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अध्याय ६ सूत्र २४
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ग्दर्शन जो कि आत्माको, बंधुसे छुड़ानेवाला है वह स्वयं बन्धका कारण कैसे हो सकता है ? तीर्थंकर नामकर्म भी श्रास्रव - बन्ध्र ही है, इसीलिये सम्यग्दर्शनादि भी वास्तव में उसका कारण नही है । सम्यग्दृष्टि जीवके जिनोपदिष्ट निग्रंथ मार्ग में जो दर्शन संबन्धी धर्मानुराग होता है वह दर्शनविशुद्धि है । सम्यग्दर्शनके शंकादि दोष दूर हो जानेसे वह विशुद्धि होती है । ( देखो तत्त्वार्थसार अध्याय ४ गाथा ४६ से परकी टीका पृष्ठ २२१ ) ( २) विनयसंपन्नता
१ – विनयसे परिपूर्ण रहना सो विनयसंपन्नता है । सम्यग्ज्ञानादि गुणोंका तथा ज्ञानादि गुण संयुक्त ज्ञानीका आदर उत्पन्न होना सो विनय है, इस विनयमें जो राग है वह प्रास्रव बन्धका कारण है ।
२ - विनय दो तरह की हैं- एक शुद्धभावरूप विनय है, उसे निश्चय विनय भी कहा जाता है; अपने शुद्धस्वरूपमे स्थिर रहना सो निश्चयविनय है यह विनय बन्धका कारण नही है । दूसरी शुभभावरूप विनय है, उसे व्यवहार विनय भी कहते हैं । अज्ञानीके यथार्थ विनय होता ही नही । सम्यग्दृष्टिके शुभभावरूप विनय होता है और वह तीर्थंकर नामकर्म के आस्रवका कारण है । छट्टो गुणस्थानके बाद व्यवहार विनय नही होती किन्तु निश्चय विनय होती है ।
( ३ ) शील और व्रतों में अनतिचार
'शील' शब्द के तीन अर्थ होते हैं (१) सत् स्वभाव ( २ ) स्वदार संतोष और ( ३ ) दिग्व्रत श्रादि सात व्रत, जो अहिंसादि व्रतको रक्षाके लिये होते हैं । सत् स्वभावका अर्थ क्रोधादि कषायके वश न होना है । यह शुभभाव है, जब श्रुतिमंद कषाय होती है तब यह होता है । यहाँ 'शील' का प्रथम और तृतीय अर्थ लेना, दूसरा अर्थ व्रत शब्दमे आजाता है । अहिंसा आदि व्रत हैं । अनतिचारका अर्थ है दोषोसे रहितपन ।
( ४ ) अभीक्ष्णज्ञानोपयोग
अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगका अर्थ है सदा ज्ञानोपयोग में रहना । सम्यज्ञानके द्वारा प्रत्येक कार्य मे विचार कर जो उसमे प्रवृत्ति करना सो