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अध्याय १ परिशिष्ट २
१५९ सम्यग्दर्शनका स्वरूप क्या है ? किसी शारीरिक क्रियासे सम्यग्दर्शन नहीं होता जड़ कर्मोसे भी नही होता, और अशुभ राग या शुभ रागके लक्षसे भी सम्यग्दर्शन नही होता । तथा 'मैं पुण्य-पापके परिणामोसे रहित ज्ञायक स्वरूप हूँ' ऐसा विचार भी स्वरूपका अनुभव करानेमें समर्थ नही है। मैं ज्ञायक हूँ 'ऐसे विचारमे उलझा कि भेदके विचारमें उलझ गया' किन्तु स्वरूप तो ज्ञातादृष्टा है उसका अनुभव ही सम्यग्दर्शन है। भेदके विचारमे उलझना सम्यग्दर्शनका स्वरूप नहीं है।
जो वस्तु है सो स्वतः परिपूर्ण स्वभावसे भरी हुई है । आत्माका स्वभाव परापेक्षासे रहित एकरूप है । मै कर्म-संबंधवाला हूँ या कर्मोके सम्बन्ध से रहित हूँ, ऐसी अपेक्षाओंसे उस स्वभावका प्राश्रय नही होता। यद्यपि अात्मस्वभाव तो प्रवन्ध ही है किन्तु 'मैं अबन्ध हूँ' ऐसे विकल्पको भी छोड़कर निर्विकल्प ज्ञातादृष्टा निरपेक्ष स्वभावका प्राश्रय करते ही सम्यग्दर्शन प्रगट होता है।
आत्माकी प्रभुताकी महिमा भीतर परिपूर्ण है, अनादिकालसे उस की सम्यक् प्रतीतिके बिना उसका अनुभव नहीं हुआ, अनादिकालसे पर लक्ष किया है किन्तु स्वभावका लक्ष नही किया। शरीरादिमे आत्माका सुख नही है, शुभरागमें भी सुख नही है, और 'मेरा स्वरूप शुभरागसे रहित है' ऐसे भेदके विचारमे भी आत्माका सुख नही है। इसलिये उस भेदके विचारमे उलझना भी अज्ञानीका कार्य है । इसलिये उस नयपक्षके भेदका आश्रय छोड़कर अभेद ज्ञाता स्वभावका आश्रय करना ही सम्यग्दर्शन है और उसीमे सुख है । अभेद स्वभावका आश्रय कहो या ज्ञाता स्वरूपका अनुभव कहो अथवा सुख कहो, धर्म कहो या सम्यग्दर्शन कहो-सब यही है।
विकल्पको रखकर स्वरूपानुभव नहीं हो सकता
अखंडानंद अभेद आत्माका लक्ष नयपक्षके द्वारा नही होता। नयपक्षकी विकल्परूपी मोटर चाहे जितनी दौड़ाई जाय,-'मैं ज्ञायक हूँ, अभेद हूँ, शुद्ध हूँ,' ऐसे विकल्प करे फिर भी वे विकल्पस्वरूप तकके आगन तक ही ले जायेगे, किन्तु स्वरूपानुभवके समय तो वे सब विकल्प छोड़ ही देने