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अध्याय १ सूत्र ६
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स्वीकार न करे कि अपनी भूल के कारण वर्तमान पर्याय में निजके विकार है वह निश्चयाभासी है उसे शुष्कज्ञानी भी कहते हैं ।
(१८) व्यवहाराभासीका स्वरूप
प्रथम व्यवहार चाहिये, व्यवहार करते २ निश्चय (धर्म) होता है ऐसा मानकर शुभराग करता है परन्तु अपना त्रैकालिक ध्रुव (ज्ञायकमात्र ) स्वभावको नही मानता और न अन्तर्मुख होता है ऐसे जीवको सच्चे देवशास्त्र-गुरु तथा सप्त तत्त्वोंकी व्यवहार श्रद्धा है तो भी अनादिकी निमित्त तथा व्यवहार ( भेद - पराश्रय ) की रुचि नही छोड़ता और सप्त तत्त्वकी निश्चय श्रद्धा नही करता इसलिये वह व्यवहाराभासी है, उसे क्रिया-जड़ भी कहते है और जो यह मानता है कि शारीरिक क्रियासे धर्म होता है वह व्यवहाराभाससे भी अति दूर है ।
(१९) नयके दो प्रकार
नय दो प्रकारके हैं-'रागसहित' और 'रागरहित' । आगमका प्रथम अभ्यास करने पर नयोका जो ज्ञान होता है वह 'रागसहित' नय है । वहाँ यदि जीव यह माने कि उस रागके होनेपर भी रागसे धर्म नहीं होता तो वह नयका ज्ञान सच्चा है । किन्तु यदि यह माने कि रागसे धर्म होता है, तो वह ज्ञान नयाभास है । दोनों नयोका यथार्थ ज्ञान करनेके बाद जीव अपने पर्याय परका लक्ष छोडकर अपने त्रैकालिक शुद्ध चैतन्यस्वभाव की ओर लक्ष करे, स्वसन्मुख हो, तब सम्यग्दर्शनादि शुभभाव प्रगट होते है इसलिये वह नय रागरहित नय है, उसे 'शुद्ध नयका प्राश्रय अथवा शुद्धनय का अवलंबन' भी कहा जाता है; उस दशाको 'नयातिक्रांत' भी कहते है । उसीको सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान कहा जाता है, और उसीको 'आत्मानुभव' भी कहते है |
(२०) प्रमाणसप्तभंगी - नय सप्तभंगी
सप्तभंगीके दो प्रकार हैं । सप्तभंगका स्वरूप चौथे अध्यायके उपसंहार मे दिया गया है, वहांसे समझ लेना चाहिये । दो प्रकारकी सप्तभगीमेसेजिस सप्तभंगीसे एक गुरण या पर्यायके द्वारा सम्पूर्ण द्रव्य जाना जाय वह