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मोक्षशास्त्र कथित निश्चय, शुभ और अशुभ दोनोंसे बचाकर जीवको शुद्धभावमें-मोक्ष में ले जाता है, उसका दृष्टान्त सम्यग्दृष्टि है, जो कि नियमतः मोक्ष प्राप्त करता है।
(१६) शास्त्रोंमें दोनों नयोंको ग्रहण करना कहा है, सो कैसे ?
जैन शास्त्रोंका अर्थ करनेकी पद्धति जैन शास्त्रों में वस्तुका स्वरूप समझानेके दो प्रकार है-निश्चयनय और व्यवहारनय ।
(१) निश्चयनय अर्थात् वस्तु सत्यार्थरूपमें जैसी हो उसीप्रकार कहना; इसलिये निश्चयनयकी मुख्यतासे जहाँ कथन हो वहाँ उसे तो 'सत्यार्थ ऐसा ही है। यों जानना चाहिये; और
(२) व्यवहारनय अर्थात् वस्तु सत्यार्थरूपसे वैसी न हो किन्तु परवस्तुके साथका सम्बन्ध बतलानेके लिये कथन हो; जैसे-'धी का घड़ा !' यद्यपि घड़ा घीका नही किन्तु मिट्टीका है, तथापि घी और घड़ा दोनों एक साथ हैं, यह बतानेके लिये उसे 'घीका घड़ा' कहा जाता है । इसप्रकार जहाँ व्यवहारसे कथन हो वहाँ यह समझना चाहिये कि वास्तवमें तो ऐसा नहीं है, किन्तु निमिचादि बतलानेके लिये उपचारसे वैसा कथन है।'
दोनों नयोंके कथनको सत्यार्थ जानना अर्थात् 'इसप्रकार भी है और इसप्रकार भी है' ऐसा मानना सो भ्रम है। इसलिये निश्चय कथनको सत्यार्थ जानना चाहिये, व्यवहार कथनको नही; प्रत्युत यह समझना चाहिये कि वह निमित्तादिको बतानेवाला कथन है, ऐसा समझना चाहिये ।
इसप्रकार दोनों नयोके कथनका अर्थ करना सो दोनों नयोका ग्रहण है। दोनोंको समकक्ष अथवा आदरणीय मानना सो भ्रम है । सत्यार्थको ही आदरणीय मानना चाहिये। [ नय-श्रुतज्ञानका एक पहलू; निमित्त विद्यमान अनुकूल परवस्तु ]
( मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृष्ठ ३७२-३७३ के आधार से ) (१७) निश्चयाभासीका स्वरूपजो जीव आत्माके त्रैकालिक स्वरूपको स्वीकार करे, किन्तु यह