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मोक्षशास्त्र
बन्धसे रहित नही हो जाता; सस्यग्दृष्टिके प्रणुव्रत और महाव्रत भी देवायुके आस्रवके कारण हैं, क्योंकि वह भी राग है । मात्र वीतरागभाव ही बन्धका कारण नही होता, किसी भी प्रकारका राग हो वह श्रास्रव होनेसे बन्धका ही कारण है ||१६||
अब देवायुके आवके कारण बतलाते हैं। सरागसंयम संयम संयमाकामनिर्जराबालतपांसि - दैवस्य ॥ २० ॥
अर्थः- [ सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जरावालतपांसि ] सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप [ दैवस्य ] ये देवायुके भावके कारण हैं ।
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टीका
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१ --- इस सूत्र में बताये गये - भावोंका अर्थ पहले १२ वें सूत्रकी टीकामें श्रा चुका है । परिणाम बिगड़े बिना : मंदकषाय रखकर दुःख सहन करना सो अकाम निर्जरा है ।
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२- मिथ्यादृष्टिके सरागसंयम और संयमासंयम नहीं होते किन्तु 'बालतप' होता है । इसलिये बाह्यव्रत धारण किये होने मात्रसे ऐसा नहीं मान लेना कि उस जीवके सरागसंयम या संयमासंयम है । 'सम्यग्दर्शन होने के बाद पांचवें गुणस्थानमें अणुव्रत अर्थात् संयमासंयम और छट्टो गुणस्थानमें महाव्रत अर्थात् सरागसंयम होता है । ऐसा भी होता है कि सम्यग्दर्शन होने पर भी अणुव्रत या महाव्रत नहीं होते। ऐसे जीवोंके वीतराग- देवके दर्शन-पूजा, स्वाध्याय, अनुकम्पा इत्यादि शुभभाव होते हैं, पहलेसे चौथे गुणस्थान पर्यन्त उस तरहका शुभभाव होता है; किन्तु वहाँ व्रत नहीं होते । श्रज्ञानीके माने हुये व्रत और तपको बालव्रत और बालतप कहा है । 'बालतप' शब्द तो इस सूत्रमे बतलाया है और बालव्रतका समावेश ऊपर के ( १६ वें ) सूत्रमें होता है ।
३ यहाँ भी यह जानना कि सरागसंयम और संयमासंयम में