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अध्याय १० सूत्र २-३
(६) प्रश्न- इसमें अनेकांत स्वरूप कहाँ प्राया ?
उत्तर- आत्माके सत्य पुरुषार्थसे ही धर्म-मोक्ष होता है और अन्य किसी प्रकारसे नही होता, यही सम्यक् अनेकांत हुआ ।
(७) प्रश्न- आप्तमीर्मासा की ८ वी गाथामे अनेकांतका ज्ञान करानेके लिये कहा है कि पुरुषार्थ और दैव दोनों होते हैं, इसका क्या स्पष्टी करण है ?
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उचर- - जब जीव मोक्षका पुरुषार्थं करता है तब परम-पुण्य कर्म का उदय होता है इतना बतानेके लिये यह कथन है । पुण्योदयसे धर्म या मोक्ष नही, परन्तु ऐसा निमित्त - नैमित्तिक संबंध है कि मोक्षका पुरुषार्थ करनेवाले जीवके उससमय उत्तमसंहनन आदि बाह्य संयोग होता है । यथार्थ पुरुषार्थ और पुण्य इन दोनोंसे मोक्ष होता है - इसप्रकार कथन करने के लिये यह कथन नही है । किन्तु उससमय पुण्यका उदय नही होता ऐसा कहनेवालेकी भूल है - यह बतानेके लिये इस गाथाका कथन है ।
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इस परसे सिद्ध होता है कि मोक्षकी सिद्धि पुरुषार्थके द्वारा ही होती है इसके बिना मोक्ष नही हो सकती ॥ २ ॥
मोक्षमें समस्त कर्मोंका अत्यन्त अभाव होता है यह उपरोक्त सूत्रमें बतलाया; अब यह बतलाते हैं कि कर्मोंके अलावा और किसका अभाव होता है
पशमिकादि भव्यत्वानां च ॥ ३ ॥
अर्थ- [ च ] और [ श्रपशमिकादि भव्यत्वानां ] श्रोपशमिकादि भावोंका तथा पारिणामिक भावोमेसे भव्यत्व भावका मुक्त जीवके श्रभाव होता हो जाता है ।
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टीका
'पशमिकादि' कहनेसे ओपशमिक, मदयिक और क्षायोपशमिक ये तीन भाव समझना, क्षायिकभाव इसमें नही गिनना - जानना ।