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अध्याय ७ उपसंहार व्रत है-ऐसा श्री अमृतचन्द्राचार्यने तत्त्वार्थसारके चौथे अध्यायकी १०१ वीं गाथामें कहा है अर्थात् यों बतलाया है कि यह व्रत पुण्यास्रव ही है । गाथा १०३ में कहा है कि संसारमार्गमे पुण्य और पापके बीच भेद है किन्तु उस के बाद पृ० २५६ गाथा १०४ में स्पष्टरूपसे कहा है कि-मोक्षमार्गमें पुण्य और पापके बीच भेद (विशेष. पृथक्त्व ) नहीं है । क्योंकि ये दोनों संसारके कारण हैं-इस तरह बतलाकर आस्रव अधिकार पूर्ण किया है।
८. प्रश्न-व्रत तो त्याग है, यदि त्यागको पुण्यास्रव कहोगे किंतु धर्म न कहोगे तो फिर त्यागका त्याग धर्म कैसे हो सकता है ?
उत्तर-(१) व्रत यह शुभभाव है; शुभभावका त्याग दो प्रकारसे होता है-एक प्रकारका त्याग तो यह कि 'शुभको छोड़कर अशुभमे जाना' सो यह तो जीव अनादिसे करता आया है, लेकिन यह त्याग धर्म नही किंतु पाप है । दूसरा प्रकार यह है कि-सम्यग्ज्ञान पूर्वक शुद्धता प्रगट करने पर शुभका त्याग होता है, यह त्याग धर्म है । इसीलिये सम्यग्दृष्टि जीव स्वद्रव्य के आलंबन द्वारा व्रतरूप शुभभावका भी त्याग करके ज्ञानमे स्थिरता करते हैं, यह स्थिरता ही चारित्र धर्म है । इसप्रकार जितने अशमे वीतराग चारित्र बढ़ता है उतने अंशमें व्रत और अवतरूप शुभाशुभभावका त्याग होता है।
(२) यह ध्यान रहे कि व्रतमें शुभ अशुभ दोनोका त्याग नहीं है, परन्तु व्रतमे अशुभभावका त्याग और शुभभावका ग्रहण है अर्थात् व्रत राग है, और अव्रत तथा व्रत (अशुभ तथा शुभ ) दोनोका जो त्याग है सो वीतरागता है। शुभ-अशुभ दोनोंका त्याग तो सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्र पूर्वक ही हो सकता है।
(३) 'त्याग' तो नास्ति वाचक है; यदि वह अस्ति सहित हो तब यथार्थ नास्ति कही जाती है । अब यदि व्रतको त्याग कहे तो वह त्यागरूप नास्ति होने पर आत्मामे अस्तिरूपसे क्या हुआ ? इस अधिकारमे यह बतलाया है कि वीतरागता तो सम्यक् चारित्रके द्वारा प्रगट होती है और व्रत