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मोक्षशास्त्र 'प्रमाण-सप्तभंगी' है, और जिस सप्तभंगीसे कथित गुण अथवा पर्यायके द्वारा उस गुण अथवा पर्यायका ज्ञान हो वह 'नय-सप्तभंगी है। इस सप्तभंगीका ज्ञान होने पर प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है, और एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नही कर सकता-ऐसा निश्चय होने से, अनादिकालीन विपरीत मान्यता टल जाती है।
(२१) वीतरागी-विज्ञानका निरूपण
जैन शास्त्रोंमें अनेकान्तरूप यथार्थ जीवादि तत्त्वोंका निरूपण है तथा सच्चा (-निश्चय ) रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग बताया है, इसलिये यदि जीव उसकी पहिचान कर ले तो वह मिथ्यादृष्टि न रहे। इसमें वीतरागभावकी पुष्टिका ही प्रयोजन है, रागभाव (पुण्य-पापभाव ) की पुष्टिका प्रयोजन नही है, इसलिये जो ऐसा मानते हैं कि रागसे-पुण्यसे धर्म होता है वे जैन शास्त्रोके मर्मको नहीं जानते।
(२२) मिथ्यादृष्टिके नय
जो मनुष्य शरीरको अपना मानता है और ऐसा मानता है कि मैं मनुष्य हूँ, जो शरीर है वह मैं हूँ अथवा शरीर मेरा है अर्थात् जीव शरीर का कोई कार्य कर सकता है ऐसा माननेवाला जीव, आत्मा और अनन्त रजकणोंको एकरूप माननेके कारण ( अर्थात् अनंतके मिलापको एक माननेके कारण ) मिथ्यावृष्टि है और उसका ज्ञान भी यथार्थमे कुनय है। ऐसी मान्यता पूर्वक प्रवर्तना कि मैं मनुष्य हूँ यह उसका (मिथ्यादृष्टिका ) व्यवहार है इसलिये यह व्यवहार-कुनय है, वास्तवमे तो उस व्यवहारको निश्चय मानता है । जैसे 'जो शरीर है सो मैं हूँ' इस दृष्टान्तमें शरीर पर है, वह जीवके साथ मात्र एक क्षेत्रावगाही है तथापि उसको अपना रूप माना इसलिये उसने व्यवहारको निश्चय समझा । वह ऐसा भी मानता है कि "जो मैं हूँ सो शरीर है" इसलिए उसने निश्चयको व्यवहार माना है। जो ऐसा मानता है कि पर द्रव्योका मैं कर सकता हूँ और पर अपनेको लाभ नुकसान कर सकता है वह मिथ्यादृष्टि है-एकांती है।