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अध्याय २ सूत्र २२-२३
इन्द्रियोंके स्वामी वनस्पत्यन्तानामेकम् ॥ २२॥ अर्थ-[ वनस्पति अंतानां ] वनस्पतिकाय जिसके अंतमें है ऐसे जीवोंके अर्थात् पृथ्वीकायिक जलकायिक अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवोके [एकम् ] एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है।
टीका
इस सूत्र में कथित जीव एक स्पर्शन इन्द्रियके द्वारा ही ज्ञान करते है। इस सूत्रमें इन्द्रियोके 'स्वामी' ऐसा शीर्षक दिया है, उसमें इन्द्रियके दो प्रकार है-जड़ इन्द्रिय और भावेन्द्रिय । जड़ इन्द्रियके साथ जीवका निमित्त-नैमित्तिक संबंध बतानेके लिए व्यवहारसे जीवको स्वामी कहा है, वास्तवमे तो कोई द्रव्य किसी द्रव्यका स्वामी है ही नही। और भावेन्द्रिय उस आत्माकी उस समयकी पर्याय है अर्थात् अशुद्धनयसे उसका स्वामी आत्मा है॥ २२॥ कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादिनामेकैकवृद्धानि॥ २३ ॥
अर्थ-[ कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादिनाम् ] कृमि इत्यादि, चीटी इत्यादि, भ्रमर इत्यादि तथा मनुष्य इत्यादिके [एकैक वृद्धानि] क्रमसे एक एक इन्द्रिय, बढ़ती अधिक अधिक है अर्थात् कृमि इत्यादिके दो, चींटी इत्यादिके तीन, भोंरा इत्यादिके चार और मनुष्य इत्यादिके पाँच इन्द्रियाँ होती हैं।
टीका प्रश्न-यदि कोई मनुष्य जन्मसे ही अंघा और वहरा हो तो उसे तीन इन्द्रिय जीव कहना चाहिये या पचेन्द्रिय ? ।
उत्तर-वह पंचेन्द्रिय जीव ही है, क्योंकि उसके पाँचों इन्द्रियां है किन्तु उपयोगरूप शक्ति न होनेसे वह देख और सुन नही सकता।
नोट:-इसप्रकार ससारी जीवोंके इन्द्रियद्वारका वर्णन हुमा, भव उनके मनद्वारका वर्णन २४ वे सूत्रमें किया जाता है ।। २३ ॥