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________________ अध्याय ५ सूत्र ८-१-१० ३६६ उस शरीरमे प्रदेश रहकर कितने ही प्रदेश बाहर निकलते है, बीचमें खण्ड नही पड़ते । ( ६ ) दूसरे समुद्घातका स्वरूप अध्याय २ सूत्र ४८-४९ की टीका में कहा जा चुका है और विशेष - बृहद् द्रव्यसंग्रह गा० १० की टीका में देखो । अब आकाशके प्रदेश बतलाते हैं। आकाशस्यानन्ताः ॥ ६ ॥ अर्थ - [ श्राकाशस्य ] आकाशके [ अनंता: ] अनन्त प्रदेश हैं । टीका ( १ ) आकाशके दो विभाग है - अलोकाकाश और लोकाकाश । उसमेसे लोकाकाशके असख्यात प्रदेश है । जितने प्रदेश धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकायके है उतने ही प्रदेश लोकाकाशके हैं फिर भी उनका विस्तार एक सरीखा है । लोकाकाश छहो द्रव्योंका स्थान है । इस बारेमे बारहवें सूत्रमें कहा है | आकाशके जितने हिस्सेको एक पुद्गल परमाणु रोके, उसे प्रदेश कहते हैं । ( २ ) दिशा, कोना, ऊपर, नीचे ये सब आकाशके विभाग हैं । अब पुद्गलके प्रदेशोंकी संख्या बताते हैं संख्येयाऽसंख्येयाश्च पुद्गलानाम् ॥ १० ॥ अर्थ – [ पुद्गलानाम् ] पुद्गलोंके [ संख्येयाऽसंख्येयाः च] संख्यात, असख्यात और अनन्त प्रदेश हैं । टीका ( १ ) इसमें पुद्गलोकी संयोगी पर्याय ( स्कंध ) के प्रदेश बताये हैं । प्रत्येक अणु स्वतंत्र पुद्गल । उसके एक ही प्रदेश होता है ऐसा ११ वें सूत्रमे कहा है ।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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