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अध्याय ४ सूत्र २८-२६-३०
अर्थ - भवनवासी देवोंमे असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, द्वीपकुमार और वाकीके छह कुमारोंकी आयु क्रमसे एक सागर, तीन पल्य, ढाई पल्य, दो पत्य, श्रीर डेढ पल्य है ॥ २८ ॥
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वैमानिक देवोंकी उष्कृष्ट आयु
सौधर्मैशानयोः सागरोपमे अधिके ॥२६॥
अर्थ-सोधर्म और ईशान स्वर्गके देवोकी श्रायु दो सागरसे कुछ अधिक है ।
टीका
१, भवनवासी देवोके बाद व्यंतर और ज्योतिषी देवोंकी श्रायु वतानेका क्रम है तथापि वैमानिक देवोंकी आयु बतानेका कारण यह है कि ऐसा करनेसे वादके सूत्रोंमे लघुता ( संक्षेपता ) आ सकती है ।
२. 'सागरोपमे' यह शब्द द्विवचनरूप है उसका अर्थ 'दो सागर' होता है ।
३. 'अधिके' यह शब्द घातायुष्क जीवोकी अपेक्षासे है; उसका खुलासा यह है कि कोई सम्यग्दृष्टि मनुष्यने शुभ परिणामोसे दश सागर प्रमाण ब्रह्म ब्रह्मोत्तर स्वर्गकी आयु बांधली तत्पश्चात् उसने ही मनुष्य भव मे संक्लेश परिणामसे उस आयुकी स्थितिका घात किया और सोधर्म-ईशान मे उत्पन्न हुआ तो वह जीव घातायुष्क कहलाता है; सौधर्म ईशानके दूसरे देवोंकी अपेक्षा उसकी आधा सागरमे एक अंतर्मुहूर्तं कम प्रायु अधिक होती है । ऐसा घातायुष्कपना पूर्वमें मनुष्य तथा तियंच भवमे होता है ।
४. प्रायुका घात दो प्रकारका है— एक अपवर्तनघात और दूसरा कदलीघात । वध्यमान आयुका घटना सो अपवर्तनघात है । और भूज्यमान (भोगनेमें आनेवाली) आयुका घटना सो कदलीघात है । देवोमे कदलीघात आयु नही होती ।
५. घातायुष्क जीवका उत्पाद बारहवे देवलोक पर्यन्त ही होता है ॥ २६ ॥
सानत्कुमारमाद्रयोः सप्त ॥ ३० ॥