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मध्याय १ परिशिष्ट २
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प्रश्नं- -- जब कि सम्यग्दर्शनका विषय अखण्ड है और वह पर्यायको स्वीकार नही करती तब फिर सम्यग्दर्शनके समय पर्याय कहाँ चली जाती है ? सम्यग्दर्शन स्वयं ही पर्याय है, क्या पर्याय द्रव्यसे पृथक् होगई ? उच्चर - सम्यग्दर्शनं का विषय अखण्ड द्रव्य ही है । सम्यग्दर्शन के • विषय द्रव्य - गुण - पर्यायके भेद नही है, द्रव्य - गुरण- पर्यायसे प्रभिन्न वस्तु ही सम्यग्दर्शनको मान्य है । ( अभिन्न वस्तुका लक्ष करने पर जो निर्मल पर्याय प्रगट होती है वहं सामान्ये वस्तुके साथं श्रभिन्न हो जाती है ) । सम्यग्दर्शन- रूप पर्यायको·भी · संम्यग्दर्शन स्वीकार नही करता, एक समयमे अभिन्न परिपूर्ण द्रव्य ही सम्यग्दर्शनको मान्य है, 'एक मात्र पूर्णरूप आत्माको - सम्यग्दर्शन प्रतीतिमें लेता है, परन्तु सम्यग्दर्शनके साथ प्रगट • होनेवाला सम्यग्ज्ञानं सामान्य विशेष सबको जानता है, सम्यक्ज्ञान पर्यायको और निमितंको भी जानता है । सम्यग्दर्शनको भी जाननेवाला सम्यक्ज्ञान - ही है |
श्रद्धा और ज्ञान कवं सम्यक् हुए १
औदयिक, श्रपशमिक, क्षायोपशमिक या क्षायिकभाव - कोई भी सम्यग्दर्शनका विषय नही है क्योंकि वें सब पर्याय है । सम्यग्दर्शनका विषय परिपूर्ण द्रव्य है, पर्यायी सम्यग्दर्शन स्वीकार नही करता, जब अकेली • वस्तुका लक्ष किया जाता है तब श्रद्धा सम्यक् होती है ।
प्रश्न --- उस समय होनेवाला सम्यक्ज्ञान कैसा होता है ?
उत्तर- - ज्ञानका स्वभाव सामान्य - विशेष सबको जानना है । जब - ज्ञानने संपूर्ण द्रव्यको, विकसित पर्यायकों और विकारको ज्यो का त्यो =जानकर, यह विवेक किया कि- 'जो परिपूर्ण स्वभाव है सो में हूँ और जो विकार रह गया है सो में नही हूँ' तब वह सम्यक् कहलाया । सम्यग्दर्शनरूप ' विकसित पर्यायको, सम्यग्दर्शनकी विषयभूत परिपूर्ण वस्तुको और अवस्था को कमीको इन तीनोंको सम्यग्ज्ञान यथावत् जानता है, अवस्थाकी स्वीकृति 'ज्ञानमे है । इसप्रकार सम्यग्दर्शन ऍक निश्चयको ही ( श्रभेदस्व- रूपको ही ) स्वीकार करता है, और सम्यग्दर्शनका अविनाभावी सम्यग्ज्ञान
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