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मोक्षशास्त्र
ही जीव भूख आदि लगने पर उसके नाशके उपाय न करनेको परीपह सहना मानते हैं किन्तु यह मिथ्या मान्यता है । भूख प्यास श्रादिके दूर करने का उपाय न किया परन्तु अन्तरंगमें क्षुधादि श्रनिष्ट सामग्री मिलनेसे दुखी हुआ तथा रति आदिका कारण ( इष्ट सामग्री ) मिलनेसे सुखी हुआ ऐसा जो सुखदुखरूप परिणाम है वही आर्त रौद्र ध्यान है, ऐसे भावोसे संवर कैसे हो और उसे परीषहजय कैसे कहा जाय ? यदि दुःखके कारण मिलने पर दुःखी न हो तथा सुखके कारण मिलनेसे सुखी न हो, किन्तु ज्ञेयरूपसे उसका जाननेवाला ही रहे तभी वह परीषह जय है । ( मो० प्र० )
परीषह बाईस भेद चुत्पिपाशाशीतोष्ण दंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिपद्याशय्याको शवधयाचनाऽलाभरोगतृणस्पर्श मलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाऽज्ञानाऽदर्शनानि ॥६॥
अर्थ - [ क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनान्या रतिस्त्रीचर्या निषद्याशय्याक्रोशवघयाचनाऽलाभ रोग तृणस्पर्शमलसत्कार पुरस्कारप्रज्ञाऽज्ञानाऽदर्शनानि ] क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नाग्न्य, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, नृणस्पर्श, मल, सत्कारपुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन ये बाईस परीषह हैं ।
टीका
१- आठवें सूत्रमें आये हुये 'परिसोढव्याः' शब्दका अध्याहार इस सूत्र में समझना; इसीलिये प्रत्येक शब्द के साथ 'परिसोढव्याः' शब्द लागू करके अर्थ करना अर्थात् इस सूत्रमें कही गई २२ परीषह सहन करने योग्य हैं । जहाँ सम्यग्दर्शन - ज्ञानपूर्वक चारित्रदशा हो वहीं परीषहका सहन होता है अर्थात् परीषह सही जाती है । मुख्यरूपसे मुनि अवस्थामें परीषहं जय होती है । अज्ञानीके परीषह जय होती ही नहीं क्योंकि परीषह - सम्यग्दर्शन पूर्वक वीतराग भाव है ।
-जय तो