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अध्याय ६ सूत्र ६
६६७ प्रवृत्ति करने में जव जीव असमर्थ होता है तब प्रवृत्तिका उपाय करनेके लिये समिति कही। इस समितिमे प्रवर्तनेवाले मुनिको प्रमाद दूर करनेके लिये ये दश प्रकारके धर्म बतलाये हैं।
२-इस सूत्र में बतलाया गया 'उत्तम' शब्द क्षमा आदि दशों धर्मों को लागू होता है, यह गुणवाचक शब्द है । उत्तम क्षमादि कहनेसे यहाँ रागरूप क्षमा न लेना किन्तु स्वरूपकी प्रतीति सहित क्रोधादि कषायके अभावरूप क्षमा समझना । उत्तम क्षमादि गुण प्रगट होनेपर क्रोधादि कषायका अभाव होता है, उसीसे आस्रवकी निवृत्ति होती है अर्थात् संवर होता है।
३-धर्मका स्वरूप और उस सम्वन्धी होनेवाली भूल
जिसमे न राग द्वेष है, न पुण्य है, न कषाय है, न न्यून-अपूर्ण है और न विकारित्व है ऐसे पूर्ण वीतराग ज्ञायकमात्र एकरूप स्वभावकी जो प्रतीति लक्ष-ज्ञान और उसमें स्थिर होना सो सच्चा धर्म है, यह वीतरागकी आज्ञा है।
बहुतसे जीव ऐसा मानते हैं कि बंधादिकके भयसे अथवा स्वर्ग मोक्ष की इच्छासे क्रोधादि न करना सो धर्म है। परन्तु उनकी यह मान्यता मिथ्या है-असत् है क्योकि उनके क्रोधादि करनेका अभिप्राय तो दूर नही हया । जैसे कोई मनुष्य राजादिकके भयसे या महन्तपनके लोभसे परस्त्री सेवन नही करता तो इस कारणसे उसे त्यागी नहीं कहा जा सकता; इसी प्रमाणसे उपरोक्त मान्यता वाले जीव भी क्रोधादिकके त्यागी नहीं हैं, और न उनके धर्म होता है।
(मो० प्र०) प्रश्न-तो क्रोधादिकका त्याग किस तरह होता है ?
उचर-पदार्थ इष्ट-अनिष्ट मालूम होनेपर क्रोधादिक होते हैं। तत्त्वज्ञानके अभ्याससे जब कोई पदार्थ इष्ट-अनिष्ट मालूम न हो तव क्रोधादिक स्वयं उत्पन्न नही होते और तभी यथार्थ धर्म होता है।
४-क्षमादिककी व्याख्या निम्नप्रकार है: