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मोक्षशास्त्र योगवक्रता विसंवादनं चाशुभाय नाम्नः ॥ २२॥
अर्थ:-[ योगवक्रता ] योगमें कुटिलता [ विसंवादनं च ] और विसंवादन अर्थात् अन्यथा प्रवर्तन [ अशुभस्यनाम्नः ] अशुभ नामकर्मके आसवका कारण है।
टीका
१-प्रात्माके परिस्पंदनका नाम योग है ( देखो इस अध्यायके पहले सूत्रकी टीका ) मात्र अकेला योग सातावेदनीयके पासवका कारण है । योगमें वक्रता नही होती किन्तु उपयोगमे वक्रता (-कुटिलता ) होती है । जिस योगके साथ उपयोगकी वक्रता रही हो वह अशुभ नामकर्मके आसवका कारण है। आसूवके प्रकरणमें योगकी मुख्यता है और बन्धके प्रकरणमें बन्ध परिणामको मुख्यता है, इसीलिये इस अध्यायमें और इस सूत्रमे योग- शब्दका प्रयोग किया, है ।, परिणामोंकी वक्रता जड़-मन, वचन या कायमें नहीं होती तथा योगमे भी नही होती किन्तु उपयोगमें होती है । यहाँ आसूवका प्रकरण होने और पासवका कारण योग. होनेसे, उपयोगकी वक्रताको उपचारसे योग, कहा है । योगके विसंवादनके सम्बन्धमें भी, इसी तरह समझना।
२ प्रश्न–विसंवादनका अर्थ अन्यथा प्रवर्तन होता है और उसका समावेश वक्रतामे हो जाता है तथापि 'विसंवादन' शब्द अलग किसलिये कहा ?
उत्तर-जीवकी स्वकी अपेक्षासे योग वक्रता कही जाती है और परकी अपेक्षासे विसंवारन कहा जाता है । मोक्षमार्गमें प्रतिकूल ऐसी मन वचन काय द्वारा जो खोटी प्रयोजना करना सो योग वक्रता है और दूसरेको वैसा करनेके लिये कहना सो विसंवादन है । कोई जीव शुभ करता हो उसे अशुभ करनेकी कहना सो भी विसंवादन है, कोई जीव शुभराग करता हो
और उसमें धर्म मानता हो उसे ऐसा कहना कि, शुभरागसे धर्म नहीं होता किन्तु वन्ध होता है और यथार्थ समझ तथा वीतराग भावसे धर्म होता है ऐसा उपदेश देना सो विसंवादन नही है क्योंकि उसमे तो सम्यक् न्यायका प्रतिपादन है, इसीलिये उस-कारणसे. बन्ध नही होता।