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अध्याय ६ सूत्र ६
६६६ स्वरूपसे भिन्न ऐसे शरीरादिक में या रागादिकमें ममत्वरूप परिणामोंके अभावको आकिंचन्य कहते है ।
(१) ब्रह्मचर्य-स्त्री मात्रका त्यागकर अपने मात्म स्वरूपमें लीन रहना सो ब्रह्मचर्य है। पूर्वमे भोगे हुये स्त्रियोंके भोगका स्मरण तथा उसकी कथा सुननेके त्यागसे तथा स्त्रियोंके पास बैठनेके छोड़नेसे और स्वच्छंद प्रवृत्ति रोकनेके लिये गुरुकुलमे रहनेसे पूर्णरूपेण ब्रह्मचर्य पलता है। इन दशों शब्दोमें 'उत्तम' शब्द जोड़नेसे 'उत्तम' क्षमा आदि दश धर्म होते है । उत्तम क्षमा आदि कहनेसे उसे शुभ रागरूप न समझना किन्तु कषाय रहित शुभभावरूप समझना । ( स० सि० )
५-दश प्रकारके धर्मोका वर्णन क्षमाके निम्न प्रकार ५ भेद हैं:
(१) जैसे स्वयं निर्बल होनेपर सबलका विरोध नहीं करता, उसी प्रकार 'यदि मैं क्षमा करूं तो मुझे कोई परेशान न करेगा' ऐसे भावसे क्षमा रखना । इस क्षमामे ऐसी प्रतीति न हुई कि मैं क्रोध रहित ज्ञायक ऐसा त्रिकाल स्वभावसे शुद्ध हूँ' किन्तु प्रतिकूलताके भयवश सहन करनेका राग हुआ इसीलिये वह यथार्थ क्षमा नही है, धर्म नही है ।
(२) यदि मैं क्षमा करूं तो दूसरी तरफसे मुझे नुकसान न हो किंतु लाभ हो-ऐसे भावसे सेठ आदिके उलाहनेको सहन करे, प्रत्यक्षमे क्रोध न करे, किन्तु यह यथार्थ क्षमा नही है, धर्म नही है।
(३) यदि मैं क्षमा करू तो कर्मबंधन रुक जायगा, क्रोध करनेसे नीच गतिमें जाना पड़ेगा इसलिये क्रोध न करू-ऐसे भावसे क्षमा करे किन्तु यह भी सच्ची क्षमा नही है, यह धर्म नहीं है, क्योकि उसमे भय है, किन्तु नित्य ज्ञातास्वरूप की निर्भयता-निःसंदेहता नही है।
(४) ऐसी वीतरागकी आज्ञा है कि क्रोधादि नही करना, इसी प्रकार शास्त्रमे कहा है, इसलिये मुझे क्षमा रखना चाहिये, जिससे मुझे पाप नही लगेगा और लाभ होगा-ऐसे भावसे शुभ परिणाम रखे और उसे