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मोक्षशास्त्र
मनका विषय
श्रुतमनिन्द्रियस्य ॥ २१ ॥
अर्थ -- [ श्रनिन्द्रियस्य ] मनका विषय [ श्रुतम् ] श्रुतज्ञानगोचर पदार्थ है अथवा, मनका प्रयोजन श्रुतज्ञान है ।
टीका
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१—द्रव्यमन प्राठ पाँखुड़ीवाले खिले हुए कमलके श्राकार है । [ देखो अध्याय २ सूत्र ११ की टीका ]
श्रवरण किये गये पदार्थका विचार करनेमें मन द्वारा जीवकी प्रवृत्ति होती है । कर्णेन्द्रियसे श्रवरण किये गये शब्दका ज्ञान मतिज्ञान है; उस मतिज्ञानपूर्वक किये गये विचारको श्रुतज्ञान कहते हैं । सम्यग्ज्ञानी पुरुषका उपदेश श्रवण करनेमें कर्णेन्द्रिय निमित्त है और उसका विचार करके यथार्थ निर्णय करनेमें मन निमित्त है । हितकी प्राप्ति श्रोर अहितका त्याग मनके द्वारा होता है । ( देखो अध्याय २ सूत्र ११ तथा १६ की टीका ) पहिले राग सहित मनके द्वारा आत्माका व्यवहार सच्चा ज्ञान किया जा सकता है और फिर ( रागको अंशतः प्रभाव करने पर ) मनके अवलम्बनके बिना सम्यग्ज्ञान प्रगट होता है, इसलिये सैनी जीव ही धर्म प्राप्त करनेके योग्य हैं । ( देखो अध्याय २ सूत्र २४ की टीका )
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२ – मनरहित (असैनी) जीवोंके भी एक प्रकारका श्रुतज्ञान होता है । ( देखो श्रध्याय १ सूत्र ११ तथा ३० की टीका )
उन्हें आत्मज्ञान नही होता इसलिये उनके ज्ञानको 'कुश्रुत' कहा जाता है |
३- श्रुतज्ञान जिस विपयको जानता है उसमें मन निमित है, किसी इन्द्रियके आधीन मन नही है । अर्थात् श्रुतज्ञानमे किसी भी इन्द्रिय का निमित्त नही है ॥२१॥