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मोक्षशास्त्र
सम्बन्ध है, किन्तु उसका अर्थ 'भला करना' नहीं होता किन्तु निमित्तमात्र है ऐसा समझना चाहिये ।
(३) बीसवें सूत्रमें कहे गये सुख, दुःख, जीवन, मररणके साथ इसका संबंध बतानेके लिये 'उपग्रह' शब्दका प्रयोग इस सूत्रमें किया है । (४) जहाँ 'सहायक' शब्दका प्रयोग हुआ है वहाँ भी निमित्त मात्र अर्थ है | प्रेरक या अप्रेरक चाहे जैसा निमित्त हो किन्तु वह परमें कुछ करता नही है ऐसा समझना चाहिये और वह भेद - निमित्तकी ओर से निमित्त के हैं, किन्तु उपादानको अपेक्षा दोनों प्रकारके निमित्त उदासीन ( अप्रेरक ) माना है, श्री पूज्यपादाचार्यने इष्टोपदेशको गाथा. ३४ में भी कहा है कि 'जो सत् कल्यारणका र्वाछिक है, वह आप ही मोक्ष सुखका बतलानेवाला तथा मोक्ष सुखके उपायोंमें अपने आपको प्रवर्तन करानेवाला है इसलिये अपना ( आत्माका ) गुरु आप ही ( श्रात्मा ही ) है' इसपर शिष्यते श्रक्षेप सहित प्रश्न किया कि "अगर आत्मा ही आत्माका गुरु है तो गुरु शिष्यके उपकार, सेवा आदि व्यर्थ ठहरेगे" उसको आचार्य गाथा ३५ से जबाब देते हैं कि
" नाज्ञो विज्ञत्वमायाति विज्ञानाज्ञत्व मृच्छति ।
निमित्तमात्रमन्यस्तु गतेर्धर्मास्तिकायवत् || ३५ ॥ अर्थ-अज्ञानी किसी द्वारा ज्ञानी नहीं हो सकता, तथा ज्ञानी किसीके द्वारा अज्ञानी नहीं किया जा सकता, अन्य सब कोई तो गति ( गमन ) में धर्मास्तिकायके समान निमित्तमात्र हैं अर्थात् जब जीव और पुद्गल स्वयं गति करे उस समय धर्मास्तिकायको निमित्तमात्र कारण कहा जाता है उसी प्रकार जिस समय शिष्य स्वयं अपनी योग्यतासे ज्ञानी होता है तो उस समय गुरुको निमित्तमात्र कहा जाता है उसीप्रकार जीव जिस समय मिथ्यात्व रागादिरूप परिणमता है उस समय द्रव्यकर्म और नोकर्म (- कुदेवादिको ) आदिको निमित्तमात्र कहा जाता है जो कि उपचार कारण है, (-अभूतार्थं कारण है ) उपादान स्वयं अपनी योग्यतासे जिस - समय कार्यरूप परिणमता है तो ही उपस्थित क्षेत्र - काल-संयोग आदिमें निमित्तकारणपनेका उपचार किया जाता है अन्यथा निमित्त किसका ?