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अध्याय १ सूत्र ६ पर्यायार्थिक नयको-व्यवहार, अशुद्ध, असत्यार्थ, अपरमार्थ, अभू-- तार्थ, परावलम्बी, पराश्रित, परतंत्र, निमित्ताधीन, क्षणिक, उत्पन्नध्वंसी, भेद और परलक्षी नय कहा जाता है ।
(१२) सम्यग्दृष्टिके दूसरे नाम
सम्यग्दृष्टिको द्रव्यदृष्टि, शुद्ध दृष्टि, धर्मदृष्टि, निश्चयदृष्टि, परमार्थदृष्टि और अन्तरात्मा आदि नाम दिये गये हैं।
(१३) मिथ्यादृष्टिके दूसरे नाम
मिथ्यादृष्टिको पर्यायबुद्धि, संयोगीबुद्धि, पर्यायमूढ, व्यवहारदृष्टि, व्यवहारमूढ, संसारदृष्टि, परावलंबी बुद्धि, पराश्रितदृष्टि और बहिरात्मा आदि नाम दिये गये हैं। (१४) ज्ञान दोनों नयोंका करना चाहिये, किन्तु उसमें परमा
र्थतः आदरणीय निश्चय नय है,-ऐसी श्रद्धा करना
चाहिये।
व्यवहारनय स्वद्रव्य, परद्रव्य अथवा उसके भावोको या कारणकार्यादिको किसीका किसीमें मिलाकर निरूपण करता है, इसलिये ऐसे ही श्रद्धानसे मिथ्यात्व होता है, अतः उसका त्याग करना चाहिये ।
निश्चयनय स्वद्रव्य-परद्रव्यको अथवा उसके भावोंको या कारणकार्यादिको यथावत् निरूपण करता है, तथा किसीको किसीमे नही मिलाता इसलिये ऐसे ही श्रद्धानसे सम्यक्त्व होता है, अतः उसका श्रद्धान करना चाहिये । इन दोनों नयोंको समकक्षी (-समान कोटिका ) मानना सो मिथ्यात्व है।
(१५) व्यवहार और निश्चयका फल__ वीतराग कथित व्यवहार, अशुभसे बचाकर जीवको शुभभावमे ले जाता है। उसका दृष्टान्त द्रव्यलिंगी मुनि है। वे भगवानके द्वारा कथित व्रतादिका निरतिचार पालन करते है, इसलिये शुभभावके कारण नववे गैवेयक जाते हैं, किन्तु उनका संसार बना रहता है । और भगवानके द्वारा