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अध्याय ४ उपसंहार
अनेकांत क्या बतलाता है ?
( १ ) अनेकांत वस्तुको परसे प्रसंग ( भिन्न ) बतलाता है । असंगत्वकी (स्वतंत्र की ) श्रद्धा असंगत्व के विकासका उपाय है; तीनोकाल परसे भिन्नत्व वस्तुका स्वभाव है ।
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(२) अनेकांत वस्तुको 'स्वरूपसे है और पररूपसे नही है' इसप्रकार बतलाता है । पररूप आत्मा नहीं है इसलिये वह परवस्तुका कुछ भी करनेके लिये समर्थ नही है । और किसीका संयोग-वियोगसे मेरा कुछ भी इष्ट-अनिष्ट नहीं हो सकता ऐसे सच्चे ज्ञानसे श्रात्मा सुखी होता है ।
'तू निजरूपसे है' अतः पररूपसे नही है और परवस्तु अनुकूल हो या प्रतिकूल उसे बदलनेमे तू समर्थ नही है । बस, इतना निश्चय कर तो श्रद्धा, ज्ञान और शांति तेरे पास ही है ।
(३) अनेकान्त वस्तुको निजरूपसे सत् बतलाता है । सत्को पर सामग्री की आवश्यकता नही है; संयोग की आवश्यकता नही है; किन्तु सत्को सत्के निर्णय की आवश्यकता है कि 'मैं स्वरूपसे हूँ और पररूपसे नही ।'
( ४ ) अनेकान्त वस्तुको एक-अनेक स्वरूप बतलाता है । 'एक' कहने पर ही 'अनेक' की अपेक्षा आती है । तू अपनेमे एक है और अपनेमे ही अनेक है | तूं अपने गुरण-पर्यायसे अनेक है और वस्तुसे एक है ।
( ५ ) अनेकांत वस्तुको नित्य अनित्यस्वरूप बतलाता है । स्वयं नित्य है और स्वयं ही पर्यायसे अनित्य है । उसमें जिस ओरकी रुचि होती है उसी और परिणमन होता है । नित्यवस्तुकी रुचि करनेपर नित्य रहनेवाली वीतरागता होती है और अनित्य पर्यायको रुचि हो तो क्षणिक रागद्वेष होते है ।
( ६ ) अनेकांत प्रत्येक वस्तुकी स्वतन्त्रताको घोषित करता है । वस्तु परसे नही है और स्वसे है ऐसा जो कहा है उसमे 'स्व अपेक्षासे प्रत्येक वस्तु परिपूर्ण ही है' यह श्रा जाता है । वस्तुको परकी आवश्यकता नही है वह स्वतः स्वयं स्वाधीन - परिपूर्ण है ।