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मोक्षशास्त्र पड़ेगे। विकल्पको साथ लेकर स्वरूपानुभव नही हो सकता। नयपक्षोंका ज्ञान स्वरूपके आँगन तक पहुँचनेमे बीच में आते है । "मै स्वाधीन ज्ञानस्वरूपी आत्मा हूँ, कर्म जड़ है, जड कर्म मेरे स्वरूपको नहीं रोक सकते, यदि मैं विकार करूं तो कर्म निमित्त कहलाते है किन्तु कर्म मुझे विकार नही कराते क्योकि कर्म और आत्मामें परस्पर अत्यंत अभाव होनेसे दोनों द्रव्य भिन्न हैं, वे कोई एक दूसरेका कुछ नही कर सकते। किसी अपेक्षा मैं जड़ का कुछ नही करता, और जड़ मेरा कुछ नहीं करते, जो राग-द्वेष होते हैं उन्हे भी कर्म नही कराता, तथा वे परवस्तुमे नही होते किन्तु मेरी अवस्था में होते है वे राग द्वेष मेरा स्वभाव नही है, निश्चयसे मेरा स्वभाव राग रहित ज्ञानस्वरूप है" इसप्रकार सभी पहलुओं (नयोंका) ज्ञान पहले करना चाहिये किन्तु इतना करने तक भी भेदका आश्रय है, भेदके आश्रयसे अभेद प्रात्मस्वरूपका अनुभव नहीं होता फिर भी पहिले उन भेदोको जानना चाहिये । जब इतना जान लेता है तब वह स्वरूपके आँगनतक पहुँचा हुआ कहलाता है । उसके बाद जब स्वसन्मुख अनुभव द्वारा अभेदका आश्रय करता है तब भेदका आश्रय छूट जाता है, प्रत्यक्ष स्वरूपानुभव होनेसे अपूर्व सम्यग्दर्शन प्रगट होता है । इसप्रकार यद्यपि स्वरूपोन्मुख होनेसे पूर्व नय. पक्षके विचार होते हैं किन्तु उस नयपक्षके कोई भी विचार स्वरूपानुभवमे सहायक नही है।
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का संबंध किसके साथ है ?
सम्यग्दर्शन निर्विकल्प सामान्य श्रद्धागुणकी शुद्ध पर्याय है, उसका मात्र निश्चय-अखंड स्वभावके साथ ही संबंध है। अखंड द्रव्य जो कि भंगभेद रहित है वही सम्यग्दर्शनको मान्य है; सम्यग्दर्शन पर्यायको स्वीकार नहीं करता, किन्तु सम्यग्दर्शनके साथ रहनेवाले सम्यग्ज्ञानका सम्बन्ध निश्चयव्यवहार दोनोके साथ है अर्थात् निश्चय-अखण्ड स्वभावको तथा व्यवहारमे पर्यायके भग-भेद होते हैं उन सबको सम्यग्ज्ञान जान लेता है।
सम्यग्दर्शन एक निर्मल पर्याय है, किन्तु 'मैं एक निर्मल पर्याय हूँ' इस प्रकार सम्यग्दर्शन स्वयं अपनेको नहीं जानता । सम्यग्दर्शनका अखण्ड विषय एक द्रव्य ही है, पर्याय नही।