________________
अध्याय १ परिशिष्ट १
१४५
(४) प्रश्नः - संसार में ऐसा नियम है कि प्रत्येक गुरणका क्रमिक विकास होता है, इसलिये सम्यग्दर्शनका भी क्रमिक विकास होना चाहिए । क्या यह ठीक है ?
-
उचर :- - ऐसा एकान्त सिद्धान्त नही है । विकास में भी अनेकान्त स्वरूप लागू होता है, -प्रर्थात् आत्माका श्रद्धागुरण उसके विषयकी अपेक्षासे एकसाथ प्रगट होता है और आत्माके ज्ञानादि कुछ गुणोमे क्रमिक विकास होता है ।
अक्रमिक विकासका दृष्टान्त
मिथ्यादर्शनके दूर होने पर एक समयमे सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, उसमें क्रम नही पड़ता । जब सम्यग्दर्शन प्रगट होता है तभीसे वह अपने विषयके प्रति पूर्ण और क्रम रहित होता है ।
क्रमिक विकासका दृष्टान्त
सम्यग्ज्ञान-सम्यग्चारित्रमे क्रमशः विकास होता है । इसप्रकार विकास मे क्रमिकता और अक्रमिकता आती है । इसलिये विकासका स्वरूप अनेकान्त है ऐसा समझना चाहिए ।
(५) प्रश्न- - सम्यक्त्वके आठ अङ्ग कहे हैं, उनमे एक अङ्ग 'निःशकित' है जिसका अर्थ निर्भयता है । निर्भयता आठवें गुणस्थानमे होती है इसलिये क्या यह समझना ठीक है कि जबतक भय है तबतक पूर्ण सम्यग्दर्शन नही होता ? यदि सम्यग्दर्शन पूर्ण होता तो श्रेणिक राजा जो कि क्षायिक सम्यग्दृष्टि थे वे श्रापघात नही करते,—यह ठीक है या नही ? उत्तर- - यह ठीक नही है; सम्यग्दृष्टिको सम्यग्दर्शन के विपयकी मान्यता पूर्ण ही होती है, क्योकि उसका विषय अखण्ड शुद्धात्मा है । सम्यग्दृष्टिके शंका—कांक्षा - विचिकित्साका प्रभाव द्रव्यानुयोगमे कहा है, और कररणानुयोगमे भयका श्राठवें गुरणस्थान तक, लोभका दशवे गुणस्थान तक और जुगुप्साका आठवे गुणस्थान तक सद्भाव कहा है, इसमे विरोध नही है क्योकि श्रद्धानपूर्वकके तीव्र शंकादिका सम्यग्दृष्टिके प्रभाव हुआ है अथवा
१६
-