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- मोक्षशास्त्र
स्व-द्रव्य या पर्यायको जब निश्चय कहा जाता है तब आत्माके साथ पर द्रव्यका जो संबंध होता है उसे प्रात्माका कहते है, यही व्यवहार हैउपचार कथन है। जैसे जड़कर्मको आत्माका कहना व्यवहार है; जड़ कर्म परद्रव्यकी अवस्था है, आत्माकी अवस्था नही है । तथापि उन जड़कर्मको आत्माका कहते है, यह कथन निमित्त नैमित्तिक संबंध बतानेके लिये है अतः व्यवहार नय है-उपचार कथन है ।
इस अध्यायके ३३ वे सूत्र में दिये गये सात नय, आत्मा तथा प्रत्येक द्रव्यमें लागू होते है इसलिये उन्हे आगम शास्त्रमें निश्चय नयके विभागके रूपमे माना जाता है। इन सात नयोमेंसे पहले तीन द्रव्याथिक नयके विभाग हैं और बादके चार पर्यायार्थिक नयके विभाग हैं, किंतु वे सात नय भेद है इसलिये, और उनके आश्रयसे राग होता है और वे राग दूर करने योग्य है इसलिये अध्यात्म शास्त्रोंमें उन सबको व्यवहार नयके उप विभागके रूपमें माना जाता है ।।
आत्माका स्वरूप समझनेके लिये नय विभाग
शुद्ध द्रव्याथिक नयकी दृष्टिसे आत्मा त्रिकाल शुद्ध चैतन्य स्वरूप हैयहाँ (त्रिकाल शुद्ध कहनेमे) वर्तमान विकारी पर्याय गौण की गई है । यह विकारी पर्याय क्षणिक अवस्था होनेसे पर्यायाथिक नयका विषय है और जब वह विकारी दशा आत्मामें होती है ऐसा बतलाना हो तो तब वह विकारी पर्याय अशुद्ध द्रव्याथिक नयका विषय होता है और जब ऐसा बतलाना हो कि यह पर्याय पर द्रव्यके सयोग से होती है तब वह विकारी पर्याय व्यवहार नयका विषय होती है।
यहाँ यह समझना चाहिये कि जहाँ आत्माकी अपूर्ण पर्याय भी व्यवहारका विषय है वहाँ व्यवहारका अर्थ भेद होता है।।
निश्चयनय और द्रव्यार्थिकनय तथा व्यवहारनय और पर्यायार्थिक नय भिन्न भिन्न अर्थमें भी प्रयुक्त होते हैं
ऐसा ज्ञान करना कि रत्नत्रय जीवसे अभिन्न है सो द्रव्याथिकनयका