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प्रथम अध्याय का परिशिष्ट
[३] जिज्ञासुको धर्म किसप्रकार करना चाहिए ?
जो जीव जिज्ञासु होकर स्वभावको समझना चाहता है वह अपने सुखको प्राप्त (-गट अनुभवरूप ) करना चाहता है और दुःखको दूर करना चाहता है तो सुख अपना नित्य स्वभाव है और वर्तमानमे जो दुःख है सो क्षणिक है इसलिये वह दूर हो सकता है। वर्तमान दुःख अवस्थाको दूर करके स्वयं सुखरूप अवस्थाको प्रगट कर सकता है, इतना तो सत्को समझना चाहता है उसने स्वीकार ही कर लिया है। आत्माको अपने भावमें अपूर्व तत्त्व विचाररूप पुरुषार्थ करके विकार रहित स्वरूपका निर्णय करना चाहिए। वर्तमान विकारके होने पर भी विकार रहित स्वभावकी श्रद्धा की जा सकती है अर्थात् यह विकार और दुःख मेरा स्वरूप नही है ऐसा निश्चय हो सकता है।
पात्र जीवका लक्षण जिज्ञासु जीवोको स्वरूपका निर्णय करनेके लिये शास्त्रोने पहिले ही ज्ञान क्रिया बतलाई है । स्वरूपका निर्णय करनेके लिये दूसरा कोई दानपूजा-भक्ति-व्रत, तपादि करनेको नही कहा है, किन्तु श्रुतज्ञानसे ज्ञानस्वरूप आत्माका निर्णय करनेका ही कहा है । कुगुरु, कुदेव और कुशास्त्रको ओर का आदर और उस ओरका झुकाव तो हट ही जाना चाहिए तथा विषयादि परवस्तुमेसे सुख बुद्धि दूर हो जानी चाहिए। सब ओरसे रुचि हटकर अपनी ओर रुचि ढलनी चाहिए । और देव-शास्त्र-गुरुको यथार्थतया पहिचानकर उस ओर आदर करे, और यह सब यदि स्वभावके लक्षसे हुआ हो तो उस जीवकी पात्रता हुई कहलाती है । इतनी पात्रता तो अभी सम्यग्दर्शनका मूल कारण नही है। सम्यग्दर्शनका मूल कारण चैतन्य स्वभावका आश्रय करना है, किन्तु पहिले कुदेवादिका सर्वथा त्याग तथा सच्चे देव गुरु शास्त्र और सत्समागमका प्रेम, पात्र जीवों के होता ही है ऐसे