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________________ अध्याय ६ सूत्र १५-१६ ५२९ मनुष्यायुके आस्रवका कारण (चालू है) स्वभावमार्दवं च ॥१८॥ मर्थः-[ स्वभावमार्दवं ] स्वभावसे ही सरल परिणाम होना [ ] भी मनुष्यायुके आस्रवका कारण है। टीका १-इस सूत्रको सत्रहवें सूत्रसे पृथक् लिखनेका कारण यह है कि इस सूत्र में बताई हुई बात देवायुके आस्रवका भी कारण होती है। २-यहां 'स्वभाव' का अर्थ 'आत्माका शुद्ध स्वभाव' न समझना क्योकि निज स्वभाव बन्धका कारण नहीं होता। यहाँ 'स्वभाव' का अर्थ है 'किसीके बिना सिखाये।' मार्दव भी आत्माका एक शुद्ध स्वभाव है, परन्तु यहाँ मार्दवका अर्थ 'शुभभावरूप ( मंदकषायरूप ) सरल परिणाम' करना; क्योकि जो शुद्धभावरूप मार्दव है वह बन्धका कारण नही है किन्तु शुभभावरूप जो मार्दव है वही बन्धका कारण है ॥१८॥ अब सभी आयुयोंके आस्रवके कारण बतलाते हैं निःशीलव्रतत्वं च सर्वेषाम् ॥१६॥ अर्थः-[ निःशीलवतत्वं च ] शील और व्रतका जो अभाव है वह भी [ सर्वेषाम् ] सभी प्रकारकी आयुके प्रास्रवका कारण है। टीका प्रश्न-जो शील और व्रतरहित होता है उसके देवायुका आस्रव कैसे होता है ? उत्तर-भोगभूमिके जीवोके शील व्रतादिक नही हैं तो भी देवायुका ही आस्रव होता है। २-यह बात विशेष ध्यानमे रहे कि मिथ्यादृष्टिके सच्चे शील या व्रत नहीं होते। मिथ्यादृष्टि जीव चाहे जितने शुभरागरूप शीलव्रत पालता हो तो भी वह सच्चे शीलव्रतसे रहित ही है । सम्यग्दृष्टि होनेके बाद यदि जीव अणुव्रत या महाव्रत धारण करे तो उतने मात्रसे वह जीव आयुके
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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