपिंडरूप परिणत परमाणुओंका जीवके साथ संबंध होने का भी काल भिन्न २ है और उनके छूटने का भी काल
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मोक्षशास्त्र ७७० नियत और भिन्न २ है । इतना सत्य है कि, जीवको विकारी अवस्थामें कर्मका संयोग चलता ही रहता है । संसारी जीव अपनी स्वयंको भूलसे विकारी अवस्था अनादिसे करता चला आ रहा है अतः कर्मका सम्बन्ध भी संतति प्रवाहरूप अनादिसे इसको है क्योंकि विकार कोई नियतकालसे प्रारम्भ नहीं हुआ है अतः कर्मका सम्बन्ध भी कोई नियत कालसे प्रारम्म नहीं हुआ है इसप्रकार जीवके साथ कर्मका सम्बन्ध सन्ततिप्रवाहसे अनादि का कहा जाता है, लेकिन कोई एक ही कर्म अनादिकालसे जीवको साथ लगा हुआ चला आया हो-ऐसा उसका अर्थ नही है।
जिसप्रकार कर्मकी उत्पत्ति है उसीप्रकार उनका नाश भी होता है, क्योंकि-"जिसका संयोग हो उसका वियोग अवश्य होता ही है" ऐसा सिद्धान्त है । पूर्व कर्मके वियोगके समय यदि जीव स्वरूपमें सम्यक प्रकार जागृतिके द्वारा विकारको उत्पन्न नहीं होने देवे तो नवीन कर्मोका बन्द नही होवे इसप्रकार अनादि कर्म बन्धनका सन्ततिरूप प्रवाह निर्मूल नष्ट हो सकता है उसका उदाहरण-जैसे बीज और वृक्षका सम्बन्ध संतति प्रवाहरूपसे अनादिका है, कोई भी बीज पूर्वके वृक्ष विना नहीं होता। बीजका उपादानकारण पूर्व वृक्ष और पूर्ववृक्षका उपादान पूर्वबीज, इसप्रकार बीज-वृक्षको संतति अनादिसे होनेपर भी उस संततिका अन्त करनेके लिए अंतिम बीजको पीस डालें या जलादें तो उनका संततिप्रवाह नष्ट हो जाता है । उसीप्रकार कर्मोंकी संतति अनादि होनेपर भी कर्मनाशके प्रयोग द्वारा समस्त कर्मोका नाश कर दिया जाय तो उनकी संतति निःशेष नष्ट हो जाती है। पूर्वोपाजित कर्मोके नाशका और नये कर्मोको उत्पत्ति न होने देने का उपाय संवर-निर्जराके नवमें अध्यायमें बताया है। इसप्रकार कर्मोंका: सम्बन्ध जीवसे कभी नही छूट सकता, ऐसी शंका दूर होती है।
शंकाका दूसरा प्रकार यह है कि कोई भी द्रव्य अपने स्वभावको छोड़ता नहीं है तो कर्मरूप पदार्थ भी कर्मत्वको कैसे छोड़ें ? उसका. समाधान यह है कि-कर्म कोई द्रव्य नहीं है परन्तु वह तो संयोगरूप पर्याय है। जिस द्रव्यमें कर्मत्वरूप पर्याय होती है वह द्रव्य तो पुल द्रव्य है और
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अध्याय १० उपसंहार
७७१ पुद्गल द्रव्यका तो कभी नाश होता नहीं है और वह अपने वर्णादि स्वभावको भी कभी छोडता नहीं है । पुद्गल द्रव्योंमें उनकी योग्यतानुसार शरीरादि तथा जल, अग्नि, मिट्टी, पत्थर वगैरह कार्यरूप अनेक अवस्थाएँ होती रहती हैं, और उनकी मर्यादा पूर्ण होनेपर वे विनाशको भी प्राप्त होती रहती है; उसीप्रकार कोई पुद्गल जीवके साथ एक क्षेत्रअवगाह संबंधरूप बन्धन अवस्था होनेरूप सामर्थ्य-तथा रागी जीवको रागादि होनेमे निमित्तपनेरूप होनेकी सामर्थ्यसहित जीवके साथ रहते हैं वहाँ तक उनको 'कर्म' कहते हैं, कर्म कोई द्रव्य नही है वह तो पुद्गलद्रव्यको पर्याय है पर्यायका स्वभाव ही पलटना है इसलिये कर्मरूप पर्यायका अभाव होकर अन्य पर्यायरूप होता रहता है।
पुद्गल द्रव्यको कर्म पर्याय नष्ट होकर दूसरी जो पर्याय हो, वह कर्मरूप भी हो सकती है और अन्यरूप भी हो सकती है। कोई द्रव्यके उत्तरोत्तर कालमै भी उस द्रव्यकी एक समान ही योग्यता होती रहे तो उसकी पर्याय एक समान ही होती रहेगी, और यदि उसकी योग्यता बदलती रहे तो उसकी पर्याय अनेक प्रकार-भिन्न-भिन्न जातिकी होती रहेगी, जैसे मिट्टीमें जिससमय घटरूप होनेको योग्यता हो तब वह मिट्टो घटरूप परिणमती है और फिर वही मिट्टी पूर्व अवस्था बदलकर दूसरी बार भी घट हो सकती है । अथवा अपनी योग्यतानुसार कोई अन्य पर्यायरूप (-अवस्था ) भी हो सकती है। इसीप्रकार कर्मरूप पर्यायमें भी समझना चाहिये । जो 'कर्म' कोई अलग द्रव्य ही हो तो उनका अन्यरूप (-अकर्मरूप ) होना नहीं बन सकता, परन्तु 'कर्म' पर्याय होने से वह जीवसे छूट सकते हैं और कर्मपना छोड़कर अन्यरूप (-अकर्मरूप) हो सकते हैं।
३. इसप्रकार, पुद्गल जीवसे कर्मरूप अवस्थाको छोड़कर अकर्मरूप घट पटादिरूप हो सकते है ये सिद्ध हुआ। परन्तु जीवसे कुछ कर्मोका अकर्मरूप हो जाने मात्रसे ही जीव कर्मरहित नही हो जाता, क्योंकि जैसे कुछ कर्मरूप पुद्गल कर्मत्वको छोड़कर अकर्मरूप हो जाते हैं वैसे ही अकर्मरूप अवस्थावाले पुद्गल जिनमें कर्मरूप होनेकी योग्यता हो, वह
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मोक्षगास्त्र जीवके विकार भावको उपस्थितिमें कमरप हुआ गारते है । जहात जोय विकारी भाव करें वहां तक उसकी विकारदगा हुआ करती है और अन्य पुद्गल कर्मरूप होकर उसकी साथ बंधन रूप हुमा करते हैं; राप्रकार संसारमे कर्मशृङ्खला चलती रहती है। लेकिन ऐगा नहीं है fr-कर्म सदा कर्म ही रहे, अथवा तो कोई जीव रादा अमुकही कसि बन्ने हुए ही रहें, अथवा विकारी दशामे भी सर्व कर्म सवं जीवोंके घर जाते हैं और सर्व जीवमुक्त हो जाते है।
४-इस तरह अनादिकालीन कर्म शाला प्रतेक काल तक चलती ही रहती है, ऐसा देखा जाता है; परन्तु गृहलाओंका ऐसा नियम नहीं है कि जो अनादिकालीन हो वह अनन्त काल तक रहना ही चाहिए, क्योंकि शृङ्खला संयोगसे होती है और संयोगका किसी न किसी समय वियोग हो सकता है । यदि वह वियोग प्रांगिक हो तो यह गलला चाल रहती है, किन्तु जब उसका आत्यंतिक वियोग हो जाता है तब मला का प्रवाह टूट जाता है । जैसे शृङ्खला वलवान कारणों के द्वारा टूटती है. उसीप्रकार कर्मशृङ्खला अर्थात् संसार शृङ्खला भी ( संसाररूपी जंजीर ) जीवके सम्यग्दर्शनादि सत्य पुरुपार्थके द्वारा निर्मल नष्ट हो जाती है । विकारी शृङ्खलामें अर्थात् मलिन पर्यायमें अनन्तताका नियम नहीं है, इसीलिये जीव विकारी पर्यायका अभाव कर सकता है और विकारका अभाव करनेपर कर्मका संवध भी छूट जाता है और उसका कर्मत्व नष्ट होकर अन्यरूपसे परिणमन हो जाता है ।
५. अब आत्माके बंधनकी सिद्धि करते हैं
कोई जीव कहते हैं कि प्रात्माके वन्धन होता ही नही । उनकी यह मान्यता मिथ्या है, क्योंकि बिना बन्धनके परतन्त्रता नहीं होती। जैसे गाय भैंस आदि पशु जब बन्धनमें नहीं होते तब परतन्त्र नही होते; परतन्त्रता बन्धन की दशा बतलाता है, इसलिये आत्माके बन्धन मानना योग्य है आत्माके यथार्थ बन्धन अपने-निज विकारी भावका ही है, . उसका निमित्त पाकर स्वतः जड़कर्मका बन्धन होता है और उसके फलस्वरूप शरीरका संयोग होता है। शरीरके संयोगमें आत्मा रहती
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श्रध्याय १० उपसंहार
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है, यह परतंत्रता बतलाती है । यह ध्यान रहे कि कर्म, शरीर इत्यादि कोई भी परद्रव्य आत्माको परतंत्र नहीं करते किंतु जीव स्वयं अज्ञानता से स्व को परतंत्र मानता है और पर वस्तुसे निजको लाभ या नुकसान होता है ऐसी विपरीत पकड़ करके परमें इष्ट-अनिष्टत्वकी कल्पना करता है । पराघीनता दुःखका कारण है । जीवको शरीरके ममत्वसे- शरीरके साथ एकत्वबुद्धिसे दुःख होता है । इसीलिये जो जीव शरीरादि परद्रव्यसे अपने को लाभ - नुकसान मानते है वे परतंत्र ही रहते हैं । कर्म या परवस्तु जीव को परतंत्र नही करती, किन्तु जीव स्वय परतन्त्र होता है । इस तरह जहां तक अपने अपराध, शुद्धभाव किंचित् भी हो वहीं तक कर्म-नोकर्म का संबंधरूप बघ है |
६. मुक्त होने के बाद फिर बंध या जन्म नहीं होता
जीवके मिथ्यादर्शनादि विकारी भावोंका अभाव होनेसे कर्मका कारण- कार्य सम्बन्ध भी टूट जाता है । जानना - देखना यह किसी कर्म बन्धका कारण नही किन्तु परवस्तुनोंमें तथा राग-द्वेषमे आत्मीयता की भावना बंधका कारण होती है । मिथ्याभावनाके कारण जीवके ज्ञान तथा दर्शन ( श्रद्धान) को मिथ्याज्ञान तथा मिथ्यादर्शन कहते हैं । इस मिथ्यात्व आदि विकारभावके छूट जानेसे विश्वकी चराचर वस्तुनोंका जाननादेखना होता है; क्योंकि ज्ञान दर्शन तो जीवका स्वाभाविक असाधारण धर्म है । वस्तुके स्वाभाविक असाधारण धर्मका कभी नाश नही होता; यदि उसका नाश हो तो वस्तुका भी नाश हो जाय । इसीलिये मिथ्यावासनाके अभाव में भी जानना देखना तो होता है; किंतु अमर्यादित बघके कारण-कार्यका अभाव मिथ्यावासनाके अभावके साथ ही हो जाता है । कर्मके आनेके सर्व कारणोका अभाव होनेके बाद भी जानना - देखना होता है तथापि जीवके कर्मोंका बंध नही होता और कर्म बन्ध न होनेसे उसके फलरूप स्थूल शरीरका संयोग भी नही मिलता; इसीलिये उसके फिर ( देखो तत्त्वार्थसार पृष्ठ ३६४ ) जन्म नही होता |
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मोक्षशास्त्र ७. बंध जीवका स्वाभाविक धर्म नहीं यदि बंध जीवका स्वाभाविक धर्म हो तो वह बंध जीवके सदा रहना चाहिये; किंतु यह तो संयोग वियोगरूप है, इसीलिये पुराना कर्म दूर होता है और यदि जीव विकार करे तो नवीन कर्म बंधता है। यदि बंध स्वाभाविक हो तो बन्धसे प्रथक् कोई मुक्तात्मा हो नहीं सकता। पुनश्च यदि बंध स्वाभाविक हो तो जीवों में परस्पर अंतर न दिखे। भिन्न कारणके बिना एक जातिके पदार्थोमें अंतर नहीं होता, किंतु जीवोंमें अंतर देखा जाता है । इसका कारण यह है कि जीवोंका लक्ष्य मिन्न २ पर वस्तु पर है । पर वस्तुएं अनेक प्रकार की होती है अतः पर द्रव्योंके पालंबनसे जीवकी अवस्था एक सदृश नहीं रहती। जीव स्वयं पराधीन होता रहता है, यह पराधीनता ही बंधनका कारण है। जैसे वंधन स्वाभाविक नहीं उसीप्रकार वह आकस्मिक भी नही अर्थात् विना कारण के उसको उत्पत्ति नही होती। प्रत्येक कार्य स्व-स्व के कारण अनुसार होता है । स्थूल बुद्धिवाले लोग उसका सच्चा कारण नहीं जानते अतः अकस्मात् कहते हैं। बंधका कारण जीवका अपराधरूप विकारीभाव है । जीवके विकारी भावोंमें तारतम्यता देखी जाती है इसीलिये वह क्षणिक है अतः उसके कारणसे होनेवाला कर्मबंध भी क्षणिक है । तारतम्यता सहित होने से कर्मबन्ध शाश्वत नहीं । शाश्वत और तारतम्यता इन दोनोके शीत्त और उष्णता की तरह परस्पर विरोध है । तारतम्यताका कारण क्षणभंगुर है; जिनका कारण क्षणिक हो वह कार्य शाश्वत कैसे हो सकता है ? कर्मका बंध और उदय तारतम्यता सहित ही होता है इसलिये बन्ध शाश्वतिक या स्वाभाविक वस्तु नहीं; इसीलिये यह स्वीकार करना ही चाहिये कि बंधके कारणोंका अभाव होने पर पूर्व बंधकी समाप्ति पूर्वक मोक्ष होता है।
( देखो तत्त्वार्थसार पृष्ठ ३६६) ८. सिद्धोंका लोकाग्रसे स्थानांवर नहीं होता प्रश्न-~-आत्मा मुक्त होने पर भी स्थानवाला होता है। जिसको स्थान हो वह एक स्थानमें स्थिर नहीं रहता कितु नीचे जाता अथवा
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अध्याय १० उपसंहार
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उचर:-पदार्थमें स्थानांतर होने का कारण स्थान नहीं है परन्तु स्थानांतरका कारण तो उसकी क्रियावती शक्ति है। जैसे नावमें जब पानी आकर भरता है तब वह डगमग होती है और नीचे डूब जाती है, उसी प्रकार आत्मामें भी जब कर्मास्रव होता रहता है तब वह संसारमें डूबता है और स्थान बदलता रहता है किन्तु मुक्त अवस्थामें तो जीव कर्मास्रवसे रहित हो जाता है, इसीलिये ऊर्ध्वगमन स्वभावके कारण लोकाग्रमे स्थित होनेके बाद फिर स्थानांतर होनेका कोई कारण नही रहता।
यदि स्थानान्तरका कारण स्थानको मानें तो कोई पदार्थ ऐसा नही है जो स्थानवाला न हो; क्योकि जितने पदार्थ हैं वे सब किसी न किसी स्थान में रहे हुवे है और इसीलिये उन सभी पदार्थोका स्थानांतर होना चाहिये । परन्तु धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल आदि द्रव्य स्थानांतर रहित देखे जाते है अतः वह हेतु मिथ्या सिद्ध हो जाता है। अतः सिद्ध हुआ कि संसारी जीवके अपनी क्रियावती शक्ति के परिणमन की उस समयकी योग्यता उस क्षेत्रांतरका मूल कारण है और कर्मका उदय तो मात्र निमित्त कारण है। मुक्तात्मा कर्मास्रवसे सर्वथा रहित हैं अतः वे स्वस्थानसे विचलित नही होते । ( देखो तत्वार्थसार पृष्ठ ३८७ ) पुनश्च तत्त्वार्थसार अध्याय ८ की १२ वी गाथा मे बतलाया है कि गुरुत्व के अभावको लेकर मुक्तात्माका नीचे पतन नही होता।।
8-जीवकी मुक्त दशा मनुष्य पर्यायसे ही होती है और मनुष्य ढाई द्वीपमें ही होता है, इसीलिये मुक्त होनेवाले जीव ( मोडे विना) सीधे ऊर्ध्वगतिसे लोकांतमे जाते हैं । उसमे उसे एक ही समय लगता है।
१०. अधिक जीव थोड़े क्षेत्र में रहते हैं प्रश्न-सिद्धक्षेत्रके प्रदेश तो असंख्यात हैं और मुक्त जीव अनंत हैं तो असंख्यात प्रदेशमे अनन्त जीव कैसे रह सकते है ?
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मोक्षशास्त्र उत्तर-सिद्ध जीवोंके शरीर नहीं है और जीव सूक्ष्म ( अरूपी) है, इसीलिये एक स्थान पर अनंत जीव एक साथ रह सकते हैं। जैसे एक ही स्थान में अनेक दीपकोंका प्रकाश रह सकता है उसी तरह अनंत सिद्ध जीव एक साथ रह सकते है । प्रकाश तो पुद्गल है; पुद्गल द्रव्य भी इस तरह रह सकता है तो फिर अनंत शुद्ध जीवोंके एक क्षेत्रमें साथ रहने में कोई बाधा नहीं।
११. सिद्ध जीवों के आकार है ? कुछ लोग ऐसा मानते है कि जीव अरूपी है इसीलिये उसके प्राकार नहीं होता, यह मान्यता मिथ्या है। प्रत्येक पदार्थ में प्रदेशत्व नामका गुण है, इसीलिये वस्तुका कोई न कोई आकार अवश्य होता है। ऐसी कोई चीज नहीं हो सकती जिसका आकार न हो । जो पदार्थ है उसका अपना आकार होता है । जीव अरूपी-अमूर्तिक है, अमूर्तिक वस्तुके भी अमूर्तिक आकार होता है । जीव जिस शरीरको छोड़कर मुक्त होता है उस शरीरके आकारसे कुछ न्यून आकार मुक्त दशामें भी जीवके होता है ।
प्रश्न-यदि आत्माके आकार हो तो उसे निराकार क्यों कहते हैं ?
उत्तर-आकार दो तरहका होता है-एक तो लम्बाई चौड़ाई मोटाईरूप आकार और दूसरा मूर्तिकरूप आकार । मूर्तिकतारूप आकार एक पुद्गल द्रव्यमें ही होता है अन्य किसी द्रव्यमें नहीं होता। इसीलिये जब आकार का अर्थ मूर्तिकता किया जावे तब पुद्गल के अतिरिक्त सर्व द्रव्योंको निराकार कहते है। इस तरह जीवमे पुद्गलका मूर्तिक आकार न होने की अपेक्षा से जीवको निराकार कहा जाता है। परन्तु स्व क्षेत्र की लंबाई चौड़ाई मोटाई को अपेक्षासे समस्त द्रव्य आकारवान हैं । जब इस सद्भावसे प्राकारका संबन्ध माना जाय तो आकार का अर्थ लंबाईचौड़ाई मोटाई ही होता है । आत्माके स्व का आकार है, इसीलिये वह साकार है।
संसारदशामें जीव की योग्यता के कारण उसके प्राकारकी पर्याय
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ওওও
अध्याय १० उपसंहार संकोच विस्तार रूप होती थी। अब पूर्ण शुद्ध होने पर संकोच विस्तार नहीं होता । सिद्धदशा होने पर जीवके स्वभावव्यजनपर्याय प्रगट होती है और उसी तरह अनन्तकाल तक रहा करती है।
(देखो तत्त्वार्थसार पृष्ठ ३९८ से ४०६) इसप्रकार श्री उमास्वामी विरचित मोक्षशास्त्रकी गुजराती टीकाका दशवें अध्यायका हिन्दी अनुवाद पूर्ण हुआ ।
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परिशिष्ट-१
इस मोक्षशास्त्रके आधारसे श्री अमृतचन्द्र सूरिने "श्री तत्त्वार्थसार शास्त्र बनाया है। उसके उपसंहारमें इस ग्रंथका सारांश २३ गाथाओं द्वारा दिया है वह इस शास्त्रमे भी लागू होता है अतः यहाँ दिया जाता है:
ग्रन्थका सारांश प्रमाणनयनिक्षेप निर्देशादि सदादिभिः ।
सप्ततत्त्वमिति ज्ञात्वा मोक्षमार्ग समाश्रयेत् ॥११॥
अर्थ-जिन सात तत्त्वोंका स्वरूप क्रमसे कहा गया है उसे प्रमाण, नय, निक्षेप, निर्देशादि तथा सत् आदि अनुयोगों द्वारा जानकर मोक्षमार्ग का यथार्थरूपसे आश्रय करना चाहिये।
प्रश्न-इस शास्त्रके पहले सूत्रका अर्थ निश्चयनय, व्यवहारनय, और प्रमाण द्वारा क्या होगा?
उत्तर-जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी एकता है सो मोक्षमार्ग हैइस कथनमें अभेद स्वरूप निश्चयनयकी विवक्षा है अतः यह निश्वयनयका कथन जानना; मोक्षमार्गको सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रके भेदसे कहना, इसमें भेदस्वरूप व्यवहारनयकी विवक्षा है अतः यह व्यवहारनयका कथन जानना; और इन दोनोका यथार्थ ज्ञान करना सो प्रमाण है। मोक्षमार्ग पर्याय है इसीलिये प्रात्माके त्रिकाली चैतन्यस्वभावको अपेक्षासे यह सद्भुत व्यवहार है।
प्रश्न-निश्वयनयका क्या अर्थ है ? उत्तर-'सत्यार्थ इसी प्रकार है' ऐसा जानना सो निश्चयनय है । प्रश्न-व्यवहारनयका क्या अर्थ है ? उत्तर-ऐसा जानना कि 'सत्यार्थ इस प्रकार नहीं है किन्तु
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परिशिष्ट १
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निमित्तादिकी अपेक्षासे उपचार किया है' सो व्यवहारनय है । अथवा पर्यायभेदका कथन भी व्यवहारनयसे कथन है |
मोक्षमार्गका दो तरहसे कथन
निश्चयव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गो द्विधा स्थितः । तत्राद्यः साध्यरूपः स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनम् ॥२॥ अर्थ - निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्ग ऐसे दो तरहसे मोक्षमार्गका कथन है । उसमें पहला साध्यरूप है और दूसरा उसका साधनरूप है ।
१. प्रश्न- - व्यवहारमोक्षमार्ग साधन है इसका क्या अर्थ है ? उत्तर — पहले रागरहित दर्शन - ज्ञान• चारित्रका स्वरूप जानना और उसी समय 'राग धर्म नही या धर्मका साधन नही है' ऐसा मानना, ऐसा माननेके बाद जब जीव रागको तोड़कर निर्विकल्प हो तब उसके निश्चयमोक्षमार्ग होता और उसी समय रागसहित दर्शन-ज्ञान- चारित्रका व्यय हुवा इसे व्यवहार मोक्षमार्ग कहते हैं; इस रीति से 'व्यव' यह साधन है । २ --- इस सम्बन्धमें श्री परमात्म प्रकाशमें निम्नप्रकार बताया हैप्रश्न – निश्चयमोक्षमार्ग तो निर्विकल्प है और उस समय सविकल्प मोक्षमार्ग है नही तो वह (सविकल्प मोक्षमार्ग) साधक कैसे होता है ? उत्तर—भूतनैगमनयकी अपेक्षासे परम्परासे साधक होता है अर्थात् पहले वह था किन्तु वर्तमानमें नही है तथापि भूतनैगमनयसे वह वर्तमान में है ऐसा संकल्प करके उसे साधक कहा है ( पृष्ठ १४२ संस्कृत टीका ) इस सम्बन्ध में छठे अध्यायके १५ वें सूत्रकी टीकाके पाँचवें पैरेमे दिये गये
अन्तिम प्रश्न और उत्तरको बांचना |
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३ - शुद्ध निश्चयनयसे शुद्धानुभूतिरूप वीतराग ( - निश्चय ) सम्यक्त्व का कारण नित्य आनन्द स्वभावरूप निज शुद्धात्मा ही है ।
( परमात्मप्रकाश पृष्ठ १४५ )
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मोक्षशास्त्र
४~मोक्षमार्ग दो नहीं मोक्षमार्ग तो कहीं दो नही है किन्तु मोक्षमार्गका निरूपण दो तरह से है । जहाँ सच्चे मोक्षमार्गको मोक्षमार्ग निरूपण किया है वह निश्चय ( यथार्थ ) मोक्षमार्ग है तथा जो मोक्षमार्ग तो नहीं है किन्तु मोक्षमार्गमें निमित्त है अथवा साथमें होता है उसे उपचारसे मोक्षमार्ग कहा जाता है, लेकिन वह सच्चा मोक्षमार्ग नही है।
निश्चय मोक्षमार्गका स्वरूप श्रद्धानाधिगमोपेक्षा शुद्धस्य स्वात्मनो हि या । सम्यक्त्वज्ञानवृत्तात्मा मोक्षमार्गः स निश्चयः ॥३॥
अर्थ-निज शुद्धात्माकी अभेदरूपसे श्रद्धा करना, अभेदरूपसे ही ज्ञान करना तथा अभेदरूपसे ही उसमें लीन होना-इसप्रकार जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप आत्मा है सो निश्चयमोक्षमार्ग है।
__व्यवहारमोक्षमार्गका स्वरूप श्रद्धानाधिगमोपेक्षा याः पुनः स्युः परात्मना ।
सम्यक्त्वज्ञानवृत्वात्मा स मार्गो व्यवहारतः॥शा
अर्थ-आत्मामें जो सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-तथा सम्यक्चारित्र भेदकी मुस्यतासे प्रगट हो रहे हैं उस सम्यक्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक् चारियरूप रत्नत्रयको व्यवहार मार्ग समझना चाहिये ।
व्यवहारी मुनिका स्वरूप श्रद्दधानः परद्रव्यं युध्यमानस्तदेव हि ।
तदेवोपेक्षमाणश्च व्यवहारी स्मृतो मुनिः ॥शा अर्थ-जो परद्रव्यको ( सात तत्त्वोंकी भेदरूपसे ) श्रद्धा करता है उसी तरह भेदरूपसे जानता है और उसी तरह भेदरूपसे उपेक्षा करता है उस मुनिको व्यवहारी मुनि कहते हैं।
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परिशिष्ट १
निश्चयी मुनिका स्वरूप स्व द्रव्यं श्रद्दधानस्तु बुध्यमानस्तदेव हि ।
तदेवोपेक्षमाणश्च निश्चयान्मुनिसत्तमः ॥ ६॥
अर्थ-जो स्व द्रव्यको ही श्रद्धामय तथा ज्ञानमय बना लेते है और जिनके आत्माकी प्रवृत्ति उपेक्षारूप ही हो जाती है ऐसे श्रेष्ठ मुनि निश्चयरत्नत्रय युक्त हैं।
निश्चयीके अभेदका समर्थन आत्मा ज्ञात्तया ज्ञानं सम्यक्त्वं चरितं हि सः ।
स्वस्थो दर्शन चारित्र मोहाभ्यामनुपप्लुतः ॥ ७॥ अर्थ-जो जानता है सो आत्मा है, ज्ञान जानता है इसीलिये ज्ञान ही आत्मा है। इसी तरह जो सम्यक् श्रद्धा करता है, सो आत्मा है। श्रद्धा करने वाला सम्यग्दर्शन है अतएव वही आत्मा है। जो उपेक्षित होता है सो प्रात्मा है । उपेक्षा गुरण उपेक्षित होता है अतएव वही आत्मा है अथवा आत्मा ही वह है । यह अभेद रत्नत्रयस्वरूप है, ऐसी अभेदरूप स्वस्थदशा उनके ही हो सकती है कि जो दर्शनमोह और चारित्रमोहके उदयाधीन नहीं रहता।
इसका तात्पर्य यह है कि मोक्षका कारण रत्नत्रय बताया है, उस रत्नत्रयको मोक्षका कारण मानकर जहाँ तक उसके स्वरूपको जाननेकी इच्छा रहती है वहाँ तक साधु उस रत्नत्रय को विषयरूप ( ध्येयरूप) मान कर उसका चितवन करता है। वह विचार करता है कि रत्नत्रय इस प्रकार के होते हैं । जहाँ तक ऐसी दशा रहती है वहाँ तक स्वकीय विचार द्वारा रत्नत्रय भेदरूप ही जाना जाता है, इसीलिये साधुके उस प्रयत्नको भेदरूप रत्नत्रय कहते है; यह व्यवहारकी दशा है । ऐसी दशामें प्रभेदरूप रस्नत्रय कभी हो नही सकता । परन्तु जहाँ तक ऐसी दशा भी न हो अथवा ऐसे रत्नत्रयका स्वरूप समझ न ले वहाँ तक उसे निश्चयदशा कैसे प्राप्त हो सकती है ? यह ध्यान रहे कि व्यवहार करते करते निश्चय दशा प्रगट ही नहीं होती।
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मोक्षशास्त्र यह भी ध्यान रहे कि व्यवहार दशाके समय राग है इसलिये वह दूर करने योग्य है, वह लाभदायक नहीं है। स्वाश्रित एकतारूप निश्चयदशा ही लाभदायक है ऐसा यदि पहलेसे ही लक्ष्य हो तो ही उसके व्यवहारदशा होती है। यदि पहलेसे ही ऐसी मान्यता न हो और उस राग दशा को ही धर्म या धर्मका कारण माने तो उसे कभी धर्म नहीं होता और उसके वह व्यवहारदशा भी नहीं कहलाती; वास्तवमें वह व्यवहाराभास है-ऐसा समझना। इसलिये रागरूप व्यवहारदशाको टालकर निश्चयदशा प्रगट करनेका लक्ष्य पहले से ही होना चाहिये।
_ ऐसी दशा हो जाने पर जब साधु स्वसन्मुखताके बलसे स्वरूप की तरफ झुकता है तब स्वयमेव सम्यग्दर्शनमय-सम्यक्ज्ञानमय तथा सम्यकचारित्रमय हो जाता है । इसीलिये वह स्व से अभेदरूपरत्नत्रयकी दशा है और वह यथार्थ वीतरागदशा होनेके कारण निश्चयरत्नत्रयरूप कही जाती है।
इस अभेद और भेदका तात्पर्य समझ जाने पर यह बात माननी पड़ेगी कि जो व्यवहाररत्नत्रय है वह यथार्थ रत्नत्रय नही है। इसीलिये उसे हेय कहा जाता है । यदि साधु उसी में ही लगा रहे तो उसका तो व्यवहारमार्ग मिथ्यामार्ग है, निरुपयोगी है। यों कहना चाहिये कि उन साधुओं ने उसे हेयरूप न जानकर यथार्थरूप समझ रखा है। जो जिसे यथार्थरूप जानता और मानता है वह उसे कदापि नहीं छोड़ता; इसीलिये उस साधुका व्यवहारमार्ग मिथ्यामार्ग है अथवा वह अज्ञानरूप संसारका कारण है।
पुनश्च उसीप्रकार जो व्यवहार को हेय समझकर अशुभभावमें रहता है और निश्चयका अवलंबन नही करता वह उभयभ्रष्ट (शुद्ध और शुभ दोनोंसे भ्रष्ट ) है । निश्चयनयका अवलंबन प्रगट नहीं हुआ .और. जो व्यवहारको तो हेय मानकर अशुभमें रहा करते हैं वे निश्चय के लक्ष्य से शुभ मे भी नहीं जाते तो फिर वे निश्चय तक नहीं पहुँच सकते-यह निर्विवाद है।
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परिशिष्ट १
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इस श्लोक में अभेद रत्नत्रयका स्वरूप कृदंत शब्दों द्वारा शब्दोंका अभेदस्व बताकर कर्तृ भावसाधन सिद्ध किया । अब आगे के श्लोकोंमें क्रिया पदों द्वारा कर्ताकर्मभाव आदि में सर्व विभक्तियोंके रूप दिखाकर अभेदसिद्ध करते हैं ।
निश्चयरत्नत्रय की कर्ता के साथ अभेदता पश्यति स्वस्वरूपं यो जानाति चरत्यपि । दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव स स्मृतः ॥ ८ ॥
अर्थ – जो निज स्वरूपको देखता है, निजस्वरूपको जानता है और निजस्वरूपके अनुसार प्रवृत्ति करता है वह आत्मा ही है, अतएव दर्शन - ज्ञान - चारित्र इन तीनोंरूप आत्मा ही है ।
कर्मरूपके साथ अभेदता
पश्यति स्वस्वरूपं यं जानाति चरत्यपि । दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ॥ ९ ॥
अर्थ – जिस निज स्वरूपको देखा जाता है, जाना जाता है और धारण किया जाता है वह दर्शन-ज्ञान - चारित्ररूप रत्नत्रय है, परन्तु तन्मय आत्मा ही है इसीलिये आत्मा ही अभेदरूपसे रत्नत्रयरूप है ।
कारणरूपके साथ अमेदता
दृश्यते येन रूपेण ज्ञायते चर्यतेऽपि च ।
दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ॥ १० ॥
अर्थ — जो निज स्वरूप द्वारा देखा जाता है, निजस्वरूप द्वारा जाना जाता है और निज स्वरूप द्वारा स्थिरता होती है वह दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप रत्नत्रय है, वह कोई प्रथक् पदार्थ नही है किंतु तन्मय आत्मा ही है इसीलिये आत्मा ही अभेदरूपसे रत्नत्रयरूप है । संप्रदानरूप के साथ अभेदता
यस्मै पश्यति जानाति स्वरूपाय चरत्यपि । दर्शनज्ञान चारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ॥ ११ ॥
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मोक्षशास्त्र
अर्थ — जो स्वरूपकी प्राप्ति के लिये देखता है, जानता है तथा प्रवृत्ति करता है वह दर्शन - ज्ञान - चारित्र नामवाला रत्नत्रय है; यह कोई प्रथक् पदार्थ नहीं है परन्तु तन्मय आत्मा ही है अर्थात् आत्मा रत्नत्रयसे भिन्न नही किन्तु तन्मय ही है ।
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अपादान स्वरूप के साथ अभेदता
यस्मात् पश्यति जानाति स्वस्वरूपाच्चरत्यपि । दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ।। १२ ।।
अर्थ – जो निश्चयरूपसे देखता है, जानता है तथा जो निजस्वरूपसे वर्तता रहता है वह दर्शन - ज्ञान-चारित्रस्वरूप रत्नत्रय है, वह दूसरा कोई नहीं किन्तु तन्मय हुआ आत्मा ही है ।
संबन्ध स्वरूपके साथ अभेदता
यस्य पश्यति जानाति स्वस्वरूपस्य चरत्यपि । दर्शनज्ञान चारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः || १३ ॥
अर्थ — जो निजस्वरूपके संबंधको देखता है, निजस्वरूपके संबंध को जानता है तथा निजस्वरूपके संबंधकी प्रवृत्ति करता है वह दर्शनज्ञान - चारित्ररूप रत्नत्रय है । यह आत्मासे भिन्न अन्य कोई पदार्थ नहीं किन्तु श्रात्मा ही तन्मय है ।
आधार स्वरूपके साथ अभेदता
यस्मिन् पश्यति जानाति स्वस्वरूपे चरत्यपि । दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः || १४ ||
अर्थ - जो निजस्वरूपमें देखता है, जानता है तथा निजस्वरूपमें स्थिर होता है वह दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप रत्नत्रय है । वह आत्मासे कोई भिन्न वस्तु नही किन्तु आत्मा ही तन्मय है ।
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परिशिष्ट १ क्रिया स्वरूपकी अभेदता
ये स्वभावाद् दृशिज्ञप्तिचर्यारूपक्रियात्मकाः । ... . .दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ॥ १५ ॥
अर्थ-जो देखनेरूप, जाननेरूप तथा चारित्ररूप क्रियाएँ हैं वह दर्शन-ज्ञान चारित्ररूप रत्नत्रय है, परन्तु ये क्रियाएँ आत्मासे कोई भिन्न पदार्थ नहीं तन्मय प्रात्मा ही है।
गुणस्वरूपका अभेदत्वदर्शनशानचारित्रगुणानां य इहाश्रयः ।
दर्शनशानचारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ॥ १६ ॥ अर्थ-जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र गुणोंका आश्रय है वह दर्शन ज्ञान चारित्ररूप रत्नत्रय है । प्रात्मासे भिन्न दर्शनादि गुण कोई पदार्थ नही परन्तु प्रात्मा ही तन्मय हुमा मानना चाहिये अथवा आत्मा तन्मय ही है।
पर्यायोंके स्वरूपका अभेदत्व दर्शनज्ञानचारित्रपर्यायाणां य आश्रयः ।
दशेनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव स स्मृतः॥ १७॥ अर्थ-जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय पर्यायोंका आश्रय है वह दर्शनज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय है। रत्नत्रय आत्मासे भिन्न कोई पदार्थ नहीं है, प्रात्मा ही तन्मय होकर रहता है अथवा तन्मय ही आत्मा है। मात्मा उनसे भिन्न कोई प्रथक् पदार्थ नही।
प्रदेशस्वरूपका अभेदपन दर्शनज्ञानचारित्रदेशा ये.प्ररूपिताः ।
दर्शनज्ञानचारित्रमयस्यात्मन एव ते ॥१८॥ अर्थ-दर्शन-ज्ञान-चारित्रके जो प्रदेश बताये गये हैं वे आत्माके
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मोक्षशास्त्र प्रदेशोंसे कही अलग नहीं है । दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप आत्माका ही वह प्रदेश है । अथवा दर्शन-ज्ञान-चारित्रके प्रदेशरूप ही आत्मा है और यही रत्नत्रय है । जिस प्रकार आत्माके प्रदेश और रत्नत्रयके प्रदेश भिन्न-भिन्न नहीं हैं उसीप्रकारं परस्पर दर्शनादि तीनोंके प्रदेश भी भिन्न नहीं हैं, अतएव आत्मा और रत्नत्रय भिन्न नहीं किंतु आत्मा तन्मय ही है।
___ अगुरुलघुस्वरूपका अभेदपन दर्शनज्ञानचारित्रागुरुलध्वाह्वया गुणाः ।
दर्शनशानचारित्रत्रयस्यात्मन एव ते ॥ १९ ॥ अर्थ-अगुरुलघु नामक गुण है अतः वस्तुमें जितने गुण हैं वे सीमासे अधिक अपनी हानि-वृद्धि नहीं करते; यही सभी द्रव्यों में अगुरुलघुगुणका प्रयोजन है । इस गुणके निमित्त से समस्त गुणोंमें जो सीमा का उल्लंघन नही होता उसे भी अगुरुलघु कहते हैं। इसीलिये यहाँ अगुरु लघुको दर्शनादिकका विशेषरण कहना चाहिये ।।
अर्थात-अगुरुलघुरूप प्राप्त होनेवाले जो दर्शन-ज्ञान-चारित्र हैं वे आत्मासे प्रथक् नहीं है और परस्परमे भी वे प्रथक् प्रथा नहीं हैं; दर्शनज्ञान-चारित्ररूप जो रत्नत्रय है, उसका वह ( अगुरुलधु) स्वरूप है और वह तन्मय ही है इस तरह अगुरुलघुरूप रत्नत्रयमय आत्मा है, किंतु आत्मा उससे प्रथक् पदार्थ नही । क्योंकि आत्माका अगुरुलघु-स्वभाव है और आत्मा रत्नत्रय स्वरूप है इसीलिये वह सर्व आत्मासे अभिन्न है।
उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वरूपकी अभेदता । दर्शनज्ञानचारित्र ध्रौव्योत्पाद व्ययास्तु ये। .
दर्शनज्ञानचारित्रमयस्यात्मन एव ते ॥ २० ॥ अर्थ-दर्शन-ज्ञान-चारित्र में जो उत्पाद व्यय-ध्रौव्य है वह सब मात्माका ही है। क्योंकि जो दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय है वह आत्मासे अलग नहीं है। दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय हो आत्मा है अथवा दर्शन-ज्ञान-चारित्र आत्मामय ही है, इसीलिये रत्नत्रयके जो उत्पाद-व्यय
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परिशिष्ट १ ध्रौव्य है वह उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य आत्मा का ही है। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य भी परस्परमें अभिन्न ही है ।
__ इस तरह यदि रत्नत्रयके जितने विशेषण हैं वे सब आत्माके ही हैं और आत्मासे अभिन्न हैं तो रत्नत्रयको भी आत्मास्वरूप ही मानना चाहिए।
___ इस प्रकार अभेदरूपसे जो निजात्माका दर्शन-ज्ञान-चारित्र है वह निश्चय रत्नत्रय है, इसके समुदायको ( एकताको) निश्चयमोक्षमार्ग कहते है, यही मोक्षमार्ग है।
निश्चय व्यवहार माननेका प्रयोजन स्यात् सम्यक्त्वज्ञानचारित्ररूपः पर्यायार्थादेशतो मुक्तिमार्गः । एको ज्ञाता सर्वदेवाद्वितीयः स्याद् द्रव्यार्थादेशतो मुक्तिमार्गः ॥२१॥
अर्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्ररूप प्रथक् २ पर्यायो द्वारा जीवको जानना सो पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षासे मोक्षमार्ग है और इन सब पर्यायोंमें ज्ञाता जीव एक ही सदा रहता है, पर्याय तथा जीवके कोई भेद नहीं है-इस प्रकार रत्नत्रयसे आत्माको अभिन्न जानना सो द्रव्याथिक नयकी अपेक्षासे मोक्षमार्ग है।
अर्थात-रत्नत्रयसे जीव अभिन्न है अथवा भिन्न है ऐसा जानना सो द्रव्याथिक और पर्यायाथिकनयका स्वरूप है। परन्तु रत्नत्रयमें भेदपूर्वक प्रवृत्ति होना सो व्यवहार मोक्षमार्ग है और अभेदपूर्वक प्रवृत्ति होना सो निश्चय मोक्षमार्ग है । अतएव उपरोक्त श्लोकका तात्पर्य यह है कि
- आत्माको प्रथम द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय द्वारा जानकर पर्याय पर से लक्ष्य हटाकर अपने त्रिकाली सामान्य चैतन्य स्वभाव-जो शुद्ध द्रव्याथिक नयका विषय है-उसकी ओर झुकनेसे शुद्धता और निश्चय रत्नत्रय प्रगट होता है।
तत्त्वार्थसार ग्रन्थका प्रयोजन
(वसंततिलका) तत्वार्थसारमिति यः समधिर्विदित्वा,
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मोक्षशास्त्र
निर्वाणमार्गमधितिष्ठति निष्प्रकम्पः । संसारबन्धमवधूय स धृतमोह-चैतन्यरूपममलं शिवतत्त्वमेति ।। २२ । अर्थ - बुद्धिमान और संसारसे उपेक्षित हुये जो जीव इस ग्रंथको अथवा तत्त्वार्थके सारको ऊपर कहे गये भाव अनुसार समझ कर निश्चलता पूर्वक मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होगा वह जीव मोहका नाश कर संसार बन्धनको दूर करके निश्चय चैतन्यस्वरूपी मोक्षतत्त्वको ( शिवतत्त्वको ) प्राप्त कर सकता है |
इस ग्रंथ कर्चा पुद्गल हैं आचार्य नहीं
वर्णाः पदानां कर्तारो वाक्यानां तु पदावलिः ।
वाक्यानि चास्य शास्त्रस्य कर्तृणि न पुनर्वयम् ॥ २३ ॥ अर्थ - वर्णं ( श्रर्थात् श्रनादि सिद्ध अक्षरोंका समूह ) इन पदोंके कर्त्ता हैं, पदावलि वाक्योंकी कर्त्ता है और वाक्योंने यह शास्त्र किया है । कोई यह न समझे कि यह शास्त्र मैंने ( आचार्यने ) बनाया है ।
( देखो तत्त्वार्थसार पृष्ठ ४२१ से ४२८ ) नोट- - ( १ ) एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कर्त्ता नहीं हो सकतायह सिद्धांत सिद्ध करके यहां आचार्य भगवानने स्पष्टरूपसे बतलाया है कि जीव जड़शाखको नहीं बना सकता ।
( २ ) श्री समयसारकी टीका, श्री प्रवचनसारकी टीका, श्री पंचास्तिकायको टीका और श्री पुरुषार्थं सिद्धि उपाय शास्त्र के कर्तृत्व सम्बन्धमें भी आचार्य भगवान श्री अमृतचन्द्रजी सूरिने बतलाया है किइस शास्त्रका अथवा टीकाका कर्ता पुद्गल द्रव्य है, मैं ( आचार्य ) नहीं । यह बात तत्त्वजिज्ञासुओंको खास ध्यानमें रखने की जरूरत है अतः आचार्य भगवानने तत्त्वार्थं सार पूर्ण करने पर भी यह स्पष्टरूपसे बतलाया है । इसलिये पहले भेद विज्ञान प्राप्त कर यह निश्चय करना कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कुछ भी नहीं कर सकता; यह निश्चय करने पर जीवके स्व की ओर ही झुकाव रहता है । अब स्व की तरफ झुकाने में दो पहलू
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परिशिष्ट १
७८६ हैं। उनमें एक त्रिकाली चैतन्यस्वभावभाव जो परमपारिणामिकभाव कहा जाता है-वह है । और दूसरा स्वकी वर्तमानपर्याय । पर्यायपरलक्ष्य करनेसे विकल्प (-राग ) दूर नहीं होता, इसलिये त्रिकालो चैतन्यस्वभावकी तरफ झुकनेके लिये सर्व वीतरागी शास्त्रोंकी, और श्री गुरुओंको आज्ञा है। अतः उसकी तरफ झुकना और अपनी शुद्धदशा प्रगट करना यही जीवका कर्तव्य है । इसीलिये तदनुसार ही सर्व जीवोंको पुरुषार्थ करना चाहिये । इस शुद्धदशा को ही मोक्ष कहते हैं। मोक्षका अर्थ निज शुद्धताकी पूर्णता अथवा सर्व समाधान है । और वही अविनाशी और शाश्वत-सच्चा सुख है, जीव प्रत्येक समय सच्चा शाश्वत सुख प्राप्त करना चाहता है और अपने ज्ञानके अनुसार प्रवृत्ति भी करता है किन्तु उसे मोक्षके सच्चे उपायकी खबर नहीं है इसलिये दुःख (बन्धन ) के उपायको सुखका ( मोक्षका ) उपाय मानता है। अतः विपरीत उपाय प्रति समय किया करता है। इस विपरीत उपायसे पीछे हटकर सच्चे उपायकी तरफ पात्र जीव झुकें और सम्पूर्ण शुद्धता प्रगट करें यह इस शास्त्रका हेतु है।
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परिशिष्ट-२
प्रत्येक द्रव्य और उसके प्रत्येक पर्यायकी स्वतंत्रताकी घोषणा
१-प्रत्येक द्रव्य अपनी अपनी त्रिकाली पर्यायका पिंड है और इसीलिये वे तीनों कालकी पर्यायोंके योग्य हैं; और पर्याय प्रति समय की है, इसीलिये प्रत्येक द्रव्य प्रत्येक समयमें उस उस समयकी पर्यायके योग्य है और तत्तद् समयकी पर्याय तत्तद् समयमें होने योग्य है अतः होती है। किसी द्रव्यकी पर्याय आगे या पीछे होती ही नहीं।
२-मिट्टी द्रव्य ( मिट्टोके परमाणु ) अपने तीनों कालकी पर्यायों के योग्य है तथापि यदि ऐसा माना जाय कि उसमें तीनों कालमें एक घड़ा होने की ही योग्यता है तो मिट्टी द्रव्य एक पर्याय जितना ही हो जाय और उसके द्रव्यत्वका भी नाश हो जाय ।
३-जो यों कहा जाता है कि मिट्टी द्रव्य तीन कालमें घड़ा होने के योग्य है सो परद्रव्यसे मिट्टीको भिन्न बतलाकर यह बतलाया जाता है कि मिट्टीके अतिरिक्त अन्य द्रव्य किसी कालमें मिट्टीका घड़ा होनेके योग्य नहीं है । परन्तु जिस समय मिट्टी द्रव्यका तथा उसकी पर्यायकी योग्यता का निर्णय करना हो तब यों मानना मिथ्या है कि 'मिट्टी द्रव्य तीनों कालमें घड़ा होनेके योग्य है; क्योंकि ऐसा माननेसे मिट्टी द्रव्यकी अन्य जो जो पर्यायें होती हैं। उन पर्यायोंके होनेके योग्य मिट्टी द्रव्यकी योग्यता नहीं है तथापि होती है ऐसा मानना पड़ेगा जो सर्वथा असत् है । इसलिये मिट्टी मात्र घटरूप होने योग्य है यह मानना मिथ्या है ।
४-उपरोक्त कारणोंको लेकर यह मानना कि "मिट्टी द्रव्य तीनों कालमें घड़ा होनेके योग्य है और जहाँ तक कुम्हार न आयें वहाँ तक घड़ा नही होता" ( यह मानना ) मिथ्या है; किन्तु मिट्टी द्रव्यको पर्याय जिस समय घड़ेरूप होनेके योग्य है वह एक समयकी ही योग्यता है अतः उसी
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परिशिष्ट २
७६१ समय घड़ेरूप पर्याय होती है, आगे पीछे नहीं होती और उस समय कुम्हार आदि निमित्त स्वयं उपस्थित होते ही हैं।
५-प्रत्येक द्रव्य स्वयं ही अपनी पर्यायका स्वामी है अतः उसकी पर्याय उस उस समयकी योग्यताके अनुसार स्वयं हुवा ही करती है। इस तरह प्रत्येक द्रव्यकी अपनी पर्याय प्रत्येक समय तत्तद् द्रव्यके हो आधोन है। किसी दूसरे द्रव्यके आधीन वह पर्याय नही है।
६-जीव द्रव्य त्रिकाल पर्यायोंका पिंड है। इसीलिये वह त्रिकाल वर्तमान पर्यायोंके योग्य है और प्रगट पर्याय एक समयकी है अतः उस उस पर्यायके स्वयं योग्य है ।
७-यदि ऐसा न माना जावे तो एक पर्याय मात्र ही द्रव्य हो जायगा। प्रत्येक द्रव्य अपनी पर्यायका स्वामी है अतः उसकी वर्तमानमें होनेवाली एक एक समयकी पर्याय है वह उस द्रव्यके आधीन है।।
-जीवको पराधीन कहते है इसका यह अर्थ नहीं है कि पर द्रव्य उसे आधीन करता है अथवा पर द्रव्य उसे अपना खिलौना बनाता है किन्तु तत्तद् समयका पर्याय जीव स्वयं परद्रव्यकी पर्यायके आधीन हुआ करता है । यह मान्यता मिथ्या है कि परद्रव्य या उसकी कोई पर्याय जीवको कभी भी आश्रय दे सकती है उसे रमा सकती है, हैरान कर सकती है या सुखी दुःखी कर सकती है।
-प्रत्येक द्रव्य सत् है अतः वह द्रव्यसे, गुणसे और पर्यायसे भी सत् है और इसीलिये वह हमेशा स्वतंत्र है। जीव पराधीन होता है वह भी स्वतंत्ररूपसे पराधीन होता है। कोई पर द्रव्य या उसको पर्याय उसे पराधीन या परतंत्र नहीं बनाते ।
१०-इस तरह श्री वीतराग देव ने संपूर्ण स्वतंत्रताकी मुनादी पीटी है-घोषणा की है।
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परिशिष्ट-३
साधक जीवकी दृष्टि की सतत कथा (-स्तर)
अध्यात्म शास्त्रोंमें ऐसा नहीं कहा कि 'जो निश्चय है सो मुख्य है" यदि निश्चयका ऐसा अर्थ करें कि जो निश्चयनय है सो मुख्य है, तो किसी समय निश्चयनय मुख्य हो और किसी समय व्यवहारनय मुख्य हो; अर्थात् किसी समय 'द्रव्य' मुख्य हो और किसी समय 'गुरण-पर्यायके भेद' मुख्य हों, लेकिन द्रव्यके साथ अभेद हुई पर्यायको भी निश्चय कहा जाता है इसलिये निश्चय सो मुख्य न मानकर मुख्य सो निश्चय मानना चाहिये । और आगमशास्त्रोंमें किसी समय व्यवहारनयको मुख्य और निश्चयनयको गौण करके कथन किया जाता है । अध्यात्म शास्त्रोंमें तो हमेशा 'जो मुख्य है सो निश्चयनय' है और उसीके आश्रयसे धर्म होता है-ऐसा समझाया जाता है और उसमें सदा निश्चयनय मुख्य ही रहता है। पुरुषार्थ के द्वारा स्व में शुद्ध पर्याय प्रगट करने अर्थात् विकारी पर्याय दूर करनेके लिये हमेशा निश्चयनय ही आदरणीय है, उस समय दोनों नयों का ज्ञान होता है किन्तु धर्म प्रगट करने के लिये दोनों नय कभी आदरणीय नहीं। व्यवहारनयके आश्रयसे कभी आंशिक धर्म भी नहीं होता परन्तु उसके आश्रयसे तो राग-द्वेषके विकल्प उठते ही हैं।
छहों द्रव्य, उनके गुण और उनकी पर्यायोंके स्वरूपका ज्ञान करानेके लिये किसी समय निश्चयनय की मुख्यता और व्यवहारनयकी गौणता रखकर कथन किया जाता है और किसी समय व्यवहारनयको मुख्य करके तथा निश्चयनयको गौरण करके कथन किया जाता है। स्वयं विचार करने में भी किसी समय निश्चयनयको मुख्यता और किसी समय व्यवहारनयकी मुख्यता की जाती है । अध्यात्म-शास्त्रमें भी जीव विकारी पर्याय स्वयं करता है इसीलिये होती है । और उस जीवके अनन्य परि
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परिशिष्ट ३
७६३ णाम हैं-ऐसा-व्यवहार द्वारा कहा और समझाया जाता है किन्तु उस प्रत्येक समयमें निश्चयनय एक ही मुख्य और आदरणीय है ऐसा ज्ञानियोका कथन है।
ऐसा मानना कि किसी समय निश्चयनय पादरणीय है और किसी समय व्यवहारनय आदरणीय है सो भूल है। तीनों काल अकेले निश्चयनयके आश्रयसे ही धर्म प्रगट होता है-ऐसा समझना।
प्रश्न-क्या साधक जीवके नय होता हो नही ?
उत्तर-साधक दशामें ही नय होता है। क्योंकि केवलोके तो प्रमाण है अतः उनके नय नही होता, अज्ञानी ऐसा मानते हैं कि व्यवहारनयके आश्रयसे धर्म होता है इसीलिये उनको तो व्यवहारनय ही निश्चयनय होगया, अर्थात् अज्ञानीके सच्चा नय नही होता। इस तरह साधक जीवके ही उनके श्रुतज्ञानमें नय होता है। निर्विकल्पदशासे अतिरिक्त कालमे जव उनके नयरूपसे श्रुतज्ञानका भेदरूप उपयोग होता है तब, और संसारके शुभाशुभ भावमे हो या स्वाध्याय, व्रत नियमादि कार्योमें हो तब जो विकल्प उठते है वह सब व्यवहारनयके विषय हैं, परन्तु उस समय भी उनके ज्ञानमें एक निश्चयनय ही आदरणीय है ( अतः उस समय व्यवहारनय है तथापि वह आदरणीय नही होनेसे ) उनकी शुद्धता बढ़ती है। इस तरह सविकल्प दशामे भी निश्चयनय आदरणीय है और जब व्यवहारनय उपयोग रूप हो तो भी ज्ञानमे उसी समय हेयरूपसे है। इस तरह निश्चय और व्यवहारनय-ये दोनों साधक जीवोके एक ही समयमे होते हैं।
इसलिये यह मान्यता ठीक नही है कि साधक जीवोके नय होता ही नही, किन्तु साधक जीवोके ही निश्चय और व्यवहार दोनों नय एक ही साथ होते हैं । निश्चयनयके आश्रयके बिना सच्चा व्यवहारनय होता ही नही। जिसके अभिप्रायमे व्यवहारनयका प्राश्रय हो उसके तो निश्चयनय रहा ही नही, क्योकि उसके तो व्यवहारनय ही निश्चयनय होगया। १००
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७६४
मोक्षशास्त्र चारों अनुयोगोंमें किसी समय व्यवहारनयकी मुख्यतासे कथन किया जाता है और किसी समय निश्चयनयको मुख्य करके कथन किया जाता है किन्तु उस प्रत्येक अनुयोगमें कथनका सार एक ही है और वह यह है कि निश्वयनय और व्यवहारनय दोनों जानने योग्य हैं, किन्तु शुद्धताके लिये आश्रय करने योग्य एक निश्चयनय ही है और व्यवहारनय कभी भी आश्रय करने योग्य नही है-वह हमेशा हेय ही है-ऐसा समझना ।
व्यवहारनयके ज्ञानका फल उसका प्राश्रय छोड़कर निश्चयनयका आश्रय करना है। यदि व्यवहारनयको उपादेय माना जाय तो वह व्यवहारनयके सच्चे ज्ञानका फल नहीं है किन्तु व्यवहारनयके अज्ञानका अर्थात् मिथ्यात्वका फल है।
निश्चयनयके आश्रय करनेका अर्थ यह है कि निश्चयनयके विषयभूत मात्माके त्रिकाली चैतन्यस्वरूपका आश्रय करना और व्यवहारनयका आश्रय छोड़ना-उसे हेय समझना-इसका यह अर्थ है कि व्यवहारनयके विषयरूप विकल्प, परद्रव्य या स्वद्रव्यको अपूर्ण अवस्थाकी ओरका आश्रय छोड़ना।
अध्यात्मका रहस्य अध्यात्ममे जो मुख्य है सो निश्चय और जो गौण है सो व्यवहार; यह कक्षा है, अतः उसमें मुख्यता सदा निश्चयनयकी ही है और व्यवहार सदा गौणरूपसे ही है। साधक जीवकी यह कक्षा या स्तर है। साधक जीवकी दृष्टिकी सतत कक्षाकी यही रीति है।
साधक जीव प्रारम्भसे अन्ततक निश्चयनयकी मुख्यता रखकर व्यवहारको गौरण ही करता जाता है। इसीलिये साधकको साधक दशायें निश्चयकी मुख्यताके बलसे शुद्धताकी वृद्धि ही होती जाती है और अशलता हटती ही जाती है इस तरह निश्चयकी मुख्यताके बलसे ही पूर्ण केवलज्ञान होते हैं फिर वहाँ मुख्यता-गौणता नहीं होती और नय भी नही होता।
वस्तुस्वभाव और उसमें किस ओर झुके ! वस्तुमें द्रव्य और पर्याय, नित्यत्व और अनित्यत्व इत्यादि को
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परिशिष्ट ३
७६५ विरुद्ध धर्म स्वभाव है वह कभी दूर नही होता । किन्तु जो दो विरुद्ध धर्म हैं उनमें एकके भाश्रयसे विकल्प टूटता-हटता है और दूसरेके आश्रयसे राग होता है । अर्थात् द्रव्यके प्राश्रयसे विकल्प टूटता है और पर्यायके आश्रयसे राग होता है, इसीसे दो नयोंका विरुद्ध है । अब द्रव्य स्वभावकी मुख्यता और अवस्थाकी-पर्यायकी गौणता करके जब साधक जीव द्रव्य स्वभावकी तरफ झुक गया तब विकल्प दूर होकर स्वभावमे अभेद होने पर ज्ञान प्रमाररा हो गया। अब यदि वह ज्ञान पर्यायको जाने तो भी वहाँ मुख्यता तो सदा द्रव्य स्वभावकी ही रहती है। इसतरह जो निज द्रव्य स्वभावकी मुख्यता करके स्व सन्मुख झुकने पर ज्ञान प्रमाण हुवा वही द्रव्यस्वभावकी मुख्यता साधक दशाकी पूर्णता तक निरन्तर रहा करती है। और जहाँ द्रव्यस्वभावकी ही मुख्यता है वहाँ सम्यग्दर्शनसे पीछे हटना कभी होता ही नहीं; इसीलिये साधक जीवके सतत द्रव्यस्वभावकी मुख्यताके बलसे शुद्धता बढते बढ़ते जब केवलज्ञान हो जाता है तब वस्तुके परस्पर विरुद्ध दोनो धर्मोको ( द्रव्य और पर्यायको ) एक साथ जानता है, किन्तु वहाँ अब एककी मुख्यता और दूसरेकी गौणता करके झुकाव झुकना नही रहा । वहाँ सम्पूर्ण प्रमाणज्ञान हो जाने पर दोनों नयोंका विरोध दूर हो गया ( अर्थात् नय ही दूर हो गया ) तथापि वस्तुमे जो विरुद्ध धर्म स्वभाव है वह तो दूर नहीं होता।
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परिशिष्ट- ४
305
शास्त्रका संक्षिप्त सार
१. - इस जगत में जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल ये छह द्रव्य अनादि अनन्त हैं, इसे संक्षेपमें 'विश्व' कहते है | ( अध्याय ५ )
२ -- वे सत् है अतः उनका कोई कर्ता नही या उनका कोई नियामक नही, किन्तु विश्वका प्रत्येक द्रव्य स्वयं स्वतंत्ररूपसे नित्य स्थिर रहकर प्रतिसमय अपनी नवीन अवस्था प्रगट करता है और पुरानो अवस्था दूर करता है । अध्याय ५ सूत्र ३० )
३ –उन छह द्रव्योंमे से जीवके अतिरिक्त पांच द्रव्य जड़ हैं उनमें ज्ञान, आनन्द गुरण नही है अतः वे सुखी-दुखी नही; जीवोंमें ज्ञान, आनन्द गुरण है किंतु वे अपनी भूलसे अनादिसे दुःखी हो रहे हैं; उनमें जो जीव मनसाहत हैं वे हित महितकी परीक्षा करनेकी शक्ति रखते हैं अतः ज्ञानियोने, उन्हें दुःख दूर कर अविनाशी सुख प्रगट करनेका उपदेश दिया है ।
४ - ज्ञानी जीव मानता है कि शरीर की क्रिया, पर जीवकी दया, दान, व्रत आदि सुखके उपाय हैं; परन्तु यह उपाय खोटा है, यह बतलाने के लिये इस शास्त्रमे सबसे पहले ही यह वतलाया है कि सुखका मूल कारण सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शन प्रगट होनेके बाद उस जीवके सम्यक् चारित्र प्रगट हुये विना रहता ही नहीं ।
५-जीव ज्ञाता दृष्टा है और उसका व्यापार या जिसे उपयोग कहा जाता है वह जीवका लक्षरण है; राग, विकार, पुण्य, विकल्प, करुणा आदि जीवके लक्षण नही ये उसमे गतिरूपसे कहे हैं ।
( अध्याय २ सूत्र ८ )
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मोक्षशास्र
७६७
६-दया, दान, अणुव्रत, महाव्रत, मैत्री आदि शुभभाव तथा मिथ्यात्व, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इत्यादि अशुभभाव आस्रवके कारण हैं-ऐसा कहकर पुण्य-पाप दोनो को आस्रवके कारणरूपसे वर्णन किया है।
(अध्याय ६ तथा ७ ) ७-मिथ्यादर्शन ससारका मूल है ऐसा अध्याय ८ सूत्र १ मे बतलाया है तथा बंधके दूसरे कारण और बधके भेदोका स्वरूप भी बतलाया है।
८-संसारका मूल कारण मिथ्यादर्शन है, वह सम्यगर्शनके द्वारा ही दूर हो सकता है, बिना सम्यग्दर्शनके उत्कृष्ट शुभभावके द्वारा भी वह दूर नही हो सकता । सवर-निर्जरारूप धर्मका प्रारभ सम्यग्दर्शनसे ही होता है । सम्यग्दर्शन प्रगट होने के बाद सम्यग्चारित्रमे क्रमशः शुद्धि प्रगट होने पर श्रावकदशा तथा मुनिदशा कैसी होती है यह भी बतलाया है। यह भी बतलाया है कि मुनि बावीस परीषहों पर जय करते है। यदि किसी समय भी मुनि परीषह जय न करे तो उसके बंध होता है, इस विषयका समावेश आठवें बध अधिकार मे आगया है और परीषह जय ही सवर-निर्जरारूप हैं अतः यह विषय नवमें अध्यायमें बतलाया है।
8-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी एकताकी पूर्णता होने पर (अर्थात् संवर निर्जराकी पूर्णता होने पर ) अशुद्धताका सर्वथा नाश होकर जीव पूर्णतया जड़कर्म और शरीरसे पृथक् होता है और पुनरागमन रहित अविचल सुखदशा प्राप्त करता है, यही मोक्षतत्त्व है, इसका वर्णन दसवें अध्यायमे किया है।
___ इसप्रकार इस शास्त्रके विषयका सक्षिप्त सार है। "मोक्षशास्त्र गुजराती टीकाका हिन्दी अनुवाद समाप्त हुआ।
पं० परमेष्ठीदास जैन न्यायतीर्थ ।
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सम्यक्त्वकी महिमा
श्रावक क्या करे ? हे श्रावक ! संसारके दुःखोंका क्षय करने के लिये परम शुद्ध सम्यक्त्वको धारण करके और उसे मेरु पर्वत समान निष्कंप रखकर उसीको ध्यानमें ध्याते रहो !
[ मोक्षपाहुड़-८६ ] सम्यक्त्वसे ही सिद्धि अधिक क्या कहा जाय ? भूतकालमें जो महात्मा सिद्ध हुए का है और भविष्य कालमें होगे वह सब इस सम्यक्त्वका ही माहात्म्य at है-ऐसा जानो।
[मोक्षपाहुड़-८८ ] शुद्ध सम्यग्दृष्टिको धन्य है ! ____ सिद्ध कर्ता-ऐसे सम्यक्त्वको जिसने स्वप्नमे भी मलिन नहो किया है उस पुरुषको धन्य है, वह सुकृतार्थ है, वही वीर है, और वही पडित है।
[मोक्षपाहुड़-८६ ] सम्यग्दृष्टि गृहस्थ भी श्रेष्ठ है जो सम्यग्दृष्टि गृहस्थ है वह मोक्षमार्गमें स्थित है, परन्तु मिथ्यादृष्टि मुनि मोक्षमार्गी नहीं है। इसलिये मिथ्यादृष्टि मुनिकी on अपेक्षा सम्यग्दृष्टि गृहस्थ भी श्रेष्ठ है । [रत्नकरंड श्रावकाचार ३३]
सम्यक्त्वी सर्वत्र सुखी सम्यग्दर्शन सहित जीवका नरकवास भी श्रेष्ठ है, परन्तु सम्यग्दर्शन रहित जीवका स्वर्गमें रहना भी शोभा नही देता; क्योंकि tआत्मभान बिना स्वर्गमे भी वह दुःखी है । जहाँ आत्मज्ञान है वही 1 सच्चा सुख है।
[ सारसमुच्चय ३६ ].
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लक्षण-संग्रह
सूत्र
c..
शब्द
अध्याय
[अ] अकामनिर्जरा अक्षिण अगारी अगृहीत मिथ्यादर्शन अघातिया अङ्गोपाङ्ग अचक्षुदर्शन अचौर्याणुव्रत अजीव अज्ञातभाव अज्ञान अज्ञान परीषह जय अएडज अणु अगुव्रत अतिथि सविभाग व्रत " अतिचार अतिभार आरोपण " प्रदर्शन परीषह जय ६ अधिगमज सम्यग्दर्शन १ अधिकरण क्रिया अधिकरण अध्रुव अधो व्यतिक्रम अन्तर
sm k com
rr9VB9or ur vdox
सूत्र । शब्द
अध्याय अनिःसृत अनुक्त अनुगामी अवधिज्ञान १ अननुगामी » अनवस्थित " अनीक अनर्पित
अनाभोग २० अनाकांक्षा ४] अनुमत ६ अनाभोगनिक्षेपाधिकरण ६ १ | अन्तराय ६ अनुवीचिभाषण ३३ / अनृत-असत्य २५ अनगारी
२] अनर्थ दड व्रत २१ | अन्यदृष्टिप्रशंसा २३ | अन्नपाननिरोध
अनङ्ग क्रीड़ा अनादर
79
Nur x
अनुभागबन्ध
अन्तराय १६/ अनुजीविगुण ३० | अनन्तानुबन्धी क्रोधादि । ८ | अन्तर्मुहूर्त
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.' 9 १.
* * * ๘
अध्याय अनुभव बन्ध अनुप्रेक्षा अनित्यानुप्रेक्षा अन्यत्वानुप्रेक्षा अनशन अनुप्रेक्षा अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान,, अनन्त वियोजक अन्तर अप्रत्याख्यान अप्रत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरण, अपध्यान
७ अपरिगृहीतत्वरिकागमन अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितादान,, अप्रत्याख्यानावरण क्रोधादि अपर्याप्त नामकर्म ८ अपर्याप्तक अपायविचय अब्रह्म-कुशील अभिनिबोध अभिक्ष्णज्ञानोपयोग अभिषवाहार अमनस्क अयशःकीर्ति अरति अरति परिषह जय अर्थ विग्रह अर्थ संक्रांति अर्पित अर्हद्भक्ति अल्पबहुत्व
८०० सूत्र । शब्द
अध्याय अलाभपरीषहजय | अल्पबहुत्व अवधिज्ञान अवग्रह अवाय अवस्थित अविग्रहगति अवर्णवाद अविरति अवधिज्ञानावरण
अवधिदर्शनावरण २१ | अविपाक निर्जरा
अवमौदर्य अवगाहन अशुभयोग अशरणानुप्रेक्षा अशुचित्वानुप्रेक्षा
अशुभ | अस्तिकाय १३ असमीक्ष्याधिकरण ७
असद्वेद्य ३५ असंप्राप्तमृपाटिका सं०,
अस्थिर अहिसाणुव्रत
[ आ आक्रन्दन १८
आक्रोश ४४ आचार्य भक्ति ३२ श्राचार्य
धाज्ञा विचय आत्मरक्ष
११
२४
११
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________________
शब्द
अध्याय
सूत्र
४
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आतप आदान निक्षेपण समिति ७ आदेय आदान निक्षेप आनयन आनुपूर्व्य आभियोग्य अभ्यन्तरोपधिव्युत्सर्ग आम्नाय भार्य प्रारम्भ मार्तध्यान आलोकित पान भोजन आलोचना आवश्यकापरिहाणि आसादन आस्तव आस्रवानुप्रेक्षा आस्रव आहार आहारक
[ ] इष्ट वियोगज आर्तध्यान इन्द्रिय इन्द्र ईर्यापथासव ईर्यापथ क्रिया ईा समिति
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३३
शब्द अध्याय सूत्र
[उ] उच्छवास उच्चगोत्र उत्सर्पिणी उत्पाद उत्तम क्षमा-मार्दव-आर्जव है , शौच, सत्य, संयम ६ __ तप, त्याग, आकिचन,
ब्रह्मचर्य उत्सर्ग उदय-औदयिक भाव २ उद्योत उपशम-औपशमिकभाव उपयोग
८-१८ उपकरण उपपाद जन्म उपकरण सयोग उपघात उपभोग परिभोग
परिमाणव्रत उपस्थापना उपचार विनय उपाध्याय ऊर्ध्व व्यतिक्रम ऋजुमतिमनःपर्यय ऋजुसूत्र
२४
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ईर्या
एकविध
एकान्तमिथ्यात्व १५ / एकत्वानुप्रेक्षा
ईहा
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________________
८०२
सूत्र
७ 9
सूत्र । शब्द - अध्याय __ सूत्र ४२ क्रिया ३३ कीलक संहनन
कुप्यप्रमाणातिक्रम कुब्जक संस्थान कुल कुशील कूटलेख क्रिया केवलज्ञान
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शब्द
अध्याय एकत्ववितर्क है एवं भूननय एषणा समिति
[ औ] औपशमिक सम्यक्त्व २ औपशमिक चारित्र २
[क] कर्म योग कर्मभूमि कल्पोपपन्न कल्पातीत कल्प कषाय कृत कन्दर्प कषायकुशील काल कार्मण शरीर काय योग कायिकी क्रिया कारित काय निसर्ग कारुण्य कांक्षा कामतीनाभिनिवेश फाययोगदुष्पणिधान " कालातिक्रम फायक्लेश काल फिल्विषक
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केवल दर्शन केवलीका अवर्णवाद केवलज्ञानावरण केवलदर्शनावरण क्रोधप्रत्याख्यान कोडा कोडी
८ टिप्पणी कौतकुच्य
३२ [ ] क्षायिक भाव क्षयोपशम, क्षायोपशमिक
भाव क्षयोपशम दानादि २ क्षायिकसम्यक्त्व क्षायिक चारित्र क्षायोपशमिक सम्यक्त्व
चारित्र २ शान्ति
क्षिण १६ सुधा परीषह जय
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क्षेत्र
Page #883
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्द
अध्याय हेत्रवास्तुप्रमाणातिक्रम ७ क्षेत्रवृद्धि
[ग] गर्भजन्म गतिनाम कर्म गंघ गण
८०३ सूत्र । शब्द अध्याय २६ | छेद
[ज] जघन्य गुणसहित परमाणु ५ जरायुज जाति नामकर्म जीव जीविताशंसा जुगुप्सा
गति गुणप्रत्यय
ज्ञातभाव ३८ ज्ञानोपयोग
| ज्ञानावरण ४१ / ज्ञानविनय
"
ज्ञान
गुगनत गुप्ति गुणस्थान ग्रहीतमिथ्यात्व गोत्र
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[
घातिया कर्म
चक्षुदर्शनावरण ८ चर्या परिषह जय ६ चारित्र चारित्र विनय चारित्र चिंता
[छ] छेद दोपस्थापना
[त] तदाहनादान तदुभय तन्मनोहरान निरीक्षण
त्याग सप तपस्वी ताप तियंच तिर्यगव्यतिक्रम | तीव्रभाव
तीर्थकरत्व | तीर्थ
तृषा परीपह नय २५ | तृण स्पर्श परीपहनय ६ १८ तैनस शरीर
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Page #884
--------------------------------------------------------------------------
________________
८०४
शब्द
अध्याय
is
30
सूत्र| शब्द अध्याय
[2] १४ धनधान्य प्रमाणातिक्रम | धर्मका अवर्णवाद ६ धर्म धर्मानुप्रेक्षा धर्मोपदेश धारणा ध्यान ध्यान
8 8Renow
is
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धव
ध्रौव्य
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[त्र] प्रस त्रस त्रायस्त्रिंश
[द] दर्शन उपयोग दर्शन क्रिया दर्शन विशुद्धि दर्शनावरण दर्शन विनय दसमसक परीषह जय द्रव्य द्रव्यार्थिक नय द्रव्येन्द्रिय द्रव्य द्रव्य विशेष द्रव्य संवर दातृ विशेष दानान्तराय आदि दान दासीदासप्रमाणातिक्रम७ दिगवत दुःप्रमृष्टनिक्षेपाधिकरण दुःख दुःश्रति दुःस्वर दुर्भग दुप्पक्वाहार देव देवका अवर्णवाद
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नय नपुसक वेद नरकायु | नरकगत्यानुपूर्व्यआदि ८ नाम नाराच संहनन नाग्न्य परिषह जय निसर्गज सम्यग्दर्शन
निर्जरा २१ निक्षेप
निर्देश ११
निःमृत २१ निर्वृत्ति
निश्वयकाल द्रव्य निसर्ग क्रिया निर्वर्तना
निक्षेप १३ | निसर्ग
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३५ । निवता
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Page #885
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________________
८०५
सूत्र |
शब्द
अध्याय
सूत्र
२२
१८ ३७
११ टि०
शब्द
अध्याय निहव निदान शल्य निदान निद्रा निद्रानिद्रा निर्माण निवृत्यिपर्याप्तिक निर्जरानुप्रेक्षा निषद्या परिषह जय निदान आर्तध्यान निर्ग्रन्थ नीच गोत्र नैगम नय न्यासापहार न्यग्रोधपरिमंडल संस्थान ८ परोक्ष प्रमाण परिणाम
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परत्वापरत्व पर्याप्तक ____८ पर्याप्तिनामकर्म पर्याय पर्यायार्थिक नय
प्रमाण टि०
प्रत्यक्ष प्रमाण प्रकीर्णक प्रवीचार प्रदेश प्रदोष प्रवचन भक्ति प्रवचन वत्सलत्व प्रमोद प्रमाद चर्या प्रतिरूपक व्यवहार प्रमाद प्रकृति बन्ध प्रदेश बन्ध प्रतिजीविगुण प्रचला प्रचलाप्रचला प्रत्याख्यानावरण क्रोध
मान माया लोभ ३६ | प्रत्येक शरीर ११ । प्रदेश बन्ध
प्रज्ञा परीषह जय प्रतिक्रमण
पृच्छना ३५ | प्रतिसेवना कुशील
पर्याय
परिवेदन परोपरोधाकरण परिग्रह परिग्रह परिमाण व्रत परविवाहकरण परिग्रहीतेत्वरिकागमन परव्यपदेश परघात परिषह जय परिहार विशुद्धि परिहार परिग्रहानन्दी रौद्रध्यान
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२८
२२
Page #886
--------------------------------------------------------------------------
________________
८०६
सन्न
KWORM ESK
शब्द अध्याय
सूत्र । शब्द अध्याय प्रत्येक बुद्ध बोधित १०
बन्धतत्त्व पारिषद पाप
बन्धन पारितापिकी क्रिया ,
बहुविधि पारिप्रहकी क्रिया
| बहुश्रुत भक्ति पापोपदेश
६ २१ टिप्पणी बादर पात्र विशेष
बालतप प्रायश्चित
बाह्योपधिव्युत्सर्ग प्रायोग क्रिया
| बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा " प्रादोषिकी क्रिया परितापिकी क्रिया ,
| भक्तपानसंयोग प्राणातिपातिकी क्रिया ,
भय प्रात्ययिकी क्रिया
भवप्रत्यय प्रारम्भ क्रिया
भाव पुवेद पुद्गल
भावेन्द्रिय पुद्गल क्षेप
भावना पुण्य
भावसंवर पुरस्कार
भाषा समिति पुलाक
प्रत्याख्यान पूर्वरतानुस्मरण प्रथकृत्व वितर्क
भूतव्रत्यानुकम्पा प्रेष्य प्रयोग
भैश्यशुद्धि पोत
भोग भूमि प्रोषधोपवास
भोग
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मतिज्ञान
मति ४ मतिज्ञानावरण ३३ | मंदभाव २५ | मनोनिसर्ग
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________________
८०७
सूत्र |
शब्द
अध्याय
सूत्र
(य)
३५ | यथाख्यात चारित्र
८
शरद
अध्याय मनोवार गुप्ति मनोयोगदुष्प्रणिधान मनःपर्ययज्ञान मनःपर्ययज्ञानावरण मनोज्ञ मरणाशंसा मलपरीपहजय महाव्रत मायाक्रिया मात्सर्य
| यशः कीर्ति याचना परीपह जय योग
योग संक्रांति
रति
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रसपरित्याग रहोभ्याख्यान रूपानुपाक रोगपरीषहजय
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मार्गप्रभावना माध्यस्थ मायाशल्य मिथ्यात्व क्रिया मिथ्यात्वशल्य मिथ्योपदेश मिथ्यादर्शन मिथ्यात्व प्रकृति मुक्ति
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लब्धि लब्धि लब्ध्यपर्याप्तक लिग लेश्या
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६ टि०
लोकपाल
लोकानुप्रेक्षा लोभप्रत्याख्यान लोकान्तिकदेव
मूलगुण निर्वर्वना मूर्छा मृपानन्दी रौद्रध्यान मैत्री मोक्ष मोक्ष मोहनीय मौखये म्लेच्छ
४ वर्धमान
वर्तना ४] वचनयोग
| वनाराच संहनन । ३६ ।
Page #888
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________________
८०८
अध्याय
शब्द वध
वध
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व्रत वणे वाङ निसर्ग वाग्गुप्ति वामनसंस्थान वाग्योगदुष्प्रणिधान वाचना विधान विपुलमति विग्रहगति विग्रहवती विवृत्तयोनि विमान विदारणक्रिया विसंवादन विनयसंपन्नता विमोचितावास विचिकित्सा विनय विवेक विपाकविषय विरुद्धराज्यातिक्रम विधिविशेष विपरीत मिथ्यात्व विहायोगति विविक्तशय्यासन वीर्यभाव वीचार त्तिपरिसख्यान वृष्येष्टरसस्याग
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सूत्र | शब्द अध्याय ११ वेदनीय कर्म
वेदनाजन्य आर्तध्यान । | वैक्रियिक शरीर
वैमानिक वैयावृत्यकरण वैयावृत्य वैनयिक मिथ्यात्व व्यंजनावग्रह व्यवहारनय व्यय व्युत्सर्ग व्युत्सर्ग | व्युपरतक्रियानिति व्यंजनसंकान्ति
(श) शब्दनय
शक्तितः त्याग २३ शक्तितस्तप
शल्य शब्दानुपात शरीरनामकर्म . |शय्या परिषह जय
शंका शिक्षात्रत | शीलव्रतेष्वनतिचार शीतपरिषह जय शुभोपयोग शून्यागारवास
शैक्ष्य | शोक
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५०
३६
३६
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Page #889
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________________
शब्द
शौच
श्रुत
श्रतका भववाद
श्रुतज्ञानावरण श्रेणी
सम्यग्ज्ञान सम्यग्वारित्र
सम्यग्दर्शन
संवर
सत्
संज्ञा
संप्रनय
समभिरूढनय
संयमासंयम
ससारी
समनस्क
संज्ञा
सम्मूर्च्छन जन्म सचित्तयोनि
संवृत्तयोनि
समुद्धात
समय
सम्यक्त्वक्रिया समादानक्रिया
( स )
सत्
समन्तानुपात क्रिया संरम्भ
समारम्भ
अध्याय
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सहसानिक्षेपाधिकार
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शब्द
संयोगनिक्षेपाधिकार सरागसंयमादियोग संघका अवर्णवाद
सवेग
सधर्मावित्राद
सत्याणुत्रत सल्लेखना
सचित्ताहार
संघात
संस्थान
समचतुरस्र सस्थान
सहनन
सविपाक निर्जरा
सवर
समिति
अध्याय
६
सघ
सस्थान
संख्या
साधन
सचित्त सम्बन्धाहार
सचित्त संमिश्राहार
सचित निक्षेप
संशय मिथ्यात्व
सद्वेद्य
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सम्यड मिथ्यात्व
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सज्वलन क्रो०, मा० माया, लोभ
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संसारानुप्रेक्षा संवरानुप्रेक्षा
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सवरानुप्रेक्षा पुरस्कार परिषदजय ६६
सत्कार
११
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३६
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Page #890
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________________
अध्याय
शब्द
सामानिक
साम्परायिक आस्रव साधु समाधि सामायिक
साकार मन्त्रभेद
साधारण शरीर
सामायिक
साधु
सुखानुबन्ध
सुभग
सुस्वर
सूक्ष्म
सूक्ष्म साम्पराय
स्थापना
स्वामित्व
स्थिति
स्पर्शन
स्मृति
स्थावर
स्कन्ध
स्पर्शन क्रिया
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स्वहस्तक्रिया
स्त्रीरागकथा श्रवण त्याग ७
स्वशरीर संस्कार त्याग ७
स्तेय - चोरी
७
स्तेन प्रयोग
सूत्र
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२१
स्थितिवन्ध
२६ | स्त्यानगृद्धि
११ स्त्रीवेद
१८ स्वरूपाचरणचारित्र
२४
स्वातिसंस्थान
३७
११
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शब्द
स्मृत्यन्तराधान
स्मृत्यनुपस्थान
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स्पर्श
स्थावर नामकर्म
स्थिर
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स्त्री परीपह जय स्वाध्याय
१५
५) स्तेयानन्दी रौद्रव्यान
स्नातक
७
७
39
अध्याय
हास्य प्रत्याख्यान
७
१५
२७ हुण्डक संस्थान
७
( ह )
हिंसानन्दी रौद्रध्यान हीनाधिकमानोन्मान हीयमान अवधि
६
८
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१३
१३ | हास्य
२५ | हिरण्यसुवर्णप्रमाणातिक्रम
५ हिसा
५ हिसादान
७
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६
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सूत्र
३०
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११
Page #891
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________________
F
प्रह
पृष्ठ ४
E
१११ १४३ १५० १५२ १८६ १६३ २१२ २१३
मोक्षशास्त्रका शुद्धिपत्र पंक्ति अशुद्धि शुद्धि २२ ऐसा
ऐसी ययार्थ यथार्थ पर्याय पर्यायों
सम्यग्दर्शन सम्यग्दृष्टि २२ और
है, और १२ माहनीय
मोहनीय जातिका जातिको अंतिम उसका
उसके
प्रत्येक अपेक्षा अपेक्षासे अंतिम उमशम
उपशम करता
कराता होनेवाले होनेवाली निरावण निरावरण मात्र दो मात्र साधिक दो रागको
रागका शरार
शरीर होता होते उनका उनके
१४
प्रत्यक्
#L .....३४४: .
२१८ २३३ २३४ २५० २६२ २७३ २६२
१७
२३
अतिम
३१६ ३२० ३३१ ३४३ ३४७ ३७७ ३६४ ४१४ ४१५ ४१७
द्वर्धा देश दवा वासिना वस्तुके द्रव्यका किसी
द्विर्धा दश देवों वासिनो वस्तुको द्रव्यको किसीके
१८
. 24 * *
क्षेत्रसे
पश
स्पर्श पांच
Page #892
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________________
पंक्ति
अशुद्धि
११
पृथ्वी
पृष्ठ ४१८ ४२६ ४३० ४३३ ४४३ ४४५ ४४८ ४४४
का उत्तर द्रव्यके अध्यय टीका दशामें लोकालोकके काल कालका पर्यायके कहा जाता
xw x x xmuves or for writ
शुद्धि पृथ्वीकायिक के उत्तर में द्रव्यको अध्यय टीकामें दशवें लोकाकाश के काल का कालकी पर्यायका कही जाती
४५१ ४६० ४७०
२५
गकमन रके
ही
१३ ६
४७५ ४८२ ५०३ ५२०
भेद प्रत्यंत गूथे चित व्यव
गमन करके भी भेष अत्यंत गूथे चित् व्यवहार'
५५१
७७६
Page #893
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_