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अध्याय १ सूत्र २
(११) सम्यग्दर्शनके अन्यप्रकार से भेद
सभी सम्यग्दृष्टि जीवोंके आत्माकी - तत्त्वकी प्रतीति एकसी होती है, तथापि चारित्रदशाकी अपेक्षासे उनके दो भेद हो जाते हैं - (१) वीतराग सम्यग्दर्शन, (२) सराग सम्यग्दर्शन |
- जब सम्यग्दृष्टि जीव अपने श्रात्मामें स्थिर होता है तब उसके निर्विकल्प दशा होती है; तब रागके साथ बुद्धिपूर्वक सम्बन्ध नही होता । जीव की इस दशाको 'वीतराग सम्यग्दर्शन' कहा जाता है । और जब सम्यग्दृष्टि जीव अपनेमें स्थिर नही रह सकता तब रागमे उसका अनित्य-सम्बन्ध होता है, इसलिये उस दशा को 'सराग सम्यग्दर्शन' कहा जाता है । ध्यान रहे कि सम्यग्दृष्टि जीव ऐसा कभी नहीं मानता कि शुभ रागसे धर्म होता है या धर्ममे सहायता होती है ।
( १२ ) सराग सम्यग्दृष्टि के प्रशमादि भाव
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सम्यग्दृष्टिके राग के साथ संबंध होता है तब चार प्रकारके शुभ भाव होते हैं (१) प्रशम, (२) संवेग, (३) अनुकंपा, (४) श्रास्तिक्य | प्रशम — क्रोध, मान, माया, लोभ संबंधी रागद्वेषादि की मंदता । संवेग - संसार अर्थात् विकारी भाव का भय । अनुकम्पा - स्वयं और पर - सर्व प्राणियों पर दया का प्रादुर्भाव । आस्तिक्य- - जीवादि तत्त्वों का जैसा अस्तित्व है वैसा ही आगम और युक्तिसे मानना ।
सराग सम्यग्हष्टिको इन चार प्रकारका राग होता है, इसलिये इन चार भावोंको उपचारसे सम्यग्दर्शनका लक्षण कहा जाता है | जीवके सम्यग्दर्शन न हो तो वे शुभ भाव प्रशमाभास, सवेगाभास, मनुकम्पा - भास, और आस्तिक्याभास है, ऐसा समझना चाहिये । प्रशमादिक सम्यग्दर्शनके यथार्थ ( निश्चय) लक्षण नही हैं, उसका यथार्थ लक्षण अपने शुद्धात्माकी प्रतीति है ।