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अध्याय ६ सूत्र २०-२१-२२
५३१ जितना वीतरागी भावरूप संयम प्रगट हुआ है वह मानवका कारण नहीं है किन्तु उसके साथ जो राग रहता है वह आसूवका कारण है ॥२०॥
देवायुके आस्रवके कारण
सम्यक्त्वं च ॥ २१ ॥ अर्थ:-[ सम्यक्त्वं च ] सम्यग्दर्शन भी देवायुके आस्रवका कारण है अर्थात् सम्यग्दर्शनके साथ रहा हुआ जो राग है वह भी देवायुके आसवका कारण है।
टीका १-यद्यपि सम्यग्दर्शन शुद्धभाव होनेसे किसी भी कर्मके आसूवका कारण नही है तथापि उस भूमिकामे जो रागांश मनुष्य और तियंचके होता है वह देवायुके आसवका कारण होता है। सराग सयम और संयमासयम के सम्बन्धमे भी यही बात है यह ऊपर कहा गया है।
२-देवायुके आसृवके कारण सम्बन्धी २० वाँ सूत्र कहनेके बाद यह सूत्र पृथक् लिखनेका यह प्रयोजन है कि सम्यग्दृष्टि मनुष्य तथा तिर्यच को जो राग होता है वह वैमानिक देवायुके ही आसूवका कारण होता है, वह राग हलके देवोंकी (भवनवासी व्यंतर और ज्योतिषी देवोकी) आयुका कारण नहीं होता।
३-सम्यग्दृष्टिके जितने अंशमें राग नही है उतने अंशमें आसूव बन्ध नही है और जितने अशमे राग है उतने अंशमे पासूव बन्ध है। (देखो श्री अमृतचन्द्राचार्य कृत पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय-गाथा २१२ से २१४) सम्यग्दर्शन स्वयं प्रबन्ध है अर्थात् वह स्वयं किसी तरहके बन्धका कारण नही है । और ऐसा होता ही नही कि मिथ्यादृष्टिको किसी भी अंशमे राग का अभाव हो इसीलिये वह सम्पूर्णरूपसे हमेशा बन्धभावमे ही होता है।
यहाँ आयुकर्मका आसूव सम्बन्धी वर्णन पूर्ण हुआ ॥२१॥ अब नामकर्मके आसूवके कारण बताते हैं .
अशुभ नामकर्मके आस्रवके कारण