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अध्याय ५ सूत्र २१-२२
४१५ ऐसा किसी को कभी नहीं हो सकता कि द्रव्यकी जिस समय जैसा परिणमन करने की योग्यता हो उस समय उसके अनुकूल निमित्त न हो और उसका उसरूप परिगमन होना रुक जावे, अथवा किसी क्षेत्र, काल, संयोगकी बाट (-राह ) देखनी पड़े अथवा निमित्त को जुटाना पड़े ऐसा निमित्त नैमित्तिक संबंधका स्वरूप नही है।
उपादानके परिणमनमें सर्व प्रकारका निमित्त अप्रेरक है ऐसा समयसार नाटक सर्व विशुद्ध द्वार काव्य ६१ में कहा है देखो इस अध्याय के सू० ३० की टीका।
अब काल द्रव्यका उपकार बतलाते हैं वर्तनापरिणामक्रियाःपरत्वापरत्वे च कालस्य ॥२२॥
अर्थ-[ वर्तनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च ] वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व [ कालस्य ] काल द्रव्यके उपकार हैं ।
(१) सत् अवश्य उपकार सहित होने योग्य है और काल सत्ता स्वरूप है इसलिये उसका क्या उपकार ( निमित्तत्त्व ) है सो इस सूत्र में बताते है । ( यहाँ भी उपकारका अर्थ निमित्तमात्र होता है।)
(२) वर्तनाः-सर्व द्रव्य अपने अपने उपादान कारणसे अपनी पर्यायके उत्पादरूप वर्तता है, उसमे बाह्य निमित्तकारण कालद्रव्य है इसलिये वर्तना कालका लक्षण या उपकार कहा जाता है।
परिणाम-जो द्रव्य अपने स्वभावको छोडे बिना पर्यायरूपसे पल्टे (बदले) सो परिणाम है। धर्मादि सर्व द्रव्योंके अगुरुलघुत्त्व गुणके अविभाग प्रतिच्छेदरूप अनन्त परिणाम (षट्गुण हानि वृद्धि सहित ) है, वह अति सूक्ष्म स्वरूप है। जीवके उपशमादि पांच भावरूप परिणाम है और पुद्गलके वर्णादिक परिणाम हैं तथा घटादिक अनेकरूप परिणाम हैं। द्रव्य की पर्याय-परिणतिको परिणाम कहते हैं।
क्रिया--एक क्षेत्र अन्य क्षेत्रको गमन करना क्रिया है । वह क्रिया जीव और पुद्गल दोनोके होती है। दूसरे चार द्रव्योके क्रिया नहीं होती।