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मोक्षशास्त्र (७) अनेकान्त प्रत्येक वस्तुमें अस्ति-नास्ति आदि दो विरुद्ध शक्तियोंको बतलाता है। एक वस्तुमें वस्तुत्वकी उत्पादक दो विरुद्ध शक्तियोंका एक साथ रहना ही तत्त्वकी पूर्णता है। ऐसी दो विरुद्ध शक्तियोंका होना वस्तुका स्वभाव है।
शास्त्रोंके अर्थ करने की पद्धति व्यवहारनय स्वद्रव्य-परद्रव्यको या उसके भावोंको अथवा कारणकार्यादिको किसीको किसीमें मिलाकर निरूपण करता है इसलिए ऐसे ही श्रद्धानसे मिथ्यात्व है अतः उसका त्याग करना चाहिए। और निश्चयनय उसीको यथावत् निरूपण करता है तथा किसीको किसीमें नही मिलाता, अतः ऐसे ही श्रद्धानसे सम्यक्त्व होता है इसलिए उसका श्रद्धान करना चाहिए।
प्रश्न-यदि ऐसा है तो जिनमार्गमें जो दोनों नयोंका ग्रहण करने को कहा है उसका क्या कारण है ?
उत्तर-जिनमार्गमें कहीं कहीं निश्चयनयकी मुख्यतासे जो कथन है उसे यह समझना चाहिए कि-'सत्यार्थ ऐसा ही है', तथा कहीं कहीं व्यवहारनयकी मुख्यतासे जो कथन है उसे यह समझना चाहिए कि 'ऐसा नही है किन्तु निमित्तादिकी अपेक्षासे यह उपचार किया है। और इस प्रकार जाननेका नाम ही दोनों नयोंका ग्रहण है । किन्तु दोनों नयोके कथनको समान सत्यार्थ जानकर 'इसप्रकार भी है और इसप्रकार भी है' ऐसे भ्रमरूप प्रवर्तनसे दोनों नयोंका ग्रहण करनेको नही कहा है।
प्रश्न-यदि व्यवहारनय असत्यार्थ है तो फिर जिनमार्गमें उसका उपदेश क्यों दिया गया है ? एक निश्चयनयका ही निरूपण करना चाहिए था।
उचर-यही तर्क श्री समयसारमें भी किया गया है, वहाँ यह उत्तर दिया गया है कि जैसे कोई अनार्य-म्लेच्छको म्लेच्छ भापाके बिना अर्थ ग्रहण कराने में कोई समर्थ नहीं है उसीप्रकार व्यवहारके विना परमार्थका उपदेश अशक्य है इसलिये व्यवहारका उपदेश है। और इसी