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मोक्षशास्त्र
असंख्येयाः प्रदेशाः धर्माधर्मैकजीवानाम् ॥ ८ ॥
अर्थ - [ धर्माधर्मैकजीवानाम् ] धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य और एक जीव द्रव्यके [ प्रसंख्येयाः ] असंख्यात [ प्रदेशाः ] प्रदेश हैं । टीका
( १ ) प्रदेश - प्रकाशके जिनने क्षेत्रको एक पुद्गल परमाणु रोके उतने क्षेत्रको एक प्रदेश कहते हैं |
( २ ) ये प्रत्येक द्रव्य द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा से प्रखण्ड, एक, निरंश है । पर्यायार्थिक नयको अपेक्षासे असंख्यात प्रदेशी है । उसके असंख्यात प्रदेश हैं इससे कुछ उसके असंख्य खण्ड या टुकड़े नहीं हो जाते । और पृथक् २ एक २ प्रदेश जितने टुकड़ों के मिलनेसे बना हुआ भी वह द्रव्य नही है ।
( ३ ) आकाश भी द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा से प्रखण्ड, निरंश, सर्वगत, एक और भिन्नता रहित है । पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे जितने अंश को परमाणु रोक्रे उतने अंशको प्रदेश कहते हैं । आकाशमें कोई टुकड़े नहीं हैं या उसके टुकड़े नहीं हो जाते । टुकड़ा तो संयोगी पदार्थका होता है; पुद्गलका स्कंध संयोगी है इसलिये जब वह खण्ड होने योग्य हो तब वह खण्ड टुकड़े रूपमें परिणमन करता है ।
( ४ ) आकाशको इस सूत्रमें नही लिया, क्योंकि उसके अनन्त प्रदेश हैं, इसलिये वह नवमें सूत्रमें कहा जायगा ।
( ५ ) धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और जीवके प्रदेश असंख्यात हैं और वे संख्याको अपेक्षासे लोक प्रमाण असंख्यात हैं तथापि उनके प्रदेशों की व्यापक अवस्थामें अन्तर है । धर्म और अधर्म द्रव्य सम्पूर्ण लोकमें व्याप्त हैं । यह बारहवें और तेरहवें सूत्रोंमें कहा है और जीवके प्रदेश उस उस समय के जीवके शरीरके प्रमाणसे चौड़े या छोटे होते हैं (यह सोलहवें सूत्रमे कहा है ) जीव जब केवलि समुद्घात अवस्था धारण करता है तब उसके प्रदेश सम्पूर्ण लोकाकाशमें व्याप्त होते हैं तथा समुद्घातके समय उस