________________
अध्याय १ सूत्र ६
३६
(२३) सम्यग्दृष्टि के नय
समस्त सम्यक् विद्याके मूलरूप अपने भगवान आत्माके स्वभावको प्राप्त होना, आत्मस्वभावकी भावनामें जुटना और स्व द्रव्यमें एकताके बलसे आत्म स्वभावमें स्थिरता बढाना सो सम्यक् अनेकतदृष्टि है । सम्यक्दृष्टि जीव अपने एकरूप - ध्रुव स्वभावरूप आत्माका आश्रय करता है यह उसका निश्चय - सुनय है और अचलित चैतन्य विलासरूप जो श्रात्म व्यवहार ( शुद्धपर्याय ) प्रगट होता है सो उसका व्यवहार सुनय है ।
(२४) नीतिका स्वरूप
प्रत्येक वस्तु स्वद्रव्य, स्व क्षेत्र, स्वकाल और स्व-भावकी अपेक्षासे है और परवस्तुके द्रव्य क्षेत्र काल भावकी अपेक्षासे वह वस्तु नही है, इसलिये प्रत्येक वस्तु अपना ही कार्य कर सकती है ऐसा जानना सो यथार्थ नीति है । जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहा गया अनेकान्त स्वरूप तथा प्रमाण और निश्चय व्यवहाररूप नय हो यथार्थं नीति है । जो सत्पुरुष अनेकान्त के साथ सुसंगत ( समीचीन ) दृष्टिके द्वारा अनेकतमय वस्तुस्थितिको देखते हैं वे स्याद्वादकी शुद्धिको प्राप्त कर - जानकर जिननीतिको अर्थात् जिनेश्वरदेव के मार्गको - न्यायको उल्लंघन न करते हुये ज्ञानस्वरूप होते हैं ।
नोट - (१) अनेकांतको समझानेकी रीतिको स्याद्वाद कहा है । (२) सम्यक् मनेकान्तको प्रमाण कहा जाता है, यह संक्षिप्त कथन है। वास्तवमें जो सम्यक् भनेकांत का ज्ञान है सो प्रमाण है, उसीप्रकार सम्यक् एकान्तको नय कहते हैं वास्तवमे जो सम्यक् एकान्तका ज्ञान है सो नय है ।
(२५) निश्चय और व्यवहारका दूसरा
अर्थ
अपना द्रव्य और अपनी शुद्ध या अशुद्ध पर्याय बतानेके लिये भी निश्चय प्रयुक्त होता है; जैसे सर्व जीव द्रव्य अपेक्षासे सिद्ध परमात्मा समान है आत्माकी सिद्ध पर्यायको निश्चय पर्याय कहते हैं और आत्मामें होनेवाले विकारीभावको निश्चय बंध कहा जाता है |