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मोक्षशास्त्र (घीका घड़ा) कहने में प्राता है । जो 'धीका घडा है' ऐसा ही कहा जाय तो लोग समझ जाते है और 'घीका घड़ा' मंगावे तव उसे ले आते हैं इसलिये उपचारमें भी प्रयोजन संभव है। तथा जहाँ अभेदनयकी मुख्यता की जाती है वहाँ अभेद दृष्टिमें भेद दिखता नहीं है फिर भी उस समय उसमें ( अभेदनयकी मुख्यता में ) ही भेद कहा है वह असत्यार्थ है । वहाँ भी उपचार की सिद्धि गौणरूपसे होती है।
सम्यग्दृष्टिका और मिथ्यादृष्टिका ज्ञान (१)-इस मुख्य-गौणके भेदको सम्यग्दृष्टि जानता है; मिथ्यादृष्टि अनेकांत वस्तुको नही जानता और जब सर्वथा एक धर्म पर दृष्टि पड़ती है तब उस एक धर्मको ही सर्वथा वस्तु मानकर वस्तुके अन्य धर्मोको सर्वथा गौण करके असत्यार्थ मानता है अथवा अन्य धर्मोका सर्वथा अभाव ही मानता है । ऐसा माननेसे मिथ्यात्व दृढ़ होता है जहाँ तक जीव यथार्थ वस्तुस्वरूप को जाननेका पुरुषार्थ नही करता तब तक यथार्थश्रद्धा नही होती । इस अनेकांत वस्तुको प्रमाण-नय द्वारा सात भंगोंसे सिद्ध करना सम्यक्त्वका कार्य है, इसलिये उसे भी सम्यक्त्व ही कहते हैं ऐसा जानना चाहिये। जिनमत की कथनी अनेक प्रकारसे है, उसे अनेकांतरूपसे समझना चाहिये।
(२) इस सप्तभंगीके अस्ति और नास्ति ऐसे दो प्रथमभेद विशेष लक्षमें लेने योग्य है, वे दो भेद यह सूचित करते हैं कि जीव अपनेमें उल्टे था सीधे भाव कर सकता है किंतु परका कुछ नही कर सकता, तथा परद्रव्यरूप अन्य जीव या जड़ कर्म इत्यादि सब अपने अपनेमे कार्य कर सकते हैं; किन्तु वे कोई इस जीवका भला बुरा कुछ नही कर सकते, इसलिये परवस्तुओंकी ओरसे लक्ष हटाकर और अपने में होनेवाले भेदोंको गौण करनेके लिये उन भेदोंपरसे भी लक्ष हटाकर अपने त्रिकाल अभेद शुद्ध चैतन्यस्वरूपपर दृष्टि डालनेसे-उसके आश्रयसे निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। उसका फल अज्ञानका नाश होकर उपादेय की बुद्धि और वीतरागता की प्राप्ति है।