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अध्याय १ परिशिष्ट १
१५५ चह गापा बतलाती है कि-जिसने निजस्वरूपको उपादेय जानकर भला को उसका मिथ्यात्व मिट गया किन्तु पुरुषार्थकी हीनतासे चारित्र अगीकार करनेको पाक्ति न हो तो जितनी शक्ति हो उतना ही करे और शेष के प्रति अता करे । ऐमो श्रद्धा करनेवालेके भगवानने सम्यक्त्व कहा है।
[भटराइ हिन्दीमे पृष्ठ ३३, दर्शन पाहुड़ गाथा २२]
नो मामयको यात नियमसारको गाथा १५४ में भी कही गई है पोकि सम्यग्दर्शन धर्मका मूल है।
-२५निश्चय सम्यग्दर्शनका दूसरा अर्थ मिथ्यात्यभावक दूर होनेपर सम्यग्दर्शन चौथे गुणस्थानमें प्रगट होता है । वह श्रद्धागुणको शुद्ध पर्याय होनेसे निश्चयसम्यक्त्व है । किन्तु यदि उस नम्यग्दर्शन के सायके चारित्र गुणकी पर्यायका विचार किया जाय तो चारिष गुणकी रागवाली पर्याय हो या स्वानुभवरूप निर्विकल्प पर्याय हो वहाँ चारिप गुणकी निविकल्प पर्यायके साथके निश्चय सम्यग्दर्शनको वीतराग सम्यग्दर्गन कहा जाता है, और सविकल्प (रागसहित) पर्यायके साथके निश्चय सम्यग्दर्शनको सराग सम्यग्दर्शन कहा जाता है। इस संबधमे आगे (८३ विभागमे ) कहा जा चुका है ।
__ जव सातवें गुरणस्थानमे और उससे आगे बढनेवाली दशामें निश्चय सम्यग्दर्शन और वीतराग चारित्रका अविनाभावीभाव होता है तब उस अविनाभावोभावको वतानेके लिए दोनों गुरणका एकत्त्व लेकर उस समयके सम्यग्दर्शनको उस एकत्त्वकी अपेक्षासे 'निश्चय सम्यक्त्व' कहा जाता है। और निश्चय सम्यग्दर्शनके साथ की विकल्प दशा बतानेके लिये, उस समय यद्यपि निश्चय सम्यग्दर्शन है फिर भी उस निश्चय सम्यग्दर्शनको 'व्यवहार सम्यक्त्व' कहा जाता है। इसलिये जहाँ 'निश्चय सम्यग्दर्शन, शब्द आया हो वहाँ वह श्रद्धा और चारित्रको एकत्वापेक्षासे है या मात्र श्रद्धागुणकी अपेक्षासे है, यह निश्चय करके उसका अर्थ समझना चाहिए।