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मोक्षशास्त्र
कई प्रयत्नोंके द्वारा) तत्त्वोंका कौतूहली होकर इस शरीरादि मूर्त्त द्रव्योंका एक मुहूर्त्त (दो घड़ी) पड़ौसी होकर श्रात्माका अनुभव कर कि जिससे निज आत्माको विलासरूप, सर्व परद्रव्योंसे भिन्न देखकर इस शरीरादि मूर्तिक पुद्गलद्रव्य के साथ एकत्वके मोहको तू तत्क्षरग ही छोड़ देगा ।
भावार्थ -- यदि यह आत्मा दो घड़ी, पुद्गलद्रव्यसे भिन्न अपने शुद्ध स्वरूपका अनुभव करे ( उसमें लीन हो), परोषह ग्राने पर भी न डिगे, तो घातिकर्मका नाश करके, केवलज्ञान उत्पन्न करके मोक्षको प्राप्त हो । श्रात्मानुभव का ऐसा माहात्म्य है ।
इसमे श्रात्मानुभव करनेके लिये पुरुषार्थ करना बताया है ।
(३) सम्यक् पुरुषार्थ के द्वारा मोक्षको प्राप्ति होती है । सम्यक् पुरुषार्थ कारण है और मोक्ष कार्य है । बिना कारणके कार्य सिद्ध नही होता । पुरुषार्थसे मोक्ष होता है ऐसा सूत्रकारने स्वयं, इस अध्यायके छट्ट सूत्र में 'पूर्वप्रयोगात्' शब्दका प्रयोग कर बतलाया है ।
(४) समाधिशतक श्री पूज्यपाद आचार्य बतलाते हैं कि
अयत्नसाध्यं निर्वाणं चिचत्वं भूतजं यदि । अन्यथा योंगतस्तस्मान्न दुःखं योगिनां क्वचित् ॥ १०० ॥
अर्थ --- यदि पृथ्वी आदि पंचभूतसे जीवतत्त्वकी उत्पत्ति हो तो निर्वाण अयत्नसाध्य है, किन्तु यदि ऐसा न हो तो योगसे अर्थात् स्वरूप संवेदना अभ्यास करनेसे निर्वारणको प्राप्ति हो; इस कारण निर्वारणमोक्षके लिये पुरुषार्थं करनेवाले योगियोंको चाहे जैसा उपसर्ग उपस्थित होनेपर भी दुःख नही होता ।
(५) श्री श्रष्टप्राभृतमे दर्शनप्राभृत गाथा ६, सूत्रप्राभृत १६ श्रीर भाव प्राभृत गाथा ८७ से ६० में स्पष्ट रीत्या बतलाया है कि धर्म-संवर, निर्जरा, गोदा वे आत्माके वीर्य-बल-प्रयत्नके द्वारा ही होता है; उस शास्त्र पृष्ठ १५-१६ तथा २४२ में भी ऐसा ही कहा है ।