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स्व. श्री दीपचन्दजी कृत ज्ञानदर्पण पृष्ठ २६-३० में कहा है कि, याही जगमाही ज्ञेय भावको लख्या ज्ञान, ताकी घरि ध्यान श्रान काहे पर हेर है । परके संयोग तै अनादि दुःख पाए अब देखि तू संभारि जो प्रखंड निधि तेरे है । वारणी भगवानकी की सकल निचौर यहै, समैसार आप पुण्यपाप नाहि र है । याते यह ग्रन्थ शिव पंथको सधैया महा, अरथ विचारि गुरुदेव यो परेर है ॥८५॥ व्रत तप शील सजमादि उपवास किया, द्रव्य भावरूप दोउ बन्धको करतु है । करम जनित तातै करमको हेतु महा, बन्ध ही को करे मोक्ष पंथ को हरतु है । आप जैसो होइ ताकौ आपके समान करें, बन्ध ही को मूल यातै बन्धको भरतु हैं । याकौं परंपरा अति मानि करतूति करें, केई महा मूढ़ भवसिधु मैं परतु हैं || ८६ ॥ | कारण समान काज सब ही बखानतु है, याते परक्रियामाहि परकी धरणि है । याहि तै अनादि द्रव्य क्रिया तो अनेक करी, कछु नाहि सिद्धि भई ज्ञानकी परणि है । करमको वस जामै ज्ञानको न श्रश कोउ, बढे भववास मोक्षपंथ की हररिण है । यात परक्रिया उपादेय तो न कही जाय, ता सदाकाल एक बन्धकी ठरणि है ॥८७॥ पराधीन बाधायुत बन्धकी करैया महा, सदा बिनासीक जाको ऐसो ही सुभाव है । बन्ध, उदै, रस, फल जीमैं चार्यों एक रूप, शुभ वा अशुभ क्रिया एक ही लखाव है । करमकी चेतनामे कैसे मोक्षपथ सधै, माने तेई मूढ होए जिनके विभाव है । जैसो वोज होय ताको तेसो फल लागे जहाँ, यह जग माहि जिन आगम कहाव है ॥८८॥
शुभोपयोग सम्बन्धमें सम्यग्दृष्टिकी कैसी श्रद्धा है
१८ – श्री प्रवचनसार गाथा ११ में तथा टीकामे धर्म परिणत जीवके शुभोपयोगको शुद्धोपयोगसे विरोधी शक्ति सहित होनेसे स्व कार्य ( चारित्रका कार्यं) करनेके लिये असमर्थ कहा है, हेय कहा है। इससे ऐसा सिद्ध होता है कि- ज्ञानी ( धर्मो ) के शुभ भाव में भी किंचित् भी शुद्धि का अंश नहीं है, कारण कि वह वीतरागभावरूप मोक्षमार्ग नही हैवन्धमार्ग ही है, ऐसी बात होने पर भी जहाँ ज्ञानीके ( धर्मीके ) शुभभाव वो व्यवहार मोक्षमार्ग कहा है वह उपचारसे कहा है ।