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मोक्षशास्त्र शरीरके प्रति द्वेष करना अनुप्रेक्षा नहीं है किन्तु शरीरके प्रति इष्ट अनिष्टपने की मान्यता और राग द्वेष दूर करना और प्रात्माके पवित्र स्वभावकी तरफ लक्ष करनेसे तथा सम्यग्दर्शनादिककी भावनाके द्वारा प्रात्मा अत्यन्त पवित्र होता है-ऐसा बारम्बार चितवन करना सो अशुचित्व अनुप्रेक्षा है।
___ आत्मा देहसे भिन्न, कर्म रहित, अनन्त सुखका पवित्र स्थान है। इसकी नित्य भावना करना और विकारी भाव अनित्य, दुःखरूप; अशुचिमय है ऐसा जानकर उससे विमुख हो जानेकी भावना करना सो अशुचिभावना है।
(७) आस्रव अनुप्रेक्षा-मिथ्यात्व और रागद्वेषरूप अपने अपराधसे प्रति समय नवीन विकारीभाव उत्पन्न होता है । मिथ्यात्व मुख्य आस्रव है क्योंकि यह संसारकी जड़ है, इसलिये इसका स्वरूप जानकर उसे छोड़नेका चितवन करना सो आस्रव भावना है।
मिथ्यात्व, अविरति आदि प्रास्रवके भेद कहे हैं वे आस्रव निश्चय नयसे जीवके नही हैं। द्रव्य और भाव दोनों प्रकारके प्रास्रवरहित शुद्ध आत्माका चितवन करना सो आस्रव भावना है।
(८) संवर अनुप्रेक्षा-मिथ्यात्व और रागद्वेषरूप भावोंका रुकना सो भावसंवर है, उससे नवीन कर्मका आना रुक जाय सो द्रव्यसंवर है। प्रथम तो आत्माके शुद्ध स्वरूपके लक्षसे मिथ्यात्व और उसके सहचारी अनन्तानुबन्धी कषायका संवर होता है, सम्यग्दर्शनादि शुद्ध भाव संवर है और इससे आत्माका कल्याण होता है ऐसा चितवन करना सो संवर अनुप्रेक्षा है।
परमार्थ नयसे आत्मामें सवर ही नही है; इसीलिये संवर भाव विमुक्त शुद्ध आत्माका नित्य चितवन करना सो संवर भावना है।
निर्जरा अनुप्रेक्षा-अज्ञानीके सविपाक निर्जरासे प्रात्माका कुछ भी भला नही होता; किन्तु आत्माका स्वरूप जानकर उसके त्रिकाली स्वभावके पालम्बनके द्वारा शुद्धता प्रगट करनेसे जो निर्जरा होती है उससे