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मध्याय ४ उपसंहार
३७६ को व्यवहार कहा है, उसमे अभेद धर्मको मुख्य करके उसे निश्चयका विषय कहा है और भेदको गौरण करके उसे व्यवहार नयका विषय कहा है । द्रव्य तो अभेद है इसलिये निश्चयका प्राश्रय द्रव्य है; और पर्याय भेदरूप है, इस लिये व्यवहार का प्राश्रय पर्याय है उसमें प्रयोजन इसप्रकार है कि भेदरूप वस्तुको सर्वलोक जानता है उसके भेदरूप वस्तु ही प्रसिद्ध है इसलिये लोक पर्यायबुद्धि है । जीवकी नर-नारकादि पर्याये है तथा राग द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि पर्यायें हैं तथा ज्ञानके भेदरूप मतिज्ञानादि पर्यायें हैं। लोग उन पर्यायोको ही जीव समझते है इसलिये (अर्थात् उस पर्यायबुद्धि को छुडानेके प्रयोजनसे ) उस पर्यायमें अभेदरूप अनादि अनत एक भाव जो चेतना धर्म है उसे ग्रहण करके निश्चयनयका विषय कहकर जीवद्रव्यका ज्ञान कराया है, और पर्यायाश्रित भेदनयको गौण किया है तथा अभेद दृष्टिमे वे भेद दिखाई नहीं देते इसलिये अभेदनयको दृढ़ श्रद्धा करानेके लिये कहा है कि जो पर्यायनय है सो व्यवहार है, अभूतार्थ है, असत्यार्थ है । यह कथन मेदबुद्धिके एकतिका निराकरण करनेके लिये समझना चाहिये।
(२) यहाँ यह नही समझना चाहिये कि जो भेद है उसे असत्यार्थ कहा है। इसलिये भेद वस्तुका स्वरूप ही नही है । यदि कोई सर्वथा यह माने कि 'भेद नहीं है तो वह अनेकांतको समझा ही नही है और वह सर्वथा एकांत श्रद्धाके कारण मिथ्या दृष्टि है। अध्यात्मशास्रोमें जहाँ निश्चय-व्यवहार नय कहे हैं वहाँ भी उन दोनोंके परस्पर विधि-निषेधके द्वारा सप्तभंगीसे वस्तुको साधना चाहिये, यदि एक नयको सर्वथा सत्यार्थ माने और एकको सर्वथा असत्यार्थ माने तो मिथ्या-श्रद्धा होती है, इसलिये वहाँ भी 'कथंचित्' जानना चाहिये।
उपचार नय (१) एक वस्तुका दूसरी वस्तुमे प्रारोप करके प्रयोजन सिद्ध किया जाता है उसे उपचारनय कहते है । वह भी व्यवहारमें ही गभित है ऐसा कहा है । जहाँ प्रयोजन या निमित्त होता है वहाँ उपचारकी प्रवृत्ति होती है। घीका घड़ा ऐसा कहनेपर मिट्टीके घडेके आश्रयसे घी भरा है उसमें व्यवहारी मनुष्योंको अाधार-आधेयभाव भासित होता है उसे प्रघान करके