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मध्याय ६ सूत्र २२-२३-२४
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३ -- इस सूत्र के 'च' शब्दमें मिथ्यादर्शनका सेवन किसीको बुरा वचन बोलना, चित्त की अस्थिरता, कपटरूप माप-तौल, परकी निन्दा, अपनी प्रशंसा इत्यादिका समावेश हो जाता है ॥ २२ ॥
शुभ नाम कर्मके आस्रवका कारण तद्विपरीतं शुभस्य ॥ २३ ॥
अर्थ:- [ तद्विपरीतं ] उससे अर्थात् अशुभ नाम कर्मके श्रास्रवके जो कारण कहे उनसे विपरीतभाव [ शुभस्य ] शुभ नाम कर्मके प्रास्रवके कारण है ।
टीका
१ - बाईसवें सूत्रमे योगकी वक्रता और विसंवादको अशुभ कर्म के आस्रवके कारण कहे उससे विपरीत अर्थात् सरलता होना और अन्यथा प्रवृत्तिका अभाव होना सो शुभ नाम कर्मके आस्रवके कारण हैं ।
२ – यहाँ 'सरलता' शब्दका अर्थ 'अपनी शुद्धस्वभावरूप सरलता' न समझना किन्तु 'शुभभावरूप सरलता' समझना । और जो अन्यथा प्रवृत्तिका अभाव है सो भी शुभभावरूप समझता । शुद्ध भाव तो श्रास्रवबधका कारण नही होता ॥ २३ ॥
अब तीर्थंकर नाम कर्मके आस्रवके कारण बतलाते हैं दर्शन विशुद्धिर्विनयसम्पन्नताशीलत्रतेष्वनतीचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौशक्तितस्त्यागतपसीसाधु
समाधिर्वैयावृत्यकरणमर्हदाचार्य बहुश्रुतप्रवचनभक्तिरोवरः यका परिहाणिर्मार्गप्रभावनाप्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकर - त्वस्य ॥ २४ ॥
अर्थ - [ दर्शनविशुद्धिः ]- १ - दर्शन विशुद्धि, [ विनयसंपन्नता ] २ - विनयसंपन्नत्ता, [ शीलव्रतेष्वनतिचारः ] ३- शील और व्रतोमे श्रनतिचार अर्थात् अतिचारका न होना, [ अभीक्ष्णज्ञानोपयोगः ] ४ - निरतर ज्ञानोपयोग