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मोक्षशास्त्र
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[संवेगः] ५-संवेग अर्थात् संसारसे भयभीत होना [ शक्तितस्त्यागतपसी ] ६-७-शक्तिके अनुसार त्याग तथा तप करना, [साधु समाधिः ] ८-साधुसमाधि [वैयावृत्यकरणम् ] - वैयावृत्य करना, [ श्रहंदाचार्य बहुश्रुतप्रवचन भक्तिः ] १०-१३ - अहंत् - आचार्य - बहुश्रुत (उपाध्याय) और प्रवचन ( शाख) के प्रति भक्ति करना, [ श्रावश्यकापरिहारिणः ] १४ - आवश्यकमें हानि न करना, [ मार्गप्रभावना ] १५ - मार्गप्रभावना और [ प्रवचनवत्सलत्वम् ] १६- प्रवचन - वात्सल्य [ इति तीर्थकरत्वस्य ] ये सोलह भावना तीर्थकर - नामकर्मके आस्रवके कारण हैं ।
टीका
इन सभी भावनाओं में दर्शनविशुद्धि मुख्य है, इसीलिये वह प्रथम ही बतलाई गई है, इसके अभाव में अन्य सभी भावनाये हों तो भी तीर्थंकर नाम कर्मका श्राश्रव नही होता ।
सोलह भावनाओं के सम्बन्ध में विशेष वर्णनः - (१) दर्शन विशुद्धि
दर्शनविशुद्धि अर्थात् सम्यग्दर्शन की विशुद्धि । सम्यग्दर्शन स्वयं आत्माकी शुद्ध पर्याय होने से बंधका कारण नही है, किन्तु सम्यग्दर्शनकी भूमिकामें एक खास प्रकारकी कषायकी विशुद्धि होती है, वह तीर्थंकर नामकर्मके बंधका कारण होती है । दृष्टांत वचन कर्मको ( अर्थात् वचनरूपी कार्यको ) योग कहा जाता है । परंतु 'वचनयोग' का अर्थ ऐसा होता है कि 'वचन द्वारा होनेवाला जो आत्मकर्म सो योग है' क्योंकि जड़ वचन किसी वंधके कारण नही हैं । आत्मामें जो प्रासूत्र होता है वह आत्माकी चंचलता से होता है, पुद्गलसे नही होता पुद्गल तो निमित्तमात्र है ।
सिद्धांतः — दर्शन विशुद्धिको तीर्थंकर नामकर्मके आसूवका कारण कहा है, वहाँ वास्तवमें दर्शनकी शुद्धि स्वयं आसूवबंधका कारण नहीं है, किंतु राग ही बंधका कारण है । इसीलिये दर्शनविशुद्धिका अर्थ ऐसा समझना योग्य है कि 'दर्शनके साथ रहा हुआ राग ।' किसी भी प्रकारके वंध का कारण कपाय ही है । सम्यग्दर्शनादि बन्धके कारण नहीं हैं । सम्य