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मोक्षशास्त्र
(१३) सम्यग्दर्शन का विषय ( लक्ष्यः ) तथाः स्वरूप
प्रश्न- सम्यग्दृष्टि अपने आत्माको कैसा मानता है ?
उत्तर - सम्यग्दृष्टि अपने आत्माको परमार्थतः त्रिकाल शुद्ध, ध्रुव, अखण्ड चैतन्यस्वरूप मानता है ।
प्रश्न - उस समयः जीवकी विकारी अवस्था. तो होती है, सो उसका क्या ?
उत्तर—विकासे अवस्था सम्यग्ज्ञानका विषय है इसलिये उसे ' सम्यग्दृष्टि जानता तो है, किन्तु सम्यग्दृष्टि का प्राश्रय अवस्था ( पर्याय-भेद ) पर नही होता; क्योंकि अवस्थाके श्राश्रयसे जीवके राग होता है और ध्रुवस्वरूपके आश्रयसे शुद्ध पर्याय प्रगट होती है ।
प्रश्न- – सम्यक्त्व ( श्रद्धा ) गुरण किसे कहते हैं ।
उत्तर — जिस गुरंगको निर्मलदशा प्रगट होनेसे अपने शुद्धात्माका प्रतिभांस ( यथार्थ प्रतीति ) हो; अखण्ड ज्ञायक स्वभावकी प्रतीति हो ।
( १ ) सच्चे देव-गुरु- धर्ममे दृढ प्रतीति, (२) जीवादि सात तत्त्वोंकी सच्ची प्रतीति, ( ३ ) स्व-परका श्रद्धान, ( ४ ) आत्म श्रद्धान इन लक्षरणोके श्रविनाभाव सहित जो श्रद्धान होता है वह निश्चय सम्यग्दर्शन है । उस पर्यायका धारक सम्यक्त्व ( श्रद्धा ) गुरण है, तथा सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन उसकी पर्यायें है )
(१४) 'तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' यह सूत्र निश्चय सम्यग्दर्शनके लिये है, ऐसा पं० टोडरमल्लजी मोक्षमार्ग प्र० अ० 8 मे कहते हैं; - ( १ ) जो तत्त्वार्थ श्रद्धान विपरीताभिनिवेश रहित जीवादि तत्त्वार्थोका श्रद्धानपना सो सम्यग्दर्शनका लक्षण है, सम्यग्दर्शन लक्ष्य है, सोई तत्वार्थ सूत्र विषै कह्या है—
तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥ १-२ ॥
बहुरि पुरुषार्थ सिद्ध्युपायके विषे भी ऐसे ही कह्या है ।