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अध्याय ६ सूत्र २७-२८-२६
७२१ ६-इस सूत्रका ऐसा भी अर्थ हो सकता है कि जो ज्ञान चंचलता रहित अचल प्रकाशवाला अथवा दैदीप्यमान होता है वह ध्यान है।
ध्यानके भेदआरौद्रधर्म्यशुक्लानि ॥२८॥ अर्थ-[ प्रातरौद्रधय॑शुक्लानि ] आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल ये ध्यान के चार भेद है।
टीका प्रश्न-यह संवर-निर्जराका अधिकार है और यहाँ निर्जराके कारणोका वर्णन चल रहा है। आर्त और रौद्रध्यान तो बंधके कारण हैं तो उन्हे यहाँ क्यों लिया ? |
उचर-निर्जराका कारणरूप जो ध्यान है उससे इस ध्यानको अलग दिखानेके लिये ध्यानके सब भेद समझाये है।
मार्तध्यान-दुख पीड़ारूप चितवन का नाम आर्तध्यान है। रौद्रध्यान-निर्दय-क्रूर आशयका विचार करना । धर्मध्यान-धर्म सहित ध्यान को धर्मध्यान कहते है ।
शुक्लध्यान-शुद्ध पवित्र उज्ज्वल परिणामवाला चितवन शुक्लध्यान कहलाता है।
इन चार ध्यानोमें पहले दो अशुभ हैं और दूसरे दो धर्मरूप हैं ।। २८ ॥
अब मोक्षके कारणरूप ध्यान बताते हैं
परे मोक्षहेतू ॥ २६ ॥ अर्थ-[ परे ] जो चार प्रकारके ध्यान कहे उनमेसे अन्तके दो अर्थात् धर्म और शुक्लध्यान [ मोक्षहेतू ] मोक्षके कारण हैं।