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मोक्षशास्त्र (१) क्षमा-निंदा, गाली, हास्य, अनादर, मारना, शरीरका घात करने आदि होनेपर अथवा ऐसे प्रसंगोंको निकट पाते देखकर भावोंमें मलिनता न होना सो क्षमा है।
(२) मार्दव-जाति आदि आठ प्रकारके मदके आवेशसे होनेवाले अभिमानका अभाव सो मार्दव है अथवा मैं परद्रव्यका कुछ भी कर सकता हूँ ऐसी मान्यतारूप अहंकारभावको जड़मूलसे उखाड़ देना सो मार्दव है ।
(३) आर्जव-माया-कपटसे रहितपन, सरलता-सीधापन को आर्जव कहते हैं।
(४) शौच-लोभसे उत्कृष्टरूपसे उपराम पाना-निवृत्त होना सो शौच-पवित्रता है।
(५) सत्य-सत् जीवोंमें-प्रशंसनीय जीवोंमें साधु वचन ( सरल वचन ) बोलनेका जो भाव है सो सत्य है।
[प्रश्न-उत्तम सत्य और भाषा समिति में क्या अन्तर है ?
उत्तर-समितिरूपमें प्रवर्तने वाले मुनिके साधु और असाधु पुरुषोंके प्रति वचन व्यवहार होता है और वह हित, परिमित वचन है । उस मुनिको शिष्य तथा उनके भक्त ( श्रावकों ) में उत्तम सत्य ज्ञान, चारित्रके लक्षणादिक सीखने-सिखानेमे अधिक भाषा व्यवहार करना पड़ता है उसे उत्तम सत्य धर्म कहा जाता है ।]
(६) संयम--समितिमें प्रवर्तनेवाले मुनिके प्राणियोंको पीड़ा न पहुँचाने-करनेका जो भाव है सो संयम है ।
(७) तप-भावकर्मका नाश करनेके लिये स्व की शुद्धताके प्रतपन को तप कहते हैं।
(C) त्याग-संयमी जीवोंको योग्य-ज्ञानादिक देना सो त्याग है।
(९) आकिंचन्य--विद्यमान शरीरादिकमें भी संस्कारके त्यागके लिये 'यह मेरा है' ऐसे अनुरागको निवृत्तिको आकिंचन्य कहते हैं । आत्मा